महत्वाकांक्षा बन गयी है जानलेवा


बच्चों में दिनोंदिन तनाव बढ़ने से आत्महत्याओं की घटनाओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है और इसके लिए बच्चों के साथ-साथ उनके अभिभावक और अध्यापकगण भी कम दोषी नहीं है। अभिभावकों और अध्यापकों को बच्चों की क्षमताओं का आंकलन करके उनकी रुचि के अनुसार प्रेरित करना चाहिए। बच्चों पर अपनी इच्छाओं को थोपना नहीं चाहिए क्योंकि बच्चों का मन थोपी हुई बातों को करने में नहीं लगता हैं लेकिन आज के समय में 'नम्बर वन' बनने की होड़ ने सभी बच्चों को तनावग्रस्त कर रखा है। हर माता-पिता चाहते है कि उनका बच्चा नामी-गिरामी स्कूल में शिक्षा ग्रहण करके डाक्टर, इंजीनियर और आई.ए.एस. बने और वे नम्बर वन की दौड़ में अपने बच्चे को दौड़ाकर 'डिप्रेशन' में डालने का काम करते है।

यूनीसेफ और मीडिया नेस्ट के संयुक्त तत्वावधान में आज यहां यू०पी० प्रेस क्लब में ‘चिल्ड्रन आर’ में "महत्वाकांक्षा बन गयी है जानलेवा"  विपय पर बोलते हुए 'आल इज वेल' फोरम से जुडे 'चाइल्ड लाइन' संस्था के निदेशक डा० अंशुमालि शर्मा ने कहा कि बच्चों का 'डिपरेशन में जाने का मुख्य कारण है "तनाव" और उनको यह तनाव देते है उनके माता-पिता, अभिभावक और अध्यापक। उन्होंने बताया कि डिप्रेशन ;अवसादद्ध के मुख्यत: चार लक्षण होते हे:- बच्चा नजर मिला कर आपसे बात न कर रहा हो, बच्चा अधिकतर अकेले बैठने की कोशिश में हो, छोटी-छोटी बातों में झुझला जाएं और कभी-कभी हिंसक हो जाएं। माता-पिता और अध्यापकों को बच्चों पर किसी तरह का दबाव नहीं डालना चाहिए। डिप्रेशन से बचने के लिए बच्चों को परीक्षा को हौव्वा नही समझना चाहिए, कम से कम छह घन्टे नींद ले, इम्तिहान के दिनों में हल्का-फुल्का भोजल करें, अभिभावक बच्चों पर दबाव न बनाकर उनकी समस्याओं को सुनकर उनका निदान करें और संवादहीनता न होने दें।

डा०  अंशुमालि शर्मा ने बताया कि 'आल इज वेल' फोरम ने सैकडों बच्चों को आत्महत्या से रोकने का काम किया है। उनका कहना है कि कोई भी बच्चा अपनी समस्याओं को फोरम के नि:शुल्क फोन नम्बर १०९८ अथवा ९४१५१८९२०० अथवा ९४१५४०८५९० पर चौबीसो घन्टे बातचीत करके सुलझा सकता है। 

डा० विनोद चन्द्रा ने बताया कि उनका फोरम बच्चों को स्वास्थ्य, आश्रय, परामार्श, परिवार वापसी आदि की सेवा प्रदान करता है। उनका मानना है कि अभिभावक, अध्यापक और छात्रों में संवादशून्यता  है और उसको दूर करने के लिए काउसिंलिंग की जरुरत है।

इस अवसर पर मीडिया नेस्ट की महामंत्री और वरिष्ठ पत्रकार कुलसुम तल्हा ने कहा कि "पहले हम भारतीय है बाद में पत्रकार"।  हम मीडिया के लोग बच्चों की समस्याओं को उजागर करके उसका समाधान निकालने में अहम भुमिका निभाते है। उन्होंने कहा कि ‘चिल्ड्रन आर’ अपनी तरह का एक निराला कार्यक्रम है जिसको यूनीसेफ के सहयोग से एक विख्यात पत्रकार संगठन मीडिया नेस्ट आयोजित करता है जिसमें बच्चों और महिलाओं के उत्थान के लिये काम किया जाता है। इस कार्यक्रम में बच्चों और महिलाओं की समस्याओं को उठाया जाता है और उसके समाधान के उपाय खोजे जाते है।

विश्व टी.बी दिवस (२४ मार्च) पर २४-घंटे की संगीत 'मैराथन'

हर वर्ष, २४ मार्च को विश्व तपेदिक (टी.बी) दिवस मनाया जाता है और इसके समर्थक टी.बी के बारे में जागरुकता बढ़ाने के लिये प्रयासरत रहते हैं. इस वर्ष, विश्व टी.बी दिवस २४ मार्च २०१० को टी.बी पर कार्यरत लोग एक अद्भुत आयोजन कर रहे हैं - "टू.बी.काँटीनुएड" नामक संगीत 'मैराथन' या संगीत की 'लम्बी दौड़' जो २४ घंटे तक चलेगी.

इस २४ घंटे तक निरंतर चलने वाले संगीत आयोजन के समन्वयक हैं इटली के स्ताज़ों दी तोपोलो. इसका नाम टू.बी.काँटीनुएड... इस लिये है क्योंकि अंग्रेजी में इसको टी.बी.सी. अक्षरों से कहा जाता है, जिसका इटली में अर्थ होता है टी.बी या तपेदिक रोग.

इस संगीत समारोह में दुनिया भर से अनेकों मशहूर संगीतकारों को आमंत्रित किया गया है जो बिना रुके २४ घंटे तक प्रस्तुति करते रहेंगे. इस संगीत 'मैराथन' को वेबसाइट द्वारा भी प्रसारित किया जायेगा - www.stazioneditopolo.it .

टी.बी से भारत में १९ लाख लोग प्रति वर्ष ग्रसित होते हैं,और लगभग लाख लोगों की टी.बी की वजह से मृत्यु हो जाती है. भारत में विश्व स्तर पर सबसे अधिक दवा प्रतिरोधक टी.बी के रोगी हैं जिनमें से एक-तिहाई मृत हो जाते हैं.

२००८ में ४४०,००० लोगों को दवा-प्रतिरोधक टी.बी, उनमें से एक तिहाई मृत

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट के अनुसार, विश्व में कुछ ऐसे स्थान हैं जहां चार में से एक ऐसे व्यक्ति जो टी.बी रोग से ग्रसित होते हैं, वो ऐसे टी.बी से रोग-ग्रस्त हैं, जिनका उपचार संभव ही नहीं है


उदाहरण के लिये २००८ रपट के अनुसार उत्तर-पश्चिम रूस में, २८ प्रतिशत जिन नए लोगों में टी.बी रोग होता है, उनको दवा-प्रतिरोधक टी.बी होती है. ये विश्व में सबसे अधिक अब तक का रपट किया हुआ दवा-प्रतिरोधक टी.बी का स्तर है. इससे पहले सबसे अधिक दवा-प्रतिरोधक टी.बी अज़रबाईजान के बाकू शहर में पायी गयी थी (२००७ में) जिसका दर २२ प्रतिशत था.

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी की हुई नयी रपट, WHO's Multidrug andExtensively Drug-Resistant Tuberculosis: 2010 Global Report onSurveillance and Response key अनुसार २००८ में ४४०००० को दवा-प्रतिरोधक टी.बी हुई थी जिनमें से एक-तिहाई लोग मृत हुए. यदि आंकड़ों को देखें, तो एशिया पर सबसे अधिक कु-प्रभाव पड़ा. भारत और चाइना में लगभग ५० प्रतिशत दवा-प्रतिरोधक टी.बी पाई गयी. अफ्रीका में ६९००० दवा-प्रतिरोधक टी.बी के नए रोगी थे जिनमें से अधिकाँश की जांच तक नहीं हो पायी.

दवा-प्रतिरोधक टी.बी के दर को कम करने में टी.बी रोकधाम एवं उपचार कार्यक्रमों का बहुमूल्य योगदान है.

विश्व स्तर पर जिन लोगों को टी.बी का उपचार प्राप्त हो रहा है उनमें से ६० प्रतिशत टी.बी से सफलतापूर्वक ठीक हो जाते हैं. हालाँकि सिर्फ प्रतिशत दवा-प्रतिरोधक टी.बी के रोगियों को ही जांच तक नसीब होती है, उपचार तो बाद की बात है. साफ़ ज़ाहिर है कि दवा-प्रतिरोधक टी.बी की जांच करने की व्यवस्था को अति-शीघ्र सुधरने की जरुरत है.  

न रक्त बहे न पानी ......... क्योंकि ...



                                      विश्व जल दिवस पर विशेष
                                        न रक्त बहे न पानी ......... क्योंकि ....

    एक जीवन प्रदान करता है ओर दूसरा उस जीवन का पोषण करता है. एक हमारी रगों में बहता है, तो दूसरा हमारी पृथ्वी पर बह कर उसे रहने योग्य बनाता है. परन्तु हाय रे दुर्भाग्य! हम दोनों में से एक को भी संभाल कर नहीं रख पा रहे हैं. हमारे नेताओं ने देशभक्ति के ऐसे नारों को देने में कोई कमी नहीं की है जैसे, "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा" ; या फिर "खून का बदला खून". एक शांतप्रिय एवम् अहिंसक व्यक्ति के लिए हम बड़ी आसानी से यह मान लेते हैं कि उसकी रगों में खून की जगह पानी बहता है. प्रसिद्ध साहित्यकार बर्नार्ड शा ने सत्य ही कहा है कि " यदि चाहते हो तो अवश्य युद्ध लड़ो, पर युद्ध का गुणगान मत करो".
    परन्तु संभावना तो यह है कि यदि तीसरा विश्व युद्ध लड़ा गया तो यह लड़ाई पानी के मुद्दे को लेकर ही होगी. अर्थात, पानी अथवा उसके अभाव के कारण ही खून की नदियाँ बहेंगी.

    हाल ही में, थाईलेंड की राजधानी बैंकॉक में, बौध भिक्षुओं समेत हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने सरकार के विरुद्ध अपना आक्रोश प्रदर्शित करने का एक नया तरीका निकाला. उनके नेताओं ने प्रत्येक स्वयंसेवी के शरीर से थोड़ा थोड़ा खून निकाल कर लगभग १००० लीटर रक्त एकत्र कर के सरकारी सचिवालय के मुख्य द्वार पर बहा दिया. उनका कहना था कि इस प्रकार सारे देश वासियों का खून एक साथ मिल कर प्रजातंत्र की लड़ाई में शामिल होगा. ये प्रदर्शनकारी, थाईलेंड में शीघ्र ही चुनाव कराने की मांग कर रहे हैं.

    थाईलेंड के बारे में तो मुझे पता नहीं, पर हमारे भारत में तो रोगियों के लिए सदैव ही अस्पतालों में स्वस्थ खून की कमी बनी रहती है. लोग रक्त दान करने से कतराते है. ओर बैंकॉक में इतना सारा रक्त सड़कों पर यूँ ही बहा दिया गया. यदि वो किसी का जीवन बचाने के काम आता तो प्रजातंत्र की वास्तविक सेवा हो सकती थी. मेरे विचार से तो, सड़कों पर खून बहाने के बजाय, हम सभी को अपने जन्मदिन, तथा अन्य शुभ अवसरों पर रक्त दान करके मानवीय संबंधों को सुद्रिड करना चाहिए.

    इसी प्रकार पानी बहाकर उसका अपव्यय करना भी अक्षम्य है. यह हमारे ही दुष्कर्मों का फल है कि पानी आज एक बहुमूल्य वास्तु बन गया है, तथा दिन प्रतिदिन वह दुष्प्राप्य होता जा रहा है. मुझे याद है कि मेरे बचपन में नलों २४ घंटे पानी आता था. अब दिन भर में दो या तीन घंटे की पतली धार भी एक अजूबे से कम नहीं मानी जाती. भारत के कई शहरों में गरमी के दिनों में तो कभी कभी स्थिति इतनी भयंकर हो जाती है कि सरकारी टैंकरों के द्वारा सप्ताह में एक या दो बार ही जल आपूर्ति की जाती है. लोग पीने के लिए  ही नहीं वरन अन्य दैनिक ज़रूरतों के लिए भी पानी खरीदने के लिए विवश हो जाते हैं. सार्वजनिक जल व्यवस्था तो अब मृत प्राय हो चुकी है, और निजी हाथों में स्थानांतरित हो रही है. जन साधारण को निजी पानी के पम्प, ट्यूबवेल एवम् हैण्ड पम्प लगवाने पद रहे हैं, और वे इसका भरपूर दुरुपयोग भी कर रहे हैं.

    भले ही हम दिन प्रतिदिन बढ़ती अपनी पानी की आवश्यकता को कम करने में असमर्थ हों, परन्तु उसका दुरुपयोग तो रोक ही सकते हैं. घरों में जब पानी के टुल्लू पम्प देर तक चलते हैं तो छतों पर रखी हुई पानी की टंकियों के अधिप्रवाह से जलधारा नालियों में ही समाहित होती है, और मेरा दिल दर्द से भर उठता है. क्या कभी हमने यह सोचा है कि सिर्फ हमारी लापरवाही के कारण सैकड़ों लीटर पानी बर्बाद हो जाता है. एक और पीने के लिए भी पानी दुर्लभ है, तो दूसरी ओर वह सड़कों पर बह कर बर्बाद हो रहा है. यदि टंकी भरने पर पम्प को तुरंत बंद कर दिया जाय तो पानी का यह आपराधिक अपव्यय रोका जा सकता है.
      विश्व भर में प्रति वर्ष १,५०० क्यूबिक किलोमीटर पानी बर्बाद होता है. इस पानी का सदुपयोग करके इसे खेती करने एवम् ऊर्जा उत्पन्न करने के काम में लाया जा सकता है, परन्तु प्राय: ऐसा होता नहीं. विशेषकर विकासशील देशों में अस्सी प्रतिशत गंदगी पानी में मिल कर उसे पीने के योग्य बना देती है. इन सबके चलते पीने एवम् खेती के पानी की आपूर्ति दांव पर लगी है, तथा पर्यावरण एवम् मानव स्वास्थ्य भी खतरे में है. इतना सब होते हुए भी जल-प्रदूषण अभी भी कोई आवश्यक मुद्दा नहीं है. विश्व के लगभग १.१ अरब व्यक्तियों को पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है, और वे असुरक्षित पेयजल साधनों पर निर्भर हैं.

    इस निराशाजनक परिदृश्य को ध्यान में रखता हुए यू.एन. वाटर ने विश्व जल दिवस २०१० की विषय वस्तु रक्खी है " स्वस्थ विश्व के लिए स्वच्छ जल". प्रति वर्ष २२ मार्च को मनाये जाने वाले इस दिवस का इस बार का मुख्य उद्देश्य है स्वच्छ पानी की गुणवत्ता के बारे में राजनैतिक स्तर पर जागरूकता पैदा करना, ताकि जल की मात्र के साथ साथ उसकी स्वच्छता पर भी ध्यान दिया जाय.

    शुद्ध वायु के समान, शुद्ध पेयजल भी हमारी मांग या आवश्यकता नहीं वरन मौलिक अधिकार होना चाहिए. परन्तु यह खेद का विषय है कि जल भी एक व्यापारिक पदार्थ बन कर रह गया है. इसका कारण है राजनैतिक इच्छा का अभाव और नागरिक उदासीनता का बाहुल्य. बहु राष्ट्रीय कंपनियों के अनवरत विज्ञापनी प्रचार के चलते, हम बोतलबंद पानी खरीद कर पीने में अपनी शान समझते हैं. मिनरल वाटर (आखिर यह वास्तव में होता क्या है?) का नाम आज बच्चे बच्चे की जुबां पर है.

    यूनाईटेड नेशंस एवम् अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं जहां सरकारी स्तर पर पेयजल समस्या का हल ढूँढने में लगी हुयी हैं, वहां आप और हम अपने दैनिक जीवन में कुछ और संवेदनशील और समझदार तो हो ही सकते हैं. हम इतना तो कर ही सकते हैं कि ब्रश करते समय नल बंद कर दें; घर के टपकते हुए नलों की मरम्मत करवा लें; पानी की टंकी भर जाने पर पम्प बंद कर दें; बाथरूम में शावर का इस्तेमाल कम से कम करें; बगीचे में रात भर पानी देने का पाइप खुला न छोड़ दें; और घर के कूड़े को नदी अथवा तालाब में न प्रवाहित करें. ऐसा करने भर से पानी के अपव्यय को काफी हद तक रोका जा सकता है.

    आज विश्व जल दिवस के अवसर पर आइये हम यह प्रण करें कि पानी के कारन खून की नदियाँ नहीं बहने देंगे, और खून को सड़कों पर नहीं बहने देंगे.
    जय हिंद.

शोभा शुक्ला
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस








  

२४ मार्च को है विश्व तपेदिक (टी.बी) दिवस

२४ मार्च को विश्व तपेदिक (टी.बी) दिवस है. भारत में सर्वाधिक तपेदिक (टी.बी) से ग्रसित लोग हैं और आंकड़ों के अनुसार भारत की एक-तिहाई जनता को लेटेंट टी.बी हो सकती है. भारत में लगभग २५ प्रतिशत ड्रग-रेसिस्तंत टी.बी के भी रोगी हैं.

स्टॉप टीबी पार्टनरशिप ने इस साल विश्व टी.बी दिवस पर मुख्य-रूप से वेबसाइट बनायीं है जिसका लिंक यह है:
http://www.stoptb.org/events/world_tb_day/2010/

स्टॉप टीबी पार्टनरशिप का 'टी.बी को रोकने के लिये तस्वीरें' पुरुस्कार २००९ से सम्मानित छायाकार दविड़ रोच्किंद इस समय भारत में हैं और टी.बी से सम्बंधित तस्वीरों को वो इस वेबसाइट पर प्रकाशित करते रहेंगे.

लखनऊ के छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा vishwavidyalaya के सर्जरी विभाग के प्रमुख प्रोफेस्सर डॉ रमा कान्त का कहना है कि "टी.बी की रोकधाम सिर्फ चिकित्सा से संभव नहीं है. इसके लिये टी.बी का उपचार सफलता पूर्वक समाप्त किया हुए लोगों को टी.बी रोकधाम कार्यक्रम में शामिल करना चाहिए और उन कारणों को संबोधित करना चाहिए जिनकी वजह से टी.बी से ग्रसित लोगों तक टी.बी से बचाव एवं उपचार की सेवाएँ समय रहते नहीं पहुच पाती." प्रोफ रमा कान्त द्वारा लिखित पुस्तक 'मानवता का अभिशाप - तपेदिक' को उत्तर प्रदेश के हिंदी संसथान द्वारा 'बीरबल सहनी पुरुस्कार २०००' से सम्मानित किया गया था.

टी.बी एक संक्रामक रोग है, जो mycobacterium tuberculosis namak बक्टेरिया से होता है. इससे बचाव मुमकिन है, और टी.बी से सफलतापूर्वक उपचार भी मुमकिन है यदि दवा समय पर पूर्वी उपचार अवधि में ली जाये.

बवासीर के ईलाज पर पुस्तक ‘पाइल्स टू स्माइल्स’ का विमोचन

[अधिक जानकारी के लिए प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त से संपर्क करें: ०५२२-२३५८२३०, ९८३-९९९-०९६६, ९८३९०-७३३५५ - 'पाइल्स टू स्माइल्स' क्लीनिक, सी-२२११, सी-ब्लाक चौराहा, इंदिरा नगर, लखनऊ-२२६०१६. वेबसाइट: www.ramakant.org, ईमेल: ramakantkgmc@rediffmail.com ]
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लखनऊ कालेज आफ सर्जन्स के दीक्षान्त समारोह में बवासीर के ईलाज पर प्रोफेसर डा0 रमा कान्त की लिखित पुस्तक ‘पाइल्स टू स्माइल्स’ का विमोचन आज छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफेसर डा0 सरोज चूरामणि गोपाल ने किया। लखनऊ के महापौर डा0 दिनेश शर्मा इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे।

बवासीर के उपचार पर आधारित इस पुस्तक के लेखक मण्डल में छ0शा0म0 चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर डा0 रमा कान्त, और डा0 सुरेश कुमार एवं डा0 अरशद अहमद हैं। प्रो0 रमा कान्त को हाल ही में 2010 का अमृतलाल नागर सम्मान भी दिया गया था।

बगैर चीरा लगाए, एक अत्याधुनिक विधि के द्वारा बवासीर का इलाज करने में सिद्धहस्त, डा रमा कान्त ने कहा कि ‘इस पुस्तक में बवासीर के उपचार हेतु एक ऐसी विधि का विवरण हैं जिसमें रोगी कुछ ही घंटे अस्पताल में रह कर, दूसरे दिन से ही सामान्य रूप से कार्य कर सकता है।‘

प्रोफेसर डा0 रमा कान्त कई सालों से नवीन विधियों ‘डी0जी0एच0ए0एल0 और आर0ए0आर0 से बवासीर या पाइल्स का उपचार कर रहे हैं। वें आस्ट्रिया के विश्व-विख्यात बवासीर उपचार एवं शोध केंद्र में प्रशिक्षित भी हैं।

प्रोफेसर डा0 रमा कान्त ने बताया कि ‘कई ज्ञात जीवनशैली और पोषण से जुड़े हुए कारण हैं जिनसे बवासीर होने का खतरा बढ़ जाता है।’

प्रोफेसर डा0 रमा कान्त ने कहा कि इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण भी जारी किया जाएगा।
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[अधिक जानकारी के लिए प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त से संपर्क करें: ०५२२-२३५८२३०, ९८३-९९९-०९६६, ९८३९०-७३३५५ - 'पाइल्स टू स्माइल्स' क्लीनिक, सी-२२११, सी-ब्लाक चौराहा, इंदिरा नगर, लखनऊ-२२६०१६. वेबसाइट: www.ramakant.org, ईमेल: ramakantkgmc@rediffmail.com ]

टी.बी. या तपेदिक की वजह से महिलाएं बे-घर हो जाती हैं

२ साल पहले की बात है (सन २००८) कि अंतर-राष्ट्रीय महिला दिवस (८ मार्च) के उपलक्ष्य में भारत के उस समय के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ अंबुमणि रामादोस ने महिलाओं में छय रोग या तपेदिक या टी.बी. (तुबेर्कुलोसिस) के नियंत्रण एवं उपयुक्त इलाज के लिए जोर डाला था.

१०० साल पहले १९०८ में १५००० महिलाओं ने न्यू यार्क में कार्यस्थल पर पुरुषों की तुलना में समान कीमत या देहाड़ी एवं वोट डालने के अधिकार के लिए एक जुलूस निकाला था. ये अपने आप में एक ऐतिहासिक कदम था जब इतनी भारी संख्या में महिलाएं एकजुट हो कर अपने मूल अधिकारों के प्रति न केवल जागरूक हुई बल्कि संघर्षरत भी रही.

भले ही हमें ये लगे कि समाज में एड्स और टी.बी. या तपेदिक की वजह से शोषण-युक्त व्यवहार और रवैया खत्म हुए जमाना बीत गया है पर ये सच नही है. भारत के तुबेर्कुलोसिस रिसर्च सेंटर या तपेदिक शोध केन्द्र जो चेन्नई या मद्रास में स्थित है, की रिपोर्ट के अनुसार टी.बी. या तपेदिक की वजह से एक भारी संख्या में महिलाएं बे-घर हो जाती हैं.

डॉ रामादोस ने २००८ में इस नागरिक संवाददाता से कहा की “लगभग हर १००० महिलाओं में से १ को टी.बी. या तपेदिक की वजह से घर से बाहर निकल दिया जाता है. जो लोग एड्स के साथ जीवित हैं, उनमे टी.बी. या तपेदिक सबसे बड़ा अवसरवादी संक्रामक रोग है, और मृत्यु का कारण भी”.

फरवरी २००८ में भारत में एक महिला जिसकी मृत्यु टी.बी. या तपेदिक से हुई थी, उसके पार्थिव शरीर को दाह करने की बजाय शोषण के कारण ५ दिन तक रिश्तेदारों या तीमारदारों के हवाले नही किया गया था.

Millennium development goals जिनको हासिल करने के लिए भारत भी समर्पित है, उनमे महिलाओं का सशक्तिकरण, पुरुषों और महिलाओं में समानता, और जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य और कल्याण व्यवस्था को बेहतर करना शामिल है. एड्स, टी.बी. या तपेदिक के कार्यक्रम इनके बैगैर बेहतर नही किए जा सकते, कहा था डॉ रामादोस ने.

जो डॉ रामादोस ने २००८ फरवरी में कहा था, WHO या विश्व स्वास्थ्य संगठन ने १९९८ में ही चेतावनी दे दी थी की “नवयुवतियों में टी.बी. या तपेदिक सबसे बड़ा मृत्यु का कारण है”.

“टी.बी. या तपेदिक की वजह से महिलाएं और पुरूष अपने उम्र के चरम में रोग-ग्रस्त हो जाते हैं और अक्सर मृत्यु के शिकार भी, मगर दुनिया का ध्यान इस पर नही है” कहा डॉ पाल दोलिन ने जो १९९८ में WHO या विश्व स्वास्थ्य संगठन के टी.बी. या तपेदिक कार्यक्रम के प्रमुख थे. “एक महिला की मृत्यु का ‘ripple effect’ या लंबे समय तक रहने वाला प्रभाव, उनके परिवार को, समुदाय को और अर्थव्यवस्था को झेलना पड़ेगा”.

शारीरिक एवं सामाजिक रूप से महिलाओं में एड्स संक्रमण होने की सम्भावना पुरुषों की तुलना में कही अधिक होती है. “एड्स भारत में मात्र स्वास्थ्य का मुद्दा नही है, परन्तु एक सामाजिक और आर्थिक मुद्दा भी है” कहा डॉ रामादोस ने.

जो लोग एड्स के साथ जीवित हैं उनमे टी.बी. या तपेदिक सबसे बड़ा अवसरवादी संक्रमण है. ये आवश्यक है की टीबी कार्यक्रम महिलाओं तक पहुचे विशेषकर कि उन महिलाओं तक जो सामाजिक और आर्थिक रूप से समाज के हाशिये पर हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO ) द्वारा मान्यता प्राप्त टी.बी. या तपेदिक उपचार के लिए कार्यक्रम जिसे DOTS ya Directly Observed Treatment Short-course कहते हैं, वो इस प्रकार से लागू किया जाना चाहिए कि पुरुषों और महिलाओं मे जो असमान्यतायें हैं वो कम हो और जिन महिलाओं को टी.बी. या तपेदिक की जांच या इलाज की जरुरत है, वो उपयुक्त सेवाओं का लाभ उठा सकें और इन असमानताओं की वजह से सेवाओं से वंचित न रहें.

एक परिवार में अक्सर महिला का स्वास्थ्य अन्य सदस्यों के मुकाबले आखरी प्राथमिकता होती है. ये कोई आश्चर्य की बात नही है की अक्सर महिलाओं मी टी.बी. या तपेदिक की जांच विलम्ब से हो पाती है और इलाज भी. खान-पान की दृष्टि से भी महिलाओं को अक्सर न केवल कम पौष्टिक अहार मिलता है बल्कि कम मात्र में भी भोजन प्राप्त होता है.

जो लोग महिलाओं एवं पुरुषों मी असमानताओं को कम करने के लिए प्रयासरत हैं और जो लोग रोगों के नियंतरण में कार्यरत हैं, उनको मिलजुल कर कार्य करना चाहिए. टी.बी. या तपेदिक और एड्स के सब कार्यक्रमों को महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों के साथ मिल कर ही कार्य करना चाहिए.

आज अंतर-राष्ट्रीय महिला दिवस (८ मार्च) के उपलक्ष्य में, आने वाले विश्व टी.बी. या तपेदिक दिवस (२४ मार्च) को अधिक सार्थक बनने के लिए, विभिन्न कार्यक्रमों को मिलजुल कर कार्य करना चाहिए जिससे हर महिला ये कह सके कि ‘मैं भी टी.बी. या तपेदिक को रोक सकती हूँ’.
बाबी रमाकांत - सिटिज़न न्यूज़ सर्विस - सी.एन.एस

प्रो० डॉ० रमा कान्त को अमृतलाल नागर सम्मान २०१०


२०१० का उत्कृष्ट चिकित्सा सेवाओं के लिए अमृतलाल नागर सम्मान लखनÅ के छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो० डॉ० रमा कान्त को दिया जा रहा है। भारतीय शल्य-चिकित्सकों के संगठन के प्रो० रमा कान्त राष्ट्रीय संचालन परिषद के सदस्य हैं और राज्य अध्यक्ष भी हैं।

प्रख्यात हिन्दी साहित्यकार पदमभूषण अमृतलाल नागर की स्मृति में अमृतलाल नागर सम्मान, होलिकात्सव समिति चौक लखनÅ द्वारा दिया जाता है, जिसके मुख्य संरक्षक लखनÅ लोकसभा क्षेत्र के सांसद लालजी टण्डन हैं।

२००५ में प्रो० रमा कान्त को जन-स्वास्थ्य सेवाओं के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक का विशेष अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार भी प्रदान किया गया था। २०१० के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर प्रो० रमा कान्त को सारस्वत सम्मान से नवाजा गया। प्रो० डॉ० रमा कान्त छ०शा०म० चिकित्सा विश्वविद्यालय एवं गॉंधी स्मारक एवं सम्बन्धित चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक भी रह चुके हैं।

भारतीय शल्य-चिकित्सकों के संगठन द्वारा प्रो० डॉ० रमा कान्त को सर्वश्रेष्ठ शल्य-चिकित्सा शिक्षक पुरूस्कार भी मिल चुका है। १९९५ में बेगम हज+रत महल कौंमी एक्ता पुरूस्कार, १९९६ में ओल्मपियन सर्जन अवार्ड, १९९७ में राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का स्वास्थ्य क्षेत्र में हिन्दी लेखन एवं पुस्तकों के लिए अनुशंसा पुरूस्कार, उ०प्र० हिन्दी संस्थान का बीरबल साहनी पुरूस्कार से भी प्रो० डॉ० रमा कान्त सम्मानित हो चुके हैं।