निर्णायक मोड़ ?

श्रम - शक्ति के धनी गाँव में बसने वाले भारत के  लिए मेहनत की न्यायपूर्ण हकदारी की स्थापना एक निर्णायक मोड़  साबित हो सकती हैं. परन्तु उसके लिए एक अनिवार्य शर्त होगी- न्यायपूर्ण हकदारी के नये परिवेश का सही उपयोग और नई चेतना का स्वयं गाँव के अंतरिक जीवन और व्यवहार में सम्मान और अनुपालन.

श्रम की पुनप्रतिष्ठा :
मेहनत की न्यायपूर्ण हकदारी का हमारा अभियान कुछ अधिक मजदूरी के लिए सामान्य ‘मजदूरी बढ़ाओ’ आन्दोलन नहीं है। इसमें हमने खेती-किसानी और हाथ-मेहनत को नीचा और हेय मानने, मशीनों के काम के लिये मझोला दर्जा और तथाकथित बौद्धिक या कागज कलम के कामों को ऊँचा और श्रेष्ठ होने की मान्यता को ललकारा है। उत्तम खेती, मध्यम वनिज, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान सी पुनर्स्थापना हमारा लक्ष्य है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था का केंद्र बिन्दु ‘छोटा’ किसान होगा। उसी के काम को हकदारी सभी क्षेत्रों में काम करने वालों को हकदारियों का प्रामाणिक मापदण्ड होगी। किसानों के मेहनत का मोल कुशल कारीगर से कम नहीं। उसी क्षेत्रों में काम करने वालों की हकरियों में न्यायपूर्ण संतुलन होगा। राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक संघर्ष से धीरे-धीरे गाँव के भीतर भी नये समीकरण बनेंगे। न्यायपूर्ण हकदारी उसकी बुनियाद होगी।

हमने नरेगा के 60 रूपये रोज की न्यूनतम मजदूरी के प्रावधान पर खुला हमला किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम नरेगा की जनवादी संभावनाओं का आदर नहीं करते हैं। जैसा हम पहले कह चुके हैं कि रोजगार के बावत संविधान के दिशा -निर्देशक सिद्धान्त को कानूनी आधार देना सही दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। हम अपने गाँव में ऐसी भावना पैदा करें जिसमें कम से कम श्रम के मामले में गाँव के छोटे बड़े सभी परिवार एक लाइन में खड़े होकर गाँव की अर्थव्यवस्था की पूर्ण प्रतिष्ठा में सहभागी हों। गाँव के विकास के लिये सहभागिता की भावना का संचार भविष्य के लिए हमारी सबसे मूल्यवान पूंजी हो सकती है।

फूटे घड़े की पूरी दुरूस्ती:
फूटे घड़े में चाहे कितना भी पानी उड़ेलते जाओ, अन्त में वह खाली का खाली रह जाएगा। मेहनत की सही हकदारी के अभियान से गाँव की अर्थ-व्यवस्था रूपी घड़े का सबसे बड़ा छेद बन्द हो जाने की उम्मीद की जा सकती है। परन्तु गाँव की अर्थव्यवस्था में उसके अलावा भी अनेक छेद हैं। अगर हमें गाँव का विकास और देश में सम्मानपूर्ण स्थान बनाना है तो उन सभी छेदों की पहचान करनी होगी और उनको बन्द करना होगा। गाँव में जहाँ कहीं नया काम खुलता है, उसके आस-पास छोटी-मोटी दुकान खुल जाना आम बात है। यहीं नहीं, उससे थोड़ा हट कर देशी - विदेशी शराब का ठेका भी खुल जाता है। समय पर मजदूरी का बँटवारा न होना एक अटल नियम है। सो हर काम उधारी पर होता है। क्या दिया क्या लिया सब भगवान के भरोसे ! क्या ग्राम सभा के रूप में गाँव समाज नया काम शुरू होने पर इस नये छेद का मुकम्मिल इन्तजाम कर सकती हैं ? क्या हमारी मेहनत के ऊँचे मूल्य की कमाई शराबखोरी व अन्य चमक दमक वाली शहरी वस्तुओं की खरीद में खुर्द-बुर्द होने से रोकी जा सकती है ?

यहीं पर एक बुनियादी सवाल यह है कि आखिर नरेगा के तहत कौन से काम लिये जायेगे ? अभी तक कामों का चयन इस आधार पर होता है कि कौन ठेकेदार किस काम से अधिक से अधिक मुनाफा कमा सकता है और ये काम ऊपर से आते है, उनमें कोई विकल्प नहीं होता है। लोग भी किसी तरह ‘मेरी मजदूरी मिल जाये’ इसी पर ध्यान रखते है, काम कैसा है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है। सोचने की बात यही है कि यह परसेंटेज की प्रथा भी तो हमारे गाँव रूपी घड़े में एक बड़ा सूराख है। अगर उसे बन्द कर दिया जाये तो गाँव की खुशहाली बढ़ेगी। ग्राम सभा इस मामले में कानून के तहत कार्यवाही करने के लिए सक्षम है।

ये दो बातें तो घड़े में होने वाले नये छेदों से संबधित है। क्या आपने अपने गाँव की अर्थ-व्यवस्था में बाहर से क्या आता है और उसमें से बाहर क्या जाता है इस पर भी कभी विचार किया है ? इस पर अगर गाँव के सब लोग मिल कर सोचें तो बड़ी अचरज वाली बातें सामने आयेगी। शराब और नशीले पदार्थों का सेवन व्यवस्था में भारी छेद है। हमने फैशन की चीजों का व्यवहार करना शुरू कर दिया है, जिनकी कोई जरूरत नहीं है। उनमें से कई तो नकली और नुकसानदेह होती है। कई गाँवों में धान की घर में कुटाई बन्द हो गई है। हम अपना धान मंडी में बेच आते है, चावल बाहर से खरीद कर खाते हैं। जरा लगाइये हिसाब यह अकेली बात कितनी बड़े छेद का कारण है। उदाहरण अनगिनत है। आत्म निर्भर गाँव गणराज्य की स्थापना करनी है तो उन सब मुद्दों पर विचार कर निर्णय करना होगा।

आत्म निर्भरता की ओर

नरेगा में अभी हर परिवार के एक सदस्य के लिए सौ दिन के रोजगार की गारंटी का प्रावधान है। इसके दायरे को और भी व्यापक करने की माँग की जा रही है। हमारा मानना है कि मेहनत की न्यायपूर्ण हकदारी के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में अगर नरेगा को ईमानदारी से लागू किया जाता है तो उससे ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन आ सकता है। अकुशल काम के लिए न्यायपूर्ण हकदारी स्थापित हो जाने के बाद से खेती-किसानी के काम का कुशल काम के रूप में पुनर्मूल्यांक समय की ही बात रह जाएगी। मेहनत की हकदारी के नये समीकरण बन जाने के बाद राष्ट्रीय विकास में दो अंक की बढ़त पर ध्यान केन्द्रित होने की बजाय सकल राष्ट्रीय आय में सभी की न्यायपूर्ण हिस्सेदारी यानी उसके वितरण पर ध्यान देना होगा। उस हालत में ‘65 से 17 बस, 51 की कमर कस’ के अभियान को कोई ताकत नहीं रोक पायेगी। ‘गाँव में रहने वाले भारत’ के लोगों के हाथ में अधिक आमदनी आयेगी। शहरों की ओर जाने वालों का रेला रूकेगा। गाँव की ओर लौटने की बात भी होगी। इस नई हालत में देश में क्या उत्पादन होगा उसमें गुणात्मक परिवर्तन होगा। यदि हमारा अभियान बड़े छेदों को बन्द करने में सफल होता है तो गाँव के ही उत्पादों की माँग बढ़ेगी और ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था आत्म निर्भरता की ओर आगे बढ़ेगी।

आत्म-निर्भर ग्राम-व्यवस्था के निर्माण के बीज नरेगा में भी हैं रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए अब तक सड़क और निर्माण कामों पर ही जोर रहता आया है। मगर आखिर इस तरह के काम कितने गाँवों में कितने दिन चल सकते हैं ? इसके लिए नरेगा में भूमि सुधार, सिंचाई, वृक्षारोपण इत्यादि को केन्द्रीय माना है। मशीनों का प्रयोग वर्जित है। अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, गरीबी रेखा के नीचे के लोगों की निजी जमीन के काम भी नरेगा में लिये जा सकते हैं। उम्मीद यह की जाती है कि इन कामों में सफलता मिलने पर गाँव की अपनी अर्थ-व्यवस्था इतनी मजबूत हो जाएगी जिससे रोजगार के लिये सरकारी योजनाओं का मुँह नहीं देखना होगा।

यहीं पर नरेगा में सीमित प्रावधानों के बावजूद गाँव गणराज्यों की अर्थ-व्यवस्था को पूरी तरह सम्पूर्ण रोजगार वाली आत्म निर्भर व्यवस्था के रूप में स्थापित करने के लिए सघन प्रयोग की अच्छी संभावना हैं।

अपना गाँव, अपना श्रम, अपनी मुद्रा  ?
युगों से हमारा गाँव अपने विकास के मामले में आत्म-निर्भर रहा है। वहाँ जो कुछ है- खेती की जमीन, सिंचाई के तालाब, कुएँ, बाग-बगीचे, अपने मकान, सब कुछ गाँव के ही लोगों ने अपने श्रम से मिलजुल कर बनाये है, परन्तु आज स्थिति बदल गई है। एक ओर जमीनें कट रही है, तालाब पट रहे हैं, जंगल उजड़ रहे हैं और दूसरी ओर बिना काम के लोग बेहाल हैं, हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं। विकास के काम और श्रम के बीच का आपसदारी का रिस्ता टूट गया है, उनके बीच पैसे के रूप में बिचौलिया आ गया है। सरकार गाँव के लिये तालाब मंजूर कर दे और उसका पैसा आ जाय तो हाथ-पर-हाथ रखे लोगों के हाथ चलने लगते हैं, काम होने लगता है। पैसे की आमद खत्म हो गई तो काम और श्रम के बीच का रिश्ता टूट जाता है। काम बंद हो जाता है, आदमी बेकाम हो जाता है।

गाँव का विकास पूरी तरह से पैसे पर निर्भर हो जाने के बावजूद गाँव की अर्थ व्यवस्था में बहुत सारे काम बिना पैसे के आपसी सहयोग और वस्तु-विनियम के आधार पर आज भी चल रहे हैं। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि गाँव के विकास के लिये पैसा अनिवार्य शर्त है। गाँव के लोग आज भी सामूहिक निर्णय से बिना पैसे का सहारा लिये बड़े-बड़े काम कर डालते हैं। गाँव से सामूहिकता वाली इस आदर्श स्थिति की पुर्नस्थापना संभव है, परन्तु आज की स्थिति को देखते हुए इस दिशा में कई छोटे-बड़े समुदायों में प्रयोग हुए हैं, जिनका लाभ लेकर हम चुने हुए क्षेत्रों में पूर्ण रोजगार और सघन विकास की योजना बना सकते हैं।

ये प्रयोग बड़े सीधे-सादे है, परन्तु सामुदायिक भावना उनकी असली ताकत है। मान लीजिये हम अपने गाँव या गाँव समूह में यह तय करते हैं कि आपसी व्यवहार में हम सरकारी मुद्रा की बजाय अपने गाँव की एक विशेष मुद्रा का प्रयोग करेंगे। तालाब बनाने के लिये गाँव की मुद्रा स्वीकार करेंगे।

उस मुद्रा से किसान उन्हें अनाज निर्धारित रेट पर देगा। किसान को जब मजदूर की जरूरत होगी तो उसी गाँव की मुद्रा देकर वह अपना काम करवा लेगा। एक तरह से गाँव की मुद्रा से पुरानी वस्तु विनिमय की परम्परा फिर से चल निकलेगी। इस व्यवस्था में गाँव का बाहरी व्यवस्था से विनिमय सरकारी मुद्रा में होगा और गाँव का अंदरूनी विनिमय गाँव की मुद्रा में होगा। इस व्यवस्था में सीमित आर्थिक संसाधनों से गाँव में पूर्ण रोजगार और सघन विकास किया जा सकता है।

मान लीजिये एक गाँव में 100 परिवार है। उन 100 परिवारों के 100 लोगों के लिये 100-100 दिन का काम नरेगा के तहत अनिवार्य रूप से मिलेगा। इस तरह साल में 10,000 मजदूर - दिवस के काम के लिये सरकार भुगतान करेगी। हाल फिलहाल हमें 120 रूपये रोज का नकदी भुगतान मिलेगा। 120 रूपये रोज की मजदूरी के हिसाब से साल में 12 लाख रूपये की राशि गाँव में आयेगी। अब मान लीजिये गाँव के सब लोग यह तय कर लें कि गाँव में गणराज्य - बैंक खोल लें। लोगों की पूरी मजदूरी उस बैंक में जमा हो जाय। वह बैंक सरकारी नोटों के साथ-साथ दस-दस रूपये के ‘गणराज्य - टोकन’ चलाये जिन्हें गाँव में व्यवहार के लिये सब लोग स्वीकार करें। मान लीजिये गाँव के सब लोग यह मान लेते है कि वे जहाँ तक होगा गाँव के अंदर अपने काम बैंक से ‘गणराज्य - टोकन’ निकाल कर ही चलायेंगे और जब बाहरी जरूरत होगी सरकारी नोट तभी माँगेगें। इस व्यवस्था में मान लीजिये औसतन हर कामगर 60 रूपये के सरकारी नोट और 60 रूपये के ‘गणराज्य टोकन’ से अपना कामकाज चलाता है। ऐसी हालत में उस गाँव में सरकार से आने वाली 12 लाख रूपये की राशि से 100 लोगों  की बजाय 200 लोगों के लिये काम उपलब्ध करवाया जा सकेगा और विकास की गति दूनी हो जायेगी।

गैर-बराबरी उन्मूलन के अभियान से गाँव की आमदनी में लगातार बढ़त होगी। यदि उस बढ़ी आमदनी का उपयोग सूझ-बूझ के साथ हो और गणराज्य-बैंक का प्रयोग गाँव में आम हो जाय तो गाँव में बेरोजगारी को पूरी तरह खत्म किया जा सकेगा। गाँव की पूरी श्रम-शक्ति गाँव के विकास में लगेगी। गाँव की अर्थ-व्यवस्था का बहुमुखी विकास होगा। इस तरह स्वाभिमानी आत्म-निर्भर गाँव-गणराज्यों की आधार-शिला पर स्वाभिमानी आत्म-निर्भर भारत का निर्माण होगा।

इस प्रयोग के लिये एक गाँव या अच्छा रहे एक छोटा गाँव समूह या गाँव गणराज्य परिषद को चुना जाय। गैर-बराबरी उन्मूलन अभियान लोगों के सर्वांगीण जन विकास के लिये प्रयोग का एक सशक्त माध्यम साबित होगा। 

बी.डी. शर्मा

जो भूखों मरते हैं, वो नाचते कैसे हैं ?

      आजादी के तिरसठ साल बाद भी देश के आदिवासी और अति दलित जातियां मुख्य धारा से बाहर हैं उनके विकास के लिए बनी योजनाओं ने उन्हें दिया तो बहुत कम उलटे उनके पारम्परिक संसाधन भी उनसे छीनते चले गये सत्ता के सारे पायदानों ने उन्हें छला आज भी प्रदेश  के सोनभद्र,चंदौली, गोरखपुर, बलिया, बांदा, लखीमपुर, वाराणसी, चित्रकूट और इलाहाबाद में बसी ये जातियां एक तरह से आदिम अवस्था में हैं लोकतांत्रिक एजेंसियाँ व संस्थाएँ उनके लिए बेमानी ही हैं अगर विकास की किरण पहुँची भी हैं तो भी पारम्परिक समाज की उनसे दूरी बनी हुयी हैं क्या आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के सन्दर्भ में ये अहम नहीं कि अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस (7 अगस्त) पर उनकी जीवन स्थितियों को जानने के बहाने कुछ सवाल उठता।
   
   उनकी खबरें यदा-कदा तभी आती हैं, जब वे भूख से मरते हैं, जब उनके टोले फूंक दिये जाते हैं, जब अपराधी बताकर पुलिस मुठभेड़ में मार डालती है, या फिर जब वे उन्मत्त होकर नाचते हैं। बाकी दिनों वे किस हाल में जीते हैं तथाकथित भ्रद समाज के लोग नहीं जानना चाहते। जो भूखमरी का शिकार है, वह उन्मत्त हो नाच कैसे सकता है ? टेलीविजन के जरिये समाज को समझने वाले पूछते हैं। उन्हें नहीं पता कि जिजीविषा नाम की कोई चिड़िया हुआ करती है।

   दरअसल ये आजादी के बाद लोकतंत्र के और सैकड़ों साल पहले से वर्णाश्रमी समाज के हाशिए पर फेंक दिए गए लोग हैं। वे प्रकृति, नियति और अपने पूर्वजों की स्मृति के भरोसे जीते हैं उन्होंने हमारे समाज और आती-जाती सरकारों से कभी कुछ नहीं चाहा, उल्टे उनके कल्याण का स्वांग भरते हुए जो सरकारी एजेंसियाँ और अफसर गए, उन्होंने उनके पारम्परिक जीवन के सिलसिले के तोड़ दिया। फिर उनके संसाधनों को षड्यंत्रों अत्याचारों और छल-कपट से "बेचारा" बना दिए गए लोग हैं। हो सकता है कि वे चालाकों-दबंगों से हार कर एक दिन पूरी तरह मिट जाएँ।
   
   सोनभद्र जिले में करीब दस लाख आदिवासी हैं। रिहंद बांध के बनने से उनके विस्थापन का सिलसिला जो शुरू हुआ, आज भी जारी है। हजारों बूढ़े ऐसे हैं जो अपने जीवनकाल में छह-छह बार उजाड़े गए। पुनर्वास के अफसर और दलाल मालामाल हो गए और वे आज भी कोई ठौर तलाश रहे हैं। रिहंद और अनपरा की बिजली सारे देश को मिलती है और वे कुप्पी की रोशनी में रातें काटते हैं। दूसरी आफत जंगलात महकमा है और धारा-20 दुनिया का सबसे काला कानून है, आरक्षित वन क्षेत्र के नाम पर सैकड़ों लोग हर साल बेघर और बेजमीन होते हैं, उन्हें जंगल में घुसने से रोक दिया जाता है। काशी वन्य जीव प्रभाग के अफसर कहते हैं कि नौगढ़ क्षेत्र में उनकी 1014-75 हेक्टेयर जमीन पर अवैध कब्जे हैं और अतिक्रमण के 748 मुकदमे चल रहे हैं, अवैध कब्जों का यह सरकारी दावा अर्द्धसत्य है। पूरा सच यह है कि जमींदारी उन्मूलन के बाद जो सर्वे हुआ उसमें जमकर धांधली हुई लेखपाल कानूनगों को घूस देने की जिनकी औकात थी, उन्हें सर्वे में आबाद दिखाया गया। आदिवासियों और दलितों के गाँवों को आरक्षित वन क्षेत्र दर्ज कर दिया गया। कई पुस्त से बसे इन लोगों को अतिक्रमणकारी बताकर वन विभाग बेदखल कर रहा है, दूसरी तरफ सन 75 के बाद बाहर से आकर हजारों एकड़ जंगल कब्जाने वाले नये जमींदारों को कोई पूछता तक नहीं। चंदौली के नौगढ़ ब्लाक में शायद ही कोई ऐसा गाँव मिले जहाँ जंगल काट कर बनाई आदिवासियों का जमीन दबंगों ने न कब्जा की हो। भटदुआ, परसियां और परसहवां की छ: सौ एकड़ जमीन पर मोहन सिंह के आदमियों का कब्जा है। शमशेरपुर के डेढ़ किलोमीटर के दायरे में गोविन्द सिंह के लोग खेती करते हैं। जयमोहनी में दलितों को पट्टे में मिली सौ एकड़ जमीन पर दबंग यादवों का कब्जा है। मिर्जापुर में सिरसी बाँध बना तो बंभनी-थपनवा समेत सोलह गाँवों को डूब क्षेत्र घोषित कर दिया गया। इन गाँवों के दलित आदिवासियों को पाँच साल के पट्टें दिए गए, जिसका लगान चालीस रूपये एकड़ की दर से वे भरते हैं। ज्यादातर पट्टे सवर्ण और दबंग पिछड़ी जातियों को मिले, बलिया और लखनऊ तक के लोग यहाँ खेतिहर हो गए। राजस्व निरीक्षण ने 239 लोगों की सूची में जिले के बाहर के लोगों को भी शामिल कर लिया। मिसाल के तौर पर यहाँ के सुदामा, बुधनी और श्याम सुन्दर को पाँच एकड़ जमीन का मालिक बताया गया है जबकि उनके पास एक धूर भी जमीन नहीं है। अकेले चुनार तहसील में भूमि विवाद के ७,000 मुकदमें लम्बित हैं। शक्तेशगढ़ परगना के बझवां गाँव में ऐसे लोगों को मिले हैं जो तलाशे नहीं मिलते, बहुजर में ऐसे तथाकथित आदिवासियों को पट्टे मिले हैं इन्कमटैक्स का रिटर्न भरते हैं।
     
      वन विभाग की धारा-20 के खेल के कारण सोनभद्र जिले के पाँच पुराने गाँवों का अस्तित्व मिटने वाला है। सन 1997 में फारेस्ट रेंजर ने अचानक ऐलान किया कि ये गाँव अभयारण्य पर कब्जा कर बसे हैं, दो साल तक यह प्रचार चलाने के बाद जुलाई 1999 में वन विभाग के अफसरों ने पुलिस साथ लेकर बसौली की 825 बीघे जमीन, बुंधवारी की तीस, बहुआर की 1369, तितौली की 100 और अमौली की 225 से आदिवासियों को बेदखल कर दिया।
   
  अनिल यादव