इससे पहले की बहुत देर हो जाय, तम्बाकू छोडिये और धुंआ रहित समाज की स्थापना कीजिए
विश्व तम्बाकू विरोधी दिवस के उपलक्ष्य में, ३१ मई को छत्रपति शाहूजी महराज मेडिकल विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग में एक जन गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें उपकुलपति डाक्टर सरोज चूरामणि गोपाल एवं जस्टिस शबीबुल हसनैन मुख्य अतिथि थे, तथा पुलिस अधीक्षक हरीश कुमार विशिष्ठ अतिथि थे।
डाक्टर चूरामणि के अनुसार, इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि तम्बाकू का परोक्ष एवं अपरोक्ष सेवन, अनेक जानलेवा बीमारियों का जनक है। अत: हम सभी को एक तम्बाकू रहित समाज के लिए प्रयत्न करने चाहिए।
सर्जरी विभाग के अध्यक्ष, प्रोफेसर डा. रमा कान्त का कहना था कि तम्बाकू उत्पादों पर सचित्र स्वास्थ्य चेतावनियाँ, तम्बाकू उन्मूलन की दिशा में एक अच्छा कदम है। विशेषकर भारत में, जहाँ एक तिहाई जनता अशिक्षित है, ये सचित्र खतरे के लेबल, लोगों को तम्बाकू छोड़ने के लिए ज़रूर प्रेरित करेंगें। डाक्टर साहब ने बताया कि विदेशों में इन चेतावनियों के बहुत अच्छे परिणाम मिले हैं।
परन्तु भारत में, आज के दिन से लागू ये चेतावनियाँ उतनी ज़ोरदार नहीं हैं, तथा क्षेत्र परीक्षित भी नहीं हैं। ये तम्बाकू पैक के केवल एक ओर के ४०% भाग पर होंगी।
सर्जन विनोद जैन ने बताया कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकडों के अनुसार, हमारे देश में प्रति वर्ष ९ लाख तम्बाकू उपभोक्ता मृत्यु को प्राप्त होते हैं। भारत में कैंसर के ४०% मामले तम्बाकू जनित होते हैं। तम्बाकू की वजह से ही भारत में मुख के कैंसर का प्रकोप सबसे अधिक है।
इस गोष्ठी में ‘तम्बाकू रहित जीवन’ पर कई पोस्टर भी प्रर्दशित किए गए। स्कूल के बच्चों ने तम्बाकू की हानियों के बारे में अपने वक्तव्य भी पेश किए। इस संगोष्ठी में अनेक गैर सरकारी संस्थाओं ने भी भाग लिया, जैसे आशा परिवार, इंडियन सोसाईटी अगेंस्ट स्मोकिंग , समाधान, अभिनव भारत फौंडेशन, भारत विकास परिषद्, यू.पी.वी.एच.ई. आई.
ज़ख्म को नासूर न बनने दें
केवल तम्बाकू ही ऐसा पदार्थ है जो जानलेवा होने के बावजूद भी कानूनी रूप से उगाया एवं बेचा जा सकता है।वर्तमान दर के हिसाब से सन २०२० तक, विश्व में सिगरेट पीने से मरने वालों की संख्या १ करोड़ तक पहुँचने कीसंभावना है.हमारे देश में प्रति वर्ष १० लाख व्यक्ति तम्बाकू सेवन के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
तम्बाकू वास्तव में सम्पूर्ण विश्व के लिए एक महामारी के समान है, जिसकी रोकथाम सरकारों एवं जन स्वास्थ्यकार्यकर्ताओं के लिए एक कठिन चुनौती है। परन्तु तम्बाकू उन्मूलन से सम्बंधित नीतियों में काफी विरोधाभासनज़र आता है। तम्बाकू नियंत्रण नीतियाँ ओर तम्बाकू संवर्धन युक्तियाँ एक साथ ही विद्यमान प्रतीत होती हैं। एक ओर जहाँ सभी राष्ट्र तम्बाकू उपभोग को कम कराने के प्रयासों में कार्यरत हैं, वहीं दूसरी ओर तम्बाकू की खेती, तथा उसके पदार्थों के क्रय विक्रय को भी बढ़ावा दिया जा रहा है।
हाल ही में, मैं ‘ तम्बाकू अथवा स्वास्थ्य’ के १४ वें अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में भाग लेने मुम्बई गयी थी। वहाँ एकवरिष्ठ लेखिका से मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। उन्होंने बातों बातों में जो कटु सत्य कहा वह अनेक समझदारव्यक्तियों की सम्मिलित राय को ही उजागर करता था । उनके अनुसार तम्बाकू उन्मूलन समस्या का बस एक हीउपाय है – तम्बाकू की खेती ही न की जाय और उसके उत्पादों (जैसे बीडी, सिगरेट आदि) के बनाने पर रोक लगादी जाय. न रहेगा बांस, न बजेगी बाँसुरी।
भारत उन १६४ राष्ट्रों में से एक है जिन्होनें विश्व स्वास्थ्य संगठन द्बारा प्रतिपादित ‘फ्रेमवर्क कन्वेंशन आन टुबैकोकंट्रोल’ (ऍफ़.सी.टी.सी.) संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। यह विश्व की प्रथम सामाजिक उत्तरदायित्व एवं जन स्वास्थ्यसम्बन्धी संधि है। अत: वह इसमें निहित प्रावधानों को मानने के लिए बाध्य है। जैसा कि इस संधि में प्रस्तावित है, भारत को तम्बाकू उपभोग ओर तम्बाकू उत्पादन, दोनों ही पर रोक लगाने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।तम्बाकू के उत्पादन को कम करना नितांत आवश्यक है, क्योंकि तभी तम्बाकू उन्मूलन हो सकेगा।
हमारी सरकार ने तम्बाकू उन्मूलन की दिशा में जो ठोस कदम उठाये हैं, उन jaayसभी कानूनों का कठोरता सेपालन करना होगा। परन्तु इससे भी अधिक आवश्यक है इन उपायों का समर्थन करने के लिए ऎसी व्यापकनीतियों का निर्धारण करना, जिनका सीधा प्रभाव तम्बाकू की पैदावार ओर समस्त तम्बाकू पदार्थों (जैसे बीडी, सिगरेट, खैनी, गुटका, सुंघनी आदि) के उत्पादन पर पड़े। हमें यह नही भूलना चाहिए कि तम्बाकू सेवन का कोईभी तरीका सुरक्षित नही है। चाहे उसे सूँघा जाए, या चबाया जाय या कि उसका धूम्रपान किया जाय। वह हर रूप में, और हर मात्रा में हानिकारक है।
हमारी दोहरी तम्बाकू उन्मूलन नीति का मुख्य कारण माना जाता है तम्बाकू उगाने वाले किसानों एवं बीड़ी बनानेवाले मजदूरों की इस क्रिया पर आर्थिक निर्भरता, तथा राज्य सरकार को तम्बाकू से मिलने वाला राजस्व। परन्तुयदि इस समस्या पर गहन रूप से विचार किया जाय तो वास्तविकता कुछ और ही है। इन तथा कथित बाधाओं सेपार पाना उतना मुश्किल नही है, जितना हम सोचते हैं।
भारत में तम्बाकू की खेती को बहुत समय से राजकीय संरक्षण प्राप्त है। यह खेती ३६८.५ हज़ार एकड़ भूमि पर कीहै, जो सम्पूर्ण देश के बोये हुए क्षेत्र का मात्र ०.३% है। लगभग ३ -५ लाख किसान तम्बाकू की खेती में लगे हैं। यहखेती वर्ष भर में चार महीने ही की जाती है ओर कुछ ही राज्यों तक सीमित है। ९०% तम्बाकू की खेती आंध्र प्रदेश, कर्णाटक, गुजरात, महराष्ट्र ओर उडीसा में होती है। तम्बाकू के फसली क्षेत्र का ३५% भाग राज्य सरकार के टुबैकोबोर्ड के अर्न्तगत आता है, अत: राज्य सरकार सरलता से इस क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकती है।
तम्बाकू शोध केन्द्रों द्बारा करे गए अनेक प्रयोगों एवं अध्ययनों से पता चलता है कि तम्बाकू के स्थान पर अन्यवैकल्पिक फसलों को उगाया जा सकता है, जैसे सोयाबीन, मूंगफली, चना, मक्का,धान, सरसों, सूरजमुखी, कपास, गन्ना इत्यादि। इन फसलों से लगभग उतनी ही आमदनी होगी जितनी कि तम्बाकू की फसल से। इसके अलावा येसभी फसलें, पर्यावरण एवं स्वास्थ्य अनुरूप भी हैं। यह वास्तव में दुःख की बात है कि कुछ राज्यों में ज्वार, मक्का, रागी आदि का स्थान तम्बाकू की खेती ने ले लिया है। ये अनाज ग़रीबों का भोजन माने जाते रहे हैं, ओर अब तोइनकी स्वास्थ्य वर्धकता को देखते हुए, शहरी लोग भी इनका सेवन करने को इच्छुक रहते हैं। परन्तु ये बाज़ार मेंसरलता से उपलब्ध नही हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि तम्बाकू के स्थान पर किसी ओर स्वास्थ्यवर्धक फसल की खेती करने से किसानों कीआर्थिक दशा में सुधार ही होगा। हाँ, सरकार को उनकी सहायता अवश्य करनी पड़ेगी ताकि उन्हें समुचित तकनीकीजानकारी मिल सके, समय से बीज उपलब्ध हो सकें ,तथा वे अपनी फसल को सुचारू रूप से क्रय कर सकें।
इसके अलावा, देश के बाहर के क्षेत्रों से वैध तथा अवैध रूप से तम्बाकू उत्पादों की आपूर्ती को भी रोकना होगा।भारत में विदेशी सिगरेट एवं सिगार का लाभकारी बाज़ार है। अत: तम्बाकू पदार्थों के आयात पर, तथा तम्बाकू क्षेत्रमें प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश पर कड़े प्रतिबन्ध लगाने होंगें।
तम्बाकू उत्पादन के पक्ष में एक और जनवादी तर्क यह दिया जाता है कि करीब ४ लाख मजदूर (जिनमें दो तिहाईऔरतें हैं) बीड़ी बनाने के कार्य में लगे हैं और यही उनकी रोज़ी रोटी का एकमात्र साधन है। पर वास्तविकता तो यहहै कि सबसे अधिक शोषण बीड़ी मजदूरों का ही होता है, तथा उनमें से अधिकाँश ( ५०% से अधिक) को न्यूनतमवेतन तक नहीं मिलता। बीडी उद्योग ज़्यादातर असंगठित क्षेत्र में है. बीडी उद्योग के मालिक प्राय: राजस्व से बचनेके लिए ओर मजदूरों को न्यूनतम वेतन न देने के लिए बेईमानी के तरीके अपनाते हैं। इस उद्योग में बाल मजदूरभी बड़ी संख्या में कार्यरत हैं। नतीजा हम सभी के सामने है।
हाल ही में ‘वोलंटरी हेल्थ असोसिएशन आफ इंडिया (वी.एच ए.आई.) द्बारा मुर्शीदाबाद (पश्चिमी बंगाल) एवं आनंदगुजरात) के बीड़ी मजदूरों पर एक अध्ययन कर के उनकी शोचनीय ओर विपन्न आर्थिक ओर सामाजिक दशा कोउजागर किया गया है। इस अध्ययन के अधिकाँश प्रतिभागियों (७६%) को दिन भर में १२ घंटे काम करने ओर१००० बीडी बनाने के बाद मात्र ३३ रुपये मिलते हैं, जो ४० रुपये के दैनिक न्यूनतम वेतन से बहुत कम है। इसकेअलावा, इन मजदूरों को टी.बी., अस्थमा, फेफडे के रोग व चर्म रोग होने का खतरा बना रहता है। जो महिलायेंअपने शिशुओं को काम पर ले जाती हैं, उन शिशुओं को नन्ही सी उम्र में ही तम्बाकू की धूल ओर धुंआ झेलना पड़ताहै। जो बाल मजदूर इस काम में लगे हैं उनमें श्वास ओर चर्म रोग होना आम बात है। ये बच्चे ( खास करकेलडकियां) अक्सर परिवार की आय बढ़ाने के चक्कर में अपनी पढाई छोड़ कर बीडी बनाने के काम में ही लगे रहतेहैं।
इस अध्ययन के ९५% प्रतिवादी अपने वर्तमान पेशे से बिल्कुल खुश नहीं थे तथा जीवकोपार्जन का कोई दूसरासाधन अपनाना चाहते थे। हाँ, इसके लिए उन्हें बाहरी सहायता अवश्य चाहिए। (
रहा सरकार को राजस्व वसूली से होने वाले आर्थिक लाभ का सवाल, तो यहाँ भी तथ्य कल्पना के विपरीत ही हैं।हाल ही में किए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट ‘ब्रिटिश मेडिकल जर्नल’द्बारा प्रकाशित ‘टुबैको कंट्रोल’ नामक पत्रिकाके जनवरी २००९ के अंक में छपी है। इस रिपोर्ट में २००४ के‘नॅशनल सैम्पल सर्वे’ के आंकडों का हवाला देते हुएबताया गया है कि, भारत सरकार को जितना धन करों के माध्यम से मिलता है, उससे कहीं अधिक रुपये वोतम्बाकू जनित बीमारियों के उपचार में खर्च कर देती है। सन २००४ में भारत में तम्बाकू उपभोग का सम्पूर्णआर्थिक व्यय $ १.७ खरब था, जो पूरे उत्पाद कर से मिलने वाले राजस्व ( $१.४६ खरब ) से १६% अधिक था। यहव्यय तम्बाकू नियंत्रण उपायों में खर्च करी गयी राशि से भी कई गुना अधिक था।
वैश्विक स्तर पर तम्बाकू उत्पादन १९६० के मुकाबले दुगना होकर सन २००६ में ७० लाख मीट्रिक टन तक पँहुचचुका था। इसका ८५% प्रतिशत भाग निम्न एवं मध्यम संसाधनों वाले देशों में पैदा होता है। अमेरिकन कैंसरसोसायटी द्बारा प्रकाशित ‘टुबैको एटलस’ में भी इस बात को माना गया है कि ‘तम्बाकू की खेती व्यापक पर्यावरणएवं जन स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को जन्म देती है’। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस तथ्य को मानता है कि इसखेती में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशक / रासायनिक उर्वरक से जल संसाधन दूषित हो जाते हैं तथा तम्बाकू कीपत्ती को तर कराने में लकडी का ईंधन इस्तेमाल किया जाता है, जिसके चलते वनों का विनाश होता है। तम्बाकू केखेत में काम करने वाले मजदूर ( भले ही वे तम्बाकू का सेवन न करते हों) अनेक बीमारियों के शिकार होते हैं।
ऍफ़.सी .टी.सी का आह्वाहन है कि तम्बाकू खेतिहरों को उचित आर्थिक / तकनीकी सहायता प्रदान की जानी चाहिएताकि वे रोज़गार के दूसरे बेहतर साधन ढूंढ सकें। अकुशल बीड़ी मजदूरों के लिए भी, सार्वजनिक- निजी भागीदारीके तहत नए व्यवसाय जुटाने होंगें। अब समय आ गया है कि तम्बाकू उपभोग को कम कराने के साथ साथतम्बाकू उत्पादन पर भी रोक लगायी जाय। तम्बाकू नियंत्रण तब तक प्रभावी नहीं हो सकता जब तक उसकाउत्पादन धीरे धीरे पूर्ण रूप से समाप्त नहीं कर दिया जाता।
हमारे देश में प्रति वर्ष १० लाख व्यक्ति तम्बाकू के कारण मृत्यु का ग्रास बनते हैं। इसलिए एक योजना बद्ध एवंचरणबद्ध तरीके से तम्बाकू के उत्पादन को कम करना, हम सभी के हित में होगा। जो व्यक्ति अभी सिगरेट अथवाखाई जाने वाली तम्बाकू के उद्योग में कार्यरत हैं, उन्हें वैकल्पिक रोज़गार मिलने में अधिक परेशानी नहीं होगी।अधिकतर तम्बाकू पूंजीपति पहले ही भिन्न भिन्न व्यापारों को चला रहे हैं। कम्पनी के सामाजिक उतरदायित्व केचलते उन्हें अपनी ज़हर उगलने वाली इकाईओं को बंद करना ही होगा।
हमारे देश को इस दिशा में पहल करके समस्त विश्व का मार्गदर्शन करना चाहिए। तभी वह अपनी महानता कोवास्तविक रूप से सार्थक कर पायेगा।
शोभा शुक्ला
एडिटर,सिटिज़न न्यूज़ सर्विस
३१ मई २००९ से भारत में हर तम्बाकू उत्पादन पर चित्रमय चेतावनी
३१ मई २००९ से भारत उन जन-स्वास्थ्य हितैषी देशों में से एक होगा जिनके हर तम्बाकू उत्पाद पर चित्रमय चेतावनी होगी. ३१ मई २००९ को विश्व तम्बाकू निषेध दिवस भी है जिसका केंद्रीय विचार यह है कि: 'सच दिखाओ - चित्रमय चेतावनी जीवन रक्षक होती हैं'.
"चित्रमय स्वास्थ्य चेतावनी प्रभावकारी ढंग से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले तम्बाकू जनित कुप्रभावों के बारे में संदेश देती हैं. विश्व स्तर पर अनेकों शोध से यह प्रमाणित हो चुका है कि प्रभावकारी चित्रमय चेतावनी से तम्बाकू सेवन से सम्बंधित खतरों केबारे में जानकारी में वृद्धि होती है, और युवाओं के तम्बाकू सेवन करने की सम्भावना भी कम हो जाती है" कहना है प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त का, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त शल्यचिकित्सक हैं. "जो युवा तम्बाकू सेवन करते हैंउनको तम्बाकू नशा उन्मूलन की ओर बढ़ने के लिए भी यह प्रेरित करती हैं. शब्दों वाली चेतावनी से चित्रमय चेतावनी कहीं अधिक प्रभावकारी है क्योंकि इनको अशिक्षित लोग भी समझ सकते हैं. ऐसी चित्रमय चेतावनी अनेक देशों में कारगर सिद्ध हुईहै जिनमें थाईलैंड, सिंगापुर, ब्राजील, चिले, साउथ अफ्रीका प्रमुख हैं" कहना है प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त का.
भारत में तम्बाकू नियंत्रण के लिए कार्यरत संस्थाओं का राष्ट्रीय संगठन है एडवोकेसी फोरम फॉर टुबैको कंट्रोल (ऐ.ऍफ़.टी.सी). "तम्बाकू जनित जानलेवा बीमारियों से लाखों लोगों को बचने के लिए ऐ.ऍफ़.टी.सी ने संसद के सदस्यों के साथ चित्रमयचेतावनी के लिए सराहनीय कार्य किया है" कहना है सुश्री मोनिका अरोरा का, जो ऐ.ऍफ़.टी.सी की संयोजक हैं और 'ह्रदय' नामक संस्था की निदेशिका भी.
"भारतीय परिदृश्य में शासन द्बारा पहले सूचित करी गयी तम्बाकू उत्पादनों पर चित्र चेतावनियाँ कहीं ज्यादा ज़ोरदार और प्रभावकारी थीं और इन चित्रों का क्षेत्र परिक्षण भी हो चुका था जिसमें यह चित्र प्रभावकारी पाए गए थे" कहना है प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त का. पिछले नियमों के अनुसार चित्र चेतावनी तम्बाकू पदार्थों के सभी पैकेट का आगे और पीछे, दोनों, के हिस्से के ५०% भाग को ढांकती थी, कहा डॉ रमा कान्त ने.
परन्तु ३१ मई, २००९ से लागू की गयी फोटो चेतावनी, हल्की और कमज़ोर हैं और इन चित्रों का क्षेत्र परिक्षण भी नहीं हुआ है. ३ मई, २००९ को जारी किए गए नए नियमों के अनुसार, ये चेतावनियाँ तम्बाकू पैक के सामने वाले मुख्य क्षेत्र के केवल ४०% भाग पर (तम्बाकू पैकेट के सिर्फ एक तरफ) प्रर्दशित की जायेंगी.
बाबी रमाकांत (विश्व स्वास्थ्य संगठन के महा-निदेशक द्वारा पुरुस्कृत २००८)
तम्बाकू उत्पादनों पर बड़ी एवं व्यापक चित्रमय चेतावनियाँ अधिक प्रभावकारी
आज उत्तर प्रदेश प्रेस क्लब में छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के प्रमुख प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त ने तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनियों पर तथ्य-विवरण दस्तावेज़ जारी किया.
डॉ रमा कान्त को सन २००५ में विश्व स्वास्थ्य संगठन का अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार भी प्राप्त है.
"भारतीय परिदृश्य में शासन द्बारा पहले सूचित करी गयी तम्बाकू उत्पादनों पर चित्र चेतावनियाँ कहीं ज्यादा ज़ोरदार और प्रभावकारी थीं और इन चित्रों का क्षेत्र परिक्षण भी हो चुका था जिसमें यह चित्र प्रभावकारी पाए गए थे" कहना है प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त का. पिछले नियमों के अनुसार चित्र चेतावनी तम्बाकू पदार्थों के सभी पैकेट का आगे और पीछे, दोनों, के हिस्से के ५०% भाग को ढांकती थी, कहा डॉ रमा कान्त ने.
परन्तु ३१ मई, २००९ से लागू की गयी फोटो चेतावनी, हल्की और कमज़ोर हैं और इन चित्रों का क्षेत्र परिक्षण भी नहीं हुआ है. ३ मई, २००९ को जारी किए गए नए नियमों के अनुसार, ये चेतावनियाँ तम्बाकू पैक के सामने वाले मुख्य क्षेत्र के केवल ४०% भाग पर (तम्बाकू पैकेट के सिर्फ एक तरफ) प्रर्दशित की जायेंगी.


अंतर्राष्ट्रीय बाध्यता : "भारत ने फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टुबैको कंट्रोल (ऍफ़.सी.टी.सी.) को फरवरी २००४ में अंगीकार किया था। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रथम अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संधि है. इस संधि के अनुसार भारत को २७ फरवरी, २००८ तक फोटो चेतावनी को कार्यान्वित कर देना चाहिए था. परन्तु अभी तक इस प्रकार की कोई चेतावनी तम्बाकू उत्पादों पर चित्रित नहीं है। इसके अलावा, ऍफ़.सी.टी.सी. के अनुसार कम से कम ३०% आगे के व ३०% पीछे के हिस्से पर इनका प्रदर्शन होना चाहिए। भारत ने इसका भी अनुपालन नहीं किया है" कहना है प्रोफ़ेसर (डॉ) रमा कान्त का.
तम्बाकू का प्रयोग , वैश्विक स्तर पर, रोग और मृत्यु का प्रमुख, परन्तु रोका जा सकने वाला कारण है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, तम्बाकू प्रयोग के कारण, दुनिया भर में ५४ लाख लोग प्रति वर्ष अपनी जान गंवाते हैं। इनमें से ९ लाख मौतें तो केवल भारत में ही होती हैं। प्रति दिन, हमारे देश के २५०० व्यक्ति तम्बाकू की वजह से मृत्यु का शिकार होते हैं। मुख के कैंसर के सबसे अधिक रोगी भारत में पाये जाते हैं तथा ९०% मुंह का कैंसर तम्बाकू जनित होता है. हमारे देश में ४०% कैंसर तम्बाकू के प्रयोग के कारण ही होते हैं।
मलेशिया के सर्जनों (शल्यचिकित्सकों) के लिए प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त का बवासीर इलाज पर व्याख्यान

छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के अध्यक्ष एवं प्रख्यात सर्जन प्रोफ़ेसर (डॉ) रमा कान्त को मलेशिया के मलयविश्वविद्यालय के मेडिकल सेंटर ने बवासीर पर विशिष्ठ व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया है।
प्रोफ़ेसर (डॉ) रमा कान्त कई सालों से नवीन विधियों (डी.जी.एच.ए.एल और आर.ए.आर) से बवासीर या पाइल्स का उपचार कर रहे हैं। वें आस्ट्रिया के विश्व-विख्यात बवासीर उपचार एवं शोध केन्द्र में प्रशिक्षित भी हैं।
प्रोफ़ेसर (डॉ) रमा कान्त मलेशिया में "डी.जी.एच.ए.एल और आर.ए.आर विधियों द्वारा बवासीर के उपचार में क्रांति" पर मलय विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग में व्याख्यान देंगे।
१९६५ में स्थापित मलय विश्वविद्यालय, मलेशिया की राजधानी कुआला लुम्पूर में एक सर्वोत्तम चिकित्सा शास्त्र का केन्द्र है।
"५०-७० साल की उम्र के लोगों में विशेषकर पाइल्स या बवासीर होने की सम्भावना ५०-८५% तक हो सकती है" कहना है प्रोफ़ेसर (डॉ) रमा कान्त का, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक द्वारा २००५ में पुरुस्कृत भी हैं।
प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त पिछले साल असोसिएशन ऑफ़ सर्जन्स ऑफ़ इंडिया (उत्तर प्रदेश) के अध्यक्ष चुने गए थे। वें लखनऊ कॉलेज ऑफ़ सर्जन्स के अध्यक्ष भी हैं।
"कई ज्ञात जीवनशैली और पोषण से जुड़े हुए कारण हैं जिनसे बवासीर होने का खतरा बढ़ जाता है" प्रोफ़ेसर (डॉ) रमा कान्त ने बताया।
… तो जिमाने के लिए कन्या कहाँ से आएँगी (Declining sex ratio)
… तो जिमाने के लिए कन्या कहाँ से आएँगी
(Declining sex ratio)
नासिरूद्दीन
(यह रचना मौलिक रूप से जेंडर-जिहाद पर प्रकाशित हुई है, जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये)
ज़रा सोचिए अगर नवरात्र के मौके पर ‘जिमाने’ के लिए चलती-फिरती ‘कन्या’ की जगह मूर्तियों का सहारा लेना पड़े! अगर बेटियों को पैदा न होने देने का सिलसिला यूँ ही चलता रहा तो हो सकता है कि आने वाले दिन ऐसे ही हों। नवरात्र के मौके पर ‘जिमाने’ के लिए ‘कन्याओं’ का ऐसी ही विकल्प तलाशना होगा। ऐसे संकेत न सिर्फ उत्तर प्रदेश में मिल रहे हैं बल्कि देश के कई और राज्यों में तो हालत बहुत ही खराब है। जी हाँ, अपने पुण्य के लिए बेटियों को हम पूजना चाहेंगे और वो हमें मिलेंगी नहीं।
यह किसी की दिमागी कल्पना नहीं है। प्रकृति के नियम के मुताबिक आबादी में स्त्री-पुरुष लगभग बराबर की संख्या में होने चाहिए। कम से कम स्त्री जाति तो कम नहीं ही होनी चाहिए। लेकिन सचाई क्या है? सन् 2001 में स्त्री और पुरुषों की गिनती से यह पता चला कि उत्तर प्रदेश की कुल आबादी से करीब 90 लाख औरतें कम हैं। इनमें हिन्दू पुरुषों की तुलना में अकेले 75 लाख तो हिन्दू औरतें गायब हैं। यानी जिन बेटियों को होना चाहिए था, वे नहीं हैं।
जिन्हें जिमाया जाता है, अब उन कन्याओं की तादाद का जायजा लें। प्रदेश में छह साल से कम उम्र के शिशुओं में लड़कों के मुकाबले लगभग 14 लाख लड़कियाँ कम हैं। यानी गायब हैं। ये बेटियाँ तो विशुद्घ रूप से पैदा नहीं होने दी गयीं या पैदा होने के बाद जिंदगी की उमंग से इन्हें मरहूम कर दिया गया। इन 14 लाख में अकेले हिन्दू समुदाय में लगभग पौने बारह लाख बेटियाँ, बेटों के मुकाबले कम हैं।
किसी समाज में स्त्री-पुरुष के हिसाब को देखने का एक तरीका है लिंग अनुपात (sex ratio)। यानी एक हजार मर्दों की तुलना में कितनी औरतें हैं। कायदे से हजार में हजार ही होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश के हिन्दुओं का लिंग अनुपात 894 है (यानी प्रति हजार हिन्दू मर्दों पर 106 औरतें कम)। छह साल की कम उम्र की शिशुओं में यही संख्या 911 है (यानी प्रति हजार बच्चों पर 89 हिन्दू बच्चियाँ कम)। हालात की गम्भीरता का अंदाजा इसी एक आँकड़े से लगाया जा सकता है।
अगर पूरी हिन्दू आबादी को देखें तो अकेले उत्तर प्रदेश में 51 ऐसे जिले हैं, जहाँ कुल लिंग अनुपात डेढ़ सौ अंकों तक कम है। …और उत्तर प्रदेश में 70 में 27 जिले ऐसे हैं जहाँ प्रति हजार हिन्दू लड़कों पर लड़कियाँ (शिशु लिंग अनुपात) सौ से 180 की संख्या तक कम हैं। बेटों की चाह में हिन्दू बेटियों के खिलाफ खड़े होने वालों में वे जिले शामिल हैं, जिन्हें हम विकसित और धन-धान्य से भरपूर जिले मानते हैं। जैसे इस मामले में पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सहारनपुर (शिशु लिंग अनुपात-834), मुजफ्फरनगर (820), मेरठ (830), बागपत (820), गाजियाबाद (834), गौतम बुद्घ नगर (847), बुलंदशहर (855), अलीगढ़ (877), मथुरा (839), कानपुर नगर (863) और लखनऊ (909) आगे हैं। बेटियों को भ्रूण में ही खत्म करने का काम (sex selective abortion/ Female foeticide) सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे और पैसे वाले कर रहे हैं। इसमें अब धर्म और जातियों का भी भेद नहीं रहा।
इसीलिए अगर यही हाल रहा तो कहाँ से मिलेंगी नौ कन्या, नौ देवी स्वरूपा पूजने के लिए और जिमाने के लिए। …जमीन पर इसका असर दिख रहा है। नहीं मिल रही हैं कन्याएँ। खासकर लखनऊ जैसे बड़े शहरों और संभ्रांत कॉलोनियों में। लोगों से बात करने पर पता चलता है कि पहले अष्टमी को ही कन्या जिमाया जाता था। अब षष्ठी और सप्तमी को भी कन्या जिमाया जा रहा है। क्यों? क्योंकि अब नौ बेटियाँ बड़ी मुश्किल से मिल रही हैं। और एक ही बेटी को कई घरों में ‘जीमना’ होता है। इसलिए एक दिन में कितना जीमेंगी, तो अलग-अलग घरों में कई दिनों में जीमती हैं। यही नहीं, अब नौ की संख्या पर भी जोर नहीं है, सात मिल जाए, पाँच मिल जाएँ- उतने से ही काम चलाया जा रहा है। आने वाले दिनों में क्या तीन और एक की नौबत आ जाएगी?
नवरात्र के मौके पर खासतौर पर देवी के रूपों की आराधना की जाती है। पर उसके बाद साल भर क्या हम अपनी स्त्री जाति की सुध लेते हैं। हमें जीवित ‘देवियों’ की थोड़ी सुध लेनी चाहिए। वरना हम सिर्फ पाठ ही करते रहेंगे …या देवी… नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।’ और बेटियाँ जिंदगी के लिए जद्दोजेहद करती रहेंगी।
इस पोस्ट को अगर आप सुनना चाहें तो नीचे दिए गए प्लेयर को चलाएँ-
[audio:http://www.archive.org/download/DecliningSexRatioAmongHindus/KanyaJimana1.mp3]
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… और जब उन गायब बेटियों से पूछा जाएगा (Declining sex ratio among the Muslims-1)
… और जब उन गायब बेटियों से पूछा जाएगा
(Declining sex ratio among the Muslims-1)
(यह रचना मौलिक रूप से जेंडर-जिहाद पर प्रकाशित हुई थी जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये)और जब उन गायब बेटियों से पूछा जाएगा
नासिरूद्दीन हैदर खाँ
‘..और (इनका हाल यह है कि) जब इनमें से किसी को लड़की पैदा होने की खुशखबरी दी जाती है तो उसका चेहरा स्याह पड़ जाता है और वह तकलीफ में घुटने लगता है। जो खुशखबरी उसे दी गयी वह उसके लिए ऐसी बुराई की बात हुई कि लोगों से छिपा फिरता है। (सोचता है) अपमान सहन करते हुए उसे जिंदा रहने दे या उसे मिट्टी में दबा दे।’
(कुरान: सूरा अल-नहल आयत ५८-५९)
यह चौदह सौ साल पहले का अरब समाज का चेहरा था, जिसका जि़क्र क़ुरान की इस आयत में आता है। …मगर इन चौदह सौ सालों में कुछ नहीं बदला तो बेटियों के पैदा होने का दु:ख! क़ुरान की दुहाई देने वाले कितने मुसलमान हैं, जो बेटी की पैदाइश को ख़ुशख़बरी मानते हैं और लड्डू बाँटते हैं? आज भी ‘बेटी’ सुनते ही ज्यादातर लोगों का चेहरा स्याह पड़ जाता है। … यह आयत आज के भारतीय समाज पर पूरी तरह सटीक है।
आम तौर पर बार-बार बताया जाता है कि इस्लाम ने औरतों को काफी हुक़ूक़ दिए हैं। सचाई भी है। लेकिन क्या वाक़ई में ‘मर्दिया सोच के अलम्बरदार’ मुसलमान औरतों को वे हक़ दे रहे हैं? और कुछ नहीं तो सिर्फ जि़दगी का हक़! जी हाँ, पैदा होने और जिंदा रहने का हक़। (आगे पढ़ने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें)
सन् 2001 की जनगणना कई मायनों में अहम है। यह पहली जनगणना है, जिसके आँकड़े विभिन्न मज़हबों की सामाजिक-आर्थिक हालत का भी आँकड़ा पेश करती है। इसने कई मिथक तोड़े, तो कई नए तथ्य उजागर भी किए। एक मिथक था कि मुसलमानों में लिंग चयन और लिंग चयनित गर्भपात नहीं होता!
सन् 2001 की मरदुमशुमारी के मुताबिक मुसलमान देश की कुल आबादी का 13.4 फीसदी हैं। यानी करीब तेरह करोड़ इक्यासी लाख अट्ठासी हजार। इसमें मर्दों की आबादी सात करोड़ तेरह लाख (7,13,74,134) है। क़ायदे से इतनी ही या इससे ज्यादा औरतें होनी चाहिए। लेकिन इस आबादी में मर्दों के मुकाबले पैंतालीस लाख साठ हजार (45,60,028) मुसलमान औरतें कम हैं या कहें गायब हैं। यानी कल्पना करें कि एक सुबह जब हम उठें तो पता चले कि लखनऊ और मथुरा में रहने वाले सभी लोग गायब हो गये हैं। … उस सुबह कोहराम मचेगा या जिंदगी हर रोज़ की तरह इतमिनान से चलेगी? अफसोस, इतनी तादाद में मुसलमान औरतें गायब हैं, लेकिन किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती।
तत्कालीन अरब समाज के कई कबीलों में लड़कियों की पैदाइश को अपशगुन माना जाता था और उन्हें मार डालने की रवायत थी और चौदह सौ साल पहले क़ुरान ने और इस्लाम ने इसे बड़ा जुर्म माना। कुरान के सूरा अत-तकवीर की आयत (एक से नौ) है-
जब सूरज बेनूर हो जायेगा/ और जब सितारे धूमिल पड़ जाएँगे/ जब पहाड़ चलाये जाएँगे/../ और जब दरिया भड़काए जाएँगे/../ और जब जिंदा गाड़ी हुई लड़कियों से पूछा जाएगा/ कि वह किस गुनाह पर मार डाली गई।
यानी मुसलमानों से कहा गया कि उस वक्त को याद करो जब उस लड़की से पूछा जाएगा जिसे जिंदा गाड़ दिया गया था कि किस जुर्म में उसे मारा गया। इस तम्बीह का आज के मुसलमान कितना पाबंद हैं, देखें। आज बेटियों को जिंदा गाड़ने की ज़रूरत नहीं है बल्कि रहम (गर्भ) की जाँच कराकर उसे खत्म कर दिया जा रहा है। इस लिहाज़ से क़ुरान की आयत की रोशनी में यह भी गलत है।
औरतें कहीं हवा में गायब नहीं हो गईं। बल्कि खुद मुसलमान, बेटों की ललक में उन्हें पैदा ही नहीं होने दे रहे। हिन्दुओं, सिखों और जैनियों की तरह मुसलमान भी ‘बिटिया संहार’ में शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड की सबसे ज्यादा मुसलमान आबादी वाले शहर बांदा, पूरी दुनिया में तहजीब का झंडा उठाने वाले शहर लखनऊ और इल्म के मरकज़ अलीगढ़ और दारुल उलूम, देवबंद की वजह से बार-बार चर्चा में रहने वाली धरती सहारनपुर में मुसलमान जोड़े अपनी आने वाली औलाद की सेक्स की जाँच करा रहे हैं और लड़की को पैदा नहीं होने दे रहे। (जाहिर है सब ऐसा नहीं करते।) ऐसी ही हालत गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में भी है। कहीं काफी पहले से ही दूसरे मज़ाहिब के लोगों की ही तरह बेटी नहीं पैदा होने दी जा रही थी तो कहीं अब देखा-देखी यह चलन जोर पकड़ रहा है।
मुसलमानों की आबादी के लिहाज से उत्तर प्रदेश काफी अहम है। यहाँ की आबादी में साढ़े अट्ठारह (18.5) फीसदी यानी तीन करोड़ सात लाख चालीस हजार (30,740,158) मुसलमान हैं। यहाँ की मुसलमान आबादी में तेरह लाख 16 हजार बेटियाँ गायब हैं। यानी, मुसलमान लड़कियों को गायब करने में अकेले यूपी का हिस्सा करीब 29 फीसदी है बाकि में देश के पूरे राज्य ! यहाँ के चंद मुस्लिम बहुल जिलों का हाल जान लें। अलीगढ़ की आबादी से करीब 33 हजार लड़कियाँ लापता हैं। अलीगढ़ का लिंग अनुपात, मतलब एक हजार लड़कों पर लड़कियों की तादाद, 883 है। इसी तरह लखनऊ में करीब साढ़े सात लाख (748687) मुसलमान हैं। यहाँ मर्दों के मुकाबले करीब लगभग चौंतीस हजार (34169) मुसलमान औरतें कम हैं। मर्दों के मुकाबले सहारनपुर में सत्तहत्तर हजार तो मुजफरनगर में करीब चौहत्तर हजार, बिजनौर में 58 हजार और कानपुर शहर में करीब चालीस हजार मुसलमान औरतें कम हैं। इनमें हर उम्र की औरत शामिल हैं और वह भी शामिल है जिसे यह जानकर पैदा नहीं होने दिया गया कि वो लड़की है और जिनके साथ लड़की होने के नाते जिंदगी में हर कदम पर भेदभाव किया गया और मौत के मुँह में ढकेल दिया गया। इनमें से कइयों को सिर्फ इसलिए मार दिया गया कि वे अपने साथ मोटा दहेज लेकर नहीं आई थीं।
बेटियों को गायब करने का काम तहज़ीब याफ्ता मुसलमान ख़ानदान, पढ़े-लिखे, धनी, ज़मीन वाले, और शहरों में रहने वाले सबसे बढ़ कर कर रहे हैं। इस काम में मुसलमान डॉक्टर भी खुलकर मदद दे रहे हैं। क्यों, क्योंकि बेटियों को पैदा न होने देने का धँधा काफी मुनाफे वाला है। इस मसले के सामाजिक पहलू पर नजर डाली जाए तो अंदाजा होता है कि समाज में लड़कियों को कमतर समझने का रुझान तो था ही मगर जहेज के बढ़ते रिवाज ने अब इनकी जिंदगियों को ही खतरे में डाल दिया है। पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश आर्थिक रूप से काफी खुशहाल हैं लेकिन वहाँ भी बेटियाँ अनचाही हैं।
सबसे बढ़कर तकनीक की तरक्की ने लड़कियों के खिलाफ पहले से ही मौजूद पितृसत्तात्म विभेद की खाई को और ज्यादा गहरा करने का काम किया है। तकनीक का इस्तेमाल डिजायनर फेमिली बनाने में किया जा रहा है। यानी एक बेटा या दो बेटे या एक बेटा और एक बेटी। बिटिया संहार का नतीजा, हमारे सामने आ रहा है। लड़कियाँ तो लड़कों की चाह में गायब की गईं लेकिन कभी किसी ने सोचा, लड़कों की दुल्हन कहाँ से आयेगी ! यही नहीं ये तो क़ुदरत के निज़ाम को बर्बाद करना है। कुरान की रोशनी में अगर आज के हालात में अगर यह कहा जाए कि और उस वक्त को याद करो जब बेटियों से यह पूछा जाएगा कि किस बिना पर तुम पेट में ही पहचान कर मार डाली गयी। आप ही बताएँ कि उस लड़की का क्या जवाब होगा? कहीं वह यह तो नहीं कहेगी-
ओरे विधाता, बिनती करुँ, परुँ पइयाँ बारम्बार
अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो, चाहे नरक में दीजो डार
(यह काम एचपीआईएफ फेलोशिप के तहत किया गया है।)
(यह रचना मौलिक रूप से जेंडर-जिहाद पर प्रकाशित हुई थी जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये)
अनचाही मुसलमान बेटियाँ: जमीनी हकीकत
अनचाही मुसलमान बेटियाँ: जमीनी हकीकत
(मौलिक रूप से यह रचना जेंडर-जिहाद पर प्रकाशित हुई थी जिसको पढने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये)
कई लोगों को लगता है कि इस तरह की टिप्पिणियाँ या रपट खामख्वाह के मुद्दे उछालने का काम करती हैं। फिर वो इसकी तहकीकात में ढेर सारे ऐसे सवाल करते हैं, जिनका वर्तमान रपट से कम ताल्लुक होता है। मुसलमानों में लिंग चयन और लिंग चयनित गर्भपात की क्या हालत है, उसको समझने के लिए ये चंद नमूने काफी हैं। अभी नहीं चेते तो काफी देर हो जएगी। आँख बंद कर लेने से हक़ीक़त बदल जाती तो क्या बात थी?
नासिरूद्दीन हैदर खाँ
कन्या भ्रूण का गर्भपात कराने वाले शौहर के खिलाफ मुकदमा
गर्भ की लिंग जँच, फिर कन्या भ्रूण का गर्भपात और इसके खिलाफ माँ की शिकायत- यूपी में यह अपनी तरह का पहला मामला है। हिम्मत का यह काम किया फर्रुखाबाद के अतियापुर गाँव की एक मुस्लिम महिला रजिया ने। रजिया ने अपने शौहर के खिलाफ कन्या भ्रूण का जबरदस्ती गर्भपात कराने का मुकदमा किया है। रजिया के तीन बच्चे हैं। चौथी बार जब वह गर्भवती हुई तो उसके शौहर ने अल्ट्रासाउंड के लिए दबाव डाला। एक स्थानीय नर्सिंग होम में उसका अल्ट्रासाउंड कराया गया। इसमें पता चला कि गर्भ में कन्या है। रजिया पर गर्भ को गिराने का दबाव पड़ने लगा। रजिया ने इनकार किया तो उसके ससुरालियों और शौहर ने जुल्म ढहाना शुरू कर दिया। उसने पुलिस में शिकायत दर्ज करानी चाही पर नाकाम रही। आखिरकार किसी तरह वह 27 मार्च 2008 को एसपी लक्ष्मी सिंह से मिलने में कामयाब हुई और अपनी तकलीफ बयान की। इसके बाद एसपी ने महिला की ख्वाहिश के खिलाफ गर्भपात कराने का मुकदमा लिखने का हुक्म दिया। (स्रोत: प्रेट्र, 28 मार्च 2008, फर्रुखाबाद)
यह वाकया एक बार फिर साबित करता है कि मुसलमानों में भी लिंग चयन और कन्या भ्रूण के गर्भपात धड़ल्ले से हो रहे हैं। यह सिर्फ बड़े शहरों तक नहीं है। यह बीमारी छोटे शहरों और गाँवों तक पहुँच चुकी है। ( आगे पढ़ने के लिए क्लिक करने की तकलीफ करें)
लिंग चयनित गर्भपात के बाद किसी तरह बची माँ
शमीम बाराबंकी के रूदौली के मूल बाशिंदा हैं। इस वक्त लखनऊ में रहते हैं। अच्छा कारोबार है। उनकी चार बेटियाँ हैं। इतनी संतान चाहते नहीं थे पर बेटे की चाहत में बेटियाँ होती गयीं। इस बीच उनकी बीवी ने दो बार गर्भपात भी करवाया। एक बार फिर उन्हें बेटे की चाहत हुई। पत्नी को गर्भ ठहरा तो कोई शक न रहे, इसलिए लिंग जँचवाने की जुगत की। लिंग जँचवाया और पता चला गर्भ में कन्या भ्रूण है। उनके लिए यह भ्रूण किसी काम का नहीं था। इसलिए लिंग चयनित गर्भपात करा दिया। लेकिन पत्नी को दूसरी दिक्कतें पैदा हो गईं। जान पर बन आई। किसी तरह पत्नी को बचाया ज सका।
बेटे की चाह में बाप ने दुधमुँही बेटी की जन ली
पश्चिम बंगाल का एक जिला है, मुर्शीदाबाद। इस जिले के एक गाँव में रोजीना खातून को मायके में तीसरी बेटी पैदा हुई। उसके शौहर मुश्ताक को यह नागवार गुजरा। उसे तो घर का ‘चिराग’ चाहिए था। मुश्ताक 15 दिन बाद ससुराल गया और प्यार करने के बहाने बेटी को गोद में ले लिया। मौका देख कर उसने बच्ची के दूध में जहर मिला दिया और वही दूध बच्ची को पिला दिया। बच्ची की मौत हो गई। रोजीना, मुश्ताक की दूसरी बीबी है। उसकी पहली बीबी रोशन को भी बेटी हुई थी। बाद में उसने खुदकुशी कर ली। खुदकुशी की वजह, मुश्ताक के बेटे की चाह ही थी।
लिंग जँच कराने वाले मुसलमानों की तादाद बढ़ी है
(मौलिक रूप से यह रचना जेंडर-जिहाद पर प्रकाशित हुई थी जिसको पढने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये)स्त्री/प्रसूति रोग विशेषज्ञ और वात्सल्य की मुख्य कार्यकारी डॉक्टर नीलम सिंह का कहना है, ‘‘सन् 1991-92 से अब तक काफी फर्क आया है। शुरू-शुरू में मेरे पास जो लोग लिंग जँच की माँग लेकर आते थे, उनमें 99 फीसदी हिन्दू हुआ करते थे। लेकिन मुझे जहाँ तक याद है, सन् 2000 के बाद मुसलमान भी लिंग जँच की माँग के लिए आने लगे। महीने में करीब पाँच छह लोग मेरे पास भूले-भटके आ जाते हैं। इनमें एक-दो मुसलमान होते हैं। यह तब है, जब मेरे बारे में लोगों को पता है कि मैं यह जाँच नहीं करती और मैं इसके खिलाफ मुहिम में शामिल हूँ। जरा कल्पना कीजिए, जो लोग ऐसा करते हैं, उनके पास कितने लोग जाते होंगे।’’
मौका मिले तो इसे भी पढ़े-
चित्रमय चेतावनियों का आकार : बड़ी एवं व्यापक चेतावनियाँ अधिक प्रभावकारी
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वोत्तम प्रभावकारी कार्यक्रमों का विवरण:

ऑस्ट्रेलिया
पीछे: ३०%
आगे: ९०%

ब्राजील
१००% किसी भी एक तरफ़

कनाडा
आगे: ५०%
पीछे: ५०%

थाईलैंड
आगे: ५०%
पीछे: ५०%

यू.के.
आगे ४३%
पीछे: ५३%
फोटो वाली चेतावनी का आकार : अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम कार्य प्रणाली
* ६०% न्यू जीलैंड (३०% सामने, ९०% पीछे का)
* ५६ % बेल्जियम (४८ % सामने का, ६३% पीछे का, बॉर्डर समेत)
* ५६ % स्विट्जरलैंड (४८ % सामने का, ६३%पीछे का, बॉर्डर समेत)
* ५२ % फिनलैंड (४५% सामने का और ५८% पीछे का, बॉर्डर समेत)
* ५० % सिंगापूर (५० % सामने और पीछे का)
* ५०% उरुगुए (५० % सामने और पीछे का)
* ५० % चिले (५० % सामने और पीछे का)
* ५० % वेनेज़ुएला (१००% सामने या पीछे का)
* ४८ % नोर्वे (४३ % सामने का, ५३ % पीछे का, बॉर्डर समेत)
भारतीय परिदृश्य
शासन द्बारा पहले सूचित करी गयी चित्र चेतावनियाँ
ज़ोरदार और प्रभावकारी – क्षेत्र परीक्षित




पिछले नियमों के अनुसार चित्र चेतावनी तम्बाकू पदार्थों के सभी पैकेट का आगे और पीछे, दोनों, के हिस्से के ५०% भाग को ढांकती थी
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३१ मई, २००९ से लागू की गयी फोटो चेतावनी
हल्की और कमज़ोर – क्षेत्र परीक्षित नहीं



३ मई, २००९ को जारी किए गए नए नियमों के अनुसार, ये चेतावनियाँ तम्बाकू पैक के सामने वाले मुख्य क्षेत्र के केवल ४०% भाग पर प्रर्दशित की जायेंगी
अंतर्राष्ट्रीय बाध्यता : भारत ने फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टुबैको कंट्रोल (ऍफ़.सी.टी.सी.) को फरवरी २००४ में अंगीकार किया था। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रथम अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संधि है. इस संधि के अनुसार भारत को २७ फरवरी, २००८ तक फोटो चेतावनी को कार्यान्वित कर देना चाहिए था. परन्तु अभी तक इस प्रकार की कोई चेतावनी तम्बाकू उत्पादों पर चित्रित नहीं है। इसके अलावा, ऍफ़.सी.टी.सी. के अनुसार कम से कम ३०% आगे के व ३०% पीछे के हिस्से पर इनका प्रदर्शन होना चाहिए। भारत ने इसका भी अनुपालन नहीं किया है।
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इसको इंडियन सोसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग, आशा परिवार द्वारा प्रकाशित एवं वितरित किया गया है।
Credits: We acknowledge the financial contribution received from Bloomberg Initiative to Reduce Tobacco use and technical contribution received from HRIDAY on behalf of Advocacy Forum for Tobacco Control - AFTC (Delhi)
तम्बाकू महामारी का अनुपात
(१) तम्बाकू का प्रयोग , वैश्विक स्तर पर, रोग और मृत्यु का प्रमुख, परन्तु रोका जा सकने वाला कारण है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, तम्बाकू प्रयोग के कारण, दुनिया भर में ५४ लाख लोग प्रति वर्ष अपनी जान गंवाते हैं।
(२) इनमें से ९ लाख मौतें तो केवल भारत में ही होती हैं। प्रति दिन, हमारे देश के २५०० व्यक्ति तम्बाकू की वजह से मृत्यु का शिकार होते हैं।
(३) मुख के कैंसर के सबसे अधिक रोगी भारत में पाये जाते हैं तथा ९०% मुंह का कैंसर तम्बाकू जनित होता है. हमारे देश में ४०% कैंसर तम्बाकू के प्रयोग के कारण ही होते हैं।
(४) अनुमान है कि सन २०१० के अंत तक भारत में लगभग १० लाख व्यक्ति धूम्रपान के कारण मृत्यु का शिकार होंगें, और २०२० तक १३% मौतों की जिम्मेदार तम्बाकू ही होगी।
(५) सन २००६ के विश्व युवा तम्बाकू सर्वेक्षण के अनुसार, प्रति दिन ५५०० भारतीय युवक धूम्रपान करना शुरू करते हैं।
(६) तम्बाकू जनित रोगों का स्वास्थ्य व्यय, तम्बाकू से होने वाली आय से कहीं अधिक है। एक नए अध्ययन के अनुसार, भारत में सिगरेट और बीड़ी पीने से होने वाली बीमारियों का चिकित्सा व्यय ४५३५ करोड़ रुपये है, और गुटका, ज़र्दा, खैनी आदि धुंआ रहित तम्बाकू पदार्थों के लिए यह व्यय १४२५ करोड़ रुपये आँका गया है।
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इसको इंडियन सोसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग, आशा परिवार द्वारा प्रकाशित एवं वितरित किया गया है।
Credits: We acknowledge the financial contribution received from Bloomberg Initiative to Reduce Tobacco use and technical contribution received from HRIDAY on behalf of Advocacy Forum for Tobacco Control - AFTC (Delhi)
प्रभावकारी चित्रमय चेतावनियाँ जीवन रक्षा कर सकती हैं !!
फोटो वाली स्वास्थ्य चेतावनियाँ जन मानस के बीच तम्बाकू के कुप्रभावों का प्रचार करने का एक बहुत ही सशक्त माध्यम हैं। ये तम्बाकू पदार्थों से जुड़े हुए भड़कीले आकर्षण की ओर से हमारा ध्यान हटा कर एक ‘तम्बाकू रहित’ परिवेश की संरचना करने में सहायक होती हैं.
प्रभावी फोटो चेतावनी लेबल तम्बाकू उपभोग के खतरों के बारे में, केवल लिखित चेतावनी की अपेक्षा अधिक असरदार जानकारी देते हैं. भारत जैसे देश में, जहाँ करीब एक तिहाई जनता अनपढ़ है, चित्र चेतावनियाँ स्वास्थ्य संदेशों का संचार भली-भाँती करके तम्बाकू उपभोक्ता को तम्बाकू छोड़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं.
जिन देशों में ज़ोरदार एवं असरदार फोटो चेतावनियाँ लागू करी गयी हैं, वहाँ तम्बाकू उपभोग में कमी आयी है. तम्बाकू पैकटों पर इन चेतावनियों का जितना बड़ा आकार होगा, उतनी ही अधिक संभावना इस बात की होगी कि लोग तम्बाकू का बहिष्कार करें. प्रभावकारी फोटो चेतावनियाँ, तम्बाकू प्रयोग से होने वाली बीमारियों और मृत्यु से जुड़े हुए आघात, यंत्रणा एवं पीड़ा का सजीव चित्रण करती हैं.
फोटो स्वास्थ्य चेतावनी के पक्ष में अंतर्राष्ट्रीय प्रमाण
* ऑस्ट्रेलिया और कनाडा से मिले हुए प्रमाणों के अनुसार, चित्र चेतावनियाँ धूम्रपान के स्वास्थ्य खतरों के बारे में जागरूकता बढ़ाती हैं एवं सिगरेट उपभोग को कम करती हैं.
* ब्राजील में ५४% सिगरेट पीने वालों ने, इन चेतावनियों के कारण, धूम्रपान के स्वास्थ्य परिणामों के बारे में अपनी राय बदल दी, तथा ६७% सिगरेट का सेवन करने वालों ने धूम्रपान छोड़ने की इच्छा व्यक्त की.
* यूरोपियन संघ के ५०% सिगरेट पीने वालों ने कहा कि फोटो चेतावनियों ने उन्हें अन्य लोगों के आस-पास कम धूम्रपान करने को विवश किया; ३१% भूतपूर्व धूम्रपानियों के अनुसार, फोटो चेतावनी से प्रभावित होकर ही उन्होंने सिगरेट का बहिष्कार किया.
* जिन देशों में फोटो चेतावनी कानून लागू है, वहाँ के परिणाम इस बात की ओर इंगित करते हैं कि औसत रूप से ये चेतावनियाँ तम्बाकू उपयोग की समाप्ति एवं रोकथाम को बढ़ावा देने में, अन्य साधनों के मुकाबले, ६०% अधिक प्रभावकारी हैं
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इसको इंडियन सोसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग, आशा परिवार द्वारा प्रकाशित एवं वितरित किया गया है।
Credits: We acknowledge the financial contribution received from Bloomberg Initiative to Reduce Tobacco use and technical contribution received from HRIDAY on behalf of Advocacy Forum for Tobacco Control - AFTC (Delhi)