लखनऊ में तंबाकू, अन्य स्वास्थ्य एवं विकास नीतियों के परिपालन पर युवाओं ने जारी किया रिपोर्ट कार्ड

[English][हिन्दी रिपोर्ट कार्ड][English report card] इन्दिरा नगर सी-ब्लॉक चौराहा स्थित प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त केंद्र पर चल रहे अधिकार एवं दायित्व ग्रीष्म-प्रशिक्षण शिविर के 15 युवा प्रतिभागियों ने शहर में तंबाकू, अन्य स्वास्थ्य और विकास नीतियों के परिपालन पर एक रपट कार्ड जारी किया है। 

यह रिपोर्ट कार्ड चार मुख्य बिन्दुओं पर केन्द्रित है: 1) तंबाकू नियंत्रण कानून, 2) शराब विज्ञापन, 3) साफ-सफाई, स्वच्छता और कूड़ा-कचरा प्रबंधन 4) च्विंग गम

इस शिविर के 15 युवा प्रतिभागी हैं: अभिषेक चौधरी, अंकुर वर्मा, दीपक कुमार मिश्रा, दिया पांडे, हितेश पांडे, राकेश, रूपेश वर्मा, संजय कुमार वर्मा, शिखर अगरवाल, शिखा श्रीवास्तव, सर्वेश शुक्ल, सत्यम तिवारी, शुभाम द्विवेदी, सौम्या अरोरा, और उदिता चंद्रा। इस शिविर के प्रशिक्षणकर्ता हैं: प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त, डॉ संदीप पांडे, शोभा शुक्ला, डॉ शिवानी शर्मा, प्रोफेसर (डॉ) गौरदास चौधुरी, बीजू मोहन, राहुल द्विवेदी, एवं बाबी रमाकांत।

इंटरनेशनल यूनियन अगेन्स्ट टूबेर्कुलोसिस अँड लाँग डीसीज के अनुसार विश्व व्यापी तंबाकू नियंत्रण संधि (फ्रमेवोर्क कन्वेन्शन ऑन तोबको कंट्रोल) को 174 देशों ने पारित किया है, परंतु मात्र 11 प्रतिशत दुनिया की आबादी ऐसे देशों में रहती है जहां व्यापक तंबाकू नियंत्रण लागू हो। 

लखनऊ युवाओं ने इस रपट के जरिये चंद सुझाव दिये है जिससे कि तंबाकू नियंत्रण और अन्य स्वास्थ्य कानून सख्ती से लागू किए जा सकें।

इस रिपोर्ट कार्ड में मुख्य सुझाव हैं: 
चूँकि अधिकाँश तम्बाकू सेवन १८ साल से पहले आरंभ होता है, यह अतिआवश्यक है कि १८ साल से कम उम्र के बच्चे और युवाओं को तम्बाकू न तो बेचनी चाहिए और न ही खरीदनी. इस कानून को सख्ती से लागू करने पर जो बच्चे और युवा तम्बाकू सेवन आरंभ कर रहे हैं उनकी संख्या में भारी गिरावट आ सकती है जो जन-हितैषी रहेगी. दूसरा सवाल यह है कि शिक्षा अधिकार अधिनियम के युग में १८ साल से कम उम्र के बच्चे और युवा क्यों तम्बाकू बेचने पर विवश हैं? वें शिक्षा क्यों नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं? बहुत कम तम्बाकू दुकानों पर यह बोर्ड लगा है कि १८ साल से कम उम्र के बच्चे और युवाओं का तम्बाकू खरीदना प्रतिबंधित है.

किसी भी शैक्षिक संस्थान के १०० गज के भीतर तम्बाकू विक्रय प्रतिबंधित है - इसको सख्ती से परिपालित करना चाहिए.

जो विदेशी सिगरेट लखनऊ में बिक रही है, जैसे कि गुदंग गरम (इंडोनेसिया), मार्लबोरो (अमरीका), ब्लाक (इंडोनेशिया), आदि, उनमें से कुछ पर कोई भी चित्रमय चेतावनी क्यों नहीं है? यदि वो कानूनन रूप से आयात की गयी हैं तो उनको भारतीय कानून का अनुपालन करना चाहिए और यदि वो कानूनन रूप से आयात नहीं की गयी हैं तो न केवल भारत के लोगों के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ रहा है बल्कि भारत को (और जिस देश वो बन रही है उसको) राजस्व का भी नुक्सान हो रहा है. क्या यह तम्बाकू तस्करी है? यदि है तो इसके खिलाफ सख्त कारवाई होनी चाहिए। इसकी जांच अधिकारियों – प्रशासन को करनी चाहिए और उचित कदम उठाने चाहिए। 

हम लोगों को अधिक सख्त कानून चाहिए जिससे कि जिन तंबाकू वाले गुटखे और उनके सादे पान मसाले का एक ही ब्रांड नाम है, उनके विज्ञापन पर प्रतिबंध लगे। गौर करने की बात यह है कि जब कोई व्यक्ति ब्रांड नाम देखता है तो किस उत्पाद से उसे जोड़ता है (तंबाकू या गैर-तंबाकू)?

हम लोगों को अधिक सख्त कानून चाहिए जिससे कि जिन शराब और गैर-शराब उत्पादों का एक ही ब्रांड नाम है, उनके विज्ञापन पर प्रतिबंध लगे। गौर करने की बात यह है कि जब कोई व्यक्ति ब्रांड नाम देखता है तो किस उत्पाद से उसे जोड़ता है (शराब या गैर शराब)?

च्विंग गम पर साफ, बड़े नाप या आकार से, पढ़ने में आसान रंग से, महत्वपूर्ण जानकारी लिखी होनी चाहिए। यह जानकारी स्थानीय भाषा में भी छपी होनी चाहिए। 

कूड़े-कचरे का नियमित प्रबंधन वैज्ञानिक और प्रमाणित ढंग से शहर के हर आवासीय क्षेत्र में ऐसे होना चाहिए कि न तो पर्यावरण और न ही जन स्वास्थ्य पर कोई कुप्रभाव पड़े।

अधिकार एवं दायित्व ग्रीष्म-प्रशिक्षण शिविर को संयुक्त रूप से आयोजित किया है: स्वास्थ्य को वोट अभियान, आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, द मूवमेंट ऑफ इंडिया, सच्ची मुच्ची और सीएनएस (www.citizen-news.org) 

यह रिपोर्ट कार्ड ऑनलाइन है और इस वैबसाइट से डाउनलोड किया जा सकता है: www.citizen-news.org

सीएनएस

युवाओं को निशाना बनाती है तम्बाकू कंपनियाँ

तम्बाकू उद्योग अपने उत्पाद की बिक्री के लिए युवाओं को अनेक प्रकार से आसान निशाना बनाता है यही कारण है कि अधिकांश युवा सिगरेट और तम्बाकू का प्रयोग किशोरावस्था के दौरान से ही शुरू कर देते हैं। दुनिया भर में हर दिन 80,000 से 100,000 बच्चे धूम्रपान शुरू करते हैं जिसमे आधे से ज्यादा बच्चे एशिया में रहते है तथा भारत में हर रोज 5500 युवा किसी न किसी रूप में तम्बाकू का सेवन प्रारम्भ कर कर देते हैं। इन्टर्नैशनल यूनियन अगेन्स्ट ट्युबरक्लोसिस एंड लंग डिज़ीज़ (द यूनियन) के क्षेत्रीय समन्वयक तंबाकू नियंत्रण मिरता मोलिनरी का कहना है कि "सबूत आधारित संकेत कहते है कि दोस्तों की संगत और तम्बाकू के आकर्षक विज्ञापन युवा और किशोरों को तंबाकू के प्रयोग के लिए प्रेरित करते हैं। तंबाकू उद्योग नित नए और लुभावने तरीकों से, विज्ञापन और अन्य प्रयोजन के माध्यम से अपने उत्पादों को बढ़ावा देता है। उदाहरण के तौर पर संगीत समारोहों, मुक्त सिगरेट नमूनों, और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विज्ञापन आदि के रूप।"      

भारत सरकार ने 2003 में ‘सिगरेट व अन्य तम्बाकू उत्त्पाद अधिनियम’ को पारित किया जिसके तहत भारत में तम्बाकू उत्पाद पर सभी प्रकार के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष प्रचार पर प्रतिबंध है, परंतु तम्बाकू कंपनियाँ इस नियम का धड़ल्ले से उल्लंघन करती हैं तथा कई प्रकार के अप्रत्यक्ष प्रचार के माध्यम से युवाओं को अपना शिकार बनाने की कोशिश करती रहती हैं। द यूनियन के तंबाकू नियंत्रण के निदेशक डॉ. एहसान लतीफ का कहना है कि "तम्बाकू कंपनियाँ इस बात को भली भांति समझती हैं कि जो युवा समाज में अपनी पहचान बनाने में लगा है उसको किसी भी चीज की आदत लगवाना आसान है और यदि यह वर्ग तम्बाकू का प्रयोग शुरू कर दे तो आगामी 20 से 30 सालों तक या जब तक जीवित हैं तब तक उनके ग्राहक बने रहेंगे। अतः युवा वर्ग तम्बाकू कंपनियों के नजर में एक बहुत बड़ी मार्केट है।" 

तम्बाकू कंपनियां फिल्मों के माध्यम से युवाओं को धूम्रपान के प्रति प्रेरित करती हैं।  चूंकि भारत एक ऐसा देश है जहां पर युवा अपने चहेते कलाकार के हर कार्य का अनुसरण करते हैं, अतः यहाँ पर फिल्मों में धूम्रपान का युवाओं पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और यही कारण है कि अधिकांश धूम्रपान करने वाले लोगों में धूम्रपान की शुरुवात 18 वर्ष की आयु से पहले होती है। इस संदर्भ में डॉ. एहसान लतीफ का कहना है कि "हर युवा का एक रोल मॉडल होता है जिसके स्वरूप को वह अपने जेहन में बसाये रहता है और जब वह रोल मॉडल को धूम्रपान करते हुए देखता है तो उसके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर खुद भी धूम्रपान करने लगता है कि शायद ऐसा करके वह उसके रोल मॉडल जैसा सफल बन सकेगा"  

तम्बाकू उद्योग के बढ़ते स्वरूप और स्वास्थ्य नीतियों में तम्बाकू उद्योग के बढ़ते हस्तक्षेप पर रोक लगाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस वर्ष विश्व तम्बाकू निषेध दिवस का विषय “तम्बाकू उद्योग हस्तक्षेप को रोकिए" रखा है। अपने विकट आर्थिक और राजनीतिक संसाधनों के साथ, तम्बाकू उद्योग दुनिया भर में नई तंबाकू नियंत्रण कानून और नीतियों के क्रियान्वयन को रोकने के लिए लड़ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल संधि का अनुच्छेद 5.3 सभी पार्टियों को, सार्वजनिक स्वास्थ्य को कमजोर करने वाले,  इन प्रयासों का विरोध के लिए बाध्य करता है। दिल्ली में एक गैर-सरकारी संस्था द्वारा सूचना का अधिकार नियम के तहत पूछे गए सवालों के जवाब में सरकार ने यह बात स्वीकारी है कि तंबाकू उद्योग हम पर तंबाकू नियंत्रण कानून के संचालन को सही ढंग से लागू न करने के लिए दबाव डालती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि तम्बाकू उद्योग तम्बाकू विरोधी जन हितैषी कार्यक्रमों के संचालन में बाधा उत्पन्न करती है।
  
अतः हमे एक बेहतर युवा कार्यक्रम की जरूरत है जिससे कि समाज में ज्यादा से ज्यादा युवाओं को तम्बाकू उद्योग के चंगुल से बचाया जा सके। द यूनियन के क्षेत्रीय समन्वयक मिरता मोलिनरी के अनुसार "युवाओं में तम्बाकू प्रयोग की शुरुआत को रोकने के लिए कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थानों पर तम्बाकू उत्पादों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाने के साथ साथ, करों में बढ़ोतरी करना भी आवश्यक है। कीमतें बढ़ने से बच्चों के तम्बाकू उत्पादों को खरीदने के सामर्थ्य में कमी आएगी। फलस्वरूप बच्चों में तम्बाकू उत्पाद की खपत कम हो जाएगी। प्रायोजन और विज्ञापन तथा मजबूत स्वास्थ्य और सचित्र चेतावनी बच्चों में तंबाकू के इस्तेमाल को कम करने के अतिरिक्त उपाय है"।  

युवाओं को तम्बाकू के प्रयोग से बचाने के लिए कई देशों ने तम्बाकू उत्पाद पर करों को बढ़ाया है साथ ही धूम्रपान मुक्त वातावरण भी लागू किया है। एक व्यापक तम्बाकू नियंत्रण के उपायों की जरूरत है जिसके माध्यम से युवाओं तथा किशोरों को तम्बाकू के बुरे आदत से बचाया जा सकता है। 

राहुल द्विवेदी- सी.एन.एस 
(लेखक  "स्वास्थ्य को वोट दें अभियान"  का समन्वयक है और सिटीज़न न्यूज़ सर्विस के लिए लिखते हैं)  

तंबाकू नियंत्रण और अन्य विकास योजनाओं पर युवाओं ने किया सूचना अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल

[English] [सूचना अधिकार आवेदन पत्र] इन्दिरा नगर सी-ब्लॉक चौराहा स्थित सर्जन प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त केंद्र पर चल रहे अधिकार एवं दायित्व ग्रीष्म-प्रशिक्षण शिविर में आज लखनऊ युवाओं ने सूचना अधिकार अधिनियम, 2005, का उपयोग करते हुए लखनऊ में तंबाकू नियंत्रण कानून और अन्य विकास संबन्धित नीतियों को लागू करने में सुधार के आशय से अनेक आवेदन पत्र लगाए। 

अंकुर वर्मा, दिया पांडे, संजय कुमार वर्मा, शिखा श्रीवस्ताव, शिखर अगरवाल, शुभाम द्विवेदी, उदिता चन्द्र आदि ने सूचना अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल करते हुए सरकारी विभागों से अनेक सवाल पूछे जिनमें यह निमीनलिखित सवाल शामिल हैं: शैक्षिक संस्थानों के 100 यार्ड के भीतर तंबाकू विक्रय क्यों हो रहा है, सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान प्रतिबंधित होने के बावजूद जो लोग इसका उलंघन कर रहे हैं, उनपर जुर्माना क्यों नहीं हो रहा है, उत्तर प्रदेश सरकार ने तंबाकू जनित जान लेवा बीमारियों पर सरकारी अस्पतालों में कितना खर्च किया है, आवासीय क्षेत्रों में कूड़ा-कचरा क्यों जमा हो रहा है, जिन क्षेत्रों में पॉलिथीन पर प्रतिबंध है जैसे कि छावनी, वहाँ पर पॉलिथीन क्यों इकट्ठी हो रही है, बिजली कटौती क्यों हो रही है, पेट्रोल का दाम क्यों बढ़ा, शहर में बाल श्रमिक क्यों हैं, आदि। 

इन युवाओं को मगसेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पांडे ने एक प्रशिक्षण सत्र में सूचना अधिकार अधिनियम के तहत आवेदन पत्र लिखना सिखाया था जिससे कि युवा सरकारी विभागों की जवाबदेही बढ़ा सकें और विकास कार्यक्रमों को लागू करने में सुधार ला सकें। 

इंटरनेशनल यूनियन अगेन्स्ट टूबेर्कुलोसिस अँड लाँग डीसीज के अनुसार विश्व व्यापी तंबाकू नियंत्रण संधि (फ्रमेवोर्क कन्वेन्शन ऑन तोबको कंट्रोल) को 174 देशों ने पारित किया है, परंतु मात्र 11 प्रतिशत दुनिया की आबादी ऐसे देशों में रहती है जहां व्यापक तंबाकू नियंत्रण लागू हो।


इस प्रशिक्षण में लखनऊ के 14 युवा भाग ले रहे हैं जो विभिन्न शैक्षिक प्रतिष्ठानों से आए हैं जिनमें सिटी मांटेसरी स्कूल, जिगर मेमोरियल इंटर कॉलेज, भातखण्डे विश्वविद्यालय, अवध विश्वविद्यालय और लखनऊ विश्वविद्यालय प्रमुख हैं। 

इस ‘अधिकार एवं दायित्व ग्रीष्म-प्रशिक्षण शिविर’ में शहर के प्रख्यात लोग प्रशिक्षण प्रदान कर रहे हैं जिनमें संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान के गैस्ट्रो-एंटेरेलाजी के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर (डॉ) गौरदास चौधुरी, छत्रपति शहूजि महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त, मगसेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पांडे, सैक्टर 10 इन्दिरा नगर स्थित वन स्टॉप स्माइल शॉप की प्रमुख दंत विशेषज्ञ डॉ शिवानी शर्मा, लोरेटों कान्वेंट की पूर्व वरिष्ठ शिक्षिका एवं सीएनएस संपादक शोभा शुक्ला, स्वास्थ्य को वोट अभियान समन्वयक राहुल द्विवेदी, यूपी हाई कोर्ट के अधिवक्ता मनु श्रेस्ठ मिश्रा, जहांगीराबाद मीडिया इंस्टीट्यूट के उप-निदेशक बीजू मोहन, बाबी रमाकांत, आदि शामिल हैं। 

सीएनएस

प्रोफेसर डॉ0 रमा कान्त को श्रीलंका कॉलेज ऑफ सर्जन्स् की मानद् एफ0सी0एस0

[English] श्रीलंका कॉलेज ऑफ सर्जन्स ने लखनऊ के प्रख्यात सर्जन प्रोफेसर डॉ0 रमा कान्त को मानद् एफ0सी0एस0 उपाधि से अलंकृत करने का निर्णय लिया है। एसोसिएशन ऑफ सर्जन्स ऑफ इण्डिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सार्क देशों के सर्जन्स संगठन के उपाध्यक्ष प्रोफेसर डॉ0 रमा कान्त को यह मानद उपाधि 15 अगस्त 2012 को आयोजित श्रीलंका कॉलेज ऑफ सर्जन्स के दीक्षान्त समारोह में प्रदान की जाएगी।

छ0शा0म0 चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष और पूर्व मुख्य चिकित्सा अधीक्षक प्रोफेसर डॉ0 रमा कान्त को 2010 में रॉयल कॉलेज ऑफ सर्जन्स आयरलैण्ड द्वारा मानद् एफ0आर0सी0एस0 उपाधि से अलंकृत किया गया था। प्रोफेसर डॉ0 रमा कान्त को हाल ही में रॉयल कॉलेज ऑफ सर्जन्स इडेनबरह इंगलैण्ड ने भी मानद् एफ0आर0सी0एस0 उपाधि से अलंकृत किया गया था। 

प्रो0 डॉ0 रमा कान्त को वर्ष 2005 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक ने अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार से सम्मानित किया था। 

वर्तमान में प्रो0 डॉ0 रमा कान्त, इन्दिरा नगर सी-ब्लाक चौराहे स्थित आर0सी0टी0सी0 और पाइल्स-टू-स्माइल्स क्लिनिक के निदेशक हैं और बावासीर का बिना आपरेशन अति-आधुनिक विधि से उपचार के लिए प्रख्यात हैं। प्रो0 डॉ0 रमा कान्त चौक स्थित सिप्स सुपर-स्पेश्एिलटी अस्पताल के प्रोफेसर-निदेशक भी हैं।

सी.एन.एस.

बढ़ रही है बाल दमा रोगीयों की संख्या

दमा रोग ब्रोन्कियल ट्यूबों (वायुमार्ग) की बीमारी है जिसमे आमतौर पर साँस लेने के दौरान घरघराहट या सीटी बजने की ध्वनि सुनाई देती है,  खासकर जब साँस बाहर निकालते है. बच्चों में यह विशेषकर सांस की तकलीफ या खाँसी को जन्म देती है जिसके कई कारण हो सकते हैं। वास्तव में इसका कोई प्रमाणित कारण नहीं है कि क्यों अधिक से अधिक बच्चों में दमा रोग विकसित हो रहा है पर कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि एलर्जी कारक जैसे धूल, वायु प्रदूषण, और परोक्ष धूम्रपान इसके प्रमुख कारण हैं। भारत में दमा रोग से 2.4 करोड़ लोग पीड़ित हैं। 

प्रोफेसर नादिया जो इन्टर्नैशनल यूनियन अगेन्स्ट ट्युबरक्लोसिस एंड लंग डिज़ीज़ (द यूनियन) में अस्थमा पर सलहकार और ग्लोबल अस्थमा रिपोर्ट 2011 की सहलेखिका भी है का कहना है कि “अस्थमा का कारण अज्ञात है. केवल कुछ संभावित कारक ही हैं जो अस्थमा के विकास के लिए जिम्मेदार हैं: जेनटिक और एलर्जी। कुछ अन्य कारक अस्थमा के विकास में योगदान देते है जैसे   घर के अंदर का प्रदूषण, बाहर का प्रदूषण, व्यायाम, मौसम में बदलाव, कुछ मामलों में विशिष्ट खाद्य और गैर-स्टेरायडल ऐंटी इन्फ्लैमटॉरी दवाएं”। 
  
ज्यादातर लोग बच्चों में दमा के लक्षणों को जैसे खाँसी, घरघराहट, और सांस की तकलीफ की अनदेखी करते है जो बच्चे के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है, पर यदि उचित ध्यान रखा जाये तो 70 प्रतिशत दमा रोगी बच्चों में लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है, और 12 साल की उम्र तक हो सकता है कि लक्षण गायब हो जाये। दमा रोग के नियंत्रण का सही उपाय इन्हेलर है जिसका कोई प्रतिकूल प्रभाव भी नहीं होता है। द यूनियन के फेफड़े-रोग विभाग के निदेशक डॉ चियांग चेन युआन के अनुसार “इन्हेलर के द्वारा कार्टिको-स्टीरोइड को श्वास द्वारा अंदर लेने से अधिकांश दमा रोगी दमे को नियंत्रित कर सकते है। पर यह दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांस दमा रोगी कार्टिको-स्टीरोइड को इन्हेलर के द्वारा नहीं ले पाते हैं। एक शोध के अनुसार केवल 20% से कम दमा रोगी कार्टिको-स्टीरोइड इन्हेलर के द्वारा ले पाते हैं”। चूंकि दमा रोग को ठीक नहीं किया जा सकता है, इसके लक्षणों को नियंत्रित करना ही एक मात्र  उचित उपाय है अतः बच्चों में जल्दी से जल्दी इस रोग के लक्षणों की पहचान और उसका परीक्षण दमा से बचाव के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। दमा रोग के कारण प्रतिदिन लाखों बच्चे स्कूल, पढाई और खेलकूद आदि जैसे तमाम चीजों को छोडते हैं। 

डॉ करेन बीस्सेल्ल जो अस्थमा ड्रग्स फेसिलिटी की डिप्टी डाइरेक्टर है, का कहना है कि “विशेष रूप से कम आय वाले देशों में अस्थमा पर पर्याप्त डेटा नहीं है, लेकिन हाल ही में जो डेटा कम आय वाले देशों से एकत्र किया गया है से पता चलता है कि समय के साथ वहाँ बच्चों में विशेष रूप से दमा रोग के प्रसार में वृद्धि हुई है. पर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसका कारण शहरीकरण है, जैसा कि पिछले दो दशकों में शहरीकरण की प्रक्रिया में तेजी से विकास हुआ है जिसके फलस्वरूप वातावरण प्रदूषण बढ़ा है”। हालांकि बच्चों में यह समान रूप से लड़कियों और लड़कों को प्रभावित करता है, लेकिन लड़कियों की तुलना में थोड़ा अधिक लड़कों को प्रभावित करता है. प्रोफेसर नादिया का कहना है कि “बच्चों में दमा रोग की घटना वयस्कों की तुलना में अधिक है. बच्चों में दमा रोग लड़कियों की तुलना में लड़कों में अधिक और वयस्कों में महिलाओं में अधिक होता है”।

छत्रपति शाहुजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पलमोनरी मेडिसिन विभाग के विभागाअध्यक्ष प्रोफेसर (डॉ) सूर्य कान्त का कहना है कि दमे की शुरुआत मूल रूप से बचपन में होती है. वास्तव में तीन चौथाई से अधिक मामलों में बचपन से शुरू होती है, चूंकि यह एक आजीवन बीमारी है जो वयस्कता में भी जारी रहती है. प्रायः 50% दमा रोगी बच्चे या वें बच्चे जो, घरघराहट, नाक रुकावट, सीने में जकड़न, सांस लेने में तकलीफ़ आदि लक्षणों की शिकायत करते हैं, आमतौर पर 12 साल की उम्र से राहत पाने लगते हैं. अतः प्राथमिक रोकथाम की शुरुआत जब बच्चा गर्भ में हो तभी से कर देनी चाहिए है. यदि माँ को दमा है, तो एक तिहाई ऐसे मामलों में गर्भावस्था के दौरान रोग बढ़ाने की संभावना होती है. तो ऐसी स्थिति में माँ को और अधिक सतर्क हो जाना चाहिए, और डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए और नियमित तौर पर इनहेलर का प्रयोग करना चाहिए. अगर उसके फेफड़ों का कार्य बिगड़ा और उसके शरीर में ऑक्सीजन की कमी आयी तो शिशु में भी ऑक्सीजन की कमी होगी. ऐसी माँओ को फास्ट फूड से बचना चाहिए क्योंकि यह दमा रोग को बढ़ता है। फास्ट फूड भी बच्चों में दमा रोग वृद्धि का एक प्रमुख कारण है. हाल ही में दिल्ली में किये गये अध्ययन के अनुसार वहाँ 16% स्कूल जाने वाले बच्चे दमा रोग से पीड़ित हैं जबकि हम मानते है की भारत में  3-5% लोगों को दमा है. इस सब की वजह फास्ट फूड बर्गर, कोल्ड ड्रिंक, पेस्ट्री, चाउ मीन, पिज्जा, और डिब्बा बंद भोजन/ जूस आदि हैं.

हाल ही में किए गए एक अध्ययन के अनुसार सामान्य रूप पैदा हुए बच्चों की तुलना में सीज़ेरियन विधि से पैदा हुए बच्चों में दमा होने की संभावना अधिक होती है, चाहे माँ को दमा हो या न हो. यह कहा जाता है कि योनि का तरल पदार्थ शिशु के शरीर में प्रतिरोधक क्षमता का विकास करता है और उसे दमा सहित अन्य रोगों से बचाता है. ठंडा-गरम और ए.सी कार/कमरे में रहने के बाद गरम धूप में निकलना या गरम धूप से ए.सी कार/कमरे में जाना आदि भी अस्थमा रोग को बढ़ते हैं। अतः यदि किसी को नाक की एलर्जी है तो उसका सही तरीके से इलाज कराना चाहिये क्योंकि बाद में यह अस्थमा का रूप धारण कर सकता हैं 

राहुल कुमार द्विवेदी 
लेखक ऑनलाइन पोर्टल www.hindi.citizen-news.org के लिए लिखता है

सुखराम की एचआईवी और डीआर-टीबी के विरूद्ध जंग

39 वर्षीय सुखराम पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े जिले आजमगढ़ के मूल निवासी हैं|यद्यपि वो मुंबई में एक आटा-मिल में कार्य करते हैं, पर उनका परिवार, जिसमे उनकी पत्नी, उनके माता-पिता और 14 व 12 वर्षीय दो पुत्रियाँ हैं, आजमगढ़ में ही  रहते हैं | वो 2001 से एंटी रेट्रोवायरल थेरेपी(एआरटी) पर हैं| ड्रग रेजीस्टेंट टीबी (डीआर-टीबी) के कारण 2006 में वो एमएसएफ चिकित्सा हेतु भेजे गये, जहाँ तबसे उनका सफलतापूर्वक इलाज चल रहा है | कुछ समय पूर्व उन्होने टीबी बेक्टीरिया-एचआईवी वाइरस के सह-संक्रमण और उसके बाद की अपनी जिन्दगी के बारे में  Medcins Sans Frontiere (एमएसएफ) से वार्ता की |

सुखराम की विषादपूर्ण जिन्दगी का आरम्भ 1993 में सूखी खाँसी से हुआ |एक माह तक निजी चिकित्सक से उपचार लेने के पश्चात जब कोई लाभ नहीं हुआ, तब उनको मुम्बई के म्यूनिसपल अस्पताल जाने की सलाह दी गई | थूक(कफ) की जाँच द्वारा फेफड़े की तपेदिक(टीबी) होने की पुष्टि हुई | तब उन्होने एक निजी चिकित्सक की देखरेख मे 6 महीने की चिकित्सा पूरी की | इसके बाद उनको अपने गाँव जाने की अनुमति दे दी गई | यह सोचकर कि उनकी टीबी ठीक हो चुकी थी, उन्होने न तो दुबारा जाँच करवाई और न ही डाक्टर ने उन्हें ऐसा करने की सलाह ही दी|

2000 में वो पुनः अस्वस्थ्य हो गये| वजन में कमी और भूख न लगने के साथ साथ  उनको खाँसी व तेज़ बुखार हो गया | उन्हे बहुत तेज़ सरदर्द भी हो जाया करता था | उनके बाल भी गिरने लगे| उनकी हालत धीरे-धीरे खराब होने लगी तथा सारे शरीर में गाँठें हो गई | तब वह उसी म्यूनिसपिल अस्पताल में गये, जहाँ पुनः उन्हें टीबी की पुष्टि की गई |इस बार उन्हें एक डाट्स केंद्र जाने की सलाह दी गई, जहाँ उन्होने दुबारा 6 माह का टीबी के इलाज का कोर्स पूरा किया| लेकिन उनकी गाँठें ठीक न होने के कारण उनको हिंदुजा अस्पताल भेजा गया जहा डॉक्टरों ने बताया कि ट्यूबर्कूलर ग्लैंड्स होने के कारण बिना दवाएँ खाये यह ठीक नहीं होंगी | वह उलझन में पड़ गये| उन्होने डॉक्टरों को बताया कि काफी लम्बे समय तक वो पहले भी टीबी की दवाएं खा चुके थे | इसलिए उन्हे केईएम एआरटी सेंटर भेजा गया जहाँ उन्हें अपने एचआईवी पॉज़िटिव होने का पता चला | उन्हें 2001 में पहले स्तर की ऐन्टीरेट्रोवाइरल थेरेपी(एआरटी) पर रक्खा गया |उन्होने टीबी का उपचार भी प्रारम्भ कर दिया |

धीरे-धीरे उनकी सारी ग्लेण्ड्स गायब हो गईं और उनकी हालत बेहतर हो गई | इसलिए उन्होने दवाएँ लेना बन्द कर दिया | कुछ समय पश्चात उनका सीडी4का स्तर गिरकर 20 हो गया | केईएम के चिकित्सकों ने बताया कि उपचार बीच में ही बन्द कर देने के कारण दवाएँ असर नहीं कर रही थीं, और अब उन्हें द्वितीय स्तर की दवाएँ चाहिए थीं जो कि उस अस्पताल में उपलब्ध नहीं थीं और उन्हें बाहर से खरीदना था | वह उन महंगी दवाओं को अपनी आमदनी से नहीं खरीद सकते थे | काफी परेशानियों के बाद वह प्रफुल्ल ट्रस्ट नामक एक गैर सरकारी संस्था से मिलने में कामयाब हो गये, जिसने उनको जे जे हॉस्पिटल भेजा, जहाँ से अंततः वह एमएसएफ पहुँच गये |

मार्च 2006 में जब वह एमएसएफ आये, उनकी सीडी4की गणना 20 थी | उनको 6 माह तक प्रथम स्तर की चिकित्सा पर रक्खा गया जिससे उनका सीडी4 लगभग 75-76 तक ही बढ़ सका | इसलिए डाक्टरों ने उन्हें दूसरे स्तर की एआरटी की चिकित्सा प्रदान की | वह याद करते हैं कि, “मैंने दो दिनों तक दवाएँ खायीं, और तीसरे दिन से खाँसी व उल्टी होना शुरू हो गया | कभी-कभी खाँसी के साथ खून भी आ जाता था | अब मुझे बुखार भी रहने लगा | जाँच करने पर पता चला कि मुझे टीबी थी| कल्चर की रिपोर्ट से टीबी की प्रकृति की पुष्टि होने तक मुझे टीबी की दवाएँ खाने को कहा गया | 8 सप्ताह बाद जब रिपोर्ट आयी तब इस बात की पुष्टि हुई कि मुझे एमडीआर-टीबी है| उस समय मैं बहुत बीमार था | इन दो महीनों में मेरी हालत काफी बिगड़ चुकी थी| खाँसी बहुत गंभीर हो चुकी थी और मैं चल तक नहीं सकता था | लेकिन मैंने एचआईवी की दवाएँ लेना बन्द नहीं किया | फिर मैंने दिसम्बर 2006 से एमडीआर-टीबी का उपचार भी शुरू कर दिया |”

उन दिनों के बारे मेँ सोचकर सुखराम के रोंगटे खड़े हो जाते हैं | वे बताते हैं – “जब 2006 मेँ इलाज शुरू हुआ तब दवाओं का बोझ बहुत था | मैं गोलियो की संख्या देखकर डर जाया करता था | डीआर-टीबी के लिए कई गोलियों के अलावा एचआईवी के लिए लगभग 8 गोलियां लेनी पड़ती थी – मुझे एक दिन मेँ 27-28 गोलियां खानी पड़ती थी | इन दवाओं का बहुत बुरा असर भी होता था | मुझे दस्त, उल्टी, चक्कर, और बहुत कमजोरी का अनुभव होता था | मुझे लगता था कि जैसे मैं अब कभी चल नहीं पाऊँगा | ऐसा लगता था कि जैसे दवाएं मेरे मस्तिष्क को भी प्रभावित कर रही थी क्योंकि मेरी याददाश्त कम होने लगी थी, मैं भूलने लगा था | मेरा शरीर उन इंजेक्शन के निशानों से भरा पड़ा था, जो मुझे साढ़े सात महीने तक लगवाने पड़े थे | दो माह तक मैं केवल तरल भोजन पर ही निर्भर था | मैं कोई ठोस पदार्थ नहीं ले पाता था क्योकि मेरा शरीर उसे पचा नहीं पा रहा था | कोई भी चीज, यहाँ तक कि पानी भी, मैं उलट दिया करता था | मैं वास्तव मेँ बड़ी मुसीबत मेँ था |लेकिन एक भी खुराक छोड़े बिना मैंने किसी तरह दवाएं जारी रक्खीं | एक गोली की चूक भी भारी मुसीबत पैदा कर सकती थी |”
तीन महिने के उपचार के बाद सेहत मेँ बहुत सुधार महसूस कर सुखराम ने प्रसन्नता एवं आश्चर्य का अनुभव किया| एमएसएफ मेँ 8 माह के उपचार के बाद वह एक बार फिर से हष्ट-पुष्ट हो गये और यह भी भूल गये कि उनको कभी टीबी थी |

सुखराम आज भी यह नहीं समझ पाते हैं कि दो बार चिकित्सा लेने के बाद भी उनको टीबी तीसरी बार क्यों हो गई ?एमएसएफ मेँ उनको बताया गया कि पहले यहाँ वहाँ लिये गये उनके उपचार और दवाओं मेँ शायद उनसे कोई चूक हुई जिसके कारण टीबी इतने भयावह रूप मेँ हो गई |सुखराम स्वीकार करते हैं कि,” शायद मेरे एचआईवी की गोलियां छोड़ने के कारण फिर से टीबी हो गई थी | वास्तव मेँ मैंने अनेकों बार गोलियां खाने मेँ चूक की – एक बार मैंने 6 माह तक दवा लेना छोड़ दिया था | मैं सोचता हूँ कि ऐसा करने से ही मेरे शरीर मेँ वाइरल के बोझ की अधिकता और सीडी4 मेँ कमी आ गई, और धीरे-धीरे कमजोरी के कारण इसी ने टीबी का रूप ले लिया |”

लेकिन पहली बार टीबी उन्हे क्यों हो गई? वह इसके लिये अपने व्यवसाय को दोष देते हुये बताते हैं –“मैं एक आटा-मिल मेँ काम करता हूँ | यह बहुत धूल-भरा कार्य है | वहाँ पर चारों ओर इतना अधिक आटा उड़ता रहता है कि हम लोग सफेद भूतों की तरह दिखते हैं | आटे के कण हमारे फेफड़ों मेँ प्रवेश करते रहते हैं | इसलिए, इन मिलों मेँ काम करने वाले लोग अक्सर 55-56 वर्ष की उम्र के बाद दमा और टीबी के मरीज बन जाते हैं | इसलिए टीबी हम लोगों के लिये एक व्यवसाय-जनित खतरा है।“

वह दु:खी होकर बताते हैं कि,” यदि मुझे कोई नया काम मिल सकता, तो मैं यह काम छोड़ देता और अपने गाँव वापस चला जाता |लेकिन अब मैं कोई नया हुनर नहीं सीख सकता हूँ | मैं अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए इस मिल से ही धनोपार्जन करता हूँ | मैं किसी अन्य नौकरी के लिए अधिक शिक्षित भी नहीं हूँ | इसलिए मैं यही हूँ क्योकि अब मुझे अपनी दवाएं लगातार लेनी हैं | अब मेरे गाँव वापस जाने का कोई मौका नहीं हैं |” यद्यपि सुखराम एचआईवी/टीबी से ग्रस्त लोगों की मदद करना चाहते हैं, लेकिन अपनी एचआईवी अवस्था को दूसरों को बताने में संकोच का अनुभव करते हैं | वह इस बीमारी के बारे में अधिक जागरूकता फैलाना चाहते हैं, लेकिन लोगो द्वारा यह पूछना कि वह इस बीमारी के विषय में इतना अधिक कैसे जानते हैं, उनको ऐसा करने के लिए रोकता है| उन्होने अपने गाँव के कुछ लोगों का एचआईवी के उपचार के लिए बनारस मेडिकल कॉलेज जाने में मार्ग-दर्शन किया, लेकिन अपने गाँव में एचआईवी-ग्रस्त कुछ परिचितों का नियमित व उचित इलाज के अभाव में म्रत्यु को प्राप्त होने का वो खेद महसूस करते हैं |

लेकिन वो एमएसएफ की मुक्त-कंठ से प्रशंसा करते हैं |उनके अनुसार—“ एमएसएफ ने मुझे नई जिंदगी दी है | यहाँ आने पर एमएसएफ के चिकित्सकों और परामर्शदाताओं द्वारा मुझे एचआईवी/टीबी के बारे में, दवाओं के नियमित सेवन करने के बारे में, एचआईवी से ग्रस्त होने के कारणों के बारे में, सम्पूर्ण जानकारी दी गई| सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों तक पहुंचना ही काफी कठिन होता था| वे मुझे छूते तक नहीं थे-- केवल नुस्खा लिख देते और दवाएं बाहर से खरीदने को कहते | वे हमारे साथ बुरा और अमानवीय व्यवहार करते | यदि मैं यहाँ न आता तो अभी तक मेरे लिए सब कुछ समाप्त हो चुका होता और मैं मर चुका होता | यहाँ आने से पूर्व, मेरी सारी कमाई दवाओं में खर्च हो जाती थी | मैं कंगाल हो गया था | एमएसएफ ने मुझे जिंदगी का नया सवेरा दिया है |”

सुखराम अब डीआर-टीबी से मुक्त हो चुके है | अब उनकी प्राथमिकता अपनी पुत्रियों की शिक्षा है | यद्यपि वह पढ़ नहीं सके, किन्तु महसूस करते हैं कि “आज के संसार में शिक्षा बहुत आवश्यक है |” उनको इस बात का गर्व है कि उनकी पुत्रियाँ अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही हैं| उनकी बड़ी पुत्री काफी बुद्धिमान है और विज्ञान वर्ग से शिक्षा ग्रहण कर रही है | वह चाहते हैं कि उनकी पढ़ाई और विवाह के लिए पर्याप्त धन जुटाने में वह सक्षम हो सकें|

(अंग्रेजी में शोभा शुक्ला के   मूल लेख का  सुश्री माया जोशी द्वारा हिंदी में अनुवाद)

चंद्रिका की कहानी, उन्हीं की जुबानी

चन्द्रिका गौड़ मुंबई निवासी एक 28 वर्षीय हिजड़ा है जो एचआईवी के साथ-साथ औषधि प्रतिरोधक अथवा ड्रग रेजिस्टेंट टीबी (डीआर-टीबी) से भी पीड़ित है | इस समय वो दूसरे स्तर की एंटी- रेट्रो वाइरल दवाओं और डीआर-टीबी के उपचार मेँ है | उसे अपने एचआईवी ग्रस्त होने का पता 2006 मे चला और डीआर–टीबी की पुष्टि 2010 मे हुई जब उसे एमएसएफ (Medicins Sans Frontiere)  मेँ जाने की सलाह दी गई | एमएसएफ मेँ आने से पूर्व वो दो बार टीबी का उपचार ले चुकी थी| अपनी दोहरी बीमारी के भार के अपने संघर्ष की कहानी उसने हाल ही मे एमएसएफ को बताई|

अपने निवास-स्थान के आस-पास की बस्ती में भीख मांगकर चन्द्रिका अपना जीवन-यापन करती है| (भारत में, आज भी हिजड़ों के लिए उन घरों में, जहाँ हाल ही में विवाह सम्पन्न हुआ हो या किसी बच्चे का जन्म हुआ हो, नाचने गाने की प्रथा है | इसके बदले में उन्हें धन और उपहार मिलते हें | भीख मांगने के अतिरिक्त यही उनका जीवकोपार्जन है|) वह अपने समुदाय के कुछ अन्य लोगों—अपनी दादी माँ और अपने कुछ शिष्यों के साथ रहती है| वे एक समूह में साथ-साथ रहते हैं, लेकिन चन्द्रिका इस बात पर जोर देते हुए बताती है कि,”मै अपने घर में अकेली रहती हूँ | मेरा घर अलग है | मेरा शयन-कक्ष और रसोई-घर सब अलग हैं | मैं दूसरों के साथ नहीं रहती हूँ |”उसको सन 2004 में छाती में दर्द के साथ भयंकर खाँसी होने लगी | उसने बताया कि,” मै अत्यधिक बलगम के साथ बहुत खाँसा करती थी | मैंने सोचा कि यह खांसी बेर खाने के कारण है | मेरे गुरु ,मेरे शिष्यों और अन्य सभी ने सोचा कि यह फल शीतकारी होता है | अतः मेरी खाँसी के लिए यही जिम्मेदार है | यह फल मुझे बहुत पसन्द था, लेकिन फिर भी मैंने इसे खाना बन्द कर दिया। पर मेरी खाँसी में कोई कमी नहीं आई | इसलिए मैं एक डाक्टर के पास गई जिसने मुझे बताया कि मुझे टीबी थी| उन्होने बताया कि खाँसी बेर के कारण नहीं, अपितु टीबी के कारण थी |)

चन्द्रिका उलझन में पड़ गई | उसे टीबी के विषय में तनिक सा भी ज्ञान नहीं था | “मुझे समझ में नहीं आया कि टीबी से उनका क्या तात्पर्य था ? यह क्या बीमारी थी? इसलिए मैं वहाँ चुपचाप खड़ी रही |” उसने 2004 में सेवरी अस्पताल से 9 महीने का निःशुल्क टीबी का उपचार लिया| (यह उसके रिकॉर्ड के अनुसार है, यद्यपि अपने साक्षात्कार में उसने बताया कि उसने 6 महीने तक दवा खाई)। किन्तु उसने सोचा कि उसका शरीर इस उपचार को स्वीकार नहीं कर रहा था | उसने बताया कि,”मुझे हर समय नींद आती थी| मैं कितनी भी दवाएं खाती थी मेरी दशा पर कोई भी अन्तर नहीं होता था | जीना चढ़ने पर बेहोशी होने लगती | सांस भी फूलने लगती थी |”
2006 में, चक्कर आने और भूख न लगने के कारण, वो पुनः बीमार महसूस करने लगी | अपनी दादी माँ तथा अपने गुरु द्वारा अधिक जोर देने पर वह एक डॉक्टर के पास गई जिन्होने उसे एचआईवी/एड्स होने की जानकारी दी | केईएम एआरटी सेंटर में, 2007 में उसे ऐन्टीरेट्रोवाइरल थेरेपी (एआरटी) पर रक्खा गया |

लेकिन कुछ समय बाद उसे फिर खाँसी आने लगी और वो काफी कमजोरी महसूस करने लगी | उसका वजन कम हो गया | उसे कुछ भी खाने का मन नहीं होता था और उल्टी महसूस होती थी | इसलिए वह फिर अस्पताल गई, जहाँ रक्त की जाँच हुई और उसे 2009 में सेवरी के उसी अस्पताल में दुबारा 6 माह के लिए एआरटी पर रहना पड़ा | उसने डाक्टर द्वारा बताई सभी सावधानियाँ बरती | उन्होने उसको ठंडी वस्तुओं से परहेज करने को कहा | अतः उसने ठंडा पानी पीना और  फ्रिज में रक्खा खाना या फल लेना बन्द कर दिया | उसने सोचा कि ऐसा करने पर उसकी बीमारी पर नियंत्रण हो जायेगा, लेकिन सभी सावधानियों के बाद भी उसकी खाँसी दूर नहीं हुई |

चन्द्रिका यह न समझ सकी कि इतनी अच्छी दवाएँ लेने के बाद भी उसको दवा का दूसरा कोर्स क्यों लेना पड़ा ? जब उसने डॉक्टर से पूछा तो उन्होने बताया कि उनको यह विश्वास नहीं है कि उसने पहले दवाएँ सुचारु रूप से ली थीं | डॉक्टर ने उसे विश्वास दिलाया कि उसकी खाँसी 6-7 माह बाद ठीक हो जायेगी| लेकिन ऐसा नहीं हुआ| उसकी हालत नहीं सुधरी और वो बहुत बीमार महसूस करने लगी | तब वह केईएम अस्पताल गई, जहाँ एआरटी पर वह पहले रह चुकी थी | लेकिन वहाँ केवल जांच और एचआईवी की चिकित्सा की गई ,टीबी की नहीं | वहाँ से 2010 में वह एमएसएफ भेजी गई | एमएसएफ में उनको डीआर-टीबी होने का संदेह हुआ, कल्चर जाँच की गई जो पॉज़िटिव निकली| अब उसकी डीआर-टीबी की चिकित्सा आरम्भ हुई|

इस प्रकार काफी जद्दोजहद के पश्चात सन 2010 में उसका डीआर-टीबी के लिये दो वर्षो का उपयुक्त उपचार प्रारम्भ हो सका | डीआर-टीबी की चिकित्सा के प्रारम्भ में उसे अनेकों परेशानियों का सामना करना पड़ा| उसके शब्दों में, “मुझे हर समय उल्टी सी महसूसहोती थी, भूख नहीं लगती थी | 9 गोलियां खाना वास्तव में एक यंत्रणा थी| मैं सोचती थी कि इतनी अधिक दवाएँ खाने से तो मर जाना बेहतर है | मुझे रोज़ इंजेक्शन भी लगवाने होते थे |” लेकिन अपनी दादी माँ के प्यार और देखभाल के कारण वह यह सब झेलती गई| वह उन दिनों की याद करते हुए बताती है कि,”मेरी दादी दवाएँ खाने के लिये मुझे जोर देती रहती थीं |वो कहती थीं कि ठीक होने के लिये मुझे दवा अवश्य खानी चाहिये| अतः उनके जोर देने के बाद दवा खाने के बाद मैं एक से तीन घंटे चलती थी और एक घंटा सोती थी | इस एक घंटे की नींद के बाद मैं बेहतर महसूस करती थी |”

चन्द्रिका ने अपनी चिकित्सा का कठिन दौर पूरा कर लिया है पर अभी उपचार जारी है | अब उसने दवाओं का पूरा कोर्स लेने का द्रढ़-निश्चय कर लिया है | उसे डर है कि, “यदि मैं दवा छोड़ती हूँ तो मर जाऊँगी और अब दवा छोड़ने पर इतने सालों से उपचार करने का क्या लाभ होगा? यदि पूरा कोर्स नहीं करती हूँ तो टीबी फिर से हो सकती है | मैं चिकित्सा जारी रक्खूंगी और इसे बीच में नहीं छोड़ूँगी|” अपनी बीमारी के कारण, अपनी बिरादरी में हुये भेदभाव को वह याद करते हुये बताती है कि उसके अपने ही लोग उसे नीचा देखते थे और उसके साथ अछूत-सा व्यवहार करते थे| वो सब उससे दूर रहते थे | अगर वह किसी से अपने बालों में तेल लगाने को कहती थी तो वो उसे भगा देते थे |वह अपने गाँव या अन्य कहीं भी नहीं जा सकती थी | वह घर के अंदर ही रहती थी और किसी के साथ नहीं बैठ सकती थी | वह काम के लिये भी बाहर नहीं जा सकती थी |

एमएसएफ में आने के कारण अब उसकी हालत में सुधार हो गया है | उसे लगता है कि यहाँ मिलने वाली दवा दूसरे तरह की हैं | अब खाँसी नहीं है और उसे भूख भी लगने लगी है | सबसे अच्छी बात तो यह है कि उसकी बिरादरी ने भी अब उसे स्वीकार कर लिया है | उनके द्वारा अब वह अपमानित नहीं होती है |एक बार पुनः उन लोगों ने उससे अच्छी तरह से बात करना शुरू कर दिया है | वे उसकी प्रशंसा में कहते हैं,”अब तुम बहुत खूबसूरत लगती हो चंद्रिका, तुम अपने पुराने रूप में आ गई हो | अब तुम्हें नज़र न लगे |”

वह बहुत खुश है कि उसके परिचित अब उसको पहले की भाँति प्यार करते हैं और अब वह भी अपनी जिन्दगी में रुचि लेने लगी है | इसके लिए वह एमएसएफ के सारे कार्यकर्ताओं की आभारी है | उसका सबके लिये यह संदेश है कि किसी को टीबी के प्रति लापरवाह नहीं होना चाहिए उसके अनुसार,” कुछ लोग टीबी के उपचार में ध्यान नहीं देते हैं और अपनी जिन्दगी दांव पर लगा देते हैं | लेकिन मैं सोचती हूँ कि दवाएं खाकर तथा चिकित्सा का कोर्स पूरा  कर के स्वस्थ रहना, व्यर्थ में मरने से बेहतर है| इसलिए उन सबको, जिन्हें इसकी आवश्यकता हो, टीबी का उपचार जरूर लेना चाहिये|”

(अंग्रेजी में शोभा शुक्ला के   मूल लेख का  सुश्री माया जोशी द्वारा हिंदी में अनुवाद)

तपेदिक (टीबी) अब एक सूचनीय रोग

[English] तपेदिक या टीबी को एक सूचनीय रोग घोषित करके जहां एक ओर भारत सरकार का पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीसीपी) सराहना का पात्र है, वहीं दूसरी ओर उसे उन अनेक सावधानियों का पालन करना भी अनिवार्य होगा जिनके बगैर सभी टीबी रोगियों को उपचार सेवाएँ उपलब्ध कराना संभव नहीं होगा। सरकार के लिए कदाचित खतरे की घंटी तब बजी जब मुंबई में अत्यधिक औषधि प्रतिरोधक टीबी ( टोटली ड्रग रेसिस्टेंट टीबी) के मामले सामने आए, जिसके फलस्वरूप भारत सरकार ने टीबी को सूचनीय रोगों में शामिल करने का निर्णय लिया।

इसके कुछ सकारात्मक परिणाम अवश्य निकलेंगे—जैसे कि सभी निजी डाक्टरों, स्वास्थ्य प्रबन्धकों, प्रयोगशालाओं एवं अन्य देखभाल करने वालों को प्रत्येक टीबी केस की सूचना सरकार को देनी होगी, जिससे देश में टीबी रोग की स्थिति का वास्तविक विश्लेषण हो सकेगा कि देश में टीबी रोगियों की संख्या कितनी है, उनमें से कितने सरकारी उपचार सेवाओं का लाभ उठा रहे हैं, और कितने निजी क्षेत्र के डाक्टरों से उपचार ले रहे हैं। इस प्रकार की अन्य जानकारी प्राप्त होने से जन स्वास्थ्य संबंधी सकारात्मक नतीजे निकाल सकते हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के टीबी डिवीज़न के महानिदेशक डा अशोक कुमार ने आईबीएन लाइव टीवी न्यूज़ में कहा कि, “टीबी केसों की सम्पूर्ण जानकारी होना बहुत आवश्यक है।अत: सभी स्वास्थ्यकर्मी अपने क्षेत्र के प्रत्येक टीबी रोगी की जानकारी प्रत्येक माह एक निर्धारित प्रपत्र पर स्थानीय अधिकारियों, जैसे जिला स्वास्थ्य अधिकारी,मुख्य चिकित्सा अधिकारी, नगरपालिका के स्वास्थ्य अधिकारी को अनिवार्यत: प्रदान करेंगे”।

परंतु इस नियम के दु:खद परिणाम भी हो सकते हैं, विशेषकर उन लोगों के लिए जिन्हें टीबी उपचार सेवाएँ अभी उपलब्ध ही नहीं हैं और जिनकी इस नयी व्यवस्था के चलते अनेक कारणों से भूमिगत होने की संभावना बढ़ने से वे निजी अथवा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने में बाधित हो सकते हैं। इस सबके टीबी नियंत्रण और स्वास्थ्य व्यवस्था पर व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं।

आरएनटीसीपी के अनुसार 2010 में केवल 73% नए टीबी रोगियों की पहचान की जा सकी। इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि हमारी सरकारी आरएनटीसीपी व्यवस्था अनुमानित 27% टीबी रोगियों तक नहीं पहुँच पा रही है। क्या टीबी को एक सूचनीय रोग घोषित कर देने से इन रोगियों तक पहुँचने में मदद मिल सकेगी? यह एक गंभीर और विचारणीय प्रश्न है जिसका कोई सीधा उत्तर नज़र नहीं आता है।

इसके अलावा रोगी की निजी गोपनीयता को लेकर भी कई समस्याएँ उठ सकती हैं जैसे इलाज में चूकने वाले रोगियों को ज़बरदस्ती आइसोलेशन वार्ड में अलग रख कर इलाज करना आदि।

इसके अलावा एक और मानव अधिकार संबंधी मुद्दा है। आरएनटीसीपी के आकड़ों के हिसाब से भारत में प्रत्येक वर्ष 100,000 व्यक्ति अति प्रतिरोधक टीबी अथवा मल्टी ड्रग रेसीसीटेंट टीबी (एमडीआर)टीबी के शिकार होते हैं, जिनमें से दिसंबर 2011 तक केवल 3610 रोगियों को आरएनटीसीपी के तहत इलाज उपलब्ध कराया जा सका था। आरएनटीसीपी के अनुसार वह 2013 तक इस संख्या को बढ़ा कर 30,000  एमडीआर टीबी रोगियों का इलाज कर पाने में सक्षम होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक वर्ष 70,000 ऐसे रोगी फिर भी उचित उपचार से वंचित रहेंगे। यह कैसा सामाजिक न्याय है? जब सरकार सभी टीबी रोगियों को इलाज उपलब्ध कराने में असमर्थ है तो केवल टीबी को सूचनीय बनाने से समस्या का हल निकलने के बजाय वह और गंभीर रूप धारण कर सकती है। क्या हमने कभी यह सोचा है इस नियम का उन रोगियों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा जिन्हें अपनी गोपनीयता को ताक पर रख कर अपने एमडीआर टीबी से ग्रसित होने की सूचना तो सरकार को देनी है, पर उसको इलाज नहीं मिल सकता? वर्तमान में केवल 3% से कम एमडीआर रोगियों को सरकारी इलाज की सुविधा मिल पा रही है, और बाकी 97% को किसी भी प्रकार उपचार, देखभाल और सहायता नहीं मिल पा रही है जिसकी उन्हें नितांत आवश्यकता है। इसके अलावा उन समुदायों (जैसे एड्स के साथ जीवित व्यक्ति, इंजेक्टिंग ड्रग यूजर्स, अवैध प्रवासी आदि) जिनमें टीबी होने का खतरा अधिक है, पर भी इस नियम के विपरीत प्रभाव ही पड़ने की संभावना है।

एक विशेषज्ञ  के अनुसार “आरएनटीसीपी को नागरिक समाज के साथ मिल कर इस विषय पर एक खुले मंच पर परिचर्चा और बहस करने के बाद ही यह तय करना चाहिए कि टीबी को एक अनिवार्य सूचनीय रोग घोषित करने की नीति के टीबी रोगियों पर क्या परिणाम हो सकते हैं। यदि इस नीति का सही तरह से परिपालन नहीं किया गया तो रोगियों को सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ सकता है जिसके चलते उनके भूमिगत होने अथवा देर से उपचार की मांग करने की संभावना बढ़ सकती है। कम से कम सरकार को इस विषय पर एक वार्तालाप तो करना चाहिए कि इस नीति का किस प्रकार प्रतिपालन किया जाय जिससे रोगी को चिकत्सीय गोपनीयता, मानसिक अवलंबन, और उचित इलाज मिल सके जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निदेशों में इंगित है”।

केवल टीबी को सूचनीय रोग घोषित करने से ही समस्या का हल नहीं निकलेगा। एक सार्थक टीबी नियंत्रण कार्यक्रम में टीबी से प्रभावित समुदायों को टीबी कार्यक्रमों का एक अहम हिस्सा मान कर उनकी बराबर की मर्यादित साझेदारी होना; उन्हे उच्च कोटी का परामर्श मिलना; बेहतर उपचार एवं स्वास्थ्य साक्षरता होना, समाज में व्याप्त टीबी संबन्धित भेदभाव दूर करना; उपचार पद्यति में डाट्स प्रोग्राम से कुछ अलग हट कर सोचना; टीबी कार्यक्रमों का अन्य विकास कार्यक्रमों (जैसे पोषण, स्वच्छता, दवाओं का दुरुपयोग, एड्स, डायबिटीज़ आदि) से एकीकरण करना; और स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृद करना नितांत आवश्यक है। तभी हम समाज से टीबी का प्रकोप दूर करने में सक्षम हो सकेंगे। 

शोभा शुक्ला एवं बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.
(लेखक ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. के संपादक हैं। ईमेल: stoptb@citizen-news.org)

दमा को अपने दम से वश में कीजिये

42 वर्षीय राशिद अली, एक मध्यमवर्गीय परिवार से हैं और लखनऊ में जरदोज़ी के काम का बिजनेस करते हैं। 1990 में उन्हें टीबी हो गई थी जिसका 18 महीने तक इलाज चला था। पिछले 8 सालों से दमा (अस्थमा) से ग्रस्त होने के बावजूद वे एक सामान्य जीवन बिता रहे हैं। उन्होने बताया कि, ‘मैं अब बिलकुल ठीक हूँ, और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में मुझे कोई परेशानी नहीं है। इसके लिए मैं अपने डाक्टर का शुक्रगुजार हूँ, जिनके सही इलाज और उम्दा देखरेख की वजह से ही मैं अपने दमे पर काबू पा सका हूँ। उन्होने मुझे एक इन्हेलर दिया है जिसका अब मुझे कभी कभार ही इस्तेमाल करना पड़ता है। शुरू शुरू में ज़्यादा इस्तेमाल करना पड़ता था। उन्होने मुझे कभी खाने की गोली नहीं दी। इन्हेलर के जरिये ही दवा मेरी साँस की नली में जाती है। इसमें तकरीबन हर महीने 150 रुपये का खर्च आता है। मैं और मेरे घरवाले खुदा के शुक्रगुजार हैं कि मुझे एक उम्दा डाक्टर से सही इलाज मिल सका”। 

राशिद भाई दुनिया भर में अस्थमा (दमा) से जूझ रहे 23.5 करोड़ लोगों में से एक हैं। वैश्विक स्तर पर प्रत्येक 250 मौतों में एक का कारण अस्थमा ही है। भारत में दमा के लगभग 240 लाख रोगी हैं, जो विश्व भर के दमा रोगियों का 10% है। भारतीय बच्चों में 2% से लेकर 12% बच्चे इस श्वास रोग से प्रभावित हैं। अस्थमा एक यूनानी शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘साँस का फूलना’। दमा रोग के मुख्य लक्षण हैं खाँसी और साँस का फूलना जो ऐलर्जी पैदा करने वाले तत्वों के कारण भीषण रूप धारण कर लेते हैं। अनुवांशिक कारणों के अलावा अनेक ऐसे बाहरी तत्व हैं, जो फेफड़े के अंदर एलर्जी पैदा करके अस्थमा के लक्षणों को तीव्र कर देते हैं, जैसे फूल के पराग कण, धूल, सिगरेट का धुआँ, ट्रैफिक का धुआँ, आदि। इसके साथ ही मानसिक तनाव, कुछ खाड़ी पदार्थ, मोटापा, मौसम में बदलाव भी अस्थमा के कारण हो सकते हैं। 

चूँकि अस्थमा के लक्षण अन्य श्वास रोगों, जैसे टीबी, से मिलते जुलते हैं, इसलिए इस रोग की सही पहचान करने में अक्सर बाधा आती है, (विशेषकर बच्चों में), जिसके कारण इस रोग का उपचार या तो हो ही नहीं पाता या विलंब से होता है। लखनऊ के वरिष्ठ चेस्ट रोग विशेषज्ञ डा बी बी सिंह जी के अनुसार, “यदि बच्चे को निरंतर खांसी और श्वासनली के ऊपरी भाग का संक्रमण हो तो अक्सर चिकित्सक उसे गलती से प्राइमरी कांप्लेक्स समझ कर टीबी का इलाज शुरू कर देते हैं। यह बेहद चिंता का विषय है, क्योंकि इस प्रकार न केवल रोग की गलत पहचान होती है, वरन दवा का दुरुपयोग भी होता है”।

अस्थमा का इलाज तो मुमकिन नहीं है, परंतु इसका नियंत्रण सहजता से संभव है। अत: अस्थमा के बारे में लोगों को उचित जानकारी दे कर जागरूक करने की आवश्यकता है, ताकि वे एक स्वस्थ और सामान्य जीवन जी सकें। डा सिंह का कहना है कि, “समस्या यह है कि जन साधारण में अस्थमा संबधित पर्याप्त जागरूकता का अभाव है और अधिकांश अस्थमा रोगियों को उच्च कोटी की उचित चिकित्सीय सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। मुंबई में हुए एक शोध के अनुसार अनेक चिकित्सकों में भी अस्थमा संबंधी इलाज एवं नियंत्रण के बारे में पर्याप्त ज्ञान नहीं था। अस्थमा का सही नियंत्रण इन्हेलर के द्वारा ही संभव है। इन्हेलर प्रणाली द्वारा कोर्टिकोस्टीरोयड दवा को श्वास में अंदर लेने से दमा पूर्ण रूप से नियंत्रित रहता है और इन्हेलर के दीर्घकालीन सेवन से भी न तो कोई विपरीत लक्षण (साइड इफेक्ट) होते हैं न ही इसका नशा होता है। द यूनियन के फेफड़े विभाग के निदेशक डा चियांग सेन युआन के अनुसार, “इन्हेलर के जरिये कोर्टिकोस्टीरोयड को श्वास में अंदर लेने से अधिकांश रोगी अस्थमा को नियंत्रित कर एक सामान्य जीवन व्यतीत कर सकते हैं। परंतु दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांश अस्थमा रोगियों को इन्हेलर कोर्टिकोस्टीरोयड उपलब्ध नहीं है। एक शोध के अनुसार विश्व भर के 20% से भी कम अस्थमा के रोगी इस सर्वोत्तम अस्थमा नियंत्रक प्रणाली का लाभ उठा पाते हैं। अनेक विकासशील देशों में या तो ये इन्हेलर बहुत महँगे हैं या फिर जनसाधारण एवं चिकित्सकों को इनके बारे में उचित जानकारी नहीं है”। 

भारत में भी 70% से अधिक रोगी खाने वाली गोली के रूप में अस्थमा की दवा का प्रयोग करते हैं, जो इन्हेलर के समान असरदार नहीं होती है और जिसके खतरनाक साइड इफेक्ट होते हैं। डा सिंह के अनुसार इसका मुख्य कारण है रोगियों और चिकित्सकों में समुचित जानकारी का अभाव, तथा जन साधारण में अस्थमा को लेकर प्रचलित भ्रांतियाँ जैसे इन्हेलर की लत पड़ जाती है, इसके विपरीत प्रभाव होते हैं, इसका नियमित इस्तेमाल मुश्किल है, आदि। वास्तविकता तो यह है कि इन्हेलेशन थेरेपी में दवा की मात्रा बहुत कम (माइक्रो ग्राम) होती है तथा इन्हेलर के द्वारा यह सारी की सारी  औषधि सीधे फेफड़ों में पहुँचती है जहाँ उसकी आवश्यकता होती है। शरीर के बाकी अंग उसके प्रभाव से अछूते रहते हैं। फिर साइड इफेक्ट का तो प्रश्न ही नहीं उठता।  इसके विपरीत गोली के रूप में मुँह से दवा खाने पर, उसमें औषधि की मात्रा तो 10 गुना अधिक (मिलीग्राम में) होती है, परंतु  केवल 1% दवा ही फेफड़ों में पहुँच पाती है और बाकी रक्त में मिल कर शरीर के अन्य हिस्सों में पहुँच कर उन्हें नुकसान पहुंचाती है। इससे खाने वाली दवा का असर भी कम होता है और साइड इफेक्ट भी कहीं ज़्यादा होते हैं। यह बात दमा के रोगियों को समझना बहुत ज़रूरी है।  

छत्रपती शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पलमोनरी मेडिसिन विभाग के प्रमुख प्रोफेसर (डा) सूर्यकांत के अनुसार, “इन्हेलर द्वारा की जाने वाली चिकित्सा प्रणाली पर प्रति दिन मात्र 4-5 रुपये का खर्च आता है, इसलिए अस्थमा का इन्हेलर द्वारा उपचार बहुत ही सस्ता है। इन्हेलर हमारे चश्मे की तरह हैं। जिस प्रकार आँखें कमजोर हो जाने पर हम बेझिझक चश्मा पहनते हैं, उसी प्रकार श्वासनली कमजोर हो जाने पर हमें इन्हेलर का नियमित इस्तेमाल करने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। जैसे हम रोज़ अपने दाँतों को टूथपेस्ट से साफ करते हैं, उसी प्रकार अस्थमा के रोगी को सुबह शाम इन्हेलर का प्रयोग करके एक सामान्य जीवन जीना चाहिए। इसके साथ साथ जल नेति (पानी से नाक के अंदर की सफाई) करने से अस्थमा को बढ़ावा देने वाले एलर्जी तत्व साफ हो जाते हैं।”

उचित उपचार करने के साथ साथ अस्थमा के रोगी को ऐसे कारणों से बचना चाहिए जिनसे अस्थमा तीव्र हो सकता है, जैसे तंबाकू/सिगरेट का धुआँ, धूल, पराग कण, मानसिक तनाव, अधिक परिश्रम, आदि। यदि अस्थमा नियंत्रण प्रभावकारी और व्यवस्थित ढंग से अविलम्ब नहीं किया गया तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। न केवल अस्थमा रोगी को एक स्वस्थ और सामनी जीवन-यापन करने का अधिकार है, वरन अस्थमा नियंत्रण सरल भी है, यदि इसे सुचारु रूप से लागू किया जाय। यूनियन की सलाहकार प्रोफेसर नादिया के शब्दों में, “समय रहते अस्थमा का निदान तथा दीर्घ कालिक प्रबंधन करके हम न केवल अस्थमा रोगियों को एक आम और स्वस्थ सामाजिक एवं व्यावसायिक जीवन प्रदान कर सकते हैं, वरन अस्पताल और दवा पर हो रहे उनके निजी और सरकारी अनावश्यक आर्थिक खर्चों को भी कम कर सकते हैं”।  

शोभा  शुक्ला -सी.एन.एस