सामाजिक संगठनों ने डुम्का पुलिस द्वारा डॉ संदीप पाण्डेय को रोके का खंडन किया

सामाजिक संगठनों ने डुम्का पुलिस द्वारा डॉ संदीप पाण्डेय को रोके का खंडन किया

झारखण्ड के काठीकुंड में पुलिस फायरिंग का देश भर में खंडन हो रहा है, और अनेकों सामाजिक संगठन अब सड़क पर उतर आए हैं और न्याय के लिए संघर्षरत हैं।

जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के राष्ट्रीय समन्वयक और मग्सय्सय पुरुस्कार प्राप्त वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय अंगाची गाँव जा रहे थे जब डुम्का पुलिस ने उनको शनिवार, २७ दिसम्बर २००८ को रोक लिया था।

कुछ गाँव के लोग अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। २७ दिसम्बर २००८ को एक दल ने इन गाँव का दौरा किया। इस दल में तिलका मांझी विश्वविद्यालय के गांधियन फिलोसोफी के स्नाताक्कोत्तर विभाग के लोग, शामिल थे जिन्होंने लुकिरम टुडू, जो कि काठीकुंड पुलिस फायरिंग में मृत्यु को प्राप्त हुआ था, उसके परिवार से भेंट की।

इस दल ने अन्य गाँव का भी दौरा किया जिनमें अंगाची, पोखरिया, सरैपनी और अमर्पनी शामिल हैं।

इम्फाल मणिपुर में सुप्रसिद्ध मानवाधिकार सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय अनिश्चितकालीन उपवास पर

इम्फाल मणिपुर में सुप्रसिद्ध मानवाधिकार सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय अनिश्चितकालीन उपवास पर


जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के राष्ट्रीय समन्वयक डॉ संदीप पाण्डेय ने इरोम शर्मीला कुनबा लूप जो पिछले ८ सालों से अनशन पर है, उसके समर्थन में और राज्य सरकार की संवेदनहीनता के विरोध में चल रहे उपवास में भाग लिया।

युंग होरिजोन मणिपुर, लैरिक्येंग्बम लिकी नुपी समाज कोहुखत लूप और ह्यूमन देवेलोप्मेंट संसथान, लैरिक्येंग्बम आदि ने यह धरना आयोजित किया था।

डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि मणिपुर के लोगों के लिए आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट (AFSPA) एक दुर्भाग्यपूर्ण एक्ट रहा है और राज्य नेताओं की चुप्पी नि:संदेह शर्मनाक है। पिछले ८ सालों से अधिक समय से इरोम शर्मीला उपवास पर हैं और राज्य नेताओं ने अभी तक कोई ठोस कदम नही उठाया है।

राज्य सरकार को इस एक्ट को ख़तम करने के लिए एक तारिख तय कर देनी चाहिए, यदि वोह तुंरत इस एक्ट को नही ख़तम करना चाहते हैं, कहना है डॉ संदीप पाण्डेय का।

जलवायु- परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव


जलवायु- परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव

पिछले एक दशक में उत्तर प्रदेश ने विभिन्न प्रकार के जलवायु परिवर्तन देखे हैं। जब पूर्वी उत्तर प्रदेश भयंकर बाढ़ की चपेट में था ठीक उसी समय बुंदेलखंड सूखे की मार झेल रहा था। इस जलवायु परिवर्तन के द्वारा न केवल भारी संख्या में लोग मौत का शिकार हो रहे हैं बल्कि इससे उनकी आजीविका पर भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। पूर्वी- उत्तर प्रदेश में जहाँ धान की सारी फसल बरबाद हो गयी वहीं बुंदेलखंड में स्थानीय फसलों पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है।

कई सारे शोधों और वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तर-प्रदेश गंभीर जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, जिसका काफी बुरा असर वहाँ के निवासियों पर पड़ सकता है। वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश की ६२.१२ प्रतिशत जनसँख्या कृषि कार्य से सम्बंधित गतिविधियों में संलिप्त है। उत्तर प्रदेश देश का तीसरा सबसे बड़ा अनाज उत्पादक प्रदेश है। तथा प्रत्येक वर्ष देश के पूरे उत्पादन में करीब २१ प्रतिशत योगदान देता है। उत्तर प्रदेश की जनसँख्या को जितने अनाज की आवश्यकता प्रत्येक वर्ष होती है उससे कहीं ज्यादा अनाज उत्पादन यह प्रदेश हर साल करता है, किंतु मौसम में परिवर्तन की वजह से पिछले कई वर्षों में अनाज उत्पादन में भी परिवर्तन दृष्टिगत हुआ है।

तापमान में सामान्य वृद्धि की वजह से गेंहूँ की फसल का उत्पादन कम हो सकता है। जबकि धान कम तापमान में भी आसानी से उत्पन्न हो सकता है। यद्यपि सरकार तथा विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा वातावरण में हो रहे इस परिवर्तन को रोकने हेतु प्रयास किए गए हें, किंतु ये प्रयास किसानों को तुंरत राहत प्रदान करने वाले ज्यादा रहे हैं , न कि एक स्थाई लाभ देने वाले । इस सम्बन्ध में गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप के अध्यक्ष प्रोफेसर डाक्टर शीराज वजीह का कहना है, ' वातावरण में हो रहे इस परिवर्तन की प्रतिकूलता को रोकने हेतु सरकार के साथ-साथ जन- समुदायों को भी स्वदेशी तकनीकी ज्ञान के माध्यम से वैज्ञानिक विधियों को अपनाना चाहिए ।'

ये स्वदेशी ज्ञान स्थानीय स्तर पर आसानी से उपलब्ध रहते हैं तथा इन्हें अपनाने में ज्यादा आर्थिक सहायता की भी जरूरत नहीं पड़ती। गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप द्वारा प्रकाशित एक शोध के मुताबिक उत्तर प्रदेश में करीब ९० प्रतिशत किसान लघु-और सीमान्त दर्जे के हैं जिनकी आजीविका का साधन केवल कृषि है। इन छोटे जोत के कृषकों द्वारा ही प्रदेश को कृषि में महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त है। यदि ये लघु-और सीमान्त कृषक, वातावरण में हो रहे परिवर्तन का इसी प्रकार शिकार होते रहे तो इससे प्रदेश की आजीविका के लिये एक बड़ी विपत्ति खड़ी हो सकती है।

वातावरण में हो रहे इन परिवर्तनों के अनेक कारण हें । हम निजी स्वार्थों के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। नए आर्थिक ज़ोन के नाम पर कृषि योग्य भूमी का औद्योगीकरण किया जा रहा है। सरकार के नीतिगत फैसले कंपनियों के हित में ज्यादा होते हैं। इन सब बातों पर यदि हम गंभीरता पूर्वक नहीं सोचेंगे तो खाद्यान उत्पादन की समस्या गरीबों को और भी गरीबी की तरफ़ धकेलेगी। किसान आत्महत्याओं का दौर और भी बढेगा।

अमित द्विवेदी

लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं।

चूनामपेट के गाँव में डाक्टर आपके द्वार पर

चूनामपेट के गाँव में डाक्टर आपके द्वार पर

हमारे देश में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में क्या वास्तव में डाक्टर स्वयं ही बीमार के घर पहुँच सकता है? एकबारगी इस बात पर विश्वास ही नहीं होता। परन्तु मद्रास डायबिटीज़ रिसर्च फाउंडेशन ( एम.डी.आर.ऍफ़.) और वर्ल्ड डायबिटीज़ फाउंडेशन (डब्लू.डी.एफ़ ) के संयुक्त तत्वाधान में चेन्नई से लगभग १५० किलोमीटर दूर चूनामपेट ग्रामीण क्षेत्र में मधुमेह की रोकथाम के लिए चलाये जा रहे कार्यक्रम ने इस असंभव को सम्भव कर दिखाया है।

मधुमेह का प्रकोप, केवल शहरों में ही नहीं वरन ग्रामीण क्षेत्रों में भी तेज़ी से बढ़ रहा है। मधुमेह के साथ जीवित लगभग करोड़ जनता ग्रामीण क्षेत्रों में ही निवास करती है।

मधुमेह विशेषज्ञ ,डाक्टर विश्वनाथन मोहन के अनुसार, 'केरल के गाँवों में तो मधुमेह का प्रकोप शहरी इलाकों से अधिक है। इसके दो प्रमुख कारण हो सकते हैं---खान पान में चावल का अधिक उपयोग एवं आर्थिक स्थिति में सुधार होने के कारण शारीरिक श्रम में कमी। अनुवांशिक कारणों से भी भारतीय मूल के निवासियों में मधुमेह की संभावना अधिक होती है।

परन्तु मधुमेह की रोकथाम के सारे प्रयास शहरों तक ही सीमित हैं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए ही उपर्युक्त परियोजना का प्रारंभ मार्च २००६ में डेनमार्क स्थित वर्ल्ड डायबिटीज़ फाउंडेशन की सहायता से किया गया। इस कार्यक्रम का प्रस्तावित कार्यकाल वर्ष है तथा यह डाक्टर रविकुमार एवं उनके सहयोगियों के कुशल निर्देशन में चूनामपेट एवं उसके आसपास के गाँवों में चलाया जा रहा है।

डाक्टर मोहन, ( जो इस परियोजना के प्रमुख संचालकों में से एक हैं), का कहना है कि इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य है कि 'मधुमेह सम्बंधित स्वास्थ्य परिचार एवं उपचार' सभी ग्राम वासियों के लिए उपलब्ध हो, सुगम हो, आर्थिक रूप से प्राप्य हो और मान्य हो। इस कार्यक्रम के द्वारा प्राथमिक, द्वितीय एवं उच्च स्तर पर मधुमेह की रोकथाम के अथक प्रयास किए जा रहे हैं।

इस परियोजना का मुख्य आकर्षण है एक टेली मेडीसिन वान , जो सभी आधुनिक संयंत्रों से प्रयुक्त है तथा एक चलते फिरते आधुनिक अस्पताल के समान कार्य करती है। इसकी सहायता से डेढ़ वर्ष के कम समय में ही ४२गाँवों के २३४४९ ( २० वर्ष से अधिक आयु वाले) व्यक्तियों की मधुमेह एवं उससे सम्बंधित जटिलताओं की जांच की जा चुकी है ( विशेषकर आँख और पाँव संबंधी परेशानियां) जिन व्यक्तिओं में मधुमेह के चलते अपनी दृष्टि खो देनेका खतरा होता है, उनकी चिकित्सा नि:शुल्क की जाती है। परन्तु दवाएं मुफ्त नहीं दी जातीं। हाँ सभी जांचें एवं विशेष उपचार नि:शुल्क हैं।

इस अनूठे प्रयोग के द्वारा शहर के वरिष्ठ चिकित्सा विशेषज्ञों का पूरा लाभ ग्रामीण जनता को घर बैठे ही सुगमता से प्राप्त हो रहा है। इस सम्मिलित प्रयत्न के द्वारा चिकित्सक केवल आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को ग्रामवासियों तक पहुँचा रहे हैं वरन उपचार के उपरांत भी उनसे लगातार संपर्क भी बनाए रखते हैं।

यह परियोजना अनेक व्यक्तियों एवं संस्थानों की सहायता के फलस्वरूप ही सफल हो पायी है, तथा 'सार्वजनिक-निजी क्षेत्र सहयोगका जीता जागता उदाहरण है। श्री रामकृष्ण ने अपनी भू संपत्ति इस परियोजना के लिए दान में दी; नेशनल एग्रो फाउंडेशन ने अपना सहयोग प्रदान किया; भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान ने टेली मेडीसिन वान् के लिए उपग्रह संचार प्रदान किया; तथा डाक्टर रविकुमार एवं उनके सहयोगी अभूतपूर्व लगन से चिकित्सा संबधी कार्यों की बागडोर संभाले हुए हैं।


मधुमेह संबंधी आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को गाँवों के घर घर तक ले जाने के अलावा, इस परियोजना के अंतर्गत, अनेक उचित आहार एवं स्वस्थ जीवन शैली सम्बंधित जागरूकता शिविरों का भी आयोजन किया जाता है। ऐसे ही एक शिविर में भाग लेने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ, जहाँ सुपाच्य एवं स्वास्थ्य प्रद व्यंजन बनाने सिखाये जा रहे थे। पास के ही स्थान में कठपुतली के खेल द्वारा मधुमेह परिचार एवं उपचार के बारे में भी समझाया जा रहा था।

इन सभी प्रयासों के फलस्वरूप ग्रामीण स्वास्थ्य में सुधार तो हुआ ही है, इसके अलावा वहाँ की जनता में एक नई जागरूकता का भी आभिर्भाव हुआ है। विशेषकर महिलाओं एवं युवाओं ने एक जन आन्दोलन की शुरुआत की है जिसके अंतर्गत उचित खान पान और शारीरिक श्रम के द्बारा एक स्वस्थ जीवन जीने का संदेश घर घर में पहुँच रहाहै।

देश के अन्य प्रदेशों में भी ऐसे प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।


शोभा शुक्ला

संपादिका,सिटिज़न न्यूज़ सर्विस
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मधुमेह से ग्रसित लोगों में तपेदिक की संभावना अधिक है

मधुमेह से ग्रसित लोगों में तपेदिक की संभावना अधिक है

वैश्विक स्तर पर मधुमेह तथा तपेदिक से ग्रसित लोगों की संख्या में दिन प्रतिदिन बढ़ोतरी हो रही है। विश्व मधुमेह संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरे विश्व में वर्ष २००७ में करीब २४६,000,000 लोग मधुमेह की बीमारी से ग्रसित थे, वहीँ ६० लाख नए मरीजों की पहचान की गयी, तथा ३५ लाख लोगों की मौत मधुमेह की बीमारी से हो गयी। वर्ष २००७ में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से ‘ तपेदिक नियंत्रण अभियान’ के तहत कराये गए सर्वेक्षण के मुताबिक पूरे विश्व में करीब १ करोड़ ४४ लाख लोग तपेदिक या टी. बी. की बीमारी से ग्रसित थे तथा करीब ९२ लाख नए टी.बी. के मरीजों की पहचान की गई। वहीं १७ लाख लोगों की मौत टी.बी. की बीमारी से हो गई।

उपरोक्त आंकडों से यह पता चलता है कि यदि मधुमेह और तपेदिक की बीमारी पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो विश्व की स्वास्थ्य व्यवस्था के सामने नई चुनौती खड़ी हो सकती है। यह स्वरुप विकासशील देशों के लिए और भी भयंकर हो सकता है। एक शोध के अनुसार, पूरे विश्व में तपेदिक से ग्रसित कुल मरीजों में से करीब ९५ प्रतिशत लोग विकासशील देशों में रहते है। किंतु कई सारी रिपोर्टों से यह बात पता चलती है कि आगे -आने वाले दिनों में मधुमेह के साथ जीवित सबसे ज्यादा लोग विकाससील देशों में होंगे।

तपेदिक की बीमारी पर बने अंतर्राष्ट्रीय संगठन (जो फ्रांस की राजधानी पेरिस में स्थित है) के वरिष्ठ सलाहकार अन्थोनी हैरिस के मुताबिक 'ऐसे लोग जो मधुमेह की बीमारी से ग्रसित हैं यदी उनको तपेदिक की बीमारी हो जाती है तो उनमें तपेदिक के उपचार की औषधियों का असर काफी कम हो जाता है। इसके साथ ही साथ वे मरीज जिन्हें टाईप -२ मधुमेह और तपेदिक दोनों हैं , उनमें औषधि प्रतिरोधक बीमारी होने की संभावनाएं कहीं ज्यादा बढ़ जाती हैं, क्योंकि टाईप -२ मधुमेह से रक्त में शर्करा की मात्र बढ़ जाती है तथा उससे रोग-प्रतिरोधक शक्ति कम हो जाती है। यद्यपि पूरे विश्व के मुकाबले भारत के पास सबसे मजबूत तपेदिक रोग नियंत्रण कार्यक्रम है, किंतु यह प्रभावी रूप से काम नहीं कर रहा है। यदि सार्वजनिक तथा निजी संस्थान दोनों मिलकर काम करें तो इन बीमारियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। '

गरीबी, अपर्याप्त साफ़-सफाई, धूम्रपान का सेवन, उचित पोषण का अभाव, इत्यादि की वजह से भारत में तपेदिक और मधुमेह के रोगियों की संख्या दिन- प्रतिदिन बढ़ रही है। तपेदिक की बीमारी, टाईप -१ मधुमेह के साथ जी रहे लोगों में भी हो सकती है। अक्सर लोग यह समझते हैं कि मधुमेह सिर्फ़ अमीरों की बीमारी है, किंतु यह अमीरों और गरीबों दोनों में ही तेजी से फ़ैल रही है। कई सारे शोधों से यह पता चलता है कि मधुमेह की बीमारी अब ग्रामीण इलाकों में भी अपने पैर फैला रही है।

अन्थोनी हैरिस का आगे कहना है कि भारत को तपेदिक के मरीजों से निपटनें के लियी तपेदिक रोग नियंत्रण कार्यक्रम को तीन स्तरों पर मजबूत बनाना होगा--- (१ ) प्राथमिक अवस्था में ही तपेदिक के मरीजों की पहचान की जाए। ( २)- मरीजों का पंजीकरण करा कर उनको नियमित दवाएं उपलब्ध कराई जायें। (३)- बलगम के द्वारा उनकी जाँच की जाए।

तपेदिक संक्रमणों द्वारा फैलने वाली बीमारी है जबकि मधुमेह बिना संक्रमण द्वारा फैलने वाली बीमारी है। भारत जैसे देशों में दोनों प्रकार की बीमारियों के फैलने का ख़तरा है। सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य के गोल ६ के ८ उद्देश्यों में इस बात का ज़िक्र किया गया है कि वर्ष २०१५ तक विश्व में संक्रमित बीमारियों, जैसे तपेदिक इत्यादी, के प्रकोप को कम करने का प्रयास किया जायेगा। यदि हम वास्तव में इन देशों में तपेदिक के प्रकोप को कम करना चाहतें हैं तो इसके लिए हमें व्यापक प्रबंध करनें होंगे।

अमित द्विवेदी

लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं

भारतीय कश्मीरियों पर हिंसा का मनोवैज्ञानिक प्रभाव

भारतीय कश्मीरियों पर हिंसा का मनोवैज्ञानिक प्रभाव

भारतीय सेना और कश्मीरी उग्रवादियों के बीच पिछले २० साल से चल रही हिंसात्मक घटनाओं के कारण लगभग२०,००० लोग मारे गए हैं तथा ४००० लोग विस्थापित हुए हैंये तो सरकारी आंकड़े हैं, पर इस लड़ाई का जो मानसिक कुप्रभाव कश्मीर की जनता पर पड़ा है, उसे आंकडों में नहीं मापा जा सकता

हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण के दौरान कुछ चौंका देने वाले तथ्य सामने आए हैंयह सर्वेक्षण कनाडा और हॉलैंड के विश्वविद्यालयों एवंमेडिसिन्स साँस फ़्रन्तिअरनामक स्वयंसेवी संस्था के मिले जुले तत्वाधान में २००५ में किया गया थाइस अध्ययन के अंतर्गत ५१० कश्मीरियों से बातचीत की गयी जो भारतीय कश्मीर में रह रहे हैंइनमें २७० पुरूष थे और २४० महिलायें थीं३३% प्रतिवादियों में (विशेषकर महिलाओं में), असुरक्षा की भावना के कारण, मानसिक दबाव के लक्षण पाये गए

इस वैज्ञानिक अध्ययन के लेखकों का कहना था कि कश्मीर में लगातार हो रही हिंसा और मानवीय अधिकारों के उल्लंघन के चलते, ३३% प्रतिवादियों के मन में कभी कभी आत्महत्या का विचार आया थापुरुषों ने स्वयं भोगा था अनाचार और अत्याचार का वातावरणपुलिस हिरासत में उन्हें यातनाएं दी गयी थीऔर महिलायें यह सब अपनी आंखों के आगे घटते हुए देख कर मानसिक रूप से आहत हुई थीं

पुरुषों का मानसिक तनाव तीन गुना बढ़ जाने के मुख्य कारण थे----मर्यादा का उल्लंघन, बलपूर्वक किया गया विस्थापन एवं स्वयं अक्षम होने की भावनामहिलाओं ने अपने आसपास लोगों को मृत्यु और अत्याचार का शिकार होते हुए देखा था एवं स्वयं को असुरक्षित पाया थाइन सब कारणों से उनका मानसिक तनाव दो गुना बढ़ गया

इस अध्ययन के परिणामयुद्ध एवं स्वास्थ्यनामक पत्रिका में छपे हैंइसके अनुसार ६३% प्रतिवादियों ने घायलों को देखा था; ४०% ने लोगों को मरते हुए देखा था;६७% ने शारीरिक अत्याचार होते हुए देखे थे; १३%बलात्कार के दृष्टा थे; ४४% ने दुर्व्यवहार का अनुभव किया था और ११% का कहना था कि उनकी मर्यादा का उल्लंघन किया गया

यह माना जाता है कि पिछले वर्ष लगभग ६०,००० कश्मीरियों ने आत्महत्या कीअनेक लोगों ने आत्मकेंद्रित होकर, स्वयं को समाज की मुख्य धारा से अलग कर लियाकुछ लोगों का व्यवहार हिंसात्मक हो गया तथा कुछ धर्म में शान्ति की तलाश करने लगेइतना अधिक मानसिक तनाव भारत के अन्य किसी भी क्षेत्र में नहीं पाया गया हैकश्मीर में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी होने पर भी ६०% प्रतिवादियों ने स्वास्थ्य केन्द्रों पर जा कर इस प्रकार की सहायता ली, विशेष कर महिलाओं ने

हिंसा, खतरे और अनिश्चिनता के इस वातावरण से भारतीय सेना का भी मनोबल गिरा है, जिसके कारण कश्मीर में तैनात भारतीय सैनिकों में आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी हैंइसलिए सेना को वहाँ ४०० मनोविशेषज्ञों की सेवाएँ लेनी पड़ी हैं

सरकार को चाहिए कि कश्मीर की जनता एवं भारतीय सेना का मनोबल बनाए रखने के लिए उचित कदम उठायेजो लोग कश्मीर के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं उन्हें यह सोचना होगा कि ज़मीन के लिए लड़ी जा रही इस लड़ाई से उस ज़मीन पर रहने वालों के जीवन पर कितना बुरा प्रभाव पड़ रहा है
क्या यह किसी के लिए भी उचित है?

शोभा शुक्ला

परमाणु उर्जा से बिजली की संभावनाए

परमाणु उर्जा से बिजली की संभावनाए

भारत-अम्रीका परमाणु समझौते पर बहस के दैरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐसी तस्वीर पेश की देश की बिजली की जरूरत पूरी कराने के लिए परमाणु उर्जा के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नही है तथा परमाणु उर्जा पर्यावरणीय दृष्टि से साफ-सुथरी व जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए बेहतर विकल्प नही है । आइए देखें इस दावे में कितना दम है।


यूरोप में कुल १९७ परमाणु बिजली घर है जो यूरोप की बिजली की ३५ प्रतिशत जरूरत पूरी करते है. इनमें फ्रांस सबसे अधिक ७८.५ प्रतिशत बिजली का उत्पादन परमाणु उर्जा से करता है. किंतु आने वाले दिनों यूरोप में सिर्फ़ १३ नए परमाणु बिजली घर लगाये जाने वाले है । जर्मनी, इग्लैंड, स्वीडन में कोई नए परमाणु बिजली घर नही लगे जा रहे है । यहाँ तक फ्रांस में भी फिलहाल मात्र एक बिजली घर ही लगाने की तैयारी है। ५५ प्रतिशत यूरोपीय नागरिक इन कारखानों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे की वजह से परमाणु बिजली घरो का विरोध करते है। रेडियोधर्मी कचरे के सुरक्षित निबटारे का आज हमारे सामने कोई रास्ता नही है। हालांकि कई यूरोपीय संघ की क्योटो मानकों को पूरा करने की प्रतिबद्धता का हवाला देते हुए कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए परमाणु उर्जा को एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रहे है।

यूरोप में कुल १९७ परमाणु बिजली घर है जो यूरोप की बिजली की ३५ प्रतिशत जरूरत पूरी करते है. इनमें फ्रांस सबसे अधिक ७८.५ प्रतिशत बिजली का उत्पादन परमाणु उर्जा से करता है. किंतु आने वाले दिनों यूरोप में सिर्फ़ १३ नए परमाणु बिजली घर लगाये जाने वाले है । जर्मनी, इग्लैंड, स्वीडन में कोई नए परमाणु बिजली घर नही लगे जा रहे है । यहाँ तक फ्रांस में भी फिलहाल मात्र एक बिजली घर ही लगाने की तैयारी है। ५५ प्रतिशत यूरोपीय नागरिक इन कारखानों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे की वजह से परमाणु बिजली घरो का विरोध करते है। रेडियोधर्मी कचरे के सुरक्षित निबटारे का आज हमारे सामने कोई रास्ता नही है। हालांकि कई यूरोपीय संघ की क्योटो मानकों को पूरा करने की प्रतिबद्धता का हवाला देते हुए कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए परमाणु उर्जा को एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रहे है।

जापान अपने ५५ परमाणु बिजली घरो से अपनी बिजली की ३० प्रतिशत जरूरत पूरी करता है जिसको बड़ा कर २०१७ तक वह ४० प्रतिशत तक ले जाना चाहता है। २ नए कारखाने निर्माणाधीन है तथा १७ कारखाने लगाने की योजना है। जापान चुकी एक द्वीप राष्ट्र है और अपनी उर्जा की जरूरतों के ८० प्रतिशत के लिए वह बाहरी श्रोतों पर निर्भर रहता है अतः उसने फिलहाल परमाणु ऊर्जा को विकल्प के रूप में छोड़ने का फ़ैसला नही लिया है।

अमेरीका में १०४ परमाणु बिजली घर है जिनसे वह अपनी जरूरत की २० प्रतिसत बिजली प्राप्त करता है। किंतु ७० दसक के अंत से अमेरीका में वह स्पष्ट हो गया था की परमाणु बिजली घरो का कोई भविष्य नही है तथा १२० परमाणु बिजली घर लगाने के प्रस्ताव रद्द कर दिए। इसी समय उसके पेंसिलवेनिया राज्य में थ्री माईल आइलैंड परमाणु बिजली घर में एक भयंकर दुर्घटना हुई। इसके बाद से आज तक अमेरिका में एक भी नया परमाणु बिजली घर नही लगा है। अमेरीका के परमाणु बिजली घरो से निकलने वाले कचरे को नेवादा राज्य की युक्का पहाडियों में दफनाने की योजना फिलहाल राजनीतिक विरोध के कारण खटाई में पड़ गई है। परमाणु बिजली का दुनिया के कुल बिजली उत्पादन में १५ प्रतिशत योगदान है । जिसमे अमेरिका , जापान व् फ्रांस का योगदान ५६.५ प्रतिशत है। दुनिया के ३१ देशो में कुल ४३९ परमाणु बिजली घर है।

अमेरीका में १०४ परमाणु बिजली घर है जिनसे वह अपनी जरूरत की २० प्रतिसत बिजली प्राप्त करता है। किंतु ७० दसक के अंत से अमेरीका में वह स्पष्ट हो गया था की परमाणु बिजली घरो का कोई भविष्य नही है तथा १२० परमाणु बिजली घर लगाने के प्रस्ताव रद्द कर दिए। इसी समय उसके पेंसिलवेनिया राज्य में थ्री माईल आइलैंड परमाणु बिजली घर में एक भयंकर दुर्घटना हुई। इसके बाद से आज तक अमेरिका में एक भी नया परमाणु बिजली घर नही लगा है। अमेरीका के परमाणु बिजली घरो से निकलने वाले कचरे को नेवादा राज्य की युक्का पहाडियों में दफनाने की योजना फिलहाल राजनीतिक विरोध के कारण खटाई में पड़ गई है। परमाणु बिजली का दुनिया के कुल बिजली उत्पादन में १५ प्रतिशत योगदान है । जिसमे अमेरिका , जापान व् फ्रांस का योगदान ५६.५ प्रतिशत है। दुनिया के ३१ देशो में कुल ४३९ परमाणु बिजली घर है।

७० व ८० के दशक में परमाणु बिजली के उत्पादन की क्षमता में जबरदस्त वृद्धि हुई। ८० के दशक के अंत तक आते-आते इस उद्योग में मंदी आ गई। बढ़ती कीमतों की वजह से परमाणु बिजली घर लगना कोई मुनाफे का सौदा नही रह गया था । तथा इस दौरान परमाणु विरोधी आन्दोलन ने भी जगह-जगह जो पकडा। लोगों के लिए परमाणु बिजली घर में दुर्घटना, रेडियोधर्मी कचरा व परमाणु शस्त्रों का प्रसार उनके स्वास्थ्य व सुरक्षा के लिए खतरा प्रतीत होने लेन लगे।

१९८६ में चेर्नोबिल परमाणु बिजली घर में दुर्घटना अभी तक दुनिया के सबसे भयंकर औद्योगिक दुर्घटना रही है। जिसकी वजह से परमाणु उद्योग का भविष्य अधंकारमय हो गया । न्यूजीलैंड, आयरलैंड व पोलैंड जैसे देशों ने परमाणु बिजली कार्यक्रम शुरू न करने का निर्णय लिया तथा ओस्ट्रेलिया, सुइदन व इटली ने अपने परमाणु बिजली कार्यक्रम धीरे-धीरे बंद करने का निर्णय लिया। ओस्ट्रेलिया जिसके पास यूरेनियम के सबसे बड़े भंडार हैं, ने अभी तक अपने देश में एक भी परमाणु बिजली घर नही लगाया है।

२००६ में योजना आयोग द्वारा करे गए एक अध्ययन एकीकृत उर्जा नीति के मुताबिक बहुत आशावान परिस्थितियों में यदि हम परमाणु उर्जा से २०१५ तक १५,००० मेगावाट तथा २०२१ तक २९,००० मेगावाट बिजली उत्पादन करने की क्षमता स्थापित कर लेते है, तो भी परमाणु उर्जा का हिस्सा कुल बिजली उत्पादन क्षमता का मात्र ७ प्रतिशत ही होगा। अनहोनी परिस्थितियों में यदि २०२० तक हम ४०,००० मेगावाट परमाणु बिजली उत्पादन की क्षमता भी स्थापित कर लेते हैं तो भी वह कुल क्षमता का ९ प्रतिसत से ज्यादा नहीं होगा। यानी की परमाणु उर्जा से हमें इतनी बिजली नही मिलने वाली है की देश की बिजली के जरूरत पूरी हो सके।

२००६ में योजना आयोग द्वारा करे गए एक अध्ययन एकीकृत उर्जा नीति के मुताबिक बहुत आशावान परिस्थितियों में यदि हम परमाणु उर्जा से २०१५ तक १५,००० मेगावाट तथा २०२१ तक २९,००० मेगावाट बिजली उत्पादन करने की क्षमता स्थापित कर लेते है, तो भी परमाणु उर्जा का हिस्सा कुल बिजली उत्पादन क्षमता का मात्र ७ प्रतिशत ही होगा। अनहोनी परिस्थितियों में यदि २०२० तक हम ४०,००० मेगावाट परमाणु बिजली उत्पादन की क्षमता भी स्थापित कर लेते हैं तो भी वह कुल क्षमता का ९ प्रतिसत से ज्यादा नहीं होगा। यानी की परमाणु उर्जा से हमें इतनी बिजली नही मिलने वाली है की देश की बिजली के जरूरत पूरी हो सके।


स्वास्थ्य नीतियों को कमजोर करने के लिए भारत सरकार पर तम्बाकू उद्योग का 'जोर'

स्वास्थ्य नीतियों को कमजोर करने के लिए भारत सरकार पर तम्बाकू उद्योग का 'जोर'

केंद्रीय सूचना आयोग में भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने कहा कि तम्बाकू उद्योग उस पर जोर डालता है कि तम्बाकू नियंत्रण की नीतियों को कमजोर किया जाए (पढ़ें,
The Hindu, १४ नवम्बर २००८).

स्वास्थ्य नीतियों में उद्योगों के हस्तछेप से न केवल स्वास्थ्य नीतियाँ कमजोर होती हैं, बल्कि उनको लागु करने में अवांछित विलंब होता है. उदाहरण के तौर पर तम्बाकू उद्योग और अन्य सम्बंधित उद्योगों, जिनमें इंडियन होटल असोसिएशन भी शामिल है, ने तम्बाकू नियंत्रण नीतियों के विरोध में ७० से अधिक कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की थीं. इन्हीं उद्योगों की वजह से तम्बाकू उत्पादनों पर प्रभावकारी फोटो वाली चेतावनी को लागु करने को कम-से-कम ६ बार टाला गया है. इन्हीं उद्योगों के प्रतिनिधियों और समर्थकों ने 'मंत्रियों के समूह' पर, जो तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनियों का मूल्यांकन कर रहा था, जोर डाल कर फोटो वाली चेतावनियों को कमजोर करा दिया है.

जब तक तम्बाकू नियंत्रण कानूनों में उद्योग के हस्तछेप पर रोक नही लगेगी, तब तक उद्योग अपने मुनाफे और बाज़ार को बचाने और बढ़ाने के लिए, स्वास्थ्य नीतियों को कमजोर करते रहेंगे.

दक्षिण अफ्रीका के डुर्बन शहर में १६० देशों के सरकारी प्रतिनिधि अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण संधि के गाइड-लाइन पर विचार-विमर्श कर रहे हैं, जिनमें article ५.३ शामिल है जो स्वास्थ्य नीतियों में तम्बाकू उद्योग के हस्तछेप पर रोक लगाने का प्रस्ताव रखता है. इस अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण संधि को फ्रेमवर्क कन्वेंशन ओन टोबाको कंट्रोल कहते हैं.

इस संधि में प्रस्तावित आर्टिकल ५.३ के मुताबिक, तम्बाकू उद्योग का जन-स्वास्थ्य के साथ सैधांतिक मतभेद है.

यह भी समझना आवश्यक है कि यदि जन-स्वास्थ्य नीतियों में तम्बाकू उद्योग का हस्तछेप जारी रहेगा तो इसका कु-प्रभाव अन्य तम्बाकू नियंत्रण कार्यक्रमों पर भी पड़ेगा जिनको लागु करना में न केवल अवान्छिय विलम्ब होगा बल्कि इन नीतियों के कमजोर होने की भी सम्भावना तीव्र हो जायेगी.

"अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण संधि को लागु करने में तम्बाकू उद्योग का हस्तछेप सबसे प्रमुख व्यवधान है" कहना है कैथी मुल्वे का, जो कारपोरेट अच्कोउन्ताबिलिटी इंटरनेशनल की अंतर्राष्ट्रीय नीति निदेशक हैं.

(मेरी ख़बर में प्रकाशित)

मधुमेह के साथ जीवित बच्चों /युवाओं की देखभाल

मधुमेह के साथ जीवित बच्चों /युवाओं की देखभाल


वर्ष २००८ के विश्व मधुमेह दिवस का मुख्य विषय है 'बच्चों/ युवाओं में मधुमेह' । इसके अंतर्गत चलाये जा रहे विश्वजागरूकता अभियान का उद्देश्य है कि मधुमेह किसी भी बच्चे की मृत्यु का कारण बनेसाथ ही साथ अभिभावकों, परिचारकों, शिक्षकों, स्वास्थ्य विशेषज्ञों, नेताओं एवं जनसाधारण में भी मधुमेह सम्बंधी जानकारी बढ़े


अंतर्राष्ट्रीय मधुमेह दिवस प्रति वर्ष १४ नवम्बर को मनाया जाता हैयह दिन डाक्टर फ्रेडरिक का जन्म दिवस भी है, जिन्होंने ८७ वर्ष पूर्व इंसुलिन का आविष्कार किया थाविश्व में मधुमेह के बढ़ते हुए प्रकोप को ध्यान में रखते हुए, इन्टरनेशनल डायबिटीज़ फेडेरेशन (आई.डी.ऍफ़.) और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने १९९१ में इस दिवस कीस्थापना की थीसन २००७ में यू.एन.. ने इसे राजकीय यू.एन. नेशन विश्व दिवस का दर्जा प्रदान कियायू.एन का मानना है की मधुमेह एक महामारी के रूप में प्रत्येक आयु वर्ग में फैल रहा है


मधुमेह से हर उम्र का बच्चा प्रभावित हो सकता है, यहाँ तक कि शिशु भीयदि समय से इसका निदान इलाज नहीं होता तो यह बच्चे की मृत्यु का कारण भी बन सकता है अथवा उसके मस्तिष्क को क्षतिग्रस्त कर सकता हैबच्चों में इसके लक्षणों को प्रायः नज़रअंदाज़ कर दिया जाता हैसच तो यह है की अज्ञानता या निर्धनतावश इसके लक्षणों की सही पहचान नहीं हो पातीविशेषकर बालिकाओं में तो इसके लक्षणों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता


पुणे स्थित किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल के मधुमेह विभाग के निदेशक, डाक्टर याज्ञनिक के अनुसार, ‘प्राय: ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों में या तो मधुमेह का समय रहते निदान नहीं हो पाता या फिर सही इलाज नहीं होताइस कारण कई बच्चे अपने जीवन से ही हाथ धो बैठते हैं, जो हम सभी के लिए एक शर्मनाक बात हैसरकार का कर्तव्य है कि वो ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करे ताकि बच्चों/किशोरों में मधुमेह का समय से निदान एवम् उचित उपचार और परिचार हो सके।’


प्रत्येक अभिभावक , शिक्षक, स्कूली नर्स, डाक्टर, एवं बच्चों की देखभाल करने वाले अन्य व्यक्तियों को मधुमेह के लक्षणों अथवा चेतावनी संकेतों की जानकारी होनी चाहिएमधुमेह के प्रमुख लक्षण हैं :- बार बार पेशाब होना, अत्यधिक भूख और प्यास लगना, वज़न कम होना, थकान महसूस करना , एकाग्रता का अभाव होना, दृष्टि धूमिल हो जाना, उल्टी/पेट दर्द होना आदिटाइप- डायबिटीज़ वाले बच्चों में ये लक्षण या तो कम होते हैं अथवा अनुपस्थित होते हैं


टाइप- डायबिटीज़ में शरीर में इंसुलिन बनाने की क्षमता ही नहीं होतीइस प्रकार के मधुमेह को रोका नहीं जा सकताअधिकतर बच्चों को टाइप- डायबिटीज़ ही होती हैविश्व स्तर पर, १५ वर्ष से कम आयु वाले ५००,०००बच्चों को इस प्रकार का मधुमेह हैफिनलैंड, स्वीडन और नारवे के बच्चों में इसका प्रकोप सबसे अधिक हैपरन्तु आधुनिक समय में बाल्यकाल स्थूलता तथा आराम तलब जीवन शैली के चलते टाइप- डायबिटीज़ का प्रकोप भी बढ़ रहा हैजापान में तो यही मधुमेह सबसे अधिक व्यापक है


टाइप- डायबिटीज़ के चलते बच्चों को प्रतिदिन इंसुलिन के इंजेक्शन लेने पड़ते हैं तथा रक्त में शर्करा की मात्रा कोनियंत्रित करना पड़ता हैयदि इसे नियंत्रित नहीं किया जाता , तो रक्त में अम्ल की मात्रा बहुत बढ़ जाती है और यह स्थिति जानलेवा भी हो सकती हैऐसी स्थिति को रोकने का एक ही उपाय है - समय से निदान और चिकित्सा


विकासशील देशों में तो समस्या और भी गंभीर हैइन निम्न/मध्यम आय वर्ग के देशों के लगभग ७५,००० बच्चे टाइप- डायबिटीज़ के साथ बहुत ही निराशाजनक परिस्थितियों में जी रहे हैंउनके लिए इंसुलिन एवं अन्य चिकित्सा सामग्री/ उपकरणों का नितांत अभाव हैउन्हें मधुमेह के बारे में उचित जानकारी भी नहीं हैइसलिए वे मधुमेह सम्बंधी अनेक विषमताओं के शिकार हो रहे हैंमधुमेह का उचित उपचार और देखभाल प्रत्येक बच्चे का अधिकार होना चाहिए कि सौभाग्य

दिल्ली की डाक्टर सोनिया कक्कड़ के अनुसार, ‘आवश्यकता है एक व्यापक सोच और कार्यशैली की, जो मधुमेह केखतरों को संबोधित करेसामाजिक धारणाएं मधुमेह के साथ जीवित किशोर युवक / युवतियों का जीवन प्रभावित करतीं हैंइन मान्यताओं के चलते विशेषकर लड़कियों को अधिक दु: सहना पड़ता है.’


टाइप- डायबिटीज़ एक गंभीर वैश्विक जन स्वास्थ्य समस्या के रूप में उभर रही हैविकसित एवं विकासशील ,दोनों ही प्रकार के देशों के बच्चे इससे प्रभावित हैंयह आठ वर्ष से कम आयु के बच्चों में भी पाई जा रही हैअमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के कुछ आदिवासी समुदायों के %-- % युवाओं में इसका प्रकोप हैटाइप- डायबिटीज़ को रोका जा सकता हैशारीरिक वज़न घटा कर और शारीरिक श्रम बढ़ा कर


आई.डी.ऍफ़. के प्रेजिडेंट इलेक्ट, डाक्टर म्बान्या का कहना है कि, ‘सच तो यह है कि विकासशील देशों में कई बच्चे मधुमेह का निदान होने के कुछ समय बाद ही मर जाते हैंइंसुलिन के आविष्कार के ८७ वर्ष बाद भी यह शोचनीय स्थिति है कि अनेक बच्चे/वयस्क केवल इसलिए अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं क्योंकि उन्हें अपने इलाज के लिए इंसुलिन उपलब्ध ही नहीं हो पातीयह हम सबके लिए एक शर्मनाक बात हैआने वाली पीढियों के लिए हमें इसका समाधान ढूँढना ही होगा।’


आई.डी.ऍफ़. के अनुसार, एशिया और अफ्रीका के कुछ विकासशील देशों में मधुमेह के उपचार से सम्बंधित दवाएं और नियंत्रण उपकरण या तो उपलब्ध नहीं हैं ,अथवा महंगे होने के कारण जन साधारण की पहुँच से बाहर हैंइस कारण बहुत से बच्चे या तो अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं, या फिर एक निम्न स्तरीय जीवन बिताते हुए, मधुमेह सम्बंधी जटिलताओं से ग्रसित होते हैं।’

मधुमेह की रोकथाम / उपचार के लिए अभी तक जो कदम उठाये गए हैं वो काफी नहीं हैंहमारी सरकारी जनस्वास्थ्य सेवाएँ अधिकतर संक्रामक रोगों की रोकथाम एवं जच्चा/बच्चा स्वास्थ्य सेवा तक ही सीमित हैंनिजीक्षेत्र में रोकथाम के विपरीत इलाज पर ही अधिक ध्यान केंद्रित हैअत: आवश्यकता है एक ऐसी प्रबंध प्रणाली की जो मधुमेह की रोकथाम, उपचार,तथा देखभाल को ध्यान में रखते हुए कार्य करे


आई.डी.ऍफ़. का सभी से निवेदन है कि वे मधुमेह के बारे में जागरूकता बढायें तथा इसके साथ जीवित व्यक्तियों के उपचार एवं परिचार के लिए प्रभावकारी कदम उठाएं


शोभा शुक्ला

संपादिका, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस


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