'सही अर्थों में सबकी आज़ादी का रास्ता अभी लम्बा है'

[अरविन्द मूर्ति जी के व्याख्यान की ऑडियो रेकार्डिंग/ पॉडकास्ट सुनने क लिए यहाँ पर क्लिक करें]
"राजनीतिक आजादी हमें १५ अगस्त १९४७ में जरूर मिली थी, मगर मुकम्मल हम इस देश के मालिक हुए थे २६ जनवरी १९५० में. आज के दिन २६ जनवरी १९५० को जो प्रजा थी वो राजा बनी थी. लेकिन इतने दिनों के बाद भी जो आम आदमी है उसको मालिक होने का एहसास ही नहीं है" कहा अरविन्द मूर्ति ने, जो एक वरिष्ठ राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं और हिंदी मासिक सच्ची मुच्ची में संपादक हैं. लखनऊ में २६ जनवरी २०११ को अरविन्द मूर्ति झंडा अवरोहन के बाद गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे.

अरविन्द मूर्ति, जो आशा परिवार और जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय से सम्बंधित हैं, उन्होंने कहा कि "मैं ऐसा मानता हूँ कि आजादी के बाद इस देश में जो राजनीति होनी चाहिए थी, जो नागरिक बोध कराती लोगों को, कि आप मालिक हो, आप इस देश के राजा हो, कि अब इस देश में जनतंत्र लागू है, संविधान लागू है, और बाकी ये सब सरकारी अधिकारी आदि लोग हैं ये सब आप के लिए काम करने वाले लोग हैं, इस तरह की राजनीति करने वाले चंद लोग जो स्वतंत्रता आन्दोलन से आये थे वो कुछ दिनों तक तो रहे पर मुख्य धारा तो कांग्रेस की थी."


अरविन्द मूर्ति ने कहा कि "कांग्रेस के अन्दर जब ये सब मूल्य धीरे धीरे मरते गए, और जो विपक्ष की राजनीतिक पार्टियाँ थीं उनमें सबसे ख़राब बात ये हुई कि हमारे जो सबसे क्रन्तिकारी आन्दोलनकारी थे - वामपंथी और समाजवादी लोग - इनमें वामपंथी लोगों ने तो उसी दौर में कहा कि 'ये आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है' और फिर तेलन्गाना जैसे संघर्ष हुए इस देश में, और समाजवादी नेताओं जिनमें जयप्रकाश नारायण और नरेन्द्र देव शामिल हैं, इनपर जनता को भी बहुत विश्वास था और अपेक्षाएं थीं, जब वो १९५२ के चुनाव में बुरी तरह से हारे जिसका कारण शायद ये हो कि देश की आजादी के संघर्ष का प्रतिनिधित्व कांग्रेस कर रही थी, धीरे-धीरे देश की राजनीति भावनात्मक मुद्दों पर केन्द्रित होने लगी और लोगों की बुनियादी जरूरतों से लोगों का ध्यान हटाती रही."


अरविन्द मूर्ति ने कहा कि "हाल ही में जब भारतीय जनता पार्टी ने कश्मीर में झंडा-अवरोहन का प्रयास किया तो मुझे १९९४ का एक किस्सा याद आ गया. १९९४ में मैं अपने रिश्तेदारों के पास जम्मू में था जब भा.जा.पा. के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी श्रीनगर, कश्मीर के लाल चौक में झंडा अवरोहण करने के लिए यात्रा ले के आये हुए थे. मुझे बेहद ताज्जुब हुआ कि देश भर में तो भा.जा.पा. जोश भर रही थी कि हम सब श्रीनगर चल रहे हैं और लाल चौक पर झंडा फहराएंगे परन्तु जम्मू आ कर भारतीय सेना से सुरक्षा इंतज़ाम मांग रही थी."

अरविन्द मूर्ति ने कहा कि "ऐसे समय में जब देश में भुखमरी है, गरीबी है, और भ्रष्टाचार लोकतंत्र की बुनियादी संस्थाओं को घुन की तरह चाट रहा है, ऐसे समय में कृत्रिम राष्ट्रवाद का मुद्दा उठा कर और ख़ास तौर पर कश्मीर को निशाना बना कर, भ.जा.पा. ने फिर एक बार भड़काऊ राजनीति का सहारा लिया है. देश में बहुत सारी ऐसी जगह हैं, नागरिक हैं जो तिरंगा को पहचानते तक नहीं. हम सब जानते हैं कि बाबा आमटे के बड़े वाले पुत्र प्रकाश आमटे जिन जंगलों में काम करते हैं, वहाँ अधिकाँश लोगों को सिर्फ तन ढकने मात्र कपड़े नसीब हो पाते हैं, जिन्होंने अपने जीवन में कभी पूरा कपड़ा नहीं देखा, उनसे आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वोह तिरंगे को पहचानते होंगे? क्रित्रम तरीके से जो राष्ट्रवाद की भावना पैदा की जा रही है, वो काफी खतरनाक है. असीमानंद जी के इकबालिया बयान के बाद तो अब बिलकुल नंगा हो गया है कि इन क्रित्रम राष्ट्रवाद भड़काने वाले लोगों का राष्ट्रवाद से कोई लेना देना नहीं है. असीमानंद जी ने बहुत अच्छी बात कही है कि 'दो सम्प्रदायों की घृणा से बेहतर है कि दो मनुष्य एक साथ मिलकर रहें', और उनको ये बात तब महसूस हुई जब वो हैदराबाद के जेल में कैद थे और उसी जेल में कलीम नाम का एक स्कूटर मेकेनिक पिछले डेढ़ साल से मक्का-मस्जिद बम काण्ड के आरोपी की तरह बंद था. कलीम के साथ मिलने-जुलने और सेवा-भाव से असीमानंद जी को संभवत: ग्लानि होती थी कि 'देखिये बम तो मैंने फोड़ा और ये गरीब आदमी आरोपी बन के पीड़ा झेल रहा है."


सही मायनों में आजादी तब होगी जब देश की जनता, सभी लोग, लोकतंत्र में संवैधानिक अधिकारों को प्राप्त कर सकेंगे. 

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस