भूमि अधिग्रहण कानून और जनहित

अंग्रेजों ने यह कानून अपनी अंग्रेजी हुकुमत को फायदा पहुँचाने के लिए बनाया था। दुर्भाग्यवश आजादी के वक्त हमने अंग्रेजों द्वारा बनाए गये इस किस्म के दमनकारी कानूनों को रद्द नहीं किया। आजादी के पहले इस तरह के कानून अंग्रेजी हुकुमत को दमनकारी शक्तियाँ प्रदान कर फायदा पहुँचाते थे, आजादी के बाद ये कानून सत्ताधारी नेताओं और अफसरों को फायदा पहुँचाते हैं। जनता आजादी के पहले भी पिसती थी, जनता आजादी के बाद भी पिस रही है !

इसीलिए हमारी केन्द्रीय सरकार से माँग है कि आप भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करके गाँव के लोगों की खुली बैठक यानि ग्रामसभा को यह अधिकार दें कि ग्राम सभा तय करे कि किसी भी परियोजना के लिए जमीन देनी है या नही देनी और अगर देनी है तो किन शर्तों पर देनी है। ग्राम सभा का निर्णय अंतिम होना चाहिए।

इस विचार को लागू करने के लिए हमारे विस्तृत सुझाव निम्न है :-

१- भूमि अधिग्रहण कानून से कलेक्टर कि भूमि अधिग्रहण करने कि शक्तियाँ रद्द की जाएँ।

२. यदि कोई कम्पनी या केंद्र सरकार या राज्य सरकार किसी गाँव की जमीन अधिग्रहण करना चाहती है, तो वह उस गाँव की पंचायतों में इस बावत के लिए आवेदन दे।

स्वराज
अभियान

आतंक एवं सम्प्रदायक मामलों में निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच आवश्यक

"आतंक एवं सम्प्रदायक मामलों में निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच आवश्यक है" कहना है सुरेश खैरनार का, जो कि वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं और ६० से अधिक आतंक एवं सांप्रदायिक मामलों में तथ्यान्वेषण समिति के सदस्य रहे हैं. भागलपुर दंगे १९८९ के बाद से सुरेश खैरनार सांप्रदायिक सद्भावना के लिये कार्यरत हैं. मालेगांव २००६, नांदेड २००६, नागपुर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुख्यालय २००६, मालेगांव २००८, खैरलांजी २००८ (दलित उत्पीड़न), मक्का मस्जिद २००६, बटला हाउस २००८ और ६० से अधिक अन्य सांप्रदायिक मामलों में सुरेश खैरनार तथ्यान्वेषण समिति के सदस्य रहे हैं.

बाबरी मस्जिद विध्वंस १९९२ के पहले सांप्रदायिक दंगों को इस्तेमाल किया जाता था जिससे कि हिन्दू-मुस्लिम समुदाय का ध्रुवीकरण हो सके. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में आतंकी हमलें बढ़ गए हैं जिनसे समुदाओं के बीच ध्रुवीकरण होता रहा है. नान्देद २००६ देश में पहला तथाकथित 'आतंकी हमला' था जो हिंदुत्व कट्टरपंथी दलों ने अंजाम दिया और सामने आया था. यदि भारत सरकार ने पर्याप्त कदम उठाये होते तो मालेगांव, अजमेर शरीफ, समझौता एक्सप्रेस, और मक्का मस्जिद जैसे हादसे नहीं होते और हिन्दू मुस्लिम समुदाओं के बीच जो ध्रुवीकरण हुआ, वो न होता. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के असीमानंद जी के अपराध आत्म-स्वीकार करने के बाद तो ये साफ हो गया है कि किस हद तक हिंदुत्व कट्टरपंथी, आतंकी हमलों में शामिल हैं.

भारत सरकार की जो जांच संस्थाएं है जैसे कि सेंट्रल ब्यूरो आँफ इन्वेस्टीगेशन (सी.बी.आई.) आदि, उन्होंने हमारी सभी रपट को नज़रंदाज़ कर दिया है. यदि उन्होंने इन रपट को जरा भी तवज्जो दी होती तो संभवत: जो नुक्सान हुआ है वो न होता!

हमारा मानना है कि सबसे बड़ा आतंकवाद है किसी भी समुदाय को शक की नज़र से देखना कि वो राष्ट्रद्रोही है. किसी भी समुदाय को असुरक्षित महसूस कराना देश की सुरक्षा को खतरा पैदा करना है. इसीलिए ऐसे कृतियों वाले हिंदुत्व संस्थाओं और व्यक्तियों को राष्ट्र-द्रोही मानना चाहिए और संस्थाओं पर रोक लगनी चाहिए जैसे कि भारत सरकार ने 'सिमी' और कुछ अन्य इस्लामवादी संस्थाओं पर लगायी है. ये इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि आतंकी हमलों के बाद गिरफ्तार हुए मुसलमानों को भारत सरकार ने अधिकाँश महज़ शक की बुनियाद पर पकड़ा है जबकि कुछ ऐसे हादसों में ठोस सबूत सामने आ रहे हैं कि इनमें हिंदुत्व ताकतों का हाथ था.

हमारा मानना है कि ऐसे आतंक और सांप्रदायिक मामलों की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच होनी चाहिए जिससे कि सत्य सार्वजनिक हो सके कि इन हादसों को कौन अंजाम दे रहा है.

सुरेश खैरनार

ग्राम सभा बनाम ग्राम पंचायत

भारत जैसे विशाल और विविधताओं वाले देश में बहुत ही पुराने समय से ग्राम सभाओं का अस्तित्व रहा है। भारत के वेद ऋग्वेद में "सभाओं" के रूप में एक स्वायत्ताशाली लोकतांत्रिक संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। वैसे बौद्ध काल में इसकी व्यापकता और स्वीकार्यता सबसे अधिक रही है। उस समय प्रधान/मुखिया/सरपंच को ग्राम भोजक कहा जाता था ग्राम भोजक ग्राम सभा के तय फैसलों का अनुपालन करवाता था वह तालाब, घाट, कुंए, आंतरिक सुरक्षा, न्याय, शिक्षा आदि कार्यों की देख रेख करता था, ग्राम सभा को अधिकार होने से सामूहिक निर्णय लेने से ग्राम समुदाय स्वावलंबी और सुदृढ़ था।

कार्लमार्क्स ने अपनी महानतम रचना "पूंजी" में लिखा है कि "प्राचीन काल से चले आ रहे ये छोटे-छोटे भारतीय ग्राम समुदाय-सामुदायिक ढ़ग से संयुक्त स्वामित्व तथा किसान और मजदूरों के श्रम विभाजन के सिद्धांत पर आधारित है। ये ग्राम समुदाय अपने आप में परिपूर्ण तथा आत्मनिर्भर है। एशियाई समाज में जो सुदृढ़ता, संगठन तथा स्थायितत्व पाया जाता है, उसका मुख्य श्रेय इन स्वावलंबी ग्राम समुदायों की उत्पादन प्रणाली को ही जाता है।

अरविन्द मूर्ति

हम आपको कर्ज देना चाहते हैं

जान पर्किन्स की पुस्तक ‘कन्फ्रेंस ऑफ़ ऐन इकोनोमिक हिट मैन’ प्रकाशित होते ही सारी दुनिया में चर्चित हो गयी। यह पहला अवसर था जब विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से जुड़े किसी वरिष्ट अधिकारी ने बताया था कि किस तरह उसने साम्राज्यवाद के मुनाफे के लिए तमाम देशों की अर्थव्यवस्था को तहस नहस कर दिया। इसने तीसरी दुनिया के समुदाह को एक दृष्टि दी ताकि वे अपने दे के उन ‘गणमान्य योजनाकारों’ की शिनाख्त कर सके जो विदेशी एजेंटों के रूप में काम कर रहे हैं ...प्रस्तुत है इस पुस्तक पर विष्णु र्मा की टिप्पणी...

किसी देश को गुलाम बनाने का आसान उपाय। वल्र्ड बैंक या एशिया विकास बैंक से उसे कर्ज दिलायें। कर्ज बड़ा होना चाहिए। इतना बड़ा कि प्राप्तकर्ता देश इसे कभी चुका ही न सके। फिर कर्ज के साथ यह शर्त भी रख दीजिए कि इसका 90 प्रतिशत हिस्सा विकसित देश की बड़ी कंपनियों को देश के आर्थिक ढांचे का निर्माण करने को दिया जाय। बस फिर देखते ही देखते देश आपकी मुट्ठी में आ जाएगा। जो चाहे कीजिए।

यहां बताया गया प्रयोग भविष्य के लिये नहीं हैं बल्कि इसका इस्तेमाल तो लगातार होता रहा है। बहुत पुरानी बात नहीं है जब अंग्रेजों ने ठीक इसी तरह भारत के रजवाड़ों को कर्ज देकर उन्हें अपना गुलाम बना लिया था। इसलिए जान पर्किन्स की किताब ‘कन्फ्रेंन ऑफ़ ऐन इकोनोमिक हिटमैन’ हमें चौंकाती नहीं हैं। हां, यह पुस्तक कर्ज देने और गुलाम बनाने की नवऔपनिवेशक तकनीक को सरल ढंग से प्रस्तुत जरूर करती है। यह भी बताती है कि उत्तर औपनिवेशिक काल एक बेतुका मजाक है जहां साम्राज्यवादी शराब नये लेबल के साथ तीसरी दुनिया की संसदीय दुकानों को धड़ल्ले से बेची जाती है। अब कर्ज के बदले आपको सिर्फ बाजार नहीं देना है बल्कि एक पूरी की पूरी ‘लोकतांत्रिक’ व्यवस्था को भी अपने यहां लागू करना है जिसका मतलब है बड़ी कंपनियों को देश की लूट की आजादी। फिर चाहे इससे देश की बहु संख्यक जनता गरीबी और भुखमरी से मर ही क्यों न जाय।

उपन्यास की शैली में लिखी अपनी पुस्तक में जान पर्किन्स बताते हैं कि अमरीका और उसकी निजी कंपनियां दो अलग संस्थाएं न होकर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जो काम वहां की सरकार ‘राजनयिक’ कारणों से नहीं कर सकती उसे वहां की कंपनियां करती हैं। दोनों का मकसद है साम्राज्य का निर्माण करना। इसलिये तो जान पर्किन्स अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के लिए काम करते हैं लेकिन वेतन एक निजी कंपनी से पाते हैं।

कंपनी में वे अर्थशास्त्री हैं और उनका काम है तीसरी दुनिया के देशों के विकास की संभावनाओं वाली रिपोर्ट तैयार करना और वर्ल्ड बैंक या एशिया विकास बैंक को कर्ज देने के लिए मनाना। उनका काम यहां खत्म नहीं होता बल्कि यहां से तो शुरू होता है। उनका अहम मकसद यह सुनिश्चित करना है कि प्राप्तकर्ता देश दिवालिया हो जाय ताकि वह हमेशा के लिए वर्ल्ड बैंक की मुट्ठी में आ जाय।

1971 में ट्रेनिंग के बाद पार्किन्स इंडोनेशिया पहुँचते है। देश अभी सभी भीषण रक्तपात के दौर से गुजरा है। सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया है और लगभग 10 लाख लोगों की जानें गई हैं जिसमें से अधिकतर कम्युनिस्ट या समाजवादी हैं। सैनिक तानाशाह जनरल सुहार्तो सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है और अमरीका को यह पसंद हैं। पहुँचते ही पर्किन्स को समझा दिया जाता है कि किसी भी हालत में इंडोनेशिया चीन या वियतनाम के रास्ते नहीं जाना चाहिए। उनका बोस कहता है ‘हम यहां एक देश को समाजवाद से बचाने के लिए आए है। हमारी जिम्मेदारी है कि हम इंडोनेशिया को वियतनाम, कंबोडिया और लाओस नहीं बनने दें। हम यहां के बच्चों का खून अपने हाथों में नहीं लेंगे। हमारी जिम्मेदारी है कि यहां के मासूम बच्चे हंसिया-हथौड़ा वाले लाल झंडे के नीचे जीने को मजबूर न हों।’

पर्किन्स रिपोर्ट बनाते हैं, वर्ल्ड बैंक कर्ज देता है, और सुहार्तो अमरीका का वफादार बन जाता है। आज इस देश पर 132 बिलियन डॉलर का कर्ज है और अर्थतंत्र पूरी तरह अमरीका के नियंत्रण में है। लेकिन तब क्या होता है कोई देश कर्ज लेना चाहता। अजी, अव्वल तो कर्ज लेना आपका चुनाव नहीं बल्कि विवशता है। दूसरे यदि आप नहीं मानते तो आपकी हत्या भी हो सकती है। पनामा के टोरीजोस का किस्सा याद आया ? 1972 में पर्किन्स को पनामा भेजा जाता हैं। वहाँ के हालात ‘खराब’ हैं क्योंकि वहाँ राष्ट्रप्रमुख, ओमर टोरीजोस, संप्रभुता की बात करता है। उसका मानना है कि देश के संसाधनों पर देश का ही अधिकार होना चाहिए। पर्किन्स अपनी पहली मुलाकात में अमरीका के साथ सहयोग करने के फायदे गिनाते हैं। टोरीजोस का सीधा जवाब है ‘मैं अंतर्राष्ट्रीय ऋण कारोबार को अच्छी तरह समझता हूँ। आप यहां वह नहीं कर सकते जो अभी-अभी इंडोनेशिया में करके आये हैं। मैं समझता हूं कि आपका साथ देने से मैं बहुत मालामाल हो सकता हूँ लेकिन मेरे लिए पनामा की जनता का हित खुद के हित से ज्यादा अहम हैं।’

1977 में टोरीजोस ने अमरीका को टोरीजोस-कार्टर संधि पर हस्ताक्षर करने को मजबूर कर दिया। इसके बाद पनामा ने पनामा नहर पर 1999 तक क्रमश: अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। पर्किन्स बताते हैं कि अमरीका ने इस ‘अपमान’ का बदला 1981 में उनकी हत्या करवा कर लिया।

आगे अपनी पुस्तक में वे उस गुप्त समझौते का ‘खुलासा’ करते हैं ‘जिसने दुनिया की दिशा बदल दी’। यह समझौता सऊदी अरब के सऊद परिवार के साथ था। इस समझौते के तहत यह तय हुआ कि सऊद परिवार अपने पेट्रो-डॉलर (पेट्रोल व्यवसाय से प्राप्त धन) को अमरीकी बांड में निवेश करेगा। बांड पर लगातार फायदा होता रहे इसलिए वह यह भी सुनिश्चित करेगा कि अमरीका को तेल की सप्लाई कभी न रूके। बदले में अमरीका इस बदनाम परिवार को सऊदी अरब की सत्ता पर बनाये रखेगा।

पर्किन्स बताते हैं कि पुस्तक लिखने की योजना उन्होंने बहुत पहले बना ली थी लेकिन जैसे ही उनके बोस को पता चला उसने उन्हें पैसे देकर चुप करा दिया। ‘पैसा’ वह स्वीकारते हैं ‘उनकी कमजोरी रही है।’ लेकिन जब ९/११ का हादसा हुआ तो उसके मलबे के पास खड़े होकर उन्होंने प्रण लिया कि वे सच कह कर रहेंगे।

यहीं आकर हम भी पर्किन्स के उद्देश्यों पर शक किये बगैर नहीं रह सकते। हमें सोचना पड़ता है कि ‘सच’ के खुलासे के लिए क्या इतने लोगों की बलि जरूरी थी। या यह भी हो सकता है कि उनकी ‘कमजोरी’ उनकी प्रेरणा बन गयी हो ? ९/११ ने दुनिया को बदल डाला। अतिरेक में अमरीका ने अफगानिस्तान और इराक के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। लेकिन कुछ समय बाद ही उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा। उसके लगातार कमजोर होते अर्थतंत्र को 2006 से शुरू हुई मंदी ने बुरी तरह हिलाकर रख दिया। इसके बाद यह तय था कि अमरीका का साम्राज्यवादी एजेंडा नियोजित प्रतिफल नहीं ला सकता। यह एजेंडा पुराना हो चुका है। पुराने एजेंडे पर कुछ भी लिखने के लिए आप स्वतंत्र थे। और कुछ ‘रहस्योदघाटन’ कर आप बाजार में बिक भी सकते थे।

विष्णु
र्मा

फिरकापरस्ती बनाम युवा कारवाँ

अब इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि भारत एक नाजुक दौर से गुजर रहा है, फिरकापरस्त ताकतें हमारी एकता और अखण्डता को क्षीण-क्षीण करना चाहती हैं। वो एक ऐसे मौके की तलाश में घूम रही हैं जिससे वह देश में फिर से एक नई सांप्रदायिक हिंसा का अध्याय जोड़ सकें। यहाँ हर कदम पर सांप्रदायिक सोच के लोग मांस ढूंढ़ते गिद्ध की भांति अपना खेल खेलने को उत्सुक हैं। इन सब के बाद भी हमारे युवाओं ने ‘न हिन्दू न मुसलमान, मेरा भारत महान’ का नारा बुलन्द करके एक सकारात्मक संकेत दिया हैं।

इस मुल्क ने फिरकापरस्ती ताकतों के बहुत से रूप देखें हैं। हमने गुजरात को गोधरा बनते देखा है। हमने उ0 प्र0 का अयोध्या बनते देखा है। हमने महाराष्ट्र को बंबई बनते देखा है। लेकिन इन सभी शहरों के सांप्रदायिक दंगों में एक बात गौर करने वाली यह थी कि युवाओं ने हमेशा इनसे दूरी बनाये रखी है। दंगों के असली गुनाहगार वही लोग यही रहे हैं जो अपने आप को बुद्धजीवी होने का प्रचार-प्रसार हर मंच पर करते रहे हैं। अब तक हुए सांप्रदायिक दंगो का नेतृत्व वरिष्ठ नागरिकों ने किया जबकि युवाओं के जज्बातों को गर्म करके उनकी इच्छा विरूद्ध इसमें जबरदस्ती घसीटा गया है।

हमारे मुल्क के सामने आतंकवाद, उग्रवाद नक्सलवाद, उल्फा व बोडो उग्रवाद आदि की हिंसक गतिविधियाँ मुँह फैलाये हुए खड़ी है। देश का कोई भी राज्य यहाँ तक के राजधानी दिल्ली भी इनकी पहुँच से दूर नहीं है। फिर भी इन सबसे खतरनाक हमारे देश के भीतर सांप्रदायिक सोच के लोगों का मौजूद होना है। आतंकवाद, नक्सलवाद, उग्रवाद और अलगाववाद के खिलाफ तो सारा देश एकजुट दिखाई देता है, किन्तु जब सांप्रदायिकता की हवा चलती है तो फिर धीरे-धीरे उसे आंधी और आंधी से तूफान बनने में बहुत कम समय लगता है। सांप्रदायिकता की आग खोखले पेड़ की तरह चन्द लम्हों में तबाही का मंजर दिखाई देती है। हमारे देश के युवाओं का संगठित प्रयास उन सांप्रदायिक हवाओं के खिलाफ उठ खड़े होना है, जो हमारे आपसी भाईचारे के मिजाज को नफरत के फिजाओं में बदलना चाहती है।

सांप्रदायिकता जैसे अति संवेदनशील मुद्दें पर युवाओं ने जो खामोशी अपनाई है। नि:सन्देह समाज और राष्ट्र के लिये एक प्ररेक संदेश है। लेकिन मुझे लगता है कि फिरकापरस्ती के मुद्दें पर युवाओं की खामोशी से ज्यादा इसके विरूद्ध आवाज उठाने आवश्यकता अधिक है। अब समय आ गया है कि अपने देश से सांप्रदायिकता और फिरकापरस्ती को युवाओं द्वारा जड़ से उखाड़ फेंक दिया जाये।

-आदिल खान ‘सरफरो
'

कुछ बजट पूर्व सुझाव

भारत दुनिया के कई अन्य देशों की तुलना में, जो न तो अपने लोकतंत्र के लिए जाने जाते हैं और न ही भारत की तरह आर्थिक या सैन्य शक्ति हैं, अपने गरीबों की स्थिति सुधारने में क्यों नाकाम रहा है ? वैश्वीकरण, निजीकरण व उदारीकरण की नई आर्थिक नीति ने पैसे वालों के लिए तो कमाल किया है किन्तु बड़ी संख्या में गरीबों के लिए, जिनके लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना लागू की गई है, तो निराशा ही हाथ लगी है। मनरेगा की गारण्टी उस अर्थ में तो गारण्टी नहीं है जिस अर्थ में सेवा क्षेत्र के किसी व्यक्ति को माह के अंत में अपनी तनख्वाह मिल जाती है अथवा किसी निजी कम्पनी को सार्वजनिक-निजी भागीदारी में निश्चित मुनाफा पहले से ही तय होता है। गरीब कुपोषण व भुखमरी से, ऊँचे मातृ व बाल मृत्यु दर से, कर्ज के बोझ में आत्महत्या से या फिर नक्सल विरोधी कार्यवाइयों में मारा जा रहा है। क्या हमने गरीबी के बजाए अपने गरीबों को खत्म करने के यही रास्ते चुने हैं ? अभी जनवरी, 2011 में कलिंगनगर, उड़ीसा, में 12 वर्षीय जो लड़की पुलिस की गोली का शिकार हुई वह नक्सली कैसे हो सकती है।

हमें अपने बजट व नियोजन का इस दृष्टि से भी मूल्यांकन करने की आवश्यकता है कि उनसे गैर-बराबरी बढ़ेगी या घटेगी, समाज में असंतोष बढ़ेगा या घटेगा ? भोजन, चिकित्सा, शिक्षा, काम व सामाजिक सुरक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं सभी के लिए सार्वभौमिक रूप से उपलब्ध होनी चाहिए। समाज के वंचित तबकों के लिए तो विशेष अवसर उपलब्ध कराने की जरूरत है।

न्यूनतम मजदूरी की दरों को संशोधित किए जाने की जरूरत है। हाल ही में ग्रामीण विकास विभाग द्वारा मनरेगा के तहत दी जाने वाली मजदूरी की दरों में मुद्रा स्फीति व उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर संशोधन किया गया है। मजदूरी दर पर मुद्रा स्फीति के प्रभाव से असल मजदूरी में गिरावट तो समझ में आती है किन्तु मुख्य मुद्दें का समाधान रह जाता है। 1957 में भारतीय मजदूर कांफ्रेंस द्वारा प्रस्तावित तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समर्थित न्यूनतम आवश्यकता आधारित मानकों पर न्यूनतम मजदूरी को तय किया जाना चाहिए। मनरेगा मजदूरों की अलग श्रेणी बनाना चिंताजनक है तथा भेदभाव को संस्थागत रूप देना है। कायदे से तो जो लोग रोटी, कपड़ा व मकान जैसी जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन के काम में लगे हैं उनका श्रम मूल्य सबसे अधिक होना चाहिए। सेवा क्षेत्र में काम करने वाले तो दैनिक मजदूरी पर काम कर सकते हैं। यह बात शायद अभी एक जमीन पर न उतारा जा सकने वाला आदर्श ही प्रतीत हो। इसलिए कुछ जन संगठनों व आंदोलनों की व्यवहारिक मांग की न्यूनतम मजदूरी की दर 250 रुपए प्रति दिन कर दी जाए, तो स्वीकार की ही जानी चाहिए।

अपनी खरीद क्षमता की सीमाएं बताते हुए प्रधानमंत्री द्वारा सी. रंगराजन के नेतृत्व में नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के 75 प्रतित आबादी को कम कीमत पर अनाज दिए जाने के प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया है। इस दे में गरीब की तादाद जितना सरकार मानने को तैयार है उससे बहुत ज्यादा है। सरकार द्वारा मान्य तेंदुलकर समिति का आंकड़ा ३७.२ प्रतित है जबकि सरकार की ही एक दूसरी एन.सी.सक्सेना समिति के अनुसार यह आंकड़ा 48 प्रतित है। लेकिन सच्चाई शायद राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के आंकड़े के ज्यादा नजदीक है। वर्तमान में अनाज की खरीद 500-550 लाख टन होती है। 2009-10 में खाद्यान्न उत्पादन 2182 लाख टन हुआ। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सुझाव को मानने के लिए खरीद 650 लाख टन होनी चाहिए। यदि सरकार अपनी खरीद नीति में सुधार लाती है तो इस दे के सभी गरीबों को खाद्य सुरक्षा की गारण्टी दी जा सकती है। अभी किसान सरकारी खरीद केन्द्रों पर दिक्कतों का सामना करने के कारण अपना अनाज निजी खरीदारों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम दाम में बेच देता है। पिछले रबी सत्र में खरीद ही देर से शुरू हुई। खरीद का विकेन्द्रीयकरण, समय से भुगतान सुनिश्चित करना, किसान से सीधे खरीद, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अन्य मोटे अनाज शामिल किया जाना, आदि, खरीद की प्रक्रिया में और सुधार लाएंगे। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विस्तार से उत्पादन बढ़ सकता है व कृषि की अर्थव्यवस्था को पुर्नजीवित किया जा सकता है। बिना उत्पादन बढ़ाए खाद्य सुरक्षा की बात नहीं सोची जा सकती है। असल में उत्पादन, खरीद व वितरण को जोड़ कर ही देखा जाना चाहिए। खरीद व वितरण विकेन्द्रित होना चाहिए।

जैसा कि कुछ लोगों द्वारा सुझाव दिया जा रहा है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बदले सीधे नकद हतांतरण के विषय में नहीं सोचा जाना चाहिए, क्योंकि परिवारों के स्तर पर खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की बहुआयामी भूमिका है। इससे खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा मिलता है तथा खाद्यान्न के अभाव वाले इलाकों में अनाज उपलब्धता सुनिश्चित होती है। यह भी देखा गया है कि जब अनाज मिलता है तो परिवार के अंदर उसका वितरण ज्यादा ठीक से होता है जबकि नकद पर पुरुष का नियंत्रण रहता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खत्म करने के बजाए उसमें सुधार की आवश्यकता है जैसे खाद्यान्न को उचित कीमत की दुकान तक पहुँचाना, शुरू से अंत तक वितरण की प्रक्रिया का कम्प्यूटरीकरण, पारदर्शिता एवं शिकायत निवारण की व्यवस्थाएं स्थापित करना। तमिलनाडू एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के अनुभव से यह स्पष्ट है कि उपर्युक्त किस्म के कदमों से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में होने वाली चोरी को रोका जा सकता है।

यह दुर्भाग्य का विषय है कि कृषि में उद्योग एवं सेवा क्षेत्र से कम वृद्धि दर दर्ज दिखाई जाती है। ऐसा नहीं है कि कृषि में उत्पादन कम है। उत्पादों की जो कीमतें तय की जाती हैं तथा जो मजदूरी दरें व तनख्वाहें तय होती हैं, जो सिर्फ खुले बाजार पर ही निर्भर नहीं हैं, एक विकृत तस्वीर पे करती हैं। बिना सरकार द्वारा विभिन्न किस्म की छूटों को हासिल किए उद्योग जगत एक ँची वृद्धि दर नहीं दर्ज कर सकता। 2009-10 में केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न किस्म के आय कर, इत्यादि, पर रुपए 5,02,299 की छूट दी गई जो कुल एकत्रित कर का ७९.५४ प्रतित थी। इसी प्रकार सेवा क्षेत्र बिना बड़ी-बड़ी तनख्वाहों के, जो किए जाने वाले कार्य के समतुल्य नहीं हैं, ँची वृद्धि दर नहीं दर्ज करा सकता। हमें लोगों को कृषि क्षेत्र से उद्योग व सेवा क्षेत्र में ले जाने की कोशि, जो नई आर्थिक नीति का आधार है, छोड़ देनी चाहिए। हमें अपनी ताकत को पहचान कर उसे मजबूत करना चाहिए। कृषि क्षेत्र में अच्छा समर्थन मूल्य व प्राथमिक उत्पादन क्षेत्र में सम्मानजनक आजीविका का अवसर मिलना चाहिए। रेलवे की तरह कृषि का अलग बजट होना चाहिए।

नई आर्थिक नीति मंहगाई व मुद्रा स्फीति की तरह गरीबी को भी नियंत्रित कर पाने में नाकाम है। रु. 500 व रु. 1000 के बड़े नोट 2-3 माह का समय देकर वापस ले लिए जाने चाहिए। इससे सरकार अधिक कर संग्रहित कर पाएगी जो उसे अर्थव्यवस्था में निवेश हेतु चाहिए। भारत में काले धन की अर्थव्यवस्था सफेद धन की अर्थव्यवस्था से तीन गुणा है। बड़े नोटों पर पाबंदी से भ्रष्टाचार पर भी कुछ हद तक रोक लगेगी। वैसे भी इस कदम से 90 प्रतिशत भारतीय प्रभावित नहीं होंगे जो बड़े नोटों का इस्तेमाल ही नहीं करते।

सरकार को अपना काम गैर-सरकारी संस्थाओं को आवंटित नहीं करना चाहिए। राजनेताओं व नौकरशाहों के नजदीक लोग गैर-सरकारी संस्थाएं बना कर बड़े धन वाले काम हड़प लेते हैं तथा भ्रष्ट सरकारी तंत्र का ही विस्तार बन जाते हैं। कायदे से गैर-सरकारी संस्थाओं को तो सरकार का धन मिलना ही नहीं चाहिए क्योंकि वे जनता के प्रति जवाबदेह नहीं हो सकतीं। यदि वे सही अर्थों में गैर-सरकारी संस्थाएं हैं तो उन्हें अपने संसाधन समाज से खड़े करने चाहिए। समाज में ऐसे सम्पन्न लोगों की कमी नहीं है जो अच्छे काम को सहयोग देने को इच्छुक हों।

(ये विचार वित्त मंत्री द्वारा बजट पूर्व सुझाव आमंत्रित करने के लिए गैर-सरकारी संस्थाओं की एक बैठक में 13 जनवरी, 2011, को रखे गए।)

संदीप

भारतीय संविधान में है ग्राम स्वराज्य

उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ अधिवक्ता एवं लोक राजनीति मंच के प्रदेश अध्यक्षीय मंडल में सदस्य रवि किरण जैन ने कहा कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है - और साथ में दुनिया का एक ऐसा देश है जहां पर सबसे अधिक गरीब और कुपोषित लोग हैंकैसे प्रजातंत्र को भागीदारी वाली प्रजातंत्र में परिवर्तित किया जाए, यह एक बड़ा सवाल है

अधिवक्ता जैन लखनऊ में हो रहे पंचायती राज सम्मेलन में व्याख्यान दे रहे थे। पंचायती राज सम्मेलन को लोक राजनीति मंच ने आयोजित किया था जिसमें दो दर्जन से अधिक जन-प्रतिनिधि एवं सौ से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ता आये थे।

अधिवक्ता जैन ने कहा कि भारतीय संविधान का आर्टिकल २४३ : कहता है कि "संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी राज्य का विधान मंडल, विधि द्वारा पंचायतों को ऐसी शक्ति एवं प्राधिकार प्रदान कर सकेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने में समर्थ बनाने के लिये आवश्यक हो और ऐसी विधि से पंचायतों को उपयुक्त स्तर पर, ऐसी शर्तों के अधीन रखते हुए, जो उसमें निर्दिष्ट की जाएँ, निम्नलिखित के सम्बन्ध में शक्तियां और उत्तरदायित्व न्याय्गत करने के लिये उपबंध किये जा सकेंगे, अर्थात:
- आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये योजनायें तैयार करना
- आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय ऐसी स्कीमों को, जो उन्हें सौपी जाएँ, जिनके अंतर्गत वो स्कीमें भी हैं, जो ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों के सम्बन्ध में है, कार्यान्वित करना।"

रवि किरण जैन ने कहा कि नगर पालिका और पंचायत दोनों को यह शक्तियां दी गयी हैं कि गाँव और शहर का विकास कितना और कैसा होना चाहिए यह वहाँ के निवासी तय करेंगे

आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के बिना कोई भी योजना तय करना आखिर कहा तक सही है?

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

लोकतंत्र स्थापित करने के लिये पंचायतें मजबूत हों

पंचायती राज सम्मेलन के प्रथम सत्र में व्याख्यानमाला का आरंभ दिल्ली विश्वविद्यालय एवं लोक राजनीति मंच से सम्बंधित डॉ० अजीत झा से हुआ। पंचायतें अपने आप में मजबूत हों, इसके अलावा लोकतंत्र स्थापित करने का कोई और विकल्प नहीं है। डॉ झा ने कहा कि पंचायत की चर्चा हमारे लोकतंत्र के केंद्र में होनी चाहिए।

अजित झा लखनऊ में हो रहे पंचायती राज सम्मेलन में व्याख्यान दे रहे थे। पंचायती राज सम्मेलन को लोक राजनीति मंच ने आयोजित किया था जिसमें दो दर्जन से अधिक जन-प्रतिनिधि एवं सौ से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ता आये थे।

राजनीति में लोक का महत्व हमेशा से नहीं रहा है। राजनीति हथियार से रही है, जो हथियार पर कब्ज़ा कर सकते थे, वो राजनीति पर कब्ज़ा करते रहे। राष्ट्रीय आज़ादी की लड़ाई और देश में लोकतंत्र स्थापित करने की लड़ाई दोनों भारत में आज़ादी से पूर्व एक साथ हुईं। डॉ झा ने कहा कि सारे दुनिया में ये नहीं हुआ, भारत में जनता की आजादी और लोकतंत्र दोनों साथ आये हैं।

डॉ झा ने कहा कि आजादी के पश्चात् कांग्रेस का सत्ता का पक्ष हावी होने लगा और जन आन्दोलन का पक्ष कमजोर होता चला गया। सन १९८० के बाद यदि देखा जाए, तो सभी मुख्य धरा की राजनीति पार्टियाँ या तो प्रदेश में या फिर राष्ट्रीय-स्तर पर सत्ता में रही हैं। इसका अनुभव अच्छा नहीं रहा है, और वो जमात जिनके बल पर वो सत्ता में आई थीं, उनके लिये भी निराशाजनक ही रहा है।

डॉ झा ने कहा कि जो आज राजनीति कर रहे हैं, वो सिर्फ सत्ता पर काबिज हो कर अपने फायदे के लिये जो कर सकते हैं, वो कर रहे हैं। आजादी से पहले महात्मा गाँधी एवं डॉ० बी०आर० आंबेडकर के नेतृत्व में जन-आन्दोलन एवं राजनीति एक हो गयी थी। आजादी के पश्चात् राजनीति की असफलता की वजह से ही जन-आन्दोलन बढ़ने लगे हैं। राजनीति और जन-आन्दोलन का भेद अच्छा नहीं है। जन-आन्दोलन की राजनीति करने के बिना ये अपेक्षित बदलाव संभव नहीं है।

अक्सर लोग प्रश्न करते हैं कि हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है कि हम राजनीतिक मैदान में कूदे। डॉ झा का कहना है कि यह प्रश्न नकली है। संघर्ष बनाम राजनीति का मसला नहीं है हमारे सामने, कहना है डॉ झा का। आजादी के पहले भी जब महात्मा गाँधी एवं डॉ० बी०र० आंबेडकर का नेतृत्व आया था तब सामाजिक कार्य एवं राजनीतिक कार्य में फर्क नहीं रहा था, और लोगों को एहसास हो गया था कि ऐसा सवाल कि 'राजनीति बनाम संघर्ष' नकली हैं।

डॉ झा का कहना है कि जनता खुद को संगठित कर रही है, जनता की ही राजनीति है, और जनता ही संघर्षरत है। पंचायती राज वास्तविक में लोकतंत्र हैं - लोकतंत्र का मतलब होता है लोगों की राजनीति पर नियंत्रण।

डॉ झा ने कहा कि २०-२५ देश छोड़ दिए जाए तो संभवत: हर देश की आबादी भारत के एक जिलों जैसी है - तो फिर इन देश-जैसी भारत के जिलों में एक लोकतान्त्रिक प्रणाली क्यों नहीं है?

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिये लाज़मी है लोकपाल बिल

युवा कार्यकर्ता एवं मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि भ्रष्टाचार पर प्रभावकारी ढंग से अंकुश लगाने के लिये लोकपाल बिल आवश्यक है। लोकपाल बिल जो शिकायत पर संवैधानिक रूप से समय-अवधि के अन्दर ही सजा दिलाने की वादा करता है - उसको पारित होने के लिये अरविन्द केजरीवाल ने जन आन्दोलन को सशक्त करने की मांग की। बिना लोकपाल बिल जैसी नीतियों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना मुश्किल है - और - भ्रष्ट अधिकारियों एवं जन-प्रतिनिधियों को सजा दिलवाना भी बहुत जटिल कार्य है।

केजरीवाल ने सभी उपस्थित से कहा कि मोबाइल नंबर ९२२५५-९२२५५ पर एक एस०एम०एस० भेज कर लोग भ्रष्टाचार के विरोध में अपना वोट दर्ज करें।

केजरीवाल ने कहा कि हम सरकारी योजनाओं को लागू करने वाले एजेंट नहीं हैं। यदि सभी सरकारी योजनाओं को इमानदारी से लागू किया जाये तब भी अपेक्षित बदलाव नहीं होगा - गरीबी नहीं हटेगी, बेरोज़गारी नहीं हटेगी। जब तक ग्राम सभाओं को ताकत नहीं है, बदलाव नहीं आ सकता।

केजरीवाल ने कहा कि हर महीने किसी पूर्व-निश्चित दिन पर क्यों नहीं ग्राम सभा की खुली बैठक हो सकती जिसमें आम नागरिक स्वतंत्र रूप से हिस्सा ले सके। इन्ही बैठक में आय-व्यय भी सार्वजनिक करना चाहिए।

केजरीवाल ने कहा कि ये तय आपको करना है कि आप सरकार के दलाल बनोगे या जनता के सेवक बनोगे।

आखिर भ्रष्टाचार को कैसे रोका जाए? केजरीवाल ने संगीन प्रश्न खड़े किये कि जो संस्थाएं भ्रष्टाचार को रोकने के लिये हैं, उदाहरण के तौर पर जैसे कि सेंट्रल विजिलेंस कमिटी (सि०वि०सि०) सिर्फ सरकार को सलाह दे सकती है, और कोई भी कारवाई नहीं कर सकती। केजरीवाल ने भूतपूर्व सी0वि0सि० से साक्षात्कार के बारे में बताया कि पिछले ५ सालों में उस सी०वि०सि० ने जिन सरकारी अधिकारियों को निलंबित से ले के जेल तक की 'सलाह' दी उन सबको सरकार ने सिर्फ 'चेतावनी' दे कर छोड़ दिया है। इसी तरह सी०बी०आई० भी कोई जांच तब तक नहीं कर सकती है जब तक सरकार की सहमती न प्राप्त हो।

अरविन्द केजरीवाल लखनऊ में हो रहे पंचायती राज सम्मेलन में व्याख्यान दे रहे थे। पंचायती राज सम्मेलन को लोक राजनीति मंच ने आयोजित किया था जिसमें दो दर्जन से अधिक जन-प्रतिनिधि एवं सौ से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ता आये थे।

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

पंचायती राज सम्मेलन: सच्चा लोकतंत्र संभव है

पंचायती राज सम्मेलन में दो प्रमुख मुद्दे उठे: पहला तो यह कि पंचायत के प्रमुख एवं सदस्य सभी फैसले (आय-व्यय भी शामिल है) खुली बैठक में रखे, जिसमें आम नागरिक भी भाग ले सके, और दूसरा यह कि भारतीय संविधान के आर्टिकल २४३ के तहत जो 'ग्राम स्वराज्य' का वादा किया गया है, उसको लागू किया जाए।

पंचायती राज सम्मेलन, लखनऊ, उत्तर प्रदेश में २० फरवरी २०११ को लोक राजनीति मंच के तत्वावधान में कॉमन हाल, दारुल शफा, में संपन्न हुआ। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अरविन्द मूर्ति ने कार्यक्रम का आरंभ किया। साथियों ने "तिरंगा उड़ाते बहुत साल बीते" गीत गा के पंचायती राज सम्मेलन का आरंभ किया। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता एवं मग्सेसे अवार्ड से पुरुस्कृत डॉ० संदीप पाण्डेय ने पंचायती राज सम्मेलन के मुख्य उद्देश्य रखे और कार्यक्रम विस्तार से बताया।

सौ से अधिक प्रतिभागियों ने एवं दो दर्जन से अधिक जन-प्रतिनिधियों ने इस पंचायती राज सम्मेलन में भाग लिया।

पंचायती राज सम्मेलन का पहला सत्र संचालन वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और लोक राजनीति मंच से सम्बंधित केशव चंद ने किया। इस प्रथम सत्र में व्याख्यानमाला का आरंभ दिल्ली विश्वविद्यालय एवं लोक राजनीति मंच से सम्बंधित डॉ० अजीत झा से हुआ। पंचायतें अपने आप में मजबूत हों, इसके अलावा लोकतंत्र स्थापित करने का कोई और विकल्प नहीं है। डॉ झा ने कहा कि पंचायत की चर्चा हमारे लोकतंत्र के केंद्र में होनी चाहिए।

आज़ादी बचाओ आन्दोलन के डॉ० बनवारी लाल शर्मा ने भी पंचायती राज सम्मेलन को संबोधित किया। डॉ० शर्मा ने कहा कि जब तक उद्योगों को, खासकर कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को, जवाबदेह नहीं ठहराया जायेगा, तब तक न ही भ्रष्टाचार कम होगा और न ही लोकतंत्र सही मायनों में कायम हो सकेगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही जन-प्रतिनिधियों के साथ मिलकर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर के और जल-जंगल-जमीन एवं खनिज आदि को बचाने वाले सभी नियम-कानून को दर-किनार कर के आम लोगों को शोषित करती आई हैं। पंचायतों को मजबूती से इन ताकतों का सामना करना पड़ेगा।

डॉ शर्मा ने कहा कि जल-जंगल-जमीन पर जो कब्ज़ा हो रहा है, उसको तोड़े बिना व्यवस्था नहीं बदलेगी।

पंचायती राज सम्मेलन के समापन की ओर जन-प्रतिनिधियों ने शपथ ली कि वो भ्रष्टाचार नहीं करेंगे, अपनी सुरक्षा के लिये अस्त्र-शास्त्र नहीं रखेंगे, पंचायत के सभी फैसले खुली बैठक में लेंगे जहां आम जन-मानस स्वतंत्र रूप से भाग ले सके और पंचायत का आय-व्यय का बहीखाता भी इन्ही खुली बैठक में रखेंगे

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

पंचायती राज सम्मेलन

पंचायती राज सम्मेलन
तिथिः 20 फरवरी 2011
स्थानः कॉमन हॉल, बी-ब्लाक, दारूल शफा (विधान सभा के सामने)
समयः 10 बजे सुबह से 5 बजे सॉय

पंचायती राज सम्मेलन का आयोजन 20 फरवरी 2011 को लोक राजनीति मंच के तत्वावधान, कॉमन हॉल, बी-ब्लाक, दारूल शफा में 10 बजे सुबह से 5 बजे सॉय तक हो रहा है।

प्रथम सत्र में, मुख्य वक्ता के रूप में, वरिष्ठ अधिवक्ता रवि किरण जैन, मैगसेसे पुरूस्कार प्राप्त सूचना के अधिकार कार्यकर्ता अर्विन्द केजरीवाल, दिल्ली विश्वविद्यालय के अजीत झा, एवं लोक राजनीति मंच की राज्य समन्वय समिति के सदस्य एवं से0नि0 पुलिस महानिरीक्षक एस0आर0 दारापुरी जी रहेंगे।

दूसरे सत्र में, उत्तर प्रदेश से चुने गए 30-40 पंचायत जन-प्रतिनिधि भाग लेंगे। इनमें से कुछ जन प्रतिनिधि बिना भ्रष्टाचार के एवं खुली बैठक में निर्णय लेने की शपथ लेंगे।

एक फिल्म, ‘स्वाराज - हिवरे बाज़ार गॉव’ भी प्रर्दशित की जाएगी। यह फिल्म महाराष्ट्रा के गॉव हिवरे बाज़ार पर आधारित है जहॅा पंचायत खुली बैठक में फैसले लेती है, और ग्राम स्वाराज्य की नीतियों को लागू करने से विकास के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करती है।

अधिक जानकारी के लिए, सम्पर्क करें:
वल्लभाचार्य पाण्डेय, 94152-56848
देवेश पटेल, 92359-77799, 94550-37799
बाबी रमाकांत, ९८३९०-७३३५५

लोक राजनीति मंच

पताः डॉ0 संदीप पाण्डेय, ए-893, इन्दिरा नगर, लखनऊ-226016.
फोनः 2347365, इमेलः ashaashram@yahoo.com

'सही अर्थों में सबकी आज़ादी का रास्ता अभी लम्बा है'

[अरविन्द मूर्ति जी के व्याख्यान की ऑडियो रेकार्डिंग/ पॉडकास्ट सुनने क लिए यहाँ पर क्लिक करें]
"राजनीतिक आजादी हमें १५ अगस्त १९४७ में जरूर मिली थी, मगर मुकम्मल हम इस देश के मालिक हुए थे २६ जनवरी १९५० में. आज के दिन २६ जनवरी १९५० को जो प्रजा थी वो राजा बनी थी. लेकिन इतने दिनों के बाद भी जो आम आदमी है उसको मालिक होने का एहसास ही नहीं है" कहा अरविन्द मूर्ति ने, जो एक वरिष्ठ राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं और हिंदी मासिक सच्ची मुच्ची में संपादक हैं. लखनऊ में २६ जनवरी २०११ को अरविन्द मूर्ति झंडा अवरोहन के बाद गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे.