बाल टी.बी./ तपेदिक से बचाव पर सारांश रपट जारी


आज इन्दिरा नगर सी-ब्लॉक चौराहा स्थित प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त केंद्र पर बाल टी.बी./ तपेदिक से बचाव पर सारांश रपट जारी की गयी। यह सारांश रपट आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, सक्षम फ़ाउंडेशन, अभिनव भारत फ़ाउंडेशन, सी.एन.एस. एवं अन्य 50 सहयोगी संगठनों ने तैयार की है।

विश्व टी.बी./ तपेदिक दिवस, 24 मार्च को है और इस वर्ष का केंद्रीय विचार है: बाल टी.बी./ तपेदिक। यह सारांश रपट अनेक साक्षात्कारों और ऑनलाइन संवादों पर आधारित है जिनमें लखनऊ शहर के अनेक विशेषज्ञों ने भाग लिया जिसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार विजेता प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त, छत्रपति शाहुजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पलमोनरी मेडिसिन विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ सूर्य कान्त, डॉ राम मनोहर लोहिया अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ अभिषेक वर्मा, नेल्सन अस्पताल के वरिष्ठ बाल-रोग विशेषज्ञों का मण्डल डॉ अजय मिश्रा, डॉ दिनेश चन्द्र पांडे, एवं डॉ सुधाकर सिंह, आदि भी शामिल हैं। परंतु सबसे महत्वपूर्ण प्रतिभागी रहे हैं टी.बी./ तपेदिक से जूझ रहे बच्चों के माता-पिता और अभिभावक।

इस सारांश रपट के मुख्य मुद्दे:
यदि टी.बी./ तपेदिक का उपचार पूरा किए हुए लोगों को कार्यक्रम को लागू करने में गरिमा के साथ शामिल किया जाये तो टी.बी./ तपेदिक कार्यक्रम की सफलता बढ़ जाएगी। टी.बी./ तपेदिक रोकथाम, उपचार आदि का लाभ उठाने में जो समस्याएँ आती हैं वह सबसे बेहतर वो लोग जानते हैं जो इन सेवाओं को ले चुके हैं। टी.बी./ तपेदिक नियंत्रण सिर्फ चिकित्सकीय इलाज से नहीं बल्कि उन विकास-से-जुड़े कारणों पर कार्य करने से होगा जिनकी वजह से टी.बी./ तपेदिक होने का खतरा कई गुना अधिक बढ़ जाता है। इस रपट ने मांग की है कि “पेशेंट्स चार्टर फॉर टीबी केयर’ लागू किया जाये, जो भारत सरकार की ‘टी.बी./ तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम’ योजना का भाग भी है।

जिन कारणों से बाल टी.बी./ तपेदिक होने का खतरा बढ़ता है उनपर कार्य आवश्यक है। विशेषज्ञों के अनुसार कुपोषण टी.बी./ तपेदिक होने का खतरा बढ़ा देता है। अंत: भोजन सुरक्षा कार्यक्रमों और टी.बी./ तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रमों को आपस में समन्वय से कार्यशील होना चाहिए ताकि किसी भी व्यक्ति या बच्चे को कुपोषण के वजह से टी.बी./ तपेदिक न हो।

बच्चों का तंबाकू धुएँ में सांस लेने से भी (परोक्ष धूम्रपान) टी.बी./ तपेदिक होने का खतरा 2-3 गुना बढ़ जाता है। भारत में सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान यूं भी वर्जित है। माता-पिता और अभिभावकों को चाहिए कि तंबाकू सेवन न करें और जो लोग करते हैं वे तंबाकू नशा मुक्त हों। घर में भीड़-भाड़, साफ-सफाई न रखना, जन्म के उपरांत 6 महीने तक नवजात शिशु को सिर्फ माँ का दूध न देना, चूल्हे के धुएँ से, मधुमेह या डाईबीटीस, एच.आई.वी., आदि से भी टी.बी./ तपेदिक होने का खतरा बढ़ जाता है।

अस्पताल और घर आदि में भी संक्रामण नियंत्रण करना चाहिए। अस्पतालों और घरों में खुली हवा और सूरज की रोशनी उपलब्ध होना, खाँसते वक़्त मुंह पर हाथ या कपड़ा रखना, बिना जरूरत बच्चों को अस्पताल न ले जाना, अस्पताल के कचरे को खुला न फेंकना, आदि ऐसे कदम हैं जिनसे संक्रामण फैलने का खतरा कम होता है।

एक महत्वपूर्ण बात इस रपट में आई कि वयस्क लोगों में टी.बी./ तपेदिक नियंत्रण से बाल टी.बी./ तपेदिक नियंत्रण स्वत: हो जाएगा। इसलिए जरूरी है कि टी.बी./ तपेदिक से ग्रसित वयस्क लोगों को शीघ्र ही ‘डाट्स’ उपचार पर रखा जाये और वें अपना टी.बी./ तपेदिक उपचार सफलता पूर्वक समाप्त करके टी.बी./ तपेदिक मुक्त हों। इससे बच्चों और अन्य वयस्क लोगों में भी टी.बी./ तपेदिक फैलने की संभावना कम होगी।

टी.बी./ तपेदिक का टीका (बी.सी.जी.) कुछ घातक टी.बी./ तपेदिक जैसे कि दिमाग की टीबी आदि से तो बचाता है पर बच्चों को सभी प्रकार की टीबी से सुरक्षा नहीं प्रदान करता। जाहिर है कि प्रभावकारी टीबी टीका होना चाहिए जिससे कि सभी प्रकार की टीबी से सुरक्षा मिले।

इस रपट को शोभा शुक्ला, राहुल कुमार द्विवेदी, नदीम सलमानी, रितेश आर्य, जित्तिमा जनतानामालाका, एवं बाबी रमाकांत ने तैयार किया है। पूरी रपट को डाऊनलोड करने के लिए इस वैबसाइट पर जाएँ: www.citizen-news.org  

सी. एन. एस. 

सभी उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार

1961 के चुनाव कराने सम्बन्धित अधिनियम की धारा 49 (ओ) के तहत भारतीय मतदाता को यह भी अधिकार दिया गया है कि यदि वह समझती है कि कोई भी प्रत्याशी उपयुक्त नहीं है तो वह अपना मत किसी को न दे और इस बात को प्रारूप 17 ए पर दर्ज कराए। यानी भारतीय नागरिक को मत देने के अधिकार के साथ-साथ मत न देने का भी अधिकार दिया गया है।

कल्पना करें कि सबसे ज्यादा मत पाने वाले उम्मीदवार से ज्यादा मतदाता सभी उम्मीदवारों को खारिज करने का विकल्प चुनते हैं। सैद्धांतिक रूप से इसका अर्थ होगा कि उस चुनाव क्षेत्र में ज्यादा मतदाता यही समझते हैं कि कोई उम्मीदवार चुना जाने लायक नहीं है। ऐसी दशा में चुनाव रद्द करा कर फिर से कराए जाने चाहिए जिसमें पिछली बार खड़ा कोई भी प्रत्याशी पुनः खड़ा न हो। यही बात राजनीतिक दलों के लिए खतरे की बात है। कहीं ऐसा न हो कि बड़े पैमाने पर जनता राजनीतिक दलों व उनके उम्मीदवारों को खारिज करना शुरू कर दे। अधिकारी भी अभी वर्तमान व्यवस्था के बदलाव के पक्ष में नहीं है। उनका निहित स्वार्थ इसी में है कि वर्तमान समय में मौजूद भ्रष्ट व्यवस्था ही कायम रहे। इसका प्रमाण है मतदान कराने हेतु जिम्मेदार अधिकारियों - कर्मचारियों का मतदाता के प्रति रवैया।

11 फरवरी, 2012, को गाजीपुर जिले के मोहम्मदाबाद विधान सभा क्षेत्र के मुर्की कलां मतदाता केन्द्र पर जब स्वतंत्र पत्रकार व वकील खान अहमद जावेद एवं उनकी पत्नी राजदा जावेद ने इस अधिकार का इस्तेमाल करने की मंशा प्रकट की तो सेक्टर इन्चार्ज उनसे माफी मांगने लगा कि उसके पास प्रारूप 17 ए उपलब्ध नहीं है। वह जावेद युगल से गुजारिश करने लगा कि वे इस विकल्प कर इस्तेमाल न करें। दो घंटों तक बहस करने के बाद अ्रततः जावेद युगल ने हार मान कर अपना मत मजबूरी में किन्हीं को डाल ही दिया। 11 फरवरी को ही गोरखपुर में जरूर 97 लोग इस अधिकार का इस्तेमाल करने में सफल रहे। किन्तु यह तभी सम्भव हुआ जब महाराणा प्रताप डिग्री कालेज के प्राचार्य प्रदीप राव ने मतदान केन्द्र पर काफी हंगामा किया। 19 फरवरी को उन्नाव जिले में भगवंत नगर विधान सभा क्षेत्र में स्वतंत्र पत्रकार नागेश त्रिपाठी को पूरे दिन बेथर में मतदान केन्द्र संख्या 79 पर बैठाए रखने के बाद वहां उपस्थित अधिकारी ने कहा कि उसी रजिस्टर पर दर्ज कर दें कि अपना मत किसी को नहीं देना चाहते जिस पर सभी मतदाता हस्ताक्षर कर रहे थे। बॉबी रमाकांत को लखनऊ पूर्वी क्षेत्र में कुछ देर भ्रमित करने के बाद अधिकारियों ने बताया कि उनके पास प्रारूप 17 ए उपलब्ध नहीं है। उनसे कहा गया कि मतदान की प्रकिया में व्यवधान उत्पन्न न करें। अंततः बॉबी को अपना मत किसी उम्मीदवार को देना पड़ा क्योंकि मत देने हेतु उनसे धोखे से शेष प्रक्रियाएं, जैसे रजिस्टर पर हस्ताक्षर कराना, उंगली पर स्याही लगाना, आदि, पूरी करा ली गईं थीं। इसी मतदान केन्द्र पर जब थोड़ी देर बाद राहुल द्विवेदी ने अपने इस अधिकार का इस्तेमाल करना चाहा तो उनसे कहा गया कि जिस रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर रहे हैं वहीं पर लिख दें कि वे अपना मत किसी को नहीं देना चाहते। इसी चुनाव क्षेत्र के इंदिरा नगर, सी ब्लॉक स्थित रानी लक्ष्मीबाई विद्यालय में जब सुधाकर रेड्डी ने इस अधिकार का इस्तेमाल करना चाहा तो वहां उपस्थित अधिकारी अनिल ने ऐसे किसी नियम के बारे में अनभिज्ञता प्रकट की। सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें बाहर जा कर शिकायत करने की सलाह दी तो किसी अधिकारी ने कहा कि उप-जिलाधिकारी के आने पर शिकायत दर्ज होगी। जब सुधाकर ने अपनी पत्नी को परेशान होते हुए देखा तो उन्होंने भी इस सोच से कि मत बेकार न जाए मजबूरी में किसी उम्मीदवार को अपना मत दे ही दिया। सीतापुर के हरगांव विधान सभा क्षेत्र में यदि पत्रकार एम.आर. शर्मा ने पर्वेक्षक से बात कर हस्तक्षेप न किया होता तो झरीखापुर विद्यालय के मतदान केन्द्र संख्या 115 व 116 से कक्षा पांच उत्तीर्ण शांति व संत राम, जो 49 (ओ) के तहत अपने अधिकार का इस्तेमाल करना चाहते थे, को वापस भेजा जा रहा था। इस क्षेत्र से कुल 283 लोगों ने अपने सभी उम्मीदवारों को खारिज करने के अधिकार का इस्तेमाल किया। लखनऊ में ममता सिंह ने न्यू हैदराबाद कालोनी स्थित मोतीलाल नेहरू इण्टर कालेज में मतदान केन्द्र संख्या 219 पर जब सभी उम्मीदवारों को खारिज करने के अधिकार का इस्तेमाल करना चाहा तो वहां उपस्थित अधिकारी माफी मांगते हुए गिड़गड़ाने लगे कि वे इसके लिए आग्रह न करें और किसी को अपना मत दे दें। इसी तरह बक्शी के तालाब विधान सभा क्षेत्र के मटियारी मतदान केन्द्र पर छात्र पवन सिंह को कहा गया कि जब अपना मत बेकार ही करना है तो किसी भी ऐरे गैरे को डाल दीजिए। पवन ने अंततः अपना मत एक छोटे दल के प्रत्याशी को डाला जिसके जीतने की कोई सम्भावना नहीं है।

यह बड़ी अजीब बात है कि मतदाता जागरूकता को तो अच्छा समझा जाता है। लेकिन क्या मतदाता जागरूकता इतना भर है कि हम घर से निकल कर किसी को भी मतदान कर आएं? अधिकारियों को अभी यह लगता है यदि कोई मतदाता धारा 49 (ओ) के तहत अपने अधिकार का इस्तेमाल करना चाहे तो उनका काम बढ़ जाएगा। मत देना तो जागरूक मतदाता की पहचान है लेकिन यदि आप किसी को मत न देने का अधिकार इस्तेमाल करना चाहें तो ऐसी टिप्पणी की जाती है कि क्या सबसे ज्यादा जागरूक आप ही हैं? या फिर यह कहा जाता है कि किसी को मत नहीं देना है तो यहां आए ही क्यों हो? इससे तो अच्छा होता कि घर बैठते। अधिकारियों की सोच इस मामले में अभी मतदाता के प्रति नकारात्मक है।

इस विडम्बना को सबसे अच्छी तरह उ.प्र. के एक ईमानदार आई.ए.एस. अधिकारी अभिव्यक्त करते हैं जिनका कहना है कि इतना जोर लगा कर यह तो सुनिश्चित कर लिया जाता है कि मतदान एकदम निष्पक्ष और बिना गड़बड़ी के हो लेकिन जब जनता के सामने चुनने के लिए विकल्प ही ठीक न हो तो दुर्भाग्य यह है कि ठीक प्रक्रिया से अंततः एक गलत व्यक्ति ही चुन कर आता है। अधिकारियों को यह समझना होगा कि सभी उम्मीदवारों को नकारना भी एक किस्म की राजनीति है। यह जनता की राजनीति है जो राजनीतिक दलों के खिलाफ जाती है। असल में देखा जाए  तो भ्रष्ट एवं आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को चुनाव के मैदान से बाहर करने का यह बहुत कारगर औजार हो सकता है। यदि जनता तय कर ले कि सभी अवांछनीय लोगों को चुनाव लड़ने से रोका जाए तो बड़े पैमाने पर लोग सभी उम्मीदवारों को खारिज करने के अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं। और राजनीतिक दल भी फिर इस डर से कि कहीं जनता उनके उम्मीदवारों को नकार न दे सही किस्म के लोगों को उम्मीदवार बनाना शुरू करेंगे। अभी तो उनको मालूम है कि जनता की मजबूरी है कि उसे उन्हीं में से किसी एक को चुनना है। इसलिए दल जनता की भावना को धता बताते हुए भ्रष्ट एवं अपाराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को ही उम्मीदवार बनाते हैं।

मुख्य चुनाव आयुक्त कह चुके हैं कि अब वक्त आ गया है कि सभी उम्मीदवारों को खारिज करने के अधिकार का क्रियान्वयन हो। इसका सबसे कारगर तरीका होगा इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर आखिर में इस विकल्प हेतु एक बटन उपलब्ध कराना। दूसरा यह नियम बनाना कि यदि सबसे ज्यादा मत पाए  उम्मीदवार से भी ज्यादा लोग सभी उम्मीदवारों को खारिज करने वाला बटन दबाते हैं तो चुनाव रद्द कर पुनः नए उम्मीदवारों के साथ मतदान कराना जिसमें पिछली बार खड़े प्रत्याशियों पर प्रतिबंध हो। इस प्रकिया से जनता अंततः सही उम्मीदवार को चुन लेगी और तमाम अवांछनीय प्रत्याशी खारिज कर दिए जाएंगे।

डॉ. संदीप पाण्डेय 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च पर विशेष

यथार्थ की त्रासदी
हमका बताओ आपन नाम बहिनी
हमार नाम का कौनो काम बहिनी

अम्मा की गोदिया मा मुनिया रहीं हम
पाछे रामेसुर की दिदिया बनीं हम
स्कूल मा हमरा कौनो नाम न लिखऊली
भौजी की रसोई मा हाथ बस बटऊली
गुड़िया खेलत जब ससुर घर गयली
तब हम बटेसर की दुलहिन कहऊली

साल पीछे बिटिया का जनम जब भयली
सास हमें तब कुलच्छिनी कहली
अबके डाक्टरनी जो हम लरिका जनिबे
तब हम मुन्ना की अम्मा कहइबे
हमरी न कौनो औकात बहिनी
हमार नाम का कौनो काम बहिनी

शोभा शुक्ला -सी. एन. एस. 

मतदान अधिकारी ने कहा: फार्म १७-ए जैसा कोई नियम है ही नहीं

इंदिरा नगर निवासी श्री सुधाकर रेड्डी जब मतदान करने "रानी लक्ष्मी बाई स्कूल सी-ब्लाक, इंदिरा नगर" गए तो उन्होंने फार्म १७-ए की मांग की जिससे कि वें अपना मत सभी उम्मीदवारों को ख़ारिज करने के लिए दे सकें. परन्तु वहाँ उपस्थित अधिकारीयों ने, जिनमें श्री अनिल शामिल थे, फार्म १७-ए के बारे में 'अज्ञानता' जताई और कहा कि "ऐसा कोई नियम है ही नहीं". सुधाकर जी के निरंतर आग्रह करने पर वहाँ टास्क फ़ोर्स के सुरक्षा कर्मी आ गए और उनसे बाहर आ कर शिकायत आदि दर्ज करने के लिए कहा गया. अधिकारीयों ने कहा कि 'ए.डी.एम्' साहब जब आयेंगे तब आप अपनी शिकायत दर्ज करें.' अंतत: सुधाकर भाई को भी मजबूरन मतदान करना पड़ा क्योंकि वो अपना वोट व्यर्थ नहीं जाने देना चाहते थे और किसी भी उम्मीदवार से संतुष्ट भी नहीं थे. 

सुधाकर भाई का कहना है कि चुनाव आयोग द्वारा आयोजित दो-दिवसीय प्रशिक्षण में फार्म १७-ए क्यों नहीं शामिल किया गया है? चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त अधिकारियों और प्रशिक्षित लोगों को फार्म १७-ए के बारे में क्यों नहीं जानकारी है?

बड़ा मुद्दा यह है कि लोकतंत्र में जब मतदान गोपनीयता के साथ होता है तब 'सभी उम्मीदवारों को ख़ारिज करने का मतदान' गोपनीय क्यों नहीं है? फार्म १७-ए के उपयोग करने के लिए हमको मतदान केंद्र पर तमाशा खड़ा क्यों करना पड़ता है?

हमारा मानना है कि यदि फार्म १७-ए की संख्या जीतने वाले प्रत्याशी से अधिक हो तो चुनाव ख़ारिज कर देना चाहिए और पुन: चुनाव में इन सभी ख़ारिज उम्मीदवारों पर, पुन: चुनाव में उम्मीदवार होने पर पाबंद लगना चाहिए.

सी.एन.एस.

उन्नाव चुनाव प्रेक्षक को ही फार्म १७-ए सम्बंधित सही जानकारी नहीं

उन्नाव चुनाव प्रेक्षक को ही फार्म १७-ए सम्बंधित सही जानकारी नहीं थी. जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता और सच्ची मुच्ची के संपादक श्री नागेश त्रिपाठी जब उन्नाव में अपना मतदान करने पहुंचे और फार्म १७-ए के इस्तेमाल की बात की तो वहाँ उपस्थित मतदान केंद्र अधिकारीयों को पर्याप्त जानकारी नहीं थी. जब नागेश जी ने उन्नाव चुनाव प्रेक्षक से शिकायत की तो उन्होंने कहा कि: "फार्म १७-ए मंगवा रहे हैं".

सुबह से शाम होने को आई और फार्म १७-ए आने का नाम ही नहीं ले रहा था. अंतत: उन्नाव चुनाव प्रेक्षक ने कहा कि "जिस रजिस्टर में सभी मतदाता हस्ताक्षर कर रहे हैं या अंगूठे का निशाँ लगा रहे हैं उसी में आप टिपण्णी दर्ज करें कि "I reject all candidates". 

सवाल यह उठता है कि उन्नाव के चुनाव प्रेक्षक जो सुबह से 'फार्म १७-ए' मंगवा रहे थे उनको सही जानकारी क्यों नहीं थी? 

सरकार जैसे कि मतदान करने के प्रचार करती है उसी तरह सरकार फार्म १७-ए के उपयोग करके सभी उम्मीदवारों को ख़ारिज करने का वोट डालने के विकल्प का प्रचार क्यों नहीं करती है?

फार्म १७-ए के उपयोग को इतना जटिल और सार्वजनिक क्यों बनाया गया है? जैसे कि एक मतदाता अपने अधिकार का उपयोग गोपनीयता के साथ करता है उसी तरह फार्म १७-ए का उपयोग गोपनीय क्यों नहीं रखा गया है? फार्म १७-ए के उपयोग के लिए इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन में एक बटन क्यों नहीं है? 

फार्म १७-ए के जरिये जो मतदाता सभी उम्मीदवारों को ख़ारिज करते हैं यदि उनकी संख्या ५० प्रतिशत हो तो पुन: चुनाव होने चाहिए और इन ख़ारिज उम्मीदवारों को इस चुनाव से बे-दखल करना चाहिए.

अधिक जानकारी के लिए नागेश त्रिपाठी जी से संपर्क करें: ९४५२११२००४

सी.एन.एस. 

चुनाव उम्मीदवारों को ख़ारिज करने के लिए फार्म १७-ए उपलब्ध क्यों नहीं?

चुनाव रूल्स १९६९ के सेक्शन ४९ (ओ) के अनुसार मतदाताओं के पास अधिकार है कि वें चुनाव क्षेत्र के सभी प्रतियाशियों को ख़ारिज भी कर सकें. परन्तु लखनऊ पूर्व के एक मतदान केंद्र पर यह फार्म १७-ए उपलब्ध नहीं था और न ही फार्म १७-ए जैसा कोई रजिस्टर. बल्कि जिस रजिस्टर पर सभी मतदाता हस्ताक्षर कर रहे थे उसी पर टिपण्णी लिखवा कर पीठासीन अधिकारी ने कहा कि यह फार्म १७-ए जैसा माना जायेगा. सवाल यह है कि फार्म १७-ए के उपयोग के बारे में सही जानकारी मतदान केन्द्रों के अधिकारीयों और जनता के पास क्यों नहीं है? राहुल कुमार द्विवेदी ने अपना अनुभव और चुनाव आयोग से की गयी अपनी शिकायत बांटा:

सेवा में,
श्री उमेश सिन्हा,
चुनाव आयुक्त, उत्तर प्रदेश
तिथि: 19 फरवरी 2012

विषय: फार्म 17-ए के संबंध में शिकायत

माननीय श्री सिन्हा,

मैं लखनऊ पूर्व विधान सभा क्षेत्र का निवासी हूँ और डाबेल कॉलेज, सेक्टर-15, इन्दिरा नगर, लखनऊ, में मेरा मतदान केंद्र है।

जब मैंने सेक्शन 49 (ओ) के तहत फार्म 17-ए का उपयोग करना चाहा तो मतदान केंद्र के अधिकारियों ने मुझसे विनम्रतापूर्वक व्यवहार नहीं किया – उदाहरण के तौर पर सबसे पहले अधिकारी से जब मैंने कहा कि मुझे फार्म 17-ए का उपयोग करना है तो उसने मुझे रूखा जवाब देते हुए कहा कि “आपको वोट नहीं डालना है क्या ?” जब मैंने कहा कि मुझे वोट डालना है पर फार्म 17-ए के उपयोग करके सभी उम्मीदवारों के विरोध में वोट डालना है, तब उन्होने कहा कि मैं पीठासीन अधिकारी से बात करूँ।

पीठासीन अधिकारी ने फार्म 17-ए न देते हुए कहा कि आप अपना ‘किसी प्रत्याशी को वोट न देने की टिप्पणी’ उसी रजिस्टर पर लिख दीजिये जिस रजिस्टर पर अन्य सभी मतदाता हस्ताक्षर कर रहे थे। इसी रजिस्टर पर मेरी टिप्पणी फार्म 17-ए की तरह मानी जाएगी, ऐसा अधिकारी ने मुझे बताया। स्वाभाविक है कि अधिकारी से फार्म 17-ए के संबंध में पता करने के सिलसिले में वहाँ उपस्थित सभी को ज्ञात हो गया कि मैं किसी उम्मीदवार को वोट नहीं दे रहा हूँ और सभी को खारिज करने के लिए आया हूँ। जब मतदान गोपनीय है तो फार्म 17-ए का उपयोग भी गोपनीय रहना चाहिए. अंतत: मैंने उसी रजिस्टर में जिसमें सभी अन्य मतदाता हस्ताक्षर कर रहे थे हस्ताक्षर करके अपनी टिप्पणी लिखी कि “मुझे किसी उम्मीदवार के पक्ष में वोट नहीं डालना है अंत: मैं फार्म 17-ए का उपयोग करना चाहता हूँ परंतु मुझे फार्म 17-ए नहीं दिया गया और इसी रजिस्टर में हस्ताक्षर और टिप्पणी करने को कहा गया।”

मेरी शिकायत यह है कि:
1) फार्म 17-ए की जानकारी मतदान केंद्र अधिकारियों को स्पष्ट होनी चाहिए, और यह प्रशासन की ज़िम्मेदारी है कि मतदाताओं को सूचित करे कि वें कैसे फार्म 17-ए का उपयोग कर सकते हैं।
2) जिस तरह मतदान गोपनीय रहता है उसी तरह सभी उम्मीदवारों को खारिज करने का वोट भी गोपनीय होना चाहिए, यह तभी संभव है जब फार्म 17-ए ई.वी.एम. मशीन में एक बटन की तरह उपलब्ध हो।

राहुल द्विवेदी
सी-2211, इन्दिरा नगर, लखनऊ – 226016, फोन: 983-999-0966

लोकतांत्रिक राजनीति में विकृतियों से लड़ने की जरूरत

लोकतांत्रिक राजनीति में कारपोरेट घरानों की घुसपैठ एक चिंता का विषय है। राजनीति में धन की जरूरत होती है यह बात सर्वविदित है। यह धन पहले कुछ जनता और ज्यादा पूंजीपतियों से चंदे के रूप में लिया जाता था। फिर वसूली शुरू हो गई। इस वसूली के कार्य में गुण्डे-माफिया सहायक होते थे अतः राजनीति में उनकी एक भूमिका हो गई। बहुमत जुटाने के वक्त उनका बाहुबल भी उपयोगी सिद्ध होने लगा। लेकिन पैसों की बढ़ती भूमिका से अब निजी कम्पनियों ने राजनीति पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। अब तो निजी कम्पनियां ही कई बार नीतियां तय करती हैं और इनके नुमाइंदों की सरकारों में घुसपैठ होती है, कहीं तो सीधे मंत्री के ही रूप में। हम जिनको जन प्रतिनिधि चुन कर भेजते हैं वे निजी कम्पनियों के दलाल हो जाते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2 जी स्पैट्रम की आवंटन नीति को खारिज कर जितने भी 122 लाइसेंस दिए गए थे उनको रद्द कर देने से अब यह साफ हो गया है कि केन्द्र सरकार के मंत्रियों ने देश को बेशर्मी से लूटा है। कहा जा रहा है कि प्रधान मंत्री ने ए. राजा को ये आवंटन न करने का सुझाव दिया था। किन्तु प्रधान मंत्री का यह कहना कि वे गठबंधन की सरकार को बचाने के लिए राजा को रोक नहीं रहे थे तर्कसंगत बात नहीं है। इस पूरे कांड के लिए प्रधान मंत्री जिम्मेदार हैं और उन्हें इस्तीफा देना ही चाहिए।

इसी तरह उत्तर प्रदेश में किस पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा था इसका अंदाजा खुद मायावती ने अपनी ही सरकार के जितने मंत्री निकाले हैं उससे लगाया जा सकता है। यह कैसे माना जा सकता है कि प्रदेश में जो कुछ भी हो रहा था वह मुख्य मंत्री की जानकारी के बिना हो रहा था? क्या पोंटी चड्ढा या बाबू सिंह कुशवाहा को बहन जी का संरक्षण प्राप्त नहीं था? जैसे केन्द्र के भ्रष्टाचार के लिए प्रधान मंत्री दोषी हैं उसी तरह प्रदेश के भ्रष्टाचार के लिए मायावती दोषी हैं।

उत्तर प्रदेश में सत्ता के लिए दावेदार सभी बड़े दल भ्रष्ट हैं या/और साम्प्रदायिक। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि भ्रष्टाचार की मूल वजह हमारी राजनीतिक व्यवस्था का भ्रष्टाचार से वित्तीय पोषण है। जब तक राजनीतिक व्यवस्था का चरित्र नहीं बदलता तब तक भ्रष्टाचार से पीछा छुड़ाना मुश्किल है।                      

युवा नेताओं का बोलबाला है। किन्तु क्या ये सामान्य युवा हैं? 30-40 वर्ष की आयु में कौन सा सामान्य युवा किसी राष्ट्रीय-प्रादेशिक दल का नेता बन सकता है, वह भी बिना कोई जमीनी काम किए हुए? ये तथाकथित युवा नेता तो सामंती वंशवादी परम्परा की देन हैं जिन्हें पार्टी नेतृत्व विरासत में मिल गया है। लोकतंत्र में यह सवाल तो कोई पूछ ही नहीं रहा कि नेता का बेटा कैसे नेता बन गया? यह तो घोर अलोकतांत्रिक बात है। जिस दल के अन्दर लोकतंत्र नहीं है वह लोकतंत्र को कैसे मजबूत करेगा? सामंती सोच वाली राजनीति जो भ्रष्टाचार और अपराध की नींव पर टिकी है एक भ्रष्ट-आपराधिक-सामंती व्यवस्था का ही निर्माण कर सकती हैं। ऐसी राजनीति को जड़-मूल से खत्म किए बगैर हम सही लोकतंत्र का सपना साकार नहीं कर सकते।

किन्तु आज लोकतंत्र के नाम पर यही लोकतंत्र विरोधी दल व्यवस्था पर हावी हैं जो सत्ता को अपनी जागीर समझते हैं और मनमाने ढंग से काम करते हैं। यदि इन्हें कोई चुनौती देता है, जैसे अण्णा हजारे ने दिया, तो यह लोकतंत्र की दुहाई देने लगते हैं। क्या भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर, अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को संसद व विधान सभाओं में पहुंचाकर, दलों को निजी कुनबों की तरह चलाते हुए ये लोकतंत्र व संसद की गरिमा को बढ़ा रहे हैं या गिरा रहे हैं?

राजनीति से मुद्दे गायब हो गए हैं इसलिए संसदीय बहस या कार्यवाही की गम्भीरता भी खत्म हो गई। क्या हमारे संविधान निर्माताओं में से किसी ने सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि विधायक सदन में बैठ कर अश्लील तस्वीरें देख रहे होंगे? क्या इस तरह की कार्यवाही से सदन की गरिमा नहीं गिरती? लेकिन फिर भी राजनीतिक दल अपने तौर तरीके बदलने को तैयार नहीं। वे उन्हीं भ्रष्ट व आपराधिक पृष्ठभूमि वालों पर निर्भर हैं जो उनकी सरकारें बनवा सकते हैं। राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण इन दलों के लिए बड़ा मुश्किल हो गया है कि वे गलत तरीके और लोगों को छोड़ सही को अपना लें। अण्णा हजारे के आंदोलन की तरह अब जनता ही उन्हें मजबूर करेगी की वे बदलें। अन्यथा जनता उन्हें अपने मताधिकार से खारिज कर देगी।


 स्वामी अग्निवेश गिरीश पाण्डेय              संदीप पाण्डेय
सामाजिक कार्यकर्ता राज्य अध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी

यूरोपियन यूनियन और भारत के बीच मुक्त व्यापार समझौते के विरुद्ध भारी जन-प्रदर्शन

यूरोपियन यूनियन और भारत के बीच मुक्त व्यापार समझौता विकासशील देशों में सस्ती दवाओं की उपलब्धता को बाधित कर सकता है

नई दिल्ली में इस समझौते के विरुद्ध एच आई वी के साथ जीवित 2000 लोगों का सामूहिक प्रदर्शन

आज जब भारत और यूरोपियन यूनियन के बीच मुक्त व्यापार समझौते से संबन्धित विवादों को समाप्त करने हेतु नई दिल्ली में शिखर सम्मेलन आरंभ हुआ , तो 2000 से अधिक एच आई वी के साथ जीवित व्यक्तियों ने प्रदर्शन करके इस समझौते के हानिकारक प्रावधानों के बारे सावधान किया जिनके रहते गरीब देशों में रहने वाले लोगों को कम मूल्य की दवाएं मिलने में बाधा होगी॰

दिल्ली नेटवर्क औफ़ पोसिटिव पीपुल की मुन्द्रिका गहलोत ने कहा कि, “हमारी ज़िंदगी और मौत व्यापारी मध्यस्थों के हाथ में नहीं होनी चाहिए॰ हम यहाँ पर भारत और यूरोपियन यूनियन को यह संदेश देना चाहते हैं कि हमारे जीवन का कारोबार मत करो।"

भारत को विकासशील देशों की फार्मेसी माना जाता है क्योंकि यह उच्च कोटी परंतु कम दाम की प्रजातिगत दवाएं बना कर विश्व के लाखों लोगों को सस्ता इलाज सुलभ कराता है।

जेनेरिक दवाओं के भारतीय उत्पादकों के बीच की प्रतिस्पर्धा के कारण ही एच आई वी के प्रथम चरण की दवाओं के दाम सान 2000 में 10,000 डॉलर से घट कर आज 150 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हो गए हैं। इस 99% मूल्य गिरावट के कारण ही आज एच आई वी का इलाज गरीबों को भी उपलब्ध हो पा रहा है। विकासशील देशों के 6.6 मिलियन लोगों के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली 80% से अधिक दवाएं भारत में ही बनती हैं। इसी प्रकार एच आई वी से पीड़ित बच्चों को दी जाने वाली 90% दवाएं भी भारतीय उत्पाद हैं॰ एम एस एफ एवं अन्य उपचार प्रबन्धक भी भारत निर्मित जेनेरिक दवाओं का उपयोग करते हैं।

वर्तमान व्यापार नियमों के अंतर्गत भी नई दवाओं के जेनेरिक प्रारूप बनाना कठिन होता जा रहा है। परंतु यूरोपियन यूनियन--भारत मुक्त व्यापार समझौता तो नए बौद्धिक संपत्ति व्यवधान पैदा करके स्थिति की गंभीरता को और बढ़ा रहा है।

लाएर्स कलेक्टिव की एच आई वी/एड्स शाखा के डाइरेक्टर श्री आनंद ग्रोवर के अनुसार, “ यह व्यापार समझौता तो विश्व व्यापार संगठन की हदों को भी पार कर रहा है। यूरोपियन यूनियन भारत से बौद्धिक संपत्ति के ऐसे माप दंडों की अपेक्षा रखता है जिनके चलते दूसरे देशों के मरीजों को भेजी जाने वाली दवाएं, भारतीय बन्दरगाहों पर रोकी जा सकती हैं, तथा उपचार प्रबन्धक के विरुद कोर्ट में मुकदमा भी चलाया जा सकता है। ये सभी प्रावधान बाज़ार में जेनेरिक दवाओं के प्रवेश को विलंबित करके भारत तथा सभी विकास शील देशों के रोगियों के स्वास्थ्य के अधिकार को प्रभावित करेंगे।

 समझौता वार्ता में दोनों देश लेन-देन की सौदेबाज़ी की घोषणा करेंगे। जानकार सूत्रों के हवाले से पता चला है कि यूरोपियन यूनियन भारत पर इस बात का दबाव डाल रहा है कि वह अनेक ऐसे बौद्धिक संपत्ति उपायों के लिए स्वीकृति दे दे जिनके चलते कम मूल्य की जेनेरिक दवाओं के उत्पादन, रेजिस्ट्रेशन और वितरण में बाधा पड़ेगी।

एम एस एफ (जो 19 देशों में 170,000 लोगों को एच आई वी उपचार उपलब्ध कराता है) भारत की हेड ऑफ मिशन, पीएरो गंदीनी का मानना है कि, “यूरोपियन यूनियन का यह व्यापार समझौता कम दाम की उन जेनेरिक दवाओं के उत्पादन के लिए एक धीमे जहर का काम करेगा जिनकी मदद से आज लाखों लोग ज़िंदा हैं। यह समझौता हम जैसे उपचार प्रबन्धकों को भी निशाना बना सकता है, जो भारत से सस्ती दवाएं खरीद कर रोगियों को उपलब्ध कराते हैं। मेरे पेरु प्रवास के दौरान लेटिन अमेरिकन देशों ने यूएसए के साथ ऐसा ही मुक्त व्यापार समझौता किया था, जिसके कारण ये सभी लेटिन अमेरिकन देश अपने नागरिकों को सस्ती दवाएं, (विशेषकर एच आई वी की दवाएं) उपलब्ध कराने में अत्यंत कठिनाई का सामना कर रहे हैं।“

बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, गुजरात, नागालैंड, मिज़ोरम, और मणिपुर आदि विभिन्न प्रान्तों से आए हुये एच आई वी के साथ जीवित व्यक्तियों ने दिल्ली प्रदर्शन में भाग लिया और साफ शब्दों में चेतावनी दी कि ‘यूरोप, खबरदार! हमारी दवाओं से दूर ही रहो’।

शोभा शुक्ला - सी.एन.एस.

मन न रहत एक समान

(दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित - रविवार, १२ फरवरी २०१२)
आज 104 बरस की उम्र में भी, उस्ताद अब्दुल रशीद खान का मन एक नवजात शिशु के समान निर्मल और निश्चल है। 1908 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के सलोन कस्बे में एक लब्ध प्रतिष्ठ संगीतज्ञ परिवार में जन्मे, खान साहब आज हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के ग्वालियर घराने के सबसे वयोवृद्ध गायक हैं। उनका सीधा ताल्लुक मियां तानसेन के घराने से है। इस उम्र में भी चेहरे पर न कोई झुर्री और न ही माथे पर कोई शिकन। बस एक दिल अजीज मासूमियत और एक खुशनुमा मुस्कान। हाल ही में खान साहब लखनऊ में महिंद्रा सनतकदा फेस्टिवल में शिरकत करने आए थे। लखनऊ के पार्क सरोवर होटल के कमरे में सी एन एस के माध्यम से उनसे बातचीत करने की खुशकिस्मती हासिल हुई। उसी गुफ्तगू की थोड़ी सी बानगी--

आपको देख कर जीने की ललक पैदा होती है। आप क्या संदेश देंगे आज के नौजवान को जो बचपन से ही मानसिक तनाव से जूझ रहा है।आपको देख कर यह जानने का दिल करता है की क्या राज है ज़िंदगी में खुश रहने का?

कोई राज़ नहीं है, बस एक रूटीन है जो चलता जाता है बराबर—हर पल को हर दिन को एक नए अंदाज़ से जीना। यह तो कुदरत का तमाशा है कि किसी को बीमार डाल दे किसी को अच्छा कर दे, किसी को मार दे, किसी को जिला दे। लेकिन मन से कभी खुद को बीमार नहीं समझना चाहिए।यह न समझे कि वो बीमार है। वही बीमार जल्दी अच्छा होता है।

इस उम्र में आपको कोई तकलीफ या परेशानी?

वैसे तो मुझे कोई परेशानी नहीं है, पर यह तो अपने अपने नज़रिये का सवाल है। अगर देखा जाय तो दो आदमी मुझे पकड़ कर उठाते, बैठाते हैं, तकलीफ और दर्द तो होता रहता है। एक वक़्त ऐसा था कि मुझे व्यावसायिक जलन के चलते पारा दिया गया जिससे मेरी सारी उँगलियाँ टेढ़ी होकर ठूंठ जैसी हो गयी। मगर अल्लाह का करम है कि मालिक ने मेरी आवाज़ बचा ली और वो आज भी बरकरार है। इस बात को बहुत अरसा बीत गया, पचासों बरस बीत गए। (शायद वो इस हादसे को याद ही नहीं करना चाहते)॰

आपने रियाज़ कब से शुरू किया?

वैसे तो जब बच्चा पैदा होता है, माँ की गोद में जाता है, माँ लोरी सुनाती है, तो वो भी सुर में सुनाती है। तो सुर तो उस वक़्त से ही कान में पड़ता रहता है। मैंने तालीम शुरू की 8,9 बरस की उम्र से। रायबरेली जिला के सलोन कस्बे में।मेरी पैदाइश वही की है। वही मैं गाया बजाया, पला बढ़ा। अभी भी मेरा खानदान वहाँ रहता है और मैं अब भी आता जाता रहता हूँ। 15-16 बरस की उम्र में पहला प्रोग्राम दिया और तब से लगातार प्रोग्राम कर रहा हूँ। अब तक 4000 से ऊपर अपनी बन्दिशें बना चुका हूँ (रसन पिया के नाम से)।

आप तो दुनिया के लिए एक मिसाल हैं। ताज्जुब है कि आपका नाम लिमका या गिनेस बुक में नहीं आया?

अब लिमका या गिनेस बुक में नाम नहीं है तो उसका मुझे कोई गिला नहीं। कलकत्ता में एक प्रोग्राम के दौरान किन्ही गीता देसाई ने मुझसे कहा कि आप जैसा हिंदुस्तान में कोई नहीं है, पूरी दुनिया में कोई नहीं है—इतना उम्दा गायक।

कोलकाता की आई टी सी संगीत रिसर्च अकेडमी में कबसे हैं?

कलकत्ता में रहते हुए 20-21 साल हो गए हैं। उसके पहले रियासतों में आना जाना लगा रहता था, सैकड़ों कान्फरेंसों में शिरकत करी। रियासतों ने बड़ा साथ दिया। मुगल पीरियड खत्म होने के बाद तो गाना बजाना रियासतों में आ गया। राजा इसमें अपनी शान समझते थे कि दरबार में एक दो गायक होने चाहिए, एक दो पहलवान होने चाहिए। जब रियासतें खत्म हो गईं तब हमें कान्फरेंसे देखना पड़ी।

बीते हुए वक़्त की कोई यादें? क्या आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया?

नहीं कोई यादें नहीं हैं। मैं बीते वक़्त को याद नहीं करना चाहता। आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया। पर यह ज़रूर है कि 1947 से पहले के जो हालात थे उनके मुक़ाबले आज का हिंदुस्तान कहीं बेहतर है। परेशानी और आराम तो लगा रहता है। पर आज हम आज़ाद हैं। यह बहुत बड़ी नेमत है।

क्या आप अब भी रियाज़ करते हैं?

वो कुछ नाराज़ हो गए। बोले—क्या मेरी यह उम्र रियाज़ करने की है? क्या यह मुमकिन है कि मैं इस उम्र में रियाज़ करूंगा?

पर इस उम्र में तो आप बहुत कुछ ऐसा कर रहे हैं जो एक आम इंसान के लिए मुमकिन ही नहीं है।

यह तो खुदा की मर्ज़ी है कि मैं ऐसा कुछ नामुमकिन सा कर पा रहा हूँ। आज भी कोलकाता की अकेदेमी में 15-20 शागिर्दों को रोज़ तालीम दे रहा हूँ। मेरे दो बेटे और दो बेटियाँ हैं। एक बेटे ने थोड़ा बहुत सीखा और अब नोयडा के एक कालेज में म्यूज़िक सिखा रहा है। दूसरा लड़का सड़क और पुल का कांट्रैक्टर है। बेटियों को मैंने संगीत नहीं सिखाया। हमारे यहाँ बेटियों को मौसीकी नहीं सिखाई जाती. हमारे यहाँ पुरखों से यह सिलसिला चला आ रहा है कि औरतें नहीं गाएँगी। वैसे मेरी महिला शागिर्द भी हैं। हालांकि अगर बेटियों ने सीखा होता तो शायद मुझसे अच्छा ही गातीं। एक बेटी मेरे साथ रहती है दूसरी हाथरस में ब्याही है। घर परिवार में नाती, पर नाती, पोते, परपोते, नगरपोते सब ही हैं। पर गाने का शौक किसी को नहीं है। मेरी विरासत यही लड़का (शुभोमोय भट्टाचार्य जो उनसे कोलकाता में पिछले 15 सालों से संगीत की शिक्षा ले रहे हैं) लेगा।

आप आई टी सी संगीत रिसर्च अकेदेमी में पढ़ा रहे हैं। क्या इस कंपनी को सिगरेट बेचने का धंधा करना चाहिए या नहीं?

वो हँसते हुए कहते हैं कि यह तो धंधा है। वो जहर बाँट रहे हैं तो बांटने दीजिये। आप क्यों खाते हैं। मैं जहर बाटूंगा, आप की मर्ज़ी खाएं या न खाएं। यह आप की समझ की बात है।

शुभोमोय हमेशा मेरे साथ रहते हैं। यहाँ लखनऊ से में अपने वतन रायबरेली जाऊंगा, फिर दिल्ली होते हुए नागपुर, अमरावती, रायपुर, खैरागढ़ से वापस कोलकाता। सभी जगह प्रोग्राम लगे हैं।  पिछले महीने भी काफी राउंड हुआ। पुणे, मुंबई, बरोदा, अहमदाबाद।

मगर आपके चेहरे पर थकान का कोई निशान नहीं? 

थकान किस बात की? खुदा ने मुझे आवाज़ की नेमत दी जिसे मैं खुले दिल से तकसीम कर रहा हूँ। तकलीफ़े कम नहीं हैं। मैं अब चल फिर नहीं सकता। दो आदमी पकड़ें तो उठूँ बैठूँ। बीस साल पहले कूल्हे की हड्डी टूट जाने से ऐसी हालत हो गयी। आपरेशन भी हुआ, पर चलने की ताकत वापस नहीं आई।

पर उनके चेहरे पर दर्द का नामोनिशान नहीं है। आँखों में एक खास तरह की चमक है।और ज़िंदगी को भरपूर जीने का उत्साह। मेरे बहुत इसरार करने पर उन्होने अपनी ही बनाई हुई यह बंदिश अपनी शीशे जैसी चमकदार आवाज़ में गा कर मुझे धन्य कर दिया :

मन न रहत एक समान, मन न रहत एक समान। छिन नाहीं छिन हाँ ही, बलमा तोरी कौन बान।  अँचरा गहत, झगड़ा करत, बतियाँ करत भौएँ तान। मन न रहत एक समान, मन न रहत एक समान

शोभा शुक्ला - सी.एन.एस. 
(दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित - रविवार, १२ फरवरी २०१२)
(दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित - रविवार, १२ फरवरी २०१२)

लिंग-जनित भेदभाव समाप्त हो: स्वस्थ जीवनशैली अपनाएं

[English] ‘जेंडर’ या ‘सामाजिक लिंग’ जनित भेदभाव और असमानता सभी महिलाओं और पुरुषों के जीवन को प्रभावित करती है और अनैतिक और भ्रामक प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष विज्ञापनों से कैसे हमारी जीवनशैली हमको जानलेवा रोगों की ओर ले जा रही है, इन्हीं मुद्दों पर शेरवुड कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, रिसर्च और टेक्नॉलॉजी, फ़ैज़ाबाद रोड,बाराबंकी, में छात्रों  और शिक्षकों के साथ परिचर्चा हुई।

असोशिएशन फॉर अडवोकेसी एंड लीगल इनीशियाटिव्स (आली) की सामाजिक कार्यकर्ता डॉ फ़रजाना ने बताया कि महिलाओं और पुरुषों दोनों को ही अधिकार है कि सम्मान और गरिमा के साथ जीवन जी सकें। सामाजिक लिंग, या जेंडर जनित भेदभाव अक्सर महिलाओं को असमानता झेलने पर मजबूर कर देता है और इसके लिए महिलाओं और पुरुषों दोनों को जागरूक होना चाहिए और सामाजिक बदलाव लाने के लिए सक्रीय  रहना चाहिए।

'नागरिकों का स्वस्थ लखनऊ' अभियान के समन्वयक राहुल कुमार द्विवेदी ने कहा कि गैर संक्रामक रोगों का अनुपात चिंताजनक रूप से बढ़ रहा है और भारत में 2/3 होने वाली मृत्यु का कारण गैर संक्रामक रोग ही हैं, जैसे कि हृदय रोग, कैंसर, श्वास संबंधी रोग, मधुमेह, आदि। गौर करना चाहिए कि इन सब जानलेवा रोगों का खतरा बढ़ाने वाला एक समान कारण है – तंबाकू सेवन। जो लोग तंबाकू सेवन करते हैं उनको कैंसर होने की संभावना 5 गुना अधिक होती है।

राहुल कुमार द्विवेदी का संदेश स्पष्ट था: तंबाकू और शराब सेवन न करें, रोजाना व्यायाम करें, पौष्टिक और संतुलित आहार लें, और फास्ट फूड से बचें। सामाजिक लिंग या जेंडर जनित भेदभाव न करें क्योंकि यह महिलाओं को गरिमा से जीने नहीं देता, उनके अधिकार मारता है और उन्हे अनेक रोगों के प्रति धकेलता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त बाबी रमाकांत ने कहा कि यदि बच्चे और युवा वर्ग तंबाकू सेवन करते हैं तो इससे तंबाकू उद्योग का ही अकेले मुनाफा होता है । तंबाकू से जो राजस्व भारत सरकार को प्राप्त होता है वो तंबाकू जनित जानलेवा बीमारियों के इलाज में व्यय होने वाले धन से बहुत कम है। यदपि तंबाकू सेवन से जानलेवा गैर संक्रामक रोग (कैंसर, हृदय रोग, आदि) का खतरा कई गुना बढ़ता है, तंबाकू उद्योग ऐसे  खतरनाक उत्पाद बनाता जा रहा है।

इस परिचर्चा को ‘नागरिकों का स्वस्थ लखनऊ अभियान’, आशा परिवार, ‘आली’, इंडियन सोसाइटी अगेन्स्ट स्मोकिंग ने आयोजित किया था।

सी.एन.एस.

जनराजनीति की ताकतें हुयी एकसाथ

राष्ट्रीय ओलमा कौसिंल, सीपीएम, सोशलिस्ट पार्टी तथा जन संघर्ष मोर्चा के घटक दल उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा चुनाव में मिलकर चुनाव लड़ेंगे और एक दूसरे के प्रत्याशियों के पक्ष में प्रचार अभियान चलायेगें।

प्रदेश की जनता कांग्रेस-भाजपा, सपा-बसपा की तमाम यात्राओं, रैली और आम सभाओं व उनकी भारी-भरकम घोषणाओं में दिलचस्पी नहीं ले रही है। साथ ही बहुरंगी छोटे दलों और उनके रोज बनते बिगड़ते मोर्चो को न केवल अवसरवादी बल्कि अपराधियों-माफियाओं की नयी शरणस्थली के रूप में देख रही है। इन परिस्थितियों में कारपोरेट, भ्रष्ट और माफिया राजनीति के खिलाफ बलवती हो रही जनता की नई राजनीति की आकांक्षा को ध्यान में रखते हुए यह तय किया गया कि जनराजनीति की सभी ताकतों  को चुनावी संघर्ष में भी साथ लेकर चला जाए और प्रदेश में नया राजनीतिक वातावरण तैयार किया जाए। हमारा यह दृढ़मत है कि चुनाव भी सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई का एक औजार है और जनता के राजनीतिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिये ही हमें चुनाव लड़ना है। इसलिए कांग्रेस-भाजपा, सपा-बसपा की जन-विरोधी एवं लोकतंत्र-विरोधी कारपोरेट राजनीति को शिकस्त देना और राजनीति को मोलतोल तथा धंधा के रूप में लेने वाली ताकतों के तथाकथित मोर्चो के घोर अवसरवाद का भण्डाफोड़ करना और जनवादी राजनीति को विकल्प के रूप में खड़ा करना हमारा फौरी कार्यभार है। इसी मकसद को आगे बढ़ाने के लिए हम चुनाव में एक साथ उतर रहे है। इस चुनाव में मजदूर, किसान, कर्मचारी, व्यापारी और छात्र युवाओं के मुद्दों के साथ दलित, अति पिछड़ों, मुसलमानों व अन्य उत्पीड़ित तबकों के अधिकारों के सवाल को मजबूती से उठाया जायेगा।

आमिर रशादी मदानी, राष्ट्रिय ओलमा कौसिंलः एस.पी. कश्यप, भारत की कम्युनिस्ट  पार्टी (मार्क्सवादी): गिरीष पाण्डेय,  सोशलिस्ट  पार्टी (इंडिया): कौशल किशोर, कम्युनिस्ट पार्टीः मोहम्मद शोएब, जनसंघर्ष  मोर्चा 

सोशलिस्ट पार्टी क्यों ?

भारत के हर धार्मिक समुदाय के मेहनतकश स्त्री, पुरूषों को अच्छी जिन्दगी जीना समाजवाद लाने से ही सम्भव होगा। दुनिया भर में बदलाव की हवा जोर से चल रही है।
  • दक्षिण अमेरिका के कई देशों के लोगों ने अमरीकी पूंजीपतियों के वर्चस्व को उखाड़ फेंक दिया है।
  • समाजवाद के प्रति प्रतिबद्ध है ऐसे नेता एवं पार्टियों को सत्ता में बैठाया है-मतदान के जरिये।
  • ब्राजील में जिन्होंने जमीन काश्त की थी, उन्हें उस जमीन का कानूनी पट्टा मिल गया है।
  • क्यूबा की सरकार एवं जनता ने अमेरिका के कई हमलें नाकाम कर दिये, वहाँ के डॉक्टर एवं नर्सो ने प्राकृतिक विपदा से ग्रस्त हुये अमेरीकी नागरिकों को स्वस्थ्य सेवा बहाल की।
  • ह्वेनाजुएला जैसे देशों ने भूमिगत तेल पर का विदेषी पूंजीपतियों का अधिकार हटा दिया तथा उन पर जनता का अधिकार कायम किया।
  • कई देशों में प्राकृतिक साधनों का इस्तेमाल आम जनता का जीवन स्तर ऊँचा उठाने के लिये किया जा रहा है।
  • अफ्रीका एवं पश्चिम एशिया के कई अरब या मुस्लिम देशों ने तानाशाह सत्ता देशों के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किये जिसके चलते कई सत्ताधिशों के सत्ता से हाथ धोना पड़ा।
  •  इजिप्ट, ट्यूनेशिया आदि देशों ने जनतात्रिक ढंग से नये सत्ताधीश चुने गये। वहाँ के राजनैतिक एवं सामाजिक आन्दोलन पर उदारवादी इस्लाम का प्रभाव बढ़ रहा है। बहुतांश देशों में परिवर्तन का परचम उठाने में महिलायें आगे है।
  • पूंजीवाद के पूराने गढ़ अमेरिका (यू0एस0ए0) तथा पष्चिम यूरोप के इग्लैण्ड फ्रांस आदि देशों में ‘‘बाल्स्ट्रीट पर कब्जा करों’’ जैसे जन आन्दोलन तेजी से बढ़ रहे हैः- ‘‘1 प्रतिशत के लिये, एक प्रतिशत द्वारा, एक प्रतिशत की हुकूमत’’ इसके खिलाफ लोग बगावत कर उठे है।
  • ‘‘जनता के लिये, जनता द्वारा, जनता के राज्य’’ चलाने के लिये कई जन आन्दोलन चल रहे है। वित्तीय संस्थायें, बैंक आदि पर वहाँ के केन्द्रीय बैंकों में जबरदस्त नियंत्रण बैठाये है। ये सब संस्थायें जनता की प्रतिनिधित्व संस्थाओं को जवाब देह बनाई जा रही है। क्या भारत पीछे रहेगा ? नहीं।
हमारे सम्प्रभुतासम्पन्न, धर्मनिर्पेक्ष, जनतांत्रिक, गणतंत्र की बुनियाद भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह जैसे शहीदों ने डाली है। 

19 वीं सदी के क्रान्तिदर्शी समाज सुधारक एवं 20वीं सदी के राजनीतिक नेताओं ने प्रजातांत्रिक संविधान का ढांचा बनाया जिसे डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर ने शब्दबद्ध किया।
  • सत्ताधीशों को मतदान द्वारा बदलने का कौशल भारत की जनता ने प्राप्त कर लिया है।
  •  शिक्षा का बड़े पैमानें पर फैलाव हुआ है लेकिन व्यवसायीकरण को समाप्त कर समान शिक्षा की आवश्यकता है। सदियों से शोषित तथा पीड़ित रखें हुये तबकों के स्त्री, पुरूष पढ़ाई के द्वारा आत्मभान प्राप्त कर चुके है। वे अपने अधिकार मांग रहे है। परिवर्तन की शक्तिया तेजी से उभर रही है।
  •  दुर्भाग्य से बाहुबली लोग एवं धन्ना सेठ चुनाव प्रक्रिया पर प्रभाव डालकर राजनीतिक सत्ता हथिया रहे है क्या कांग्रेस, क्या भाजपा- वे सब खुले बाजार पर आधारित भूमण्डलीयकरण का गुणगान कर रहे है। भारत की अर्थव्यवस्था के दरवाजे उन्होंने धनी देशों के कम्पनियों के लियें खोल दिये है। पिछले 20-22 साल में देश में बेरोजगारी बढ़ी, गरीब तथा अमीर के बीच वैसे ही औद्योगिक शहर बनाम ग्रामीण या झोपड़पट्टी इलाको के दरम्यान खाई बढ़ गयी है। विषमता बहुत बढ़ गयी है। जीवनावश्यक चीजों के दाम इतने बढ़ गये कि आम जनता की जिन्दगी हराम हो गयी है।
  • ‘‘विकास के लिये औद्योगीकरण होना जरूरी है’’ ऐसा कहते कहते कम्युनिष्ट पार्टिया भी देशी तथा विदेशी पूंजीपतियों के आगत स्वागत में जूट गयी है। इन सभी प्रतिष्ठित पार्टियों के सोच में बड़ी खोट है। जिन देशों में केवल दो या 10 प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर है, ऐसे देशों के विकास का नमूना वे भारत के लिये भी अनुकरणीय मानते है। उन देशों अफ्रीका, एशिया एवं लैटिन अमेरिका के लोगों पर साम्राज्यवादी हुकूमत चलाकर वहाँ की जनता का 200 साल तक जबरदस्त शोषण किया। उसी से उनके विकास के लिये पूंजी का संचय हुआ। वह तरीका अन्यायपूर्ण था तथा आज अब विकासशील देशों को वह उपलब्ध नहीं है। इन्हें अपना विकास अपने बलबूते पर ही करना होगा। उधार खाते पर वर्ल्ड बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के बलबूते पर नहीं- वह अमेरिकी गुलामी है।

सोशलिस्ट पार्टी मानती है कि खेती, पशुपालन, मंछीमारी, वन विकास तथा न्यायोचित खनन इन्हीं क्षेत्रों को बढ़ावा दिया जाये ताकि समाज की अन्नसुरक्षा, बरकरार रहे। छोटे मशीन द्वारा ग्रामीण इलाके में उद्योग चलाये जाये, जिनका संचलन सहकारी संस्था करें। इसी रास्ते से जाने पर हर बालिग स्त्री, पुरूष को अर्थपूर्ण रोजगार मिलेगा। किसी का शोषण नहीं होगा।

वित्तीय पूंजीवाद सबसे खतरनाक है। इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड, फिलीपीन्स आदि देशों की अर्थव्यवस्थायें उन्हीं के चलते ध्वस्त हो गयी थी। भारत जैसे देश में भी शेयर बाजार के उतार चढ़ाव लोगों को बिना कारण भयभीत करते है। बैंकों में गरीब तथा मध्यवर्ग के लोगों का पैसा जमा रहता है। उसे सुरक्षित रखने के लिये उन पर रिजर्व बैंक शख्त नियंत्रण रखे, ऐसा सोशलिस्ट पार्टी का कहना है और शेयर बाजार की सट्टाबाजी (जुआड़खाना) बन्द कर दिया जाये तभी महंगाई पर काबू हो सकेगा।

खेती उपज को किफायती दाम मिले तथा उससे डेढ़ गुना दाम में साधारण ग्राहक को गेंहू, चावल, दाल आदि मिले। इस तरह पूरी व्यवस्था सहकारी संस्था की सहायता से सरकार को चलानी चाहियें। ऐसा सोशलिस्ट पार्टी का कहना है और मूल्य संतुलन स्थापित हो पायेगा।

गत् कुछ सालों में किसानों की अच्छी जमीनें सरकार ने कम दाम देकर जबरदस्ती अधिग्रहण (सम्पादित) करके पूँजीपतियों  को सौपी है। उसके लिये जिसका इस्तेमाल किया, वह कानून अंग्रेजों ने बनाया था। सन् 1894 का भूमि अधिग्रहण कानून रद हो जाना चाहियें। नये कानून का जो विधेयक भारत सरकार ने पेश किया है, उसके उद्देश्य में साफ लिखा है कि कारखानदारी एवं शहरीकरण को मदद करने के लिये नया भूमि अधिग्रहण कानून बनाया जायेगा। क्या जमीन पर इन  पूँजीपतियों  का ही अधिकार है ? इस देश में ऐसे घुमन्तु कबीले या कुन्बे है, जिनका न कोई गांव है और न कोई घर। वे हर जगह निर्वासित ही माने जाते है। न उनको राशन कार्ड मिलता है न मतदाता कार्ड। क्या घर बाँटने के लिये जमीन का छोटा सा टुकड़ा उन्हें मिले, यह उनका अधिकार नहीं है ? उन्हें तथा वनवासियों को वहीं बसाया जाये और उन्हें खेती के लिये प्रथमतः जमीनें व कुठीर उद्योग स्थापित करने के बाद ही शेष भूमि पर पावर लूम तब बड़े उद्योग स्थापित किये जाये।

सोशलिस्ट पार्टी ने सुझाव रखा है कि जमीन के इस्तेमाल सम्बन्धी राष्ट्रीय नीति निर्धारित की जाये जिसमें पहला अधिकार बेघर लोगों को घर बसाने का होगा। खेती, मंछीमारी को दूसरा स्थान हो। कारखानों को तीसरा स्थान हो। सड़क, नहर, रेल आदि सार्वजनिक योजनाओं के लिये जमीन का अधिग्रहण ग्राम सभा से करवाया जाये ऐसी सोशलिस्ट पार्टी की पक्की राय है।

सोशलिस्ट पार्टी ‘‘पिछड़ें पावे 100 में 60’’ इस डॉ. लोहिया के नारे पर अभी भी विश्वास करती है। शिक्षा, खेती, उद्योग, नौकरी एवं सत्ता-सभी में उनको न्यायोचित हिस्सा मिलना चाहियें। सोशलिस्ट पार्टी का आग्रह है कि देश के सभी बालक-बालिका को मुफ्त अनिवार्य, समान एवं गुणात्मक शिक्षा मिले ऐसी व्यवस्था चलाना सरकार का फर्ज है और शिक्षा के बाजारीकरण को सख्त कानून बनाकर समाप्त कर दिया जाये। आम आदमी को स्वास्थ्य सेवा, सुलभता से उपलब्ध करा देने की जिम्मेदारी भी सरकार को उठानी चाहिये ऐसा सोशलिस्ट पार्टी का कहना है। बाहुबल एवं धनबल का चुनाव पर प्रभाव न हो, इस हेतु चुनाव प्रणाली में सुधार करना सोशलिस्ट पार्टी आवश्यक मानती है। 

आज राजनीति में मौका परस्ती, स्वार्थ, भाई-भतीजावाद बहुत बढ़ गया है। साधारण आदमी को अच्छी जिन्दगी जीने का अवसर मिले, इसलिये पूरे ढांचे में परिवर्तन लाने का प्रण किये हुये आदर्शवादी, जूझारू एवं कार्य कुशल कार्यकर्ताओं की सेना खड़ी करना यह सोशलिस्ट पार्टी का उद्देश्य है। इसलिये दलित, आदिवासी, महिला, युवा खेत मजदूर, किसान, असंगठित श्रमिक आदि सब लोग सोशलिस्ट पार्टी के झण्डें तले अपना संगठन मजबूत बनाये, ऐसा पार्टी का आहवान है। सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवारों को भारी बहुमत से जिताये ऐसा भी हमारा  आहवान  है।

भाई बैद्य (अध्यक्ष), केषव राव जाधव तथा संदीप पाण्डेय (उपाध्यक्ष), प्रेम सिंह, नुरूल अमीन तथा ओंकार सिंह (प्रमुख सचिव), जयन्ती पांचाल (कोशाध्यक्ष), पन्नालाल सुराणा अध्यक्ष, एवं जया विदियाला सचिव (केन्द्रीय संसदीय बोर्ड), गिरीष पाण्डेय अध्यक्ष,  सोशलिस्ट  पार्टी राज्य शाखा उत्तर प्रदेश

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए

आजादी की लड़ाई का एक साफ मकसद था, गुलामी के जुए को उतार फेकना। जब उद्देश्य ऊंचा और साफ-साफ होता है तब समाज का हर तबका उस  राजनीति से जुड़ जाता है। मौजूदा विधान सभा चुनाव एक ऐसे दौर में हो रहा है जब देश के हर नागरिक के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ तीव्र भावना है। लेकिन राजनीति की मुख्यधारा के अधिकांश’ दलों के पांव भ्रष्टाचार के कीचड से सने हैं। इसी वजह से आम जनता का इन चुनावों में उत्साह कम दिख रहा है। देश में बड़े बड़े घोटालों की आई बाढ़ की जड़ से १९९२ से चलाई गई आर्थिक नीतियों का सीधा सम्बन्ध है। इन नीतियों को केन्द्र और राज्य में रही हर दल की सरकार ने अपना लिया है। इसीलिए ये तमाम पार्टियां इस चुनाव में इन मसलों से मुंह चुरा रही हैं।

शिक्षित नौजवानों को छोटी-सी नौकरी भी बिना रिश्वत नहीं मिल रही। नई आर्थिक नीतियों से रोजगार के अवसर संकुचित हुए हैं। आबादी के मुट्ठी-भर लोगों के लिए रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा की सुविधाओं को बढ़ावा देने का सीधा मतलब है कि आम लोगों को इन सुविधाओं से दूर किया जाना। जब आम जनता की जरूरतों को पूरा करना उद्देश्य होगा तब ही रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और वे रोजगार सुरक्षित रहेंगे।

एक प्रभावशाली जन लोकपाल कानून की धज्जियां उड़ाने में सभी बड़े दलों ने कोई कसर नहीं छोड़ी।  भ्रष्टाचार का सफाया करने के लिए जन लोकपाल के अलावा भी अन्य पहल भी करनी होंगी। बुनकरी-जरदोजी तथा अन्य रोजगार, स्वास्थ्य , शिक्षा - इन सभी क्षेत्रों में जनता की दुशवारियां बढ़ गई हैं। आम बुनकर और दस्तकार को ध्यान में रखकर कपड़ा नीति और दस्तकार नीति अब तक नहीं बनी है। सभी बड़ी पार्टियां इसके लिए जिम्मेदार हैं। बुनकरों की सहकारी समिति के नाम पर फर्जीवाड़े के मामले भी सामने आए हैं। जरदोजी और दस्तकारी से जुड़े लोगों को बुनकरों के समान सुविधायें मिलनी चाहिए। बुनकर और दस्तकार इस देश के लिए बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित करते हैं लेकिन उनकी तरक्की की हमेशा अनदेखी की जाती है।

खेती और दस्तकारी के बाद हमारे देश में सबसे बड़ा रोजगार खुदरा-व्यापार है जिस पर हमले की रणनीति बन चुकी है। केन्द्र सरकार की पार्टी के राजकुंवर की समझदारी के अनुसार दानवाकार विदेशी कम्पनियों को देश का खुदरा-व्यापार सौंप कर वे किसानों का भला करने जा रहे हैं। देश के सबसे बड़े घराने के द्वारा जिन सूबों में सब्जी का खुदरा-व्यवसाय हो रहा है क्या वहां के किसानों ने खुदकुशी से मुक्ति पा ली है ?

प्रदेश की सरकार द्वारा भ्रष्टाचार को नया संस्थागत रूप दे दिया गया है। किसानों की जमीनें लेकर जो बिल्डर नये नगर और एक्सप्रेस-वे बनाने की जुगत में है, उनके खर्च पर प्रदेश सरकार ने पुलिस थाने (चुनार) का निर्माण करवाया है। कई पुलिस चौकियां अपराधियों के पैसों से बनवाई गई हैं। समाजवादी जनपरिषद नई राजनैतिक संस्कृति की स्थापना के लिए बना है। जिन इलाकों में दल ने संघर्ष किया है और मजबूत जमीन बना ली है सिर्फ वहीं चुनाव में शिरकत करता है।  मजबूत राजनैतिक विकल्प बनाने का काम व्यापक जन-आन्दोलन द्वारा ही संभव है। इसलिए भ्रष्ट राजनीति के दाएरे से बाहर चलने वाले आन्दोलनों और संगठनों के मोर्चे का वह हिस्सा है। राष्ट्रीय-स्तर पर  ‘लोक राजनीति मंच’ तथा जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय ऐसी बड़ी पहल हैं तथा स्थानीय स्तर पर साझा संस्कृति मंच, जो सामाजिक सरोकारों का साझा मंच है।

वाराणसी के हमारे प्रत्याशी की राजनैतिक यात्रा इसी शहर में जयप्रकाश आन्दोलन के किशोर कार्यकर्ता के रूप में  शुरु हुईः छात्र-राजनीति को जाति-पैसे-गुंडागर्दी से मुक्त कराने की दिशा में समता युवजन सभा से वे जुड़े और एक नयी राजनीति की सफलता के शुरुआती प्रतीक बने। लोकतांत्रिक अधिकार और विकेन्द्रीकरण, सामाजिक न्याय ,पर्यावरण तथा आर्थिक नीति के दुष्परिणामों के विरुद्ध संगठनकर्ता बने तथा इन्हीं संघर्षों के लिए समाज-विरोधी ताकतों के लाठी-डंडे खाये और थोपे गए फर्जी मुकदमों में कई बार जेल गये।

फिरकावाराना ताकतों का मुकाबला करने के लिए नगर में गठित ‘सदभाव अभियान’ से वे सक्रियता से जुड़े। साम्प्रदायिक दंगों के दौरान थोपे गये फर्जी मुकदमों को हटाने के पक्ष में तथा हिंसा में शरीक लोगों पर लगे मुकदमों को सरकार द्वारा हटाने के विरुद्ध अफलातून ने कामयाब कोशिश की। पुलिस उत्पीड़न के खिलाफ हमारे समूह ने रचनात्मक संघर्ष का सहारा लिया है तथा मानवाधिकार आयोग द्वारा सार्थक हस्तक्षेप के लिए पहल की है। वाराणसी के स्त्री सरोकारों के साझा मंच - समन्वय के माध्यम से शहर में ही नहीं समूचे राज्य में हुए नारी-उत्पीड़न के विरुद्ध कारगर आवाज उठाई गई है।

रोज-ब-रोज की नागरिक समस्याओं का समाधान नगर निगम और उसके सभासदों के स्तर पर होना चाहिए। विधायक-नीधि का दुरुपयोग ज्यादा होगा यदि कोई ठेकेदार ही विधायक बन जाए। इसलिए वाराणसी कैन्ट क्षेत्र में भ्रष्ट राजनीति से जुड़े दलों का विकल्प खोजने की आप कोशिश करेंगे तो आपकी निराशा दूर हो सकती है। बड़े दलों से जनता की निराशा के कारण फिर अस्पष्ट बहुमत का दौर शुरु होगा ऐसा  प्रतीत  हो   रहा   है।   इसलिए समाजवादी जनपरिषद के उम्मीदवार विधान सभा में विपक्ष में रहने और जन आकांक्षाओं की आवाज को बुलन्द करने का संकल्प लेते हैं। हमें जनता के विवेक पर भरोसा है। यह सिर्फ अफवाह ही हो सकती है कि सुबह होगी ही नहीं। सुबह होगी क्योंकि मत, बल,समर्थन आपके हाथ में है। भ्रष्ट राजनीति से जुड़े दलो से छुटकारा पाने की आपकी कोशिश सफल होगी यह हमे यकीन है। विधान सभा में आपकी आवाज बुलन्द हो इसलिए हम आप से अपील करते हैं कि अपना अमूल्य वोट देकर वाराणसी कैन्ट से समाजवादी जनपरिषद के साफ-सुथरे और जुझारु उम्मीदवार अफलातून को भारी मतों से विजयी बनाएं।

अफ़लातून देसाई, वाराणसी कैन्ट से प्रत्याशी 

यह चुनाव निष्पक्ष कहां हैं ?

उ.प्र. समेत पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं। प्रचार जोर पकड़ने लगा है। सभी दल व उम्मीदवार मतदाताओं को प्रभावित करने में लगे हुए हैं। दूसरी तरफ चुनाव आयोग एक शक्ति के रूप में उभरा है जो चुनावों को निष्पक्ष कराने की कोशिश करता है। चुनाव आयोग की सख्ती का काफी फर्क भी पड़ा है। काफी फिजूल खर्ची और अनैतिक तरीकों से मतदाताओं को प्रभावित करने पर रोक लगी है। किन्तु फिर भी कुछ मुद्दे हैं जिनपर विचार किया जाना जरूरी है।

विधान सभा चुनाव में प्रत्येक उम्मीदवार के प्रचार पर खर्च की सीमा रु. 16 लाख तय की गई है। किन्तु राजनीतिक दलों के प्रचार पर कोई सीमा नहीं तय है। दल के मद से जो अखबारों में विज्ञापन दिए जाएंगे या प्रचार के दौरान हेलीकॉप्टरों अथवा चार्टर्ड  हवाई जहाजों का जो इस्तेमाल किया जाएगा इन पर कोई अंकुश नहीं है। यानी कि बड़े दलों, जिनके पास वैसे भी पैसों की कोई कमी नहीं और जो पहले से ही मजबूत स्थिति में हैं के खर्च पर तो कोई रोक है ही नहीं। खर्च की सीमा सिर्फ छोटे दलों या निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए है। कायदे से बड़े दलों का खर्च उसके जितने उम्मीदवार खड़े हैं उनमें बराबर बराबर जुड़ना चाहिए या फिर उन उम्मीदवारों के खर्च में जुड़ना चाहिए जिन्होंने दल की किसी खास सेवा का उपयोग किया, जैसे कि उनके यहां यदि दल का कोई बड़ा नेता हेलीकॉप्टर से प्रचार के लिए आया तो उस यात्रा का हेलिकॉप्टर खर्च उस उम्मीदवार के चुनाव खर्च में जुड़ना चाहिए।

गैर मान्यता प्राप्त दलों के उम्मीदवारों या फिर निर्दलीय उम्मीदवारों को अपना चुनाव चिन्ह मतदान से करीब 15 दिनों पहले मिलता है जबकि मान्यता प्राप्त दलों को पहले से ही अपना चुनाव चिन्ह मालूम है। यानी कि बड़े दलों को यहां भी लाभ है। वे अपना प्रचार कई दिनों या महीनों से कर रहे होते हैं जबकि छोटा उम्मीदवार सिर्फ पंद्रह दिन पहले ही अपना चिन्ह जान पाता है। चूंकि स्थापित दलों की तुलना में उसके पास संसाधनों का वैसे भी अभाव है, वह विधान सभा क्षेत्र की विशालता को देखते हुए किसी भी सूरत में अपने चुनाव चिन्ह से सभी मतदाताओं को अवगत नहीं करा पाएगा। होना तो यह चाहिए कि सभी उम्मीदवारों को प्रचार के लिए समान अवधि मिलनी चाहिए। या तो बड़े दलों को अपने चुनाव चिन्ह के प्रचार अवधि के पहले प्रचार पर कड़ी रोक लगनी चाहिए अन्यथा उन्हें हरेक चुनाव के लिए एक नया चिन्ह उसी दिन मिलना चाहिए जिस दिन बाकी लोगों को मिलता है।

इस पर विचार किया जाना जरूरी है कि हरेक चुनाव के लिए प्रत्येक दल को नया चिन्ह क्यों नहीं दिया जा सकता? इससे स्थाई चिन्हों को मूर्तियों में तब्दील करने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगेगी।

चुनाव आयोग ने उ.प्र. में ठीक ही वर्तमान सरकार के कार्यकाल में बनी सुश्री मायावती की मूर्तियों व बहुजन समाज पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की मूर्तियों को चुनाव अवधि में ढकने का निर्देश दिया। किन्तु मूर्तियों को ढकने का खर्च राजनीतिक दल से लिया जाना चाहिए था जिसको इन मूर्तियों का लाभ मिलने वाला है न कि प्रशासन से। यह तो जनता के साथ सरासर अन्याय है। पहले तो मूर्तियों व पार्क बनाने का बोझ उसके ऊपर और अब मूर्तियों को ढकने का खर्च भी जनता ही वहन करे। क्या अब हरेक चुनाव में मूर्तियों को ढकने का भी ठेका दिया जाएगा?

इस बार उ.प्र. चुनावों में निर्वाचन आयोग ने तय किया है कि उम्मीदवार के खर्च पर वह एक छाया रजिस्टर भी बनाएगी। यानी कि उम्मीदवार द्वारा अपना चुनाव खर्च दिए जाने के अलावा एक आयोग की तरफ से भी खर्च का अनुमान रखा जाएगा। लेकिन इसका तभी मतलब है जब उम्मीदवार और आयोग दोनों द्वारा जो हिसाब-किताब रखा जा रहा है उसकी जानकारी जनता तक पहुंचे। यदि जनता को यह जानकारी उपलब्ध रहेगी तो वह उम्मीदवार द्वारा दिए जा रहे हिसाब की जांच कर सकती है और यदि उसमें कोई गड़बड़ी पायी जाती है तो उसकी शिकायत की जा सकती है। दूसरी तरफ यदि आयोग के अनुमान को भी सार्वजनिक किया जाता है तो पहला काम तो यही होगा कि उम्मीदवार द्वारा जमा किए गए खर्च से उसका मिलान किया जाए और कोई बड़ी गड़बड़ी, यदि है तो, प्रकाश में लाई जाए। यदि आयोग जानकारी के अभाव में किन्हीं खर्चों को नहीं जोड़ता है तो जनता उसको जुड़वा सकती है। अतः हिसाब-किताब में आयोग की ओर से एक पारदर्शी व्यवस्था बनाने से चुनाव खर्च को सीमा के अंदर रखे जाने में जनता की सीधे सहभागिता सुनिश्चित होगी।

उम्मीदवार अब काफी ईमानदारी के साथ अपनी सम्पत्ति व आय का ब्यौरा तो सार्वजनिक करने लगे हैं लेकिन एक चुनाव व अगले चुनाव के बीच की अवधि में उनकी आय में जो वृद्धि हुई है इस पर सवाल उठाने की प्रक्रिया अभी तय नहीं हुई है। यदि उम्मीदवार की सम्पत्ति या आय में ऐसी वृद्धि हुई है जो उनके ज्ञात आय के स्रोतों से जायज नहीं ठहराई जा सकती तो उसकी जांच की प्रकिया स्वतः चालू हो जानी चाहिए अथवा आयकर विभाग को तुरंत सक्रिय हो जाना चाहिए। इसके बिना सिर्फ सम्पत्ति या आय की जानकारी को सार्वजनिक करने का क्या अर्थ है? जन प्रतिनिधि बनने के बाद भ्रष्टाचार के पैसे से सम्पत्ति जुटाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना जरूरी है। इसके लिए इस बात की नियमित जांच होती रहनी चाहिए कि किसी भी जन प्रतिनिधि या सरकारी कर्मचारी/अधिकारी की सम्पत्ति उसकी आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक न हो।

डॉ. संदीप पाण्डेय