क्या मायावती का दलित वोट बैंक खिसका है?

हाल में उत्तर प्रदेश में असेम्बली के चुनाव परिणाम घोषित होने पर मायावती ने अपनी हार के कारण गिनाते हुए यह दावा किया था कि बेशक वह यह चुनाव हार गयी हैं परन्तु उसका दलित वोट बैंक बिलकुल बरकरार है. अब अगर चुनाव परिणामों का विश्लेषण किया जाये तो मायावती का यह दावा बिलकुल खोखला साबित होता है.

आईये सब से पहले उत्तर प्रदेश में दलितों कि आबादी देखी जाये और फिर उसमें मायावती को मिले वोटों का आंकलन किया जाये. उत्तर प्रदेश में दलितों कि आबादी कुल आबादी का २१% है और उनमे लगभग ६६ उपजातियां हैं जो सामाजिक तौर पर बटी हुयी हैं. इन उप जातियों में जाटव /चमार - ५६.३%, पासी - १५.९%, धोबी, कोरी और बाल्मीकि - १५.३%, गोंड, धानुक और खटीक - ५% हैं. नौ अति- दलित उप जातियां - रावत, बहेलिया खरवार और कोल ४.५% हैं. शेष ४९ उप जातियां लगभग ३% हैं. चमार/ जाटव आजमगढ़, आगरा, बिजनौर , सहारनपुर, मुरादाबाद, गोरखपुर, गाजीपुर, सोनभद्र में हैं. पासी सीतापुर, राय बरेली, हरदोई, और इलाहाबाद जिलों में हैं. शेष समूह जैसे धोबी, कोरी, और बाल्मीकि लोगों की अधिकतर आबादी बरेली, सुल्तानपुर, और गाज़ियाबाद जनपदों में है.

आबादी के उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर अगर मायावती की बसपा पार्टी को अब तक बिभिन्न चुनावों में मिले दलित वोटों और सीटों का विश्लेषण करना उचित होगा. अब अगर वर्ष २००७ में हुए विधान सभा चुनाव का विश्लेष्ण किया जाये तो यह पाया जाता है कि इस चुनाव में बसपा को ८९ अरक्षित सीटों में से ६२ तथा समाजवादी (सपा) पार्टी को १३, कांग्रेस को ५ तथा बीजेपी को ७ सीटें मिली थीं. इस चुनाव में बसपा को लगभग ३०% वोट मिला था. इस से पहले २००२ में बसपा को २४ और सपा को ३५ अरक्षित सीटों में विजय प्राप्त हुई थी. वर्ष २००४ में हुए लोक सभा चुनाव में बसपा को कुल आरक्षित १७ सीटों में से ५ और सपा को ८ सीटें मिली थी और बसपा का वोट बैंक ३०% के करीब था.

वर्ष २००९ में हुए लोक सभा चुनाव में बसपा को आरक्षित १७ सीटों में से २, सपा को १० और कांग्रेस को २ सीटें मिली थीं. इस चुनाव में बसपा का वोट बैंक २००७ में मिले ३०% से गिर कर २७ % पर आ गया था. इसका मुख्य कारण दलित वोट बैंक में आई गिरावट थी क्योंकि तब तक मायावती के बहुजन के फार्मूले को छोड़ कर सर्वजन फार्मूले को अपनाने से दलित वर्ग का काफी हिस्सा नाराज़ हो कर अलग हो गया था. यह मायावती के लिए खतरे की पहली घंटी थी परन्तु मायावती ने इस पर ध्यान देने की कोई ज़रुरत नहीं समझी.

अब अगर २०१२ के विधान सभा चुनाव को देखा जाये तो इस में मायावती की हार का मुख्य कारण अन्य के साथ साथ दलित वोट बैंक में आई भारी गिरावट भी है. इस बार मायावती ८५ आरक्षित सीटों में से केवल १५  ही जीत पायी है जबकि सपा ५५  सीटें जीतने में सफल रही है. इन ८५ आरक्षित सीटों में ३५ जाटव/चमार और २५ पासी जीते हैं. इस में सपा के २१ पासी और मायावती के २ पासी ही जीते हैं मायावती की १६ आरक्षित सीटों में से २ पासी और १३ जाटव/चमार जीते हैं. इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि इस बार मायावती की आरक्षित सीटों  पर हार का मुख्य कारण दलित वोटों में आई गिरावट भी है. इस बार मायावती का कुल वोट प्रतिशत २६% रहा है जो कि २००७ के मुकाबले में लगभग ४% घटा है.

मायावती दुआरा २०१२ में जीती गयी १५  आरक्षित सीटों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि उन्हें यह सीटें अधिकतर पशिचमी उत्तर प्रदेश में ही मिली हैं यहाँ पर उसकी जाटव उपजाति अधिक है. मायावती को पासी बाहुल्य क्षेत्र में सब से कम और कोरी बाहुल्य क्षेत्र में भी बहुत कम सीटें मिली हैं.

पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश में यहाँ पर चमार उपजाति का बाहुल्य है वहां पर भी मायावती को बहुत कम सीटें मिली हैं.  मायावती को पशिचमी उत्तर प्रदेश से ७ और बाकि उत्तार प्रदेश से कुल ८ सीटें मिली हैं. इस चुनाव
में यह भी उभर कर आया है कि जहाँ एक ओर मायावती का पासी, कोरी, खटीक, धोबी और बाल्मीकि वोट खिसका है वहीँ दूसरी ओर चमार/जाटव वोट बैंक जिस में लगभग ७०% चमार (रैदास) और ३०% जाटव हैं में से अधिकतर चमार वोट भी  खिसक गया है. इसी कारण से मायावती को केवल पशिचमी उत्तर परदेश जो कि जाटव बाहुल्य क्षेत्र है में ही अधिकतर सीटें मिली हैं. एक सर्वेक्षण के अनुसार मायावती का लगभग ८% दलित वोट बैंक टूट गया है.

मायावती के दलित वोट बैंक खिसकने का मुख्य कारण मायावती का भ्रष्टाचार, कुशासन, विकासहीनता, दलित उत्पीडन की उपेक्षा और तानाशाही रवैया  रहा है. मायावती द्वारा  दलित समस्याओं को नज़र अंदाज़ कर अँधा धुंद मूर्तिकर्ण को भी अधिकतर दलितों ने पसंद नहीं किया है. सर्वजन को खुश रखने के चक्कर में मायावती द्वारा  दलित उत्पीडन को नज़र अंदाज़ करना भी दलितों के लिए बहुत दुखदायी सिद्ध हुआ है. दलितों में एक यह भी धारणा पनपी है कि मायावती सरकार का सारा लाभ केवल मायावती की उपजाति खास करके चमारों/जाटवों को ही मिला है जो कि वास्तव में पूरी तरह सही नहीं है. इस से दलितों की गैर चमार/जाटव उपजातियां प्रतिक्रिया में मायावती से दूर हो गयी हैं. अगर गौर से देखा जाये तो यह उभर कर आता है की मायावती सरकार का लाभ केवल उन दलितों को ही मिला है जिन्होंने मायावती के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार में सहयोग दिया है. इस दौरान यह भी देखने को मिला है की जो दलित मायावायी के साथ नहीं थे बसपा वालों ने उन को भी प्रताड़ित किया है. उनके उत्पीडन सम्बन्धी मामले थाने पर दर्ज नहीं होने दिए गए. कुछ लोगों का यह भी आरोप है कि मायावती ने अपने काडर के एक बड़े हिस्से को शोषक, भ्रष्ट और लम्पट बना दिया है जिसने दलितों का भी शोषण किया है. यही वर्ग मायावती के भ्रष्टाचार, अवसरवादिता और दलित विरोधी कार्यों को हर तरीके से उचित ठहराने में लगा रहता है. दलित काडर का भ्रष्टिकरण दलित आन्दोलन की सब से बड़ी हानि है.

 इस के अतिरिक्त बसपा कि हार का एक कारण यह भी है कि मायावती हमेशा यह शेखी बघारती रही है कि मेरा वोट  बैंक हस्तान्तार्नीय है. इसी कारण से मायावती अस्सेम्ब्ली और पार्लियामेंट के  टिकटों को धड़ल्ले से ऊँचे
दामों में बेचती रही और दलित उत्पीड़क, माफिया और अपराधियों एवं धनबलियों को टिकेट देकर दलितों को उन्हें वोट  देने के लिए आदेशित करती रही. इस बार दलितों ने मायावती के इस आदेश को नकार दिया और बसपा को वोट  नहीं दिया. दूसरे दलितों में बसपा के पुराने मंत्रियों और विधायकों के विरुद्ध अपने लिए  ही कमाने के सिवाय आम लोगों के लिए कुछ भी न करने के कारण प्रबल आक्रोश था और इस बार  वे उन्हें हर हालत में  हराने के लिए कटिबद्ध थे. तीसरे मायावती ने सारी सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित  करके तानाशाही रवैय्या अपना रखा था जिस कारण उस के मंत्री और विधायक बिलकुल असहाय हो गए थे  और वे जनता के लिए कुछ भी न कर सके  जो उनकी  हार का कारण बना.

मायावती की अवसरवादी और भ्रष्ट राजनीति का दुष्प्रभाव यह है कि आज दलितों को यह नहीं पता है कि उन का दोस्त कौन है और दुश्मन कौन है. उनकी मनुवाद और जातिवाद के विरुद्ध लड़ाई भी कमज़ोर पड़ गयी है क्योंकि बसपा के इस तजुर्बे ने दलितों में भी एक भ्रष्ट और लम्पट वर्ग पैदा कर दिया है जो कि जाति लेबल का प्रयोग केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए ही करता है. उसे दलितों के व्यापक मुद्दों से कुछ लेना देना नहीं है. एक विश्लेषण के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित आज भी विकास की दृष्टि से बिहार, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़ कर भारत के शेष अन्य सभी राज्यों के दलितों की अपेक्षा पिछड़े हुए हैं. उतर प्रदेश के लगभग ६०% दलित गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं. लगभग ६०% दलित महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं. एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार ७०% दलित बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. अधिकतर दलित बेरोजगारी और उत्पादन के साधनों से वंचित हैं. मायावती ने सर्वजन के चक्कर में भूमि सुधारों को जान बूझ कर नज़र अंदाज़ किया जो कि दलितों के सशक्तिकरण का सबसे बड़ा हथियार हो सकता था. मायावती के सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के कारण आम लोगों के लिए उपलब्ध कल्याणकारी योजनायें जैसे मनरेगा, राशन वितरण व्यवस्था , इंदिरा आवास, आंगनवाडी केंद्र और वृद्धा, विकलांग और विधवा पेंशन आदि भ्रष्टाचार का शिकार हो गयीं और दलित एवं
अन्य गरीब लोग इन के लाभ से वंचित रह गए. मायावती ने अपने आप को सब लोगों से अलग कर लिया और लोगों के पास अपना दुःख/कष्ट रोने का कोई भी अवसर न बचा. इन कारणों से दलितों ने इस चुनाव में मायावती को बड़ी हद तक नकार दिया जो कि चुनाव नतीजों से परिलक्षित है.

कुछ लोग मायावती को ही दलित आन्दोलन और दलित राजनीति का प्रतिनिधि मान कर यह प्रशन उठाते हैं कि मायावती के हारने से दलित आन्दोलन और दलित राजनीति पर क्या असर पड़ेगा. इस संबंध में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि मायावती पूरे  दलित आन्दोलन का प्रतिनधित्व नहीं करती है. मायावती केवल एक
राजनेता है जो कि दलित राजनीति कर रही है वह भी एक सीमित क्षेत्र : उत्तर प्रदेश और उतराखंड में ही. इस के बाहर दलित अपने ढंग से राजनीति कर रहे हैं. वहां पर बसपा का कोई अस्तित्व नहीं है. दूसरे दलित आन्दोलन के अन्य पहलू सामाजिक और धार्मिक  हैं जिन पर दलित अपने आप आगे बढ़  रहे हैं. धार्मिक आन्दोलन के अंतर्गत दलित प्रत्येक वर्ष बौद्ध धम्म  अपना रहे हैं और सामाजिक स्तर में भे उनमें काफी नजदीकी आई है. यह कार्य अपने आप हो रहा है और होता रहेगा. इस में मायावती का न कोई योगदान  रहा है और न ही
उसकी कोई ज़रुरत भी है. यह डॉ. आंबेडकर दुआरा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन है जो की स्वत सफूर्त है.हाँ इतना ज़रूर है कि इधर मायावती ने एक आध बौद्ध विहार बना कर बौद्ध धम्म के प्रतीकों  का राजनीतक इस्तेमाल ज़रूर किया है. यह उल्लेखनीय है मायावती ने न तो स्वयं बौद्ध धम्म अपनाया है और न ही कांशी राम ने अपनाया था. उन्हें दर असल बाबा साहेब के धर्म परिवर्तन के जाति उन्मूलन में महत्व में कोई विश्वास ही नहीं है. वे  तो राजनीति में जाति के प्रयोग के पक्षधर हैं न कि उसे तोड़ने के.  उन्हें बाबा साहेब के जाति विहीन और वर्ग विहीन समाज कि स्थापना के लक्ष्य में कोई विश्वास नहीं है. वे दलितों का राजनीति में जाति वोट बैंक के रूप में ही प्रयोग करके जाति राजनीति को कायम रख कर अपने लिए लाभ  उठाना चाहते हैं.

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मायावती का यह दावा कि उसका दलित वोट बैंक बिलकुल नहीं खिसका है सत्यता से बिलकुल परे है. शायद मायावती अभी भी दलितों को अपना गुलाम समझ कर उस से ही जुड़े रहने की खुश फहमी पाल रही है. मायावती की यह नीति कोंग्रेस की दलितों और मुसलामानों के प्रति लम्बे समय
तक अपनाई गयी नीति का ही अनुकरण  है. मायावती दलितों को यह जिताती रही है कि केवल मैं ही आप को बचा सकती हूँ कोई दूसरा नहीं. इस लिए मुझ से अलग होने की बात कभी मत सोचिये. दूसरे दलितों के उस से किसी भी  हालत में अलग न होने के दावे से वह दूसरी पार्टियों को दलितों से दूरी बनाये रखने की चाल भी चल रही है ताकि दलित अलगाव में पद उस के गुलाम बानर रहें. पर  अब दलित मायावती के छलावे से काफी हद तक  मुक्त हो गए हैं. अब यह पूरी सम्भावना है की उत्तर प्रदेश के दलित मायावती के बसपा प्रयोग से सबक लेकर एक मूल परिवर्तनकारी  अम्बेडकरवादी राजनीतिक विकल्प की तलाश करेंगे और जातिवादी राजनीति से बाहर निकल कर मुद्दा आधारित जनवादी राजनीति में प्रवेश करेंगे.  केवल इसी  से उनका राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सशक्तिकर्ण एवं मुक्ति हो सकती है.

एस. आर. दारापुरी आई. पी.एस. (से. नि.)

बच्चों में टीबी रोग की पहचान और संक्रमण- एक बड़ी चुनौती

टीबी रोग का निदान मुमकिन है, लेकिन बच्चों में समय रहते इसकी पहचान समाज में आज भी एक गंभीर समस्या के रूप में विद्यमान है जिसका अंदाजा इसी से होता है कि 14 वर्षीय एक टीबी रोगी बच्चे के अभिभावकों के अनुसार “बच्चे को एक साल पहले से खांसी आ रही थी, और गैर सरकारी चिकित्सक का इलाज चल रहा था। पाँच महीने पहले सरकारी अस्पताल में दिखाया और एक्स रे कराया, बलगम जांच कराई गई तब पता चला कि टीबी है और वहीं इलाज शुरू किया गया”

पिछले वर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा प्रकाशित “ग्लोबल टीबी कंट्रोल रिपोर्ट 2011” के अनुसार इस साल 90 लाख टीबी रोगी मे से 10% से 15% टीबी रोगी 14 वर्ष व उससे कम वर्ष के बच्चे हैं जिनको इलाज की ज़रूरत होगी। यह आंकड़ा दिन प्रति दिन बढ़ता रहेगा यदि हम बच्चो में टीबी संक्रमण को रोकने में विफल रहे। चूंकि बच्चो में टीबी संक्रमण का एक प्रमुख कारण बड़ों की टीबी है, अतः बच्चों में टीबी संक्रमण को रोकने के लिए परिवार के सदस्यों व अभिभावकों की टीबी के बारे में साक्षरता बहुत ज़रूरी है। 6 वर्षीय एक टीबी रोगी की माता का कहना कि “बच्चे के पिता जी को भी टीबी हो चुकी थी जिसका इलाज डाट्स केन्द्र पर 6 महीने तक चला था, लेकिन डाट्स केन्द्र पर परिवार के अन्य सदस्यों का टीबी परीक्षण कराने सम्बन्धी कोई भी जानकारी नहीं दी गई और हम लोगों को टीबी के बारे में कुछ भी नहीं मालूम”। 

स्पष्ट है कि जन साधारण में अभी भी टीबी के साक्षरता की कमी है, तथा सरकार को लोगों में टीबी की साक्षरता को बढ़ाने हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रमों में सुधार लाने की आवश्यकता है, साथ ही बच्चों को टीबी रोग के संक्रमण से बचाने के लिए नई रोकथाम विधि जैसे इसोनाइज्ड प्रिवेन्टिव थेरिपी (आई॰पी॰टी) को अपनाना चाहिए।     
इन्टर्नैशनल यूनियन अगेन्स्ट ट्युबरक्लोसिस एंड लंग डिज़ीज़ (द यूनियन) के अनुसार वयस्क टीबी रोगी के परिवार और उनके संपर्क में रह रहे सभी 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों का परीक्षण करना चाहिए। यदि बच्चे स्वस्थ हैं, तो उन्हें इसोनाइज्ड प्रिवेन्टिव थेरिपी देनी चाहिए ताकि उन्हें सक्रिय टीबी न हो सके। यदि बच्चे स्वस्थ नहीं हैं, तो उनका चिकित्सीय परीक्षण कराने के बाद टीबी उपचार करना चाहिए।   

राम मनोहर लोहिया सरकारी अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ अभिषेक वर्मा का कहना है कि “प्रायः बच्चों में प्राइमरी टीबी होती है तो उसमें लक्षण बहुत कम मिलते हैं। यदि बच्चा कमजोर हो,  भूख न लगती हो, वजन न बढ़ रहा हो, एकान्त बैठा रहता हो व अन्य बच्चों के साथ खेलता-घूमता न हो तो ऐसे बच्चों की जाँच करनी चाहिए क्योंकि इन बच्चों में प्राइमरी टीबी की सम्भावना अधिक रहती है। जाँच में अगर फेफड़े में हाइलर शैडो दिखती है तो कई डॉक्टर उसे प्राइमरी टीबी मान लेते हैं, लेकिन ऐसा करना गलत है, 99% मामलों में हाइलर शैडो टीबी से भिन्न प्रकट होते हैं और अगर हाइलर लिम्फ़नोड बड़े हों तो भी ज़रूरी नहीं है कि बच्चे में टीबी हो। जब तक बच्चे में कमजोरी, पैरालाइटिस, और वजन न बढ़ने के लक्षण न हो तब तक प्राइमरी काम्पलेक्स में टीबी की दवा नही देनी चाहिये।

यूनियन के ट्रीट टीबी इनिशिएटिव में कार्यरत बाल टीबी विशेषज्ञा डॉ डेटजेन का कहना है कि “टीबी रोगी के परिवार के सभी सदस्यों का परीक्षण और निवारक चिकित्सा बच्चों में टीबी के रोग को रोकने के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपाय है। टीबी मरीजों के निकट संपर्क में आने वाले बच्चों में संक्रमित होने का और टीबी रोग विकसित होने का सबसे ज्यादा खतरा होता है। उचित चिकित्सा के अभाव में अक्सर गंभीर टीबी रोग विकसित हो जाता है। ऐसे बच्चों को खोज न पाना और उपचार न कर पाना अवसर खोने जैसा है। वयस्कों में समय रहते टीबी रोग की पहचान करना और संक्रमण को रोकना, बच्चों में टीबी रोकथाम के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है”.

अतः बच्चों को टीबी रोग से बचाने हेतु भारत सरकार को अपने राष्ट्रीय कार्यक्रमों में सुधार लाने और लोगों को जागरूक करने के साथ-साथ बी.सी.जी टीके के अतिरिक्त अन्य आधुनिक निवारक चिकित्सा प्रणाली, जैसे इसोनाइज्ड प्रिवेन्टिव थेरिपी को भी अपनाना होगा। तभी हम पूर्ण रूप से बच्चों में टीबी के संक्रमण को रोक पाने में सफल होंगे।

राहुल द्विवेदी 
(लेखक ऑनलाइन पोर्टल www.citizen-news.org के लिए लिखता है )  

गैर लोकतान्त्रिक ढंग से परमाणु ऊर्जा थोपने के प्रयास का लखनऊ में विरोध

[English] कुडनकुलम में गहराते परमाणु विरोधी अभियान के समर्थन में देश भर में अनेक जगह आन्दोलन जड़ पकड़ रहे हैं. लखनऊ के हजरतगंज में अनेक नागरिक और संगठन ने परमाणु विरोधी अभियान में पुरजोर हिस्सा लिया. 

ओम प्रकाश पाण्डेय, महासचिव, अखिल भारतीय विद्युत अभियंता संघ, उत्तर प्रदेश इकाई, पूर्व पुलिस महानिरीक्षक एस.आर.दारापुरी, पूर्व पुलिस महानिदेशक इश्वर चन्द्र द्विवेदी, जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता नवीन तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार शैलेन्द्र सिंह, सूचना अधिकार कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा और अखिलेश सक्सेना, हमसफ़र की कार्यकर्ता ममता सिंह, नर्मदा बचाओ आंदोलन और जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय की वरिष्ठ कार्यकर्ता अरुंधति धुरु, आशा परिवार से चुन्नीलाल, शोभा शुक्ला, राहुल द्विवेदी, रितेश आर्या, किरण जैसवार, नदीम सलमानी, नीरज मैनाली, जीतेन्द्र द्विवेदी, बाबी रमाकांत एवं अन्य शामिल थे.

प्रदर्शनकारियों का कहना था कि: हम भारत सरकार के गैर लोकतान्त्रिक ढंग से परमाणु ऊर्जा थोपने के प्रयास का विरोध करते हैं। अमरीका और यूरोप में जब भारी संख्या में आम लोग सड़क पर उतार आए तब उनकी सरकारों को परमाणु ऊर्जा त्यागनी पड़ी परंतु भारत में जब आम लोग परमाणु ऊर्जा पर सवाल उठा रहे हैं तो उनकी आवाज़ दबाने का प्रयास किया जा रहा है। कुडनकुलम, तमिल नाडु के डॉ एस.पी. उदयकुमार के नेतृत्व में परमाणु ऊर्जा के विरोध में जन अभियान को भारत सरकार ने भ्रामक आरोपों आदि द्वारा दबाने का पूरा प्रयास किया है। जब कि डॉ उदयकुमार ने अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक किया है और उनके पास ‘एफ.सी.आर.ए.’ ही नहीं है जिससे ‘विदेशी पैसा’ लिया जा सके। यह भी साफ ज़ाहिर है कि भारत सरकार स्वयं ‘विदेशी’ ताकतों (जैसे कि अमरीका, रूस, आदि) के साथ मिलजुल कर सैन्यीकरण और परमाणु कार्यक्रम बढ़ा रही है।

भारत सरकार ने एक जर्मन नागरिक को जिसने शांतिपूर्वक कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा विरोधी अभियान में भाग लिया था, उसको पकड़ कर वापिस जर्मनी भेज दिया। 8 मार्च 2012 को भारत सरकार ने एक जापानी नागरिक का वीसा भी रद्द कर दिया। ‘ग्रीनपीस’ के निमंत्रण पर फुकुशिमा,जापान में 11 मार्च 2011 को हुई परमाणु दुर्घटना झेले हुए माया कोबायाशी को भारत सरकार ने 15 फरवरी 2012 को ‘बिजनेस’ वीसा दिया था जिससे कि वो भारत में एक सप्ताह आ कर जगह-जगह आयोजित कार्यक्रमों में परमाणु विकिरण आदि खतरों के बारे में बता सकें। परंतु 8 मार्च 2012 को भारत ने उनका वीसा ही रद्द कर दिया।

अब विकसित दुनिया यह मानने लगी है कि निम्न चार कारणों से नाभिकीय ऊर्जा का कोई भविष्य नहीं हैः (1) इसका अत्याधिक खर्चीला होना, (2) मनुष्य स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए खतरनाक, (3) नाभिकीय शस्त्र के प्रसार में इसकी भूमिका से जुड़े खतरे, व  (4) रेडियोधर्मी कचरे के दीर्घकालिक निपटारे की चुनौती।

भारत को नाभिकीय ऊर्जा का विकल्प ढूँढना चाहिए जो इतने खर्चीले व खतरनाक न हों। पुनर्प्राप्य ऊर्जा के संसाधन, जैसे सौर, पवन, बायोमास, बायोगैस, आदि, ही समाधान प्रदान कर सकते हैं यह मान कर यूरोप व जापान तो इस क्षेत्र में गम्भीर शोध कर रहे हैं। भारत को भी चाहिए कि इन विकसित देशों के अनुभव से सीखते हुए नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में अमरीका व यूरोप की कम्पनियों का बाजार बनने के बजाए हम भी पुनर्प्राप्य ऊर्जा संसाधनों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करें। भारत को ऐसी ऊर्जा नीति अपनानी चाहिए जिसमें कार्बन उत्सर्जन न हो और परमाणु विकिरण के खतरे भी न हो।

सी.एन.एस.

कूड़ंकुलम परमाणु विरोधी अभियान के समर्थन में देश में जगह-जगह विरोध




इडिंठकरई में चल रहे उपवास के समर्थन में सात दिवसीय देश व्यापी उपवास

[English] कूड़ंकुलम परमाणु बिजलीघर के विरोध में इडिंठकरई, तमिल नाडु में चल रहे उपवास के समर्थन में, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, परमाणु निशस्त्रीकरण और शांति के लिए गठबंधन, और लोक राजनीति मंच ने संयुक्त रूप से जंतर मंतर, दिल्ली, पर 26 मार्च से 1 अप्रैल 2012 तक सात दिवसीय उपवास का आह्वान दिया है। मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय जंतर मंतर दिल्ली में उपवास पर रहेंगे और परमाणु कार्यक्रम के ऊपर लोकतान्त्रिक और खुली बहस की मांग को लेकर आन्दोलनरत रहेंगे. 


कूड़ंकुलम परमाणु बिजलीघर के विरोध में चेन्नई में भी लोग उपवास पर हैं और मुंबई में प्रख्यात फिल्म निर्माता आनंद पटवर्धन दादर रेलवे स्टेशन के सामने विरोध का नेतृत्व करेंगे।

कूड़ंकुलम परमाणु बिजली घर के विरोध में, 27 मार्च 2012 को एक दिवसीय उपवास का आयोजन देश में जगह जगह होगा।

डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि यह विडम्बना ही तो है कि एक तरफ भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में, श्री लंका में तमिल लोगों के ऊपर हुए अत्याचार का मुद्दा उठाया है, परंतु देश के भीतर तमिल नाडु में परमाणु बिजली घर बनाने की जिद्द पर भारत अड़ा हुआ है जिसकी वजह से तमिल नाडु में रह रहे लोग खतरनाक परमाणु दुष्परिणामों को आने वाले सालों में भुगत सकते हैं।

डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि  हम भारत सरकार के गैर लोकतान्त्रिक ढंग से परमाणु ऊर्जा थोपने के प्रयास का विरोध करते हैं। अमरीका और यूरोप में जब भारी संख्या में आम लोग सड़क पर उतार आए तब उनकी सरकारों को परमाणु ऊर्जा त्यागनी पड़ी परंतु भारत में जब आम लोग परमाणु ऊर्जा पर सवाल उठा रहे हैं तो उनकी आवाज़ दबाने का प्रयास किया जा रहा है। कुडनकुलम, तमिल नाडु के डॉ उदयकुमार के नेतृत्व में परमाणु ऊर्जा के विरोध में जन अभियान को भारत सरकार ने भ्रामक आरोपों आदि द्वारा दबाने का पूरा प्रयास किया है। जब कि डॉ उदयकुमार ने अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक किया है और उनके पास ‘एफ.सी.आर.ए.’ ही नहीं है जिससे ‘विदेशी पैसा’ लिया जा सके। यह भी साफ ज़ाहिर है कि भारत सरकार स्वयं ‘विदेशी’ ताकतों (जैसे कि अमरीका, रूस, आदि) के साथ मिलजुल कर सैन्यीकरण और परमाणु कार्यक्रम बढ़ा रही है।

डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि भारत सरकार ने एक जर्मन नागरिक को जिसने शांतिपूर्वक कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा विरोधी अभियान में भाग लिया था, उसको पकड़ कर वापिस जर्मनी भेज दिया। 8 मार्च 2012 को भारत सरकार ने एक जापानी नागरिक का वीसा भी रद्द कर दिया। ‘ग्रीनपीस’ के निमंत्रण पर फुकुशिमा,जापान में 11 मार्च 2011 को हुई परमाणु दुर्घटना झेले हुए माया कोबायाशी को भारत सरकार ने 15 फरवरी 2012 को ‘बिजनेस’ वीसा दिया था जिससे कि वो भारत में एक सप्ताह आ कर जगह-जगह आयोजित कार्यक्रमों में परमाणु विकिरण आदि खतरों के बारे में बता सकें। परंतु 8 मार्च 2012 को भारत ने उनका वीसा ही रद्द कर दिया।

डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि हाल ही में तमिल नाडु मुख्य मंत्री द्वारा डॉ एस.पी. उदयकुमार को नक्सलवादी करार करने का प्रयास यह ज़ाहिर करता है कि सरकार परमाणु कार्यक्रम को लागू करने के लिए कितनी मजबूर है। हम सरकार के आम लोगों को गुमराह करने का और परमाणु कार्यक्रम में पारदर्शिता नहीं रखने का भरसक विरोध करते हैं।

अब विकसित दुनिया यह मानने लगी है कि निम्न चार कारणों से नाभिकीय ऊर्जा का कोई भविष्य नहीं हैः (1) इसका अत्याधिक खर्चीला होना, (2) मनुष्य स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए खतरनाक, (3) नाभिकीय शस्त्र के प्रसार में इसकी भूमिका से जुड़े खतरे, व  (4) रेडियोधर्मी कचरे के दीर्घकालिक निपटारे की चुनौती।

भारत को नाभिकीय ऊर्जा का विकल्प ढूँढना चाहिए जो इतने खर्चीले व खतरनाक न हों। पुनर्प्राप्य ऊर्जा के संसाधन, जैसे सौर, पवन, बायोमास, बायोगैस, आदि, ही समाधान प्रदान कर सकते हैं यह मान कर यूरोप व जापान तो इस क्षेत्र में गम्भीर शोध कर रहे हैं। भारत को भी चाहिए कि इन विकसित देशों के अनुभव से सीखते हुए नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में अमरीका व यूरोप की कम्पनियों का बाजार बनने के बजाए हम भी पुनर्प्राप्य ऊर्जा संसाधनों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करें। भारत को ऐसी ऊर्जा नीति अपनानी चाहिए जिसमें कार्बन उत्सर्जन न हो और परमाणु विकिरण के खतरे भी न हो।

डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि हम भारत सरकार से अपील करते हैं कि परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर लोकतान्त्रिक तरीके से खुली बहस करवाए और जब तक यह सर्व सम्मति से निर्णय नहीं होता कि भारत को परमाणु कार्यक्रम चलना चाहिए या नहीं, परमाणु कार्यक्रम को स्थगित करे।

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

गैर लोकतान्त्रिक ढंग से परमाणु ऊर्जा थोपने के प्रयास का विरोध

[English] अखिल भारतीय विद्युत् अभियंता संघ के महासचिव श्री शैलेन्द्र दुबे ने कहा कि १२ लाख से अधिक उनके कार्यकर्ता, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय और नर्मदा बचाओ आन्दोलन के साथ, आन्दोलन करेंगे यदि भारत सरकार ने लोकतान्त्रिक तरीके से उर्जा के मुद्दे पर खुली बहस न होने दी. आज (१० मार्च २०१२) को लखनऊ में आयोजित प्रेस वार्ता में यह ज्ञापन जारी किया गया:

गैर लोकतान्त्रिक ढंग से परमाणु ऊर्जा थोपने के प्रयास का विरोध

हम भारत सरकार के गैर लोकतान्त्रिक ढंग से परमाणु ऊर्जा थोपने के प्रयास का विरोध करते हैं। अमरीका और यूरोप में जब भारी संख्या में आम लोग सड़क पर उतार आए तब उनकी सरकारों को परमाणु ऊर्जा त्यागनी पड़ी परंतु भारत में जब आम लोग परमाणु ऊर्जा पर सवाल उठा रहे हैं तो उनकी आवाज़ दबाने का प्रयास किया जा रहा है। कुडनकुलम, तमिल नाडु के डॉ उदयकुमार के नेतृत्व में परमाणु ऊर्जा के विरोध में जन अभियान को भारत सरकार ने भ्रामक आरोपों आदि द्वारा दबाने का पूरा प्रयास किया है। जब कि डॉ उदयकुमार ने अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक किया है और उनके पास ‘एफ.सी.आर.ए.’ ही नहीं है जिससे ‘विदेशी पैसा’ लिया जा सके। यह भी साफ ज़ाहिर है कि भारत सरकार स्वयं ‘विदेशी’ ताकतों (जैसे कि अमरीका, रूस, आदि) के साथ मिलजुल कर सैन्यीकरण और परमाणु कार्यक्रम बढ़ा रही है। 

भारत सरकार ने एक जर्मन नागरिक को जिसने शांतिपूर्वक कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा विरोधी अभियान में भाग लिया था, उसको पकड़ कर वापिस जर्मनी भेज दिया। 8 मार्च 2012 को भारत सरकार ने एक जापानी नागरिक का वीसा भी रद्द कर दिया। ‘ग्रीनपीस’ के निमंत्रण पर फुकुशिमा,जापान में 11 मार्च 2011 को हुई परमाणु दुर्घटना झेले हुए माया कोबायाशी को भारत सरकार ने 15 फरवरी 2012 को ‘बिजनेस’ वीसा दिया था जिससे कि वो भारत में एक सप्ताह आ कर जगह-जगह आयोजित कार्यक्रमों में परमाणु विकिरण आदि खतरों के बारे में बता सकें। परंतु 8 मार्च 2012 को भारत ने उनका वीसा ही रद्द कर दिया।

अब विकसित दुनिया यह मानने लगी है कि निम्न चार कारणों से नाभिकीय ऊर्जा का कोई भविष्य नहीं हैः (1) इसका अत्याधिक खर्चीला होना, (2) मनुष्य स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए खतरनाक, (3) नाभिकीय शस्त्र के प्रसार में इसकी भूमिका से जुड़े खतरे, व  (4) रेडियोधर्मी कचरे के दीर्घकालिक निपटारे की चुनौती।

भारत को नाभिकीय ऊर्जा का विकल्प ढूँढना चाहिए जो इतने खर्चीले व खतरनाक न हों। पुनर्प्राप्य ऊर्जा के संसाधन, जैसे सौर, पवन, बायोमास, बायोगैस, आदि, ही समाधान प्रदान कर सकते हैं यह मान कर यूरोप व जापान तो इस क्षेत्र में गम्भीर शोध कर रहे हैं। भारत को भी चाहिए कि इन विकसित देशों के अनुभव से सीखते हुए नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में अमरीका व यूरोप की कम्पनियों का बाजार बनने के बजाए हम भी पुनर्प्राप्य ऊर्जा संसाधनों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करें। भारत को ऐसी ऊर्जा नीति अपनानी चाहिए जिसमें कार्बन उत्सर्जन न हो और परमाणु विकिरण के खतरे भी न हो।

शैलेंद्र दुबे (महासचिव, अखिल भारतीय विद्युत अभियंता संघ), आलोक अग्रवाल (नर्मदा बचाओ आंदोलन), डॉ संदीप पांडे (जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय), अरुंधती धुरु (नर्मदा बचाओ आंदोलन/ जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय), बाबी रमाकांत, शोभा शुक्ल, राहुल कुमार द्विवेदी, आशा परिवार, परमाणु निशस्त्रिकरण एवं शांति के लिए गठबंधन, शांति एवं विकास के लिए चिकित्सकों का गठबंधन, सोशलिस्ट पार्टी

- सी.एन.एस.