अण्णा आंदोलन में लोग गिरफ्तारी दें: डॉ संदीप पाण्डेय

छाया: जित्तिमा - सी.एन.एस.
[English] देशभर में अनेक नागरिक समूह अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार मुहिम से जुड़ रहे हैं. जब अन्ना हजारे २७-२९ दिसम्बर २०११ तक मुंबई में अनशन पर बैठेंगे, तब अनेक नागरिक देश में जगह-जगह अनशन/ प्रदर्शन आयोजित कर रहे हैं. मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि "लोगों से अपील की जाती है कि जब अण्णा हजारे मुम्बई में अनशन पर बैठें जब तक वे भी अपने-अपने इलाकों में धरने या अनशन के कार्यक्रमों का आयोजन करें व उसके बाद जिला मुख्यालय या नजदीक के थाने पर गिरफ्तारी दें."

डॉ संदीप पाण्डेय, आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय एवं लोक राजनीति मंच से सम्बंधित हैं.

डॉ पाण्डेय ने बताया कि "मैं खुद हरदोई जिले में स्थित अपने आशा आश्रम, ग्राम लालपुर, पोस्ट व थाना अतरौली, पर 27 से 29 दिसम्बर, 2011, तक अनशन पर बैठूंगा व 30 दिसम्बर को साथियों के साथ अतरौली थाने पर गिरफ्तारी दूंगा।"

फरवरी २०१२ में घोषित विधान सभा प्रादेशिक चुनाव के सन्दर्भ में डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि "आने वाले विधान सभा चुनावों में हम अपील करते हैं किसी भी भ्रष्ट दल या उसके उम्मीदवार को अपना मत न दें तथा सबसे ईमानदार उम्मीदवार, भले ही वह निर्दलीय हो या उसके जीतने की सम्भावना न हो, को ही अपना मत दें। भ्रष्ट दल या उम्मीदवार को अपना मत देकर भ्रष्टाचार को बढ़ाने में अपना योगदान न दें।"

सी.एन.एस.

२०१५ तक शून्य एच.आई.वी. संक्रमण एवं मृत्यु से बहुत दूर है भारत

[English] [फोटो] थाईलैंड की प्रसिद्ध वृत्तचित्र निर्माता एवम् ऍफ़.एम. रेडियो पत्रकार सुश्री जित्तिमा जनतानामालाका ने लखनऊ के सी-ब्लाक चौराहा इंदिरा नगर स्थित प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त केंद्र के प्रांगण में असंक्रामक रोगों एवम् दीर्घकालिक व्याधियों से सम्बंधित अपने  कुछ प्रासंगिक वृत्तचित्रों का प्रदर्शन गणमान्य पत्रकारों और नागरिकों के समक्ष किया.

सुश्री जित्तिमा जनतानामालाका थाईलैंड के चियांग माई नामक शहर में स्थित जे.आई.सी.एल.मीडिया एंड कम्यूनिकेशन सर्विसेस कम्पनी, (जो सी.एन.एस.की होस्ट कम्पनी है), की प्रबंध निदेशक भी हैं. जून २०११ में जित्तिमा की फिल्म "प्रोटेक्ट पब्लिक हेल्थ" ब्राज़ील में प्रदर्शित की गयी थी.

इस अवसर पर हाल ही में लखनऊ के  संजय  गाँधी  स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान में एड्स पर आयोजित ऐसीकोन २०११ पर उनके द्वारा बनायी गयी फिल्म "गेटिंग टू  जीरो : लॉन्ग  रोड  अहेड  फॉर  इंडीयास  एड्स  प्रोग्राम” का भी प्रदर्शन किया गया. करीब ३० मिनट लम्बे इस वृत्त चित्र में उन मूलभूत वास्तविकताओं को दर्शाया गया है जो यू.एन.एजेंसियों द्वारा प्रस्तावित और भारत सरकार द्वारा अनुमोदित, एच.आई.वी. एवम् एड्स संबधित नए संक्रमणों, नई मृत्युओं और इस रोग से जुड़ी हुयी सामाजिक भ्रांतियों को २०१५ तक पूर्ण रूप से ख़तम करने के लक्ष्य में बाधक सिद्ध हो सकती हैं.

जब तक टी.बी.और एच.आई.वी. के सह संक्रमण को रोका नहीं जायेगा तब तक एड्स से ग्रसित व्यक्ति मरते रहेंगे, क्योंकि एड्स पीड़ित व्यक्तियों की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण टी.बी.ही है. जब तक हम एच.आई.वी. के हाई रिस्क ग्रुप, जैसे समलैंगिक, इंजेक्शन द्वारा ड्रग लेने वाले, वेश्यावृत्ति करने वाले, आदि व्यक्तियों का समाज में बहिष्कार करेंगे, उनके साथ भेदभाव करेंगे तथा उन्हें अपराधी घोषित करते रहेंगे, तब तक हमारी वर्तमान स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उन्हें नहीं मिल सकेगा और उनमें एड्स/एच.आई.वी. संक्रमण का खतरा बना रहेगा. एच.आई.वी. सम्बन्धी नए संक्रमणों, मृत्यु और भेदभाव को पूर्ण रूप से शून्य करने के लिए हमारी वर्तमान स्वास्थ्य  प्रणाली को सुदृढ़ करना नितांत आवश्यक है, ताकि कोई भी निमोनिया, अतिसार, कुपोषण,तपेदिक,हेप टाइटिस बी एवम् सी आदि निरोध्य बीमारियों से (जिनका इलाज संभव है) न मरे.

यह हम सभी के लिए शर्म की बात है उचित दवाएं उपलब्ध होने पर भी १८,००० शिशु (२००९ के आंकड़े) जन्म के दौरान एच.आई.वी. से संक्रमित हो रहे हैं, क्योंकि उनके माता पिता में से एक अथवा दोनों एच.आई.वी. से ग्रसित थे. भारत का नेशनल एड्स कंट्रोल ओर्गैनाईजेशन (नैको) इस प्रकार की अनावश्यक मृत्यों को रोकने में क्यूँ असफल हो रहा है? यह एक विचारणीय प्रश्न है. इस प्रकार के संक्रमण को रोकने के लिए नैको द्वारा अभी भी नेविरापीन नामक दवा दी जा रही है जो अधिक कारगर नहीं है, तथा अन्य प्रभावकारी दवाएं बाज़ार में उपलब्ध है.

सी.एन.एस.

एच.आई.वी. दर गिरा पर यौन संक्रमण का अनुपात बढ़ा है

[English] आज संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान में चौथे राष्ट्रीय एड्स अधिवेशन (एसीकान -२०११) का उद्घाटन एस.जी.पी.जी.आई. निदेशक डॉ आर.के.शर्मा ने किया. दक्षिण अफ्रीका से डॉ होसेन कोवाडिया, अंतर्राष्ट्रीय एड्स सोसाइटी के पूर्व अध्यक्ष डॉ मार्क वैन्बेर्ग, एड्स सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के महासचिव डॉ इश्वर एस गिलाडा, एसीकान-२०११ अध्यक्ष डॉ तपन ढोल, आदि विशेषज्ञ भी उद्घाटन समारोह में शामिल थे.

चौथे असिकान में १५ अंतर्राष्ट्रीय एड्स विशेषज्ञ, ७० राष्ट्रीय एड्स विशेषज्ञ, १५० ग्रामीण-शहरी चिकित्सक, और ५०० स्वास्थ्य कर्मी भाग ले रहे हैं.

राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्थान के अनुसार, भारत में २३.९५ लाख एच.ए.वी. से ग्रसित लोग हैं. भारतीय जनसंख्या में एच.आई.वी. ०.२५% महिलाओं और ०.३६% पुरुषों में संभावित है. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य डॉ डी.से.एस. रेड्डी ने कहा कि "नए एच.आई.वी. संक्रमण दर में गिरावट और बढ़ती संख्या में एच.आई.वी. से ग्रसित लोगों का एंटी-रेट्रो-वाइरल दवा लेने के कारणवश एड्स-सम्बंधित मृत्यु दर में भी गिरावट आई है."

२००५ के आंकड़ों के मुकाबले २०१० में एच.आई.वी. दर नशा करने वालों में जो सिरिंज-नीडल बांटते हैं, बढ़ा है (२००५ - १.१% और २०१० - ५%) और सामान्य जन-मानस में कम हुआ है.

कुल एच.आई.वी. ग्रसित लोगों में से ५ प्रतिशत उत्तर प्रदेश में निवास करते हैं, जबकि २१% आंध्र प्रदेश में और १७% महाराष्ट्र में.

राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्थान के कार्यक्रमों में भी पिछले सालों काफी बढ़ोतरी हुई है. २००७ में, जिन-समुदाओं को एच.आई.वी. का खतरा अधिक है, जैसे कि समलैंगिक लोग, नशा करने वाले लोग, यौनकर्मी, आदि, उनके लिये सिर्फ ७७३ कार्यक्रम थे और २०११ में १४७३ कार्यक्रम हो गए हैं जो ७५% एच.आई.वी. के अधिक खतरे वाली जनसंख्या को सेवा दे रहे हैं.

यौन रोगों का अनुपात भी बढ़ गया है - २००७ में २.१% था और २०११ में १०.१% हो गया है. राष्ट्रीय एड्स अनुसन्धान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ आर.आर. गंगाखेदकर ने कहा कि जिन यौन रोगों का उपचार संभव है उनतक का दर बढ़ गया है.

आज राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्थान की मदद से ४२६,००० लोगों को एंटी-रेट्रो-वाइरल दवा मिल रही है (२००४ में सिर्फ १६००० को मिल पा रही थी).

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

एस.जी.पी.जी.आई. में शुरू होगा चौथा राष्ट्रीय एड्स अधिवेशन

[English] एड्स सोसाइटी ऑफ़ इंडिया (ए.एस.आई.) का चौथा राष्ट्रीय एड्स अधिवेशन १६-१८ दिसम्बर के दौरान संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान के सभागार में संपन्न होगा. इस अधिवेशन में १५ अंतर्राष्ट्रीय एड्स विशेषज्ञ और ७० भारतीय एड्स विशेषज्ञ एवं चिकित्सक व्याख्यान देंगे. अधिवेशन में भाग लेने के लिये १५० से अधिक ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों के चिकित्सकों को वजीफा प्रदान किया गया है.

विश्व-विख्यात प्रतिष्ठित एड्स विशेषज्ञ जिनमें से कई भारत से हैं, वे इस अधिवेशन में भाग लेंगे और एड्स नियंत्रण से सम्बंधित अनेक बिन्दुओं पर अपने विचार रखेंगे. एच.आई.वी. परीक्षण, एंटीरेट्रोवाइरल थेरपी (ए.आर.टी.), एच.आई.वी. और टुबरकुलोसिस (टी.बी.) का सह-संक्रमण, एच.आई.वी. और हेपटाइटिस-सी सह-संक्रमण, एच.आई.वी. और हेपटाइटिस-बी सह-संक्रमण, ए.आर.टी. दवाओं से प्रतिरोधकता, टी.बी. की रोकथाम के लिये आई.एन.एच. थेरपी, एच.आई.वी. और हर्पीस सह-संक्रमण, समाज में व्याप्त लिंग-से-सम्बंधित असमानताएं, मानसिक समस्याएँ, आदि इस अधिवेशन के प्रमुख विषय रहेंगे. यह संभवत: पहला ऐसा चिकित्सकीय अधिवेशन होगा जिसमें धूम्रपान और शराब दोनों-प्रतिबंधित हैं.

विश्व स्तर पर एड्स को अब ३० साल हो गए हैं. भारत में पहला एड्स परीक्षण 'पोजिटिव' १९८६ में रपट हुआ था और तब से आज तक २६ साल हो गए हैं और एड्स नियंत्रण का संघर्ष अभी जारी है.

विडंबना यह है कि भारत एक ओर तो विश्व-भर में ८० प्रतिशत से अधिक ए.आर.टी. दवाएं प्रदान करता है और दूसरी ओर अपने ही देश में हजारों लोगों की मृत्यु एड्स से हो रही है. राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्थान के आंकड़ों के अनुसार २००९ में जिन ६५,००० एच.आई.वी. से संक्रमित महिलाओं ने बच्चे को जन्म दिया था, उनमें से १८,००० महिलाओं के नवजात शिशु एच.आई.वी. से संक्रमित हो गए. यह अत्यधिक शोचनीय है कि जब ऐसी प्रभावकारी दवाएं उपलब्ध हैं जिनसे नवजात शिशु को एच.आई.वी. संक्रमण से बचाया जा सकता है तब भी १८००० शिशुओं को एच.आई.वी. संक्रमण हो गया.

१९९०-२००० के दौरान जो एड्स एक घातक बीमारी मानी जाती थी आज सिर्फ एक दीर्घकालिक बीमारी हो कर रह गयी है जिसके साथ सामान्य जीवन-यापन संभव है. ए.आर.टी. दवाएं बहुत सस्ती हो गयी हैं. संयुक्त राष्ट्र एवं सहयोगियों के एड्स प्रोग्राम (यू.एन.एड्स) के अनुसार एच.आई.वी. से संक्रमित लोगों की संख्या के आधार पर विश्व में भारत (२३ लाख) का स्थान दक्षिण अफ्रीका (५५ लाख) और नाइजीरिया (२९ लाख) के बाद तीसरे नंबर पर है.

हमारी संस्कृति, मूल्यों, युवाओं और गैर-सरकारी संगठनों की सक्रियता, स्वास्थ्यकर्मियों और दवा-कंपनियों की सहभागिता आदि ने ही भारत की अधिकाँश जनता को एड्स से बचाया है.

भारत में ए.आर.टी. दवाओं को सचेत हो कर और सूझ-बूझ से दिया जाता है बनाम पश्चिम देशों के जहां 'जल्दी और ज्यादा डोज़' ए.आर.टी. दी जाती है, इसीलिए भारत में ए.आर.टी. ले रहे लोगों के जीवन की गुणात्मकता बेहतर है, आर्थिक व्यय कम आता है और दवा-प्रतिरोधकता होने का खतरा भी कम हो जाता है. संयुक्त परिवार, स्थाई विवाह सम्बन्ध, और भारतीय संस्कृति ने भी एड्स से लड़ने में बहुत मदद की है. भारत में प्रथम यौन अनुभव की उम्र भी और देशों के मुकाबले ज्यादा है जो अच्छी बात है.

जब भारत ने 'जेनेरिक' दवा बनानी शुरू की तो पश्चिम राष्ट्रों ने कहा कि भारत नक़ल कर रहा है. सोचने की बात है कि पश्चिम देश जब 'कॉम्बो' दवा बनाते हैं तब उसको नक़ल क्यों नहीं कहते हैं? भारतीय और पश्चिमी दवा कंपनियों के लिये अलग-अलग मापदंड क्यों? भारतीय दवा कंपनियों ने 'जेनेरिक' दवा बना कर बड़ा खतरा उठाया है - कोर्ट मुक़दमे से बचना और 'पेटेंट' होने के बावजूद 'जेनेरिक' दवा बनाने की नीति बूझना और रास्ता निकलना, आदि. पहले पश्चिमी देशों से ए.आर.टी. दवा ११,४५२ अमरीकी डालर की आती थी जो अब मात्र ६९ अमरीकी डालर की रह गयी है. इस प्रकार भारत की दवा कंपनियों द्वारा निर्मित 'जेनेरिक' दवा की कीमत मात्र १ प्रतिशत ही रह गयी है परन्तु दवा की गुणात्मकता १०० प्रतिशत बरक़रार है. भारतीय दवा कंपनियां इसके लिये बधाई की पात्र हैं.

एड्स नियंत्रण कार्यक्रम में काफी कमियां रही हैं, उदाहरण के तौर पर: जितनी एच.आई.वी. पोजिटिव और गर्भवती महिलाओं को 'पी.पी.टी.सी.टी.' की आवश्यकता है उनमें से सिर्फ १० प्रतिशत को यह नसीब हो रही है और वो भी एक-डोज़ 'नेविरापीन' (अब बेहतर उपचार उपलब्ध है और वह मिलना चाहिए), सिर्फ ५६% यौन कर्मियों तक ही एच.आई.वी. कार्यक्रम और सेवाएँ पहुँच रही हैं, सिर्फ ३८% यौन कर्मी एच.आई.वी. से बचाव के बारे में सही जानकारी रखते हैं, राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्थान सिर्फ २०% एच.आई.वी. पोजिटिव लोगों तक पहुँच पा रहा है क्योंकि रपट प्रणाली में ही समस्या है, आधे से अधिक एच.आई.वी. पोजिटिव लोगों को अपने एच.आई.वी. संक्रमण के बारे में जानकारी नहीं है, आदि. जिन लोगों को ए.आर.टी. दवा मिलनी चाहिए उनमें से सिर्फ ३०% को ही मिल पा रही है (२००५ में सिर्फ ६% को मिल पा रही थी), २० प्रतिशत लोग जो निशुल्क ए.आर.टी. दवा ले रहे थे उनकी मृत्यु हो गयी, और १२.५% लोग 'लास्ट-टू-फ़ॉलो-अप' घोषित हैं या उन्होंने २ साल के भीतर ही ए.आर.टी. दवा लेना बंद कर दिया था. दवा-प्रतिरोधक टी.बी. और एच.आई.वी. सह-संक्रमण भी एक भीषण चुनौती दे रहा है, 'आईरिस', एच.आई.वी. के साथ जीवित लोगों को संगठित करना, रोज़गार और इन्श्योरेन्स देना, और एच.आई.वी. से बचाव के नए शोध-रत साधन जैसे कि वैक्सीन और 'माइक्रोबीसाइड' के शोध को आगे बढ़ाना अन्य चुनौतियाँ है.

इस एड्स अधिवेशन में भारतीय परिप्रेक्ष्य में एड्स नियंत्रण से जुड़े ऐसे ही संजीदा मुद्दों पर चिकित्सकीय संवाद और परिचर्चा होगी. इस अधिवेशन के संयुक्त आयोजक हैं : भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद्, भारत सरकार का बायोटेकनालाजी विभाग, संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्थान, और पीपुल्स हेल्थ संस्थान. अमरीका के राष्ट्रीय स्वास्थ्य इंस्टिट्यूट (एन.आई.एच.) ने इस अधिवेशन को आर्थिक रूप से समर्थन दिया है. इस अधिवेशन में फार्मा प्रदर्शनी लगेगी और ५५ पोस्टर भी प्रदर्शित किये जायेंगे.

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

तम्बाकू उत्पाद के पाकेटों से गायब है नयी चित्रमय चेतावनी

[English] हालाँकि १ दिसंबर,२०११ से भारत में बिकने वाले सभी तम्बाकू उत्पादों के पैकेट पर नयी प्रभावकारी चित्रमय स्वास्थ्य चेतावनी लागू हो जानी चाहिए थी परन्तु १५ दिन बाद तक यह लागू नहीं हुई है. इसके बारे में केंद्र सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने २७ मई, २०११ को, सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३ (कोटपा २००३) के फोटो चेतावनी सेक्शन के तहत एक गज़ट नोटिफिकेशन जारी कर दिया था .

विश्व स्वास्थय संगठन महानिदेशक द्वारा पुरुस्कृत बाबी रमाकांत का कहना है कि जब सरकार ने गजट नोटिफिकेशन २७ मई २०११ को जारी कर दिया था तो तम्बाकू कंपनियों के पास ६ महीने से अधिक समय था इस जन-स्वास्थ्य अधिनियम का पालन करने के लिये. उचित अधिकारियों को ऐसे तम्बाकू उत्पाद जो कानून का उलंघन कर रहे हैं उनको जब्त करना चाहिए.

इंडियन सोसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग का नेत्रित्व कर रही शोभा शुक्ल का कहना है कि पहले भी हमारी सरकार ने कई बार, तम्बाकू उद्योग के दबाव में आकर नई चेतावनियों को कम असरदार बनाने के साथ साथ उनके लागू करने की तारीख को भी आगे बढ़ाया है. नवम्बर २००८ में स्वास्थ्य मंत्रालय ने केंद्र सूचना आयोग को बताया था कि तम्बाकू उद्योग के निरंतर दबाव के कारण वह प् तम्बाकू नियंत्रण स्वास्थ्य नीतियाँ रभावकारी ढंग से लागू नहीं कर पा रही है.

शोभा शुक्ल ने कहा कि भारत ने फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टुबैको कंट्रोल (एफ़.सी.टी.सी.) को २००४  में अंगीकार किया था. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रथम अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संधि है. इस संधि के अनुसार भारत को २७ फरवरी, २००८ तक फोटो चेतावनी को कार्यान्वित कर देना चाहिए था. परन्तु किसी भी प्रकार की पहली चित्रमय चेतावनी मई २००९ में ही लागू करी गयी. और यह अपने आप में बहुत ही कमज़ोर साबित हुई.

युवा नेता और नागरिकों का स्वस्थ लखनऊ अभियान के समन्वयक राहुल कुमार द्विवेदी ने कहा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार तम्बाकू पैक पर बड़ी और प्रभावकारी फोटो चेतावनियाँ, राष्ट्रीय  स्तर पर तम्बाकू नियंत्रण में बहुत कारगर सिद्ध होती हैं. विश्व में किये गए अनेक शोध यह दर्शाते हैं कि बड़ी और डरावनी चित्र चेतवानी का असर भी बड़ा प्रभावी होता है, तथा तम्बाकू उपभोक्ताओं को तम्बाकू छोड़ने के लिए प्रेरित करता है-- विशेषकर बच्चों और युवाओं को.

इसके अलावा, इसमें सरकार को धन भी  व्यय  नहीं करना पड़ता, क्योंकि यह दायित्व तम्बाकू कम्पनी का हो जाता है.

बाज़ार में बिकने वाली विदेशी सिगरेटों के पैक पर भी ये चेतावनियाँ अंकित होनी चाहिए, वर्ना ऐसी विदेशी सिगरेटों को जब्त करना चाहिए.

सी.एन.एस.

शांति एवं लोकतंत्र पर होगा भारत-पाकिस्तान संयुक्त लोकमंच का इलाहाबाद अधिवेशन

[English] शांति एवं लोकतंत्र के लिये पाकिस्तान-भारत लोकमंच का आठवें संयुक्त अधिवेशन इलाहाबाद में २९-३१ दिसम्बर २०११ के दौरान आयोजित होना तय हुआ है जिसमें दोनों देशों से अनेक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता एवं शांति और लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले नागरिक भाग लेंगे. शांति एवं लोकतंत्र के लिये पाक-भारत लोकमंच (उ0प्र0) के उपाध्यक्ष, श्री इरफ़ान अहमद, ने कहा कि इस अधिवेशन के माध्यम से यह सन्देश जायेगा कि दक्षिण एशिया के नागरिकों को और सरकारों को यह कदम उठाने चाहिए:

१. दक्षिण एशिया के देशों के बीच दोस्ती और सहयोग में सुधार हो और मेल बढ़े. इसके लिये इन देशों को वीसा-मुक्त होना चाहिए जिससे कि इस छेत्र के लोग पूरी स्वतंत्रता के साथ एक दुसरे से मिल सकें, और इस छेत्र की मिलीजुली सांस्कृतिक धरोहर की जड़ें मजबूत हों, और व्यापर बढ़े.

२. इन देशों में लोकतान्त्रिक एवं मानवीय मूल्यों को सशक्त किया जाए और समाज के हाशिये पर रह रहे वर्गों के लिये सामाजिक एवं कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाए, जिनमें महिलाएं, दलित, और अन्य धार्मिक और प्रजातीय अल्प-संख्यक वर्ग शामिल हैं. हमारा मानना है कि सक्रियता से इन वर्गों का शोषण करने वाले कानूनों और सामाजिक प्रथाओं को ख़त्म किया जाये.

३. भारत और पाकिस्तान को एक निश्चित समय-काल में अपने परमाणु अस्त्र-शास्त्र को ख़त्म करना आरंभ करना चाहिए जिससे कि दोनों देश मिल कर परमाणु मुक्त दक्षिण एशिया छेत्र स्थापित करने में पहल ले सकें.

४. जापान में घटित परमाणु आपदा के बाद तो यह और भी स्पष्ट हो गया है कि परमाणु शक्ति का सैन्य या ऊर्जा दोनों में ही इस्तेमाल नहीं होना चाहिए.

५. लोकतान्त्रिक मूल्य और शासन प्रणाली सम्पूर्ण दक्षिण एशिया छेत्र में कायम होनी चाहिए.

६. दक्षिण एशिया छेत्र की सभी सरकारों द्वारा बिना-विलम्ब सैन्यकरण को रोकने के लिये कदम उठाये जाने चाहिए और सैन्य बजट को पारदर्शी तरीकों से जन-हितैषी कार्यक्रमों में निवेश करना चाहिए जैसे कि शिक्षा एवं स्वास्थ्य.

७. चूँकि इस छेत्र की सांस्कृतिक धरोहर मिलीजुली है, सक्रियता के साथ हमें शांति और आपसी सौहार्द बढ़ाने के लिये सांप्रदायिक ताकतों पर अंकुश लगाना चाहिए.

८. हमारा मानना है कि इस छेत्र के सभी सरकारों को कदम उठाने चाहिए कि प्राकृतिक संसाधन जैसे कि जल, जंगल और जमीन, पर स्थानीय लोगों का ही अधिकार कायम रहे, और गैर-कानूनी और विध्वंसकारी तरीकों से जल,जंगल और जमीन को वैश्वीकरण ताकतों से बचाना चाहिए क्योंकि यह जन-हितैषी नहीं है.

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

१ दिसम्बर से तम्बाकू उत्पाद के पाकेटों पर नयी चित्रमय चेतावनी लागू

[English]१ दिसंबर,२०११ से भारत में बिकने वाले सभी तम्बाकू उत्पादों के पैकेट पर नयी प्रभावकारी चित्रमय स्वास्थ्य चेतावनी लागू किये जाने की संभावना है. इसके बारे में केंद्र सर्कार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने २७ मई, २०११ को, सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३ (कोटपा २००३) के फोटो चेतावनी सेक्शन के तहत एक गज़ट नोटिफिकेशन जारी कर दिया था. परन्तु फिर भी तम्बाकू ऐक्टिविस्ट एवं तम्बाकू विरोधी संस्थाओं के मन में यह संशय अवश्य है कि १ दिसंबर के बाद भी तम्बाकू कम्पनियाँ पुराना स्टॉक ख़तम करने की आड़ में कहीं अपने उत्पाद पुरानी चेतावनियों के साथ ही न बेचने लगें. ये डर बे बुनियाद नहीं हैं. पहले भी हमारी सरकार ने कई बार, तम्बाकू उद्योग के दबाव में आकर नई चेतावनियों को कम असरदार बनाने के साथ साथ उनके लागू करने की तारीख को भी आगे बढ़ाया है. नवम्बर २००८ में स्वास्थ्य मंत्रालय ने केंद्र सूचना आयोग को बताया था कि तम्बाकू उद्योग के निरंतर दबाव के कारण वह प् तम्बाकू नियंत्रण स्वास्थ्य नीतियाँ रभावकारी ढंग से लागू नहीं कर पा रही है.

भारत ने फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टुबैको कंट्रोल (एफ़.सी.टी.सी.) को २००४  में अंगीकार किया था. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रथम अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संधि है. इस संधि के अनुसार भारत को २७ फरवरी, २००८ तक फोटो चेतावनी को कार्यान्वित कर देना चाहिए था. परन्तु किसी भी प्रकार की पहली चित्रमय चेतावनी मई २००९ में ही लागू करी गयी. और यह अपने आप में बहुत ही कमज़ोर साबित हुई. उसके बाद अब दिसंबर २०११ से कुछ प्रभावकारी चेतावनी के लागू किये जाने की आशा है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार तम्बाकू पैक पर बड़ी और प्रभावकारी फोटो चेतावनियाँ, राष्ट्रीय  स्तर पर तम्बाकू नियंत्रण में बहुत कारगर सिद्ध होती हैं. कोटपा २००३ के अंतर्गत, भारत सरकार ने २००५ में प्रथम बार तम्बाकू पैक पर वैधानिक चेतावनी प्रयुक्त करी. परन्तु कारगर न सिद्ध होने पर चित्रमय चेतावनी पहली बार २००६ में अधिसूचित करी गयीं, पर कई बार स्थगित किये जाने के उपरांत पहली बार उन्हें मई २००९ में ही लागू किया जा सका, और वे  काफी अप्रभाव कारी भी थीं.

अब लगभग ढाई वर्षों के बाद नई चेतावनी सामने आयेंगी, जबकि कोटपा २००३ के अनुसार, इन चेतावनियों को प्रत्येक वर्ष बदला जाना चाहिए. नई चेतवानी में सिगरेट पैक पर संक्रमित फेफड़े का चित्र अंकित है जबकि खाने वाली तम्बाकू के पैकटों पर कैंसर ग्रसित मुख का चित्र है.

विश्व में किये गए अनेक शोध यह दर्शाते हैं कि बड़ी और डरावनी चित्र चेतवानी का असर भी बड़ा प्रभावी होता है, तथा तम्बाकू उपभोक्ताओं को तम्बाकू छोड़ने के लिए प्रेरित करता है-- विशेषकर बच्चों और युवाओं को. भारत जैसे बहु भाषा वादी देश में जहां बे पढ़े लोगों की संख्या भी अधिक है,लिखित चेतावनी के बजाय  ये चित्रमय चेतावनियाँ तम्बाकू नियंत्रण में बहुत कारगर सिद्ध हो सकती हैं.

इसके अलावा, इसमें सरकार को धन भी  व्यय  नहीं करना पड़ता, क्योंकि यह दायित्व तम्बाकू कम्पनी का हो जाता है. आशा है कि इस बार भारत सरकार इन चेतावनियों को समय से लागू करके अपनी जनता को एक स्वस्थएवं तम्बाकू रहित जीवन शैली अपनाने में सहायक होगी. तथा यह भी सुनिश्चित करेगी कि बाज़ार में बिकने वाली विदेशी सिगरेटों के पैक पर भी ये चेतावनियाँ अंकित होगीं.

शोभा शुक्ला - सी.एन.एस

पारिवारिक हिंसा एवं महिला असमानता और एड्स/एच.आई.वी.

[English] [फोटो] विश्व एड्स दिवस (१.१२.२०११) एवं महिला हिंसा/उत्पीड़न के विरुद्ध चल रहे १६ दिवसीय अंतरराष्ट्रीय जागरूकता अभियान (२५.११.२०११ से १०.१२.२०११ तक) के उपलक्ष्य में, सी.एन.एस (ऑनलाइन पोर्टल www.citizen-news.org), आशा परिवार, एवं नागरिकों का स्वस्थ लखनऊ के द्वारा २६.११.२०११ को प्रोफेसर (डॉ ) रमा  कान्त  सेंटर , सी -ब्लाक  चौराहा, इंदिरा  नगर , लखनऊ में 'डायमंड्स' एवं 'इन विमेंस हैंड्स' नामक दो सशक्त वृत्त चित्रों का प्रदर्शन किया गया.

दोनों फ़िल्में समाज में व्याप्त महिला असमानता और एड्स/एच.आई.वी. के बीच सम्बन्ध को दर्शाती हैं.

पारिवारिक हिंसा एवं महिला असमानता के चलते अनेको महिलाओं को एड्स/एच.आई.वी. जैसे विषम रोगों की त्रासदी को झेलना पड़ता है.

'डायमंड्स' (हीरे) एड्स के साथ जीवित चार ऎसी महिलाओं की गाथा है, जिन्होंने अभूतपूर्व साहस का परिचय देते हुए, तथा विषम परिस्थितिओं का सामना करते हुए इस बीमारी से जूझ कर अन्य रोगी महिलाओं के जीवन में आशा का संचार किया तथा उन्हें विश्वास एवं लगन के साथ जीने की प्रेरणा दी. फिलिपीन्स की नेरी, मलेशिया की किरण, वियतनाम की हुयेन और कम्बोडिया की फरोजीन उन लाखों महिलाओं की आस्था स्तंभ हैं जो एड्स की जटिलताओं से जूझने के साथ साथ मानसिक प्रतारणा का सामना करते हुए, समाज में  हीरे के समान दृढ़ एवं ओजस्वी उदहारण प्रस्तुत करती हैं. उनका जीवन महिला सशक्तिकरण की एक नवीन मिसाल है.

'इन विमेंस हैंड्स' एड्स ग्रसित दुनिया में रहने वाली उन महिलाओं की आपबीती है जो रूढ़ीवादी एवं पुरुष प्रधान समाज में व्याप्त महिला उत्पीड़न के कारण स्वयं को इस रोग से सुरक्षित रख पाने में असमर्थ हैं. असुरक्षित शारीरिक संबंधों से जनित एड्स का शिकार पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक होती हैं. परन्तु अपने पुरुष साथी की सहमति के बगैर कोई भी सुरक्षा पद्यति अपनाने के अधिकार से वे आज भी वंचित हैं. फिल्म में इस प्रकार के एड्स निरोधी सुरक्षात्मक तरीकों की खोज पर बल दिया गया है, जिनका उपयोग महिलाओं के नियंत्रण में हो न कि उनके पुरुष सहभागी के. इस प्रकार का एक संभावित सुरक्षा कवच है 'माइक्रोबिसाइड' (विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार माइक्रोबिसाइड ऐसे यौगिक पदार्थ हैं जिनका क्रीम/जेल के रूप में प्रयोग करके एच.आई.वी. समेत अनेक यौन संक्रमित रोगों से बचा जा सकता है. माइक्रोबिसाइड' पर शोध कार्य जारी है).

     माइक्रोबिसाइड' का सुरक्षा कवच वास्तव में महिलाओं को एड्स से बचाने में राम बाण सिद्ध हो सकता है. भारत समेत विश्व में लाखों महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें अपने मातृत्व एवं प्रजनन स्वास्थ्य पर कोई अधिकार नहीं है. वर्तमान एड्स निरोधक उपायों का उपयोग पुरुष के नियंत्रण में ही हैं. सुरक्षित यौन सम्बन्ध के लिए पुरुष की सहमति आज भी आवश्यक है. अत: महिला नियंत्रित एड्स निरोधी साधनों की नितांत आवश्यकता है.

    वैश्विक स्तर पर महिलाओं में एड्स की बीमारी बढ़ रही है. २००९ में विश्व भर के ३३३ लाख एड्स से पीड़ित व्यक्तियों में १६६ लाख (५०%) संख्या महिलाओं की थी. भारत में भी कुछ इसी प्रकार की स्थिति है. हमारे देश के २३ लाख एड्स पीड़ित व्यक्तियों में ३९% महिलाएं एवं ३.५% बच्चे हैं. हालांकि अभी कुछ दिन पहले यू.एन.एड्स द्वारा जारी करी गयी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में २००६-१० की अवधि में एड्स के नए संक्रमणों में ५६% गिरावट आयी है. यह एक आशाजनक लक्षण है. परन्तु स्थिति फिर भी गंभीर है. विशेषकर महिलाओं के लिए. अत: विश्व समाज के लिए यह आवश्यक उत्तरदायित्व है कि वह महिला सम्बन्धी सामाजिक विषमताओं को दूर करने के लिए एकजुट हो कर कार्य करे, ताकि सभी को एच.आई.वी. संबधी उचित निवारण, उपचार, और संरक्षण साधन प्राप्त हो सकें तथा अनंत: हम इस जटिल रोग से हमेश के लिए छुटकारा पा सकें.

शोभा शुक्ल - सी.एन.एस.

समय रहते उपचार, बचा सकता है निमोनिया से बच्चे की जान

एंटीबायोटिक्स निमोनिया के इलाज के लिए एक प्रकार की राम बाण औषधि है जिसके समय रहते प्रयोग से निमोनिया से छुटकारा पाया जा सकता है. पूरे भारत वर्ष में प्रति वर्ष लगभग ४३ मिलियन लोग  निमोनिया से ग्रसित होते हैं  और १० लाख मौते तीव्र श्वास सम्बन्धी संक्रमण से होती हैं, जो  पूरे विश्व में तीव्र श्वास सम्बन्धी संक्रमण से होने वाली मौतों का २५% है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी निमोनिया के इलाज के लिए एंटीबायोटिक्स के प्रयोग को निर्धारित किया है. ये एंटीबायोटिक्स सरकारी तथा गैर-सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों पर आसानी से उपलब्ध हैं, फिर भी सम्पूर्ण विश्व में प्रति वर्ष पांच वर्ष से कम उम्र के १६ लाख बच्चे निमोनिया से मरते हैं जो बच्चों में अन्य किसी भी बीमारी से होने वाली मृत्यु से कहीं अधिक है.   

उत्तर प्रदेश के अनेक सरकारी तथा गैर-सरकारी चिकित्सकों का यह मानना है कि  समाज में शिक्षा और जागरूकता की कमी है. यदि सही तरीके से लोगों को किसी भी बीमारी के प्रति सचेत किया जाए और समय-समय पर बच्चों का मेडिकल चेकअप कराने के लिए प्रेरित किया जाए तो सम्पूर्ण विश्व में होने वाली बाल मृत्यु दर को काफी हद तक कम किया जा सकता है.  निमोनिया जैसे घातक बीमारी से निजात पाने के लिए समय रहते एंटीबायोटिक्स का प्रयोग बहुत ही आवश्यक है. अतः माताओं को  बच्चे के स्वास्थ्य के बारे में बहुत ही सचेत रहने की ज़रुरत है, और थोड़ी सी तबियत ख़राब होने पर भी शीघ्र अति शीघ्र किसी चिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए. 

निमोनिया जैसी घातक बीमारी से निजात पाने के लिए आरंभिक लक्षणों को पहचान कर  एंटीबायोटिक्स दवाओं के इस्तेमाल की जरूरत होती है. परन्तु एक शोध के अनुसार विकाशील देशों में २०% बच्चों के केयरगिवर (देख-रेख करने वाले) ही निमोनिया के लक्षणों को पहचान पाते हैं, जिनमे से  केवल ५४% ही बच्चों को समय से चिकित्सकों तक ले जा पाते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी निमोनिया के इलाज के लिए मानक सुझाये हैं. बहराइच जिला अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. के के वर्मा ने बताया कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निमोनिया के उपचार के लिए मानक तय किया गया है. सेपट्रोंन सीरप तथा सेपट्रोंन टेबलेट आती है जो सारे सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में उपलब्ध करायी जाती है. डॉ. के के वर्मा का यह  भी मानना है कि "सरकारी अस्पताल कि तुलना में गैर-सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध उपचार में बहुत अंतर होता है. सरकारी अस्पतालों में सीमित दवाएं आती हैं और वही सबको दी जाती है. परन्तु गैर-सरकारी अस्पतालों में कई तरह की दवाएं दी जाती हैं. कौन सी दवा ज़रूरी है तथा कौन सी नहीं ज़रूरी है यह सब जाँच परख कर दवाएं दी जाती हैं". डॉ. वर्मा का कहना है कि  "विश्व स्वास्थ्य संगठन को अपनी गाइड लाइन बदलनी चाहिए. अभी पुराना सिस्टम चला आ रहा है उसे बदलकर नया लागू  करना चाहिए. नयी दवाओं को तथा नये टीके को अपनाना चाहिए." 

लखनऊ में एक निजी क्लिनिक को चलाने वाली बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कुमुद कहती हैं कि "निमोनिया से बचने के लिए समय रहते निदान बहुत ही आवश्यक है. अतः जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी बच्चे को अस्पताल में दिखाना चाहिए. गाँव में अक्स़र लोग ७ से १० दिनों तक इंतज़ार करते रहते हैं और  जब बच्चे की हालत नाजुक हो जाती है तब अस्पताल में  दिखाने आते हैं. अतः समाज में एक बड़ी जागरूकता की आवश्यकता है”.

स्पष्ट है कि निमोनिया जैसी संक्रामक बीमारी से बचाव के लिए एंटीबायोटिक्स जीवन अमृत की तरह कारगर होती हैं, परन्तु समय रहते निमोनिया जैसी प्राण घातक बीमारी के लक्षणों को पहचान पाना और उचित एंटीबायोटिक्स का प्रयोग करते हुए उपचार कर पाना आज भी एक कड़ी चुनौती के रूप में व्याप्त है जिसे अस्वीकार नहीं जा सकता. अतः सरकार को भी इस दिशा में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए  जन हितैषी कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी होगी.  

राहुल कुमार द्विवेदी - सी.एन.एस.
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

निमोनिया के टीके के बारे में जनमानस में अज्ञानता

बाज़ार में निमोनिया से बचाव के लिए टीका उपलब्ध तो जरूर है, लेकिन बहुत से लोगों को इसके बारे में जानकारी नहीं है. यहाँ तक कि कुछ चिकित्सक भी अनजान हैं. एक अध्ययन के अनुसार जिन बच्चों में निमोनिया से बचाव का टीकाकरण नहीं होता है, उनमें निमोनिया से मरने का खतरा ४० गुना अधिक रहता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी निमोनिया से बचाव के लिए कई प्रकार के टीके सुझाये हैं, पर यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि जनमानस में इसके बारे में जानकारी का अभाव है.

सम्पूर्ण विश्व में प्रतिवर्ष, पांच वर्ष से कम उम्र के  करीब १८ लाखबच्चे निमोनिया के कारण मरते हैं, और यदि यह वर्तमान दर  जारी रही तो २०१० से २०१५ के बीच १३२  लाख अधिक मौतें होंगी. अतः यह बहुत आवश्यक है कि लोगों में निमोनिया के टीकाकरण के बारे में जागरूकता बढ़ायी जाए जिससे कि प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चे को समय से निमोनिया से बचाव के टीके लगवा सकें. एक अध्ययन के अनुसार निमोनिया से बचाव के लिए ‘हीमोफीलस इनफ्लुंजी टाइप बी’ (‘हीब’)  टीके के व्यापक प्रयोग से करीब चार लाख जानें बचायी जा सकती हैं.   

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बच्चों को निमोनिया से बचाने के लिए दो प्रकार के टीकों के प्रयोग को बताया है. पहला टीका हीमोफीलस इनफ्लुंजी टाइप बी (हीब) और दूसरा निमोकोकल कंजुगेट वैक्सीन (पीसीवी १३) के नाम से जाना जाता है. हीब टीका व्यापक रूप से लगभग १३६ देशों में उपलब्ध है, जबकि पीसीवी १३ टीका भारत सहित मात्र ३१ देशों में ही उपलब्ध है. हीब टीका, बच्चों को निमोनिया से बचाने का प्रभावकारी टीका है, परन्तु विकासशील देशों में अभी काफी मात्रा में बच्चे इसके टीकाकरण से वंचित हैं. एक शोध के अनुसार २००३ में, विकासशील देशों के ४२% टीकाकरण की तुलना में विकसित देशों में ९२% बच्चों ने हीब टीका प्राप्त किया था.

बहराइच जिला अस्पताल के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. के के वर्मा का कहना है कि "बाजार में निमोनिया का टीका उपलब्ध तो ज़रूर है पर वह बहुत महँगा है इसलिए सभी को लग पाना संभव नहीं हो पाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी निमोनिया से बचाव के लिए इनफ्लूएंज़ा टीका को सुझाया है. जो छः महीने से कम उम्र के बच्चों को दो डोज़ एक-एक महीने के अंतराल पर लगती है."

निमोनिया के टीका के बारे में लोगों में जानकारी का अभाव है जिसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बहराइच जिला अस्पताल में दिखाने आयी,  निमोनिया से पीड़ित ढाई साल के बच्चे की माता का कहना है कि "हमारे बच्चे को टीका तो लगा था पर हमें यह नहीं मालूम कि किस चीज का टीका लगा था". निमोनिया के टीका के बारे में अज्ञानता आम जनता में ही नहीं बल्कि कुछ चिकित्सकों में भी देखी जा सकती है, जिसका अनुमान हम इस बात से भी लगा सकते हैं कि बहराइच जिला अस्पताल के स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. पी. के मिश्र का कहना है कि "हमारे यहाँ तो डी.पी.टी का टीका लगता है. निमोनिया के लिए कोई और टीका नहीं लगता है. हमें इसके बारे में जानकारी नहीं है".

एक ओर जहाँ निमोनिया सम्पूर्ण विश्व में होने वाली शिशु मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है और आम जनमानस में निमोनिया के बारे में साक्षरता का अभाव है, वहीं दूसरी ओर यह बड़े दुर्भाग्य कि बात है कि निमोनिया भारत सरकार द्वारा चलाये जाने वाले स्वास्थ्य कार्यक्रमों का भाग नहीं है. अतः सरकार को निमोनिया के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम चलाना नित्यांत आवश्यक है. डॉ. के के वर्मा का मानना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी अपनी गाइड लाइन बदलनी चाहिए और नये और सस्ते टीके को अपनाना चाहिए जो निशुल्क वितरित किये जा सकें.

राहुल कुमार द्विवेदी - सी.एन.एस.
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

बच्चों में निमोनिया का उपचार एक चुनौती

निमोनिया, जो विशेषकर 5 साल से कम आयु के बच्चों में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है, उसकी रोकथाम, टीकाकरण एवं उपचार के लिए सरकार ने कारगर कदम नहीं उठाए हैं।  उपचार के मानको का न होना, टीकाकरण का कोई उचित स्वास्थ्य कार्यक्रम न होना, राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में निमोनिया टीका का शामिल न होना, ये सभी बातें निमोनिया जैसे प्राणघातक रोगों को और बढ़ावा देती है जो कि एक चिन्ता का विषय है।

हमने जब वात्सल्य क्लीनिक के बाल रोग विषेषज्ञ से डब्लू.एच.ओ. द्वारा मानकों और सरकारी अस्पतालों में निमोनिया रोग के उपचार की उपलब्धता के विषय में बात की तो उन्होंने बताया कि "निमोनिया टीका सरकारी सेवा में निःशुल्क उपलब्ध नहीं है। सरकारी और गैर सरकारी उपचार में भी अन्तर है।  विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निमोनिया उपचार मानकों के अनुसार निमोनिया को तीन भागों में बांटा गया है - ‘माइल्ड’ या सौम्य, ‘मोडरेट’ या मध्यम और ‘सीवियर’ या गम्भीर।  वैसे तो समय-समय पर विश्व स्वास्थ्य संगठन अपने मानको में फेर बदल करती रहती है मगर शहरों की अपेक्षा देहातों में अभी भी यह एक बड़ी समस्या है।"

‘होप मदर एण्ड चाइल्ड केयर सेन्टर’ के बाल-रोग विशेषज्ञ डा. अजय कुमार का भी कहना है कि सरकारी अस्पतालों में निमोनिया का टीका उपलब्ध नहीं है।  किन्तु यह उपचार इनकी क्लीनिक पर उपलब्ध है।  महंगा होने के कारण आज भी यह गरीब लोगों की पहुंच से दूर है।  सरकारी और गैर सरकारी अस्पतालों में उपचार के अन्तर के विषय में वे कहते हैं कि "उपचार में विशेष अन्तर नहीं है दवाईयां वही हैं पर सरकारी तन्त्र सुचारू रूप से कार्य नहीं करता जिससे कि गरीब लोगों को निजी अस्पतालों की तरफ रूख करना पडता है और अधिक पैसा देना पड़ता है।  उनका कहना है कि सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों पर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा मानक प्राथमिक स्तर पर उपलब्ध हैं।  अगर परेशानी कहीं है तो प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर।  अधिकतर निजी अस्पतालों में यह उपचार उपलब्ध है।"

‘होप मदर एण्ड चाइल्ड केयर सेन्टर’ की गोल्ड मेडिलिस्ट स्त्री रोग विषेषज्ञा डा. निधि जौहरी भी इस बात से सहमत हैं कि सरकारी और निजी अस्पतालों के उपचार में बडा अंतर है।  उनका मानना है कि निजी अस्पताल में चिकित्सक पूर्ण रूप से जिम्मेदार होता है और उसकी जवाबदेही होती है।  जबकि सरकरी अस्पतालों में ‘अम्ब्रेला ट्रीटमेंट’ होता है जिसमें कि परामर्श के लिए अलग-अलग चिकित्सकों के अलग-अलग दिन नियत होने के कारण मरीज समय-समय पर एक ही चिकित्सक को अक्सर नहीं दिखा पाता जिससे कि व्यक्ति विशेष की जिम्मेदारी नहीं बनती. यह एक बड़ा अन्तर है। वे आगे बताती हैं कि, "देहातों में विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक उपलब्ध नहीं हैं। मगर शहरों में लोग निमोनिया उपचार मानकों के बारे में जानते हैं जो एक बड़ी उपलब्धता है।"

यश अस्पताल की प्रख्यात स्त्री रोग विशेषज्ञा डा. ऋतू गर्ग का मानना है कि सरकारी अस्पतालों में निमोनिया के मरीज को सिर्फ प्राथमिक उपचार के नाम पर ‘एण्टीबायोटिक’ या ‘ब्रन्कोडायलेटर’ इन्जेक्शन ही उपलब्ध हो पाता है जो एक अधूरा उपचार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों द्वारा निमोनिया का उपचार बहुत कम सरकारी बड़े अस्पतालों में या फिर निजी अस्पतालों में ही उपलब्ध है। निमोनिया का पर्याप्त उपचार उनके निजी अस्पताल में  भी उपलब्ध है।

निमोनिया को एक जटिल समस्या बताते हुए डा. रितू गर्ग बताती हैं कि इस बीमारी की सही पहचान होनी चाहिए क्योंकि बच्चा हमेशा निमोनिया से ही नहीं ग्रसित होता है।  वह मुख्यतः तीन मिलते-जुलते लक्ष्णों वाली बीमारियों से ग्रसित हो सकता है।  पहला है ब्रन्कोलाइटिस जिसमें बच्चे के फेफडे़ में हल्की सूजन आ जाती है जिसे हल्का सा ‘कफ’ या खॉंसी आना कहते हैं।  दूसरा है ब्रन्को निमोनिया जिसमें आला लगाने पर सीने में ‘क्रेप’ सुनाई देते हैं  लेकिन अगर सीटी सी आवाज आती है तो ब्रन्को-अस्थमा  या दमा हो सकता है।

सरकरी तन्त्र और गैर सरकारी अस्पतालों के बीच में आज का सामान्य गरीब मरीज पिस कर रह गया है।  या तो निमोनिया का पूर्ण उपचार उपलब्ध नहीं है, या फिर अस्पतालों में उपचार इतना महंगा है कि सामान्य गरीब मरीज उपचार करा नहीं सकता।  भारत जैसे कम शिक्षा वाले देश में यह स्थिति और भी भयावह हो जाती है।  विश्व स्वास्थ्य संगठन और  यूनिसेफ के अथक प्रयासों से उम्मीद की जा रही है कि विश्व भर में 2015 तक निमोनिया से मरने वाले मरीजों की संख्या 12 लाख तक कम हो सकती है, जो स्वयं में एक बहुतबड़ी चुनौती है।

नीरज मैनाली - सी0एन0एस0
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

अच्छे एंटीबायोटिक्स से हो सकता है निमोनिया का इलाज

बच्चे में निमोनिया का सबसे बड़ा कारण संक्रमण है। निमोनिया के कई प्रकार के कीटाणु होते हैं जिनमें  बैक्टेरिया और कई प्रकार के वाइरस भी  शामिल हैं | निमोनिया का इलाज इन्ही के ऊपर निर्भर करता है |  निमोनिया का संक्रमण जिस प्रकार का होता उसी प्रकार का एंटीबायोटिक्स देकर इसका इलाज किया जाता है, ताकि इसका असर मरीज पर जल्दी हो सके |

डा. अभिषेक वर्मा, जो डा. राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय, लखनऊ में बाल रोग विशेषज्ञ हैं, के अनुसार ‘‘निमोनिया से बचाव के लिए घर में जिनको खांसी आती हो, जिनको वाइरस का संक्रमण हो, धुएं का वातावरण हो या फिर सर्दी के मौसम में बच्चों को ज्यादा बचाने की जरूरत पड़ती है। अगर माँ या घर के किसी और सदस्य को खांसी आ रही है तो उनके हाथों मे बच्चे को न दें। तभी बच्चे का बचाव हो सकता है। बाकी टीके भी लगवायें। उपचार के लिए डब्ल्यूएचओ मानक के सेप्ट्रान, एमपीसिलीन और एन्टामाइसीन जैसी दवाइयां इस्तेमाल की जाती हैं | लेकिन कभी-कभी तो अस्पताल में और भी बहुत सारी दवाईयां उपलब्ध रहती हैं  जिनसे हम उपचार करते हैं। जैसे जब बच्चा सांस लेने में दिक्कत करता है तो आक्सीजन भी दी जाती है। उपचार का सही तरीका अस्पताल के स्तर पर निर्भर करता है। अगर एक अच्छे स्तर का अस्पताल है--चाहे वह सरकारी हो या गैर सरकारी, उसमें कोई खास अन्तर नहीं होता है। हमारा अस्पताल सरकारी है | लेकिन यहां की सुविधा किसी भी गैर सरकारी अस्पताल से कम नहीं है। यहाँ की कार्य प्रणाली भी बेहतर है। यहाँ पर निमोनिया के इलाज के लिए हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध है। हमारे यहाँ आक्सीजन आनलाइन है और मोबीलाइजर्स भी वार्ड में रहते हैं। हर तरह की निगरानी की सुविधा इस अस्पताल में है। इस अस्पताल में डब्ल्यूएचओ ने जो दवाईयां निर्धारित कर रखी हैं  वे  यहां पर और लगभग सभी सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध हैं। चाहे वो शहर का अस्पताल हो या फिर देहात का।’’

इसी अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डा. आर. एस. दूबे ने बताया कि ‘‘सरकार इस पर काफी ध्यान दे रही है। सरकार बहुत सारी योजनाएं चला रही है। ‘जननी सुरक्षा योजना’ का उद्देश्य ही यही है कि माँ और बच्चे की सुरक्षा का ध्यान रखा जाये। हमारे अस्पताल में निमोनिया का डब्ल्यूएचओ मानक के द्वारा ही इलाज हो रहा है।’’

एक गैर सरकारी क्लीनिक की निदेशक एवं स्त्री रोग विशेषज्ञा डा. रमा शंखधर निमोनिया के इलाज के बारे में बताती हैं कि ‘‘हमारी क्लीनिक में जो भी बच्चा आता है, और हमें निमोनिया की शंका होती है तो हम यही राय देते है कि बच्चे को चिकित्सक के पास जल्दी लायें, जिससे अच्छे एन्टीबायोटिक देकर रोग को जल्दी नियंत्रित किया जा सके,  और बच्चा निमोनिया की गम्भीर अवस्था में न पहुँच पाए।’’

डा. रमा शंखधर ने यह भी बताया कि ‘‘सरकारी अस्पतालों में दवा उपलब्ध नहीं रहती है | जो दवा उनके पास उपलब्ध होती है वही वो मरीज को देते हैं। बाजार में रोज नई-नई दवाएं आ रही हैं | इसलिये यहाँ यह सोचना नहीं पड़ता है कि हमारे पास क्या है। हमें जो अच्छा लगता है हम वही देते हैं जिससे बच्चा जल्दी ठीक हो सके। जो डब्ल्यूएचओ के मानक बनाये जाते है वो सम्मेलनों के द्वारा हम सभी चिकित्सकों तक पहुँचाने की कोशिश की जाती है। और हम लोग उसको पढ़ और समझकर फिर उसका पालन करते हैं।’’

निमोनिया अक्सर पांच साल से कम आयु के बच्चों को अधिक होता है। यदि आप बच्चे की देखभाल में कुछ बातों का ध्यान रखेंगें तो हो सकता है आपका बच्चा निमोनिया से बच जाए। नवजात शिशु को हमेशा गर्म कपड़े जैसे टोपी, मोजा आदि पहनाकर रखें। बच्चे को खांसी, जुकाम बुखार आदि होने पर तुरंत चिकित्सक को दिखाएं। अगर बच्चा मां का दूध नही पी रहा है तो उसे घर पर कुछ और देने के बजाय चिकित्सक को दिखाएं। यदि चिकित्सक अस्पताल में भर्ती करके इलाज कराने को कहे तो लापरवाही न करें,  और उसका इलाज शीघ्र कराएं। घर में साफ सफाई का विशेष ध्यान रखें। घर के कोने आदि को साफ रखें और वहां झाड़ू, पोछा आदि ठीक प्रकार से लगाएं, जिससे बच्चे को किसी प्रकार का संक्रमण न हो |

नदीम सलमानी - सी.एन.एस.
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

टीका लगवाकर बच्चे को निमोनिया से बचाएं

“निमोनिया से बचाव के लिए उनके बैक्टीरिया के हिसाब से बाजार में टीके उपलब्ध हैं। सरकारी अस्पतालों में अभी इनकी उपलब्धता नही है। ये टीके विश्व स्वास्थ्य संगठन मानक के अनुरूप ही तैयार किये गए हैं।’’ यह कहना है डा. राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय के शिशु रोग विशेषज्ञ डा. अभिषेक वर्मा का।

निमोनिया फेफड़ों में असाधारण तरीके से सूजन आने के कारण होता है। इसमें फेफड़ों में पानी भर जाता है। आमतौर पर निमोनिया होने के कई कारण हो सकते हैं जैसे बैक्टिरिया, वाइरस, फफूंद  या फिर फेफड़ों में चोट आदि लगना । वैसे तो यह बीमारी हर आयु वर्ग के लोगों को हो सकती है, लेकिन यह सबसे अधिक पांच साल तक के बच्चों में पायी जाती है।

बच्चों में निमोनिया बदलते मौसम के कारण भी हो सकती है, खास कर सर्दी के मौसम में। तो यदि बच्चे को पहले से ही टीका लगवा दिया जाए, तो काफी सीमा तक निमोनिया होने का खतरा समाप्त हो सकता है। बाजार में  उपलब्ध यह टीका लगवाने पर बच्चे को खतरा भी नही रहता है। क्योंकि यह टीका विश्व  स्वास्थ्य  संगठन  (डब्ल्युएचओ) के मानक के अनुरूप ही तैयार किया गया है।

डा. अभिषेक वर्मा के अनुसार ‘‘निमोनिया के टीके अलग-अलग बैक्टीरिया के हिसाब से बनाए गये हैं। हीमोफलेक्सिन, फलूएंजा बी निमोनिया के लिए और वायरस के लिए भी बहुत सारे टीके विकसित किये गये है, जैसे रेसपाइरेट सेन्सनल वाइरस के लिये भी टीका है, और पैराइन्फलूएंजा, इन्फ़्लुएन्ज़ा, इन सबके लिए टीके हैं। ये बैक्टीरिया और वायरस कहीं न कहीं से सांस की नली को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार  निमोनिया के टीके तो बहुत हैं, और डब्ल्यूएचओ ने हर टीके के लिए मानक भी बनाया है।  मानक के अनुरूप ही टीके बनाये जाते हैं, और इसके बाद बाज़ार में आते है। इनका मानक, मरीज़ की आयु के हिसाब से होता है, और उसी प्रकार से लगाये भी जाते हैं।’’

डा. वर्मा ने यह भी बताया कि ‘‘ इन टीकों की सरकारी अस्पताल में उपलब्धता नहीं है। यह बाहर से लेकर ही लगवाया जाता है। हमारे यहाँ डीपीटी, पोलियो, बीसीजी, हैपेटाइटिस बी आदि कुल सात प्रकार के टीके लगते हैं। इसमें निमोनिया का टीका शामिल नही है। इसके अतिरिक्त अगर आपको कोई टीका लगवाना है तो आपको अपने निजी स्तर पर बाजार से खरीद कर लगवाना होगा।’’

इन्दिरा नगर में रमा क्लीनिक की निदेशक एंव स्त्री रोग विशेषज्ञा डा. रमा शंखधर ने बताया कि ‘‘निमोनिया के टीके के लिये डब्ल्यूएचओ ने एक मानक निर्धारित किया है, और निमोनिया के लिये टीका आता भी है । जोकि ‘हीब’ नाम से आता है। यह टीका बच्चे के जन्म के 6 हफ्ते के बाद से लगता है। और 1-1 महीने के अन्तराल पर तीन खुराक में लगाया जाता है और यह   बच्चों को निमोनिया से बचाता है। लेकिन यह 100 प्रतिशत सुरक्षित उपाय नहीं है। अगर संक्रमण हो गया तो बच्चे को निमोनिया हो सकता है। लेकिन उतना ज्यादा नहीं होगा,  कुछ कम होगा जो कि अच्छे एन्टीबायोटिक्स से जल्दी ठीक किया जा सकता है।’’

डा. राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डा. आर. एस. दूबे सरकारी अस्पतालों में निमोनिया के टीके की उपलब्धता के बारे में बतातें हैं कि ‘‘निमोनिया के टीके के लिए डब्ल्यूएचओ के द्वारा एक मानक है जिसे हम ध्यान में रखकर ही इसका प्रयोग करते है। सरकारी अस्पतालों में इसकी उपलब्धता कम है। लेकिन यह टीके बाहर से भी मिल जाते हैं।"

आमतौर पर निमोनिया से ग्रसित बच्चे को खांसी, जुकाम, बुखार, सांस लेने में  दिक्कत, पसलियों का चलना और खांसी में कफ आना आदि लक्षण होते हैं। इन्ही लक्षणों को ध्यान में रखकर निमोनिया का इलाज किया जाता है। निमोनिया के इलाज में एंटीबायोटिक्स दवाओं का प्रयोग किया जाता है।

 पांच साल तक के बच्चों में निमोनिया का अधिक होने का एक कारण सरकारी अस्पतालों में टीके का उपलब्ध न होना भी है। यही वजह है कि सरकारी अस्पतालों में जन्म लेने वाली तुलसी, यास्मीन, ज्योति और फरीद टीके के अभाव में निमोनिया जैसी बीमारी से जूझ रहें हैं | इनके माता पिता को यह भी नही पता है कि निमोनिया के लिये बाजार में टीका भी उपलब्ध है।

वैसे तो निमोनिया का इलाज संभव है लेकिन यदि बच्चों का शुरू में ही टीकाकरण करा दिया जाये तो निमोनिया जैसी बीमारी से बच्चों को बचाया जा सकता है,  और इन टीकों की उपलब्धता यदि सरकारी, अर्धसरकारी और गैर सरकारी सभी प्रकार के अस्पतालों में कर दी जाय, तो भारत में प्रत्येक दिन सैकड़ों बच्चों को निमोनिया की वजह से अपनी जान न गँवानी पड़े। और यदि टीका लगने के बाद निमोनिया होता भी है तो शरीर की अवरोधक क्षमता इतनी होगी कि चिकित्सकों द्वारा एंटीबायोटिक्स देने पर बच्चा जल्दी ठीक हो जाएगा।

नदीम सलमानी - सी.एन.एस.
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

बच्चों को लिए सस्ते निमोनिया टीके की उपलब्धता

निमोनिया जैसे जानलेवा रोग से बच्चों को बचाने के लिये हमारी सरकार से पास कोई खास रणनीति नहीं है। सरकारी द्वारा बच्चों के लिए निःशुल्क टीकाकरण प्रणाली में निमोनिया शामिल ही नहीं है जबकि 5 साल से कम आयु के बच्चों में  मौत का सबसे बड़ा कारण निमोनिया है।

सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर सस्ते टीकों या निमोनिया के उपचार की अनुपलब्धता प्रमुख है। हर वर्ष लाखों बच्चे इस बीमारी से अपनी जान गवाँ देते हैं पर हमारी सरकार आज भी हाथ पर हाथ रखे बैठी है। सामान्य जन तक आज भी ये सुविधा नहीं पहुंची है। वर्ष 2008 में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में निमोनिया से होने वाली मृत्यु 371605 थी जो कि 5 वर्ष से कम सभी तरह के मृत्यु की २०.३%  थी।

यश अस्पताल की स्त्री रोग विशेषज्ञा डा० ऋतु गर्ग बताती हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दो ही प्रकार के टीके उपलब्ध हैं। एक तो इनफ़्लुएनजा वेकसीन दूसरा नीमोकोकल वेकसीन जिसे 10-12 साल तक के बच्चे को हर साल लगाना पड़ता है, जिससे काफी हद तक निमोनिया के हमले से बचा जा सकता है। परन्तु यह थोड़ा मंहगा है। गरीब व्यक्ति इसको बिल्कुल नहीं लगवा सकता। मध्यमवर्गीय लोग अपने अन्य खर्चों को कम करके लगवा सकते हैं। सरकारी अस्पतालों में यह टीका उपलब्ध नहीं है। डा0 गर्ग का यह मानना है कि इसे सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध होना चाहिए जिससे गरीब लोग, जो निमोनिया से ग्रसित हैं, इसका लाभ उठा सकें।

‘होप मदर एण्ड चाइल्ड केयर सेन्टर’ की स्त्री रोग विशेषज्ञ डा0 निधि जौहरी का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बच्चों के लिए तो टीके उपलब्ध कराये हैं पर व्यस्कों के लिए नहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की योजना है कि बच्चों को बोतल से दूध न पिलाकर स्तनपान कराया जाये और पोषण तथा स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाये, जिससे शिशुओं में निमोनिया से होने वाली मृत्यु पर काबू पाया जा सके। डा. निधि जौहरी कहती हैं कि सरकारी अस्पतालों में निमोनिया से बचाव का टीकाकरण स्वास्थ्य प्रोग्राम का हिस्सा नहीं है। भारत सरकार ने इसको अपने प्रोग्राम में नहीं जोड़ा है।

वात्सल्य क्लीनिक के बाल रोग विशेषज्ञ डा. संतोष राय टीके के बारे में कहते हैं कि बाजार में यह टीका दो नाम से आता है। एक दो साल से छोटे बच्चों को लगाया जाता है वह प्रेगनार नाम से आता है पर वह बहुत मंहगा होता है जो सामान्य लोगों की पहुँच से दूर है। दूसार टीका नीमोवेक्स 23 नाम से आता है जो ज्यादा मंहगा नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जो मानक दिये हैं उनके अनुसार कुछ लोग जो इसको खरीद सकते हैं वे टीका लगवा सकते हैं। पहला डेढ़ महीने, दूसरा ढ़ाई महीने, तीसरा साढ़े तीन महीने और 18 महीने पर इसका बूस्टर डोज। पर यह सब टीके सरकारी टीकाकरण स्वास्थ्य प्रोग्राम का भाग नहीं हैं।

‘होप मदर एण्ड चाइल्ड केयर सेन्टर’ के बाल रोग विशेषज्ञ डा. अजय कुमार भी बाजार में उपलब्ध दो टीकों का जिक्र करते हैं - पहला, सामान्य बच्चों के लिए जो निमोनिया से ग्रसित नही हैं और जो बहुत महंगा है जिसे निमोकोकल वैकसिन कहते हैं। निमोनिया के टीके अत्यधिक मंहगे होने की वजह से आम लोगों की पहुंच से दूर हैं जो बच्चे के जीवन के पहले दो साल में चार बार लगते हैं जिसकी अनुमानित लागत 15,500/- के आस पास आती है। आगे डा. अजय कुमार कहते हैं कि सरकारी अस्पतालों मे यह टीका उपलब्ध नही है, और यह सरकार की किसी भी स्कीम में नहीं है। मगर यह टीका उनकी क्लीनिक पर उपलब्ध है।

डा0 अजय कुमार निमोनिया जैसे रोग को किसी विशेष वर्ग में न बांटकर कहते हैं कि यह किसी भी अमीर या गरीब वर्ग में हो सकता है। अगर बच्चा कुपोषण का शिकार है तो उच्च या निम्न वर्ग का फर्क नहीं पड़ता जानकारी का अभाव बच्चे में कुपोषण को बढ़ाता है। कुपोषण होने से कई और बीमारी हो जाती हैं जिससे निमोनिया या किसी और बीमारी का खतरा बढ़ जाता है।

भारत जैसे देश में यह एक जटिल समस्या है, खासतौर पर गरीब लोगों में जो स्वच्छता का विशेष ध्यान नहीं रखते। जिसके कारण और भी बीमारी इनके साथ हो जाती हैं, या और बीमारी के साथ निमोनिया हो जाता है। शिक्षा का अभाव एक प्रमुख कारण है। खास कर देहातों मे जहां माता-पिता इस रोग के प्रति ज्यादा जागरूक नहीं हैं। शिक्षा, स्वच्छता, और स्वास्थ्य के विषय में अगर सरकार समय-समय पर जागरूकता कार्यक्रम चलाये तो इस जानलेवा बीमारी से होने वाली मृत्यु दर को बहुत हद तक कम किया जा सकता है।  

नीरज मैनाली - सी0एन0एस0
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

घर में धूम्रपान से भी हो सकता है बच्चे को निमोनिया

घरों के अन्दर होने वाले वायु प्रदूषण से बच्चों को निमोनिया जैसी बीमारी हो सकती है. भोजन पकाने के लिए जलाया गया ईंधन और घर के सदस्यों द्वारा किये गए धूम्रपान के धुएं  में मौजूद हानिकारक तत्व, अप्रत्यक्ष रूप से बच्चे के शरीर में जाने के कारण  नवजात शिशु को निमोनिया का कहर झेलना पड़ सकता है | क्योंकि निमोनिया का सम्बन्ध फेफड़ों से होता है, इसलिए जब बच्चा प्रदूषण वाले वातावरण में साँस लेता है तो इस वायु में मौजूद हानिकारक तत्वों का प्रभाव उसके फेफड़ों पर पड़ता है और बच्चा निमोनिया जैसी बीमारी का शिकार हो जाता है।

डा. राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय के शिशु रोग विशेषज्ञ डा. अभिषेक वर्मा के अनुसार, ‘‘गाँव में लकड़ी या उपले से भोजन पकाया जाता है, क्योंकि वहां शहरों की तरह गैस की उपलब्धता  नही है | साथ ही साथ घर में जो साफ सफाई की जाती है उससे धूल उड़ती है, और घरों में जानवर भी पाले जाते हैं। इन सभी कारणों से घर का वातावरण प्रदूषित होता है। इनसे बच्चों को साँस लेने में दिक्कत आ सकती है तथा उन्हें निमोनिया और अन्य श्वास की बीमारियाँ हो सकती है। अगर हम घर का वातावरण स्वस्थ  रखें तो बच्चे को इन बीमारियों से बचाया जा सकता है।’’

डा. वर्मा ने यह भी बताया कि ‘‘सिगरेट और बीड़ी के सेवन का असर निमोनिया पर तो इतना अधिक नहीं है, लेकिन और दूसरी बीमारियों, जैसे अस्थमा आदि, का खतरा रहता है। प्रदूषण को कम करने के लिए भोजन पकाने के लिए लकड़ी या उपले का प्रयोग कम किया जा सकता है। शहरों में फर्श पर पोछा लगाने से भी धूल को कम किया जा सकता है। और यदि घर में पालतू जानवर हैं तो उन्हें घर के बाहर ही रखें तो ज्यादा अच्छा  और बेहतर है। इस बात का ध्यान रखें कि बच्चों को  उनसे  दूर रखा जाय,  और बच्चों को जानवरों के साथ खेलने न दिया जाय. घरों में पोछे, मच्छरदानी आदि का प्रयोग करें तो इससे बच्चों को निमोनिया जैसी बीमारी से बचाया जा सकता है।’’

इन्दिरा नगर की स्त्री रोग विशेषज्ञा डा. रमा शंखधर के अनुसार ‘‘जिन घरों में लकड़ी या कंडों के चूल्हे जलते हैं या फिर लोग बीड़ी सिगरेट का सेवन करते हैं तो ये घर के वातावरण को प्रदूषित कर देते हैं, और जब बच्चे उस वातावरण में सांस लेते हैं तो यह धुआँ फेफड़ों में जाकर अन्दर जमा हो जाता है जिससे बच्चों को कम आक्सीजन मिलती है, और  बच्चों के शरीर में बीमारियों से लड़ने की क्षमता धीरे-धीरे कम होने लगती है। इसलिए जब घर में झाड़ू पोछा हो रहा हो तो बच्चों को वहाँ से हटा दें और पानी में फिनाइयल या नीम की पत्ती डालकर पोछा लगाएं।’’

डा. राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डा. आर. एस. दूबे ने घर के अन्दर धूम्रपान के बारे में बताया कि “धूम्रपान का असर निश्चित रूप से बच्चों पर पड़ता है. जब छोटे कमरे में  धूम्रपान किया जाएगा तो बच्चा इसको साँस  लेने के दौरान अपने अन्दर अवशोषित करेगा जिसके कारण उसके ऊपर इसका असर पड़ेगा।’’

इन्हीं सब कारणों के चलते, एक मलिन बस्ती में रहने वाली रेखा की बच्ची तुलसी निमोनिया की शिकार हो गयी है. रेखा यह बात जानती तक नही है कि लकड़ी के चूल्हे से निकलने वाला धुंआ ही उसकी बच्ची के निमोनिया होने का कारण है। वह अपनी बच्ची को गोद में लेकर बड़े आराम से खाना बनाती है, और उसका पति भी बच्चों के साथ बैठकर बीड़ी का सेवन करता है, जिसका कुप्रभाव उसकी मासूम बच्ची को झेलना पड़ रहा है। दवा लाने पर भी कोई असर नही होता है। क्योंकि इन लोगों को यह पता ही नही है कि कमी कहाँ है।  इन्हें किसी चिकित्सक ने इस बारे में बताया ही नहीं |

अक्सर निमोनिया को एक आम बीमारी की तरह समझा जाता है। लेकिन यह अब आम बीमारी नही रही, क्योंकि पांच साल तक के बच्चों की मौतें निमोनिया के कारण हर साल बढ़ती जा रही हैं। इसलिए निमोनिया को आम बीमारी समझकर इसे अनदेखा न करें। अपने बच्चे को निमोनिया और दूसरी साँस की बीमारियों से बचाने के लिये घरों के अन्दर होने वाले प्रदूषण को रोकें और अगर घर में खाना मिट्टी के चूल्हे पर बनाती हैं तो अपने बच्चों को उसके धुएं से दूर रखें, और जिस स्थान पर बच्चे हों वहां धूम्रपान का सेवन तो बिल्कुल न करें। तभी आपका बच्चा स्वस्थ रह पायेगा।

नदीम सलमानी - सी.एन.एस.
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

घर के भीतर का प्रदूषण एवं बच्चों में निमोनिया

वाहनों से निकलने वाले धुएं से फेफड़ों को होने वाले नुकसान के बारे में सभी जानते हैं, लेकिन यह धुआँ गर्भ में पल रहे भ्रूण के विकास में भी बाधक होता है।  इसी प्रकार घर के अन्दर के प्रदूषण से भी बच्चों में अनेक जानलेवा बीमारियाँ होती हैं, जो कि भोजन बनाने वाली अंगीठी, मिट्टी तेल के स्टोव, कंडा या फिर माता पिता के सिगरेट, बीड़ी, हुक्का आदि के सेवन से होती है।  जिसमें वो बच्चा परोक्ष-अपरोक्ष रूप से धुएं को अपने अन्दर सॉस के साथ लेता है।  इन सब की वजह से बच्चों में अनेक बीमारियाँ घर कर जाती हैं जिनमें से निमोनिया प्रमुख है।

यश अस्पताल की प्रख्यात स्त्री-रोग विशेषज्ञा डॉ. ऋतु गर्ग कहती हैं कि, "घर के अन्दर रसोई के धुएं, वातावरण में मौसम बदलने के कारण फैल जाते हैं, जिसे बच्चा अपने सॉस के साथ लेता है।  सोते समय बच्चे के ऊपर हल्का कपड़ा डाल कर इससे बचाया जा सकता है। किन्तु जो सबसे चिन्ता की बात है वह है माता या पिता का सिगरेट या बीड़ी सेवन करना।  परोक्ष धूम्रपान का बच्चे की सेहत पर १००% असर पड़ता है क्योंकि सिगरेट बीड़ी का धुंआ हल्का होता है और आसानी से बच्चों के फेफडे़ में सांस के साथ चला जाता है, जो निमोनिया का सबसे बड़ा वाहक है।"

इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमें तब देखने को मिला जब एक शिक्षित माता पिता मुनिन्द्र नाथ और प्रभा आनन्द ने हमें बताया कि उनके बच्चे को निमोनिया हुआ था पर उसके बाद भी उन्होने सिगरेट से होने वाले प्रदूषण के बारे में ज्यादा ध्यान नहीं दिया, जबकि इनका बच्चा एक ‘प्री-मैच्योर’ बच्चा था।
   
‘होप मदर एण्ड चाइल्ड केयर सेन्टर’ की  डा. निधि जौहरी का मानना है कि घर के आस पास होने वाले निर्माण से धूल के कण बच्चे की सांस के साथ सांस नली से होते हुए सीधे फेफड़ों में चले जाते हैं जो पहले दमा (अस्थमा) फिर बाद में निमोनिया में बदल जाता है। घर के अन्दर माता, पिता का बीड़ी या सिगरेट के सेवन को भी वे ४०% तक निमोनिया का कारण मानती हैं।

इसी ‘होप मदर एण्ड चाइल्ड केयर सेन्टर’ के बाल रोग विशेषज्ञ डा. अजय कुमार कहते हैं कि वायु प्रदूषण हर तरह से खतरनाक है, खास तौर पर सांस की बीमारी में, जिसके सबसे बड़े शिकार बच्चे होते हैं जिनकी प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। इसका सीधा असर बच्चों के फेफड़ों पर पड़ता है।  फेफड़ों की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और फेफडे़ सामान्य कीटाणुओं को भी अपनी ओर आमंत्रित कर लेते हैं। एक तरह से रोग से लड़ने की जो ढ़ाल है वो कमजोर हो जाती है।  जिससे निमोनिया के कीटाणु आसानी से प्रवेश कर जाते हैं और निमोनिया रोग फैला देते हैं। 

बच्चों में निमोनिया का एक प्रमुख कारण हैं घर के अन्दर जलने वाले चूल्हे। वायु प्रदूषण से बच्चों के फेफडे़ में सीधा असर होता है जिससे बच्चों को बचाया जा सकता है, अगर अंगीठी, चूल्हों को घर से बाहर जलाया जाए तो।  सिगरेट से होने वाले प्रदूषण के विषय में डा. अजय कुमार कहते हैं कि माता पिता द्वारा सिगरेट से जो धुंआ फैलता है वह बच्चों के फेफडे़ पर सीधा असर करता है। अगर माँ बाप सिगरेट पीना नहीं छोड़़ सकते हैं तो कम से कम घर के बाहर पिएं और इसकी सजा अपने बच्चों को न दें।

ऐसा ही वात्सल्य क्लीनिक के बाल रोग विशेषज्ञ डा. संतोष राय का कहना है कि बीड़ी, सिगरेट से बच्चों में एलर्जी हो जाती है, जिससे उनकी रोग से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है। इसमें  फेफड़ों की एलर्जी प्रमुख है।  घर के अन्दर के प्रदूषण के संदर्भ में डा. संतोष राय कहते हैं कि घर के अन्दर जलने वाले मच्छर-निरोधक ‘कॉयल’ या बत्ती भी वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण हैं।  सिगरेट भी बच्चों में फेफडे़ के रोग का एक मुख्य कारण है।

वायु प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं घर में जलने वाली अंगीठी, चूल्हे, आदि, जो फेफड़ों में कई प्रकार के विकार पैदा करते हैं जिससे निमोनिया होने की आशंका रहती है।  इनसे बचा जा सकता है अगर खाना घर से बाहर बनाया जाए या सौर्य ऊर्जा का इस्तमाल किया जाए।

इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए समाज में प्रदूषण को कम करने का संदेश जाना चाहिए और हम सबको  इसे अपनी जिम्मेदारी समझना चाहिए।

नीरज मैनाली - सी0एन0एस0
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

पोषण एवं स्वच्छता का ध्यान रखें, बच्चों को निमोनिया से बचाएं

गर्भावस्था से ही पोषण और स्वच्छता का ध्यान रखा जाए  तो जन्म के बाद नवजात शिशु में होने वाली निमोनिया जैसी बीमारियों से बच्चे की सुरक्षा की जा सकती है, और बच्चे को स्वस्थ रखा जा सकता है | निमोनिया पांच साल तक के बच्चों में होने वाली एक आम बीमारी है जिससे, अगर माँ चाहे तो अपने बच्चे को सुरक्षित रख सकती है। जरूरत है तो सिर्फ थोड़ी सी जागरूकता की, और शिशु जन्म से पूर्व ही इसके लिए तैयारी करने की।

स्त्री रोग विशेषज्ञा डा. रमा शंखधर के अनुसार ‘‘जब महिला गर्भवती होती है तो उसे हम सलाह देते है कि आयरन, कैल्शियम, प्रोटीन आदि की गोली लें और खाने में ऐसी चीजें खाए जिनमें प्रोटीन होता है, जैसे सोयाबीन, और गुड़, जिसमें आयरन बहुत होता है। गुड़ आयरन का बहुत अच्छा स्त्रोत है, और शहर एवं गांव दोनों जगह आसानी से मिल भी जाता है | यह महंगा भी नही होता है। साथ ही पनीर और दूध भी लें जिसमें प्रोटीन और कैल्शियम दोनों होता है। अगर माँ को अच्छा पोषण देगें तो बच्चा स्वस्थ पैदा होगा। इससे एक फायदा और होता है कि बच्चा समय से पहले नही होता है। जब बच्चा समय पर होगा तो बीमारियों का खतरा काफी कम हो जाता है।’’

डा. शंखधर ने यह भी बताया कि ‘‘साफ सफाई का पूरा ध्यान रखना चाहिये. बच्चे को गोद में उठाने से पहले साबुन से हाथ धो लें, और स्तनपान कराने से पहले अपने स्तन को गीले तौलिये से पोंछ लें, जिससे पसीने या फिर अगर पाउडर या क्रीम आदि लगाती हैं  तो यह बच्चे के मुँह में न जाये| माँ को रोज नहाना चाहिये,  एवं बच्चे को भी रोज नहलाकर उसके कपड़े बदलने चाहिए। हर बार पेशाब आदि करने पर बच्चे के कपड़े बदलें और गंदे कपड़ों को साबुन से धोकर और ठीक से सुखाकर ही उन्हें पहनाएं | कभी भी गीले कपड़े बच्चे को न पहनाएं। साथ ही जब बच्चा थोड़ा बड़ा हो जाय और कुछ खाने लगे तो ध्यान रखें कि उन्हें बाहर की चीज़े न दें | केवल घर की बनी चीज़ें ही उन्हें दें और मिर्च मसाले की चीज़ों से बच्चों को दूर रखें ।’’

डा. राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय के बाल रोग विशेषज्ञ  डा. अभिषेक वर्मा बच्चों के पोषण के बारे में बताते हैं कि ‘‘जो हमारे शरीर के आवश्यक  तत्व हैं, जैसे कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा आदि, वो एक निश्चित मात्रा में हमारे शरीर के हिसाब से जरूरी हैं | जब वो सही मात्रा में शरीर को प्राप्त हों तो उसे हम अच्छा पोषण कहते हैं। अगर हम बच्चे को गुणकारी आहार देते हैं, जिसमें हर तरह की रक्षात्मक चीजें मौजूद हों, तो उससे शरीर की अवरोधक क्षमता बढ़ती है। वह सीधे तो निमोनिया को नहीं रोक सकती है, लेकिन शरीर को निमोनिया से लड़ने की शक्ति जरूर प्रदान करती हैं, और वह उचित खाने से ही आती हैं। तो निश्चित रूप से एक गुणकारी आहार से शरीर को हर तरह की बीमारी से बचाने में मदद मिलती है।’’

प्रत्येक महिला जब वह गर्भावस्था में होती है तो उसका यह सपना होता है कि उसका होने वाला बच्चा स्वस्थ एवं तंदुरूस्त हो, और जन्म के बाद सभी तरह की बीमारियों से सुरक्षित रहे। यदि वह अपने सपने को साकार करना चाहती हैं तो गर्भावस्था से ही अपने और बच्चे के पोषण का ध्यान रखे जिससे गर्भ में पल रहे बच्चे का ठीक से विकास हो सके, और बच्चे के जन्म के बाद स्तनपान कराने के लिए भी आवश्यक तत्व मिल सकें। इसके लिए यदि संभव हो तो माँ  को दूध, अण्डे, मछली और मांस आदि दें जिससे उसे प्रोटीन पूरी मात्रा में मिल सके। यदि शाकाहारी हैं तो इसके लिए अनाज और दालों का प्रयोग कर सकती हैं। चीनी के स्थान पर गुड़ का प्रयोग करें और कैल्शियम के लिए बाजरे का प्रयोग करें। विटामिन के लिए हरे पत्ते वाली सब्जी का प्रयोग कर सकते हैं। इस प्रकार यदि गर्भावस्था से ही पोषण का ख्याल रखेंगें तो जन्म के बाद माँ के दूध के द्वारा बच्चे को वे सभी आवश्यक तत्व मिल जायेंगें जो बच्चे को निमोनिया जैसी बीमारी से लड़ने मे सहायता करेंगे और बच्चा स्वस्थ रहेगा।

नदीम सलमानी - सी.एन.एस.
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

बच्चों में निमोनिया से बचाव के लिए पोषण और स्वच्छता जरूरी

किसी भी व्यक्ति को जीवित रहने हेतु पौष्टिक आहार की आवश्यकता होती है।  कोई भी व्यक्ति अगर चुस्त व तंदुरूस्त रहना चाहता है तो उसे अपने शिशुओं को भी सही मात्रा में स्वच्छ व पौष्टिक आहार देना चाहिए।  अगर भोजन स्वच्छ व पौष्टिक न हो तो फायदा न करके नुकसान पहुँचाता है और शारीरिक क्षमता को भी कम करता है, फलस्वरूप कई खतरनाक बीमारियां हो जाती हैं।  जिसमें से निमोनिया प्रमुख है।

 12 नवम्बर को मनाये जाने वाले विश्व निमोनिया दिवस के सन्दर्भ में वात्सल्य क्लीनिक के सुप्रसिद्ध बाल-रोग विषेषज्ञ डा. संतोष राय ने हमें बताया कि बच्चों को अच्छा पोषण देना अति आवश्यक है क्योंकि एक अच्छे पोषण में कई तरह के एण्टीबाडीज, विटामिन जैसे विटामिन-‘सी’ होती है जो एक ‘एण्टीआक्सीडेन्ट’ की तरह काम करती है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है, जो बच्चों को जल्दी-जल्दी बीमार होने से बचाती है। कुपोषण से शिकार बच्चों को उन बच्चों की तुलना में संक्रमण अधिक होता है, जो स्वच्छ व पौष्टिक आहार लेते हैं।

डा. संतोष राय ‘जंक फूड’ को आज के परिवेश में खतरनाक मानते हैं, स्वच्छता की भूमिका को अति आवश्यक मानते हुए डा. राय बताते हैं कि पेट की बीमारी ही नहीं ‘वाइरल निमोनिया’ भी स्वच्छ न होने से हो सकता है, जिसमें माता पिता या घर के अन्य सदस्यों का हाथों, बर्तन, दूध की बोतल आदि का साफ न रखना सामान्यतः पाया गया है।

बच्चे के लिए मॉं का दूध ही सर्वोत्तम
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‘होप मदर एण्ड चाइलड केयर सेण्टर’ के बाल-रोग विशेषज्ञ डा. अजय कुमार का कहना है कि बच्चे को 6 महीने के बाद स्तनपान पर ही न रखकर ठोस व संतुलित आहार देना चाहिए जिसका महंगा होना जरूरी नहीं। यहाँ पर भी डा. अजय कुमार ‘फास्ट फूड’, ‘जंक फूड’ का जिक्र करते हुए इसको बच्चों को न देने की सलाह देते हैं एवं विशेष बात का जिक्र करते हुए वह कहते हैं कि बच्चे के लिए माँ का दूध ही सर्वोत्तम है न कि गाय, भैंस या डिब्बे का।  क्योंकि गाय या भैंस का दूध गाय या भैंस के बच्चे के लिए सर्वोत्तम हो सकता है, मनुष्य के बच्चे के लिए नहीं।  स्वच्छता पर उनका भी एक ही मत है कि स्वच्छ शरीर ही बच्चे को निमोनिया व अन्य रोगों से बचाता है।

यश अस्पताल की प्रख्यात स्त्री रोग एवं प्रसूति विशेषज्ञा डा. ऋतु गर्ग भी मानती हैं कि अच्छे आहार का महंगा होना कोई जरूरी नहीं है, पर उनका पौष्टिक होना अति आवश्यक है।  हाथों के धोने के विषय में उनका कहना है कि आमतौर पर मातायें बच्चों को खिलाने, दूध पिलाने से पहले हाथों को नहीं धोती हैं जो बच्चे को संक्रमित कर सकता है और उससे निमोनिया व अन्य कई बीमारियों के होने का खतरा रहता है।

‘होप मदर एण्ड चाइलड केयर सेण्टर’ की स्त्री रोग विशेषज्ञा (गोल्ड मेडिलिस्ट) डा. निधि जौहरी कहती हैं कि अच्छा पोषण तो महत्वपूर्ण है ही पर उसका स्वच्छ होना भी उतना ही जरूरी है।  अक्सर घर में माताओं को पूर्ण ज्ञान न होने की वजह से भी बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं।  उनका मानना है कि महंगे खाने की ना तो बच्चों को न ही बड़ों को आवश्यकता है।  मौसम के फल व सब्जी से अच्छा पोषण कोई दूसरा नहीं है। कई बार मरीज उन्हें ‘प्रोटीन ड्रिंक’ नुस्खे में लिखने के लिए कहते हैं, पर वे मौसमी फल व सब्जी को ही प्राथमिकता देती हैं।

स्वच्छता पर वे कहती हैं कि सारे रोग स्वच्छता की कमी से ही शुरू होते हैं।  वे अपने अस्पताल में आने वाली माताओं को स्वच्छता, खास तौर पर हाथों को और बच्चों की दूध की बोतल, निप्पल आदि को कैसे साफ रखें, का विशेष ज्ञान देती हैं।  परन्तु ऐसा भी पाया गया है कि पूर्ण ज्ञान व स्वच्छता के बावजूद भी निमोनिया रोग बच्चे को हो सकता है, जैसे कि आशीष निगम एवं संगीता निगम के शिशु को जन्म से 5 महीने के भीतर ही निमोनिया हो गया था।

अतः प्रकृति व स्वच्छता से जितने करीब रहेंगे, उतने ही स्वस्थ जीवन का निर्माण कर सकेंगे।

नीरज मैनाली - सी0एन0एस0
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

बच्चों को निमोनिया से बचाता है मां का दूध

"बच्चों को जन्म से 6 माह तक केवल मां का ही दूध पिलाएं क्योंकि यह उनके शरीर को निमोनिया, दस्त, और दिमागी बुखार आदि जैसी बीमारियों से बचाने का कार्य करता है।" यह कहना है राजधानी लखनऊ के चिकित्सकों का। डॉ. राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. अभिषेक वर्मा के अनुसार "माँ के दूध में बहुत सारे ऐसे तत्व होते हैं जिन्हें हम एन्टीबाडीज़ कहते हैं | ये एन्टीबाडीज़ निमोनिया ही नहीं, वरन और बहुत सारी बीमारियों से बच्चों को बचाते हैं। इसलिए जन्म के शुरू  के 6 महीने में माँ का दूध देना अति आवश्यक  है।"

डॉ. अभिषेक वर्मा ने बताया कि "जब भी कोई गर्भवती स्त्री हमारे अस्पताल में आती है तो उनको प्रसवपूर्व जांच के समय से ही इस बात के लिए तैयार किया जाता है  कि वह बच्चे को अपना ही दूध पिलायें, और हमारे यहां जब भी कोई बच्चा पैदा होता है तो आवश्यक रूप से उनको यह बताते है कि माँ का दूध ही सबसे अच्छा होता है | आप अपना ही दूध 6 महीने तक बच्चे को पिलाएं | बच्चे की संवृद्धि के लिए 6 महीने तक माँ का दूध पर्याप्त होता है।  उसके ऊपर बीमारी का कोई असर नहीं पड़ता है। ऐसी स्थिति में अधिकांश माँऐं बच्चे को अपना दूध पिलाना पसन्द करती हैं, और जो ऐसा नहीं करती हैं उनके बच्चों में संक्रमण जैसे निमोनिया, दस्त, पोषण की कमी और बहुत सारी समस्याएं ज्यादा आती हैं।" डॉ. वर्मा ने यह भी बताया कि "बोतल के दूध को हम मना करते हैं | अगर कुछ अनुपूरक देना है तो घर का ही देते हैं और दूध मां का ही देते हैं। बोतल के दूध में वो पोषक तत्व नहीं होते हैं जो माँ के दूध में पाये जाते हैं| इसलिए हमारी कोशिश यही रहती है कि मां बच्चे को अपना दूध ही पिलाए।"

एक निजी क्लीनिक की निदेशक एवं स्त्री रोग विशेषज्ञा डॉ. रमा शंखधर के अनुसार "शुरू में बच्चे में प्रतिरोधक क्षमता इतनी नहीं होती है कि वह बीमारियों से लड़ सके। इसलिए जब भी उसे कोई संक्रमण हो जाता है तो वह अपने को उससे नही बचा पाता है | लेकिन जब वह स्तनपान करता है तो माँ के दूध में इतने एंटीबाडीज़ होते हैं जो बीमारियों से लड़ने में बच्चे की सहायता करते हैं, और निमोनिया, टीबी, जुकाम, दिमागी बुखार, दस्त आदि बहुत सारी बीमारियों से बच्चे को बचाते हैं। हम सभी महिलाओं को यह राय देते है कि कम से कम 6 महीने तक बच्चों को तो जरूर स्तनपान कराएँ।"

डॉ. रमा शंखधर आगे बताती हैं कि "कुछ माँओं में  दवा देने के बावजूद दूध नहीं आता है | लेकिन उनको हम सुझाव देते है कि जब तक दूध आ रहा है आप बच्चे को दूध पिलाती रहिये और बाकि अनुपूरक भी दें जिससे वह भूखा न रहे। अगर माँ का दूध पर्याप्त मात्रा में हो रहा है तो बच्चे को अलग से कुछ भी देने की जरूरत नहीं है। यदि दूध पर्याप्त मात्रा में नहीं है तो बोतल का दूध दे सकती हैं। जब बच्चा तीन महीने का हो जाए तो उसे दाल का पानी भी छानकर दे सकते हैं।"

डॉ. राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डा. आर. एस. दूबे भी स्तनपान का समर्थन करते हैं। उनके अनुसार "जब माँ बच्चों को स्तनपान नही कराती है, और दूध चम्मच आदि से देती है तो दूध उसकी साँस की नली में जाने का खतरा रहता है। पर यदि उसका सर उठाकर स्तनपान कराया जाए तो इसकी सम्भावना निश्चित रूप से कम होगी। बच्चों को 6 से 12 माह तक स्तनपान करायें। इससे बाहरी खतरनाक तत्व बच्चे के शरीर के अन्दर नहीं जाएंगे। इसीलिए जो बच्चा हमारे अस्पताल में पैदा होता है तो उसकी माता को हम मार्गदर्शित करते है, और स्तनपान के लिये बताते है।"

वहीँ इसी अस्पताल में जन्म लेने वाली इस्माईलगंज झोपड़पट्टी की एक निमोनिया से पीड़ित बच्ची तुलसी की मां रेखा ने बताया कि बच्ची के जन्म के समय चिकित्सकों ने स्तनपान के लिए कुछ नही बताया | फिर भी मां ने बच्ची को 6 महीने तक अपना दूध पिलाया | इसके बावजूद बच्ची को निमोनिया हो गया। इसी बस्ती में रहने वाली निमोनिया से पीड़ित ज्योति, यास्मीन और फरीद की मांओं ने भी अपने बच्चों को 6 महीने तक केवल अपना ही दूध पिलाने की बात कही।

अपने शिशु को जन्म से 6 माह तक केवल स्तनपान ही कराएं | क्योंकि यह आसानी से बच्चे के पेट में पच जाता है। जिससे बच्चे का पेट खराब होने का खतरा नहीं रहता है। मां के दूध में सारे आवश्यक तत्व मौजूद होने के कारण बच्चे को  बाहर से कुछ भी लेने की आवश्यकता नही होती है। मां के दूध में मौजूद तत्व ही उसे बीमारियों से लड़ने की शक्ति प्रदान करते हैं। इसलिए बच्चों के लिये पहले 6 माह तक स्तनपान बहुत ही जरूरी है, क्योंकि यह बच्चों को निमोनिया जैसी बीमारियों से लड़ने में सहायता करता है। इसलिए प्रत्येक मां को चाहिये कि वह अपने नवजात शिशु  को 6 माह तक केवल स्तनपान ही कराएं, और निमोनिया जैसी बीमारियों से बच्चों को दूर रखें । साथ ही चिकित्सकों को चाहिए कि वे स्तनपान के बारे में महिलाओं को बताएं और उन्हें बच्चों को 6 माह तक केवल स्तनपान ही कराने की सलाह दें जिससे निमोनिया जैसी बीमारियों पर काबू पाया जा सके ।

नदीम सलमानी - सी.एन.एस.
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

शिशु के जीवन के पहले 6 महीने स्तनपान : एकमात्र सुरक्षित उपाय

मौसम के करवट बदलते ही बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है। सबसे ज्यादा असर देखने को मिलता है, बच्चों पर। वजह, बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बड़ों की अपेक्षा कम होती है। निमोनिया एक ऐसा रोग है जो छोटे बच्चों में प्रायः देखने को मिलता है। लाखों बच्चे इस रोग का शिकार होते हैं। पूरी दुनिया में 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 16 लाख बच्चे इस खतरनाक बीमारी से मरते हैं। अगर कुछ बातों का ध्यान रखा जाये तो इस रोग पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।

‘होप मदर एण्ड चाइलड केयर सेण्टर’ के बाल-रोग विशेषज्ञ डा0 अजय कुमार के अनुसार शिशु के जन्म के पहले घण्टे से ही एकमात्र स्तनपान कराना चाहिए जो शिशु को निमोनिया के साथ-साथ कई अन्य बीमारियों से भी बचाता है। मगर आज के समाज में इसको लेकर माताओं में कई भ्रांतियां हैं जैसे कम दूध होना, जबकि शुरुआत में कम दूध आना एक आम बात है जिसे कोलस्ट्रम कहते हैं जो कि एक चिपचिपा पदार्थ होता है, लेकिन अगर स्तनपान कराया जाये तो कुछ ही समय में यह तेजी से बढ़ने लगता है, जिसे अक्सर मातायें समझती हैं कि यह दूध नहीं है, परन्तु ऐसा नहीं है।

कोलस्ट्रम बच्चे में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। इसी ‘होप मदर एण्ड चाइलड केयर सेण्टर’ की स्त्री रोग विशेषज्ञा डा0 निधि जौहरी का भी यही मानना है कि स्तनपान पूर्ण रुप से सुरक्षित एवं स्वच्छ तरीका है। उनका यह भी कहना है कि आज की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में कई मातायें स्तनपान से कतराती हैं, जैसे कि वे कहती हैं कि दूध नहीं हो रहा है, कमर में तकलीफ है, काम पर जल्दी जाना पड़ता है इत्यादि। डा0 निधि जौहरी का भी यही कहना है कोई भी दूध जो हम शरीर से बाहर से पिलाते हैं उसको संक्रमण रहित करना बहुत मुश्किल हो जाता है, जो निमोनिया का एक बड़ा कारण है।

यश अस्पताल की स्त्री रोग विशेषज्ञा डा0 ऋतु गर्ग भी अपने यहॉ आने वाली माताओं को स्तनपान की सलाह देती हैं। मगर कई बार मातायें स्तनपान कराने में असमर्थ होती हैं तो वे उन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित लेकटोजेन नं0-1 या 2 की सलाह देती हैं, साथ-साथ यह भी सलाह देती हैं कि दूध की बोतल, कटोरी-चम्मच का पूर्ण रुप से संक्रमण रहित होना बहुत जरुरी है। 5 महीने के बाद वे दाल, चावल का पानी व फलों के रस पिलाने पर भी जोर देती हैं।

वात्सल्य क्लीनिक के सुप्रसिद्ध बाल-रोग विशेषज्ञ डा0 संतोष राय का कहना है कि एकमात्र स्तनपान का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यह नवजात शिशु में कई एण्टीबॉडीज की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है जो किसी भी फार्मूला दूध से नहीं मिल सकती है। डा0 संतोष राय का मानना है कि बोतल से दूध पिलाने में शिशु की साँस की नली और फेफड़े में कई विकार पैदा हो सकते हैं, जिसमें से निमोनिया प्रमुख है। डा0 संतोष राय कहते हैं कि ऊपर के दूध से हम शिशु के अन्दर संक्रमण के कई रास्ते खोल देते हैं। सभी विशेषज्ञों की यही राय बनती है कि एकमात्र स्तनपान से अधिक सुरक्षित कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

नीरज मैनाली - सी0एन0एस0
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

स्तनपान बढ़ाता है बच्चों की प्रतिरोधक क्षमता

नवजात शिशुओं को जन्म के उपरांत ६ महीने तक एकमात्र माँ का दूध मिलने से उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है. गोरखपुर के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ के.एन. द्विवेदी के अनुसार: "निमोनिया से ही नहीं बल्कि बहुत सारी बीमारियों से बचाने के लिए स्तनपान जरूरी है। स्तनपान से बच्चों की 'इम्यूनिटी' (प्रतिरोधक क्षमता) अधिक बढ़ती होती है। स्तनपान से निमोनिया होने की सम्भावना कम होती है उस बच्चे की तुलना में जो स्तनपान नहीं कर रहा है। हांलांकि निमोनिया से बचाने के लिए और  भी सावधानियां बरतनी चाहिए, जैसे कि ठण्ड से बचाना चाहिए। लेकिन जो  बच्चें स्तनपान कर रहे है उनको निमोनिया होने की सम्भावना कम होती हैं क्योंकि उनकी प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है।"

पहले की तुलना में स्तनपान के बारे में लोग कहीं अधिक जागरूक हैं. "स्तनपान के बारे में जागरूकता बढ़ गयी है। जो महिलाएं पहली बार माँ बनी हैं वें स्तनपान करने का सही तरीका सीखने के लिये बहुत इच्छुक हैं. इस पर जागरूकता अभियान भी चल रहा है। चिकित्सक भी स्तनपान को काफी बढ़ावा देते हैं. देखा जाए तो स्तनपान पहले की तुलना में बढ़ी है" कहना है डॉ के.एन.द्विवेदी का ।

गोरखपुर की एक बस्ती में रहने वाले श्री प्रदीप श्रीवास्तव बताते हैं कि: "यहां तो माताएं बच्चों को दूध पिलाती हैं, लेकिन कुछ अभी भी नहीं पिलाती है। अब तो कई सारे कार्यक्रम चल रहे है जिसकी वजह से माताएं स्तन पान कराने लगी हैं।"

गोरखपुर की बस्ती में रहने वाली इन्द्रावती बताती हैं कि उनके नाती को निमोनिया हुआ था. उन्होंने बताया कि: "हमारे नाती को निमोनिया हुआ था। बच्चे के गले में परेशानी थी, श्वास फूल रही थी, पेट में भी दर्द था, बुखार भी था। चिकित्सकों ने बताया कि निमोनिया ठण्ड की वजह से हुआ था। इस बच्चे को मां का दूध 5-6 महीने तक पिलाया गया था और अब उसे गाय का दूध पिला रहे हैं।"

समाज में जागरूकता होने के बावजूद भी अनेक समुदाय ऐसे हैं जहां स्तनपान के हितों के बारे में पर्याप्त जागरूकता नहीं पहुंची है. समाज में व्याप्त भ्रांतियां है और ऐसे रीति-रिवाज़ हैं जो बच्चे को एकमात्र स्तनपान से वंचित कर देते हैं। डॉ द्विवेदी का कहना है कि: "स्तनपान न कराने का सबसे बड़ा कारण है अज्ञानता। कुछ परिवारों को नवजात शिशु को स्तनपान कराने के फायदों के बारे में पता ही नहीं है। ज्यादातर लोगों को स्तनपान का महत्व समझाने से समझ में आ जाता है। अधिकतर लोग रुढ़िवादी हो कर और समझ न होने की वजह से, या फिर समाज में कुछ गलतफहमी होने के कारण शिशु को स्तनपान से वंचित रखते हैं।"

जो माताएं बोतल से दूध पिलाती हैं वो ठीक नहीं है। डॉ द्विवेदी के अनुसार: "बोतल से दूध नहीं पिलाना चाहिए क्योंकि उससे इन्फेक्सन (संक्रमण) होने का खतरा होता है, बोतल से दूध पीने से बच्चे के सांस की नली में दूध जा सकता है। बोतल का दूध पीने वाले बच्चे में सामान्य स्तनपान करने वाले बच्चे से चार से पांच गुना अधिक 'ऐसपिरेशनल निमोनिया' होने का खतरा होता है। बोतल से दूध पीने के दौरान श्वास नली में दूध चला जाता है जिसकी वजह से बच्चे निमोनिया के खतरे में आ जाते हैं।" शिशु को जन्म-उपरांत ६ महीने तक माँ का दूध ही पिलाना चाहिए - इसका लाभ बच्चे को सम्पूर्ण जीवन में मिलता है.

जितेन्द्र द्विवेदी - सी०एन०एस०
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

निमोनिया ग्रस्त-बच्चों को अक्सर नहीं मिलता समय से उपचार

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि निमोनिया टीकाकरण और उपचार को सरकारी अस्पतालों में मुहैया करवाना चाहिए क्योंकि निमोनिया ५ साल से कम आयु के बच्चों के लिए मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है, जबकि इससे पूर्णतय:बचाव और  उपचार दोनों ही मुमकिन हैं. हालत यह है कि निज़ी और सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था दोनों में ही अक्सर गुणात्मक दृष्टि से उत्तम टीकाकरण और उपचार उपलब्ध नहीं है. हालाँकि निमोनिया टीकाकरण निज़ी स्वास्थ्य व्यवस्था में अक्सर मिल जाता है परन्तु  कुछ अपवाद छोड़, अनेक निज़ी चिकित्सक विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा बताये गए उपचार की तुलना में निमोनिया की अलग-अलग उपचार विधि  अपनाते हैं.

सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था में निमोनिया टीकाकरण उपलब्ध नहीं है, जबकि गरीब घर के बच्चों को ही निमोनिया होने का अधिक खतरा रहता है, और इस बात की सबसे कम सम्भावना भी कि वे निज़ी अस्पताल में जा कर महंगा निमोनिया टीका लगवा पाएंगे. निज़ी स्वास्थ्य व्यवस्था में कुछ जगह सर्वोत्तम निमोनिया टीकाकरण और उपचार सेवा उपलब्ध है, परन्तु यह इतनी महंगी है कि आम लोगों की पहुँच के बाहर ही है. गौर तलब बात यह है कि निमोनिया कुपोषण, अस्वच्छता, भीड़-भाड़, परोक्ष धूम्रपान, चूल्हे के धुएं, आदि से पनपता  है जिसकी सम्भावना आर्थिक रूप से कमज़ोर घरों में अधिक होती है.

सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली में कुछ जगह तो बहुत ही कुशल स्वास्थ्यकर्मी और निमोनिया उपचार सेवाएँ उपलब्ध हैं, परन्तु निमोनिया टीकाकरण नहीं. निमोनिया ग्रसित बच्चों के अभिभावकों से बात करने से पता चला कि केवल बड़े सरकारी अस्पताल में ही निमोनिया उपचार मिलना न्याय संगत नहीं है.

गोरखपुर के सरकारी अस्पताल की एक स्वास्थ्यकर्मी ने कहा कि अक्सर जब तक बच्चे यहाँ पहुँचते हैं तब तक निमोनिया विकराल रूप धारण कर चुका होता है. जब निमोनिया के आरंभिक लक्षण आते हैं तो लोग स्वयं ही इलाज करते हैं, आसपास दिखाते हैं और जब स्थिति सुधरती नहीं है तब ही जिला अस्पताल ले कर आते हैं.

गोरखपुर की एक बस्ती में रहने वाली इन्द्रावती का कहना है कि जब उनके नाती को निमोनिया हुआ था तब वे उसे अस्पताल तब ही लेकर गयीं जब आसपास के चिकित्सकों के इलाज से स्थिति नहीं सुधरी. जिला अस्पताल, जो उनके घर से १५ किलोमीटर दूर है, वहाँ जाने में समय और पैसा दोनों लगता हैं, उस दिन की मजदूरी भी नहीं मिलती है, मजदूरी से छुट्टी लेनी पड़ती है, और यदि बच्चा अस्पताल में भर्ती कर लिया जाए तो रहना पड़ता है. इसका यह मतलब नहीं है कि लोग अस्पताल जाएँ नहीं, परन्तु ये सारी सेवाएँ पास के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर क्यों नहीं उपलब्ध हैं?

इन्द्रावती का कहना सही है. यदि गुणात्मक दृष्टि से बढ़िया स्वास्थ्य सेवाएँ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर उपलब्ध होंगी तो निमोनिया का उपचार शीघ्र हो सकेगा, और मृत्यु दर में भी वांछनीय सुधार होगा. निमोनिया टीकाकरण को राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में भी शामिल करना होगा वर्ना जिन बच्चों को निमोनिया का सबसे अधिक खतरा है वही इस टीके से वंचित रह जाते रहेंगे.

भारत सरकार के योजना आयोग को अपनी आगामी १२वीं पञ्च वर्षीय योजना (२०१२-२०१७) में  निमोनिया टीकाकरण को भी शामिल करना चाहिए.

जीतेन्द्र द्विवेदी - सी.एन.एस.

सबसे जरूरतमंद बच्चों को नहीं लग रहा है निमोनिया टीका

पांच वर्ष से  कम आयु के बच्चों में निमोनिया  मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है. इसके बावजूद निमोनिया का टीका भारत सरकार के बाल टीकाकरण कार्यक्रम का भाग नहीं है. इसको निजी रूप से खरीदना पड़ता है और महंगा होने के कारण अधिकाँश लोगों की पहुँच के बाहर है. सबसे दुःख की बात तो यह है कि जिन बच्चों को निमोनिया का खतरा सबसे अधिक है, उनको ही निमोनिया टीका लगने की सम्भावना सबसे कम है. उदहारण के तौर पर क्योंकि निमोनिया टीकाकरण सरकार अपने स्वास्थ्य कार्यक्रमों में नहीं प्रदान करती है, तो  ऐसे बच्चे जो गरीब परिवार से हैं, जिनके लिए स्वच्छता, धुआ-रहित वातावरण, भीड़-भाड़, पौष्टिक आहार, स्वास्थ्य जागरूकता, आदि मिलने की सम्भावना भी कम है, उनमें निमोनिया अधिक होती है और घटक स्वरुप लेती है.

गोरखपुर की एक बस्ती में रहने वाले प्रदीप श्रीवास्तव बताते हैं कि: "मेरे बच्चे को भी निमोनिया हुआ था. जिस बस्ती में हम लोग रहते हैं वहाँ अधिकांश लोग अपने बच्चों का टीकाकरण तो करा रहे है पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अभी भी नहीं लगवा रहे हैं. ऐसे लोगों के लिए जो अपने बच्चों को टीका नहीं लगवा रहे हैं, उनके लिए जागरूकता कार्यक्रम की जरूरत है और उनको जागरूक किया जा सकता है। पिछले वर्ष एक परिवार टीकाकरण नहीं करवा रहा था, जिनको हम लोगों ने जागरूक किया उसके बार उसने लगवाया।"

गौर हो कि प्रदीप को यह नहीं मालूम है कि निमोनिया का टीका लगा है कि नहीं. जिस टीकाकरण का प्रदीप जिक्र कर रहे हैं वो सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रम के अंतर्गत  बच्चों को नि:शुल्क मुहैया किया जाता है और उसमें निमोनिया का टीका नहीं शामिल है. परन्तु प्रदीप इस बात से अनजान हैं.

गोरखपुर की एक और बस्ती में रहने वाली इन्द्रावती बताती है कि उनके नाती को निमोनिया हुआ था. उन्होंने बताया कि: "हमारे नाती को निमोनिया हुआ था। बच्चे के गले में परेशानी थी, श्वास फूल रही थी, पेट में भी दर्द था, बुखार भी था। चिकित्सकों ने बताया कि निमोनिया ठण्ड के वजह से हुई थी. इस बच्चे को मां का दूध 5-6 महीने तक पिलाया गया था और अब उसे गाय का दूध पिला रहे हैं."


इन्द्रावती आगे बताती हैं कि "बच्चों का टीकाकरण बराबर करा रहे हैं." यह पूछने पर कि "कौन-कौन सा टीका लगा है?", इन्द्रावती कहती हैं कि: "टीका के बारे में नहीं बता पायेगें। सरकारी अस्पताल से लगवाया था और कोई पैसा नहीं लगा था."

ज़ाहिर है कि निमोनिया टीका सरकारी टीकाकरण योजना में शामिल होना चाहिए क्योंकि बच्चों में यह एक बड़ा मृत्यु का कारण है.

जीतेन्द्र द्विवेदी - सी.एन.एस.

बच्चों में निमोनिया जनती है अस्वच्छता और परोक्ष धूम्रपान

घर के भीतर विशेष तौर पर साफ़-सफाई रखनी चाहिए और अंगीठी या धूम्रपान के धुएं से अपने बच्चों को बचाना चाहिए. शोध के अनुसार इस धुएं से न केवल बच्चों के स्वास्थ्य पर अवांछनीय कुप्रभाव पड़ता है बल्कि उनमें निमोनिया होने का खतरा बढ़ भी जाता है.

गोरखपुर के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ के.एन. द्विवेदी का कहना है कि: "निमोनिया नियंत्रण के लिए स्वच्छता तो बहुत आवश्यक है। अपने देश में परम्परा है बच्चों को काजल लगाने की, तेल मालिश करने की. इन सब चीजों से बच्चो को बचाना चाहिए। बच्चा स्वस्थ तभी रहेगा जब वह स्वच्छ रहेगा। दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।"

गोरखपुर की एक बस्ती में रहने वाले प्रदीप श्रीवास्तव बताते हैं कि: "जिस झोपड़-पट्टी में मैं रहता हूँ वहाँ ७-१० साल की उम्र से ही बच्चे धूम्रपान कर रहे हैं. बच्चे को परोक्ष रूप से धूम्रपान से बचाना मुश्किल है क्योंकि घर इतने छोटे होते हैं और आस पास भी लोग परोक्ष धूम्रपान के नुक्सान से अनभिज्ञ हैं. मुझे भी आज ही यह जानकारी हुई कि धुएं से बच्चे को निमोनिया हो सकता है."

नवजात शिशुओं की दो और माताओं से पूछने पर पता चला कि उन्हें भी परोक्ष धूम्रपान के खतरों के बारे में नहीं पता था. यह भी नहीं पता था कि परोक्ष धूम्रपान से बच्चों को निमोनिया हो सकता है. इनमें से एक माता तो स्वयं सुरती तम्बाकू खाती हैं. श्रीवास्तव साहब कहते हैं कि अधिकाँश लोग बीड़ी पीते हैं, या सुरती तम्बाकू  खाते हैं. सिगरेट पीने वालों की संख्या कम है.

गोरखपुर की एक बस्ती में रहने वाली इन्द्रावती बताती हैं कि उनके नाती को निमोनिया हुआ था. उन्होंने बताया कि: "हमारे नाती को निमोनिया हुआ था। बच्चे के गले में परेशानी थी, श्वास फूल रही थी, पेट में भी दर्द था, बुखार भी था। चिकित्सकों ने बताया कि निमोनिया ठण्ड के वजह से हुई थी. इस बच्चे को मां का दूध 5-6 महीने तक पिलाया गया था और अब उसे गाय का दूध पिला रहे हैं. घर में कोई बीड़ी या सिगरेट तो नहीं पीता है, पर खाना लकड़ी जला कर ही बनता है. तम्बाकू 'सुरती' खाई जाती है."

विशेषज्ञों के अनुसार लकड़ी आदि जला कर चूल्हे पर खाना बनाने से जो धुआं निकलता है उससे बच्चों को बचाना चाहिए. सिगरेट बीडी के धुएं से भी सभी को बचना चाहिए क्योंकि इससे स्वास्थ्य पर अनेक कुप्रभाव पड़ते हैं जिनमें से निमोनिया एक है. तम्बाकू सेवन तो हर रूप में खतरनाक और जान लेवा नशा है.

भारत में १० करोड़ से भी अधिक बीड़ी का सेवन करने वाले लोग हैं. जितने लोग बीड़ी पीने की वजह से तम्बाकू-जनित मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उतने अन्य सभी प्रकार के तम्बाकू उत्पादों द्वारा जनित बीमारियों से भी नही मरते. विश्व स्वास्थ्य संगठन अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार विजेता प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त ने बताया कि ये तथ्य बीड़ी मोनोग्राफ नामक रपट में सामने आए हैं जो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने जारी की थी.

"तम्बाकू हर रूप में घातक है. वर्तमान में बीड़ी पीने की दर कई प्रदेशों में अधिक है, जैसे  मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड और सिक्किम में १०.६ - १४.२ प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश, असाम, बिहार, चंडीगढ़ और मेघालय में ४.६ - ९.२ प्रतिशत, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, त्रिपुरा, उड़ीसा, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश में १.1 - २.९ प्रतिशत, और गोवा, तमिल नाडू, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, कर्नाटक, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में यह दर १० प्रतिशत है. भारत में मिजोरम में बीड़ी सेवन की दर सबसे अधिक है और पंजाब में सबसे कम." बताया प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त ने.

"बीड़ी में तम्बाकू की मात्रा सिगरेट की तुलना में कम होती है पर निकोटीन, टार और अन्य हानिकारक पदार्थों की मात्रा काफी अधिक होती है. इनमें से कई ऐसे पदार्थ हैं जिनसे कैंसर होने की सम्भावना बढ़ जाती है" कहा प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त ने जो अखिल भारतीय शल्य-चिकित्सकों (सर्जनों) के संघ के नव-निर्वाचित राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

बीड़ी पीने से स्वास्थ्य पर जान-लेवा कु-प्रभावों में मुख के कैंसर, खाने की नली के कैंसर आदि प्रमुख हैं, जो तम्बाकू-जनित कैंसर के कुल अनुपात का ७५ प्रतिशत हैं! इस रपट में यह भी प्रमाणित हुआ है कि बीड़ी पीने और तपेदिक या टीबी के मध्य सीधा सम्बन्ध है.

बच्चों को विशेषकर तम्बाकू के धुएं से और चूल्हे से निकलने वाले धुएं से बचाना चाहिए, और जहाँ तक मुमकिन हो उन्हें स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण में ही रखना चाहिए.

जीतेन्द्र द्विवेदी - सी.एन.एस.

सुपोषण से निमोनिया का बचाव मुमकिन

बच्चों को निमोनिया और कुपोषण से बचाने के लिए पौष्टिक आहार की जरूरत होती है। गोरखपुर के बाल-रोग विशेषज्ञ डॉ कें.एन.द्विवेदी का कहना है कि: "पौष्टिक आहार तो जीवन की धुरी है, जैसे पेट्रोल आप कार में डालते हैं। बच्चे के लिए सबसे अच्छा पोषण 6 महीने तक मां का दूध है।  6 महीने के बाद ठोस आहार की शुरुआत करनी चाहिए। फिर धीरे-धीरे कर के 1 वर्ष तक भोजन बढ़ाना चाहिए। एक साल का बच्चा वह सभी खाना खा सकता है जो बड़े लोग खा सकते है। इसको कई चरणों में बांटा गया है। 0 से 6 महीने तक केवल स्तन पान, 6-9 महीने, 9-11 महीने,11-12 महीने के बीच में खाने की मात्रा थोड़ी-थोड़ी बढ़ाते है। पोषण तो किसी भी शरीर की आधार शिला है।"

डॉ द्विवेदी बताते हैं कि बच्चे के लिए नुकसानदायक आहार क्या है: "शुरू से ही बच्चों को ऊपर का दूध पिला देना, मां का दूध न देना, फास्टफूड खिलाना, खाने में पोषक तत्वों की कमी होना, अच्छा भोजन नहीं देना, संतुलित आहार न देना, समय पर खाना न खिलाना, ये सब नुकसानदेह हैं। बच्चों के विकास के लिए संतुलित आहार अति आवश्यक है।  6 माह तक के शिशु के लिए केवल मां का दूध ही संतुलित आहार है।"

नवजात शिशुओं को जन्म के उपरांत ६ महीने तक एकमात्र माँ का दूध मिलने से उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है. निमोनिया से ही नहीं, बल्कि बहुत सारी बीमारियों से बचाने के लिए स्तनपान जरूरी है। स्तनपान से बच्चों की 'इम्यूनिटी' (प्रतिरोधक क्षमता) अधिक बढ़ती होती है। स्तनपान से निमोनिया होने की सम्भावना कम होती है उस बच्चे की तुलना में जो स्तनपान नहीं कर रहा है। हांलांकि निमोनिया से बचाने के लिए और  भी सावधानियां बरतनी चाहिए जैसे कि ठण्ड से बचाना चाहिए। लेकिन जो  बच्चें स्तनपान कर रहे हैं  उनको निमोनिया होने की सम्भावना कम होती हैं क्योंकि उनकी प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है।

पहले की तुलना में आजकल लोग स्तनपान के बारे में कहीं अधिक जागरूक हैं. "स्तनपान के बारे में जागरूकता बढ़ गयी है। जो महिलाएं पहली बार माँ बनी हैं वें स्तनपान करने का सही तरीका सीखने के लिये बहुत इच्छुक हैं. इस पर जागरूकता अभियान भी चल रहा है। चिकित्सक भी स्तनपान को काफी बढ़ावा देते हैं. देखा जाए तो पहले ली तुलना में, स्तनपानकराने वाली महिलाओं का प्रतिशत बढ़ा है " कहना है डॉ के.एन.द्विवेदी का ।

गोरखपुर की एक बस्ती में रहने वाले श्री प्रदीप श्रीवास्तव बताते हैं कि: "यहां तो अधिकतर माताएं बच्चों को दूध पिलाती हैं, लेकिन कुछ अभी भी नहीं पिलाती हैं। अब तो कई सारे कार्यक्रम चल रहे है जिसकी वजह से माताएं स्तन पान कराने लगी है।"

गोरखपुर की बस्ती में रहने वाली इन्द्रावती बताती है कि उनके नाती को निमोनिया हुआ था. उन्होंने बताया कि: "हमारे नाती को निमोनिया हुआ था। इस बच्चे को मां का दूध 5-6 महीने तक पिलाया गया था और अब उसे गाय का दूध पिला रहे हैं."

समाज में जागरूकता होने के बावजूद भी अनेक समुदाय ऐसे हैं जहां स्तनपान के हितों के बारे में पर्याप्त जागरूकता नहीं पहुंची है. समाज में व्याप्त भ्रांतियां है और ऐसे रीति-रिवाज़ हैं जो बच्चे को एकमात्र स्तनपान से वंचित कर देते हैं. डॉ द्विवेदी का कहना है कि: "स्तनपान न कराने का सबसे बड़ा कारण है कि कुछ परिवारों को नवजात शिशु को स्तनपान कराने के फायदों के बारे में पता नहीं है. ज्यादातर लोगों को स्तनपान का महत्व समझाने से समझ में आ जाता है। अधिकतर लोग रुढ़िवादी हो कर और समझ न होने की वजह से, या फिर समाज में कुछ गलतफहमी होने के कारण शिशु को स्तनपान से वंचित रखते हैं."

जो माताऐं बोतल से दूध पिलाती हैं वह ठीक नहीं है. डॉ द्विवेदी के अनुसार: "बोतल से दूध नहीं पिलाना चाहिए क्योंकि उससे इन्फेक्शन (संक्रमण) होने का खतरा होता है। बोतल से दूध पीने से बच्चे के सांस की नली में दूध जा सकता है। बोतल दूध पीने वाले बच्चे में सामान्य स्तनपान करने वाले बच्चे से चार से पांच गुना अधिक 'एस्पिरेशनल निमोनिया' होने का खतरा होता है। यह निमोनिया बोतल से दूध पीने के दौरान श्वास नली में दूध चला जाता है जिसकी वजह से बच्चे खतरे में आ जाते हैं।"

जीतेन्द्र द्विवेदी - सी.एन.एस.

चमत्कारी औषधि द्वारा निमोनिया का उपचार

निमोनिया निचली श्वसन नली के संक्रमण का एक गम्भीर रोग है, जो  फेफड़ों को प्रभावित करता है। बच्चों की मृत्यु का यह एक प्रमुख कारण है तथा विश्व भर के 20 प्रतिशत शिशुओं की मृत्यु के लिये जिम्मेदार है। निमोनिया के कारण होने वाली मृत्यु कम करने का सर्वोत्तम उपाय समय से दी गयी प्रभावी चिकित्सा है। निमोनिया से पीड़ित बच्चों का रोग प्रतिकारक दवाओं, जिन्हें साधारणत: चमत्कारी औषधि के नाम से जाना जाता है, से त्वरित इलाज करने पर मृत्यु की सम्भावना काफी कम की जा सकती है। विश्व स्तर पर प्राक्कलन आंकड़े बताते है कि निमोनिया से ग्रसित बच्चों को यदि रोग प्रतिकारक(Antibiotic) चिकित्सा उपलब्ध हो पाती  तो प्रतिवर्ष लगभग 600,000 जीवन बचाये जा सकते हैं। निमोनिया से होने वाली मृत्यु को कम करने के लिये यदि विश्व स्तर पर रोकथाम एवं चिकित्सा दोनों  किया जाता तो यह संख्या दुगनी से भी अधिक अर्थात लगभग 13 लाख होती।

यह बीमारी, जिसमें एक अथवा दोनों फेफड़ों में पस तथा द्रव एल्विओली (Alveoli) भर जाता है, को सुनिश्चित करने के लिये सीने (छाती) का एक्स-रे तथा प्रयोगशाला में जाँच की जाती है। यह बीमारी ऑक्सीजन ग्रहण करने (साँस लेने) की क्रिया को प्रभावित करती है, जिससे साँस लेना कठिन हो जाता है। लेकिन संसाधनों के अभाव के कारण सम्भावित निमोनिया के मामलों को उनके क्लीनिकल लक्षणों जैसे तेज या कठिनता से साँस लेना, खाँसी, बुखार आदि द्वारा पहचाना जाता है। नवजात शिशु स्तनपान करने में अक्षम हो सकते हैं तथा बेहोशी, हाइपोथर्मिया व दौरे का अनुभव कर सकते हैं। इसलिये बच्चों में निमोनिया के लक्षण पहचानने तथा उचित चिकित्सा सुविधा देने में देखभाल करने वालों का आवश्यक योगदान होता हैं।
निमोनिया के कम गम्भीर मरीजों का इलाज उचित रोग प्रतिकारक दवाओं द्वारा किया जा सकता हैं। गम्भीर निमोनिया के मामलों को अविलम्ब इंजेक्शन द्वारा एन्टीबायोटिक्स तथा, यदि आवश्यक हो तो, ऑक्सीजन दिए जाने के लिये चिकित्सालय भेज देना चाहिए।

निमोनिया से पीड़ित पाँच वर्ष तक के बच्चों में मृत्यु दर कम करने हेतु तीन आवश्यक स्तर हैं:
1. निमोनिया से पीड़ित बच्चों को पहचानना
2. चिकित्सालय-स्वास्थ्य केन्द्र-मातृ व बाल स्वास्थ्य केन्द्र में उचित चिकित्सा-सुविधा प्राप्त करना,
3. चिकित्सक द्वारा बताया गया उपचार प्राप्त करना।
प्रगतिशील देशो में लगभग 20 प्रतिशत देखभाल करने वाले ही बीमारी के लक्षण पहचानते हैं, तथा उनमें से केवल 54 प्रतिशत बच्चों को चिकित्सा उपलब्ध करवा पाते हैं।

गरीब बच्चों की तुलना में शहर व शिक्षित परिवारों के बच्चों को उचित चिकित्सा-सुविधा अधिक मिल पाती है तथा आर्थिक विषमताओं से जूझते हुए 68 देशों में लगभग 33 प्रतिशत निमोनिया से पीड़ित बच्चे एन्टीबायोटिक का लाभ पाते हैं।

निमोनिया / सेपसिस के लक्षण वाले दो माह तक के शिशुओं में अन्य शिशुओं की अपेक्षा गम्भीर बीमारी तथा मृत्यु की सम्भावना का अधिक खतरा रहता है। अत: ऐसे शिशुओं को अविलम्ब चिकित्सा हेतु किसी अस्पताल में भेज देना चाहिये। स्थानीय उपलब्ध चिकित्सा की निपुणता के आधार पर चिकित्सा का तरीका चुना जाना चाहिए। कुछ क्षेत्रों में किन्ही विशेष एन्टीबायोटिक के लिए प्रतिरोधक क्षमता का स्तर अधिक हो सकता है जिससे निमोनिया के बचाव के लिये वे औषिधियाँ कम प्रभावी हो सकती है। अन्य स्थानों में अधिक खतरे वाले वर्ग, जैसे कुपोषित या एच.आई.वी. सक्रंमित बच्चे अधिक संख्या में हो सकते हैं, जिसके अनुसार ही उनकी चिकित्सा-प्रणाली का चुनाव किया जाना चाहिए।

बालरोग तथा नवजात शिशु विशेषज्ञ एवं परामर्शदाता डॉ. एस.के. सेहता स्पष्ट करते हैं, ‘‘भारत सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) ने निमोनिया की पहचान हेतु सरल तरीके की संस्तुति की है, जिससे गाँवों में भी, जहाँ चिकित्सक की उपलब्धता नहीं हैं, एक अनपढ़ भी बीमारी की पहचान कर सके। डब्ल्यू एच ओ द्वारा मूलरूप से तीन प्रकार के निमोनिया को सूचीबद्ध किया गया है-
1. निमोनिया ना होना,
2. साधारण निमोनिया जिसका इलाज सेपट्रान है तथा
3. गम्भीर निमोनिया:- इस मामले में भारत सरकार द्वारा अनुमोदित किया गया है कि यदि व्यक्ति जानकार है तो मरीज को एम्पीसिलीन जेन्टामाइसिन दिया जाना चाहिये तथा मरीज को विशेषज्ञ के पास भेजना चाहिये।’’

लखनऊ के बाल-रोग तथा बाल-ह्रदय रोग विशेषज्ञ, डॉ. एस.एन. रस्तोगी का मत है- ‘‘ बीमारी का इलाज, कारक तत्व, जो जीवाणु हो सकता है अथवा जीवाणु नहीं भी हो सकता हैं, पर निर्भर करता है। इस प्रकार चिकित्सा में भिन्नता हो जाती है। भारत में सर्वाधिक होने वाला निमोनिया टयूबरकूलर (tubercular) निमोनिया है। निमोनिया की चिकित्सा के लिये स्ट्रैप्टोमाइसिन दिया जा सकता है।’’

डॉ. एस. के. सेहता, जिन्होंने कई वर्षों तक विख्यात चिकित्सालयों व लखनऊ एवं दिल्ली के गैर-सरकारी अस्पतालों में कार्य किया है, कहते हैं, ‘‘सरकारी चिकित्सालयों में भारत सरकार की सिफारिशों का पालन हो रहा है। भारत सरकार तथा डब्ल्यू एच ओ ने जनसाधारण पर अधिक ध्यान दिया है। इसलिये सेपट्रोन  निमोनिया के इलाज के लिए काफी अच्छी तथा सस्ती औषधि है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भारत सरकार द्वारा संस्तुत है। जो भी हो, प्राइवेट सेक्टर में व्यक्तिगत रूझान अधिक आवश्यक होता है और हम सेपट्रान के लिये उच्च प्रतिरोध देख रहे हैं। इसलिये हम तेज रोग प्रतिकारक दवा का चुनाव करते हैं।’’

सलाहकार प्रसूति विशेषज्ञ तथा स्त्री-रोग विशेषज्ञ, डॉ. नीलम सिंह, जो ‘वात्सल्य रीसोर्स सेन्टर आन हेल्थ’ की मुख्य कार्यदायी भी हैं, के अनुसार कई प्रदेशों में  बच्चों में गम्भीर “वसन-नली के संक्रमण की चिकित्सा व्यापक  बाल संरक्षण कार्यक्रम का अंग है। फिर भी निमोनिया के बचाव के लिये आवश्यक जागरूकता का अभाव है। अभी भी इस मामले काफी अनभिज्ञता है तथा जागरूकता हेतु विशेष कार्यक्रमों के प्रयोजन की आवश्यकता है। अतिसार के बाद बच्चों में निमोनिया सबसे घातक बीमारी है। सरकारी और गैर-सरकारी चिकित्सालयों में होने वाले इलाज के मध्य भिन्नता के लिये समय, सलाह, चिकित्सा, इलाज में होने वाला व्यय तथा अन्य कारण जिम्मेदार हैं। इस क्षेत्र में सरकार द्वारा काफी तरक्की की गयी है और अब ये इलाज सरकारी अस्पतालों में भी उपलब्ध हैं। फिर भी सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था में मरीजों की अधिकता, विशेषज्ञों का अभाव, संसाधनों की कमी तथा दवाओं का उपलब्ध न होना आदि अनेक कारण हैं, जिस पर विचार होना चाहिये।’’

छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के बाल-रोग विभाग में स्वास्थ्य-लाभ कर रहे 3 वर्ष के अथर्व, जिससे मैं अक्टूबर 2011 के प्रथम सप्ताह में मिली थी, की कहानी बच्चों में निमोनिया के उचित उपचार न मिलने के कारण होने वाले घातक परिणाम का ज्वलन्त उदाहरण है। निमोनिया के पहले ही लक्षण में अथर्व के  अभिभावकों ने तुरन्त प्राइवेट सेक्टर में चिकित्सा प्राप्त करवायी, लेकिन अथर्व की दशा बिगड़ने पर वे एक नर्सिंग होम से दूसरे में दौड़ते रहे। उन्हें लगा कि चिकित्सक उनसे वित्तीय लाभ पाने में अधिक उत्सुक थे। अन्त में वे उसे छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय, जो एक सरकारी चिकित्सालय हैं, में चार अगस्त को लाये। अन्तत: बाजार में उपलब्ध नवीनतम रोग प्रतिकारक औषधि बच्चे को दी गयी और उसकी हालत काफी सुधर गयी।

भारत में हम लोग सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली को किस प्रकार कम कर आंकते हैं, इस तथ्य का यह एक उदाहरण है। संसाधनों की कमियों के बावजूद भी सरकारी स्वास्थ्य-तंत्र गम्भीर बीमारी के मरीजों को सर्वोत्तम उपचार देने में सक्षम है।

बच्चों में निमोनिया के बचाव व उपचार को बढ़ावा देने के उद्देश से 2009 में ‘द ग्लोबल एक्शन प्लान फॉर  द प्रीवेन्सन एण्ड कन्ट्रोल ऑफ़ निमोनिया’ (GAPP) की स्थापना की गयी। आइये, हम सब मिलकार प्रत्येक बीमार बच्चे की सही देखभाल तथा निमोनिया के उपचार की प्रतिबद्धता हेतु संकल्प करें।

सौम्या अरोरा - सी.एन.एस.
(अनुवाद: सुश्री माया जोशी, लखनऊ)