बच्चों में निमोनिया के खतरे को बढ़ाता है घर के भीतर का प्रदूषण

बच्चों में निमोनिया के खतरे को बढ़ाने में घर के भीतर का प्रदूषण जैसे धूम्रपान,घर में लकड़ी जलाकर या गाय के गोबर को गरम करके खाना पकाना आदि अहम भूमिका निभाते है. एक अध्ययन के अनुसार प्रतिवर्ष ८७१५०० बच्चे घर के अन्दर के प्रदूषण से होने वाले निमोनिया के कारण मरते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार “वातावरण सम्बन्धी प्रदूषण, जैसे कि लकड़ी व गोबर के कंडे पर खाना पकाना, अथवा अन्य जैविक ईंधन का प्रयोग करना, घर में धूम्रपान करना और भीड़ भरे स्थान पर रहना भी बच्चों में निमोनिया के खतरे को बढ़ाता है”. अतः बच्चों को साफ़-सुथरे और अच्छे वातावरण में रखना चाहिए ताकि उनमें निमोनिया तथा अन्य बीमारियाँ होने का जोखिम कम से कम हो.

बहराइच जिला अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ.  के. के. वर्मा के अनुसार "घर के भीतर का प्रदूषण, जैसे बीड़ी पीना, चूल्हे पर खाना पकाना आदि, बाल निमोनिया के खतरे को बढ़ा देता है. ग्रामीण क्षेत्र में संक्रमण फैलने  के और भी बहुत से कारण हैं, जैसे गाँव में मलखाना घर के अन्दर ही कच्ची दीवारों का बना होता है जिसके कारण संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ जाता है. अतः मलखाना घर के बाहर बनना चाहिए और पक्की दीवारों का बनना चाहिए. भारत सरकार द्वारा मलखाना बनाने का जो कार्यक्रम चलाया गया है उसे लोगों को अपनाना चाहिए. ग्रामीण घरों के बच्चे प्रायः जमीन पर बैठकर खाना खाते हैं. ऐसा नहीं करना चाहिए. घर की लिपाई-पुताई होनी चाहिए. घर पक्के ईंट का बना  होना चाहिए. जो शहरी  क्षेत्र के लोग हैं उनमें संक्रमण फैलने का खतरा कम होता है क्योंकि उन्हें शुद्ध पानी मिलता है जबकि ग्रामीण क्षेत्र में शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं होता जिसके कारण उनमें संक्रमण फैलने का खतरा और भी ज्यादा बढ़ जाता है".

लखनऊ में अपना निजी क्लीनिक चलाने वाली बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कुमुद अनूप प्रदूषण के लिए धूम्रपान को दोषी मानती हैं. उनका कहना है कि "शहरी परिपेक्ष में धूम्रपान घर के भीतर के प्रदूषण का एक बड़ा कारण है. बच्चे जो परोक्ष रूप से धूम्रपान के शिकार हो जाते हैं वह उनके लिए बहुत ही हानिकारक होता है और उनमें निमोनिया होने का खतरा बढ़ जाता है. धूम्रपान न केवल निमोनिया बल्कि अस्थमा तथा अन्य कई प्रकार के संक्रमणों को दावत देता है. अतः बच्चों को परोक्ष धूम्रपान के कुप्रभावों से बचाने के लिए घर के भीतर धूम्रपान वर्चित होना चाहिए. तभी हम बच्चों में निमोनिया तथा अन्य स्वास्थ सम्बन्धी बीमारियों के खतरे को कम कर पायेंगे". 

डॉक्टर में भी घर के भीतर होने वाले प्रदूषण से जन्मे संक्रमण के बारे में जानकारी का अभाव है. जिसका अन्दाजा हम इस बात से ही लगा सकते हैं कि बहराइच जिला अस्पताल के स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. पी. के मिश्र घर के भीतर के प्रदूषण को निमोनिया का कारण नहीं मानते हैं. उनके अनुसार "धूम्रपान, तम्बाकू के प्रयोग से या फिर घर में खाना पकाने के लिए अंगीठी के उपयोग से सीधे तौर पर निमोनिया के होने का खतरा नहीं होता है. पर बच्चे को धुएं में रखने से घुटन हो सकती है पर इससे सीधे तौर पर कोई बीमारी होने का खतरा नहीं होता है".

धूम्रपान से निमोनिया के होने का खतरा बढ़ जाता है. जिसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि बहराइच जिला अस्पताल में दिखाने आयी निमोनिया से पीड़ित ढाई साल के एक बच्चे की माता ने बताया कि उसके घर में कई लोग धूम्रपान और तम्बाकू का सेवन करते हैं और घर में खाना भी चूल्हे पर पकाया जाता है. एक और माता, जिसका तीन दिनों का बच्चा जो निमोनिया से पीड़ित था, ने बताया कि उसके घर में भी चूल्हे पर खाना पकाया जाता है और बच्चे के पिता बीड़ी, सिगरेट और गुटके का सेवन करते हैं .

बेहतर स्वास्थ्य देखभाल, उचित पोषण और पर्यावरण में सुधार स्वतंत्र कारक हैं जो बाल निमोनिया के घटनाओं को कम कर सकते हैं. अतः  समाज में लोगों के जीवन स्तर में परिवर्तन लाने के लिए इन कारकों की भूमिका प्रमुख है. सरकार को भी इन कारकों को ध्यान में रख कर ही स्वास्थ्य कार्यक्रमों को क्रियान्वित करना चाहिए. जब लोगों का जीवन स्तर बेहतर होगा तथा लोग अच्छे जीवन स्तर की विधि अपनायेंगें तभी निमोनिया तथा अन्य संक्रमणों से बचाव सम्भव हो पायेगा.

राहुल कुमार द्विवेदी - सी.एन.एस.
(लेखक सी.एन.एस. www.citizen-news.org ऑनलाइन पोर्टल के लिये लिखते हैं)

अच्छा पोषण बच्चों को निमोनिया से बचाता है

बच्चे जो कुपोषित या अल्पपोषित और जन्म से शुरूआती छः माह तक सिर्फ माँ का दूध नहीं पीते हैं, उनमें रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होती है जिससे कारण उनमें निमोनिया के होने का खतरा बढ़ जाता है. अतः बच्चों को निमोनिया से बचाने में उचित पोषण और माँ के दूध का महत्वपूर्ण योगदान है. सम्पूर्ण विश्व में बच्चों में निमोनिया से होने वाली कुल मौतों में से ४४% मौतें कुपोषण के कारण होती हैं.  

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पूरे विश्व में  प्रतिवर्ष पांच वर्ष से कम आयु के १८ लाख बच्चों की मृत्यु निमोनिया  से होती हैं.  यह संख्या बच्चों में अन्य बीमारियों से होने वाली मृत्यु से कहीं अधिक है.   निमोनिया एक प्रकार का तीव्र श्वास सम्बन्धी संक्रमण है जो फेफड़ों की वायुकोष्टिकाओं को प्रभावित करता है. जब कोई स्वस्थ मनुष्य साँस लेता है तो यें वायुकोष्टिकाएं हवा से भर जाती  हैं. परन्तु निमोनिया से पीड़ित व्यक्ति  में ये  कोष्टिकाएं मवाद और तरल पदार्थ से भर जाती हैं जिसके कारण श्वास लेने की प्रक्रिया  कठिन और दुःखदायी हो जाती है तथा शरीर में ऑक्सीजन सीमित मात्रा में पहुँच पाती है.

बहराइच जिला अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ के. के. वर्मा के अनुसार "बच्चों को निमोनिया से बचाने के लिए सम्पूर्ण पोषण बहुत आवश्यक है. इससे बच्चों  के शरीर को पूर्ण रूप से सभी प्रकार के विटामिन मिलते रहते हैं फलस्वरूप बच्चों का निमोनिया से बचाव होता रहता है. पूर्ण पोषण के लिए बच्चों को दाल, चावल और रोटी दें, बाहर का 'रेडीमेड बेबी फ़ूड' जहां तक संभव हो नहीं देना चाहिए. बाहरी ' रेडीमेड बेबी फ़ूड' बच्चे के स्वास्थ्य के लिए एक ख़राब पोषण है" 

बहराइच जिला अस्पताल के स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. पी. के मिश्र का मानना है कि "शिशु के लिए जीवन के पहले छः माह तक माँ का दूध सबसे उचित पोषण है और जब बच्चा  छः माह से अधिक का हो जाए तो दलिया वगैरा दिया जा सकता है. बोतल का दूध बिल्कुल ही नहीं पिलायें यह बच्चों के लिए सही पोषण नहीं है. महिलाओं में जानकारी की कमी है अतः आवश्यक है कि उन्हें जानकारी दी जाए यदि वे जानकार होंगी तो अच्छे पोषण कि विधि अपने-आप अपना लेंगी".

लखनऊ में एक निजी चिकित्सालय चलाने वाली बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कुमुद अनूप जी के अनुसार "हाथ कि स्वच्छता बहुत महत्वपूर्ण है, जिससे निमोनिया तथा अन्य अनेक बीमारियों से बच्चों को बचाया जा सकता है. अतः,  उचित पोषण और स्वच्छता न केवल बच्चे को निमोनिया तथा अन्य रोगों से बचाने में सहायक है बल्कि बच्चे के शारीरिक विकास और रोगप्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाने में कारगर  है. दाल, चावल, रोटी  और सब्जी सबसे अच्छा और सस्ता पौष्टिक आहार है जो किसी भी प्रकार से हानिकारक नहीं है".

डॉ वर्मा के अनुसार भी बच्चों को निमोनिया से बचाने के लिए सफाई बहुत महत्वपूर्ण है. अतः बच्चे को ठीक प्रकार से हाथ को धोने के बाद ही स्पर्श करना चाहिए. बच्चों को कपड़े धुले व साफ़-सुथरे पहनाने चाहिए. बेहतर होगा कि कई कपड़ों का प्रयोग पहनाने के लिए करें यदि एक-दो  कपड़े ही हैं तो हर बार कपड़े धुल कर ही पहनायें.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बच्चों को निमोनिया से बचाने में पर्याप्त मात्रा में पोषण बहुत ही अहम भूमिका निभाता है. बच्चों को आरम्भ के छः महीने तक समुचित मात्रा में पोषण देने के लिए माँ का दूध पर्याप्त है. यह बच्चों के लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा है जो कि बच्चों को न केवल पूर्ण पोषण प्रदान करता है बल्कि उनमे रोगप्रतिरोधक क्षमता का विकास भी करता है. 

अतः बच्चों को समुचित पोषण और उचित वातावरण प्रदान करके हम उसे न केवल निमोनिया वरन  अन्य कई प्रकार के भ्रामक बीमारियों से बचा सकते हैं. बच्चों को उचित पोषण देने के लिए उसके जीवन के पहले छः माह तक केवल माँ का दूध पर्याप्त है तथा ६ से २४ माह तक के लिए माँ के दूध के साथ-२ दाल, चावल, रोटी, सब्जी, दलिया और अन्य पूरक आहार दिया जा सकता है. लोगों में जानकारी का अभाव है. समाज में बहुत बड़ी जागरूकता की जरूरत है. तभी समाज में लोग विभिन्न प्रकार के स्वास्थवर्धक विधियों को अपनाकर, बच्चों को निमोनिया तथा अन्य बीमारियों से बचाने में सफल हो पायेंगें.

राहुल कुमार द्विवेदी - सी.एन.एस.
(लेखक सी.एन.एस. www.citizen-news.org ऑनलाइन पोर्टल के लिये लिखते हैं)

बच्चे को निमोनिया से बचाने में सबसे कारगर "माँ का दूध"

उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्वास्थ्य चिकित्सकों का मानना है कि शिशु के जीवन के पहले छः महीने तक केवल माँ का दूध अति आवश्यक है. यह शिशु को न केवल निमोनिया बल्कि अन्य बहुत सारे शारीरिक संक्रमण जैसे अतिसार दस्त, कुपोषण आदि से भी बचाता है. और बच्चे को स्वस्थ रखने में सबसे कारगर है. बच्चे को, जीवन के शुरुआती छ: महीने में, ऊपर से किसी भी प्रकार का दूध 'सप्लीमेंट' या फिर बोतल का दूध नहीं देना चाहिए. एक अध्ययन के अनुसार जीवन के शुरुआती छः महीने तक केवल माँ का दूध पीने वाले बच्चों की तुलना में बच्चे, जो अपने जीवन के पहले छः महीने तक केवल माँ का दूध नहीं पीते हैं, उनमें निमोनिया से मरने का ५ गुना अधिक खतरा होता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी बताया है कि शिशु जीवन के पहले छः माह तक केवल स्तनपान ही उसके आहार का एकमात्र स्रोत है. एक माह से कम आयु के बच्चों में, श्वास सम्बन्धी बीमारियों से होने वाली कुल मौत में से, ४४% मौतें कम स्तनपान के कारण होती हैं. बहराइच जिला अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ.  के. के. वर्मा  के अनुसार "माँ के दूध में विटामिन तथा कोलेस्ट्रम (नवदुग्ध) होता है. जो बच्चे को स्वस्थ रखने में और निमोनिया तथा अन्य शारीरिक संक्रमण से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अतः यह बहुत आवश्यक होता है कि हर माता शिशु के जीवन के पहले छः माह तक बच्चे को केवल अपना ही दूध पिलाये. बच्चे को ऊपर से बोतल का दूध नहीं देना चाहिए क्योकिं जो गुण माँ के दूध में है वह और किसी भी चीज़ में नहीं है".
     
बहराइच जिला अस्पताल के स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. पी. के मिश्र का भी मानना है कि  "माँ का दूध बहुत सारी बीमारियों और संक्रमणों से बचाता है. इसीलिए माँ का दूध बच्चे के लिए सबसे अच्छा पोषण है. और इससे अच्छा पोषण और कुछ  नहीं हो सकता है. अतः जो भी गर्भवती महिलाएं यहाँ पर आती हैं. हम उन्हें अच्छी तरह से बताते हैं कि वे शिशु के जीवन के पहले छः महीने तक उसे केवल माँ का दूध पिलायें और ऊपर से कोई भी अन्य दूध या फिर बोतल का दूध न पिलायें".

लखनऊ शहर के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ कुमुद अनूप के अनुसार "माँ का दूध सबसे सर्वोतम है. यह न केवल  बच्चे को संक्रमित बीमारी जैसे दस्त और गैस्ट्रोएन्टराइटिस (आँत या पेट में जलन) से बचाता है वरन बच्चे के शारीरिक विकास में भी सहायक होता है, तथा उसके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाकर उसे अन्य बीमारियों से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है. अतः माँ का दूध बच्चे के जीवन के पहले छः महीने तक के लिए अपने आप में एक सम्पूर्ण पोषण है. इसके अतिरिक्त बच्चे को ऊपर से कोई अन्य दूध सप्लीमेंट देने की आवश्यकता नहीं होती है".

बहराइच जिला अस्पताल के डॉ. मिश्र तथा डॉ.वर्मा का मानना है कि उनके अस्पताल में आने वाली महिलाओं में से लगभग ९० प्रतिशत महिलाएं बच्चों को स्तनपान कराती हैं.  और डॉ. मिश्र का यह भी कहना है कि "शहरी महिलाएं बच्चों को स्तनपान कम करा पाती हैं जिसके कई कारण हैं. कुछ महिलायें हैं जो कहीं पर कार्यरत हैं उनके लिए बच्चे को समय से स्तनपान करा पाना बहुत कठिन हो जाता है. कुछ महिलाएं बच्चों को या तो कम स्तनपान कराती हैं या फिर स्तनपान कराना ही नहीं चाहती हैं. अतः इस विषय पर जन साधारण को शिक्षा और जागरूकता की आवश्यकता है. प्रायः देखा गया है कि जब डॉक्टर गर्भवती महिलायें को उचित परामर्श देते हैं तो वे अपने बच्चे को अपना स्तनपान कराती हैं".

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नवजात शिशुओं के लिये सर्वश्रेस्थ माँ-का-दूध, परन्तु समाज में व्याप्त मान्यताओं के कारण जन्म के पश्चात् उन्हें मिलता है बकरी का दूध, शहद, पानी आदि
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जहाँ एक तरफ सरकारी जिला अस्पताल के डाक्टरों का यह मानना है कि अधिकतर महिलाएं बच्चों को स्तनपान कराती है वहीं दूसरी तरफ समाज में कुछ ऐसी मान्यताएं हैं जिनके अनुसार नवजात शिशु के जन्म के पश्चात् बकरी का दूध, शहद, पानी या फिर अन्य कोई चीज माँ के दूध से पहले पिलाई जाती है. जिसका आंकलन इससे लगाया जा सकता है कि बहराइच जिला अस्पताल में निमोनिया से पीड़ित अपने तीन दिनों के बच्चे को दिखाने आयीं माता का कहना है कि "हम बच्चे को बकरी का दूध पिला रहें है क्योकिं यह हमारे घर कि पुरानी परंपरा है कि नवजात शिशु को सबसे पहले बकरी का दूध पिलाया जाता है". निमोनिया से ही पीड़ित एक और ढाई साल के बच्चे की माता जी का कहना है कि वह भी बच्चे को अपना दूध नहीं पिला पायी थीं क्योकिं उस वक्त उनका दूध नहीं आ रहा था.
 
समाज में फैले इस प्रकार के प्रचलन न केवल बच्चों के विकास में बाधक है बल्कि समाज में एक अभिशाप के रूप में व्याप्त हैं जिसको इन चिकित्सकों को भी समझना होगा और माताओं को  ऐसा न करने का परामर्श देना होगा. क्योंकि अक्सर ऐसा देखा गया है कि जब चिकित्सक गर्भवती महिलायों को पूरी तरीके से समझाते हैं तो वें उनकी बातों का अनुसरण करती हैं और अपने बच्चे को स्तनपान कराती हैं. समाज में जागरूकता की कमी है अतः महिलायों को जानकार और जागरूक बनाना आवश्यक है तभी समाज में पूर्ण रूप से बदलाव आयेगा"

राहुल कुमार द्विवेदी - सी.एन.एस.
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

बालश्रमिक और 'पीतल नगरी' मुरादाबाद के स्लम

एक स्लम है शिवनगर, आत्मसंतुष्टि के लिए निवासी जिसे मोहल्ला कहते हैं!
’अंकल, अंकल....सर’ की आवाज।
’सर...सर’ एक और आवाज।
मुड़कर देखा तो गीता, दीपाली अपनी 2-3 सहेलियों के साथ लगभग दौड़ते हुए आ रही थी और रुकने का इशारा कर रहीं थी। मैं रुका। पास आकर उन्होंने कहा-'सर, हैप्पी दीवाली, अंकल दीवाली की बधाई।’ मैं अवाक-गद्गद हो गया। तुरन्त उन्हें भी बधाई, शुभकामनाएं दीं व ढेरों आशीर्वाद कहा। कुछ भावुक भी हो उठा इन बच्चों के उत्साह से!
स्थान-शिवनगर मलिन बस्ती (स्लम) 
वार्ड-शिवनगर वार्ड
जनपद-मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश 
तिथि-18 अक्टूबर 2011 
विश्वप्रसिद्ध 'पीतल नगरी’ के कारीगरों के कौशल ने न केवल मुरादाबाद को गौरवपूर्ण नाम दिया है बल्कि वित्तीय लाभ से भी नवाजा है जिसमें विदेशी मुद्रा अर्जन शामिल है। इन कारीगरों की वजह से अनेक व्यवसायी करोड़पति बन चुके हैं और भारत सरकार को भी विशाल विदेशी मुद्रा लाभ मिलता है परन्तु इन कुशल कारीगरों व उनके परिवाजनों को क्या मिला? स्थिति वही बदहाली की है आज भी। परिवार  जैसे-तैसे रोटी-कपड़ा की व्यवस्था कर पाता है। मकान? मलिन बस्तियों में जैसे मकान हो सकते हैं उसी तरह के यहां भी हैं। संकरी गलियों में दोनों ओर मकान बने हैं जिनमें परिवार के रहने का स्थान कम और धातुकर्म के लिए फैक्ट्री की जगह ज्यादा है। लगभग पूरा परिवार अथक परिश्रम करके पीतल को वर्तन या आकर्षक सजावटी वस्तुओं का रूप देने में जुटा रहता है। स्वाभाविक है इसमें ऐसे बच्चें भी शामिल होते हैं जिन्हें ’बालश्रमिक’ की संज्ञा दी जाती है। यानि, 06-14 आयुवर्ग के लड़के-लड़कियां।

सन् 2011 की जनगणना के अनुसार मुरादाबाद जनपद की जनसंख्या पौने अड़तालीस लाख (4.78 मिलियन) है। शिवनगर सौ में शहर स्थित एक स्लम है जिसे राज्य सरकार द्वारा अधिकृत माना गया है। यहां के निवासी इसे स्लम नहीं ’मोहल्ला’ कहकर आत्मसंतुष्टि पाते हैं। इसकी कुल आवादी 3532 है जिसमें 1900 पुरूष तथा 1632 महिलाएं शामिल हैं। 06-14 आयु के बच्चों की संख्या 729 है जिनमें 163 बालश्रमिक की श्रेणी में आते हैं। ये बच्चे स्कूल नहीं जाते और घरों में चल रही ’धातुकर्म फैक्ट्री’ में भट्टी को यंत्र द्वारा हवा देना, पानी-मिट्टी की व्यवस्था करना ताकि मोल्ड बनाये जा सकें जैसे कामों को अंजाम देते हैं। पहले अनेक बच्चे विधिवत चलने वाली फैक्ट्रियों में काम करते थे। कुछ सरकारी व गैर सरकारी प्रयासों के फलस्वरूप वहां से हटाये गये परन्तु कुटीर उद्योग के रूप में चलने वाली घरेलू फैक्ट्रियों में अभी भी कार्यरत है। जाहिर है कि ये सभी अवैध रूप से चल रही हैं परन्तु श्रम विभाग शायद अनजान है।

शिवनगर की ऐसी ही एक ’फैक्ट्री’ में मुहम्मद सुहेल भी काम करता है। बड़ी चतुरायी से अपनी उम्र 14 वर्ष बताता है परन्तु काम क्या करता है नहीं बताता है। स्कूल क्यों नहीं गये पूछने पर कहता है अभी समय नहीं हुआ है। शायद उसे यही कहने को कहा गया होगा! मोहल्ले में सरकारी स्कूल होता तो शायद जाता। ऐसी ही स्थिति अन्य बाल श्रमिकों की भी है। प्राइवेट स्कूल 12 हैं परन्तु 0-6 आयुवर्ग के 103 में 98 बच्चों के पास जन्म प्रमाण-पत्र नहीं हैं जिससे स्कूलों में दाखिला मिलना भी मुश्किल होगा।

बच्चों में स्कूल जाने वाले भी हैं जिनमें गीता, दीपाली, रितू, शिखा, नीराज, आसमा तो कक्षा 12 की छात्राएं हैं और मोहल्ले से दूर फूलवती कन्या इन्टर कालेज में जाती हैं। वह भी खुशी-खुशी। छटी में पढ़ने वाली नाजिय, आठवीं की सादिया भी खुश हैं पढ़ाई से। कुछ बनेंगी आगे चलकर ऐसा बताती है। परन्तु गुलक्शा चौथी के आगे नहीं पढ़ सकी है। आर्थिक समस्या उसके सामने रही हैं। दो-तीन साल से स्कूल नहीं जा सकी है। आगे क्या होगा यह भी नहीं बता पा रही है।

एनीमेटर हिना गुप्ता तथा भारती सक्सेना स्कूल न जाने वाली बच्चों की पढ़ाई के लिए  अभिभावकों से सम्पर्क सादे हैं। इनकी लगन काम भी आ रही है तभी तो नटखट शबाब आलम, अनस, सीमा, माहजबीं, आदिल, नाजनीन, आफरीन, सहनूर बालश्रम केन्द्र-71 में पहली कक्षा में भरती हुए हैं और नियमित रूप से स्कूल जा रहे हैं यह पूछने पर कि आज (18 अक्टूबर) क्यों नहीं गये स्कूल सबाब बताता है कि यहां इकठ्ठा होना था ना! स्कूल में उसे मजा आता है। कैसे? नहीं बता पाता।

सीमा के हाथ काले दिखे तो पूछने पर बताती है कि पहले वह चूड़ी बनाने का काम करती थी जिससे ऐसा हुआ। अभी साफ नहीं हो सके हैं बच्ची के हाथ। हिना व भारती बताती हैं कि 7 अक्टबर से 17 अक्टूबर के बीच ही इन बच्चों को स्कूल में भरती कराया गया है और वे रोज जाते हैं। शिक्षा निःशुल्क है।

शिवनगर की कुछ महिलाओं की जागरूकता देख आशा की किरण जागी। उन्होंने ’आशा समूह’ बनाया है जिसमें ’मोहल्ले’ की अनेक महिलाएं (10 से अधिक) शामिल हैं। 15 दिन एक मीटिंग होती है जिसमें काम की समीक्षा और आगे का कार्यक्रम बनता है। इसमें 10-सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत बच्चों व उनकी माताओं के स्वास्थ्य संबंधी विषयों के अलावा शिक्षा, गलियों की सफाई, कूड़े का निस्तारण आदि समस्याओं के निराकरण पर चर्चा होती है। आवश्यकता पढ़ने पर अधिकारियों से मिलकर सफाई आदि करायी जाती है। आरती अग्रवाल अभी 6-7 महीने से ही समूह से जुड़ी हैं परन्तु सक्रिय हैं। बीना भटनागर समूह की सचिव तथा ममता ठाकुर कोषाध्यक्ष हैं। फख्र से बताती हैं कि इने फंड में लगभग दो हजार रुपये हैं जो मात्र 10 महीने के अन्दर ही जमा किए गये हैं। अप्सा का योगदान भी सराहनीय हेै। गली आदि की सफाई में बच्चें भी उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं।

मुरादाबाद में जुलाई 2009 से 'धातु उद्योग नगरी मुरादाबाद में बाल अधिकार संरक्षण’ परियोजना कार्यशील है। इस वर्ष जनवरी माह तक 9753 बालश्रमिक यहां चिन्ह्ति किये जा चुके हैं जिन्हें काम से मुक्ति दिलाकर शिक्षा दिलाने के प्रयास जारी हैं। शिक्षित बेरोजगार युवकों को भी संस्थान से  शिक्षण-ज्ञान अर्जन सामग्री देकर समाजोपयोगी बनाने का कार्यक्रम चल रहा हैं

ऐसा लगता है कि यूनीसेफ, राज्य श्रम विभाग और जिला प्रशासन के साथ-साथ गैर सरकार संगठनों के समन्वय से बच्चों-महिलाओं से संबंधित अनेक हितकारी योजनाओं की पूर्ति में सफलता शीघ्र मिलेगी और गीता, दीपाली आदि के साथ अन्य सभी बच्चे, महिलाएं व अन्य नागरकि गरीबी, अज्ञानता के अंधकार को शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, बाल एवं मानवाधिकार आदि के जरिये मिटाकर सुखद दीपावली मनाने का सुअवसर प्राप्त कर सकेंगें

दुर्गेश नारायण शुक्ल

गरीब-हितैषी नीतियों की मॉंग के समर्थन में उपवास का तीसरा दिन

- देश के कई क्षेत्रों में काली दीवाली -
   योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल याचिका में गरीबी रेखा की हास्यास्पद परिभाषा दी गई है। सरकार ने ऐसी नीतियां अपनाई हैं कि गरीब की कीमत पर पहले से ही सम्पन्न लोगों को ज्यादा लाभ मिला है। गरीबी या महंगाई पर कैसे काबू पाया जाए इसका उसे कोई अंदाजा नहीं है जिसकी वजह से गरीब का जीना बहुत ही मुश्किल हो गया है। सरकार किसानों की आत्महत्या, भुखमरी से मौतें, बच्चों का कुपोषण या प्रसव के दौरान मां की मृत्यु दर पर काबू पाने में नाकाम रही है। जबकि मंत्रियों ने भ्रष्टाचार में करोड़ों कमाए हैं सरकार गरीबों के प्रति संवेदनहीन रही है।

इन्हीं मॉंगों के समर्थन में मैगसेसे पुरूस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ0 संदीप पाण्डेय एवं सैकड़ों अन्य नागरिक पांच दिवसीय उपवास पर हैं जिसका आज तीसरा दिन है - 22 अक्टूबर से 26 अक्टूबर, 2011 तक यह उपवास रहेगा। डॉ0 संदीप पाण्डेय उपवास पर आशा आश्रम, ग्राम लालपुर, पोस्ट अतरौली, जिला हरदोई, उ.प्र. में बैठे हैं। हरदोई के अलावा लखनऊ, अहमदाबाद, मुरादाबाद, आदि में भी लोग भारी मात्रा में उपवास पर हैं।

नर्मदा बचाव आंदोलन का नेतृत्व कर रहे आलोक अग्रवाल ने भी आशा आश्रम में उपवास में भाग लिया। तीन ग्राम प्रधानों ने भी इसका समर्थन किया कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की सूचियां ग्राम सभाओं व वार्ड सभाओं में तैयार हों।

हमारी मांगें हैं किः
(1) योजना आयोग अपना गरीबी का मानक - शहर में प्रति दिन 32 रु. व गांवों में 26 रु. खर्च करने वाला - वापस ले, (2) गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की सूचियां ग्राम सभाओं व वार्ड सभाओं में तैयार हों, (3) सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लोक व्यापीकरण हो यानी हर गरीब को कम कीमत पर अनाज मिले जैसे उसे रोजगार गारण्टी योजना में काम मिल सकता है, (4) अनाज के बदले जो नकद देने की योजना बनी है उसे वापस लिया जाए, (5) राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में न्यूनतम मजदूरी 250 रु. प्रति दिन हो जो हरेक मूल्य वृद्धि व सरकारी कर्मचारियों के वेतन वृद्धि के साथ संशोधित हो तथा सारी कृषि मजदूरी रोजगार गारण्टी योजना से दी जाए और (6) समान शिक्षा प्रणाली को शिक्षा के अधिकार अधिनियम का हिस्सा बनाया जाए।

यह बहुत जरूरी हो गया है कि गरीब के मुद्दे उठाए जाएं क्योंकि अभिजात्य शासक वर्ग लगातार उसके साथ खिलवाड़ करता जा रहा है और मध्य वर्ग इस पर चुुप रहता है। अमीर व गरीब के बीच बढ़ते अंतर के साथ अब पहले से ज्यादा विभिन्न वर्गों के लिए मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि, की गुणवत्ता में अंतर दिखाई पड़ने लगा है जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जायज नहीं ठहराया जा सकता।

इस बार हम काली दीवाली मनाएंगे। जो हालात सरकार की आर्थिक नीतियों ने पैदा किए हैं उसमें गरीब के लिए दीवाली मनाने की बहुत गुंजाइश नहीं रही है। यह उपवास गरीबों व ग्रमीण इलाकों के साथ होने वाले भेदभाव के विरुद्ध है।

आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, लोक राजनीति मंच

दीवाली काली मनाएं

[English] [हस्ताक्षर अभियान] योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल याचिका में गरीबी रेखा की हास्यास्पद परिभाषा दी गई है। सरकार ने ऐसी नीतियां अपनाई हैं कि गरीब की कीमत पर पहले से ही सम्पन्न लोगों को ज्यादा लाभ मिला है। गरीबी या महंगाई पर कैसे काबू पाया जाए इसका उसे कोई अंदाजा नहीं है जिसकी वजह से गरीब का जीना बहुत ही मुश्किल हो गया है। सरकार किसानों की आत्महत्या, भुखमरी से मौतें, बच्चों का कुपोषण या प्रसव के दौरान मां की मृत्यु दर पर काबू पाने में नाकाम रही है। जबकि मंत्रियों ने भ्रष्टाचार में करोड़ों कमाए हैं सरकार गरीबों के प्रति संवेदनहीन रही है।

हमारी मांगें हैं कि 
(1) योजना आयोग अपना गरीबी का मानक - शहर में प्रति दिन 32 रु. व गांवों में 26 रु. खर्च करने वाला - वापस ले,
(2) गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की सूचियां ग्राम सभाओं व वार्ड सभाओं में तैयार हों,
(3) सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लोक व्यापीकरण हो यानी हर गरीब को कम कीमत पर अनाज मिले जैसे उसे रोजगार गारण्टी योजना में काम मिल सकता है,
(4) अनाज के बदले जो नकद देने की योजना बनी है उसे वापस लिया जाए,
 (5) राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में न्यूनतम मजदूरी 250 रु. प्रति दिन हो जो हरेक मूल्य वृद्धि व सरकारी कर्मचारियों के वेतन वृद्धि के साथ संशोधित हो तथा सारी कृषि मजदूरी रोजगार गारण्टी योजना से दी जाए और
(6) समान शिक्षा प्रणाली को शिक्षा के अधिकार अधिनियम का हिस्सा बनाया जाए।

यह बहुत जरूरी हो गया है कि गरीब के मुद्दे उठाए जाएं क्योंकि अभिजात्य शासक वर्ग लगातार उसके साथ खिलवाड़ करता जा रहा है और मध्य वर्ग इस पर चुप रहता है। अमीर व गरीब के बीच बढ़ते अंतर के साथ अब पहले से ज्यादा विभिन्न वर्गों के लिए मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि, की गुणवत्ता में अंतर दिखाई पड़ने लगा है जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जायज नहीं ठहराया जा सकता।

इस बार हम काली दीवाली मनाएंगे। जो हालात सरकार की आर्थिक नीतियों ने पैदा किए हैं उसमें गरीब के लिए दीवाली मनाने की बहुत गुंजाइश नहीं रही है।

यह कार्यक्रम गरीबों व ग्रमीण इलाकों के साथ होने वाले भेदभाव के विरुद्ध है इसलिए एक गरीब गांव में पांच दिवसीय उपवास का कार्यक्रम भी किया जा रहा है जो 22 अक्टूबर, 2011 से प्रारम्भ होगा व दीवाली की अगली सुबह अर्थात 26 अक्टूबर, 2011 तक चलेगा। कार्यक्रम "आशा आश्रम, ग्राम जलालपुर, पोस्ट अतरौली, जिला हरदोई, उत्तर प्रदेश" में किया जायेगा |

कृपया उपवास स्थल पर पधार कर इस अभियान को अपना समर्थन दें व इस तरह के प्रतिरोध के कार्यक्रम अन्य जगहों पर भी करें।

डॉ संदीप पाण्डेय
(लेखक मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं और वर्तमान में भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान गांधीनगर (गुजरात) में प्रोफेसर हैं)