क्यों हैं अब तक हाशिये पर महिलाएं?


क्यों हैं अब तक हाशिये पर महिलाएं?

वर्तमान समय में हर तरफ़ महिला-पुरूष बराबरी और महिलाओं के हक को लेकर चर्चा हो रही है। लेकिन इन चर्चाओं के बीच महिलाओं की वास्तविक स्थिति का खुलासा वे आंकडे करते हैं, जिनमें इनके प्रति दोहरे रवैये का कच्चा चिट्ठा खुलता है। अगर बात हमारे देश के सन्दर्भ में की जाए, तो निशिचित रूप से दिल दहला देने वाले हैं। आश्चर्य की बात यह है कि ऐसा उस देश में हो रहा है, जहाँ के शास्त्रों में स्त्री के बारे में लिखा गया है, जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवताओं का निवास होता है। परन्तु यथास्थिति इसके ठीक विपरीत है।

आख़िर क्या वजहें हो सकती है कि जिस देश में देवियों की सबसे ज्यादा पूजा होती है, वहीँ उन पर सबसे ज्यादा अत्याचार भी होता है। महिलाओं के विरूद्व अपराधों में दिनोंदिन इजाफा होता जा रहा है। सामान्य महिलाओं से लेकर अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, शरणार्थी और संस्थानों में कार्यरत महिलाओं के प्रति हिंसा बदस्तूर जारी है।

दरअसल, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिकp सभी स्तरों पर महिलाओं के प्रति भेदभाव का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है, जो बालिकाओं के जन्म लेने के पहले से ही शुरू हो जाता है और मृत्युपर्यंत चलता रहता है। हमारे देश में महिला व् पुरूष का अनुपात १०००:९३२ है, इनमें ०-६ वर्ष की आयु का लिंगानुपात ९२७ है। ६० लाख बालिकाएं लापता हैं जिनके पीछे मादा भ्रूण हत्या व् शिशु हत्या जैसे कारण हैं। महिलाएं मुख्यत : सीमान्त समूहों में देखा जा रहा है कि वे असुरक्षित और अधिकार हीन हैं।

हमारे यहाँ लड़कियों के स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति दोहरे मापदंड का आलम यह है कि महिलाएं और छोटी बच्चियां गंभीर कुपोषण, विशेष रूप से एनीमिया की शिकार हैं, बालिकाओं की मृत्युदर भी अधिक है, प्रति १००००० बालिकाओं में से ४१० की मौत जन्म के समय हो जाती है। यौन संक्रमितp रोग की वजह से उन्हें असुरक्षा का सामना करना पड़ता है।

यह तो हुए स्वास्थ्य की बात, शिक्षा के क्षेत्र में भी उन्हें दोयम दर्जे पर रखा गया है। ७६ प्रतिशत पुरुषों की तुलना में केवल ५४ प्रतिशत महिलाएं ही शिक्षित हैं। हालाँकि, बालिकाओं के स्कूल में दाखिला लिए जाने पर जोर दिया जा रहा है लेकिन स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों की दर अधिक है। जहाँ तक महिलाओं की आर्थिक भागीदारी का सवाल है अनौपचारिक क्षेत्र में महिलाएं हाशिये पर हैं और उनकी कार्य परिस्थिति बदतर है। कुल आता शक्ति में उनकी भागीदारी ३६ प्रतिशत है. ज्यादातर महिलाएं असुरक्षित कार्य क्षेत्रों में पाटा पाटा हुई हैं उन्हें निम्न ई आधारित कार्य में ही लगाया जाता है. साथ ही मेहनताना पूनम उनके पुरूष सहकर्मियों की अपेक्षा काफी कम दिया जाता है. यही नहीं, मासिक आय की वृद्धि में भी उनके साथ भेद-भाव किया जाता है और उनके मेहनताने में पुरूष साथियों की अपेक्षा कम वृद्धि होती है. भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आधे से अधिक कृषि का श्रमिक दलित तथा महिलाएं हैं जबकि उन्हें इसका पूरा लाभ नहीं मिल पाता।

यह बिडम्बना ही है कि जिस देश की सत्ता पार्टी की प्रधान एक महिला है तथा लोकसभा जैसे लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था की द्विवेदी भी एक महिला है, वहां स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाने की लिए कोई ठोस पहल नहीं की जा रही है।

सामाजिक रूढिवादिता, महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह, गरीबी, अशिक्षा जैसे कारण महिलाओं की बेहतरी के मार्ग में प्रमुख रोडे हैं. जब तक राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्तर पर नीचे से ऊपर स्त्रियों की स्थिति में सुधार की दिशा में प्रयास नहीं होगा, तब-तक उन्हें मुख्यधारा में लाने का सुनहरा सपना सच नहीं हो पायेगा। इस सन्दर्भ में राजनैतिक इच्छा शक्ति की सख्त आवश्यकता है ताकि महिलाओं को दोयम दर्जे की नागरिकता से ऊपर उठाकर उन्हें पुरुषों के सामानांतर खड़ा किया जा सके।

इस पुनीत कार्य के लिए महिला संगठनो, संसद में महिला प्रतिनिधियों, गैर सरकारी संस्थाओं, विद्वानों तथा समाजसेवियों जैसे लोगों को विशेष रूप से आगे आना होगा। केन्द्र से दूर-दराज के इलाकों और ग्रामीण क्षेत्रों में बालिकाओं की शिक्षा और उन्हें रोजगारोन्मुख बनाने के लिए युद्घ स्तर पर प्रयास होने चाहिए, तभी वे आत्म निर्भर हो सकेंगी और उनके प्रति होने वाले भेदभाव और हिंसा पर विराम लग सकेगा।

पूनम द्विवेदी

बी.पी.एल. शौचालय के नाम पर प्रधानों व सचिवों ने डकारे अठहत्तर लाख रूपये वर्ष २००७-०८ में

बी.पी.एल. शौचालय के नाम पर प्रधानों व सचिवों ने डकारे अठहत्तर लाख रूपये वर्ष २००७-०८ में

संडीला विकास खण्ड, जनपद-हरदोई में ९७ राजस्व गांव में बी.पी.एल. व ए.पी.एल. परिवारों के लिए व्यक्तिगत परिवारों को शौचालयों का निर्माण हुआ | यह निर्माण वर्ष २००७ व २००८ में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत यह कार्य ग्राम पंचायत के सचिव व प्रधानों ने करवाया | इस कार्य के लिए सरकार द्वारा पन्द्रह सौ रूपये का अनुदान बी.पी.एल. परिवारों को दिया जाना था और ए.पी.एल. परिवारों को भी पन्द्रह सौ रूपये का अनुदान प्रति परिवार दिया जाना था | इस अनुदान की राशिः विकास खण्ड संडीला में अठहत्तर लाख चार हजार रुपया आई थी | यह राशिः बी.पी.एल. परिवारों को शौचालयों के नाम खर्च होनी थी जिसमें गरीब परिवारों व गांवों में गंदगी न हो |

खण्ड विकास अधिकारी संडीला से सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी माँगी तो खण्ड विकास अधिकारी ने बताया कि ब्लाक में सभी ग्राम पंचायतों में मैंने ५२०३ शौचालय बनवा दिए हैं जिसके तहत बी.पी.एल. परिवारों को, लगभग सभी को यानी हर परिवार में शौचालय निर्मित हो गये हैं | इस बात से आश्चर्य लगा कि ऐसा तो सम्भव नहीं होगा | आशा परिवार के कार्यकर्ता और हमने ब्लाक से अभिलेख निकलवा कर जाँच का कार्य शुरू कर दिया | मैं, आशा परिवार की एक टीम बनाकर गांव-गांव जाना शुरू किया | पहले ग्राम पंचायत उत्तरकोध में देखा कि १०८ शौचालय कागज पर बने दिखाए गए | यहाँ बी.पी.एल. परिवारों की संख्या भी १५१ है | यहाँ सभी बी.पी.एल परिवारों को शौचालय निर्मित हैं, यहाँ के सचिव कन्हैयालाल ने बताया कि हमारे ग्राम पंचायत में सभी बी.पी.एल. परिवारों को शौचालय बने हैं जबकि बी.पी.एल. परिवारों के यहाँ गए और जानकारी की तो गांव वालों ने कहा कि यहाँ शौचालय बनने की आप लोग बात करते हैं, यहाँ किसी को जानकारी तक नहीं है | सभी १५१ बी.पी.एल. परिवारों ने कसम खाकर कहा कि मैंने कोई शौचालय नहीं बनवाया है और न ही हमें पता है | बी.पी.एल परिवारों को तो पता नहीं है फिर हम लोगों ने ग्राम पंचायत के सदस्यों से यह जानकारी किया कि क्या पंचायत में शौचालय बनवाये गये हैं ? तो पंचायत सदस्यों ने यह लिखकर दिया कि इस पंचायत में एक भी शौचालय वर्ष २००७-२००८ में किसी का नहीं बना है और न तो इस सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के बारे में सचिव ने किसी पंच को बताया है | सभी पंचायत के सदस्यों का कहना है कि अगर हमारी पंचायत में शौचालयों के नाम से धन निकाला गया है तो यह गलत है, गलत ही नहीं खुला भ्रष्टाचार है | इस एक पंचायत उत्तरकोध में दो लाख चालीस हजार का पूरा भ्रष्टाचार देखने को मिला |

इसी प्रकार ग्राम पंचायत मांझगांव में दो सौ शौचालयों का निर्माण दिखाया गया जबकि यहाँ एक भी शौचालय नहीं बना पाया गया | मैंने गांव के लोगों से पूछा तो पता चला कि यह शौचालय वर्ष २००६ में आये थे जिनका निर्माण भी नहीं करा सका था | वही शौचालयों का निर्माण करवा रहा हूँ | इस पंचायत में भी गांव के लोग व पंचायत मित्र की बातों से साफ़ खुलासा हो गया कि यहाँ के दो सौ शौचालयों का निर्माण नहीं हुआ है |

इसी प्रकार बराही ग्राम पंचायत में भी शौचालयों का निर्माण नहीं हुआ | यहाँ के प्रधान ने स्वीकार किया कि मैं शौचालय नहीं बनवा पाया हूँ क्योंकि हमें धन नहीं मिल पाया है केवल सीटें मिली थीं वो पड़ी हैं | सामग्री न मिलने से यह कार्य मेरा अधूरा है यहाँ भी दो सौ शौचालय कागज पर निर्मित हैं |

इसी प्रकार से ग्राम पंचायत मंडौली में तीन सौ शौचालय निर्मित बताए गये जहाँ पर एक भी शौचालय नहीं है, यहाँ भी बी.पी.एल. परिवारों से सम्पर्क किया तो लोगों ने बताया कि हमारे यहाँ वर्ष २००७-२००८ में कोई शौचालय नहीं बने हैं | यहाँ के बी.डी.सी. सदस्य से बातचीत हुई तो यह बताया कि हमारे यहाँ वर्ष २००५ व २००६ में १५ शौचालय बने थे इसके बाद मेरी पंचायत में कोई शौचालय नहीं बने हैं और प्रधानपति श्रीराम से हुई बात से पता चला कि यहाँ पर कोई शौचालय नहीं बने हैं क्योंकि प्रधानपति ने कहा कि मैंने कुछ सीटें बटवा दिया है | सामग्री न मिलने के कारण यह कार्य अधूरा ही है, यह कार्य अभी हो नहीं पाया है |

जब मैं ग्राम पंचायत ककराली में शौचालयों की जानकारी करने गया तो वहां पर पंचायत सचिव कन्हैयालाल से मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा कि आप लोग हमारे पीछे पड़े हैं मैं पांच पंचायतों का सचिव हूँ | अप्प लोग मेरी ही पांच पंचायत देख रहे हैं, मैंने तो शौचालय ही नहीं बनवाये हैं, विधायक से जानकारी करो तो आपको पता चलेगा | पंचायत सचिव की बात से स्पष्ट हो गया कि ब्लाक की किसी भी पंचायत में शौचालय जमीन पर तो नहीं, कागज पर जरुर बने हैं |

आशा आश्रम की टीम गांव-गांव जाकर अनेक लोगों से जानकारी किया जिससे यह स्पष्ट हुआ कि सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान सफ़ेद हाथी नजर आया, नमूने के तौर पर उत्तरकोध, मांझ-गांव, बराही, ,ककराली, मंडौली आदि पंचायतों का सर्वे किया गया जहाँ पर एक भी शौचालय निर्मित नहीं हैं |

वर्ष २००७-२००८ में बी.पी.एल परिवारों के नाम से शौचालय बनवाये जाने के लिए ७८ लाख ४ हजार ५०० रूपये का खुला भ्रष्टाचार साबित हुआ जिसकी जाँच के लिए प्रशासन व जिला प्रशासन को भी अवगत कराया जा चुका है | उपरोक्त तथ्यों से हमें लगता है कि सरकारी कर्मचारियों को गन्दगी जमीन पर कम, कागज में ज्यादा करनी पड़ती है| इसलिए सरकारी कर्मचारी शौचालय कागज पर होना ज्यादा जरुरी समझते हैं बजाय जमीन पर |

अशोक भारती
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सी.एन.एस)
आशा आश्रम,लालपुर बंजरा,अतरौली,हरदोई

आतंक के बादल बरसने से पहले

आतंक के बादल बरसने से पहले

शिरीष खरे

मुंबई में मानसून के बादल दस्तक दे चुके हैं लेकिन नेताजी-नगर के लोग नए आशियानों की खोज में घूम रहे हैं। 29 मई की सुबह, ईस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे के पास वाली इस झोपड़पट्टी के करीब 250 कच्चे घर तोड़ दिये गए। मुंबई नगर-निगम की इस कार्यवाही से करीब 2,000 गरीब लोग प्रभावित हुए। पुलिस ने झोपड़पट्टी हिंसक कार्यवाही में 10 महिलाओं सहित कुल 17 लोगों को गिरफ्तार किया। कई महिलाएं पुलिस की लाठी-चार्ज से घायल भी हुईं। मुंबई में बादलों के पहले यह सरकार का आंतक है जो मनमानी तरीके से एक बार फिर गरीबों पर बेतहाशा बरस रहा है।

पुलिस की इस बर्बरता को देखते हुए ‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ ने ‘महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग’ को तुरंत एक पत्र भेजा और पूरे मामले के बारे में बताया। आंदोलन ने इसे मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन माना और आयोग से हस्तक्षेप का आग्रह किया।

29 मई

यह तारीख नेताजी-नगर के रहवासी हमेशा याद रखेंगे। यह लोग सुबह की चाय पीकर फुर्सत भी नहीं हो पाए कि प्रशासन ने बुलडोजर के साथ बस्ती पर हमला बोल दिया। यह हमला अचानक और बहुत तेज था, इसलिए किसी को संभलने का मौका नहीं मिला। देखते-देखते बस्ती के सैकड़ों घर एक के बाद एक ढ़ह गए। प्रशासन ने बस्ती को मैदान में बदलने की रणनीति पहले ही बना ली थी। इसलिए झोपड़पट्टी तोड़ने वाले दस्ते के साथ पुलिस ने बिखरी गृहस्थियों को आग भी लगाना शुरू कर दिया। इस दौरान प्रेम-सागर सोसाइटी के लोगों ने उनकी हरकतों को कैमरों में कैद कर लिया। यह लोग अब प्रशासनिक अत्याचार के खिलाफ अहम गवाह बन सकते हैं। साथ ही उनके द्वारा खींची गई तस्वीरों को भी सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है।

29 मई को 12 बजते-बजते पूरी बस्ती का वजूद माटी में मिल चुका था। इधर बड़े-बूढ़ों के साथ उनके बच्चे सड़कों पर आए। उधर पंत-नगर पुलिस स्टेशन में बंद महिलाओं को शाम तक एक कप चाय भी नहीं मिली। लाठी-चार्ज में बुरी तरह घायल डोगरीबाई को कुछ महिलाएं घाटकोपर के राजावाड़ी अस्पताल लेकर पहुंचीं थी। लेकिन पुलिस ने उन सभी को गिरतार करके पंत-नगर पुलिस स्टेशन में कैद कर दिया। यहां ईलाज की सही व्यवस्था न होने से डोगरीबाई की हालत गंभीर हो गई। रात होने के पहले भूखे, प्यासे और घायल लोगों के झुण्ड के झुण्ड खाली जगहों के नीचे से अपने घर तलाशने लगे। उन्हें अब भी मलवों के नीचे कुछ बचे होने की उम्मीद थी। लेकिन बेरहम बुलडोजर ने खाने-पीने और जरूरत की सारी चीजों को बर्बाद कर डाला था। थोड़ी देर में ही घोर अंधियारा छा गया। अब बरसात के मौसम में यह लोग सिर ढ़कने के लिए छत, खाने के लिए रोटी और रोटी के लिए चूल्हे का इंतजाम कहां से करेंगे ?

देश का मानसून मुंबई से होकर जाता है। लेकिन मुंबई नगर-निगम, महाराष्ट्र सरकार के लोक-निर्माण विभाग के साथ मिलकर नेताजी-नगर जैसी गरीब बस्तियों को ढ़हा रहा है। प्रदेश-सरकार के मुताबिक जो परिवार कट-आफ की तारीख 1-1-1995 के पहले से जहां रहते हैं, उन्हें वहां रहने दिया जाए। इसके बावजूद नेताजी-नगर के कई पुराने रहवासियों को अपने हक के लिए लड़ना पड़ रहा है।

आंतक के बादल

नेताजी-नगर बस्ती नाले के बाजू और मीठी नदी के नजदीक है। शहर के अहम भाग पर बसे होने से यह जगह बहुत कीमती है। इसलिए आसपास के करीब 60 एकड़ इलाके पर बड़े बिल्डरों की नजर टिकी हुई है। भीतरी ताकतों के आपसी गठजोड़, आंतक के सहारे बस्ती खाली करवाना चाहता है। लेकिन प्रशासन को भी बस्ती तोड़ने की इतनी जल्दी थी कि उसने सूचना देना ठीक नहीं समझा। पूरी बस्ती को ऐसे कुचला गया जिससे ज्यादा से ज्यादा नुकसान हो। अगर प्रशासन चाहता तो नुकसान को कम कर सकता था। लेकिन उसने पुलिस को आगे करके लाठी-चार्ज की घटना को अंजाम दिया।

इस बस्ती के रहवासी कानूनी तौर पर मतदाता है। इसलिए उन्हें जीने का अधिकार है। इसमें जमीन और बुनियादी सुविधाओं वाले घर के अधिकार भी शामिल हैं। किसी भी ओपरेशन में पुलिस अकारण हिंसा नहीं कर सकती है। अगर किसी का घर और उसमें रखी चीजों को तोड़ा-फोड़ा जाएगा तो लोग बचाव के लिए आएंगे ही। नेताजी-नगर के रहवासी भी अपने खून-पसीने की कमाई से जोड़ी ज्यादाद बचाने के लिए आए थे। बदले में उन्हें पुलिस की मार और जेल की सजा भुगतनी पड़ी।

‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ के सिंप्रीत सिंह ने ‘महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग’ से आग्रह किया है कि- ‘‘स्लम एक्ट और अन्य दूसरे नियमों के आधार पर इस मामले की जांच की जाए। सरकार पुलिस की लाठियों से घायल महिलाओं का ईलाज करवाए। पीड़ित परिवारों को उचित मुआवजा मिले और दोषी पुलिसकर्मियों पर कड़ी कार्यवाही हो।’’

इन दिनों

मुंबई में गरीबों को उनकी जगहों से हटाने की घटनाओं में तेजी आई है। शहर की जमीन पर अवैध कमाई के लिए निवेश किया जा रहा है। शहरी जमींदार ऊंची इमारतों को बनाने के लिए हर स्केवेयर मीटर जमीन का इस्तेमाल करना चाहते हैं। अब यह कारोबार अथाह कमाई का जरिया बन चुका है। इस मंदी के दौर में भी जमीनों की कीमत काफी ऊंची बनी हुई हैं। इसकी वजह सस्ती दरों पर कर्ज किसानों की बजाय कारर्पोरेट को दिया जाना है।

महाराष्ट्र ने अपनी 30 हजार एकड़ जमीन प्राइवेट को दी है। सीलिंग कानून के बावजूद ऐसा हुआ। 1986 को प्रदेश सरकार यह प्रस्ताव पारित कर चुकी थी कि- ‘‘अतिरिक्त जमीन का इस्तेमाल कम लागत के घर बनाने में किया जाएगा। 500 मीटर से ज्यादा जमीन तभी दी जाएगी जब उसका इस्तेमाल 40 से 80 स्केवेयर मीटर के लेट्स बनाने में होगा।’’ लेकिन मुंबई के हिरानंदानी गार्डन में बिल्डर को 300 एकड़ की बेशकीमती जमीन सिर्फ 40 पैसे प्रति एकड़ के हिसाब से दी गई। इस जमीन पर ऐसा ‘स्विटजरलैण्ड’ खड़ा किया गया जिसमें सबसे कम लागत के एक मकान की कीमत सिर्फ 5 करोड़ रूपए है।

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लेखक बच्चों के लिए कार्यरत संस्था ‘चाईल्ड राईट्स एण्ड यू’ के ‘संचार विभाग’ से जुड़े हैं।

नियमित दवा के खुराक से पोलियो से बचा जा सकता है

नियमित दवा लेने से पोलियो से बचा जा सकता है

विकास की समग्र अवधारणा में बच्चे सर्वोच्च प्राथमिकता हैं, भविष्य का समाज कैसा होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि वर्तमान में बच्चों की स्थिति क्या है। कई सारे अनुसन्धान यह प्रमाणित करते हैं कि बच्चे जल्द ही बिमारियों का शिकार हो जाते हैं एवं जानकारी की कमी, जिम्मेदारियों का निर्वहन समय पर न होने से बड़ी संख्या में शारीरिक अक्षमता के रूप में मानव दिख रहा है और इसके बुनियादी कारणों को देखें तो देश में तीन चौथाई से ज्यादा बीमारियाँ असुरक्षित पेयजल एवं ख़राब पर्यावरण है। पोलियो किसी भी समुदाय, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक समूह के बच्चे को हो सकता है। पोलियो किसी भी बच्चे को हो सकता है यदि उसके आस-पास कोई ऐसा बच्चा है जिसको की पोलियो है। पोलियो की बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए यह जरूरी है कि पोलियो की खुराक पूरी तरह से ली जाए। कई बार ऐसा देखा गया है कि जन - समुदाय को सही जानकारी न होने के कारण वह पोलियो की खुराक को पूरी तरह से नहीं लेते हैं।

पोलियो का पुरा नाम 'पोलियो मेलाईटिस' है। यह एक संक्रामक रोग है। पोलियो कोई नए बीमारी नही है यह प्राचीन काल में भी लोगों को हुआ करती थी। पोलियो एक रोगी से दूसरों के शरीर में फैलने वाला विशेषकर मल व मूत्र के संपर्क द्वारा इसके विषाणु बच्चे के शरीर के मूत्र के रास्ते से प्रवेश कर जाते हैं और फिर आंत में प्रवेश कर जाते हैं। जिन स्थानों पर गंदगी रहती है वहां पर पोलियो के विषाणु के फैलने का ज्यादा खतरा है।

इस बीमारी को फैलने में गंदगी पर बैठने वाली मक्खियाँ सहायक होती हैं। पोलियो विषाणु विद्यमान रहने और फैलने की संभावना वहां कम होती है जहाँ तापमान ४० डिग्री सेल्सियस से कम होता है और वहां पर जहाँ कम आद्रता और कम नमी हो। इससे हम आंकलन कर सकते हैं कि वर्ष भर उत्तर प्रदेश का तापमान इसके मध्य रहता है। शुरुआती दौर में पोलियो के सन्दर्भ में बच्चों को सरदी लग जाने के लक्षण दिखायी देते हैं। पोलियो वैक्सीन पूरी तरह से सुरक्षित है जो भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में करोड़ों बच्चों को दी गई है। अब तक इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ा है। पोलियो दवा की हर खुराक बच्चे में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है। बार-बार खुराक देने से पोलियो के विषाणु समाप्त हो जाते हैं।

पिछले साल भारत में पोलियो से करीब २०३ लोग ग्रसित थे किंतु इस साल यह संख्या घटकर सिर्फ़ ४० रह गयी है। पोलियो के कुछ नए रोगी हॉल ही में उत्तर प्रदेश में पाए गए हैं। कोई बच्चा तब तक पोलियो से सुरक्षित नहीं है, जब तक की पोलियो का एक भी विषाणु जीवित है। पोलियो के विषाणु अब तक उत्तर प्रदेश सहित भारत के कई राज्यों में फैल रहे हैं। बार-बार पोलियो उन्मूलन अभियान से हमारी सरकार तथा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं बहुत सारा पैसा खर्च कर रही हैं, साथ ही साथ मानव संसाधन के रूप में विभिन्न विभागों, गैर सरकारी संगठनों और स्वयंसेविओं का एक बहुत बड़ा जत्था पोलियो उन्मूलन अभियान में लगे हुए हैं। आख़िर कब तक हम अर्थ एवं संसाधनों को बर्बाद करते रहेंगे।

तो आइये, हम अपनी जिम्मेदारी समझ कर पोलियो उन्मूलन अभियान का हिस्सा बनें। जब तक हमारा समाज, हमारा प्रदेश, हमारा राष्ट्र पोलियो मुक्त नहीं हो जाता, तब तक हमें पोलियो को मिटाने का अभियान निरंतर जारी रखना होगा।

अमित द्विवेदी

लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं।

सूचना के अधिकार अधिनियम, २००५, को कमजोर करने के विरोध में प्रदर्शन

सूचना के अधिकार अधिनियम, २००५, को कमजोर करने के विरोध में प्रदर्शन

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम, २००५, को कमजोर करने के विरोध में आज प्रदेश के लगभग २० जिलों में प्रदर्शन हो रहा है। उत्तर प्रदेश सरकार ने सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे से पाँच विषयों को बाहर किया है जो इस प्रकार हैं: राज्यपाल की नियुक्ति, उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों की नियुक्ति, मंत्रियों की नियुक्ति, मंत्रियों की आचरण संहिता तथा राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को लिखे पत्र। पिछले वर्ष नागरिक उड्डयन विभाग को भी सूचना के अधिकार अधिनियम, २००५, से प्रदेश सरकार ने बाहर किया था। उ.प्र.सरकार द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम को कमजोर करने का हम विरोध करते हैं, कहना है जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के कार्यकर्ताओं का।

मग्सय्सय पुरुस्कार प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि "सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005, की धारा 24 की उप-धारा 4 के तहत राज्य सरकार सिर्फ सुरक्षा एवं अभिसूचना से सम्बन्धित विभागों को ही इस कानून के दायरे बाहर कर सकती है। हमारा मानना है कि उपर्युक्त विषयों में से कोई भी या नागरिक उड्डयन विभाग सुरक्षा एवं अभिसूचना की श्रेणी में नहीं आते"।

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीस, उ.प्र के उपाध्यक्ष एस.आर.दारापुरी ने कहा कि "संविधान के अनुच्छेद 256 के अंतर्गत राज्य सरकार को केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुपालन की व्यवस्था सुनिश्चित करनी है। वह किसी कानून को कमजोर नहीं कर सकती"।

सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को ज्ञापन देते हुआ कहा कि "राज्य सरकार का कदम कानून विरोधी तथा संविधान विरोधी भी है। कृपया राज्य सरकार को सूचना के अधिकार अधिनियम में लाए गए परिवर्तनों को वापस लेने हेतु निर्देष दें। हम चाहते हैं कि सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005, अपने मौलिक स्वरूप में बना रहे।"

उच्च न्यायालय की रोक के बाद भी कुछ जगह गंगा एक्सप्रेसवे का काम जारी

उच्च न्यायालय की रोक के बाद भी कुछ जगह गंगा एक्सप्रेसवे का काम जारी

राज्य सरकार ने गंगा एक्सप्रेसवे परियोजना को जिस जल्दीबाजी में पर्यवर्णीय अनुमति प्रदान की, उसकी वजह से उच्च न्यायालय ने २९ मई २००९ को इस अनुमति पर रोक लगायी है।

अगस्त २००७ में हुई जन-सुनवाइयों में बिना परियोजना रपट और ‘ई.आई.ए रपट’ [environment impact assessment report] उपलब्ध कराये जिस तरह से परियोजना को अनुमति प्रदान की गयी तथा ‘state environment impact assessment authority’ और ‘state level expert appraisal committee’ ने जिस तरह से एक दिन के अन्दर इस परियोजना को अनुमति देने के निर्णय लिए उससे सारी प्रक्रिया पर सवाल खड़ा हुआ है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफ़ेसर यू.के. चौधुरी ने यह भी सवाल खड़ा किया है कि परियोजना का उद्देश्य बाढ़ नियंत्रण पूरा होने की बजाय बाढ़ की सम्भावना को और बढायेगा।

१२,००० हेक्टेयर की भूमि पर ओद्योगिक, व्यावसायिक, आवासीय और उद्योग आदि का जो काम होगा, उससे भी प्रदूषण बढ़ेगा।

इसके अलावा हाईवे पर जो वाहन चलेंगे उसके प्रदूषण से गंगा का जल प्रभावित होगा (उसमें ‘दिसोल्व्ड आक्सीजन’ की कमी हो जायेगी और बायो-आक्सीजन डिमांड बढ़ेगी)। जल स्तर भी प्रभावित होगा।

२७,००० हेक्टेयर भूमि का जो अधिग्रहण होगा उससे खेती और किसानों की आजीविका प्रभावित होगी और विस्थापन की गम्भीर समस्या खड़ी होगी।

जल्दीबाजी में तय की गयी परियोजना पर उच्च न्यायालय की रोक के बावजूद भूअधिग्रहण का काम रुका नहीं है। हाल ही में राजेंद्र सिंह के रायबरेली और प्रतापगढ़ के दौरे से यह बात सिद्ध हुई है।

हम मांग करते हैं कि जबतक राज्य सरकार विभिन्न पर्यावरण सम्बन्धी अनुमतियाँ व केन्द्र सरकार की अनुमति न प्राप्त कर ले, इस परियोजना के सभी कार्यों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगायी जाए।

राजेंद्र सिंह डॉ संदीप पाण्डेय अरुंधती धुरु
जल बिरादरी आशा परिवार नर्मदा बचाओ आन्दोलन

संपर्क: संदीप भाई २३४७३६५

कैसे प्रभावी हो पी० एन० डी० टी0 अधिनियम


कैसे प्रभावी हो पी० एन० डी० टी0 अधिनियम

संसार के ज्यादातर देशों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है। भारत ऐसा तीसरा देश है जहाँ महिलाएं पुरुषों से कम हैं। पिछले ८० सालों में मानव जीवन के लगभग हर छेत्र में विकास हुआ है वहीँ दूसरी ओर महिला पुरूष का अनुपात घटता जा रहा है। वर्ष १९०१ में प्रदेश में १००० पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या ९४२ थी जबकी वर्ष २००१ में ये संख्या घटकर ८९८ रह गयी। देश में विभिन्न राज्यों की स्थितियां अलग-अलग हैं। प्रति १००० पुरूष पर महिलाओं की संख्या दिल्ली में ८२१, हरियाणा में ८६१, पंजाब में ८७४ तथा चंडीगढ़ में ७७३ है. देश में केरल तथा पाँडीचेरी दो ऐसे प्रदेश हैं जहाँ १००० पुरुषों पर महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक १०५८ तथा १००० है। छः वर्ष तक के बच्चे में लिंग अनुपात की स्थिति और भी सोचनीय है। भारत में यह अनुपात वर्ष १९९१ में ९४५ से घटकर वर्ष २००१ में ९२७ तथा उत्तर प्रदेश में ९२७ से घटकर ९१६ हो गया है। इस प्रकार लड़कियों की संख्या में उत्तरोतर कमी एक गंभीर सामाजिक विषय बन गया है।

भारत में ही नहीं वरन अन्य देशों में भी पित्रसत्तात्मक व्यवस्था पारंपरिक रूप से चली आ रही है। ऐसे समाज में मादा शिशु की हत्या होना कोई नई बात नहीं है। गर्भ में पल रहे शिशु के लिंग की जाँच की नई-नई वैज्ञानिक तकनीकों के अविष्कार ने मादा भ्रूण हत्या की समस्या को और भी गंभीर बना दिया है। यही नहीं अब तो गर्भ धारण के पूर्व ही लिंग चयन करना सम्भव हो गया है।

वर्तमान में जो आनुवांशिक तकनीकी जांचे की जा रहीं हैं उनमें ८ से लेकर १६ सप्ताह तक के गर्भ में पल रहे शिशु के लिंग का पता लगाया जा सकता है दूसरी ओर वर्ष १९७१ से लागू “चिकित्सीय गर्भ समापन अधिनियम ” के अर्न्तगत कुछ विशेष परिस्थीतियों में गर्भपात को क़ानून बना दिया गया है। अतः लोग भ्रूण की लिंग जांच करने वाली मशीनों के जरिय गर्भ में पल रहे बच्चे के लिंग का पता लगाकर मादा भ्रूण पाये जाने पर, चिकित्सीय गर्भ समापन अधिनियम की आड़ में उसे अवैध रूप से गर्भपात द्वारा नष्ट करवा देते हैं। इस पूरे अमानवीय कार्य में सबसे ज्यादा योगदान चिकित्सकों का है क्योंकि उन्ही के द्वारा आनुवांशिक रोगों की पहचान के लिए तकनीकी जांचे की जाती हैं तथा गर्भपात भी डाक्टरों द्वारा किया जाता है।

गर्भ में मादा भ्रूण हत्या के चलते समाज में पुरूष व महिला लिंगानुपात में भयंकर गिरावट आ सकती है जिससे आगे चलकर महिला अपहरण, बलात्कार तथा बहुपति प्रथा जैसी सामाजिक समस्याएँ जन्म ले सकती हैं। यह भी देखने वाली बात है की देश में साधन संपन्न प्रदेशों हरियाणा, पंजाब, दिल्ली तथा चंडीगढ़ में असमान लिंग अनुपात की समस्या सबसे गंभीर है।

उत्तर प्रदेश के ६ पश्चिमी जिलों जहाँ ० से ६ वर्ष के बच्चों में लिंग अनुपात की स्थिती सबसे ख़राब है वे बागपत, आगरा, गाजियाबाद, मथुरा, गौतमबुद्ध नगर , मुजफ्फरनगर उल्लेखनीय है कि यह जनपद हरियाणा और राजस्थान की सीमा से लगे हुए हैं, इन दोनों राज्यों में लिंग अनुपात की दशा उत्तर प्रदेश से भी ख़राब है।

मादा भ्रूण हत्या की समस्या के निराकरण में मीडिया तथा स्वैच्छिक संगठनो की अहम् भूमिका है। मीडिया के माध्यम से इस विषय से सम्बंधित सूचनाओं का प्रचार- प्रसार कर जन सामान्य को जानकारी दी जा सकती है। मादा भ्रूण हत्या को रोंकने के लिए हमे समाज में जागरूकता और संवेदनशीलता लानी होगी तथा इस बात को याद रखना होगा की महिलाओं के बगैर यह समाज नहीं चल सकता।

पूनम द्विवेदी

विश्व अब स्वाइन फ्लू महामारी के शुरूआती दिनों में

विश्व अब स्वाइन फ्लू महामारी के शुरूआती दिनों में

११ जून २००९ को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वाइन फ्लू या इन्फ़्लुएन्ज़ा या एक अत्यन्त संक्रामक किस्म के जुखाम को महामारी घोषित कर दिया।

यह घोषणा इसलिए बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ४० साल के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने किसी बीमारी को महामारी घोषित करते हुए 'एलर्ट ६' स्तर - जो सबसे गम्भीर चेतावनी का स्तर है - दिया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के 'एलर्ट ६' का तात्पर्य यह है कि जिस तरह से स्वाइन फ्लू संक्रामक है और जिस प्रकार से देश-से-देश फैलता जा रहा है यह अत्यन्त खतरनाक हो सकता है जैसे कि चंद महीनों में ही ३० हज़ार लोग इससे संक्रमित हैं, भारत में ही पाँच लोग संक्रमित पाये गए हैं और विश्व में लगभग १४० लोग इसके कारणवश मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं।

इस स्वाइन फ्लू से पहले किसी भी संक्रामक रोग का इतने आरंभ से ही मुयायना नहीं हुआ है। इसलिए इस रोग की रोकधाम मुमकिन है क्योंकि आरंभ से ही इस रोग की जांच, इलाज एवं पर्याप्त रोकधाम के प्रबंध करने की कोशिशें की गयीं हैं।

स्वाइन फ्लू जिस वायरस से होता है वोह अत्यन्त संक्रामक किस्म का है. अभी तक जिन देशों में स्वाइन फ्लू से ग्रसित लोग पाये गए हैं, यह अधिकाँश देश विकसित देश हैं और इनकी स्वास्थ्य प्रणाली काफी मजबूत है - रोगों के नियंत्रण के लिए जांच, इलाज एवं बचाव के प्रबंध अनुकूल हैं। यह इसलिए चिंताजनक बात है क्योंकि अब भारत एवं अन्य विकासशील देशों में भी यह रोग पाया जाने लगा है जहाँ पर स्वास्थ्य प्रणाली इतनी मजबूत नहीं है और इसीलिए इस रोग के नियंत्रण के प्रति सजगता से सक्रिय होना अनिवार्य है।

पहले भी १९१८ में इसी प्रकार का वायरस एच.१.एन.१ ने फ्लू महामारी फैलाई थी। यदि इतिहास में इन्फ़्लुएन्ज़ा महामारी पर नज़र डालें तो अक्सर पहले इसका घातक स्वरुप सामने नहीं आता है, और समय के साथ संक्रमण का फैलाव बढ़ता रहता है और वायरस परिवर्तित हो कर अत्याधिक घातक स्वरुप में फिर पनप उठता है।

इस सम्भावना को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है कि स्वाइन फ्लू की घातकता और संक्रामकता बढ़ या घट जाए - इसीलिए चेतावनी स्वरुप सरकारों से विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुरोध है कि समय रहते रोग नियंत्रण के प्रति चेत जाएँ।

यह एच.१.एन.१ वायरस युवाओं को अधिक संक्रमित करता है। अभी तक जो ३० हज़ार लोग इससे संक्रमित हैं, उनमें से अधिकाँश लोग २५ साल से कम उम्र के हैं।

इन स्वाइन फ्लू से संक्रमित लोगों में लगभग २ प्रतिशत लोगों को जानलेवा नुमोनिया भी हो गया है।

स्वाइन फ्लू से जो करीब १४० मौतें अभी तक हुई हैं उनमें से अधिकाँश लोग ३०-५० साल की उम्र के थे।

स्वाइन फ्लू इस मामले में भी अन्य इन्फ़्लुएन्ज़ा से भिन्न है क्योंकि अन्य इन्फ़्लुएन्ज़ा से अधिकाँश अधिक उम्र के कमजोर लोग ही ग्रसित होते हैं।

उम्मीद है कि समय रहते सरकारें रोग नियंत्रण एवं स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने के प्रति सक्रिय होंगी।

बाबी रमाकांत
(लेखक, विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक द्वारा २००८ में पुरुस्कृत हैं। संपर्क ईमेल: bobbyramakant@yahoo.com)

पंचायत भारतीय लोकतंत्र की प्राथमिक बुनियाद


पंचायत भारतीय लोकतंत्र की प्राथमिक बुनियाद

भारतीय लोकतंत्र में चुनाव पूर्व जनता से बड़े-बड़े वादे करना तथा चुनाव के पश्चात् विजयी होने पर जनता को भूल जाना एक सामान्य संस्कृति बन गई है, जो प्रत्येक स्तर के चुनाव में देखी गयी है। पंचायत चुनाव भी इससे अछूता नहीं रहा है जैसे की पिछले दो चुनावों में देखा गया है। यदि समस्या की जड़ पह्चान ली जाए तो हम पायेंगे की चुनाव में प्रत्याशियों तथा सामान्य जनता के मध्य प्रत्यक्ष संवाद की कमी के कारण ही जनता प्रत्याशियों पर अपना दबाव नहीं बना पाती तथा प्रत्याशी मात्र चुनाव के पूर्व जनता को ख्याली पुलाव परोसकर मुर्ख बनाने में सफल हो जाते हैं। इसके लिए जातिवाद छेत्रवाद, वर्गवाद के अलावां प्रलोभन भी दिया जाता है। लेकिन इसका एक दूसरा भी पहलू है और वह है प्रत्याशियों की स्वयं की दिक्कतें जिसको आज नजरअंदाज किया जा रहा है इसका सबसे अधिक प्रभाव लोकतंत्र के बुनियाद यानी पंचायतों में देखी जाती है।

इस व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है, वह है जनता और प्रतिनिधियों का एक साथ रहना। जिससे उनकी जबाबदेही काफी अधिक होती है लेकिन इस व्यवस्था के सफल संचालन में सिर्फ़ पंचायतें प्रतिनिधि ही जिम्मेदार नहीं हैं इससे ज्यादा व्यावहारिक केन्द्र एवं राज्य सरकारें करती हैं। अगर उनकी तरफ़ से बेहतर माहौल हो तो तभी यह अपनी भूमिकाओं को बेहतर ढंग से निर्वहन कर सकते हैं। इसलिए सारे दोष चयनित प्रतिनिधियों को ही है यह कहना थोड़ा मुश्किल है खासकर पंचायत प्रतिनिधियों के स्तर पर।

७३ वें संविधान संसोधन के पश्चात् पंचायतें लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियाद के साथ ग्रामीण विकास एवं वंचित वर्गों की विकास की मुख्या धारा में लाने का महत्वपूर्ण उपकरण भी बन गयी हैं। आज पंचायतों के पास संवैधानिक अधिकारों के साथ वे स्वयं निर्णय ले सकती हैं, अपने गाँव की योजना बना सकती हैं उसके क्रियान्वयन कर सकती हैं और कई तरह के कामों की निगरानी कर सकती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल , सिचाई, युवा कल्याण, महिला एवं बाल कल्याण रोजगार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय के अलावां इस पर योजना बनाने की जिम्मेदारी भी इनके पास है।

ऐसे में पंचायत प्रतिनिधियों का सक्षम होना बहुत जरूरी हो गया है। इसके अतिरिक्त आम जनता के प्रति पंचायतों को जबाबदेह बनाने की आवश्यकता के साथ-साथ पंचायत चुनाव साफ़ एवं निष्पक्ष हो सकें, ग्रामीण जनता में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति आस्था एवं विश्वास बढ़े, मतदाता एवं प्रतिनिधि के रूप में महिलाओं दलित एवं अन्य दलित वर्गों की भागीदारी बढ़े यह अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।

इस सम्बन्ध में कई सालों से प्रदेश में पंचायात व्यवस्था के ऊपर कार्यरत श्री अवनेश कुमार का कहना है कि ' वर्ष २००७ में उत्तर प्रदेश के लगभग सभी जिलों में स्वैक्षिक संस्थाओं द्वारा पंचायत मतदाता जागरूकता अभियान चलाया गया था। इस अभियान के अर्न्तगत जो सबसे मुख्य प्रक्रिया अपनाई गई थी वह थी जनता प्रतिनिधि संवाद जिससे चुनाव के बाद जनता चयनित प्रतिनिधियों से उन वादों को पूरा करने हेतु दबाव बना सके। निश्चित रूप से यह प्रक्रिया काफी उत्साह जनक रही। पहली बार लोकतंत्र के सबसे निचले स्तर पर प्रतिनिधियों नें अपनी कार्ययोजना एवं प्राथमिकतायें बताई और उसे अमल करने का वायदा किया.’ उनका आगे कहना था कि ' इस प्रक्रिया से उन जन प्रतिनिधियों का काफ़ी नुक्सान हुआ जो परदे के पीछे से राजनीती करते थे क्योंकि जनता यह देखना चाहती थी की जो प्रतिनिधि हमारा है उसकी छमता क्या है और वह हमारे लिए क्या कर सकता है।'

अगर हम भारतीय लोकतंत्र में बुनियादी स्तर पर सुधार लाना चाहतें हैं और इस लोकतंत्र को मजबूत बनाना चाहते हैं तो हमे पंचायत स्तर पर सुधार की प्रक्रिया को सबसे पहले देखना होगा तब हम एक बुनियादी और व्यापक विकास की परिकल्पना कर सकतें हैं।

अमित द्विवेदी

लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं।

यह लेख पंचायती राज व्यवस्था पर लखनऊ में आयोजित कार्यशाला के तहत लिखा गया है।

न्यायपालिका के यक्ष प्रश्न

न्यायपालिका के यक्ष प्रश्न

न्यायपालिका के गठन के सम्बन्ध में संविधान के अनुच्छेद १२४ के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति और उन्हें सेवा मुक्त करने की प्रक्रिया और व्यवस्था निर्धारित है | अनुच्छेद २१७ में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और उन्हें उसी प्रक्रिया द्वारा सेवामुक्त करने की व्यवस्था है, जिसके आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को सेवा मुक्त किये जाने का प्रावधान किया गया है | परिशिष्ट ३ में मुख्य न्यायाधीश और न्यायाधीशों की शपथ का प्रारूप दिया गया है जिसके अनुसार प्रत्येक न्यायाधीश अपनी पूरी योग्यता, ज्ञान और विवेक से अपने पद से जुड़े दायित्वों के, भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना पालन करने की शपथ लेता है |

संविधान यह सुनिश्चित करता है कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बिना किसी भय या प्रलोभन के निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करें | उपरले पायदान की न्यायपालिका ने अपने इस दायित्व का निर्वाहन निष्पक्ष और निर्भय होकर करने की उत्कृष्ट परम्परा भी स्थापित की है और इस देश के आम आदमी का विश्ववास जीता है | आज भी यह विश्वास जीवित है, इसीलिए इस देश में जनतंत्र जीवित है | (लेकिन यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि अधीनस्थ न्यायपालिका के लिए यह वक्तव्य नहीं हैं | ) इस देश में मितव्ययता सादगी- सत्यनिष्ठा और बहुत मायनों में समतामूलक सामाजिक परम्पराएँ थी जिन्होनें हमें एक जीवंत और मूल्य आधारित संविधान दिए और उनका सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकों के पक्ष में निर्वचन करके एक उत्कृष्ट परम्परा स्थापित की है | उच्च न्यायपालिका के इतिहास में अपवाद स्वरुप कभी-कभार किसी न्यायाधीश के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले भी आये हैं | एक अपवाद को छोड़कर भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अपने नैतिक अधिकार का उपयोग करके, भ्रष्टाचार के मामले में लिप्त होने के आरोपों की आन्तरिक जाँच में सही पाए जाने पर त्यागपत्र प्राप्त कर, समस्या का समाधान गरिमामय तरीके से कर लिया | न्यायमूर्ति मदान, उसके ताजा उदाहरण हैं | उस समय मुख्य न्यायाधीश बी.एन.खरे थे | देश की अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए १९९० में डॉ.मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री के पद पर नियुक्त होने के साथ ही देश में आर्थिक सुधारों का अवतार हुआ | फिर आर्थिक सुधारों को लागू करने की प्रक्रिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को निमंत्रण देकर जो धन देश में निवेश किया गया उससे एक बहुत प्रबल मध्यवर्ग देश में पनपा जिसके लिए धन प्राप्त करना आसान हो गया लेकिन साथ-साथ सामाजिक मूल्य भी तेजी से विघटित हुए |

जय प्रकाश नारायण के बाद देश का कोई ऐसा नेतृत्व नहीं रह गया जो नैतिक आदर्शों के लिए युवजनों को आकर्षित कर सके | नई पीढ़ी के एक महत्वपूर्ण हिस्से ने,धन और सम्पदा के प्रभुत्व को बढ़ाकर, एक नया प्रभुवर्ग स्थापित किया और समाज में येन केन प्रकारेण, धन अर्जित करना एक मात्र आदर्श रह गया | सारांश यह है कि समाज में नैतिक मूल्य तिरोहित होने लगे और भ्रष्टाचार को सामान्य रूप से समाज में स्वीकृत मिलने लगी | १९९० के बाद उच्च न्यायपालिका में भी न्यायाधीशों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले बढ़ने लगे | इसका तात्पर्य यह नहीं है कि १९९० के पहले ऐसे कोई आरोप नहीं थे लेकिन पहले यह मामले अपवाद स्वरुप सामने आये | बाद में ऐसे बहुत से मामले सामने आये, उन सबका विवरण देने का कोई औचित्य नहीं है लेकिन अभी हाल में यह समाचार पत्रों की सुर्खियों में छाये हैं, इसलिए इस गंभीर समस्या पर नए सिरे से विचार विशेष परिस्थितियों में आवश्यक हो गया है | हाल में जो समाचार छपा है, उसमें मुख्य न्यायाधीश ने स्वयं सरकार को यह संस्तुति की है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग चलाया जाए |

उनको उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को दायित्व से वंचित किया जा चुका है लेकिन वह वेतन और सभी सुविधाएँ यथापूर्वक प्राप्त कर रहे हैं | हाल का दूसरा महत्वपूर्ण मामला भी समाचार पत्रों में छपा है कि चंडीगढ़ उच्च न्यायालय की न्यायाधीश निर्मला यादव को १५००० रुपए किसी वाद को किसी विशिष्ट प्रकार से निर्णीत करने के लिए दिए गए | इस मामले की जाँच के लिए मुख्य न्यायाधीश ने तीन न्यायाधीशों की एक समिति गठित की है तथा साथ में केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सी.बी.आई.) को जाँच करने की अनुमति दी गई है ।

उपरोक्त दोनों मामलों के अतिरिक्त एक और बहुत महत्वपूर्ण मामला इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय में विचारार्थ लंबित है जिसका उल्लेख किये बिना समस्या की गंभीरता को समझना कठिन है | उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जनपद के तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की भविष्यनिधि से (कुछ सूत्रों के अनुसार, यह राशि २३ करोड़ या उससे अधिक) करोडों रुपयों का गबन किया गया है | यह सूचना जनपद के विशेष न्यायाधीश(सी.बी. आई.) या पुलिस की प्राथमिकी द्वारा कराई और मामले की जाँच प्रारम्भ हुई | आरोप प्रथम दृष्या सही पाया गया और जनपद न्यायाधीश, न्यायालय के नजीर आशुतोष अस्थाना और ८२ अन्य को भविष्यनिधि से अनाधिकृत रूप से धनराशि निकालने आदि के आरोप में निरुद्ध किया गया | श्री अस्थाना ने जाँच न्यायाधीश के समक्ष भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १६४ के अंतर्गत दिए गए बयान में यह स्वीकार किया कि भविष्यनिधि से उनके द्वारा अनाधिकृत रूप से धनराशि निकाली गयी लेकिन साथ में यह भी बयान दिया गया कि उक्त धनराशि का उपयोग उन्होंने विभिन्न जजों और उनके परिवार के लोगों को बहुत सी मूल्यवान वस्तुएं खरीद कर देने में खर्च किये हैं | शपथ पर जाँच न्यायाधीश के समक्ष दिए गए बयान के अनुसार, उस धनराशि कि खरीदी हुई वस्तुओं को जिन जजों या उनके परिवार के लोगों को दी गई है उसमें उच्च न्यायालय से वर्तमान न्यायाधीशों में आठ जज, कलकत्ता और उत्तराखंड के उच्च न्यायालय के एक-एक जज तथा २३ जनपद न्यायाधीश आदि बहुत से लोग सम्मिलित हैं | आरोप के सम्बन्ध में पुलिस को उपरोक्त न्यायाधीशों से भी पूंछताछ करनी पड़ेगी |

इन परिस्थितियों में जाँच निष्पक्ष हो सके, इसलिए यह प्रार्थना की गई है कि यह जाँच स्थानीय पुलिस से न कराकर केन्द्रीय जाँच ब्यूरो द्वारा कराई जाये | इन विशेष परिस्थितियों में आरोपों की जाँच के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जाये, यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है | उपरोक्त विशेष अनुमति याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति बी.एन. अग्रवाल द्वारा की गई टिप्पणी उल्लेखनीय है -"उच्च न्यायालय के न्यायाधीश स्वर्ग से अवतरित नहीं होते, वे भी इसी समाज की उपज हैं जो समाज भ्रष्ट राजनेता और भ्रष्ट बाबू बनाता है|"

एक और समाचार के अनुसार, उपरोक्त मामले की जाँच करते हुए एक वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने पुलिस महानिरीक्षक को लिखे गए सरकारी पत्र में कहा कि स्थानीय पुलिस के उपरोक्त मामले को स्वतंत्र रूप से जाँच करना संभव नहीं हो पा रहा है, क्योंकि उसमें उच्च न्यायालय के ८ वर्तमान न्यायाधीश, एक सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, २३ जनपद न्यायाधीश, एक कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और एक उत्तराखंड उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध आरोप हैं और पुलिस पर इस मामले में दबाव डाला जा रहा है | इसलिए जाँच ब्यूरो के द्वारा कराई जाये | सर्वोच्च न्यायालय में मामले की सुनवाई कर रही पीठ ने उत्तर प्रदेश के अधिवक्ता से इस सम्बन्ध में अपना आक्रोश प्रकट किया कि पत्र को पहले न्यायालय के समक्ष क्यों नहीं लाया गया | उपरोक्त मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचारार्थ लंबित है | जिन प्रश्नों पर विचार करना है-

- भ्रष्टाचार में लिप्त न्यायाधीशों की जाँच किस प्रकार कराई जाए- पुलिस द्वारा या न्यायाधीशों द्वारा ? यदि न्यायपालिका के भ्रष्टाचार की जाँच न्यायपालिका स्वयं अपनी आन्तरिक प्रक्रिया द्वारा करे तो क्या लोगों का विश्वास न्यायपालिका से समाप्त होगा |

- क्या इस प्रकार की जाँच का भ्रष्टाचार को दबाने का प्रयास नहीं माना जायेगा ?

- क्या न्यायाधीश कानून से ऊपर हैं ?

- क्या उनके लिए अलग से कानून बनना चाहिए ?
- और इन प्रश्नों के ऊपर सबसे बड़ा यक्ष है कि यदि हर आरोप की जाँच पुलिस या केंद्रीय जाँच ब्यूरो द्वारा कराई जाये तो क्या न्यायाधीशों का स्वतंत्र रूप से कार्य करना संभव रहेगा ?

क्या महाभियोग की प्रक्रिया से भ्रष्ट न्यायाधीश को सेवामुक्त करना आज संभव रह गया है ? सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री सावंत के अनुसार, महाभियोग की प्रक्रिया राजनैतिक हस्तक्षेप से प्रभावित होने के कारण आज व्यवहारिक नहीं रह गई है | इस वक्तव्य की पुष्टि स्वयं विधि मंत्री ने की है | बहुत से गंभीर प्रश्न इन विषय पर मुंह बाये खड़े हैं जिनका उत्तर ढूँढ़ना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि सब कुछ मिलाकर, न्यायपालिका, कार्यपालिका और एक बिकाऊ संसद के पास उसका उत्तर नहीं है | संभवतः देश का जाग्रत समाज उस समस्या का उत्तर ढूंढेगा|

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राम भूषण मेहरोत्रा

बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं का बिगड़ता ढांचा

बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं का बिगड़ता ढांचा

हमारे देश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का एक बहुत बड़ा त्रिस्तरीय ढांचा विद्यमान है फिर भी हमारे यहाँ समुदाय को आवश्यकता पड़ने पर उचित मूल्य पर तकनिकी रूप से सही एवं सुरक्षित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। यही कारण है कि ऐसे में कोई समस्या आने पर तुरंत उसका समाधान न मिल पाने के कारण माताएं एवम शिशु भी आकस्मिक मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। इस स्थिती में लोग स्थानीय स्वास्थ्य कर्मी से सहयोग की आशा करते हैं किंतु उचित प्रशिक्षण तथा जानकारी न मिलने के कारण वे इस कठिन परिस्थितियों में चाहते हुए भी उचित सहयोग नहीं कर पाते।

देश में सरकार ने समुदाय के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए, उपकेन्द्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र का ग्रामीण इलाकों में एक जाल सा बिछा दिया है। इसके बावजूद भी उत्तरी भारत के राज्यों में अधिकतर ग्रामीण छेत्र का समुदाय जरूरत और संकट के समय इन सुविधाओं से वंचित रह जाता है। जिसके पीछे कई कारण जिम्मेदार हैं। जैसे; समुदाय के लोगों की इन प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और सामुदायिक केन्द्र अस्पतालों तक दूरी के कारण पहुँच नहीं है। अस्पतालों का ख़राब रख-रखाव, महत्त्वपूर्ण तकनीकी पदों पर कुशल लोगों की कमी, जरूरी दवाओं के लिए धन की कमी, सेवाएं मात्र उपचार के लिए न की आवश्यक परामर्श के लिए इत्यादी ।

इन सब कारणों की वजह से गैर सरकारी स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता एक महत्वपूर्ण भूमिका में परिलक्षित हुए हैं। इन स्थितियों में इनकी भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता समुदाय के बीच से ही आए हुए व्यक्ती होते हैं। इसलिए समुदाय पर इनकी समझ और पकड़ काफ़ी मजबूत होती है। समुदाय अपने संकट के काल में इन्ही स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता के सामने अपनी समस्याओं के साथ आते हैं।

परन्तु तकनिकी ज्ञान की कमी और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर चाहते हुए भी उचित ज्ञान न मिल पाना एक विडम्बना है। मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि उसका जन्म है, परन्तु हमारे देश में यह एक जटिल समस्या है। इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश में देखने को मिलता है जहाँ शिशु मृत्युदर ७७ प्रति १००० जीवित जन्म है, जिसका मुख्य कारण है स्वास्थ्य सेवाओ की इन विषम परिस्थितियों में समुदाय तक पंहुच और स्वास्थ्य सेवा प्रदानकर्ता का तकनीकी ज्ञान।

परम्परा अनुसार ग्रामीण छेत्रों में प्रसव अधिकतर दाईयों द्वारा ही कराये जाते हैं जिन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी तकनिकी ज्ञान न के बराबर होता है और इनका यह कार्य पीढियों से चला आ रहा है जो की इनके जीवन यापन का एक मात्र साधन है। अब ऐसे में अगर इन सेवा प्रदानकर्ता को तकनिकी ज्ञान और उनकी सीमाओं से अवगत कराने का प्रयास किया जाए तो प्रसव सम्बन्धी विषम परिस्थितियाँ होने पर व्यर्थ समय बेकार किए बगैर सम्बंधित डाक्टर के पास भेज सकते हैं जिससे माँ और शिशु मृत्यु दर दोनों में ही कमी लाने का प्रयास किया जा सकता है।

अतः यह अत्यन्त आवश्यक है की हम अपने देश में बुनियादी स्वास्थ्य व्यवस्था को और भी मजबूत बनायें।

अमित द्विवेदी

लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं।

गर्भपात कितना सुरक्षित, कितना असुरक्षित


गर्भपात कितना सुरक्षित, कितना असुरक्षित

विज्ञान की तरक्की ने जहाँ एक ओर हमारे जीवन को नए आयाम दिए हैं, वहीँ दूसरी ओर हमारा दखल कुछ अगम्य छेत्रों में बढाया भी है। हम बिना अपने नुकसान का आंकलन किए ही नई विकसित होती तकनीकों का इस्तेमाल करते जा रहे हैं ऐसी ही एक तकनीक का परिणाम है गर्भपात। शहरी व ग्रामीण छेत्रों में गर्भपात ज्यादातर इन कारणों से कराये जाते हैं, जैसे; गर्भ निरोधक साधनों के विफल होने पर, गर्भ निरोधक साधनों की अनुपलब्धता, बलात्कार के कारण ठहरा गर्भ, परिवार नियोजन के सम्बन्ध में, लिंग जांच के बाद लड़की का पता लगने पर आदि।

उपरोक्त लिखी सभी समस्याओं के हल के रूप में गर्भपात का उपयोग किया जाता है। आज कल रोज हर अखबार में कम से कम एक विज्ञापन गर्भ समापन की दवाईयों या तथाकथित सुरक्षित गर्भपात क्लीनिक का होता है, जिनका दावा होता है “ बिना किसी परेशानी के गर्भपात से छुटकारा।”

गर्भपात के ऐसे असुरक्षित साधन आज इतनी आसानी से उपलब्ध हैं की कोई भी इनका उपयोग कर सकता है। जैसे सुईयों द्वारा, दवाईयों के प्रयोग से, पारंपरिक साधन आदि से। यदि आप सुरक्षित गर्भपात करवाना चाहतें हैं तो कुछ बातों को ध्यान में रखना जरूरी है। जैसे ; जब गर्भ की अवधि १२ हफ्ते से कम हो, शारीरिक रूप से महिला स्वस्थ्य हो, महिला में खून की कमी न हो, महिला की सहमती और नाबालिग़ लड़की के अभिभावकों की सहमती हो आदि।

मात्रत्व मृत्यु के पीछे असुरक्षित गर्भपात एक महत्वपूर्ण कारण है। भारत में प्रतिवर्ष ६४ लाख गर्भपात होते हैं। भारत में प्रति एक लाख की जनसँख्या पर चार गर्भपात सेवा प्रदाता उपलब्ध हैं। १६ लाख से ज्यादा गर्भपात अनौपचारिक संसाधनों में प्रत्येक वर्ष होते हैं जहाँ असुरक्षित गर्भपात एवं मृत्यु का भय भी बना रहता है।

गर्भपात वर्तमान में एक ऐसी विकट समस्या के रूप में हमारे समाज में निकलकर आ रही है जो महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालने का एक माध्यम है। महिलाओं की दशा में सुधार तथा शिशुओं की जीवन रक्षा के लिए आवश्यक है और इसके लिए योजना एवं अनचाहे गर्भ हेतु परिवार नियोजन के साधनों का सही उपयोग हो सके।

महिलाओं को अपने शरीर पर अधिकार को मान्यता देते हुए भारत में कई सारे गर्भपात अधिनियम बनाये गए परन्तु आज भी गाँव और शहरों में कितने ही गर्भपात क्लीनिक बिना पंजीकरण के कार्यरत हैं। पंजीकरण की अनुपस्थिती में न तो सुरक्षा के मानकों का ध्यान रखा जाता है और न ही होने वाले गर्भपात की मृत्यु का। जिसके कारण जिला व राज्य स्तर पर सही आंकडे उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। असुरक्षित गर्भपात को रोंकने के लिए हमे समुदाय को जागरूक करना होगा ओर इसके लिए हमे सामाजिक संवेदनशीलता भी लानी होगी।

अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हुए हैं।

कृषि की मार सहता किसान


कृषि की मार सहता किसान

भारत की तरह उत्तर प्रदेश मूलतः कृषि आधारित प्रदेश है और आंकडों के लिहाज से प्रदेश के कुल कर्मकारों का ६६ और ग्रामीण कर्मकारों के लगभग ७८ प्रतिशत लोग कृषि आधारित हैं। लेकिन कृषि आधारित कामगारों से आशय केवल किसान और खेतिहर मजदूर तक सीमित नहीं है वरन पशुपालक, आदिवासी, खनन मजदूर, कृषि कार्य में सहायता करने वाले कृषि उपकरणों की मरम्मत करने वाले, मोटे आनाज और सब्जी-फल बेंचने वाले कृषि उत्पादों को तोलने और धोने वाले आदि सभी कृषि पर आधारित कर्मकार हैं। उत्तर प्रदेश की १३.५० करोड़ से ज्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है। वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा भी हो सकती है क्योंकि खेती न तो केवल एकल उपक्रम है और न ही वर्ष के खास समय पर होने वाला काम है।

उत्पादन परक नीतियों और कार्यक्रमों के कारण रासायनिक खेती का विस्तार पुरे प्रदेश में हुआ है और खेती का तरक्की आधार केवल कृषि उपजों का मिलियन टन में उत्पादन ही रहा है तथा खाद, बीज, कीटनाशक, सिंचाई आदि में काफी वृद्धि हुई है । इस सम्बन्ध में आर्थिक न्याय अभियान के समन्यवयक श्री के०के० सिंह का कहना है की 'उत्तर प्रदेश की आज की परिस्थितियां हम सभी से छिपी नहीं हैं। बात किसानो के सन्दर्भ में कही जाए तो आज एक तो किसान के पास खेती करने को जमीन नहीं है, दूसरी तरफ़ बढ़ता भूमि अनुत्पादन उन्हें प्राकृतिक रूप से भुमीहीन बना रहा है। सच कहा जाए तो किसान ही वह श्रेणी है जिस पर सब तरफ़ से मार पड़ रही है चाहे वह प्रकृति की हो, सरकारी नीति की हो अथवा बाज़ार की और किसान सब कुछ चुप-चाप सहने को विवश है। एक ओर तो प्राक्रतिक आपदा एवम ग़लत नीतियाँ किसानो को तबाह कर रहीं हैं, तो दूसरी तरफ़ बाजारीकरण तथा कृषि में कारपोरेट सेक्टर का बढ़ता जाल भी उसे परेशान कर रहा है। इन सभी विषम परिस्थितियों के होते हुए भी आज की महती आवश्यकता हम सभी को एक साथ मिल कर कार्य करने की है। सभी को एक जूट होकर प्रयास करना होगा ओर इसके लिए हमे ऊपरी स्तर पर ही नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर भी कार्य करने की जरूरत है। '

असंगठित छेत्र के उपक्रमों हेतु गठित राष्ट्रिये आगोय द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में जिक्र है की भारत में ७७ प्रतिशत आबादी २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजरा करती है। जिसमे से ४१ प्रतिशत लोगों की आमदनी १५ रूपये रोजाना से भी कम है। इस रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आबादी का ८८ प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों का ८० प्रतिशत और मुसलमानों के ८५ प्रतिशत लोग २० रूपये प्रतिदिन रोजाना से भी कम पर गुजारा कर रहे हैं। हम जानते हैं की आज-कल औद्योगिक जगत कृषि पर निगाह गड़ाए हुए है। किंतु कुछ कृषि विश्लेषकों का कहना है की औद्योगिक जगत के कृषि छेत्र में आने से किसानों की आमदनी बढ़ेगी क्योंकि बिचौलिए कम हो जायेंगे और लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।

किंतु उद्योग जगत के आने से मध्य वर्ग घटता नहीं बल्कि बढ़ जाता है। जहाँ तक रोजगार का सवाल है तो कुछ लोगों को रोजगार तो मिलता है किंतु उसके साथ ही बेरोजगारों की संख्या में भी वृद्धि हो जाती है। उद्योग जगत लगातार कृषि के लिए जोर आजमा रहा है किंतु सत्य तो यह है की खेती और कम्पनी एक साथ नहीं चल सकती। अमेरिका में एक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष २००२ में ९ लाख किसान खेती करते थे किंतु २००४ में इनकी संख्या घटकर ७ लाख पहुँच गयी। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार १९९५ में एक किसान को ७० प्रतिशत तक खेती में फायदा होता था, जो की २००७ में घटकर सिर्फ़ ४४७ प्रतिशत रह गया। यह सब विदेशी औद्योगिक कंपनियों के आने से हुआ है। यूरोप में हर एक मिनट में एक किसान खेती छोड़ रहा है। अगर यही सब चलता रहा तो अपने प्रदेश के १२ करोड़ लोग कहाँ जायेंगे परिणाम साफ़ है शहरों की तरफ़ जाकर मजदूरी करेंगे और झुग्गी-झोपड़ियों में रहेंगे। किंतु यहाँ से भी उनको खदेड़ने की तैयारी चल रही है क्योंकि मुंबई को न्यूयार्क तथा दिल्ली को संघाई बनाने की बात जो चल रही है। ऐसे में यह साफ़ दीखता है की आज के भौतिकवादी समय में जहाँ उपभोगतावाद तथा उद्योग जगत को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहां पर किसान और किसान से खेतिहर मजदूर बने लोगों के लिए कोई जगह नहीं है।

अमित द्विवेदी

लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं।

कतरा-कतरा जिन्दगी


कतरा-कतरा जिन्दगी

हमारे पित्रसत्तात्मक भारतीय समाज में महिलाओं की दशा-दयनीय तो है ही, यही नहीं सदियों से चला आ रहा महिलाओं पर पुरुषों का शिकंजा आज भी कायम है। हमारे बीच ही बुनियादी इकाई परिवार का स्वरुप भी टूटते-टूटते सिमटता जा रहा है। इसके चलते पारिवारिक ढांचे में सबसे कमजोर महिलाओं को सबसे अधिक असुरक्षा और तनाव से होकर गुजरना पड़ रहा है, जो आज एक व्यापक समस्या का रूप धारण कर चुकी है। महिलाओं के साथ सामाजिक स्तर पर तो हिंसा होती ही है परन्तु घर के भीतर भी वह सबसे ज्यादा हिंसा का शिकार होती हैं।

आज एक महिला अपने ही घर में और अपनों के बीच सबसे ज्यादा असुरक्षित है। वर्तमान परिवेश में बाज़ार की हिमायत में सबसे आगे मीडिया ने, जिसे इस ज्वलंत विषय पर संवेदन्शीलता दिखानी चाहिए, भी महिलाओं को खरीद विक्री वाली वस्तु के रूप में समाज को परोशने में कोई कसर नहीं छोड़ी है इससे परिवारों में आंतरिक हिंसा बढ़ती जा रही है।

राष्ट्रिये स्वास्थ्य परिवार कल्याण सर्वेक्षण -३, वर्ष २००६-०७ के मुताबिक भारत में २७ फीसदी विवाहित महिलाएं पति की शारीरिक व यौन हिंसा की शिकार हैं। विवाहित हिंसा की यह घटना बिहार में सबसे ज्यादा ५९ प्रतिशत दर्ज की गई जबकि उत्तर प्रदेश में यह आंकडा ४२।४ प्रतिशत है। इस सर्वेक्षण के मुताबिक ५४ फीसदी महिलाओं ने पति द्वारा पत्नी की पिटायी को उचित बताया।

राष्ट्रिये अपराध शोध संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में विभिन्न आपराधिक मामलों में वृद्धि होती जा रही है, वर्ष २००५ में अपहरण के २३०४ मामले बढ़कर २००७ में २९४७ हो गए। दहेज़ हत्या २००५ में १५८४ से बढ़कर २००७ में १८७७ हो गई। यह आंकडे बताते हैं की उत्तर प्रदेश कुल जनसँख्या के लिहाज से ही नहीं वरन महिलाओं के प्रति हिंसा के लिहाज से भी सबसे आगे है।

इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश में महिला स्वास्थ्य और कन्या भ्रूण हत्या पर कार्यरत गैर सामाजिक संस्था, वात्सल्य की प्रमुख, डाक्टर नीलम सिंह का कहना है की ‘ महिलाओं के प्रति भेद-भाव जन्म लेने के पहले से ही शुरू हो जाता है और उनकी मृत्यु तक चलता है। गरीबी, अशिक्षा, कोई भी सामाजिक हिंसा इत्यादी की मार सबसे ज्यादा महिलाओं पर ही पड़ती है।’ उनका आगे कहना है की ‘प्रदेश में वात्सल्य द्वारा कराये गए सर्वेक्षण में यह परिणाम सामने निकलकर आया है की ५२ प्रतिशत औरतों ने माना की वे संयुक्त परिवार में ज्यादा हिंसा का शिकार होती हैं जबकी ११ प्रतिशत औरतों का कहना था की एकल परिवार में ज्यादा हिंसा होती है। ५३ प्रतिशत औरतों ने कहा की हिंसा ख़त्म करने की जिम्मेदारी पति की होनी चाहिए क्योंकि वही सबसे ज्यादा हिंसा करता है। ८१ प्रतिशत युवा महिलाएं कानून के जानकारी की आवश्यकता भी महसूस करती हैं घरेलु हिंसा को ख़त्म करने में।'

भारत ने अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिग्यांपत्रों पर लिंग समानता तथा महिला सशक्तिकरण पर अपनी प्रतिबधता हेतु हस्ताक्षर किए हैं किंतु इसके बावजूद भी महिलाओं पर हिंसा की किसी भी प्रकार से कोई कमी नहीं आई है। सिर्फ़ संवैधानिक अधिकार दे देने से ही महिलाओं के प्रति हिंसा को कम नहीं किया जा सकता है। महिलाएं अपने- आप को तभी स्वतंत्र महसूस करेंगी जब हमारा राज्य, राष्ट्र, हमारा समाज उनकी निजी महत्ता, छमता और प्रतिभा को समझे, उनकी इच्छाओं और सपनो को मान्यता दे और समाज में खुल कर संवाद करने का उन्हें भी मौका मिले।

पूनम द्विवेदी

मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सिंथिया मॉंग का बर्मा से सम्बंधित सन्देश

मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सिंथिया मॉंग का बर्मा से सम्बंधित सन्देश

२९ मई २००९

में यह अपील इस उम्मीद से लिख रही हूँ कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं एवं जन-समूह बर्मा में चल रहे संघर्ष को सहयोग प्रदान करें, और हाल ही में हुई औंग सन सु कई की पुन: गिरफ्तारी का खंडन करें जो बर्मा में व्याप्त हुकूमत का मानवाधिकारों एवं लोकतंत्र के प्रति संवेदनहीनता जाहिर करता है.

औंग सन सु कई के खिलाफ लग रहे आरोप भद्दे हैं और न केवल बर्मा के लोगों की छवि बल्कि एशिया की सरकारों की छवि भी दूषित कर रहे हैं. इस नाज़ुक मोड़ पर, बर्मा की ५० करोड़ जनता के लिए जिनकी ज़िन्दगी अनिश्चितता, सदमें और भ्रम में धसी हुई है, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया और भी अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाती है.

यह हर व्यक्ति, संस्था और सरकार की जिम्मेदारी है कि उन लोगों की रक्षा की जाए जिनके नेता सिर्फ उनका शोषण ही करते हों.

बर्मा की मौजूदा हुकूमत ने २०१० में चुनाव करने के निर्णय से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि सुधारने की पूरी कोशिश की है. परन्तु इन चुनाव की तैयारी में जिस तरह से हुकूमत लोगों को दबा रही है, और औंग सन सु कई को गिरफ्तार रख रही है, इससे साफ़ ज़ाहिर है कि वोह सिर्फ इन चुनाव का एक ही परिणाम सुनिश्चित करना चाहती है कि मौजूदा हुकूमत ही 'लोकतान्त्रिक' चुनाव जीत कर अपना राज कायम कर सके.

यह आवश्यक है कि हम सब बर्मा में कुछ बहादुर लोगों की आवाजों को मजबूत करें जैसे कि मिन को निंग और यु विन टिन, जिन्होंने अपने जीवन को खतरे में डाल कर भी लोकतंत्र के लिए संघर्ष को बल प्रदान किया है. हम सब लोगों को मांग करनी चाहिए कि सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा किया जाए जिससे कि बिना पक्षपात के खुली और लोकतान्त्रिक चुनाव प्रक्रिया आगे बढ़ सके.

बर्मा के सरहदी इलाकों में मौजूदा हुकूमत द्वारा स्थानीय लोगों को सरहदों की रक्षा करने के लिए उत्तेजित करने से आम लोगों पर अत्याचार बढ़ गया है जिसके फलस्वरूप आम लोग अक्सर सरहद पार कर के पडोसी देशों में शरण ले रहे हैं.

औंग सन सु कई का कहना है कि अभी भी देर नहीं हुई है और सभी पार्टियों को बैठ कर वार्तालाप से समझौता करना चाहिए.

मेरी अपेक्षा है कि आप जैसे मानवाधिकारों की संग्रक्षा करने वाले लोग, बर्मा में चल रहे लोकतंत्र के लिए निडर संघर्ष को सहयोग और मजबूती प्रदान करेंगे.

मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सिंथिया मॉंग