न रक्त बहे न पानी ......... क्योंकि ...



                                      विश्व जल दिवस पर विशेष
                                        न रक्त बहे न पानी ......... क्योंकि ....

    एक जीवन प्रदान करता है ओर दूसरा उस जीवन का पोषण करता है. एक हमारी रगों में बहता है, तो दूसरा हमारी पृथ्वी पर बह कर उसे रहने योग्य बनाता है. परन्तु हाय रे दुर्भाग्य! हम दोनों में से एक को भी संभाल कर नहीं रख पा रहे हैं. हमारे नेताओं ने देशभक्ति के ऐसे नारों को देने में कोई कमी नहीं की है जैसे, "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा" ; या फिर "खून का बदला खून". एक शांतप्रिय एवम् अहिंसक व्यक्ति के लिए हम बड़ी आसानी से यह मान लेते हैं कि उसकी रगों में खून की जगह पानी बहता है. प्रसिद्ध साहित्यकार बर्नार्ड शा ने सत्य ही कहा है कि " यदि चाहते हो तो अवश्य युद्ध लड़ो, पर युद्ध का गुणगान मत करो".
    परन्तु संभावना तो यह है कि यदि तीसरा विश्व युद्ध लड़ा गया तो यह लड़ाई पानी के मुद्दे को लेकर ही होगी. अर्थात, पानी अथवा उसके अभाव के कारण ही खून की नदियाँ बहेंगी.

    हाल ही में, थाईलेंड की राजधानी बैंकॉक में, बौध भिक्षुओं समेत हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने सरकार के विरुद्ध अपना आक्रोश प्रदर्शित करने का एक नया तरीका निकाला. उनके नेताओं ने प्रत्येक स्वयंसेवी के शरीर से थोड़ा थोड़ा खून निकाल कर लगभग १००० लीटर रक्त एकत्र कर के सरकारी सचिवालय के मुख्य द्वार पर बहा दिया. उनका कहना था कि इस प्रकार सारे देश वासियों का खून एक साथ मिल कर प्रजातंत्र की लड़ाई में शामिल होगा. ये प्रदर्शनकारी, थाईलेंड में शीघ्र ही चुनाव कराने की मांग कर रहे हैं.

    थाईलेंड के बारे में तो मुझे पता नहीं, पर हमारे भारत में तो रोगियों के लिए सदैव ही अस्पतालों में स्वस्थ खून की कमी बनी रहती है. लोग रक्त दान करने से कतराते है. ओर बैंकॉक में इतना सारा रक्त सड़कों पर यूँ ही बहा दिया गया. यदि वो किसी का जीवन बचाने के काम आता तो प्रजातंत्र की वास्तविक सेवा हो सकती थी. मेरे विचार से तो, सड़कों पर खून बहाने के बजाय, हम सभी को अपने जन्मदिन, तथा अन्य शुभ अवसरों पर रक्त दान करके मानवीय संबंधों को सुद्रिड करना चाहिए.

    इसी प्रकार पानी बहाकर उसका अपव्यय करना भी अक्षम्य है. यह हमारे ही दुष्कर्मों का फल है कि पानी आज एक बहुमूल्य वास्तु बन गया है, तथा दिन प्रतिदिन वह दुष्प्राप्य होता जा रहा है. मुझे याद है कि मेरे बचपन में नलों २४ घंटे पानी आता था. अब दिन भर में दो या तीन घंटे की पतली धार भी एक अजूबे से कम नहीं मानी जाती. भारत के कई शहरों में गरमी के दिनों में तो कभी कभी स्थिति इतनी भयंकर हो जाती है कि सरकारी टैंकरों के द्वारा सप्ताह में एक या दो बार ही जल आपूर्ति की जाती है. लोग पीने के लिए  ही नहीं वरन अन्य दैनिक ज़रूरतों के लिए भी पानी खरीदने के लिए विवश हो जाते हैं. सार्वजनिक जल व्यवस्था तो अब मृत प्राय हो चुकी है, और निजी हाथों में स्थानांतरित हो रही है. जन साधारण को निजी पानी के पम्प, ट्यूबवेल एवम् हैण्ड पम्प लगवाने पद रहे हैं, और वे इसका भरपूर दुरुपयोग भी कर रहे हैं.

    भले ही हम दिन प्रतिदिन बढ़ती अपनी पानी की आवश्यकता को कम करने में असमर्थ हों, परन्तु उसका दुरुपयोग तो रोक ही सकते हैं. घरों में जब पानी के टुल्लू पम्प देर तक चलते हैं तो छतों पर रखी हुई पानी की टंकियों के अधिप्रवाह से जलधारा नालियों में ही समाहित होती है, और मेरा दिल दर्द से भर उठता है. क्या कभी हमने यह सोचा है कि सिर्फ हमारी लापरवाही के कारण सैकड़ों लीटर पानी बर्बाद हो जाता है. एक और पीने के लिए भी पानी दुर्लभ है, तो दूसरी ओर वह सड़कों पर बह कर बर्बाद हो रहा है. यदि टंकी भरने पर पम्प को तुरंत बंद कर दिया जाय तो पानी का यह आपराधिक अपव्यय रोका जा सकता है.
      विश्व भर में प्रति वर्ष १,५०० क्यूबिक किलोमीटर पानी बर्बाद होता है. इस पानी का सदुपयोग करके इसे खेती करने एवम् ऊर्जा उत्पन्न करने के काम में लाया जा सकता है, परन्तु प्राय: ऐसा होता नहीं. विशेषकर विकासशील देशों में अस्सी प्रतिशत गंदगी पानी में मिल कर उसे पीने के योग्य बना देती है. इन सबके चलते पीने एवम् खेती के पानी की आपूर्ति दांव पर लगी है, तथा पर्यावरण एवम् मानव स्वास्थ्य भी खतरे में है. इतना सब होते हुए भी जल-प्रदूषण अभी भी कोई आवश्यक मुद्दा नहीं है. विश्व के लगभग १.१ अरब व्यक्तियों को पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है, और वे असुरक्षित पेयजल साधनों पर निर्भर हैं.

    इस निराशाजनक परिदृश्य को ध्यान में रखता हुए यू.एन. वाटर ने विश्व जल दिवस २०१० की विषय वस्तु रक्खी है " स्वस्थ विश्व के लिए स्वच्छ जल". प्रति वर्ष २२ मार्च को मनाये जाने वाले इस दिवस का इस बार का मुख्य उद्देश्य है स्वच्छ पानी की गुणवत्ता के बारे में राजनैतिक स्तर पर जागरूकता पैदा करना, ताकि जल की मात्र के साथ साथ उसकी स्वच्छता पर भी ध्यान दिया जाय.

    शुद्ध वायु के समान, शुद्ध पेयजल भी हमारी मांग या आवश्यकता नहीं वरन मौलिक अधिकार होना चाहिए. परन्तु यह खेद का विषय है कि जल भी एक व्यापारिक पदार्थ बन कर रह गया है. इसका कारण है राजनैतिक इच्छा का अभाव और नागरिक उदासीनता का बाहुल्य. बहु राष्ट्रीय कंपनियों के अनवरत विज्ञापनी प्रचार के चलते, हम बोतलबंद पानी खरीद कर पीने में अपनी शान समझते हैं. मिनरल वाटर (आखिर यह वास्तव में होता क्या है?) का नाम आज बच्चे बच्चे की जुबां पर है.

    यूनाईटेड नेशंस एवम् अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं जहां सरकारी स्तर पर पेयजल समस्या का हल ढूँढने में लगी हुयी हैं, वहां आप और हम अपने दैनिक जीवन में कुछ और संवेदनशील और समझदार तो हो ही सकते हैं. हम इतना तो कर ही सकते हैं कि ब्रश करते समय नल बंद कर दें; घर के टपकते हुए नलों की मरम्मत करवा लें; पानी की टंकी भर जाने पर पम्प बंद कर दें; बाथरूम में शावर का इस्तेमाल कम से कम करें; बगीचे में रात भर पानी देने का पाइप खुला न छोड़ दें; और घर के कूड़े को नदी अथवा तालाब में न प्रवाहित करें. ऐसा करने भर से पानी के अपव्यय को काफी हद तक रोका जा सकता है.

    आज विश्व जल दिवस के अवसर पर आइये हम यह प्रण करें कि पानी के कारन खून की नदियाँ नहीं बहने देंगे, और खून को सड़कों पर नहीं बहने देंगे.
    जय हिंद.

शोभा शुक्ला
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस