शांति कार्यकत्री का उत्पीडन

मई १९,२०१०

सेवा में,

श्रीमती हेलेना इकबाल सईद,

ए.आई.जी. पुलिस स्पेशल ब्रांच


विषय: विभिन्न ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा उत्पीड़न

महोदया,

मैं लाहौर में रहने वाली एक सामाजिक और शांति कार्यकर्ता हूँ, तथा' इंस्टिट्यूट फॉर पीस एंड सेकुलर स्टडीज़' की संस्थापिका भी हूँ। अत: पिछले १५ सालों से मैं अनेकों सामाजिक कार्य कलापों से जुड़ी रही हूँ। मेरे इन कार्यों में हमारे पड़ोसी देश भारत के साथ शान्ति स्थापित करने हेतु प्रयास करना भी शामिल है। हमारे समाज में अल्पसंख्यकों, औरतों, गरीबों और दलितों के साथ जो अन्याय किया जाता है, मैं उसके खिलाफ भी अभियान चलाती हूँ।

इनमें से कोई भी काम गैरकानूनी नही है। फिर भी, पता नहीं क्यों, यहाँ की ख़ुफ़िया एजेंसियां मुझे लगातार परेशां करती रही हैं। सन १९९९ में शांतिनगर में हुए जन संहार के विरुद्ध मेरा आवाज़ उठाना, भारत-पाकिस्तान के लोगों को एक दूसरे से जोड़ने की कोशिश में भारत कि यात्रा करना, कतिपय भारतीय शान्ति प्रतिनिधियों को अपने घर में ठहराना-- इन्हीं सब वजहों से शायद ख़ुफ़िया पुलिस मेरे पीछे पड़ गयी है।

मुझे परेशां करने की नीयत से कई बार पुलिस स्टेशन ले जाया गया है, लाहौर प्रेस क्लब के सामने से पकड़ कर, लाहौर ज़ू के पास स्थित ख़ुफ़िया विभाग के दफ्तर के बाहर छोड़ गिया गया है, मेरे फोन पर लगातार किसी प्राइवेट कॉलर आई.डी. से धमकियां दी जाती रही हैं, और मेरे घर आकर भी मुझे अक्सर परेशान किया जाता है। मेरी डायरी और मेरा मोबाइल फोन भी चोरी हो गया है, इससे भी अधिक दु:ख की बात यह है कि मुझसे बार बार यही प्रश्न पूछे जाते हैं कि ' आपके पति का क्या नाम है ? आपके परिवार में और कौन है ? आप भारत से शान्ति सम्बन्ध क्यों चाहती हैं, जब वह हमारा दुश्मन है ? आपको पैसा कहाँ से मिलता है ?

मैं क़ानून की इज्ज़त करने वाली पाकिस्तान की एक नागरिक हूँ, और मेरा किसी भी धार्मिक संस्था अथवा राजनैतिक पार्टी से कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं तो केवल जन साधारण की भलाई के लिए, कानून की हद में रह कर कार्य करती हूँ, और छुप कर कोई भी काम नहीं करती। यदि फिर भी ख़ुफ़िया विभाग को मुझसे कोई परेशानी है, तो मैं आपसे यह इल्तिजा करती हूँ कि आप उन्हें यह आदेश दें कि वे औपचारिक रूप से जांच पड़ताल करें, जिसमें मुझे भी सारे आरोपों के जवाब देने का मौका दिया जाय। यह मेरा मौलिक अधिकार है, और मैं आपसे यह अनुरोध करती हूँ कि मुझे इस अधिकार से वंचित न किया जाय।
पिछले कुछ हफ़्तों से ख़ुफ़िया विभाग के कर्मचारी मेरे घर के बाहर डेरा जमाये हुए हैं। कई बार उन्होंने मेरे घर के अन्दर भी घुसने की कोशिश करी, पर मैंने उन्हें बिना उचित परिचय-पत्र के अन्दर नहीं आने दिया। तीन अधिकारियों ने मुझे अपने पहचान पत्र दिखाए जो अनुमानत : आई.एस.आई., आई.बी. और स्पेशल ब्रांच द्वारा जारी किये गए थे, पर उन अधिकारियों के बात करने का तरीका बहुत ही अभद्रतापूर्ण, डरावना और धमकाने वाला रहा है।

मैं आपसे निम्न लिखित बातों पर विचार करने का निवेदन करती हूँ:-

  • क्या ये अधिकारी अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशानुसार परेशान कर रहे हैं, या फिर
  • उच्च अधिकारियों को इस बात का इल्म तक नहीं है कि एक अमन परस्त और मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली औरत पर इस कदर ज़ुल्म ढाए जा रहे हैं।

मैं आपसे अपील करती हूँ कि मेरी शिकायत पर ध्यान दिया जाय, और इन अधिकारियों को मेरे साथ दुर्व्यवहार करने से रोका जाय। यदि इन्होनें अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है तो उन्हें इस गलती की वाजिब सजा मिलनी ही चाहिए। यदि इन अफसरों ने मुझे परेशान करना बंद नहीं किया तो मुझे उच्च न्यायालयों का दरवाज़ा खटखटाना पड़ेगा।

मुझे इस हद तक परेशान किया जा चुका है, कि न केवल मुझे अपनी जान का खतरा है, बल्कि मेरे बच्चों की जान भी खतरे में है। अत: मैंने अपनी याचिका की प्रतिलिपियाँ अपने वकील और मानवाधिकार संस्थाओं के पास भी सुरक्षित रखवा दी हैं, ताकि यदि कोई अनहोनी होती है तो उचित कारवाही की जा सके।
मैं आशा करती हूँ कि मेरी प्रार्थना पर आप शीघ्र ही सहानुभूति पूर्ण निर्णय लेंगी।

भवदीया,

सईदा दीप,

९१-जी जोहर टाउन, लाहौर

०३००-८४४-५०७२


प्रतिलिपि निम्न को प्रेषित:

राष्ट्रपति, पाकिस्तान

प्रधान मंत्री, पाकिस्तान

मुख्य मंत्री, पंजाब

गवर्नर, पंजाब

डी.जी. आई.एस.आई.

डी.जी. आई.बी.

डी.जी. ऍफ़.आई.ए.

डी.जी. एम.आई.

गरीबों को गरीबी रेखा के नीचे वाली सूची में स्वत : चयन का अधिकार मिले

प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की मुख्य बात कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन वाली सरकार की चुनाव पूर्व घोषणा है गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों को रू. ३ प्रति किलो की दर पर २५ किलो अनाज। इस बात पर गरीब जश्न मनाए अथवा अपना सिर पीटे यह समझ में नहीं आता। इसमें पहली दिक्कत तो यह है कि गांव-गांव की यह कहानी है कि गलत लोगों के पास बी. पी. एल. कार्ड है तथा पात्र लोग छुट गए हैं। गरीबी रेखा के नीचे की सूची दुरुस्त करना बड़ा दुरूह कार्य है। पिछली बार जब उ. प्र. में मायावती सरकार ने अपनी बी. पी. एल. सूची सही करनी चाही तो जिन गलत लोगों ने न सिर्फ बी. पी. एल. सूचियों में घुसपैठ की हैं बहुजन समाज पार्टी में भी सेंध लगा ली है ने ऐसा हल्ला मचाया कि सरकार को अपना सर्वेक्षण रोकना पड़ा। दूसरी दिक्कत यह है कि गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या के केंद्र सरकार ही तय कर देती है जिसके आधार पर गांव स्तर पर भी एक निश्चित संख्या में ही बी. पी. एल. बनाये जाते हैं ।

अत: राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम की तरह जिसमें किसी भी जरूरतमंद परिवार को अपना जॉब कार्ड बनवाने की छूट है किसी भी ऐसे परिवार को जो यह समझता है कि वह गरीब है को बी. पी. एल. कार्ड मिलना चाहिए व उस कार्ड पर कम दर का अनाज, चीनी, दाल आदि मिलना चाहिए। इसमें दुरूपयोग की सम्भावनाएं मौजूद है। यदि यह माना जाए कि गरीब का वास्तविक प्रतिशत 20 के करीब है तो दुरूपयोग अधिकतम २० प्रतिशत लोग ही करेंगे। इतना दुरूपयोग तो अभी हो ही रहा है जिसको रोकने में सरकार अक्षम है और न ही इसे रोकने हेतु उसकी कोई इच्छा क्ति दिखाई पड़ती है। गरीब यदि बी. पी. एल. हेतु अपने खुद चिन्हित करता है तो कम से कम कोई पात्र परिवार छूटेगा नहीं।

जब तक पहले से मौजूद किसी व्यक्ति का नाम गरीबी रेखा से नीचे वाली सूची से निकलता नहीं तब तक किसी नए व्यक्ति का नाम उसमें जोड़ा नहीं जा सकता। हाल ही में योजना आयोग ने देश मे तेंदुलकर समिति की सिफारिश पर गरीबी रेखा के नीचे 37.2 प्रतिशत लोगों को माना है। एन.सी. सक्सेना समिति ने 49 प्रतिशत लोगों को गरीबी रेखा के नीचे माना है। अर्जुन सेनगुप्ता समिति के अनुसार देश के 77 प्रतिशत असंगठित मजदूर प्रति दिन २० रूपये से कम खर्च करता है। गरीबों की वास्तविक संख्या तो काफी अधिक है। हम गरीबी का कोई भी मानदण्ड तय करें कुछ गरीब तो चयनित होने से रह ही जाएंगे।

अत: राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम की तरह जिसमें किसी भी जरूरतमंद परिवार को अपना जॉब कार्ड बनवाने की छूट है किसी भी ऐसे परिवार को जो यह समझता है कि वह गरीब है को बी. पी. एल. कार्ड मिलना चाहिए व उस कार्ड पर कम दर का अनाज, चीनी, दाल आदि मिलना चाहिए। इसमें दुरूपयोग की सम्भावनाएं मौजूद है। यदि यह माना जाए कि गरीब का वास्तविक प्रतिशत 80 के करीब है तो दुरूपयोग अधिकतम २० प्रतिशत लोग ही करेंगे। इतना दुरूपयोग तो अभी हो ही रहा है जिसको रोकने में सरकार अक्षम है और न ही इसे रोकने हेतु उसकी कोई इच्छा क्ति दिखाई पड़ती है। गरीब यदि बी. पी. एल. हेतु अपने को खुद चिन्हित करता हैं तो कम से कम कोई पात्र परिवार छूटेगा नहीं।

तीसरी दिक्कत यह है कि राशन ठीक से मिलता ही नहीं । फरवरी २००६ में हरदोई जिले की संडीला तहसील पर कई ग्रामीण अपने बी.पी.एल. के खाली राशन कार्ड लेकर धरने पर बैठे थे इस मांग के साथ कि उन्हें पिछले पञ्च वर्षों का राशन दिया जाये । सूचना के अधिकार जैसे औजार का इस्तेमाल कर लोगों ने राशन व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया । अब जाकर कुछ राशन मिलने लगा है लेकिन पूरी माप व सही दर पर अभी भी नहीं।

रोजी - रोटी अधिकार अभियान की यह मांग है कि बजाये प्रति परिवार ३५ या २५ किलो अनाज के प्रति व्यक्ति १४ किलो अनाज, १.५ किलो दाल व ८०० ग्राम खाने का तेल आवंटित होना चाहिए। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि बच्चों को बड़ों की संख्या में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि खाने की दृष्टि से वे बड़ों के बराबर ही खाते हैं।

गैर-चावल व गैर-गेहूं सेवन वाले इलाकों से मांग हैं कि स्थानीय स्तर पर पैदा किये जाने वाले अन्य अनाजों जैसे ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का, कोदो , कुटकी , सामा, आदि, को भी सावर्जनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था में शामिल किया जाये। बल्कि यदि सावर्जनिक वितरण प्रणाली में खरीद व वितरण की व्यवस्था विकेन्द्रित हो जाय तो यातायात व भडारण का खर्च कम होगा। सरकार चाहे तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली का इस्तेमाल कृषि क्षेत्र को पुनजीर्वित करने के लिए भी कर सकती हैं जो, सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद कि नई आर्थिक नीति के दौर में लोग कृषि छोड़ उद्योग या सेवा क्षेत्र में जाय, अभी भी अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा क्षेत्र हैं।

सरकार को ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए कि सारा कृषि उत्पाद सम्मानजनक न्यूतम समर्थन मूल्य पर खरीद लिया जाए तथा मजदूर, चाहे वह अपने खेत पर हो अथवा किसी अन्य के का पूरा भुगतान राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत किया जाए। ऐसा करने से न सिर्फ कृषि पर छाया संकट कुछ हद तक दूर होगा बल्कि बेरोजगारी की स्थिति पर भी फर्क पड़ेगा । किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए कृषि सम्बन्धित सारे ऋण ब्याज रहित होने चाहिए । मजदूर के लिए यह सहूलियत हो जाएगी कि जो उसे अभी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत अपने १०० दिनों का काम नहीं मिल पा रहा, वह अपनी क़ानूनी गारंटी हासिल कर पाएगा

सरकार की यह मंशा कि राशन की जगह नकद दे दिया जाए गलत हैं । नकद घर तक पहुंचेगा तथा भोजन के लिए ही खर्च होगा इसकी सम्भावना कम ही हैं। महिलाएं व बच्चें इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे । रोजी - रोटी अधिकार अभियान का एक अत्यंत रचनात्मक सुझाव यह है कि राशन कार्ड महिलाओं के नाम पर बनाए जाएँ। राशन से ज्यादा भ्रष्टाचार नकद योजना में होगा। यह तो देखा ही जा रहा हैं कि पके - पकाए भोजन में अनाज देने की योजना से कम भ्रष्टाचार है।
अंत में यह सुझाव है कि सभी धार्मिक स्थलों पर गुरुद्वारों जैसी लंगर की व्यवस्था हो जिसमें बिना जाति या धर्म के भेदभाव के कोई भी जाकर भोजन प्राप्त कर सके। मंदिरों व मस्जिदों के बाहर भीख मांगने वाले लोगों को अंदर बैठा कर सम्मानजनक ढंग से भोजन करने की व्यवस्था होनी चाहिए। यह स्थिति दान देने वाले तथा भोजन पाने वाले दोनों के लिए ही उचित होगी। इस तरह के सामुदायिक भोजन कार्यक्रम की गुणवत्ता किसी भी सरकारी भोजन के कार्यक्रम से बेहतर होगी तथा उसमें भ्रष्टाचार की भी संभावना कम होगी।

- संदीप

बाल स्वास्थ्य पोषण माह: बच्चों के लिए आशा की एक किरण

ललितपुर, अगस्त २०१०: भारत जैसे विकासशील देश में भावी नागरिक बच्चे तथा उन्हें जन्म देने वाली महिलाओं से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण उपयोगी योजनाएं सरकारी स्तर पर सतत् प्रयास, समुचित समीक्षा, विश्लेषण और अनुश्रवण (मानीटरिंग) के अभाव में या तो दम तोड़ देती हैं अथवा आंशिक सफलता ही प्राप्त कर पाती हैं। कार्यक्षेत्र में तैनात कर्मचारियों द्वारा बरती जाने वाली उपेक्षा और लापरवाही भी अरबों खरबों रुपयों की अनेक योजनाओं को पानी की तरह बहा दी जाती हैं। सफल योजनाओं का समुचित प्रचार-प्रसार करना चाहिए तथा अच्छे कर्मचारियों, अधिकारियों को प्रोत्साहन तथा पुरस्कार देने से भी स्थिति बदल सकती है।

परन्तु कभी-कभी आशा की किरण भी दिखायी दे जाती है। उत्तर प्रदेश के ७२ जिलों में २००६ से विटामिन ए पूरक खुराक योजना और २००८ से बाल स्वास्थ्य पो’ाण माह (बीएसपीएम) हर छमाही जून व दिसम्बर महीने में मनाया जाता है। इसके दौरान स्वास्थ्य विभाग और बाल विकास सेवा एवं पु’टाहार निदेशालय मिलकर ०-५ वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए सघन स्वास्थ्य एवं पोषण कार्य करते हैं। इन माह में टीकाकरण और विटामिन ए की खुराक आंगनबाड़ी, आशा, आक्जीलरी नर्सिंग मिडवाइफ (एनम), बालबंधु आदि द्वारा पूर्व सर्वेक्षण के फलस्वरूप एकत्रित बच्चों को दी जाती है। इससे बच्चों की विभिन्न बीमारियों से रक्षा, स्वास्थ्य विकास और पोषण स्तर सुधारा जाता है। विटामिन ए की दो खुराकों के बीच छ: माह का अन्तराल होना चाहिए।

इस बार यह माह जून के स्थान पर १० जुलाई से १४ अगस्त २०१० तक आयोजित किया जा रहा है। इसका कारण देश में जनगणना और पल्स पोलियो अभियान है।

प्रारम्भ में योजनाओं की असफलता की संभावना और कारणों की चर्चा की गयी है। किन्तु अनेक क्षेत्र इसके अपवाद रहे हैं। उत्तर प्रदेश का सुदूर दक्षिण स्थित जिला ललितपुर अपवाद है। यहां बाल स्वास्थ्य पोषण माह पिछली छमाही में लक्ष्य का ८६ प्रतिशत पाने में सफल रहा था जबकि इस बार निर्धारित लक्ष्य ९० प्रतिशत रहा और इसे प्राप्त करने में संबंधित विभागों के अधिकारी, कर्मचारी जुटे हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनीसेफ इस कार्यक्रम में तकनीकी सहयोग प्रदान करती है। यूनीसेफ के झांसी मण्डल के समन्वयक डॉ. हरिशचन्द्र पालीवाल, एमडी ने बताया- ललितपुर जिले के छ: ब्लाकों के १९८ उपकेन्द्रों के १६८१ गांवों में लक्ष्य का ८० प्रतिशत प्रथम सप्ताह की समाप्ति तक प्राप्त कर लिया गया। इस संवाददाता ने स्वयं “शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों के कुछ उपकेन्द्रों के भ्रमण के दौरान बच्चों व उनके अभिभावकों की जागरुकता तथा उत्साह को महसूस किया। “शहरी क्षेत्र रैदासपुरा उपकेन्द्र-१ हो अथवा ३० किमी दूर बिरधा क्षेत्र अन्तर्गत कपासी आदि गांव हों, टीका लगाने तथा विटामिन ए की खुराक पिलाने जैसी गतिविधियां देखी गयीं।

बीएसपीएम योजना का सर्वाधिक लाभ आदिवासियों तथा पिछड़ी जाति के लोगों को मिल रहा है। ललितपुर जिले में सहरिया जाति की बहुलता है जो मुख्यत: पत्थर तोड़ने का काम करती है। इस जनजाति के लोग जंगली इलाके अथवा बीहड़ों में रहते हैं और बहुत शांतिप्रिय तथा कट्टर धार्मिक परंपराओं के मानने वाले होते हैं। कपासी गांव में आबादी का आधा हिस्सा इनका है। लगभग ५० घर इन्हीं के हैं। यह मजदूरी ईमानदारी से करते हैं परन्तु ठेकेदार द्वारा मजदूरी न दिये जाने पर उन्होंने काम करना तक बन्द कर दिया। सूचना मिलने पर छोटे बच्चों को खुराक पिलाने व टीका लगवाने उपकेन्द्र में उपस्थित थे ताकि आने वाली पीढ़ी स्वस्थ रहे। 

नौ वर्ष की मोहिनी अपने ढाई साल के भाई दीपक को दलिया दिलाने उपकेन्द्र में आयी और आगे के कार्यक्रम में भी भाग लिया। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्र के विकलांग कमलेश की पत्नी रामरती अपनी छोटी बच्ची को दवा पिलाने लायी थी। रामरती सर्वथा अभावग्रस्त है और गांव वालों ने बताया कि इसका भरण-पोषण इसके देवर व जेठ द्वारा किया जाता है। परन्तु टीकाकरण व विटामिन ‘ए’ खुराक पिलाने की जानकारी मिलने पर उपकेन्द्र पहुंची थी।

दुर्गेश नारायण शुक्ल

समाजवाद के अप्रतिम योद्धा : शहीद चंद्रशेखर आजाद

जुलाई महीने की २३ तारीख भारतीय समाजवादी आंदोलन और स्वतंत्रता संघर्ष के दृष्टिकोण से स्वर्णाक्षरों में रेखांकित करने योग्य है, इसी दिन 1906 में चन्द्रशेखर आजाद का जन्म हुआ था। शहीद शिरोमणि चंद्रशेखर आजाद की शहादत और वीरता से जुड़े बहुआयामी पहलुओं से पूरी दुनिया अवगत है, इस पक्ष पर कई विद्वानों एवं इतिहासकारों ने काफी कुछ लिखा और विरोध किया है किन्तु समाजवादी आंदोलन एवं विचारधारा के सन्दर्भ में उनकी भूमिका और योगदान पर व्यापक चर्चा अभी भी वांछनीय है। उनके जीवन-चरित व सैद्धान्तिक आग्रहों की सूक्ष्म विवेचना का निष्कर्ष उन्हें एक प्रतिबद्ध समाजवादी सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं ।

भारत का सुख व स्वर्णिम इतिहास साक्षी है कि प्रथम अखिल भारतीय समाजवादी संगठन की स्थापना ८ सितम्बर 1928 को नई दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला के पुराने किले के परिसर में हुई थी जिसके अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद थे। इसका नाम हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन था, कहीं-कहीं एसोसिएशन की जगह आर्मी ब्द का भी उल्लेख मिलता है। चंद्रशेखर आजाद इसके मुखिया जीवन-पर्यन्त 27 फरवरी 1931 तक बने रहे। भगत सिंह, सुखदेव, शिवराम हरि राजगुरू, भगवती चरण वोहरा सरीखे क्रांतिकारियों वाले इस संगठन को ‘समाजवाद’ को नवीन आयाम देने और भारतीय राजनीति का सबसे आकर्षक शब्द बनाने का श्रेय जाता हैं ।

आजाद के नेतृत्व और भगत सिंह का प्रस्ताव पर ही रिपब्लिकन एसोसिएशन को हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन के रूप में पुर्नगठित किया गया। पहली बार दृढ़तापूर्वक किसी संगठन ने समाजवाद को अपना अंतिम लक्ष्य घोषित किया। इसके घोषणा पत्र में स्पष्ट शब्दों में लिखा हैं। .... ‘‘ भारतीय पूंजीपति भारतीय लोगों को धोखा देकर विदेशी पूंजीपति से विश्वास घात कीमत के रूप् मे सरकार में कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहता है। इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएं अब सिर्फ समाजवाद पर टिकी हैं और यही पूर्ण स्वराज्य और सब भेदभाव खत्म करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इस घोषणापत्र को 1929 में ब्रिटानिया हुकूमत ने जब्त किया था। आमतौर पर किसी भी संगठन का घोषणापत्र उसके मुखिया की सोच को ही प्रतिबिम्बित करता है। इससे पता चलता है कि आजाद और उनके साथियों की समाजवाद में गहरी निष्ठा थी। वे स्वयं को समाजवादी कहना और कहलाना पसन्द करते थे, यद्यपि उनके लिये समाजवाद एक रूमानी व भाव-प्रवण अवधारणा हैं ।

1955 में समाजवादी युवक सभा (समाजवादी युवाजन सभा) के सम्मेलन में बुद्धिदोष्-चरित्र दोष के अंतर को स्पष्ट करते हुये उन्होंने अपने उदबोधन में कहा कि समानता, अहिंसा, विकेंद्रीकरण लोकतंत्र और समाजवाद ये पाँचो आज भारत की समग्र राजनीति के अन्तिम लक्ष्य दिखाई पड़ते हैं। यदि बिना लाग-लपेट के कहा जाय क़ि चंद्रशेखर आजाद के समाजवाद की निर्गुण धारणा को डा. राममनोहर लोहिया ने सगुण व्याख्या करते हुए सैद्धान्तिक और बौद्धिक आधार दिया तो गलत न होगा।

आजाद व लोहिया में कई समानताएं दृष्टिगत हैं। एक ही कालखंड समान पृष्ठभूमि व समन्वय होने के कारण समान भावभूमि का होना स्वाभाविक हैं। लोहिया, चन्द्रशेखर आजाद से मात्र तीन साल व चार महीने छोटे थे। मणिकांचन संयोग है कि दोनों की जन्मतिथि एक ही है।
दोनों आयुपर्यन्त अपरिग्रही, अनिकेतन व फक्कड़ बने रहे। दोनों ने देश और समाज के लिये विवाह नहीं किया।आजाद मध्यप्रदेश के भवरा में पैदा हुए और इलाहबाद के एक पार्क में २७ फरवरी १९३१ को शहीदत का वरण किया। झाँसी, कानपुर, बंबई, वाराणसी समेत पूरे हिन्दुस्तान में वे भ्रमण कर क्रांति की अलख जगाते रहे ।

उनकी तरह डॉ. लोहिया को क्षेत्र विशेष की परिधि में कैद नहीं किया जा सकता । लोहिया ने भी शोषण व विभेद के खिलाफ उल्लेखनीय लड़ाईयाँ न केवल भारत अपितु नेपाल और अमरीका में भी लड़कर ' वसुधैव कुटुम्बकम ' की कल्पना को चरितार्थ किया । क्रांतिधर्मी और परिवर्तनकामी सोच कल्पना को चरितार्थ किया । क्रांतिधर्मी सोच होने के साथ - साथ दोनों अनावश्यक हिंसा के प्रबल विरोधी थे ।
चन्द्रशेखर आजाद का अपने साथियों को स्पष्ट निर्देश था कि किसी निर्दोष का बेमतलब खून न बहाया जाय । जहाँ तक सम्भव हो बम और तमंचे के अतिरंजित प्रयोग से बचा जाय । आजाद के लिये हिंसा अंतिम लक्ष्य न होकर एक नेक परिणाम तक पहुंचने का निमित्त मात्र थी

भूमिगत
आन्दोलन में भी लोहिया ने हिंसा का सहारा नहीं लिया । गुप्त रेडियो और अन्य विधाओं से क्रांति तथा आजादी की लड़ाई को प्रखर बनाते रहे । सभी जानते हैं कि आजाद की
भांति लोहिया ने भी अंग्रेजों भारत छोड़ों 'आन्दोलन के दौरान ०९ अगस्त १९४२ से लेकर १९४४ तक पूरे २१ महीने तक भूमिगत रहते हुए 'आजाद दस्ता ' का सञ्चालन किया । इस दौरान लोहिया की तीन पुस्तकें 'क्रांति की तैयारी' और 'आजाद राज कैसे बने ' प्रकाशित हुई । इन्हें पढ़कर प्रतीत होता हैं कि लोहिया के विचार कई बिन्दुओं पर आजाद व भगत सिंह के करीब थे । संगठन चलाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती थी । दोनों व्यकित्यों अथवा सेठ साहूकारों को लूटने के पक्षधर नहीं थे । अपितु सरकारी खजाने को लूटकर आम जनता की मदद करने और उस पैसे से क्रांति की व्यवस्था करने को सही मानते थे।

आजाद जहाँ काकोरी ट्रेन कांड से जुड़े थे वहीं माणिक तल्ला डाक खाने की लूट के प्रेरणा स्रोत डॉ. लोहिया को माना जाता हैं । दोनों की स्पष्ट मान्यता थी कि जनता के पैसे का उपयोग केवल जनहित से जुड़े कार्यों में होना चाहिए। १९२८ से १९३१ तक ब्रिटानिया हुकूमत और पुलिस के लिए आजाद और उसके साथी सबसे बड़ें सरदर्द थे । उसी तरह १९४२ से ४४ तक लोहिया और आजाद दस्ता के सिपाही अंग्रेजी पुलिस के निशाने पर । दोनों ने सामुदायिक प्रतिकार को नया आयाम दिया । मैक्स हरकोर्ट की शोधों एवं तत्कालीन वाइसराय के प्रतिवेदनों से पता चलता हैं कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी की स्मृतियों को ताजा कर दिया। 'भारत छोड़ों ' आन्दोलन की सफलता डों. लोहिया, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी व आजाद दस्ते को दिया जाना उचित ही होगा।

आजाद की तरह लोहिया ने सार्वजनिक धन का उपयोग कभी भी स्वयं पर और अपने परिवार पर नहीं किया। भगत सिंह ने एक बार चंद्रशेखर आजाद से उनकी माता का पता पूछा ताकि उन्हें कुछ पैसे देकर उनकी सेवा सुश्रुवा का प्रबंध किया जा सकेआजाद भगत सिंह पर भड़क उठे और यह कहते हुए चर्चा का रुख बदल दिया कि जब देश आजाद होगा तो भारत माता की तरह भी माँ की सेवा हो जाएगीअभी हमें सिर्फ भारत माँ और उन माताओं के विषय में सोचना हैं जिनका कोई नहींऐसे ही विचारों के पोषक लोहिया भी थे। उन्होंने कभी भी अपनी सुख - सुविधा पर ध्यान नहीं दिया । वे राजनीति में संत बने रहे । जब बीमार हुए तो मधु लिमये ने उन्हें विदेशी डॉक्टरों से इलाज करने की सलाह दी। डॉ. लोहिया ने साफ मना कर दिया और कहा कि उनकी चिकित्सा के लिये अनावश्यक धन व्यय करने की आवश्यकता नहीं । डॉ. लोहिया की मृत्यु अंत में चिकित्सा के अत्याधुनिक साधनों के अभाव में हुई । लोहिया को आजाद की भांति मृत्यु की गोद में सोना कबूल था लेकिन सिद्धान्तों से विचलित होना नही

भगत सिंह के प्रति आजाद और लोहिया के मन में अगाध स्नेह और श्रद्धा थी । आजाद छापामार कर भगत सिंह को कारागार से छुड़ाना चाहते थे । जेल तोड़ने की कार्य योजना बन चुकी थी इसके पहले वे भगत को जेल से छुड़ाते स्वयं ही शहीद हो गये । जब भगत सिंह को फाँसी दी गई डॉ. लोहिया जर्मनी में उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उन्होंने लीग ऑफ नेशंस की बैठक में अनिर्वचनीय जोखिम उठाकर भी भगत सिंह की फांसी का विरोध किया। उन्हें अध्यक्ष रूमानिया के टितेलेस्क्यू द्वारा दर्शक दीर्घा से बाहर निकाल दिया गया तो दूसरे दिन लू - तरावै- छ्यूमेनाईट नामक प्रतिष्ठित अखबार में अनावृत्त पत्र प्रकाशित कर वितरित किया। यूरोप में ब्रिटेन के खिलाफ भगत सिंह के लिये किया गया व्यापक विरोध प्रर्दशन लोहिया के मन में उनके प्रति सम्मान का परिचायक है। आजाद की तरह डॉ . राम मनोहर लोहिया भी नौकरशाही से चिढ़त थे। साण्डर्स को सजा देने के बाद नौकरशाही को आगाह करने के लिये 18 दिसम्बर 1928 को लाहौर में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोश लिस्ट आर्मी के कमाण्डर के हस्ताक्षर से पर्चा वितरित किया गया। इस पर्चा को आजाद के निर्देश पर छपवाकर बाँटा गया। लोहिया का बस चलता तो ‘कलक्टर’ संस्था ही समाप्त होती।

दीपक मिश्र

न्यायालय का निर्णय : केन्द्रीय सूचना आयोग की स्वंतत्रता का अतिक्रमण

प्रो एस एस अंसारी
केन्द्रीय सूचना आयुक्त
केन्द्रीय सूचना आयोग
हाल में मीडिया ने केन्द्रीय सूचना आयोग जजों सहित सरकारी सेवकों की संपत्ति संबधी दिये गए निर्णय को काफी प्रचारित किया था। नागरिक समाज और मीडिया को ऐसे निर्णयों में न्यायपालिका और अन्य क्षेत्रों में भ्रष्टाचार पर रोक लगने की संभावना की किरण दिखाई देती है। इसके विपरीत न्यायलय ने आयोग द्वारा अधिनियम के प्रावधानों को अब तक तरीके द्वारा लागू करने पर रोक लगा दी हैदिल्ली हाई कोर्ट ने हाल में डब्ल्यू पी सी १२७१४/2009 दिनांकित 12.5.2010 में दिए गए निर्णय के अनुसार अधिनियम की धारा 12 (4) के अन्तर्गत सरकार के क्रिया-कलापों के पारदर्शिता और उत्तर दायित्व को बढ़ावा देने के कर्तव्य के निर्वहन हेतु केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा बनाई गई प्रंबधन नियमावली को रदद कर दिया है। असल में केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा अपीलों के निस्तारण हेतु अपनाई गई प्रक्रिया को अवैध घोषित कर दिया गया है जिसका तात्पर्य यह है कि आयोग की सिंगल या डिवीजन बैंच पीठ अपने सामने प्रस्तुत अपील पर निर्णय नही दे सकता केन्द्रीय सूचना आयोग की कार्य करने की स्वतंत्रता का ही अतिक्रमण हुआ है बल्कि सूचना मांगने वालों के अधिकारों की सुरक्षा करने का मार्ग भी अवरूद्ध हो गया है, जिससे नागरिक समाज तथा यू.पी.डा. सरकार द्वारा पूरी तरह समर्थित सूचना का अधिकार अभियान को भी धक्का लगा हैं ।

आर.टी.आई.एक्ट तथा उसकी धारा 27 के अधीन सक्षम सरकार द्वारा बनाए गए नियमों में मामलों के निस्तारण हेतु बैंच बनाने का बिल्कुल कोई भी उल्लेख नहीं है। एक्ट की धारा 18 (३) के अंतर्गत
केन्द्रीय सूचना आयोग को सिविल कोर्ट की सभी शक्तियाँ उपलब्ध है। एक्ट की धारा 12 (४) के अन्तर्गत केन्द्रीय सूचना आयोग को किसी भी अन्य अथोरिटी के दिशा-निर्देशों से मुक्त रह कर स्वतंत्र रूप से अपनी शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार दिया गया है। तदानुसार, केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा प्रबंधकीय नियमावली अपनाई गयी थी। इस प्रकार आयोग न्यायालयों में चालू पद्धति का अनुसरण कर रहा हैं । आयोग में बैंच बनाने के बारे में अधिनियम में कोई स्पष्ट प्रावधान के न होने तथा सक्ष्म सरकार यानि कि डी.ओ.पी.टी. कार्मिक तथा प्रशिक्षण, विभाग द्वारा सुसंगत नियम न बनाने की स्थिति में आयोग द्वारा कार्य संचालन हेतु बनाए गए दिशा-निर्देशों को किस तरह के गैर कानूनी कहा जा सकता हैं । प्रसंगवश, आयोग द्वारा सुसंगत नियमों के अंतर्गत मामलों के निस्तारण संबंधी प्रक्रिया की वैधता का मुददा न्यायालय के समक्ष विचाराधीन भी नही था। केन्द्रीय तथा राज्य आयोगों के बहुत सारे निर्णयों को न्यायालयों के चुनौती दी जाती रही है। परन्तु दिल्ली हाई कोर्ट सहित किसी भी न्यायालय ने आयोग द्वारा अपनायी जा रही प्रक्रिया पर कभी भी सवाल नहीं उठाया था ।

अब क्योंकि न्यायालय ने आयोग द्वारा बैंच (पीठ) बनाकर मामलों का निस्तारण करने के तरीके को अवैध ठहरा दिया है अत: अब आयोग के सामने केंद्र तथा राज्य स्तर पर सभी आयुक्तों (1 मुख्य आयुक्त जोड़ 10 आयुक्त) को एक साथ बैठकर मामलों की सुनवाई करने के सिवाये कोई चारा नहीं हैं। क्योंकि आर. टी.आई . एक्ट तथा नियमों में बैंच बनाने का कोई प्रावधान नहीं हैं और विशेष करके उक्त निर्णय के अनुसार आयोगों को इस संबंध में नियमावली बनाने का कोई अधिकार नहीं है। क्या इस का यह अर्थ है कि जब तक आर.टी.आई.एक्ट में संशोंधन करके बैंच बनाने का प्रावधान न कर दिया जाए तब तक आयोग अपना काम बंद कर दें।
प्रश्न है कि क्या पूर्ण पीठ (फुल बैंच) द्वारा अपीलों का निस्तारण व्यवहारिक है ? पहली बात यह है कि केन्द्रीय सूचना आयोग (सी.आई.सी.) के पास भौतिक व्यवस्था जैसे कि हाल या बड़ा कमरा जिसके कि सभी सूचना आयुक्त एक साथ बैठ कर वादियों को सही प्रकार से सुन सके नहीं दूसरे सूचना मांगने वालों द्वारा बहुत बड़ी संख्या के दायर की गई अपीलों के सापेक्ष मामलों का निस्तारण बहुत धीमा हो जाएगा जिस के परिणाम स्वरूप बहुत अधिक मामले लंबित हो जाएंगे जो कि सूचना के स्वंतत्र और तेज प्रवाह के विचार पर धब्बा होगा।सूचना और नए ज्ञान द्वारा संचालित तेजी से बदल रहे समाज और अर्थव्यवस्था में 10 वर्ष या उससे देरी से मिली सूचना का कोई फायदा नहीं होगा बल्कि उल्टा होगा क्योंकि सूचना का समय से कोई उपयोग नही हो सकेगा।

नियम बनाने या आर.टी.आई. एक्ट बनाने वालों का मामलों के निस्तारण हेतु पूर्ण पीठ
(१ जोड़ 10 आयुक्त) बनाने पर बल देने का कभी भी मंशा नहीं रहा है। एक्ट तथा नियमों में स्पष्ट प्रावधान के अभाव में आंतरिक कार्य को चलाने हेतु दिशा-निर्देश बनाने को असंगत ठहराना किसी भी तरह से उचित नहीं है। इस संदर्भ में उच्च न्यायालय द्वारा सी.आई.सी. के बैंच बनाकर काम करने को गलत ठहराने से एक बड़ा संकट पैदा हो गया है। इसमें विकल्प सीमित हैं। जब तक आर.टी.आई. एक्ट में संशोंधन द्वारा बैंच बनाने का प्रावधान नहीं कर दिया जाता तब तक आयोग को फूल बैंच बनाकर ही अपीलों का निस्तारण करना पड़ेगा। ऐसा नहीं लगता है कि धारा 27 के अंतर्गत सरकार बैंच बनाने का सुसंगत प्राविधान कर पाएगी। फिर अब तक ऐसा क्यों नहीं किया गया है ?

कार्मिक एवं
प्रशिक्षण (डी. ओ. पी. टी.) में पहले विभागीय सरकारी वकीलों की राय से आयोग के सम्मुख कुछ मामलों के आपत्ति उठाई थी और आयोग द्वारा एक्ट की धारा 12 (4) के अंतर्गत बैच बनाने की अनुचित या अवैधानिक कहा था। यदि डी. ओ. पी. डी. ने एक्ट की धारा 27 के अंतर्गत बैंच बनाने के बारे में नियम बनाने की शक्ति का प्रयोग किया होता तो वर्तमान संकट से बचा जा सकता था। यह डी. ओ. पी. डी ही था जिसने लोक प्राधिकारी एवं आर.टी.आई.एक्ट को लागू कराने वाले प्राधिकारी के रूप में बैंच बनाने पर आपत्ति की थी। बाद में बैंच बनाने को न्यायलय ही रदद कर दिया। सूचना के युग में लोक प्राधिकारियों को क्या कष्ट हैं। इसे सब लोग जानते है। सरकार और अब न्यायालय द्वारा आयोग के स्वतंत्र रूप से कार्य करने में दखल देना उसकी स्वंतत्रता का हनन है जबकि उसे सरकार के पास उपलब्ध सूचना प्राप्त करने के लोगों के अधिकार का सुनिश्चिनत कराने का अधिकार हैं ।

अत: एक्ट के
संशोंधन जरूरी है। नागरिक समाज को इस परिवर्तन का विरोध नहीं करना चाहिए। जैसा कि पूर्व में किया गया था। अन्यथा केंद्रीय सूचना आयोग का कार्य, दुरूह हो जाएगा। परिणाम स्वरूप, आम आदमी को तत्परता सूचना दिलाने के कार्य से होने वाला लाभ समाप्त हो जाएगा। इसके अतिरिक्त सहभागी विकास और सुशासन को बढ़ावा देने हेतु जानने के अधिकार के औजार का इस्तेमाल करने पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। न्यायालय द्वारा उत्पन्न किये गए अवरोध को दूर करने के लिये सरकार द्वारा तेजी से कदम उठाने की आवश्यकता हैं ।

भोपाल से तुम सीख लो, मत विकास की भीख लो

26 वर्षों बाद आये भोपाल गैस काण्ड के फैसले ने देश के न्यायप्रिय नागरिकों के विकास को हिलाकर रख दिया। चारों ओर दे भर में सन्नाटा छाया रहा किसी भी मुख्य धारा के राजनीतिक दल ने इस फैसले पर कोई कठोर प्रतिक्रिया नही की, न ही कोई विरोध कार्यक्रम किया थोड़ी-बहुत चर्चा मीडिया ने फैसले के हल्के पन को लेकर शुरू की फिर कांग्रेस की अंदल्नी राजनीति ने वारेन एड़रसन को दे से भागने में मदद पहुंचाने के मुददों को उछाला न कि फैसले को उसमें भी राजीव गांधी का नाम जुड़ते ही सब कुछ शांत हो गया।

अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ मऊ शहर में जन संगठनों की तरफ से एक प्रतिरोध मार्च 10 जून 2010 को 11 बजे दिन में स्थानीय डी० सी० एस० के० पी० जीव० कॉलेज से शुरू हुआ जो रोडवेज, आजमगढ़ तिराहा, गाजीपुर तिराहा होते हुए कलेक्ट्रेट पहुंचा प्रदर्शनकारी हाथों में तख्ती लिये नारे लगाते 26 वर्षों बाद यह कैसा इंसाफ, प्रधान मंत्री जवाब दो, वारेन एड़रसन को गिरफ्तार कर भारत लाओ, भोपाल से तुम सीख लो, मत विकास की भीख लों, परमाणु दायित्व विधेयक वापस लो, चल रहे थे जिनकी संख्या 70-80 के आस-पास थी पूरे शहर नारों को सुनकर लोग आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे कि इस कड़कती धूप में कौन लोग है जो सड़क पर उतर आयें हैं। मार्च के कलेक्ट्रेट पहुंचने पर वहां एक सभा हुई।

चूंकि वहां पहले से समाज कल्याण विभाग से अनुदान प्राप्त अम्बेडकर प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों का अपनी मांगों को लेकर धरना चल रहा था। वही पर हमारे पहुंचने पर सभा शुरू हुई सभा को सम्बोधित करते हुए पी० यू० एच० आर० के जोनक्त सचिव वंसत राजभर ने कहा कि 26 वर्षों बाद आये इस फैसले ने न्यायपालिका के ऊपर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है कि न्यायपालिका भी गरीब विरोधी है। और इस फैसले के खिलाफ किसी भी मुख्य धारा के राजनीतिक दल ने विरोध करके यह साबित कर दिया कि सबकी विकास की विनाशकारी नीतिया एक हैं सभा को सच्ची-मुच्ची के सम्पादक अरविंदमूर्ति ने सम्बोधित करते हुए कहा कि 3 दिसम्बर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड के संयन्त्र से जो गैस रिसाव हुआ उसकी पूरी जानकारी संयन्त्र के प्रबन्धक वारेन एडंरसन को थी उसने जान-बुझकर लागत बचाने के भोपाल के कारखाने से सुरक्षा प्रणाली को हटा लिया था यहां तक कि किसी भी घटना के समय कारखानों में सामान्तया: बजने वाला अर्लाम भी उस समय नहीं बजा था। जब कि उसी कम्पनी की अमेरिका स्थित इकाई में सुरक्षा मानक के जो 30 बिन्दू थे उसका कड़ाई से पालन होता था। भोपाल में अपरीक्षित तकनीक को मंजूरी दिया जाना इस तबाही के लिये सीधे तौर पर जिम्मेदार चीजें थी। इस लिये वारेन एड़सरन के ऊपर इस गैस रिसाव से हुई प्रत्येक व्यक्ति मौत (हत्या) का मुकदमा दर्ज होना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि यह दे की सम्प्रभुत्ता के खिलाफ है कि दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक नरसंहार का दोषी व्यक्ति देश से आसानी से बल्कि तत्कालीन सरकार की मदद से भाग गया और आज तक पकड़ से बाहर हैं। और हम उसकों सजा नहीं दे पाये जो लोग अफजल की फांसी के लिये इतने उतावले और चिंतित रहते है। उन्हें क्या यह बात कभी नही खटकती की 15 हजार भारतीयों को कीड़े-मकोड़ों की तरह मार डालने वाला और पीढ़ियों को बर्बाद करने वाले हत्यारे को सजा क्यों नहीं मिली, हमें यह याद रखना चाहिए कि यूनियन कार्बाइड कीड़े मारने वाली कीटनाशक दवाईयां बनाती थी और उसने भारत के इन्सानों को ही कीड़ा-मकोड़ा बना कर मार डाला उन्होंने भोपाल पर उसी दौर में लिखी राजेन्द्र राजन की कविता को सुनाया ‘‘यह कैसा विकास है, जहरीला आकाश है। साँप की फुँफकार की चल रही बतास है, आदमी की क्या बात पेड़ तक उदास है, आह सुन, कराह सुन, राह उनकी छोड़ तू। विकास की मत भीख ले, भोपाल से तू सीख ले, भोपाल एक सवाल है, सवाल का जवाब दो सभा को डिस्ट्रिक बार के महामंत्री एडोवोकेट सत्य प्रकाश सिंह जी ने भी सम्बोधित किया मार्च में एन० ए० पी० एम० मूवेमेंट फार राइटस, पी० यू० एच० आर० जनसेवाआश्रम, इनौस के कार्यकर्ता शामिल रहे।

प्रस्तति गुडडूराम सदस्य क्षेत्रपंचायत रतनपुरा-मऊ ।

इल्म की इबादत गाह है, मदरसे

‘‘आज के मौजूदा दौर में मदरसों में क्या और कैसे पढ़ाया जाता हैं। और मदरसों की शिक्षा प्रणाली क्या है ? यह सब आम लोगों को ठीक से मालूम नहीं है। और मदरसों को बुरा बताने वालो में ज्यादातर का मानना है कि चूंकि मदरसे इस्लामिक संस्थाएं है और वे अपने छात्रों को जेहाद के बारे में ही पढ़ाते होगें। आये दिन खबरों में इस तरह की खबर और कुछ संगठनों के बयान आते ही रहते हैं। इससे लगता है कि मदरसों के बारे में जानकारी [सच्चाई] कम और भ्रांतियां ज्यादा है। और आज के इस आयोजन का एक उदेश्य यह भी है कि लोगों के मन से ऐसी भ्रांतियों को दूर किया जाए।’’ उक्त बातें मदरसा दारूओलूम गर्ल्स कालेज-मऊ में मदरसा शिक्षकों के लिये 27 जून 2010 को आयोजित ‘‘गणित-विज्ञान’’ की एक दिवसीय कार्यशाला में ‘‘इल्म हासिल करने में मदरसों की भूमिका’’ विषय पर विचार करते हुए सच्ची-मुच्ची के सम्पादक और इस कार्यक्रम के संयोजक श्री अरविंद मूर्ति ने कही। उन्होंने कहा कि दुनिया का पहला मदरसा पवित्र पैग्म्बर ने अपनी मस्जिद में स्थापित किया था, संगोष्ठी के मुख्य अतिथि के बतौर बोलते हुए श्री राकेश, जिलाधिकारी मऊ ने कहा कि मुझे बेहद खुशी है कि आप लोगों ने एक ऐसे विषय पर संगोष्ठी आयोजित की है जिसकी आज नितांत जरूरत है। और समाज यह जान सकेगा कि मदरसों की स्थापना का मूल उदेश्य क्या है ?

यह बड़ी विडम्बना है कि मदरसा का नाम आते ही मान लिया जाता है दीनी तालीम, बुनियाद परस्तीकी की तालीम, तरक्की की मुखालफत, जब कि मदरसो का मजहब से कोई लेना देना नहीं है। मदरसा एक अरबी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है शिक्षा का स्थान अंग्रेजों के भारत में आने के बाद हालात बदले हैं, और भाषा ने यह बंटवारा पैदा किया है। पाठशाला शब्द पुराने लोगों की जुबान पर चढ़ता ही नहीं था। लोग मदरसा ही बोलते थे। दुनिया में ज्ञान-विज्ञान को बढ़ाने में मदरसों की ऐतिहासिक भूमिका रही है। मदरसों में तार्किक विज्ञान, भौतिकी, खगोल शास्त्र आदि पढ़ाये जाते है। यूरोप और यूनान में भी ज्ञान-विज्ञान मदरसों से फैला है। उन्होंनें कहा कि मदरसों की शिक्षा सिर्फ मजहबी शिक्षा नहीं है, और दीनी तालीम कोई बुरी चीज नहीं है। कोई भी दीन इंसानियत से मुहब्बत की ही तालीम देता है। और मदरसे इल्म की इबादत गाह हैं ।

संगोष्ठी को कार्यशाला के प्रशिक्षक दिल्ली आई.आई.टी.के प्रो. विपीन त्रिपाठी ने कहा कि ‘‘मैं सिर्फ एक उदाहरण आप के सामने रखूगां जिससे आप खुद अन्दाजा लगा सकते है कि मदरसों की शिक्षा कितनी तकनीकी और वैज्ञानिक है। आज दुनिया का जो आश्चर्यजनक इमारत, ताजमहल है, उसका नक्शा और निमार्ण कार्य मदरसा शिक्षकों और छात्रों ने कराया था। उस दौर में पूरी दुनिया में कोई भी इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं थे। आज भी शिक्षा के क्षेत्र में मदरसों की बड़ी भूमिका है। पूरे देश में आई.ए.एस. परीक्षा टाप करने वाले डॉक्टर शाह फैसल की शुरूआती पढ़ाई भी मदरसे में ही हुई है। ’’


नसीम अख्तर