स्वस्थ्य फेफड़े पर जागरुकता बढ़ाने के लिये समर्पित वर्ष २०१० में विश्व तम्बाकू निषेध दिवस 'द यूनियन' के लिये केंद्रीय बिंदु है

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डॉ एहसान लतीफ़
वर्तमान निदेशक, तम्बाकू नियंत्रण, द यूनियन
फ़ोन: (+४४) १३१ २२६ २४२८
ईमेल: elatif@theunion.org

स्वस्थ्य फेफड़े पर जागरुकता बढ़ाने के लिये समर्पित वर्ष २०१० में विश्व तम्बाकू निषेध दिवस ' यूनियनके लिये केंद्रीय बिंदु है

स्वस्थ्य फेफड़े पर जागरुकता बढ़ाने के लिये समर्पित वर्ष २०१० में, विश्व तम्बाकू निषेध दिवस, The International Union Against Tuberculosis and Lung Disease (द यूनियन) के लिये केंद्रीय बिंदु है. शोध के अनुसार, फेफड़े के रोगों की वजह से होने वाली ५० प्रतिशत मृत्यु तम्बाकू सेवन से जुडी हुई हैं.

डॉ नील्स बिल्लो, जो द यूनियन के निदेशक हैं और फोरम ऑफ़ इंटरनैशनल रेसपिराट्री सोसाइटीस (ऍफ़.आई.आर.एस) के अध्यक्ष भी हैं, ने कहा कि "विश्व स्तर पर फेफड़े के स्वास्थ्य को बेहतर करने के लिये तम्बाकू नियंत्रण को सशक्त करना सबसे महत्त्वपूर्ण एकमात्र कदम है." ऍफ़.आई.आर.एस ही स्वस्थ्य फेफड़े पर जागरुकता बढ़ाने के लिये समर्पित वर्ष २०१० का प्रायोजक है. डॉ नील्स बिल्लो ने कहा कि "जिन मृत्यु से बचाव मुमकिन है, तम्बाकू उनका सबसे बड़ा कारण है. विश्व में तम्बाकू की वजह से ५० लाख से अधिक पुरुष, महिलाएं और बच्चों की मृत्यु होती है."

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, यदि तम्बाकू नियंत्रण को प्रभावकारी नहीं बनाया गया, तो २०३० तक तम्बाकू से होने वाली मृत्यु का दर ५० लाख से बढ़ कर ८० लाख हो जायेगा, और आने वाले ५० सालों में ५२ करोड़ लोगों की मृत्यु तम्बाकू से होगी.

द यूनियन, पिछले २५ सालों से निरंतर तम्बाकू नियंत्रण पर कार्यवत रही है, और विभिन्न देशों में, जो धूम्रपान रहित नीतियाँ लागू करना चाहते हैं, स्वास्थ्यकर्मियों को तम्बाकू नशा उन्मूलन में प्रशिक्षित करना चाहते हैं, और समाज में तम्बाकू से होने वाले तम्बाकू जनित कुप्रभावों के प्रति जागरुकता बढ़ाना चाहते हैं, ऐसे देशों में द यूनियन सक्रिय है और तकनीकि सहायता, शिक्षा और शोध सम्बंधित कार्य करती आई है.

- २००७ से, द यूनियन, 'Bloomberg Initiative to reduce tobacco use' (तम्बाकू सेवन घटाने के लिये ब्लूमबर्ग पहल) की भी पार्टनर है, जो ३७५ मिलियन अमरीकी डालर का ब्लूमबर्ग फिलान्थ्रोपीस द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त कदम है.

- अपने छेत्रीय कार्यालयों के माध्यम से, यूरोप, दक्षिण एवं केंद्रीय अम्रीका, दक्षिण-पूर्वी एशिया, मध्य-पूर्वी राष्ट्रों, और एशिया-पसिफिक में द यूनियन सक्रिय हैं और इन छेत्रों में १४ सबसे बड़े तम्बाकू सेवन करने वाले देशों की सरकारों के साथ प्रभावकारी तम्बाकू नियंत्रण नीतियाँ बनाने के लिये कार्यवत है.

- २००७ से द यूनियन, जो ब्लूमबर्ग पहल आर्थिक सहायता कार्यक्रम की सह-व्यवस्थापक है, ने ७३ स्वयं सेवी संस्थाओं को और २७ देशों की सरकारों को आर्थिक सहायता प्रदान की है जिससे कि इन देशों में तम्बाकू नियंत्रण सशक्त हो सके.

- २००७ से १४ देशों में निरंतर तकनीकि और प्रभंधन से जुड़े हुए कोर्सों को स्थापित करने का काम जिससे कि तम्बाकू नियंत्रण संस्थाओं की योग्यता बढ़ सके, द यूनियन ने बड़ी कुशलता से किया है.

- तम्बाकू नियंत्रण के लिये समर्पित लोग, द यूनियन, की वेबसाइट से अनेक जानकारी और अन्य प्रकाशन नि:शुल्क प्राप्त कर सकते हैं: www.tobaccofreeunion.org. इनमें शामिल हैं: धूम्रपान रहित स्वास्थ्य व्यवस्था स्थापित करने के लिये तकनीकि गाइड, स्कूल एवं खेल से सम्बंधित कार्यक्रम, धूम्रपान रहित शहरों पर गाइड,  अर्थ-व्यवस्था से जुडी रपट. फैक्टशीट, और अन्य जानकारी.

विश्व स्वास्थ्य संगठन इस साल विश्व तम्बाकू निषेध दिवस २०१०, 'जेंडर एवं तम्बाकू: महिलों को निशाने पर रख कर होने वाली तम्बाकू मार्केटिंग' के केंद्रीय विचार पर मना रहा है.

डॉ नील्स बिल्लो ने कहा कि "अनेकों देशों में, महिलाओं ने परंपरागत तम्बाकू सेवन नहीं किया है, और तम्बाकू उद्योग उन्हें ऐसे-बाज़ार-जिसे-भुनाया-नहीं-गया-है की तरह निशाने पर ले रही है."

डॉ नील्स बिल्लो ने कहा कि "महिलाओं में तम्बाकू सेवन बढ़ाने के इन प्रयासों को रोकने के लिये और तम्बाकू-जनित-रोगों की महामारी को पलटने के लिये द यूनियन समर्पित है."

हालाँकि, फिलहाल महिलाओं में धूम्रपान का अनुपात सिर्फ २० प्रतिशत है, तम्बाकू महामारी का खतरा महिलाओं पर बढ़ता ही जा रहा है. तम्बाकू उद्योग भ्रामक तरीकों से तम्बाकू सेवन को मार्केट करता है, और तम्बाकू सेवन को ग्लैमर, महिला स्वतंत्रता और फैशन से जोड़ता है. इसीलिए जहां कुछ देशों में तम्बाकू सेवन का दर पुरुषों में कम हो रहा है, वहीँ महिलाओं में तम्बाकू सेवन बढ़ रहा है. तम्बाकू चबाना, शीशा और तम्बाकू सेवन के अन्य तरीके भी महिलाओं में तम्बाकू सेवन को बढ़ा रहे हैं.

विश्व स्तर पर, महिलाएं पर परोक्ष धूम्रपान का खतरा भी मंडरा रहा है. परोक्ष धूम्रपान से होने वाली ६४% मृत्यु महिलाओं में ही होती है.

डॉ एहसान लतीफ़, जो द यूनियन के तम्बाकू नियंत्रण विभाग के वर्तमान निदेशक हैं, उनका कहना है कि "महिलाओं को तम्बाकू महामारी से बचाने के लिये यह जरूरी है कि सरकारें तम्बाकू विज्ञापन पर प्रतिबन्ध लगायें, और धूम्रपान रहित नीतियों को लागू करें. द यूनियन प्रभावकारी तम्बाकू नियंत्रण के लिये अन्य नीतियों का भी समर्थन करता है जिसमे हर तम्बाकू उत्पाद पर कर बढ़ाना, चित्रमय चेतावनी द्वारा तम्बाकू जनित कुप्रभावों की जानकारी देना आदि शामिल हैं."

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस २०१० पर अधिक जानकारी के लिये, कृपया यहाँ क्लिक करें: http://www.who.int/tobacco/wntd/2010/announcement/en/index.html

तम्बाकू महामारी एवं तम्बाकू नियंत्रण पर अधिक जानकारी के लिये:
- विश्व स्वास्थ्य संगठन की विश्व तम्बाकू महामारी रपट २००९
www.who.int/tobacco/mpower/2009/en/index.html
- द तम्बाकू अटलस, www.TobaccoAtlas.org
- द यूनियन द्वारा तम्बाकू नियंत्रण पर जागरुकता सामग्री:
www.tobaccofreeunion.org

दलित और साम्राज्यवाद

दलितों के साम्राज्यवाद से रिश्ते के प्रश्न पर 1857 याद आता है। ऐसा नहीं है कि दलित समाज हमेशा दया का पात्र था, साम्राज्यवाद के प्रतिरोध की उसकी कोई परंपरा नहीं है।मातादीन भंगी ने सिपाही मंगल पांडे से पानी पीने का लोटा माँगने का साहस दिखाया था। मंगल पांडे के फटकारने पर मातादीन ने उसकी खबर ली थी, बहुत जल्दी तुम्हारी पंडिताई निकल जाएगी, जब तुम दाँत से सुअर और गाय की चर्बी से बने कारतूस काटकर बंदूक से चलाओगे। सिपाहियों को भड़काने के जुर्म में मातादीन भंगी को फाँसी दे दी गई। उपर्युक्त घटना में मातादीन भंगी और मंगल पांडे वर्ण व्यवस्था के स्तर पर आमने-सामने खड़े दिखायी देते हैं-परस्पर विरोधी। इसके बावजूद मातादीन भंगी का फाँसी पर चढ़ना और विद्रोह के बाद मंगल पांडे का फाँसी पर चढ़ना साम्राज्यवाद के दौर में एक नियति की सूचना है।

मातादीन भंगी ही नहीं, इतिहासकारों के हवाले से झलकारी बाई, लोचन मल्लाह, महावीरी देवी और पासी जाति के वीरों की पेरणादायक भूमिका का पता चलता है। ऐसा नहीं है कि उनकी 1857 के योद्धाओं से कोई निजी हमदर्दी थी, वस्तुत: वे स्वाधीनता संग्राम में अपना एक नया भविष्य खोज रहे थे। यह सिलसिला महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आंदोलन में भी बना हुआ था। यह सही है कि ज्योतिबा फुले ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम का समर्थन नहीं किया, क्योंकि ब्रिटिस राज में ब्राहमण दलितों का उत्पीड़न कर रहे थे। फुले सोचते थे कि इसकी क्या गारंटी है कि नाना राव पेशवा, जो महाराष्ट्र में इस संग्राम के नेता हैं, विदेशी शाशकों के जाने के बाद ब्राहमण होने के अधिकार से यही जुल्म नहीं करेंगे । उनको लगता था कि ब्राह्मणों के शोषण शासन से बिर्टिश शासन बेहतर है। दयालु बिर्टिश शासन ने “शुद्रो को शिक्षित करने में अग्री निभाई है। इस तरह महाराष्ट्र के समाज सुधारक फुले का नजरिया हिन्दी पटटी के दलित शहीदों से भिन्न था। उनके मन में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नेतृत्व के प्रति जो संदेह था, वह स्वाभाविक था। इसके साथ यह भी कहा जाना चाहिए कि भीषण साम्राज्यवादी दमन के दौर में दलितों की सामाजिक मुक्ति की परियोंजना को यदि फुले अंग्रेजी राज की आलोचना से थोड़ा भी जोड़ते हैं तो यह बड़ी बात है ।

फुले ने ”किसान का कोड़ा“ में दलित सोच को कई मुद्दों पर साम्राज्यवाद-विरोध से जोड़ा। “किसान“ दरअसल ”दलित“ से बड़ी कैटेगरी है, इसमें फुले बेहिचक प्रवेश करते हैं। उन्हें इसका दर्द है, “ किसान खेत छोड़कर जहां जीविकार्जन हो सके, वहां जा रहे हैं।”(महात्मा ज्योतिबा फुले रचनावली) दूसरी तरफ, अंग्रेजी शासन की दशा है, ”सरकारी गोरे अफ़सर आमतौर पर ऐशो -आराम में मदहोश रहते हैं। इस वजह से उनको किसानों की वास्तविक स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए फुरसत ही नहीं मिलती।“ फुले चनौती देते हैं कि यदि ब्रिटिश सरकार ने फिजूलखर्ची बंद करके दुर्बल शुद्र किसानों के विद्यादान का व्यापक प्रबंध नहीं किया, इस जुल्म का अंजाम अच्छा न होगा। फुले अंग्रेजी शासन को “ न्यायप्रिय सरकार ” दयालु कह कर संबोधित करते हैं। वह उसके साम्राज्यवादी शोषण की भी शिनाख्त करते हैं, जो किसान सभी देशवाशियों को सुख के आधार हैं, उनके इतने बुरे हाल हैं। उनको समय पर पेट भर रोटी और तन भर कपड़ा भी नहीं मिलता। उनकी गरदन पर सरकारी लगान देने की तलवार लटकी रहती है। उनकी दुर्गति को साहब लोगों का शिकारी कुत्ता भी नहीं सूँघता। (वही) ब्राह्मणों के पांखड और निर्दयता के साथ किसानों के शोषण के संदर्भ में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना फुले की बहुआयामिता का चिह्न है।

अंबेडकर का दलितों के लिए संघर्ष अंग्रेजों की औपनिवेश -सामंती व्यवस्था से भारतीय जनता के संघर्ष का एक अंग था। वह कभी नहीं चाहते थे कि अंग्रेज भारत पर राज करें । निष्चय ही हम स्वाधीनता आंदोलन और दलितों के बीच दूरी पैदा करने के साम्राज्यवादी प्रयत्नों से वाकिफ़ है। अंग्रेजी राज के एक अफ़सर सर लीपेल ग्रिफिन का विचार था कि विद्रोह को फैलने से रोकने के लिए जाति प्रथा एक बहुत अच्छी चीज है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन जब उभार पर था, यह स्वाभाविक था कि अंग्रेज भारत के सामाजिक अंतर्विरोधों का अपने हित में अधिक से अधिक उपयोग करते। उतना ही यह भी स्वाभाविक था कि दलित हिन्दू वर्ण व्यवस्था को चुनौती देते, क्योंकि इसके बिना वे पूरी तरह स्वाधीन न हो पाते । हिन्दू समाज व्यवस्था की आलोचना और मनुवाद से विद्रोह किये बिना दलितों के लिए भारत की आजादी का ज्यादा मतलब न था, जिस तरह महाजनी- जमींदारी व्यवस्था से संघर्ष किये बिना किसानों के लिए भारत की आजादी का मतलब न था।

वह मूर्ख बूढ़ा जिसने पहाड़ों को हटा दिया

सुभाष गाताडे

उनके पास सम्पत्ति थी, लेकिन उनकी आत्मा नहीं थी, इसलिये पहाड़ वैसे ही बना रहा, उस पर खरोंच तक नहीं आयी। दरअसल, आप पहाड़ को तोड़ना चाहते हैं। तो आपको पहाड़ से छह फीट ऊँचा होना पड़ेगा। अगर आप समुद की गहराई नापना चाहते हैं, तो आपको समुद से थोड़ा गहरा होना पड़ेगा। असली सम्पदा होती है आत्मा का संकल्प। दशरथ मांझी ने अपनी बात आगे जारी करते हुए कहा पहाड़ मुझे उतना ऊँचा कभी नहीं लगा जितना लोग बताते हैं। मनुष्य से ज्यादा ऊँचा कोई नहीं होता। बिहार के गया जिले के गहलौर गांव में पंछिया देवी और मंगरू मांझी के यहाँ, जन्मे 1934 दशरथ मांझी से अगर युवावस्था में किसी ने यह सवाल पूछा होता कि 360 फीट लम्बा और 30 फीट चौड़ा पहाड़ काटने के लिए कितना वक्त लग सकता है,तो उन्होंने भी इस सवाल को अनदेखा किया होता। यह जुदा बात है कि गांव के जमींदार के यहां मजदूरी करने वाले और कभी-कभार मजदूरी का दूसरा कोई काम कर गुजर बसर करने वाले इन्हीं दशरथ मांझी ने इस पहेली का जवाब अपने बाजुओं से अपनी मेहनत से दिया और पहाड़ को चीर कर रख दिया । आज की तारीख में आप कह सकते हैं कि गहलौर से वजीरगंज जाने की अस्सी किलोमीटर की दूरी को 13 किलोमीटर ला देने वाला एक रास्ता एक श्रमिक के प्यार की निशानी है, एक अंगेजी पत्रकार ने लिखा पूअर मैन्स ताजमहल अर्थात गरीब व्यक्ति का ताजमहल। वर्ष 1966 की किसी अलसुबह जब छैनी-हथौड़ा लेकर दशरथ मांझी अपने गांव के पास स्थित छोटे से पहाड़ के पास पहुँचे तो बहुत कम लोगों को इस बात का अनुमान था कि इस 'शख्स' ने दिल में क्या ठान ली है। गांव के भूस्वामी के यहां मजदूरी करने वाले और कभी इधर-उधर काम करने वाले दशरथ मांझी ने जब पहाड़ पर अपना छैनी- हथौड़ा चलाना ’ शुरू किया तब आने-जाने वाले राहगीरों के लिए ही नहीं बल्कि उनके अपने गांव के लोगों के लिए भी वह एक हंसी का पात्र थे। चीनी नीतिकथा की तरह उनके गांव में भी कई सारे बुद्धिमान बूढ़े लोग थे, जिन्होंने उन्हें डिगाने की तमाम कोशिश की । लेकिन अपनी जीवनसंगिनी फगुनी देवी को समय पर इलाज न करा पाने से खो चुके दशरथ मांझी को आलोचनाओं से कोई लेना-देना न था। उनके सामने धुन के पक्के दशरथ मांझी की अथक मेहनत जो काफी हद एक एकांकी कोशिश थी, बाइस साल बाद रंग लायी,जब उस पहाड़ से एक छोटा रास्ता दूसरे गांव तक निकल गया।

लखनऊ में तम्बाकू नियंत्रण अधिनियम का हो रहा है उल्लंघन: लोरेटो कॉलेज की छात्राएं

क्या (कोटपा) तथा धूम्रपान निषेध / तम्बाकू नियंत्रण नियमों का हमारे शहर लखनऊ में तत्परता से पालन हो रहा है? क्या इस शहर के नागरिक तम्बाकू एवम् सिगरेट सेवन से जुड़े हुए खतरों के बारे में सावधान हैं?

इन ज्वलंत प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए लोरेटो कॉन्वेंट इण्टर कॉलेज की  बारहवीं कक्षा की कुछ छात्राओं ने पर्यावरण प्रोजेक्ट के अंतर्गत एक सर्वेक्षण किया. उन्होंने विभिन्न आयु, शैक्षिक योग्यता एवम् आर्थिक वर्ग की ५० महिलाओं और १५० पुरुषों से इस विषय पर जानकारी हासिल करी. इन २०० प्रतिवेदियों में मजदूर वर्ग से लेकर वातानुकूलित ऑफिसों में कार्यशील पदाधिकारी शामिल थे.

इस सर्वेक्षण के दौरान, छात्राओं ने स्कूल/कॉलेजों की १०० मीटर की परिधि में स्थित तम्बाकू/सिगरेट की दुकानों के चित्र अपने कैमरे में कैद किये., तथा शैक्षिक संस्थानों में 'धूम्रपान निषेध' के साइन बोर्ड ढूँढने के असफल प्रयास किये. १८ वर्ष से कम आयु कि होने पर भी, पान/सिगरेट की दुकानों से आसानी से तम्बाकू, गुटखा और सिगरेट के पैकेट खरीदे, तथा उस पर लिखी जानकारी का विश्लेषण किया.

इस सर्वेक्षण से प्राप्त कुछ परिणाम वास्तव में चौंकाने वाले थे.

यद्यपि ९८.५% प्रतिवादियों ने किसी न से अधिक उपभोक्ता किसी संचार माध्यम के ज़रिये तम्बाकू विरोधी सन्देश सुने थे, फिर भी ७०% पुरुष एवम् ५०% महिलाओं ने स्वीकार किया कि वे  तम्बाकू/सिगरेट का सेवन करती हैं. विभिन्न आयु वर्गों में सबसे अधिक उपभोक्ता (२१%) १९ से २३ वर्ष के आयु वर्ग के थे.
तम्बाकू निषेध क़ानून सम्बन्धी लगभग सभी अधिनियमों का किसी न किसी रूप में उल्लंघन पाया गया :-
सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान निषेध: ४१% व्यक्तियों ने माना कि वे सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करते हैं, परन्तु क़ानून कि अवहेलना करने वाले केवल ६% व्यक्तियों का चालान किया गया. २९% से अधिक लोगों ने बताया कि उनके कार्यस्थल पर धूम्रपान करने पर कोई रोक नहीं है.
अवस्यकों को (एवम् उनके द्वारा) तम्बाकू पदार्थों बेचने पर प्रतिबन्ध: सर्वेक्षण के ८१% अवयस्क पुरुष  एवम् ३३% महिला  प्रतिवादी तम्बाकू सेवी थे. ७६% लोगों का मानना था कि अवस्यकों के तम्बाकू बेचने पर कोई उचित रोक नहीं है तथा उनसे सिगरेट/बीड़ी/गुटखा खरीदना बहुत आसान है. ५१% तम्बाकू/सिगरेट प्रेमियों ने कभी न कभी अवयस्क से ही तम्बाकू पदार्थ खरीदे थे.

शैक्षिक संस्थानों की १०० गज की परिधि में तम्बाकू बेचने पर प्रतिबन्ध: ७८% प्रतिवादियों ने स्कूल/कॉलेजों के पास पान/तम्बाकू/सिगरेट की दुकानों को बेधड़क बिक्री करते हुए देखा था. छात्राओं ने स्वयं शहर के ३६ स्कूल/ कॉलेजों का निरीक्षण करने पर पाया कि केवल ६ स्कूलों के निकट ऎसी दुकाने नहीं थीं. बाकि ३० संस्थानों के आस पास एक या उससे भी अधिक दुकान/गुमटी इस क़ानून की खिल्ली उडाती हुई प्रतीत हुईं.

तम्बाकू पदार्थों के परोक्ष/अपरोक्ष विज्ञापन पर निषेध: सर्वेक्षण टीम ने जिन २० गुटखा/पान मसाला पैकटों का अध्ययन किया उनमे से ७ नियमित रूप से टेलीविजन,रेडियो और सिनेमा में अपने उत्पाद को विज्ञापित करते हैं. हालांकि सिगरेट की किसी भी ब्रांड का विज्ञापन संचार माध्यम से नहीं आता है.

तम्बाकू/गुटखा/पैक पर  स्वास्थ्य चेतावनी को दो भाषाओँ में लिखना अनिवार्य - एक जिसमे ब्रांड का लिखा हो तथा दूसरी पैक में इस्तेमाल करी गयी भाषा में : २० गुटखा पैकटों में केवल १३ पर यह चेतावनी अंग्रेजी एवम् हिंदी में लिखी पायी गयी. दो ब्रांडों में केवल अंग्रेजी भाषा में चेतावनी छपी थी, और एक में केवल हिंदी में. एक ब्रांड के कुछ पैकों पर केवल हिंदी तथा कुछ पर केवल अंग्रेजी का प्रयोग किया गया था. तीन ब्रांडों पर किसी भी भाषा में कोई भी लिखित स्वास्थ्य चेतावनी नहीं  छपी थी.

तम्बाकू पैकटों पर संघटकों का ब्यौरा अनिवार्य: केवल १२ पैकटों पर उत्पाद में इस्तेमाल किये गए कुछ पदार्थों का ब्यौरा लिखा था. परन्तु टार अथवा निकोटिन की मात्रा किसी में भी इंगित नही थी.

इस सर्वेक्षण को छात्राओं ने जिस धैर्य एवम् दृढ़ता से प्रतिपादित किया, वह वास्तव में सराहनीय है. उनका मानना है कि सर्वेक्षण के बाद  तम्बाकू नियंत्रण के प्रति संवेदनशीलता बढ़ने के साथ साथ उनमें यह जागरूकता भी आयी कि हमें धूम्रपान एवम् तम्बाकू/गुटखा के सेवन का सामूहिक रूप से बहिष्कार करना ही होगा. यह सर्वेक्षण तो एक शुरुआत है. इस प्रकार के अनेकों ईमानदार प्रयासों की आवश्यकता है.

वत्सला पन्त, करिश्मा मखीजा, ईशिता श्रीवास्तव,सुभांशी श्रीवास्तव, वाणी दीपक, दीपांशी सिंह,अनम नसीम, तानिया,अमीना फारुकी, एवम् स्वाति शर्मा का यह प्रयास वास्तव में प्रशंसनीय है.

शोभा शुक्ला
(लेखिका, थाईलैंड स्थित सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सी.एन.एस) की संपादिका हैं, सी.एन.एस दी.एम्.आई की निदेशिका हैं, और उत्तर प्रदेश राज्य योजना इंस्टिट्यूट में भी पहले कार्यरत रही थीं. वर्तमान में, शोभा शुक्ला जी, लोरेटो कॉन्वेंट कॉलेज में वरिष्ठ शिक्षिका हैं)

अपने नौनिहालों को अच्छा खाना खिलाइए और बढ़िया खेल खिलाइए

 अपने नौनिहालों को अच्छा खाना खिलाइए और बढ़िया खेल खिलाइए

बढ़ती हुई आर्थिक सम्पन्नता तथा सामाजिक उथल पुथल के इस दौर में, अन्य देशों की भाँति, भारतीय बच्चों और तरुणों में भी मोटापा एक महामारी के रूप में फैल रहा है. एक अध्ययन के अनुसार केवल दिल्ली शहर में २००२ से २००६ के बीच स्थूलकाय बच्चों की संख्या में ८% की वृद्धि हुई है.  अब तक तो यह प्रतिशत और भी बढ़ चुका होगा. देश के अन्य शहरों में भी कुछ ऎसी ही स्थिति है.

इस बढ़ती हुई स्थूलता के चलते उच्च रक्तचाप , ह्रदय रोग एवं मधुमेह जैसी अधिक आयु में होने वाली बीमारियाँ अब किशोरावस्था में ही आक्रमण करने लगी हैं. एक अनुमान के अनुसार, यदि इस विस्फोटक स्थिति  पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो अगले ५ वर्षों में भारत को २३७ अरब डॉलर की आर्थिक हानि का भार वहन करना पड़ेगा.

हाल ही में,डायबिटीज़ फेडरेशन ऑफ इंडिया तथा ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस के तत्वाधान में, दिल्ली के दो स्कूलों में किये गए एक अध्ययन में कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने  आये हैं. इस अध्ययन में स्कूली छात्र एवं छात्राओं की शारीरिक नाप और जैव रासायनिक मापदंडों का  ५ वर्षों (२००३-२००८) की अवधि में तुलनात्मक अध्ययन किया गया. लड़कियों में मोटापे के लक्षणों में काफी वृद्धि पाई गई -- बी.एम.आई. में ५% और कमर की नाप में ११% की बढ़ोतरी थी, जो लड़कों के मुकाबले कुछ अधिक थी. इसके विपरीत, लड़कों के हाई डेंसिटी कोलेस्ट्रोल (जो लाभकारी माना जाता है) में ९.१% की कमी पायी गयी जो लड़कियों में हुई १.२% कमी से कहीं अधिक थी.

ये आंकड़े चिंता का विषय हैं, तथा इस दिशा में अविलम्ब एवं  उचित कदम उठाने का संकेत देते हैं. किशोर-किशोरिओं में इस बढ़ते हुए मोटापे एवं घटती हुई शारीरिक क्षमता का मुख्य कारण है चर्बी/वसा युक्त खाद्य पदार्थों का बढ़ता हुआ सेवन तथा शारीरिक क्रियाकलापों/व्यायाम का हास. बढ़ते हुए शहरीकरण और औद्योगीकरण ने हमारे दैनिक आहार में भयानक परिवर्तन किये हैं. अधिक वसा युक्त भोजन तथा अधिक शर्करा युक्त पेय पदार्थों का अनुचित मात्रा में सेवन करने के कारण हमारे शरीर में पोषक तत्वों की मात्रा असंतुलित हो गयी है. तिस पर ट्रांस फैटी एसिड ( जो फास्ट फ़ूड, बेकरी पदार्थ, तथा बाज़ार में बिकने वाली तली हुई खाद्य सामग्री में  प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं) का विनाशकारी प्रभाव तो करेले को नीम पर चढ़ाने जैसा है. हमारे युवा वर्ग की अक्रियाशील जीवनशैली उनके स्वास्थ्य को कमज़ोर और रोग प्रदत्त बनाने में और भी सहायक होती है. जब तक बच्चों को पोषक आहार और शारीरिक व्यायाम का महत्त्व समझ में नहीं आएगा, तब तक यह समस्या बनी रहेगी, तथा वे वयस्क होने पर असमय ही अनेकों असंक्रामक रोगों के शिकार बन जायेगें.

अभी हाल ही में समाचार पत्रों में छपी एक खबर के अनुसार, खेल मंत्री श्री गिल ने इस बात को स्वीकार किया है कि खेल कूद हमारे स्कूलों के पाठ्यक्रम में उपेक्षित ही रहे हैं. उनका मानना है कि हर कक्षा में शारीरिक शिक्षा एवं खेलकूद के लिए रोजाना कम से कम एक पीरियड नियत होना ही चाहिए. उन्हें इस बात का खेद है कि १०० करोड़ की आबादी वाले इस देश में कोई बिरला ही उत्कृष्ट खिलाडी बन पाता है. इसका मुख्य कारण है, स्कूली स्तर पर खेलकूद और खेल स्पर्धाओं को बढ़ावा न मिलना. हम ओलम्पिक मेडल जीते या न जीतें, परन्तु स्कूलों में खेल के मैदानों का प्रावधान करने से छात्रों के स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव अवश्य पड़ेगा. दुर्भाग्यवश, अधिकतर स्कूलों में खेल कूद के साधनों एवं प्रशिक्षित खेल शिक्षकों का नितांत अभाव है. अभिभावक एवं शिक्षक, दोनों ही स्कूल के शैक्षिक पाठ्यक्रम में अधिक दिलचस्पी लेते हैं. उनके लिए खेल के मैदान के बजाय कम्प्यूटर लैब होना अधिक आवश्यक है. इस सोच को बदलना ही होगा.  हमारे पूर्व स्वास्थ्य मंत्री, डा.रामादौस ने भी इस बात पर जोर दिया है कि बच्चों में बढ़ते हुए मोटापे और टाइप २ डायबिटीज़ के विस्तार को रोकने के लिए, स्कूलों में योग शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए.

इसके अलावा, बचपन से ही हमें अपनी संतानों में पौष्टिक आहार के प्रति रूचि उत्पन्न करनी आवश्यक है. प्राय: देखा गया है कि अधिक लाड़ प्यार के चक्कर में, अभिभावक अपने बच्चों को छोटी उम्र से ही दिल खोल कर पिज्जा, बर्गर, कोका/पेप्सी कोला का रसास्वादन कराने में गर्व का अनुभव करते हैं. बाद में जब यही बच्चे घर के सुपाच्य एवं पोषक आहार से मुंह चुराने लगते हैं तब माता पिता पाश्चात्य संस्कृति को कोसने लगते हैं. अधिक तले भुने, वसा एवं शर्करा युक्त पदार्थों का सेवन बच्चों में अनेक प्रकार की अनियमितताओं को उत्पन्न करता है, जो आगे चल कर अनेक प्रकार के असंक्रामक रोगों को निमंत्रित करती हैं. आज की आराम देह और अति व्यस्त जीवन शैली के चलते संतुलित आहार का महत्त्व और भी बढ़ जाता है. हम सभी के लिए अधिक शाक सब्जी, फल एवं मोटा अनाज खाना लाभप्रद है. आजकल चाइनीज़ और थाई फ़ूड बहुत प्रचलित है. इन दोनों पाक शैलियों में उबली हुई सब्जिओं और उबले चावल/नूडल्स की बहुतायत होती है. घी-तेल का प्रयोग बहुत कम होता है. ये व्यंजन सुपाच्य होने के साथ साथ अत्यधिक स्वास्थ्य वर्धक हैं. छोले भठूरे, चाट पकौड़ी, केक पेस्ट्री, फ्रेंच फ्राइज़ और फास्ट फ़ूड आदि का सेवन कम से कम करना चाहिए. कोकाकोला के स्थान पर घर का बना नींबू पानी या मट्ठा कहीं अधिक शीतलता प्रदान करेगा.

स्कूल/कॉलेज का प्रशासन भी बच्चों को स्वास्थ्यवर्धक जीवन अपनाने में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है. अभिभावक, अध्यापक एवं विद्यार्थियों के सामूहिक प्रयासों से हम मोटापे, डायबिटीज़, और एक सुस्त, बीमार जीवन शैली के प्रकोप से भावी पीढ़ी को बचा सकते हैं. वर्ल्ड डायबिटीज फौन्डेशन के सौजन्य से दिल्ली और कुछ अन्य शहरों के स्कूलों में कुछ इसी प्रकार के कार्यक्रम ('मार्ग' और 'चेतना') चलाये जा रहे हैं. इनमें समूह संवाद, प्रदर्शनी, खान- पान प्रतियोगिता, तथा अन्य कार्यक्रमों के द्वारा, छात्रों में पौष्टिक आहार और व्यायाम के महत्त्व को उजागर किया जाता है, तथा विशेषज्ञों द्वारा प्रत्येक विद्यार्थी का हेल्थ कार्ड भी बनाया जाता है.

समझदार अभिभावक और शिक्षक के रूप में हमें स्वास्थ्यवर्धक एवं क्रियाशील रहन-सहन का प्रचार करना ही होगा. बच्चों में स्वादिष्ट, पौष्टिक खाने की आदत डाल कर उन्हें जंक फ़ूड का न्यूनतम इस्तेमाल करना सिखाना होगा. यह बहुत मुश्किल नहीं है. हम स्वयं ही अपने बच्चों के खान पान की आदत बिगाड़ने के ज़िम्मेदार हैं. कम्प्यूटर गेम्स खेलने, मोबाइल पर घंटों बात करने और टेलिविज़न सीरियल देखने के बजाय उन्हें दौड़ने, खेलने, साइकिल चलाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा. इस प्रकार हम उनके उग्र और आक्रामक व्यवहार को भी बदल पायेंगे, क्योंकि वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि  जंक फ़ूड एवं इंटरनेट का अति उपयोग, हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जन्म देता है. तभी हम एक सभ्य, सुसंस्कृत समाज की ओर अग्रसर हो पायेंगे.

शोभा शुक्ला
एडिटर, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस

विश्व दमा दिवस पर विशेष: ४ मई २०१०

अस्थमा या दमा नियंत्रण ज्यादातर देशों में असफल

दमा नियंत्रण ज्यादातर देशों में असफल है।

विश्व के लगभग ३० करोड़ लोग अस्थमा या दमा की समस्या से ग्रसित हैं! अस्थमा या दमा की बीमारी व्यक्तिगत, पारिवारिक, तथा सामुदायिक तीनो स्तरों पर लोगों को प्रभावित करती है।

विश्व स्तर पर अस्थमा या दमा की समस्या पर प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक तमाम बाधाओं और चुनौतियों के बावजूद, अस्थमा या दमा नियंत्रण के विभिन्न कार्यक्रम तेज़ी से फ़ैल रहें हैं।

अस्थमा या दमा को यदि काबू में रखा जाए, और चंद बातों पर विशेष ध्यान दिया जाए, तो नि: संदेह इसका नियंत्रण सम्भव है।

अपर्याप्त और अध-कचरे अस्थमा या दमा नियंत्रण कार्यक्रमों की वजह से लोगों की जीवन शैली भी कुंठित होती दिखाई देती है।

उदाहरण के लिए विश्व में कई छेत्रों में हर चार में से एक अस्थमा या दमा से ग्रसित बच्चा स्कूल नही जा पाता है।

इस बार के विश्व अस्थमा या दमा दिवस का विषय है "आप अस्थमा या दमा पर नियंत्रण पा सकते हैं"।

इस विचार द्वारा यह बात साफ तौर पर जाहिर होती है कि अस्थमा या दमा की सही जांच, इलाज, और नियंत्रण की विधियाँ मौजूद हैं, परन्तु आवश्यकता है जागरूकता जिससे कि प्रभावकारी अस्थमा या दमा नियंत्रण के कार्यक्रम सफल हो सके।

अस्थमा नियंत्रण और प्रबंधन की विश्व स्तर पर निति २००७ के मुताबिक अस्थमा या दमा नियंत्रण का मतलब है कि:

- अस्थमा या दमा का कोई लक्षण न हो और व्यक्ति को अस्थमा या दमा के कारण रात में न टहलना पड़े

- अस्थमा राहत दवा या 'इन्हैलर' का उपयोग न करना पड़े (या न्यूनतम आवश्यकता हो)

- व्यक्ति सामान्य शारीरिक काम कर सकता हो।

- व्यक्ति को अस्थमा या दमा के दौरे बिल्कुल न पड़े या बहुत ही कम पड़े

कुछ लोग जो की अस्थमा से ग्रसित हैं उन लोगों ने कभी भी पर्याप्त अस्थमा की जांच नही करवाई है, इस वजह से उनमें अस्थमा के उपचार और उचित नियंत्रण होने की सम्भावना कम हो जाती है। अस्थमा या दमा के पर्याप्त और सही समय पर जांच न हो पाने की कई सारी वजह हैं। जैसे कि मरीजों में इसके बारे में पर्याप्त जानकारी न होना, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा सही समय पर इसकी पहचान न कर पाना और चिकित्सा व्यवस्था तक लोगों की व्यापक पहुँच न हो पाना इत्यादि।

विश्व के कई सारे देशों जैसे कि मध्य पूर्वी एशिया (गल्फ देशों में), मध्य अमरीका, दक्षिण एशिया, उत्तर पश्चिम और पूर्वी अफ्रीका इत्यादि में दमा के लिए आवश्यक दवाओं की उपलब्धता न होने के कारण स्थिति और भी अधिक गंभीर बन जाती है।

विश्व के कई देशों में जो लोग अस्थमा या दमा से ग्रसित है, उनमें वातावरण में व्याप्त प्रदुषण के कारण अस्थमा या दमा अधिक बिगड़ सकता है।

यदि हम अस्थमा नियंत्रण को प्रभावी बनाना चाहतें हैं तो हम सभी को इसकी प्रभावकारी नियंत्रण के लिए व्यापक नीतियाँ बनानी होगी और उस पर अमल भी करना होगा।

मान्यवर कांशीराम शहरी गरीब आवास योजना के घर किसके लिए?

       गोमती नदी के तट पर मनकामेशवर मंदिर के निकट डालीगंज पुल के नीचे रहने वाले लोगों को तीसरे प्रयास में १९ फरवरी, २००९, को बुलडोजर चला कर हटा दिया गया। चूँकि जिला प्रशासन वार्ता में यह कह रहा था कि इन लोगों को केन्द्रीय सरकार की योजना शहरी गरीब हेतु मूलभूत सेवाएं के तहत घर आवंटित किए जाएंगे, ये लोग दुबग्गा चले गए जहां उपर्युक्त योजना के तहत घर बनाए जा रहे हैं। किसानों के अधिक मुआवजे की मांग के कारण इन घरों का निर्माण कार्य अधूरा पड़ा हुआ है। डालीगंज से यहां पहुंचे लोगों ने लखनऊ विकास प्राधिकरण द्वारा बनाए गए आश्रयहीन आवास योजना, पीर नगर, वसंत कुंज, के घरों, जो खाली पड़े हुए थे, में रहना शुरू कर दिया। इन घरों की गुणवत्ता इतनी खराब है कि वे लोग जिनको ये घर आवंटित हैं वे इनमें रहना नहीं चाहते। यहां से १८० लोगों ने कांशीराम शहरी गरीब आवास योजना के तहत भी आवास हेतु आवेदन किए।

       २९ सितम्बर, २००९, को न्यू गांधी नगर वार्ड, डॉ राम मनोहर लोहिया अस्पताल के पीछे, विभूति खण्ड, गोमती नगर में लखनऊ विकास प्राधिकरण की भूमि पर रहने वाले लोगों को भी बुलडोजरों का सामना करना पड़ा। बताया गया कि सड़क जिसके किनारे यह लोग रहते थे से राज्यपाल को मानवाधिकार आयोग के भवन का उद्घाटन करने गुजरना था। फिलहाल ये लोग यहीं रह रहे हैं और लखनऊ विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष मुकेश मेश्राम ने जिलाधिकारी को पत्र लिखकर इन लोगों को शहरी गरीब आवास योजना के तहत आवास दिलाने हेतु आग्रह किया। इस बस्ती के १५० लोगों ने भी कांशीराम शहरी गरीब आवास योजना के तहत आवास हेतु आवेदन किए।

       पिछले माह जब कांशीराम शहरी गरीब आवास योजना के तहत घरों के आवंटन की सूची जारी हुई तो यह पाया गया कि उपर्युक्त दोनों बस्तियों के एक भी व्यक्ति को घर नहीं मिला। ये दोनों समुदाए अत्यंत गरीब हैं। दुबग्गा में पत्थर काटने का काम करने वाले व अन्य दैनिक मजदूरी करने वाले लोग रहते हैं। गोमती नगर में ढोलक बनाने वाले व अन्य दैनिक मजदूरी करने वाले लोग रहते हैं।

       सवाल यह है कि यदि इन जैसे गरीब परिवारों को कांशीराम शहरी गरीब आवास योजना के तहत आवास नहीं मिलेंगे तो किसको मिलेंगे? हम यह भी जानना चाहते हैं कि जिन्हें घर आवंटित हुए हैं उनकी पृष्ठभूमि क्या है?

       ४ मई से उपर्युक्त दोनों बस्तियों के लोगों ने शहीद स्मारक, लखनऊ, पर अनिश्चितकालीन धरने का निर्णय लिया है।

मुन्नालाल, पत्थर का काम करने वाले, दुबग्गा, अब्दुल नबी, दैनिक मजदूरी, दुबग्गा, शकील, ठेला, गोमती नगर, फेरी, ढोलक निर्माता, गोमती नगर, किरण, ९४५३४७९०८३, संतोश, आशीष श्रीवास्तव, ९४७३८९६४६५, संदीप पाण्डेय, ०५२२ २३४७३६५
आशा परिवार एवं जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय