जाति प्रमाण-पत्र : दलित यथास्थितिवाद

जाति प्रमाण-पत्र, आरक्षण और जातिवाद एक दूसरे से संबद्ध सच्चाई है। दलित जाति के चिन्तन का अन्तविरोध भी है। सच है, दलित जाति प्रथा को खत्म करना चाहता है। संघर्ष कर रहा है। डॉ. आम्बेडकर से पहले और उनके बाद भी लोग जाति की उत्पत्ति, संरचना और उसके विकास पर सोचते, लिखते और आन्दोलित होते रहे हैं। डॉ. आम्बेडकर ने १९१६ में ‘जाति प्रथा: उत्पत्ति, संरचना और विकास’ पर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया। दलित जातियां इस शोध पत्र का अध्ययन लगातार कर रही है। १९३६ में आम्बेडकर ने ‘जाति प्रथा उन्मूलन’ लिखकर दलित जातियों को वैचारिक परिपक्वता प्रदान की। दलित जातियां जाति प्रथा उन्मूलन को पढ़कर आज भी तर्क प्रस्तुत करती है तथा जाति प्रथा उन्मूलन के लिये आन्दोलनरत रहती है। दलितों ने राजनैतिक समानता का अधिकार प्राप्त कर लिया है। राज सत्ता तक पहुँच कर राजनैतिक शोक्तियों शक्तिओं के “द्वारा वह जाति प्रथा की नींव कमजोर करना चाहता है एवं अपने समाज को बुद्धजीवी, शिक्षित तथा सुविधा सम्पन्न वर्ग बनाना चाहता हैं।

डॉ. आम्बेडकर ‘कम्युनल एवार्ड’ प्राप्त करना चाहते थे, जिससे दलित स्वयं अपना नेता विधान सभा और संसद में भेज सके। गांधी जी ने आमरण अनसन करके डॉ. आम्बेडकर को कम्युनल एवार्ड प्राप्त नहीं होने दिया। कम्युनल एवार्ड के बदले डॉ. आम्बेडकर को ‘आरक्षण नीति’ को स्वीकार करना पड़ा। आरक्षण ऐसी सुविधा का नाम है जिसने दलितों में एक स्वार्थी, अवसरवादी और कायर वर्ग को जन्म दिया। यह सही है कि आरक्षण ने दलितों को राजनीति और नौकरियों में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान किया। धीरे-धीरे यही आरक्षण दलित वर्ग के ‘नव-सुविधा सम्पन्न’ लोगों का हथियार बन गया, आदत में सुमार हो गया। बिना संघर्ष के सुविधा प्राप्त करना चरित्र हो गया है। दलितों का यह नव सम्पन्न वर्ग प्रचार करता है कि बिना आरक्षण के दलित पुन: दासत्व की पुरानी स्थिति में पहुंच सकता है। बिना आरक्षण के दलितों का उत्थान व कल्याण सम्भव नहीं है। यदि संविधान संशोधन द्वारा आरक्षण को सवर्ण जातियां खत्म कर ले जाती है तो मनुस्मृति दलितों पर पुन: लागू हो जायेगी। दलितों को नौकरी नहीं मिलेगी। दलित शिक्षा नहीं पायेगा। दलित तमाम राजनैतिक अधिकारों से वंचित हो जायेगा। अर्थात पुन: सम्पत्ति और शिक्षा से वंचित कर दिया जायेगा। दलितों का यह नव सम्पन्न अवसरवादी, स्वार्थी और कायर वर्ग एक ऐसी विचार प्रक्रिया का निर्माण करता हैं जिसके इसके इर्द-गिर्द के दलित एवं अलग धारा का निर्माण कर सकने वाला ‘दलित स्वार्थी वर्ग की विचारधारा’ के साथ गुमराह होकर उसी को सत्य मानता हुआ आरक्षण नीति से चिपका रहे। अलग कोई विचारधारा और आन्दोलन न विकसित कर सकें।

यदि दलितो का एक अलग वर्ग यह सोचने लग जाएं कि उसे आरक्षण नहीं चाहिये, तो उसको सामान्य वर्गों के साथ और मध्य प्रतियोगिता करनी पड़ेगी। चूंकि दलितों को शिक्षा प्राप्त करने में व्यवधान होता है। यह व्यवधान आर्थिक कमजोरी के कारण उत्पन्न होता है। आज भी दलितों की जिदंगी सुदृढ़ नहीं है। दूसरी तरफ सवर्ण जातियों के अमीर लोग है जो शिक्षा को खरीद सकते है, सम्पन्न होने के कारण सुचारू पढ़ लिख सकते है प्रतियोगिता लायक बनने में उन्हें आसानी होती है। हालांकि यह सभी सवर्णों के ऊपर लागू नहीं होता है क्योंकि सवर्णों में भी अधिकांश लोग (आर्थिक रूप से) गरीब ही है।

परिस्थितियां सच है, परन्तु किसी भी लड़ाई के लिये आरक्षण क्या, जीवन भी उत्सर्ग करना पड़ सकता है। हम, यदि इतने स्वार्थी बने रहेंगे, तो जाति प्रथा उन्मूलन के लिये स्वयं तथा परिजनों को अनिवार्यतय: बलिदान मार्ग के लिये कैसे प्रेरित करेंगे। अब दलित जातियों के इतने शिक्षित व सम्पन्न लोग हो चुके है कि जाति प्रथा उन्मूलन ही नहीं, शिक्षा, रोजगार एवं राजनीति के लिये एक बेहतर अगुवाई कर सकते है। दलित जातियों के विकास के लिये संवैधानिक प्रक्रिया के अनुपालन में सरकार और राजसत्ता को बाध्य कर सकते है। हाँ, संघर्ष की अनिवार्यता स्वीकार करनी पड़ेगी। संघर्ष को सतत प्रक्रिया में लाना होगा। पूरी ईमानदारी से ‘वैचारिक एकरूपता’ एवं ‘जनवादी केन्द्रीयता विकसित करते हुए मोनोलिथिक प्रणाली की तरह कार्य करना होगा। बिना नैतिक मूल्यों के अनुपालन के दलित अपनी लड़ाई जीत नहीं सकता हैं।

बहुत समय से यह विमर्श का विषय रहा है कि आरक्षण एक वैशाखी हैं वैशाखी को फेंके बिना सीधा नहीं हुआ जा सकता है। दुखद यह है कि दलितो का स्वार्थी, अवसरवादी और डरपोक वर्ग यह तर्क प्रस्तुत करने लगता है कि ऐसी विचारधारा दलितों के साथ पीठ में छूरा भोकने जैसा है। यह कम्युनिष्ट विचार धारा है। इसे ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोग दलितों के मध्य उछालते रहते है। वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बचाते हुए सवर्णों को राजनीति व रोजगार में बने रहने के पक्ष में चालबाजी करते है। किन्तु आज दलितों के गरीब पक्ष को यह समझने कि जरूरत है कि नव-सम्पन्न दलित वर्ग ऐसी विचारधारा के पक्ष में दलील देकर, न तो वह जाति प्रथा खत्म करना चाहता है, और न हीं दलितों के गरीब पक्ष को सुख-सुविधाएं दिलाना एवं शोंषण से मुक्त कराना ही चाहता है। यह आज दलितों के मध्य विमर्श का विषय होना चाहिए।

सच तो यह है कि दलितो के 24 करोड़ लोगों को न तो रोटी उपलब्ध है, और न ही शिक्षा। खेत-खिलायानों में काम करते हुए या तो वे खेत मजदूर हैं अथवा छोटे किसान। अधिकतर दलित आज भी भूमि हीन है। आज भी इन्हें सवर्णों के खेतों में बंधुवा मजदूर की तरह कार्य करना पड़ता है। दलितों की स्थिति गांव में बदतर है। वे अपनी जाति से अधिक गरीबी और भुखमरी से त्रस्त है। उनके पास उत्पादन के साधन नहीं है। न खेत है न खलियान, न बीज है न खाद, न शिक्षा है न नौकरी। रोज कुंआ खोदो-पानी पियों, जैसी परिस्थिति में दलित जातियां जीवित हैं। कहने को, दलित आज गांव में स्वत्रंत हैं तुलनात्मक आर्थिक स्थिति भी ठीक है। जातीय अस्मिता के मामले में बौद्ध धर्म और बसपा ने दलित जातियों के संस्कार, आत्मसम्मान और चिन्तन की दिशा बदल दी है। ये जातियां हित-अहित सोचने लगी है। संस्कार के नाम पर ब्राह्मणवादी संस्कारों के स्थानापन्न रूप में बौद्ध संस्कृति स्वीकार कर लिया है। ब्राह्मणों के स्थान पर दलित बुद्धिजीवी अथवा भिक्षु कर्मकाण्डों को सम्पन्न करवाता है। दलित ब्राह्मणों इस नियन्त्रण से दूर होकर खुश है। संस्कार और विचार के नाम पर दलित राम, कृष्ण, दुर्गा और भूतों, प्रेतों से मुक्त हुआ है। तीज त्यौहारों का रूपान्तरण हुआ है। आज राजनैतिक रूप से दलित जातियों का ध्रुवीकरण हुआ है। अन्ध भक्तों की तरह दलित बसपा व सुश्री मायावती को ही वोट देता है। सुश्री मायावती दलित जातियों की इसी जागरूकता की वजह से मुख्यमंत्री बनी एवं प्रधानमंत्री बनने की जुगत में हैं। अनेक धर्म परिवर्तन चक्रो, परिवर्तन स्थलों, आम्बेडकर ग्रामों, आम्बेडकर सड़कों आम्बेडकर पार्को, काशी राम परियोजनाओं के उपरान्त भी दलित जातियों की गरीबी उन्मूलन की कोई ठोस परियोजना व आन्दोलन का विकास सम्भव नहीं हो सका है। बस, केवल एक 'प्रश्नोत्तर’ कि दिल्ली की कुर्सी प्राप्त होने पर ही दलितो उत्थान हो सकता है। जाति प्रथा उन्मूलन तो दलित नेताओं के एजन्डे में अब रहा ही नहीं है। बहुजन से सर्वजन का सफर स्वार्थपरता का सफर है। यह राजनैतिक रणकौशल है। यह एक राजनैतिक गठबन्धन की राजनीतिक हैं।

यह दलित गरीब है तो उसका कारण है कि उसके पास उत्पादन के साधन नहीं हैं। दलितो की सरकार न तो उन्हें खेत दे रही है, और न संसाधन दे रहीं हे तो तमाम ये झूठी परियोजनाएं, जिससे दलित सिर्फ मुगालते में रहे, भ्रम में जिये। इन परिस्थितियों के लिये सिर्फ दलित राजनीति और दलित राजनैतिक दल ही जिम्मेदार नहीं है। दलितों को सिखाने वाले बहुत सारे दलित अधिकारी, दलित प्रबन्धन, दलित बुद्धिजीवी और दलित आन्दोलनकारी भी है, जो उनके हितों के लिये कोई भी ठोस कदम नहीं उठाते, और न ही सही आन्दोलन विकसित होने देते है। और तो और, ये दलित नेतृत्वकर्ता दलितो में क्रांति की चिन्गारी नहीं भरते तथा सही क्रांतिकारी लाइन पैदा होने से रोकते है। ऐसा इसलिये, क्योंकि सच्ची क्रांतिकारी लाइन सुश्री मायावती व बसपा का विकल्प तैयार करने की क्षमता रखती है तथा इन धोखेबाज, अवसरवाद, यथास्थितिवादी, स्वार्थी दलित नेतत्व व बुद्धिजीवियों को भी धूल चटा सकती है। सच्ची क्रांतिकारी लाइन के विकसित होने से दलित अपने दोस्त और दुश्मन को पहचान सकेगी। दलित जनता यह जान लेगी कि आरक्षण की पूरी सुविधायें नव-संभ्रान्त दलितों को ही मिलती है। इस अनुपातिक श्रेणी के लाभ से कुछ थोड़े से संभ्रान्त दलित ही पैदा होते है, जो खूबसूरती से अपने अवसर को बनाये रखने के लिये अपनी जातियों के गरीबों में भ्रम की स्थिति पैदा करते हुए उन्हीं के मध्य अपनी विचारधारा के अनुसार उन्हीं को गुमराह करने में लगे रहते है, जिससे गरीब वर्ग इनसे इतर कहीं जा न पाये। अब ऐसी परिस्थिति पैदा हो चुकी है और दलित वर्ग इतना तैयार हो चुका है कि वह अपना नेतृत्व पैदा कर सकता है तथा जाति प्रथा के साथ-साथ शोंषण मूलक व्यवस्था को भी उखाड़ फेक सकता है।

आरक्षण से ही जुड़ा एक दूसरा सवाल भी है, और बहुत महत्वपूर्ण भी है, वह है-जाति प्रमाण-पत्र। जाति प्रथा एवं जातिवादी व्यवस्था के पोषक ब्राह्मणवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकने का दम भरने वाली दलित जनता खुद जाति प्रमाण-पत्र बनवा कर अपने दलित होने का प्रमाण देती है। कोई चमार, कोई पासी, कोई कोरी, कोई धोबी। यह प्रमाण-पत्र ही आरक्षण के मुख्य आधार हैं। बहुत खुशी -खुशी बड़े शौक से दलित अपने बेटे-बेटियों का जाति प्रमाण-पत्र बनवाता है। घर के अन्दर इनके बच्चे जाति प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने का विरोध करते हैं। बच्चे स्कूल कॉलेजों में जाति नहीं बताना चाहते है। उन्हें जाति बताना बुरा लगता है। वे एस सी\एस टी तथा उपजाति लिखने या बताने के पक्ष में बिल्कुल नहीं होते है। एक तरह से, वे जाति प्रथा का विरोध कर रहे होते हैं। उम्मीद है कि यदि उन्हें बचपन से ही जातिप्रथा के विरोध में संघर्ष करने के तैयारी के लिये तैयार किया जाये, तो वे निश्चित रूप से अपने युवावस्था तक आते-आते जाति प्रथा उन्मूलन के लिये विगुल फूंक देगें। किन्तु हम जबरदस्ती जाति प्रमाण-पत्र बनवाने के लिये उनसे कहते है कि इससे तुमको नौकरियों में छूट मिलेगी। जो पीढ़ी सही सीख देने से जाति प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ सकती है, हम उसी के हाथ में आरक्षण की बैशाखी पकड़ा देते हैं। कुसंस्कृति का शिकार बना देते है। हीनता बोध से भर देते हैं। वह नौकरी और आरक्षण के मोह में संघर्ष की संस्कृति को त्याग देता है, अवसरवादी हो जाता है, लक्ष्य के प्रति सचेत नहीं रहता है, लापरवाही की लचर संस्कृति उसका पीछा करने लगती हैं। क्या दलित क्रांतिकारी, दलित चिन्तन, दलित बुद्धिजीवी, दलित संगठन व दलित आन्दोलनकारी अथवा दलित राजनीति के नेता यह बता सकने में समर्थ होंगे कि जब हम ब्राह्मणवाद का विरोध करते है, सोपानक्रम जाति व्यवस्था के खिलाफ है, ऊँच-नीच मिटाना चाहते हैं, गैर बराबरी की व्यवस्था खत्म करके डा.आम्बेडकर द्वारा उल्लिखित समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व की ‘एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धान्त’ को लागू करना चाहते हैं तो खुद जाति प्रमाण-पत्र क्यों बनवाते है ? हम जाति प्रमाण-पत्र बनवाकर खुद को शुद्र, चमार, धोबी, पासी, कोरी, खटिक, धानुक, भंगी क्यों साबित करते है ? क्या यह विचित्र नहीं है कि हम खुद अपने का चमार-धोबी होने का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करें और सवर्ण जातियों से यह उम्मीद करे कि वे उन्हें धोबी, पासी, चमार और भंगी न कहे तथा स्वयं को भी ब्राह्मण -ठाकुर मानना या कहना छोड़ दें ? यदि सवर्ण जातियां ऐसा नहीं करती है तो दलित जातियों का आरोप रहता है कि ये परम्परावादी होते है, ये ब्राह्मणवाद छोड नहीं सकते है। यह है ‘दलितों का विचित्रवाद’। जिनको अपनी जाति से हीनता का बोध होता है, जाति की वजह से नीच समझे जाते है, उनसे छुआछूट किया जाता है, चमार व भंगी शब्द गाली सा प्रयोग किया जाता है, इन शब्दों को बहुत ही गलत अर्थों में प्रयोग किया जाता हैं। ऐसी घृणित स्थिति के उपरान्त भी ‘दलित यथास्थितवादी अवस्थिति’ से दूर नहीं हो पाता हैं। किसी जड़ता से दूर होना और दूर होने की सोचना एक दूसरे से संबन्धित तो है परन्तु क्रिया की स्थिति में एक दूसरे के विपरीत भी है। दलित आज अपने मूल चिन्तन के विरूद्ध क्रियाशील है। जहाँ उसे अपनी जाति छोड़ देनी चाहिए, वहीं वह अपनी जाति का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत कर दलित बना हुआ हैं।

यदि दलित बुद्धिजीवी इस सवाल को तत्काल हल नहीं करता है तो जाति प्रथा उन्मूलन के लिये न तो दलित जनता तैयार हो पायेगी और न ही जाति प्रथा उन्मूलन हो पायेगा। डॉ। आम्बेडकर यदि कम्युनल एवार्ड के स्थान पर आरक्षण लेकर अपना जंग हार गये थे, तो उस हारे जंग को दलित कब तक ढोता रहेगा। आरक्षण व जाति प्रमाण-पत्र दलित के जाति प्रथा उन्मूलन की लड़ाई में बाधक है। दलितों को आरक्षण पर आश्रित रहना और जाति प्रमाण-पत्र को पीठ व मस्तक पर चिपकाये घूमना बन्द कर देना चाहिए ।

मानता हूँ यह प्रश्न कठिन है। आरक्षण छोड़ देने पर आप विकल्पहीन महसूस करते हैं। ऐसा लगता है जैसे न आप घर के रहे न घाट के तो क्या, जाति पहचान-पत्र लिये हमें घूमते रहना चाहिए ? तो क्या, इस पर विमर्श नहीं हो सकता है ? क्या विमर्श विकल्प का आधार नहीं है ? मुख्य क्या है-जाति प्रथा उन्मूलन अथवा जाति प्रमाण-पत्र के आधार पर आरक्षण ?

ब्राह्मणवादी व्यवस्था में बने रहकर आरक्षण से काम चल रहा , तो जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की क्या जरूरत ? यदि स्वाभिमान चाहिए, पूंजीवादी शोषण से मुक्ति चाहिए तो जाति प्रथा से लड़ने की जागरूरकता दलितों में पैदा करना पड़ेगा। मुझे लगता है, यदि नव-सम्पन्न दलित व अवसरवादी नेतृत्व दलितों को गुमराह न करें, तो दलित शीघ्र अति शीघ्र वह जागरूकता हासिल कर लेगा, जिससे वह अपनी लड़ाई इन ब्राह्मणवादी शक्तिओं से जीत सकता हैं ।

आर. डी. आनंद

देश आर्थिक रूप से गुलाम हो गया है .............

एक आजाद देश की नदी, खदान जमीन, जंगल, जल, पहाड़, बीमा क्षेत्र बैंक और सार्वजनिक निगम तक को देशी-विदेशी कम्पनियों के हाथों बेचा जा रहा हैं तब हम कैसे आजाद हैं ? एक समय इसे यह कहकर निजी हाथों से छिना गया कि यह 'राष्ट्र' की सम्पति है इसी राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर हमने परमाणु बम तक बना डाला हमारी सैन्य शक्ति का आकार भी काफी बड़ा है। हमारा दे सैनिक व्यय के मामले में दुनिया में नवें स्थान पर है। जबकि मानव विकास सूचकांक में 134 वें स्थान पर है। जब हम सारे संसाधनों को बेच डालेगें तो हमारी आजादी, सम्प्रभुंता का मतलब ही क्या हैं ? फिर हम किसकी रक्षा करेगें। जो लोग सोचतें है कि गुलामी की घोषणा टी.वी. अखबारों से होगी अब ऐसा न ही होगा यह गुलामी अपने हुक्मरानों द्वारा लादी जायेगी।

इसी गुलामी के खिलाफ अपनी आजादी को बचाये रखने और अपने प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार रखने के लिये देश भर में किसान, खेत मजदूर, आदिवासी जगह-जगह लड़ रहे हैं। 9 अगस्त 2010 को मऊ कलेक्ट्रट में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ दिवस पर आयोजित कार्यक्रम स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों को हक दो धरने को सम्बोधित करते हुए सच्ची मुच्ची के सम्पादक अरविंद मूर्ति ने कही उन्होंने कहा कि प्रकृति, पर्यावरण और जन संघर्षो को रोकने बचाने का एक मात्र तरीका है। स्थानीय संसाधनों स्थानीय लोगों का हक हो। परन्तु सरकार यह मानने को तैयार ही नही हैं। और वह इन सारे संसाधनों को दे
शी-विदेशी पूंजीपतियों को बेच रही है। इस पूरी लूट को देश की संसद के द्वारा वैधता दी जा रही है। जो खुद इनके हाथों बिक्री हुई हैं।

धरने को पी.यू.एच.आर. के जोनल सचिव वसन्त राजभर ने सम्बोधित करते हुए कहा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक दे
का प्रधानमंत्री जनता के द्वारा नहीं चुना जाता है। यह लोकतंत्र के लिये दे के लिये र्म की बात है मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद की तनख्वाह दे से नहीं लेते बल्कि अमेरिका से पें लेते है। धरने को विजय सिंह हैवी ने सम्बोधित करते हुए कहाकि आपरे ग्रीन हंट के नाम पर निर्दोष गरीब आदिवासियों का सरकार कत्ल कर रही है जबकि वे अपने संसाधनों पर अपने हक की मांग कर रहे है। यह पूरी व्यवस्था अमीरों दंबगों के पक्ष में खड़ी है इसका ताजा उदाहरण हर के नर्सिंग होम के मैले के टैंक में मरे तीन गरीब सीवर सफाई कर्मियों की मौत का हैं। जब यह काम कानून अपराध है। तो इसे करवाने वालो पर आज तक कार्यवाही क्यों नहीं हुई। धरने को हाजी अनवारूल हक, का रामनवल आदि ने भी सम्बोधित किया धरने में विनय कुमार, सुखराम राजभर, हाजरा खातून, अवधेश कुमार साहनी, राजकुमार, इनौस के का0 अर्जुन सहित कई प्रमुख साथी शमिल रहे धरने का आयोजन जन आन्दोलन का राष्ट्रीय समन्यव पी0यू0एच0 आर0 मूवमेंट फार राइट ने किया।

विनय कुमार मऊ

मेरी चीन यात्रा

(फैज जमाल द्वारा अंग्रेजी में लिखे गए लेख का शोभा शुक्ला द्वारा हिंदी अनुवाद)

18 जून 2010 की उस सुहानी सुबह को में किस तरह भूल सकता हूँ। में अपनी पहली विदेश यात्रा शुरू करने के लिए हौंग कांग हवाई अडडे पर खड़ा था। अप्रवास की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद में एक पब्लिक फोन बूथ की तरफ बढ़ा। मुझे शेन जेन निवासी अलेक्स से बात करनी थी, जिसे मेरे परम मित्र शुन मियां ने वहां मेरी अगवानी के लिए प्रयुक्त किया था। शुन मियाँ से मैं एक साल पहले मिला था। दिल्ली के हिन्दू कालेज में वह मेरे फिलोसोफी आनर्स क्लास का सहपाठी था। हम लोग शीघ्र ही अभिन्न मित्र बन गए थे। दशहरे की छुट्टियों में, मैं उसके गाइड और दुभाषिये के रूप में उसके साथ बनारस, सारनाथ, कोलकाता, पटना, बोध गया और लखनऊ घूमा। उसने मुझसे वायदा किया कि जब कभी भी मैं चीन आऊँगा तो वो भी मेरी मेजबानी करेगा। यह प्रस्ताव वाकई में आकर्षक था, और पहला मौका मिलते ही मैंने इसका लाभ उठाने का निश्चय हैं ।

हांग कांग हवाई अडडे से मैंने अलेक्स को फोन करने की कई बार नाकामयाब कोशिश की। पर फोन था कि लग ही नहीं रहा था और मेरा पर्स भी इस कोशिश में हल्का हो रहा था। मेरी इस परेशानी को वहां खड़ी एक काली महिला ने शायद भाँप लिया। उसने अपना मोबाइल फोन मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने वाकई राहत की सांस ली, उस अनजान महिला का तहेदिल से शुक्रिया अदा किया और अलेक्स से बात करने में सफल हो गया। बात चीत के दौरान उस महिला ने बताया कि वो एक मेक्सिकन एयर लाइन में काम करती है। मुझे नौसिखिया जान कर उसने मुझे कुछ हिदायतें भी दीं। मसलन कि मुझे अपना पर्स सामने वाली जेब में रखना चाहिए, तथा सावधान रह कर यात्रा करनी चाहिए, क्योंकि काले लोगों के लिए यह दुनिया बहुत बेदर्द है। शायद यह सच उसकी भी आपबीती थी।

मैं बस द्वारा शयूंग शुई पहुँच गया, जो हौंग कांग की ईस्ट रेल लाइन का एक रेलवे स्टेशन था तथा एअरपोर्ट से एक घंटे की दूरी पर था। सुबह की ठंडी हवा और ऊँची अट्टालिकाओं के पीछे पहाड़ियों के अदभुत नजारे ने मन को खुशी भर दिया। शयूंग शुई से मुझे हौंग कांग और चीन की सीमा पर स्थित लो वू नामक स्थान पर पहुँचने के लिए दूसरी ट्रेन पकड़नी थी। चीन से आने जाने वाले यात्रियों के लिए लो वू काफी प्रचलित इमिग्रेशन कंट्रोल पाइंट है। अलेक्स ने मुझे बताया था कि शयूंग शुई से लो वू अगला स्टेशन है तथा वहां पहुँचने में मुझे केवल 6 मिनट का समय लगेगा। परन्तु मैं शायद गलत ट्रेन में बैठ गया था। जब मैं ट्रेन से उतरा तो वो तो कोई और ही स्टेशन निकला। मैं दुबारा जल्दी से उसी ट्रेन में, जो शयूंग शुई वापस जा रही थी, चढ़ गया। फिर सही ट्रेन में बैठ कर लो वू पहुंचा। वहां इमिग्रेशन चेकपोस्ट पर मेरे पासपोर्ट पर स्टैम्प लग गया, और लो वू पुल पार करके मैं मेनलैंड चाइना में शेन जौन पहुँच गया ।

शेन जौन वास्तव में चीन के उदारीकरण काल का ज्वलंत उदाहरण है। विगत में मछुआरों का जो एक छोटा सा गाँव था, वो चीन का प्रथम विशेष आर्थिक जौन बन कर आज दुनिया का एक तेज रफ्तार महानगर है। इसके विस्तार के वर्णन में कहा जाता है कि ‘प्रतिदिन एक गगनचुम्बी इमारत, और तीन दिनों में एक मुख्या मार्ग’, इस शहर में २०० मीटर से अधिक ऊँची १३ इमारतें हैं, जिनमे से शुन हिंग स्क्वैर विश्व भर में नवीं सबसे ऊँची इमारत हैं , यहाँ विश्व की बड़ी बड़ी हाई टेक कंपनियों के दफ्तर हैं, तथा अनेकों विदेशी आई. टी. कम्पनियां भी यहाँ से कारोबार करती हैं। यहाँ मुझे कई भारतीय भी दिखाई पड़े, जिनमें कुछ तो पर्यटक थे और कुछ व्यापारी लग रहे थे। एक गुजराती व्यापारी श्री शंकर ने तो मुझसे मेरे बिजनेस के बारे में भी पूछा, जब मैंने उन्हें बताया कि मैं तो केवल घूमने और नए-नए लोगों से मिलने के उददेश्य से आया हूँ तो वे बहुत प्रभावित हुए, उनके अनुसार इतनी कम उमर में अकेले घूमने के लिए बहुत साहस चाहिए ।

अलेक्स ने फोन पर मुझे बताया कि चे मिन नामक व्यक्ति मुझे स्टेशन से ले जायेगा। कुछ समय बाद मुझे एक चीनी व्यक्ति किसी को ढूँढता हुआ सा दिखाई दिया, मेरे पास आकर उसने मुझसे पहले तो मेरे भारतीय होने की पुष्टि की, फिर बताया कि वो शुन मियाँ का दोस्त है तथा मुझे लेने के लिए आया है। मेरी संतुष्टि के लिए उसने शुन मियाँ का नाम और फोन नंबर अपने मोबाइल पर दिखाया। चे मिन के साथ बुलेट ट्रेन में बैठ कर हम 147 किलोमीटर की यात्रा एक घंटे से भी कम समय में पूरी करके अपने गंतव्य पर पहुंचे। चे मिन को अंग्रेजी न के बराबर आती थी, पर मैं यह तो जान ही गया कि वो भी एक महीने के बाद मेरे और शुन मियाँ के साथ भारत आकर दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला था।

स्टेशन से शुन मियाँ के घर तक पहुँचने में 2 घंटे लग गए। परन्तु शुन मियाँ तो नदारद थे, वे अपने होम टाउन गए हुए थे तथा 7 दिनों के बाद लौटने वाले थे। तब तक मुझे उनके बड़े भाई शुन हुआंग के साथ रहना था, जो बढ़िया अंग्रेजी जानते थे। हम सबने एक ढाबे में 700 युआन में भरपेट स्वादिष्ट कैंटोनिस स्टाइल सी फूड भोजन किया। अगली सुबह मैं प्रान्त की राजधानी इस शहर में घूमने निकला। मेरे गाइड शुन हुआंग थे। यह शहर पर्ल नदी (जो दक्षिण चाइना सी में जाकर मिलाती है) पर बसा हुआ एक मुख्य बंदरगाह है, मैंने कहीं पढ़ा था कि यह चीन का तीसरा सबसे घनी आबादी वाला शहर है, परन्तु सडकों पर ऐसी कोई भीड़ भाड़ नहीं थी, छुट्टी का दिन न होने पर भी सडकों पर बहुत कम यातायात था। दिल्ली के ट्रेफिक जामों से त्रसित होने के बाद यह मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य था। सड़कें साफ सुथरी थीं। कहीं पर भी कोई कूड़ा करकट नजर नहीं आ रहा था। एक धनी महानगर होने के कारण आस पास के गाँवों से कई किसान यहाँ की फैक्टरियों में काम की तलाश में आते हैं, पर मुझे कोई भी शक्स मैले कुचैले कपड़े पहने नहीं दिखाई दिया, न ही कोई भिखारी या झुग्गी झोपड़ी दिखाई पड़े।

एक दिन के बाद शुन मियाँ अपनी माँ और एक चचेरी बहन के साथ वापस लौट आये। उनकी माँ को मैं बहुत पसंद आया, और वो मुझसे मिल कर बहुत खुश हुई। अगले 10 दिन मैंने इस हंसमुख और बातूनी महिला के साथ बहुत खुशगवार बिताये, वे खाना भी बहुत ही उमदा पकाती थीं, अंग्रेजी न जानते हुए भी वो लगातार मुझसे चीनी भाषा में बात करती थीं, और शुन मियाँ की बहन अनुवादक का काम करती थी। एक सच्चे पर्यटक की तरह मैं बरसाती और चिपचिपे मौसम की परवाह किये बगैर रोज नई-नई जगहों पर घूमने जाता। शुन मियाँ तो हमेशा अपने दोस्तों से घिरे रहते, क्योंकि वो दो साल बाद घर लौटे थे। एक दिन मैं उनके साथ उनके एक दोस्त के घर गया जो पुराने शहर की तंग गलियों के बीच था, जो मुझे चांदनी चौक की याद दिला रहीं थीं। परन्तु बिल्डिंग के मुख्य द्वार पर पहुँचते ही नजारा बदल गया। घरों के दरवाजों पर इलेक्ट्रोनिक स्मार्ट कार्ड वाले ताले थे जैसे बड़े बड़े होटलों में हुआ करते हैं। नागरिक रख रखाव भी बहुत बढ़िया था।

मैंने यह भी पाया कि अधिकतर लोगों का आर्थिक स्तर उच्च मध्यम वर्गी अथवा उच्च वर्गी तथा न तो कोई भिखारी नजर आया न ही कोई आडम्बरपूर्ण धनाडय- अधिकतर लोग सरकारी आवासों में किराए पर रहते हैं। मेरे दोस्त के भाई के पास 3 बेडरूम का बड़ा मकान था जिसका किराया 700 रुपये मासिक था। मुख्य मेहमानों को पिलाना अपने लघु कालिक चीन प्रवास में मैं चायनीज चाय एवं उसको पेश करने की रोचक प्रणाली से अत्यधिक प्रभावित हुआ। चीन में चाय पीना एवं मेहमानों को पिलाना एक ललित कला ही है। किसी भी होटल में जाने पर, पानी के बजाय, पारंपरिक ढंग से चाय पेश की जाती है। पर यह बिना ढूढ़ की चाय होती है, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। इस चाय का इस्तेमाल, चीनी खाने में प्रयुक्त होने वाले बाउल और चौप स्टिक्स धोने के लिए भी किया जाता है। वहां की चायदानी का आकार हमारे यहाँ प्रयुक्त होने वाली शक्कर दानी से काफी मिलता जुलता है। खौलता हुआ पानी, चाय दानी में पड़ी चाय की पत्ती में डालने के लिए हमेशा तैयार मिलता है। चायदानी और हमारे यहाँ के मिटटी के कुल्लहड़ के आकार के छोटे प्याले एक विशेष प्रकार की लकड़ी की छिद्रित ट्रे में रख कर मेहमानों को परोसा जाता है। प्यालों को पहले ताजा तैयार हुई चाय से ही खंगाला जाता है। यह चाय ट्रे के छिद्र से बह कर, नीचे लगी हुई एक दूसरी ट्रे में एकत्रित करके फेंक दी जाती है। लकड़ी की ट्रे को कभी धोया नहीं जाता, क्योंकि चीन में यह मान्यता है कि जब उस लकड़ी में चाय की सुगंध आ जाती है तब वो बहुत शुभ हो जाती है। मेरे दोस्त ने मुझे भी, चाय पत्ती समेत, एक पारंपरिक टी सेट भेंट में दिया है, और मैं उस ट्रे के शुभ होने का इंतजार कर रहा हूँ ।

कभी कभी मैं केवल घर पर रह कर या तो कोई फिल्म देखता, या फिर शुन मियाँ की माँ से संकेत भाषा में बात करता। जब वो अपना हैण्ड बैग मेरे सामने लहरातीं तो मैं समझ जाता कि आज मुझे उनके साथ सब्जी और मछली खरीदने बाजार जाना है। सब्जी मंडी में भी वो मेरी पसंद पूछे बिना न रहती। ओ। के। शब्द का अर्थ वो समझती थीं- अधिकाँश चीनी बतख का गोश्त खाना पसंद करते हैं। परन्तु उन्हें पता था कि मुझे मुर्गी अधिक पसंद है। इसलिए वो मुर्गी और बतख दोने ही खरीदतीं ? इस प्रकार हम एक दूसरे की भाषा न जानते हुए भी मजे में सांकेतिक वार्तालाप का आनंद उठाते।

शुन मियाँ के दोस्तों, रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से चाय के अनगिनत प्यालों के साथ बढ़िया गपशप होती। हमें एक दूसरे की संस्कृति एवं सामाजिक मूल्यों को जानने समझने के अनेक अवसर मिले। भारत-चीन के राजनैतिक सम्बन्ध भले ही बहुत अच्छे न रहे हों, पर चीन के नागरिकों का व्यवहार हम भारतीयों के प्रति बहुत ही सहृदय एवं सम्मानजनक है। वे हमारे यहाँ के स्वामित्व अधिकार ढाँचे को समझने के लिए काफी उत्सुक दिखे। वे हमारी टाटा कम्पनी से बहुत ही प्रभावित थे, क्योंकि यह कम्पनी स्टील, मोटर कार और दूर संचार जैसे विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी हुई हैं।

मुझे वहां एक और आश्चर्यजनक बात पता चली, पाश्चात्य देशों को भेजा जाने वाला चीनी सामान, भारत के बाजारों में बिकने वाले सस्ते और घटिया चीनी सामानों के मुकाबले कहीं अधिक उत्तम कोटि का होता है। यहाँ तक कि हमारे देश में बिकने वाले सस्ते चीनी मोबाइल फोन तो चीन में भी कहीं नहीं मिलते।

चीनवासियों के मन में भारतीय डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनिस, (जो सन 1938 में दूसरे चीनी-जापानी युद्ध के दौरान चिकित्सीय सहायता प्रदान करने के लिए चीन भेजे गए थे) के प्रति बहुत श्रद्धा है। वे एक अच्छे डॉक्टर होने के साथ साथ चीन भारत के बीच मैत्री सम्बन्ध एवं सहकारी को बढ़ावा देने में भी अग्रणी थे। अपने पर्यटन के दौरान मैंने एक पहाड़ी पर अनेकों लाल झंडे एक डंडे से बंधे हुए देखे जो चीनियों द्वारा अपनी मन्नत पूरी हों एक लिए बांधे गए थे। एक ट्रांसमिशन टोंवर के नीचे मैंने कई ताले भी बंधे देखे, क्योंकि स्थानीय मान्यता के अनुसार अगर नव विवाहित जोड़ा वहा ताला लगाता है तो उसका वैवाहिक जीवन सुरक्षित और दुरुस्त रहता हैं।

मैंने पर्ल नदी और guangzhou शहर में स्थित सन यात सेन विश्वविद्यालय और प्राणी उद्यान के भी दर्शन किये, इसी शहर में सोलहवें एशियन गेम्स आगामी 12-27 नवम्बर को होने वाले हैं, जो दिल्ली में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स के करीब एक महीने बाद होंगे परन्तु जहाँ हम अभी तक सड़के बनाने, मलबा हटाने, एक दूसरे पर दोषारोपण करने और बाकी तैयारियाँ पूरी करने में लगे हुए हैं, वही guangzhou शहर बहुत पहले से ही पूरे साजो सामान के साथ नवम्बर आने की प्रतीक्षा कर रहा है। प्रत्येक स्पर्धा स्थल और भवन नए अंदाज में चमक रहा है, और फूल पौधे खिलाडियों के स्वागत में प्रतीक्षारत हैं- गेम्स का प्रतीक चिन्ह शहर के मुख्य केंद्र पर प्रदर्शित किया जा चुका है, और उसके पास एक डिजिटल घड़ी भी लगी है जो गेम्स के भव्य आरम्भ में बचे हुए समय की सूचना निरंतर दे रही हैं।

मेरा चीन का 15 दिवसीय प्रवास वास्तव में अद्वितीय एवं अविस्मरणीय था। मुझे एक स्नेही परिवार के मध्य रहने का मौका मिला, और यह सुखद अनुभव मैं जीवन पर्यंत नहीं भूलूंगा। वहां रह कर मैंने चीनी रहन सहन को बहुत बारीकी से देखा और परखा- जिस प्रकार वहां आधुनिकता और परंपरा का समन्वय किया गया है वह वास्तव में अनुकरणीय है। भारत और चीन का लक्ष्य तो कदाचित एक ही है, जन साधारण का कल्याण एवं समृद्धि, परन्तु शायद हमारे रास्ते अलग अलग हैं।

दोस्ती के अलावा विकल्प क्या ...?

मेरे परिवार में कुछ लोग बंटवारे के समय पाकिस्तान के कराची जा बसे। बंटवारे और हिंसक पलायन ने दोनों देशों के लाखों लोगों के दिलो-दिमाग पर गहरा प्रभाव भी डाला। मेरे माता-पिता परिवार वालों से मिलने भी गये। उस समय में छोटा था और तब मुझे पाकिस्तान से बड़ा दुश्मन कोई नहीं मालूम होता था। मैं अपने पिता जी से कहा करता कि मैं कभी भी पाकिस्तान नहीं जाऊँगा, यह भी कोई जगह है ? लेकिन जब मैंने होश संभाला तो मालूम चला कि बंटवारे के जख्म दोनों देशों के अवाम के लिए कितने हरे हैं। धीरे-धीरे जब साहित्य में रूची हुई तो भारत- पाकिस्तान के बंटवारे पर कहानियां और उपन्यास पढ़ने को मिले, उन्हीं में से एक था ’दी ट्रेन टु पाकिस्तान’। यह कौन नहीं जानता कि अगस्त १९४७ के पहले भारत और पाकिस्तान एक देश थे।

अभी हाल ही में मुझे भारत-पाकिस्तान शांति कारवां में शामिल होने का अवसर प्राप्त हुआ। जब इस शांति कारवां के बारे में लोगों को मालूम होता तो वह यही कहते कि यह दोनों देश गु - लकड़ी करते रहेंगे। गेट वे ऑफ इंडिया से शुरू हुआ यह कारवां गुजरात के वलसाड, नवसारी, सुरत, भरूच और नमक सत्याग्रह की सूचक रही दांडी और अन्य राज्यों से होते हुए वागाह बांर्डर तक जायेगा। जगह - जगह हमारे इस कारवां का रंगा-रंग कार्यक्रमों से स्वागत हुआ, उस मंजर को इतने कम शब्दों में बयां कर पाना कठिन है। अधिकतर लोगो ने इस कदम कि सराहना की लेकिन कुछ लोग ऐसे भी टकराए जो अमन के इस कदम में निराशा का भाव देख रहे थे।

गुजरात में मुझसे एक महोदय ने कहा कि इस कारवां की क्या जरूरत है, पाकिस्तान दाऊद को पाले हुए है। मैंने उन्हे समझाया कि देखिए महोदय भारत पाकिस्तान के बीच १९४७, १९६५, १९७१ और कारगिल मिलाकर चार युद्ध हुए हैं, पांचवा युद्ध किसे मंजूर है। अच्छे-बुरे लोग तो हर जगह हैं। वह जनाब स्कूटर स्टार्ट कर चलते बने। इस यात्रा में विभिन्न राज्यों के लोग शामिल हुए, कारवां आगे बढ़ता जा रहा था और हम भारत-पाकिस्तान के संबंधों और उससे जुड़ी समस्याओं के समाधान पर विचार-विमर्श कर रहे थे। जब हमारा पढ़ाव गुजरात के भरूच में हुआ तो मुझे वहां कि जनता से मुकातिब होने का अवसर प्राप्त हुआ। जब सगे संबंधियों के शरीर में रक्त एक है तो सरहदें क्यों, दोनों सरकारों की नीतियों में जनता क्यों पिसे। सीमा के आर-पार लोगों का आवागमन आसान हो जाए, न कोई पासपोर्ट हो और न ही कोई वीजा। कश्मीर के मसले को इससे जोड़ कर नहीं देना चाहिए।

एक दूसरे को नीचा दिखाने की चाहत और बदला लेने की भावना ने दोनों देशों की शांति को भंग कर दिया है। वास्तविकता तो यह है कि भारत और पाकिस्तान एक दूसरे के पड़ोसी हैं, जैसा मैं समझता हुं, पड़ोसी कैसा भी हो उसके साथ रहना एक विश्वता है क्योंकि आप मित्र तो बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं बदला जा सकता। हमारा एक हजार साल से ऊपर का साझा इतिहास, संस्कृति और परंपरा है। हमें सोचना पड़ेगा कि इतना सब कुछ सांझा होने के बावजूद ऐसा क्या है जो हमें बांट रहा है। क्या हम अनंत काल तक एक दुसरे का खून बहाते या फिर चूस्ते रहेंगे। अगर उत्तर है नहीं तो प्रश्न यह उठता है कि फिर क्यों न एक अच्छे पड़ोसी की तरह रहा जाय। क्या यह संभव है। मुझे दोनों तरफ के राजनीतिज्ञों, सेना से कोई उम्मीद नहीं है। इस संबंध में दोनों देशों की सिविल सोसाईटी को पहल करनी होगी।

हाल ही में एस.एम. कृष्ण पाकिस्तान गये थे उन्होंने कहा था कि भारत एक स्थिर और मजबूत पाकिस्तान देखना चाहता है और मुझे विश्वास है कि मेरी यात्रा से सकारात्मक परिणाम निकलेंगे मगर आप सोच रहे होंगे कि रिश्ते तो वहीं हैं ढाक के तीन पात। चरमपंथी गुट हमेशा यही मनसूबे बनाएंगे कि दोनों देशों के हालात कभी बहतर न हों लेकिन लोकतंत्र में तय तो जनता को करना है। मैं इस यात्रा में बापू की सरजमीं दांडी, जहां से नमक सत्याग्रह शुरू हुआ था अपने साथियों के साथ मन में यह विश्वास और भरोसा लेकर आया हुं कि दोनों देशों के रिश्ते मजबूत होंगे। तब न तो कोई आतंक फैलाने वाला होगा और न ही कोई बांटो और राज्य करो नीति के तहत नफरत का बीज बोने वाला।

हमें इतिहास की गठरी जो विरासत में मिली है उसे रददी की टोकरी में फेंकना होगा। एक दुसरे की इज्जत करना सीखना होगा। दोनों तरफ से बगैर किसी रूकावट के आवागमन होना चाहिए। साहित्य शिक्षा, विज्ञान एवं तकनीकी, स्वास्थ्य के क्षेत्र में आदान प्रदान होना चाहिए। कलाकारों, फिल्मों का आदान प्रदान होना चाहिए। दोनों देशों के बीच वाणिज्य का विस्तार होना चाहिए। मैं यह नहीं कहता की इन उपायों से सारी समस्याओं का हल निकल आएगा, लेकिन धीरे-धीरे आपसी समझदारी और सहयोग के लिए वातावरण का निर्माण हो सकता है जैसे युवा फिल्म निर्देशक संजय पुराण सिंह चौहान ने अपनी फिल्म ‘लाहौर‘ में कर दिखाया है। अमन के बढ़ते कदम ऐसे ही बढ़ेंगे, हो सकता है कभी निराशा हाथ लगे जैसे अब तक लगती आई है, कुछ लोग इस लेख को पढ़ने के बाद भी कहेंगे कि यह काम इतना आसान नहीं है, लेकिन मैं तो यही कहुंगा की हमारे पास विकल्प भी क्या है ?

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं
सैय्यद अली अख्तर

भ्रष्टाचार के जाल में फंसा राष्ट्र

आज इस संसार में चारों तरफ भ्रष्टाचार विद्यमान हैं। भ्रष्टाचार से हम अपने राष्ट्र को बचा नहीं सकते हैं। क्योंकि कुछ भ्रष्टाचार ऐसे है, जो लोग भ्रष्टाचार को रोकने वाले हैं, वो ही लोग भ्रष्टाचार करते है। पुलिस जब किसी आतंकवादी को पकड़ती है तो उससे रूपये या रिश्वत लेकर उसे छोड़ देती है और गरीब व्यक्ति को आतंकवादी बनाकर, उसे जेल में बन्दकर, उसे यातनायें देती है। इस जगह पर भ्रष्टाचार ने कार्य किया कि एक असली आतंकवादी रूपये या रिश्वत के कारण से सजा पाने से बच गया और एक गरीब व्यक्ति को सजा मिली। यह राष्ट्र की सुरक्षा कर्मचारियों द्वारा भ्रष्टाचार है।

भगवान कहे जाने वाले डॉक्टरों के बीच भी भयंकर भ्रष्टाचार पनप रहा है। सरकारी अस्पतालों की दवाईया डॉक्टरों तथा अस्पताल में काम करने वाले कर्मचारियों की जेबों में जा रहें हैं वे पैसा लेकर दवाओं को बेच रहें है। जब गरीब जनता दवा लेने सरकारी अस्पताल जाती है, तब वे लोग कहतें है कि दवा बाहर मैडिकल स्टोर से खरीद लो, सरकार, अस्पतालों को दवा नहीं भेज रहीं है। बताइये किसकी बात सत्य है क्योंकि लोहिया अस्पताल की दवाईया मैंने स्वयं डॉक्टरों साहब को अपनी जेबों में भरते देखा है, रोकने पर कहते है आप क्या कर लेगें। यह भ्रष्टाचार लगभग सभी सरकारी अस्पतालों में विद्यमान है। अगर भगवान कहे जाने वाले डॉक्टरों और अस्पताल के कर्मचारियों में भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हुआ तो आम गरीब जनता रोटी खरीदकर जिन्दा रहेगी या दवा खरीदकर। मुझकों यह जवाब गरीब जनता की सुरक्षा करने वाली सरकार दे। क्योंकि अधिकतर गरीब जनता के पास दवाईया खरीदने के रूपये नहीं होते और उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। जो कर्ज गरीब जनता के आत्महत्या का कारण बनता है। अस्पतालों की इस भ्रष्टाचार को रोकने के लिये सरकार को उचित कार्यवाही करनी होगी क्योंकि ये भ्रष्टाचार गरीब बीमार लोगों की जान ले सकती है।

भ्रष्टाचार का यह रूप केवल यहीं तक सीमित नहीं है। जब आम जनता को यात्रा करने जाना होता है। सरकारी बसें, आटो, टैक्सी आदि चलाने वाले चालकों में भ्रष्टाचार अधिक पाया जाता है। आये दिन यात्रियों को भ्रष्टाचार से परेशान कर रहे है। सरकारी बसें, आटो, टैक्सी चलाने वाले लोग, सरकार द्वारा तय किये गये किराये से ज्यादा किराया लेते है, देने पर लड़ाई उतर आते है। और यात्रा करना आम जनता की लिये मजबूरी है। और यदि आम जनता या सरकार द्वारा यात्रा के समय हुए भ्रष्टाचार को रोका गया तो स्पष्ट हैं कि आम गरीब जनता का क्या होगा ? अगर गरीब जनता को अपने रोगी को दूर अस्पताल में ले जाना है तो उसको इस भ्रष्टाचार से कितनी मुश्किलें आती है। यह सरकार अच्छी तरह से जानती है।

भ्रष्टाचार केवल ज्यादा पढ़े लिखे लोग कर रहे है यह आपकी, हमारी एक प्रकार की भूल है अगर हम अनपढ़ लोगों के बीच जाकर देखे तो अनपढ़ लोगों में भी काफी भ्रष्टाचार विराजमान है भले ही इस भ्रष्टाचार से राष्ट्र के विकास में कोई प्रभाव नहीं पड़ता है,परन्तु अनपढ़ लोगों में जो भ्रष्टाचार है उससे उसके परिवार वालों का नुकसान निश्चित रूप से होता है। एक अनपढ़ व्यक्ति अगर दूध बेचता है एक लीटर दूध में दो लीटर पानी मिलाते हुए देखा गया है, और दूध को ऊँचे दाम पर बेचता है तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है एक अनपढ़ मजदूर अपने पैसे से शराब पीता है तथा पत्नी और बच्चों को मारता है तो क्या अनपढ़ व्यक्ति द्वारा भ्रष्टाचार नहीं है ? एक अनपढ़ व्यक्ति अपनी पत्नी तथा बच्चों का खाना छिन कर शराब पी जाता हैं, तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है ? और उस अनपढ़ व्यक्ति के बच्चे अनपढ़ रह जाते है। और इस भ्रष्टाचार से उन बच्चों का केवल पढ़ने लिखने का अधिकार ही नहीं बल्कि उनके खाना खाने का अधिकार भी छिन लिया जाता है। यह भ्रष्टाचार अनपढ़ गरीब लोगों में ज्यादा पनप रहा है, तथा परिवार के परिवार नष्ट हुए जा रहे है और हम इस भ्रष्टाचार को जानते हुए भी इसे भ्रष्टाचार नहीं मानते है तथा ऐसे अनपढ़ भ्रष्टाचारियों से उसके परिवार को बचा नहीं सकते है। उदाहरण के लिये मैंने तीन बच्चों को गुलाम हुसैन पूर्वा प्राथमिक विद्यालय में दाखिला दिला दिया १४ जुलाई २०१० को उन तीन बच्चों में से अर्चना (१३ वर्ष) नाम की लड़की के माता-पिता ने केवल अर्चना को विद्यालय जाने से रोका बल्कि उसे बुरी तरह से मारा-पीटा। मेर समझाने पर गरीबी का नाटक करते है। और अर्चना का पिता अवधेश वाल्मीकि 16 जुलाई 2010 को शराब पीकर सड़क पर गाली दे रहा था। जो अनपढ़ गरीब माँ-बाप अपने बच्चों को इसलिये नहीं पढ़ाते है क्योंकि वे गरीब है। परन्तु शराब पीने के लिये उनके पास पैसे है तो क्या यह बच्चों के प्रति भ्रष्टाचार नहीं हैं।

एक उदाहरण 16 जुलाई 2010 को एक माँ अपने एक बच्चे जिसका नाम मोना (7 वर्ष) था, उसको एक छोटी सी बात पर उठाकर जमींन पर पटक दिया, उसके मुँह से काफी खुन आधे घण्टे तक बहता रहा जब मैंने उसकी माँ से बच्चे को अस्पताल ले जाने को कहा तो वह बच्चे को मारने के लिये दौड़ाती है और कहती है, आपको इसको बचाने के लिए पैंसे मिलते होगे। तब मैंने उस बच्चे को बचाने के लिये चाइल्ड लाइन से मदद लेकर उसको लोहिया इमरजेंसी में इलाज कराया। उस बच्चे का मुँह इतना ज्यादा घायल है कि वह बच्चा लगभग एक सप्ताह तक खाना नहीं खा सकता। अब बताइये एक अनपढ़ माँ के द्वारा यह भ्रष्टाचार हैं कि नहीं, कि वे बच्चे को मार तो सकती है परन्तु विद्यालय नहीं भेज सकती है।

इसके अतिरिक्त अन्य रूपों में राष्ट्र में भ्रष्टाचार विद्यमान है। जैसे राशन की दुकान पर भ्रष्टाचार राशन कार्ड धारकों को समय पर राशन देकर राशन को ऊँचे दामों पर बेचना है। और इस प्रकार पूरे राष्ट्र में भ्रष्टाचार विद्यमान है। अगर सरकार या जनता द्वारा भ्रष्टाचार को रोका नहीं गया तो आम गरीब जनता का क्या होगा।

इस भ्रष्टाचार को रोकने के लिये कानून बनाना होगा, और अगर कानून है तो भ्रष्टाचार को रोका क्यों नहीं जा रहा है ? परन्तु क्या हम सभी परी पहल दिशा निर्दे का ही इंतजार करते रहेंगे या फिर कई बातों को लेकर भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास भी शुरू करेगें जैसा कि कानून में वर्णित है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिये कानून समाज के प्रगतिशी मूल्यों को र्शाता है। इन मूल्यो को बढ़ावा मिलना हम सभी के सामूहिक प्रयास से ही संभव है।

किरन

एड्स के बारे में प्रचलित धारणाओं को दूर करने के प्रयास हेतु ‘‘शिफा’’ नाटक मंचन का आयोजन

इलाहाबाद, 28 अगस्त। ‘‘एड्स या एचआईवी प्रभावित व्यक्ति अपनी जिन्दगी की बाधाओं को कैसे पार कर सकता है और इस बीमारी से उनको किस-किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है तथा इससे निजात पाने के लिए क्या-क्या कदम उठाना चाहिए।’’

नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, नई दिल्ली की एसोसिएट प्रोफेसर त्रिपुरारी शर्मा ने आज यहां भारतीय विद्या भवन, इलाहाबाद में मीडिया नेस्ट के कार्यक्रम ‘मीडिया फॉर चिल्ड्रेन’ में कहा कि इस भयंकर बीमारी, एड्स के बारे में प्रचलित धारणाओं को दूर करने के प्रयास के अन्तर्गत ‘रेड रिबन एक्सप्रेस’ का अभियान जारी है। इसी कड़ी में यूनीसेफ, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और भारतीय नाट्य अकादमी के सहयोग से तैयार ‘‘शिफा’’ नाटक मंचन का श्रीगणेश इलाहाबाद स्थित कला संगम सभागार में हुआ। अन्य पांच जिलों लखनऊ, बलिया, बरेली, वाराणसी व सहारनपुर में भी इस नाटक का मंचन किया जायेगा। जिसको नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के कलाकार प्रस्तुत करेंगे। जनमानस को उद्धृत करने वाला यह नाटक एड्स प्रभावी व्यक्तियों के जीवन की सच्ची कहानी पर आधारित है और इसे ट्रेन यात्रा के दौरान विभिन्न शहरों में मंचित किया जायेगा। रेड रिबन एक्सप्रेस का अभियान विभिन्न शहरों में पहुंचकर एड्स रोगियों के बारे में जनसामान्य की अवधारणाओं को निर्मूल करना है ताकि प्रभावित व्यक्तियों को भी सम्मानित नागरिक की दृष्टि से देखा जाये और उपचार में किसी प्रकार की उपेक्षा न हो सके।

कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार एवं भारतीय विद्या भवन केन्द्र के निदेशक डॉ. रामनरेश त्रिपाठी ने की और विशिष्ट वक्ता यूनीसेफ के संचार विशेषज्ञ आगस्टीन वेलियथ थे। दोनों वक्ताओं ने एड्स जैसे भयावह रोग के प्रति जागरुकता वृद्धि में मीडिया नेस्ट के प्रयासों की सराहना की तथा ‘शिफा’ नाटक की सफलता की कामना की।

मीडिया नेस्ट की महामंत्री कुलसुम मुस्तफा ने ‘मीडिया फॉर चिल्ड्रेन’ कार्यक्रम का संचालन करते हुए मीडिया नेस्ट के महत्वपूर्ण कार्यक्रम स्वास्थ्य समूह बीमा, स्वास्थ्य शिविर एवं कम्प्यूटर प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये जाने की जानकारी दी।

कार्यक्रम के प्रारम्भ में इण्डियन एक्सप्रेस के इलाहाबाद स्थित संवाददाता विजय प्रताप सिंह की बम विस्फोट में हुई मृत्यु पर शोक व्यक्त करते हुए दो मिनट का मौन धारण कर श्रद्धांजलि अर्पित की गयी।

यह ट्रेन उत्तर प्रदेश के लखनऊ समेत 16 रेलवे स्टेशनों पर 29 अगस्त व 10 अक्टूबर के दौरान रुकेगी। अपनी 25 हजार किमी की यात्रा में यह ट्रेन उत्तर प्रदेश के चोपन (सोनभद्र) में 17 जुलाई को आयी थी इसके पश्चात् झारखण्ड चली गयी थी। अब कल 29 अगस्त को इलाहाबाद पहुंचेगी और पुनः उत्तराखण्ड जायेगी। आज इलाहाबाद में नाटक का पहला मंचन हुआ।

इस अवसर पर एड्स प्रभावित बच्चों के लिए काम कर रही संस्था ‘उम्मीद’ ने एड्स से सम्बन्धित पोस्टर-प्रदर्शनी का प्रदर्शन भी किया।

कुलसुम मुस्तफा
(लेखिका एक वरिष्ठ संवाददाता और मीडिया नेस्ट की महामंत्री हैं)