फिल्मों द्वारा धूम्रपान की तरफ बढ़ते युवा कदम

कहा जाता है कि फिल्में समाज का आईना होती है। अर्थात जो फिल्मों में दिखाया जाता है। वह समाज में कहीं न कहीं घटित हो रहा होता है। यह तो सच है। लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे अधिक फिल्म बनाने वाला बालीवुड यह भूल चुका है कि आज की युवा पीढ़ी फिल्में देखकर ही अच्छी या बुरी आदते अपनी जिंदगी में उतारने की कोशिश करती है। युवावस्था एक ऐसी स्टेज होती है। जिसमें फिल्मों का काफी रोल होता है। युवा फिल्मों में अपने पसंदीदा अभिनेता या अभिनेत्री को जैसा करते देखते है। वह उन्हीं की लाइफ स्टाइल को पसन्द करते है। और उसको बिना कुछ सोचे समझे अपनी ज़िन्दगी में शामिल करना चाहते हैं  इसमें कुछ आदतें अच्छी भी होती है। और कुछ बुरी भी।

अभी दिल्ली के 12 स्कूलों में लगभग 3,956 युवाओं पर ‘‘हेल्थ रिलेटेड इन्फोर्मेशन  डिस्सएमिनेशन  अमंगस्ट यूथ’’ (एच आर आई डी ए वाई) नामक संस्था ने एक अध्ययन कराया जिसका परिणाम यह आया कि आज का युवा जब फिल्मी पर्दे पर अपने पसंदीदा अभिनेता या अभिनेत्री को धूम्रपान करते हुए देखते है तो वह सामान्य इंसान से लगभग दोगुना धूम्रपान करते है।

इस अध्ययन की मुख्य अध्ययनकर्ता मोनिका अरोड़ा के अनुसार ‘‘किशोरों  ने करीब 59 फिल्मों 162 बार तम्बाकू का इस्तेमाल देखा, और साथ ही परिणाम यह आया है कि फिल्मों में धूम्रपान की वजह से लड़कियों की तुलना में लड़के अधिक तम्बाकू के सम्पर्क में आते है।’’

काफी समय पहले बालीवुड में धूम्रपान वाले सीन्स को पर्दे पर दिखाने को लेकर आलोचना हो चुकी है। और कहा गया था कि 2005 के बाद की फिल्मों में इसको नहीं दिखाया जायेगा लेकिन यह मामला अभी भी कोर्ट में लंबित है। अभी हाल ही में  आई आमिर खान प्रोडक्शन की एक फिल्म में शरू में छोटी सी चेतावनी दिखाई गई कि ‘‘धुम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’’ उसके बाद पूरी फिल्म में अभिनेता द्वारा सिगरेट के धकाधक कश दिखाए गए। यह धुम्रपान को बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है। तो क्या है? क्या एक बार छोटी सी चेतावनी दिखाने के बाद युवा के सामने धूम्रपान करने से उसकी समझ में आ जाएगा कि धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, और हमें इसे नही करना चाहिये। कई ऐसे अभिनेता है जो अपनी असल जिन्दगी में धूम्रपान नही करते लेकिन पर्दे पर धूम्रपान करते दिखाई देते है। युवा असली जिन्दगी नही देखते वह केवल पर्दे की चकाचौंध को ही देखते है। और वह वही करते हैं जो उनका हीरो करता है। क्या सही मायने में यह युवाओं के असली हीरो हैं जो उन्हें मौत की तरफ ले जाने की कोशिश कर रहे हैं।

धूम्रपान को बढ़ावा देने की साजिश में केवल अभिनेता ही नहीं हैं बल्कि अभिनेत्रियाँ भी शामिल है। अभी जानी मानी अभिनेत्री विद्या बालन हैदराबाद में ‘‘डर्टी पिक्चर’’ नामक फिल्म की शूटिंग कर रही थी जिसमें एक सीन  में उनको धूम्रपान करना था जिसके उन्होंने इतने रिटेक दिये कि उन्हें 10 सिगरेट का सेवन करना पड़ा और उसके दूसरे दिन उन्हें मुंह का अल्सर हो गया। चूँकि वह सिगरेट का सेवन नही करती है। लेकिन जब पर्दे पर उस सीन को दिखाया जायेगा तो युवा पीढ़ी क्या सोचेगी यही कि जब उसकी फेवरेट हिरोइन कश लगा सकती है। तो वो क्यों नहीं? लेकिन जब इस बारे में किसी फिल्म के अभिनेता या अभिनेत्री से बात करेंगे तो वह यही कहता है कि यह तो कहानी की मांग थी।

लेकिन सोचने वाली बात यह है कि दिन प्रतिदिन फिल्मों में जितना तम्बाकू का प्रयोग बढ़ रहा है। अगर उस पर सही समय पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया तो वह दिन दूर नहीं है जब लड़कियाँ भी तम्बाकू के मामले में लड़कों से पीछे नहीं रहेंगी, साथ ही पूरी युवा पीढ़ी तम्बाकू की चपेट में आ जाएगी और इसका भयंकर परिणाम भी भुगतेगी |

नदीम सलमानी

परमाणु-मुक्त,वीसा-मुक्त,साफ़ ऊर्जा नीतियाँ 'सार्क' देशों में लागू हों: लखनऊ घोषणापत्र २०११

[English] 10 जुलाई 2011 को ‘शांति एवं लोकतंत्र के लिये पाकिस्तान-भारत लोकमंच’ के दूसरे उत्तर प्रदेश अधिवेशन में लखनऊ घोषणापत्र २०११ पारित किया गया. यह इस प्रकार है:

"शांति एवं लोकतंत्र के लिये पाकिस्तान-भारत लोकमंच" के दूसरे उत्तर प्रदेश प्रादेशिक अधिवेशन के हम प्रतिभागियों का मानना है कि दक्षिण एशिया के नागरिकों को और सरकारों को निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए:

१. दक्षिण एशिया के देशों के बीच दोस्ती और सहयोग में सुधार हो और मेल बढ़े. इसके लिये इन देशों को वीसा-मुक्त होना चाहिए जिससे कि इस क्षेत्र के लोग पूरी स्वतंत्रता के साथ एक दूसरे से मिल सकें, और इस क्षेत्र की मिलीजुली सांस्कृतिक धरोहर की जड़ें मजबूत हों, और व्यापर बढ़े. हमारा मानना है कि 'सार्क' आर्थिक यूनियन बने. उपरोक्त तथ्यों को नज़र में रखते हुए बच्चों, बुजुर्गों, जन-संगठनों, छात्रों, शिक्षकों, आदि को वीसा मिलने में प्राथमिकता मिले.

२. इन देशों में लोकतान्त्रिक एवं मानवीय मूल्यों को सशक्त किया जाए और समाज के हाशिये पर रह रहे वर्गों के लिये सामाजिक एवं कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाए, जिनमें महिलाएं, दलित, और अन्य धार्मिक और प्रजातीय अल्प-संख्यक वर्ग शामिल हैं. हमारा मानना है कि सक्रियता से इन वर्गों का शोषण करने वाले कानूनों और सामाजिक प्रथाओं को ख़त्म किया जाये.

३. भारत और पाकिस्तान को एक निश्चित समय-काल में अपने परमाणु अस्त्र-शास्त्र को ख़त्म करना आरंभ करना चाहिए जिससे कि दोनों देश मिल कर परमाणु मुक्त दक्षिण एशिया क्षेत्र स्थापित करने में पहल ले सकें.

४. जापान में घटित परमाणु आपदा के बाद तो यह और भी स्पष्ट हो गया है कि परमाणु शक्ति का सैन्य या ऊर्जा दोनों में ही इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. जो देश परमाणु ऊर्जा बनाने में सबसे आगे थे, जैसे कि जापान और जर्मनी, दोनों देशों ने परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल को बंद करने की भूमिका ली है और वायु, सूर्य ऊर्जा आदि के उपयोग को बढाने का फैसला किया है. जर्मनी ने २०२२ तक सभी परमाणु ऊर्जा घरों को बंद करने की घोषणा की है. जर्मनी में एक आधा बना हुआ परमाणु ऊर्जा घर अब मनोरंजन पार्क बना दिया गया है. हमारा मानना है कि उत्तर प्रदेश में लगे परमाणु ऊर्जा घर, भारत के अन्य राज्यों में लगे हुए परमाणु ऊर्जा घर और पाकिस्तान में लगे परमाणु ऊर्जा घरों को भी जल्द-से-जल्द निश्चित समय-अवधि के भीतर बंद करना चाहिए.

५. हमारा मानना है कि भारत-अमरीका परमाणु समझौता असल में ऊर्जा-सुरक्षा प्रदान नहीं करता है. सही मायनों में किसी भी देश के लिए ऊर्जा सुरक्षा के मायने यह हैं कि वर्तमान और भविष्य की ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति इस तरीके से हो कि सभी लोग ऊर्जा से लाभान्वित हो सकें, पर्यावरण पर कोई कु-प्रभाव न पड़े, और यह तरीका स्थायी हो, न कि लघुकालीन. इस तरह की ऊर्जा नीति अनेकों वैकल्पिक ऊर्जा का मिश्रण हो सकती है जैसे कि, सूर्य ऊर्जा, पवन ऊर्जा, छोटे पानी के बाँध आदि, गोबर गैस इत्यादि. परमाणु दुर्घटनाओं की त्रासदी संभवत: कई पीढ़ियों को झेलनी पड़ती है जैसे कि भोपाल गैस काण्ड और हिरोशिमा नागासाकी की त्रासदी को लोगों ने इतने बरस तक झेला. हमारी मांग है कि भारत बिना विलम्ब, शांति के प्रति सच्ची आस्था का परिचय देते हुए भारत-अमरीका परमाणु समझौते को रद्द करे, और सभी परमाणु कार्यक्रमों को बंद करे. भारत को अमरीका का साथी बनने के बजाय अपनी पहले वाली गुट निरपेक्ष आन्दोलन वाली भूमिका लेनी चाहिए. अमरीका का साथी बनने का अंजाम पाकिस्तान भुगत चुका है. भारत और पाकिस्तान दोनों को आपसी संबंधों को प्रगाढ़ और मधुरमय करने के लिये प्रयास बद्ध होना चाहिए और कश्मीर एवं अफ-पाक क्षेत्रों  में शांति कायम करनी चाहिए. दोनों देशों में आतंकवाद पर अंकुश लगाने के लिये भारत और पाकिस्तान को मिलजुल कर कार्य करना चाहिए. ऐसा संभव करने के लिये यह आवश्यक है कि सांप्रदायिक सद्भावना, समानता, न्याय, लोकतान्त्रिक सोच, धर्म-निरपेक्षता जैसे मूल्यों को प्राथमिकता दी जाए और धार्मिक कट्टरपंथी वर्गों पर अंकुश लगे.

६. लोकतान्त्रिक मूल्य और शासन प्रणाली सम्पूर्ण दक्षिण एशिया क्षेत्र  में कायम होनी चाहिए.

७. दक्षिण एशिया क्षेत्र की सभी सरकारों द्वारा बिना-विलम्ब सैन्यकरण को रोकने के लिये कदम उठाये जाने चाहिए और सैन्य बजट को पारदर्शी तरीकों से जन-हितैषी कार्यक्रमों में निवेश करना चाहिए जैसे कि शिक्षा एवं स्वास्थ्य.

८. चूँकि इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर मिलीजुली है, सक्रियता के साथ हमें शांति और आपसी सौहार्द बढ़ाने के लिये सांप्रदायिक ताकतों पर अंकुश लगाना चाहिए.

९. हमारा मानना है कि इस क्षेत्र की सभी सरकारों को कदम उठाने चाहिए कि प्राकृतिक संसाधन जैसे कि जल, जंगल और जमीन, पर स्थानीय लोगों का ही अधिकार कायम रहे, और गैर-कानूनी और विध्वंसकारी तरीकों से जल,जंगल और जमीन को वैश्वीकरण ताकतों से बचाना चाहिए क्योंकि यह जन-हितैषी नहीं है. हम अपना समर्थन फिर से दोहराते हैं कि हमसब जन-हितैषी आंदोलनों में सक्रियता से सहयोग प्रदान करते रहेंगे जिससे कि वैश्वीकरण ताकतों पर रोक लगे जो WTO, विश्व बैंक, IMF, ADB जैसी संस्थाओं के इशारों पर चलती हैं.

सी.एन.एस.

एक दूसरे पर विश्वास करने से ही शांति प्रक्रिया आगे बढ़ती है: दीप


"यदि दो देशों के लोगों के बीच संपर्क नहीं रहेगा तो उनके राजनैतिक सम्बन्ध भी अधिक लम्बे नहीं टिकेंगे. लोगों के एक दूसरे के साथ संपर्क, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, व्यापार, आपस में भरोसे और आपसी समझ पर आधारित रिश्तों से ही दो देशों के बीच सम्बन्ध मजबूत होते हैं", यह कहना है सईदा दीप का, जो पाकिस्तान की वरिष्ठ मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और लाहौर-स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ़ पीस एंड सेक्युलर स्टडीस की अध्यक्षा भी हैं.

बी-ब्लाक इंदिरा नगर स्थित स्प्रिंग डेल कॉलेज और डी-ब्लाक इंदिरा नगर स्थित डैफोडील्स कॉन्वेंट इंटर कॉलेज में सईदा दीप छात्रों एवं शिक्षकों के साथ दोनों देशों के लोगों के बीच शान्ति और दोस्ती बढ़ाने पर संवाद कर रही थी. इस परिचर्चा में डैफोडील्स के प्रधानाचार्य पियूष मिश्रा, आशा परिवार की सामाजिक कार्यकर्ता शोभा शुक्ला, एवं स्प्रिंग डेल की प्रधानाचार्य श्रीमती खन्ना उपस्थित थीं.

दीप ने कहा कि "यदि हम चाहते हैं कि राजनैतिक स्तर पर हो रहे शांति प्रयास सफल हों, तो हमें आम लोगों को इस प्रक्रिया से जोड़ना होगा. लोगों में आपसी विश्वास और समझ को प्रोत्साहित करना होगा".
दीप अनेकों भारत-पाकिस्तान लोगों को जोड़ते हुए शांति प्रयासों में शामिल रही हैं जिनमें अमन के बढ़ते कदम (२०१०), भारत पाकिस्तान शांति पदयात्रा (२००५), वीसा-मुक्त और शांत दक्षिण एशिया सम्मलेन आदि प्रमुख हैं.

दीप ने लखनऊ शहर में 'लेसन्स फ्रॉम जापान २०११' (जापान से सीख २०११) अभियान भी जारी किया जो लखनऊ नागरिकों द्वारा ६ अगस्त तक युवाओं को जोड़ने के लिये चलाया जायेगा. ६ अगस्त, हिरोशिमा डे, पर, डॉ राम मनोहर लोहिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेस में एक सेमिनार के रूप में इस अभियान का समापन होगा. यह 'जापान से सीख २०११' अभियान, आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय एवं 'नागरिकों का स्वस्थ लखनऊ' अभियान के संयुक्त तत्वावधान में चलाया जा रहा है.

'जापान से सीख २०११' अभियान का मानना है कि जापान में घटित परमाणु आपदा के बाद तो यह और भी स्पष्ट हो गया है कि परमाणु शक्ति का सैन्य या ऊर्जा दोनों में ही इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. जो देश परमाणु ऊर्जा बनाने में सबसे आगे थे, जैसे कि जापान और जर्मनी, उन  देशों ने परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल को बंद करने की भूमिका ली है और वायु, सूर्य ऊर्जा आदि के उपयोग को बढ़ाने का फैसला लिया है. जर्मनी ने २०२२ तक सभी परमाणु ऊर्जा घरों को बंद करने की घोषणा की है. जर्मनी में एक आधा बना हुआ परमाणु ऊर्जा घर अब मनोरंजन पार्क बना दिया गया है. हमारा मानना है कि उत्तर प्रदेश में लगे परमाणु ऊर्जा घर, और भारत के अन्य राज्यों में लगे हुए १९ परमाणु ऊर्जा घर जल्द-से-जल्द निश्चित समय-अवधि के भीतर बंद करना चाहिए.

'जापान से सीख २०११' अभियान का मानना है कि सही मायनों में किसी भी देश के लिए ऊर्जा सुरक्षा के मायने यह हैं कि वर्तमान और भविष्य की ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति इस तरीके से हो कि सभी लोग ऊर्जा से लाभान्वित हो सकें, पर्यावरण पर कोई कु-प्रभाव न पड़े, और यह तरीका स्थायी हो, न कि लघुकालीन. इस तरह की ऊर्जा नीति अनेकों वैकल्पिक ऊर्जा का मिश्रण हो सकती है जैसे कि, सूर्य ऊर्जा, पवन ऊर्जा, छोटे पानी के बाँध आदि, गोबर गैस इत्यादि.

सांख्यिकी प्रणाली को नियमित बनाकर विकास कार्यो में व्यापक प्रचार-प्रसार की आवश्यकता

उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव (नियोजन) श्री मनजीत सिंह ने आर्थिक ढांचा में आमूल-चूल परिवर्तन करके तथा सांख्यिकी प्रणाली को और अधिक नियमित बनाकर विकास कार्यो में व्यापक प्रचार-प्रसार की आवश्यकता पर बल दिया है। प्रख्यात अर्थशास्त्री (स्व0) प्रो0 पी0सी0 महालानोबिस के जन्मदिन सांख्यिकी दिवस के अवसर पर आज यहाँ योजना भवन में आयोजित समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में उद्बोधन करते हुए श्री सिंह ने सामाजिक हित में सांख्यिकी के महत्व की चर्चा की तथा उसकी भूमिका और अधिक सुदृढ, जनोपयोगी बनाने का आवाहन किया।

अर्थ एवं संख्या प्रभाग, राज्य नियोजन संस्थान, उ0प्र0 एन.एस.एस.ओ., लखनऊ तथा राष्ट्र संघ की संस्था यूनीसेफ, लखनऊ द्वारा संयुक्त रूप से सांख्यिकी दिवस का विधिवत् उद्घाटन प्रमुख सचिव ने दीप प्रज्जवलित करके किया। श्री सिंह ने वर्ष 2011 की जनगणना से उपलब्ध जानकारी को सराहनीय माना परन्तु महिला एवं बालिकाओं की लगभग हर क्षेत्र में गिरावट पर चिंता प्रकट की। साक्षरता एवं जनसंख्या के क्षेत्र में सफलता किन्तु कन्या भ्रूण हत्याओं में वृद्धि पर श्री सिंह ने क्षोभ व्यक्त किया। उन्होंने सांख्यिकी के क्षेत्र में अधिक तीव्रता के साथ कार्य होने की आवश्यकता बताई। उन्होंने नियोजन विभाग के साथ अन्य विभागों द्वारा भी अनुसंधान करके प्रगति हेतु नये सुझाव देने का प्रस्ताव करते हुए वैज्ञानिक आधार पर आंकड़ों की उपलब्धता समय की मांग बताया।

एन.एस.एस. संगठन के उप महानिदेशक श्री हरिश्चन्द्र ने जेन्डर सांख्यिकी के महत्व पर प्रकाश डाला तथा आदि काल से महिलाओं के महत्वपूर्ण योगदान की चर्चा महान गणित विदुषी लीलावती आदि के उदाहरण दिए। संविधान में व्यक्त महिला आरक्षण और समानता की भी चर्चा की।

गिरि विकास अध्ययन संस्थान के निदेशक प्रो0 ए0के0सिंह ने प्रो0 महालोनिबिस की विकास नीति को आज भी समीचीन बताया और 1970 के बाद महिलाओं के उत्थान की दिशा में हुए कार्यो का विवरण दिया। वर्ष 1990 के बाद महिला सशक्तीकरण क्षेत्र में प्रगति पर उन्होंने संतोष प्रकट किया किन्तु महिलाओं की संख्या में कमी पर चिंता प्रकट कर इसके सामाजिक व मनोवैज्ञानिक कारण ढूंढने की आवश्यकता बताई।

यूनीसेफ के प्रतिनिधि श्री अखिलेश गौतम ने जेन्डर (लिंग) सांख्यिकी पर व्यापक प्रस्तुतीकरण स्लाइड्स के माध्यम से किया, जिसके अन्तर्गत जन्म, मृत्यु, शिक्षा, विकास, भेदभाव, जैसे महात्वपूर्ण क्षेत्रों में तुलनात्मक अध्ययन का जिक्र था। बालिकाओं के प्रति समाज में भेदभाव पूर्ण रवैये की उन्होंने आलोचना की ।

लखनऊ विश्वविद्यालय की सांख्यिकी विभाग की प्रथम एवं एकमात्र महिला प्रवक्ता (रीडर) डॉ0 शीला मिश्रा ने उच्च शिक्षा प्रदान करके महिलाओं को विश्वविद्यालयों, प्रशासन आदि में उच्च पदों पर प्रतिष्ठापित करने की आवश्यकता बताई ताकि वे महिलाओं के हित सम्बन्धी विचारों और नीतियों का निर्धारण कर सकें जिससे महिलाओं का वास्तविक विकास सम्भव हो सके। उन्होंने महिलाओं से सम्बन्धित समस्याओं के प्रति सामाजिक चिन्तन की अनिवार्यता व्यक्त की।

लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रवक्ता डॉ0 राजेश चौहान ने लिंग सांख्यिकी को दृष्टिगोचर बनाने की आवश्यकता बताई ताकि समाज उसके प्रति संवेदनशील बन सके।

प्रारम्भ में राज्य सांख्यिकी विभाग की प्रथम महिला निदेशक डॉ0 हिमांशु सिंह ने अतिथियों का पुष्पगुच्छ देकर स्वागत किया। विभाग के संयुक्त निदेशक श्री राम सूरत ने धन्यवाद ज्ञापन किया।

दुर्गेश नारायण शुक्ला

गर्भावस्था में अनावश्यक दवाएं न लें

 (सरिता पत्रिका के अप्रैल (2011) द्वितीय अंक में प्रकाशित)
गर्भावस्था में दवा का चयन बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। इसमें बरती गई थोड़ी सी लापरवाही न केवल गर्भस्थ शिशु के लिए घातक हो सकती है बल्कि परीक्षणों में यहां तक पाया गया है कि दवाओं के रसायन प्रसूति के बाद मां के दूध तक में मिले रहते हैं जो नवजात शिशु के लिए घातक साबित हुए हैं। इसीलिए गर्भावस्था में दवा लेने से पहले अपने डॉक्टर से परामर्श अवश्य कर लें कि कहीं उससे आपकी गर्भावस्था पर कोई कुप्रभाव तो नही पड़ेगा

संक्रमण रोकने वाली दवाएं
दवा
प्रभाव
टिप्पणी
टेट्रासाइक्लिन
हड्डियों के विकास में शिथिलता आ जाना
गर्भावस्था में एवं स्तनपान के दौरान जहां तक संभव हो इसको न लें
क्लोरमफेनीकोल
प्रोटीन निर्माण में बाधक बनती है, नवजात शिशु द्वारा लेने पर वह नीला पड़ सकता है।
जहां तक संभव हो इसका इस्तेमाल न करें
को ट्राईमैक्साजोल
¼बैक्ट्रिम सेप्ट्रिन½
फोलिक एसिड मेटाबोलिज्म जीव के भीतर होने वाली सभी भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रियाएं शिथिल बनाती है
जहां तक संभव हो इसका उपयोग न करें खास कर गर्भावस्था के पहले 3 माह में तो कदापि न करें
क्लोरोक्विन
इस दवा का अधिक प्रयोग करने से गर्भस्थ शिशु की आंख की रेटिना परत कुप्रभावित हो जाती है।
मलेरिया के अलावा इस दवा का उपयोग कदापि न करें। रूमेटाइड आर्थराइटिस आदि में इस का उपयोग न करें।
एनलजेसिक या सेलीसिलेट
हालांकि यह तथ्य अभी स्थापित नही है फिर भी अनुभव के आधार पर यह कथन सत्य है कि गर्भावस्था में आनुवानशिक रोग या जेनेटिकल विकृतियों की संभावना तीव्र हो जाती है।
गर्भावस्था के पहले 3 माह में इस दवा का उपयोग न करें। नवजात शिशु को अधिक मात्रा में यह दवा देने से रक्तश्राव हो सकता है।
इंडोमिथासिन] नेपरोक्सिन] सोडियम मेफेनेमिक एसिड
प्रोस्टोग्लैंडिन सिंथिटेज नामक एक महत्वपूर्ण तत्व के निर्माण मे यह बाधा डालती है।
इस से गर्भस्थ शिशु के हृदय की प्रमुख रक्त वाहिनी बंद तक हो सकती हैं। अतः इन रासायनों वाली दवाएं कदापि न लें।
डाइजोआक्साड ¼यूडीमीन½

यह दवा नवजात शिशु के बाल गिरने का कारण बन सकती है।
इस दवा का सेवन न करें तो बेहतर है।


 थाइरायड संबंधित बीमारियों में उपयोग की जाने वाली दवाएं
             दवा      
 प्रभाव
टिप्पणी
आयोडायट
आयोडीन-131
गर्भवती महिला द्वारा सेवन से ये रासायनिक तत्व प्लेसेंटा पार कर जाते हैं। प्रसूति के बाद मां के दूध में इनकी उपस्थिति प्रमाणित है।
जहां तक संभव हो, इनका उपयोग न करें।
कार्बिमेजोल
प्रोफाइलथिओंयुरासिल
गर्भावस्था के दौरान महिला द्वारा इसके सेवन से बच्चा पैदा होने के बाद यह मां के दूध में पाई जाती है।
ऐसी परिस्थिति में नवजात को मां का दूध न पिलाना ही बेहतर है।
लीथियम कार्बोनेट
गर्भाकाल में यदि कोई महिला इस दवा को लेती है तो यह प्लेसेंटा पार कर मां के दूध में पहुंच जाती है।
इसको लेने से गर्भस्थ शिशु का इलैक्ट्रोलाइट संतुलन बिगड़ जाता है जिसके परिणाम स्वरूप नवजात शिशु को गलगंड या घेंघा रोग हो सकता है, इसका प्रयोग तभी करें जब बेहद जरूरी हो एवं कोई अन्य विकल्प शेष न रहे।

 नींद लाने वाली दवाएं
दवा    
प्रभाव 
टिप्पणी
नाइट्रोजिपाम
(मोगाडोन)
प्लेसेंटा पार कर के गर्भस्थ शिशु तक पहुंच जाती है। मां के दूध में पहुंच कर नवजात शिशु के लिए खतरा पैदा करती है।
दूध पीने के बाद बच्चे बेहोश तक हो जाते हैं। अतः इसे नियमित रूप से तो कदापि न लें।
बार्बिट्यूरेट   
गर्भवती महिला द्वारा लेने पर यह दवा तेजी से प्लेसेंटा पार करके गर्भस्थ शिशु तक पहुंच जाती है।
बच्चे की श्वास नली शिथिल पड़ जाती है अतः मिरगी के दौरे आदि को छोड़कर गर्भावस्था में इसका प्रयोग कदापि न करें।

यहां हम आपको बता दें कि लेख में दवाओं के व्यापारिक नाम नही दिये गए हैं, केवल उनके रासायनिक या चिकित्सकीय नाम दिये गए है, जिन्हें दवा की पैकिंग पर सामग्री की तरह देखा भी जा सकता है।

 नशीली दवाऐं, धूम्रपान, तम्बाकू, शराब आदि भी गर्भवती महिला एवं गर्भस्थ शिशु के लिए भयंकर खतरा है। इसलिए न तो खुद इनका सेवन करें और न ही किसी ऐसे महिला या पुरूष के बैठें जो इन का सेवन करता हो क्योंकि सिगरेट बीड़ी से निकलने वाला धुआं आप के गर्भस्थ शिशु पर कुप्रभाव डाल सकता है।

गर्भावस्था जीवन का एक ऐसा मोड़ है। इसमें काफी सावधानी बरतने की जरूरत है। इस दौर में दूसरी बीमारियां हो सकती हैं अतः जब भी कोई दवा लें, डॉक्टर की सलाह लेकर ही लें। अगर आप के चिकित्सक को आपकी गर्भावस्था के बारे में ज्ञान नही, तो कृपया उसे यह जानकारी अवश्य दें कि आप गर्भवती हैं।

 डॉ0 रमा शंखधर

बेबस प्रधानमंत्री की अंतर्व्यथा

2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी आखिरकार टूट ही गई। जब उन्होंने खुद को नादान कह कर सबको चौंका दिया। कहते हैं खामोशी किसी आने वाले तूफान का पैगाम होती है। लेकिन पीएम की खामोशी का टूटना और खुद को छात्र कहना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया को शोभा नही देता। वैसे मनमोहन सिंह के इस कथन से ज्यादातर लोगों को आश्चर्य इस बात से भी नही होगा कि उन्होंने जो बातें कहीं हैं, वह कहीं न कहीं कांग्रेस पार्टी की रिवायत रही है। जहां आलाकमान का कद काफी ऊंचा माना जाता है। अपने कई दशकों के शासनकाल में कांग्रेस पार्टी के अंदर यह देखने को मिला जब कांग्रेस अध्यक्ष के समक्ष कांग्रेसी प्रधानमंत्री का कद भी छोटा पड़ा। जवाहर लाल नेहरू जब प्रधानमंत्री थे तब वे कुछ वर्षों तक पार्टी अध्यक्ष भी बने। वहीं इन्दिरा गांधी भी प्रधानमंत्री रहते हुए पार्टी सुप्रीमों  बनीं। राजीव गांधी ने भी कुछ इसी तरह की परंपरा का खनवाह किया। कहने का आशय यह है कि स्वयं को लोकतान्त्रिक पार्टी कहने का दम भरने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का कितना कितना घोर आभाव है इसका उदाहरण मोरार जी देसाई के समय देखने को मिला। जब प्रधानमंत्री पद के लिए उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के खिलाफ उम्मीदवारी का दावा ठोंका | हालांकि चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा, जानकारों की माने तो मोरार जी भाई का यह कदम गांधी परिवार के मठाधीशी के खिलाफ एक मौन बगावत थी। कहा तो यहां तक जाता है कि इन्दिरा गांधी और मोरार जी देसाई के तनाव के कारण ही सन 1969 में पहली बार कांग्रेस दो खेमों में विभाजित हुई जो नई कांग्रेस और पुरानी कांग्रेस के नाम से जानी गई। इन्दिरा नई कांग्रेस की नेता बनीं और मोरार जी देसाई पुरानी कांग्रेस पार्टी के नेता।

हांलाकि पुरानी कांग्रेस कई बार टूटती और बिखरती रही। पार्टी में हो रहे बिखराव को रोकने के लिए दल के वरिष्ठ नेताओं ने मिलकर संगठन कांग्रेस बनाया। लेकिन मजबूत नेतृत्व के आभाव में संगठन कांग्रेस का जनता पार्टी में विलय हो गया। आज की तारीख में न तो संगठन कांग्रेस रहा और न ही जनता पार्टी-बची रही तो सिर्फ कांग्रेस और आलाकमान की स्वंयभू छवि। हालांकि कुछ सियासी जानकार मानते हैं कि कांग्रेस की टूट की वजह 1969 का वह राष्ट्रपति चुनाव भी बना, जब नीलम संजीव रेड्डी प्रेसीडेन्ट पद के लिए कांग्रेस के अधिकारिक उम्मीदवार थे। उनका कद पार्टी में काफी ऊंचा माना जाता था। इन्दिरा गांधी उस समय कांग्रेस प्रमुख थीं, लिहाजा उन्हें यह आशंका थी कि रेड्डी के चुनाव जीतने पर उनकी हैसियत कम हो सकती है। ऐसे में वी.वी. गिरि का राष्ट्रपति चुनाव लड़ना और 3 मई 1969 को देश का प्रथम नागरिक बनना किसी सियासी पार्टी के इतिहास में पहला मौका था जब पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को हार मिली हो। पार्टी आलाकमान के बारे में वैसे तो ज्यादातर नेताओं की मुंह खोलने की हिम्मत नही रही। कई पुराने नेताओं ने पार्टी में घुटन भरी जिंदगी गुजार ली, लेकिन कभी अपनी जुबान नही खोली। ऐसा इसलिए कि वह कभी भी पार्टी लाइन से अलग जाने की हिम्मत नही जुटा पाए। पूर्व रेलमंत्री स्वर्गीय ललित नारायण मिश्र जो उन दिनों कांग्रेस में चाणक्य की भूमिका रखते थे। उनकी नाराजगी भी कई बार देखी गई, आलाकमान उन्हें क्या सजा देती उससे पहले ही वह काल- कल्वित हो गए और उनके साथ ही कई अनकही बातें और रहस्य भी खत्म हो गए। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने खुद को स्कूली छात्र कहकर अपना दर्द-ए-हाल सुनाया। लेकिन कहीं न कहीं इस दर्द की वजह वही समानांतर रेखाएं हैं, जिसे पूर्व के कई कांग्रेसी भुगत चुके हैं। चूंकि मनमोहन सिंह एक धीर-गंभीर और शालीन व्यक्ति हैं इसलिए उनकी अभिव्यक्ति का तरीका एक निर्दोष छात्र की तरह था। उनके मुताबिक जबसे वह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे, उन्हें कई तरह के इम्तिहानों से गुजरना पड़ा। प्रधानमंत्री के इस विलाप को देखकर पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के जमाने में उनकी कृपा से राष्ट्रपति बने ज्ञानी जैल सिंह की वह बात याद आती है जब उन्होनें  कहा था ‘अगर इन्दिरा कहें तो मैं झाड़ू लगाने को तैयार हूं’ इस बात में भले ही कांग्रेसी इन्दिरा की पार्टी में अहमियत तलाश रहे हों, लेकिन खुद को भारत की सबसे पुरानी और लोकतांत्रिक पार्टी कहने वाली कांग्रेस के भीतर अंदरूनी राजशाही प्रदर्शित होता है। एनडीए के शासन के बाद यूपीए की ओर से प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह कभी भी खुद को मानसिक तौर पर एक मजबूत आत्मनिर्णय लेने में सक्षम प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित नहीं कर पाए हैं। कहीं न कहीं उनके अन्दर यह बात आज भी है कि कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी ने उन्हें यह पद देकर उपकृत किया है। लगभग साढ़े सात साल का कार्यकाल पूरा कर चुके डॉ. मनमोहन सिंह की यह पीड़ा एक दिन की नही है। जब वामदलों के सहारे यूपीए प्रथम थी तो कई आर्थिक मसलों पर उन्हें सहयोगी पार्टियों के दबाव के आगे झुकना पड़ा था। वह चाहकर भी स्वतंत्र फैसले नही कर पाए। एक जाने-माने अर्थशास्त्री होने के नाते वह कई बार अपने अनुभवों से कई सारे प्रयोग करने चाहे, लेकिन उन्हें भरसक कामयाबी नही मिली। यह कहना अतिश्योक्ति न होगा देश की एक बड़ी आबादी आज भी उनके अन्दर आत्मविश्वास की कमी देख रही है। उनके संभाषणों और बयानों में इसकी झलक साफ देखी जा सकती है। दुनिया में एक मंजे हुए अर्थशास्त्री के रूप में निश्चित तौर पर उनकी छवि असरदार हो, लेकिन एक सशक्त प्रधानमंत्री के तौर पर देश उन्हें अब तक नहीं देख पाया है। अपने दूसरे कार्यकाल में उनके सामने चुनौतियां कई रूपों में सामने आईं, लेकिन हर मसले पर उन्होंने खुलकर कोई बयान नही दिया। ए. राजा मामले में जब बात उन पर आई तो प्रधानमंत्री ने अपनी खामोशी भंग की, लेकिन खामोशी टूटी भी तो उसमें गरज कम, लाचारी ज्यादा दिखी। सवाल इस बात का है कि क्या मनमोहन सिंह वाकई एक लाचार प्रधानमंत्री हैं, क्या उनके अधिकार क्षेत्र कांग्रेस आलाकमान से कमतर है? क्या गठबंधन धर्म निभाने की खातिर वे राजधर्म निभाने में असफल हैं।

अभिषेक रंजन सिंह (पत्रकार)

जयराम रमेश की मजबूरी

जयराम रमेश ने अपने फैसलों से कई बार देश को चौंकाया है। पहले तो उन्होने देश का ध्यानाकर्षण पर्यावरण मंत्रालय की तरफ कराया। यह एक ऐसा मंत्रालय है जिसे अभी तक कोई गम्भीरता से नही लेता था। परियोजनाओ को जो पर्यावरणीय स्वीकृतियां चाहिए होती थी वे या तो आसानी से मिल जाती थी या फिर कई बार बिना पर्यावरणीय स्वीकृति के भी परियोजनाओं का काम शुरू हो जाता था यह मान कर कि देर-सबेर यह स्वीकृति तो मिल ही जाएगी।

ठीक उसी प्रकार से जैसे कभी टी.एन. शेषन ने लोगों को चुनाव आयोग की ताकत का एहसास कराया था वैसे ही जयराम रमेश ने पर्यावरण मंत्रालय के महत्व का ज्ञान कराया। परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति प्राप्त करना एक औपचारिकता मात्र समझी जाती थी या ज्यादा से ज्यादा एक ऐसी बाधा जिसे दूर करना कोई मुश्किल काम नही माना जाता था।

लेकिन जयराम रमेश ने यह धारणा बदलनी शुरू कर दी थी। एक के बाद एक उन्होने कई ऐसे फैसले लिए जिससे उन्होने वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के प्रति बढ़ती चिन्ता का एहसास भी कराया। खासकर कार्बन उत्सर्जन व धरती का बढ़ता तापमान अब वैश्विक चिन्ता के विषय हैं और हम अपने आप को इससे अलग नही रख सकते।

सबसे पहले जयराम रमेश ने ध्यान तब खींचा जब उन्होने नदी जोड़ो परियोजना पर सवाल खड़े किए। जिस परियोजना की वकालत वैज्ञानिक-राष्ट्रपति अब्दुल कलाम व सर्वोच्च न्यायालय कर चुके हों उस पर सवाल खड़े करना वाकई में बहादुरी का काम था। जयराम रमेश के बोलने के बाद राहुल गांधी ने भी इस परियोजना को पर्यावरण की दृष्टि से अनुचित बताया।

जयराम रमेश ने जो सबसे बेहतरीन काम किया था देश भर में घूम घूम कर लोगों की बी.टी. बैंगन के बारे में राय लेना। आम तौर पर जिस देश में ग्राम पंचायतों से लेकर केन्द्रीय कैबिनेट के निर्णय बंद कमरों में लिए जाते हों और जहां सूचना का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी अधिकारी-कर्मचारी सूचना देने के बजाए छुपाने की कोशिश करते हों, वहां किसी मुद्दे पर जनता की राय लेकर अपना फैसला लेना एक ताजी ब्यार जैसा था। असल में लोकतंत्र में तो फैसले इसी प्रकार से लिये जाने चाहिए। इस मायने में जयराम रमेश ने एक आदर्श प्रस्तुत किया।

जयराम रमेश ने भारत में बी.टी. बैगन के प्रवेश पर रोक के साथ-साथ उड़ीसा में वेदांत कम्पनी द्वारा बॉकसाइट खनन, पॉस्को कम्पनी द्वारा स्टील का कारखाना स्थापित करने, दमरा बंदरगाह, महाराष्ट्र के जैतापुर में नाभकीय बिजली घर स्थापित करने, लवासा की लेक सिटी परियोजना, मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी पर महेश्वर बांध परियोजना, इन्दिरा सागर व ओंकारेश्वर बांधों की नहर परियोजनाओं, छत्तीसगढ़ में जिंदल का स्टील का कारखाना, हिमाचल प्रदेश में रेणुका बांध परियोजना, उत्तराखण्ड की लोहऱी नागपाल बांध परियोजना, सिक्किम में दो बांध परियोजनाओं आदि पर रोक लगाने का सराहनीय काम किया क्योंकि ये परियोजनाएं पर्यावरणीय नियमों का पालन नही कर रही थी। मुम्बई में पर्यावरणीय स्वीकृति के बिना निर्मित आदर्श हाऊसिंग सोसाइटी की 31 मंजिला इमारत को ढहाने का आदेश भी जयराम रमेश दे चुके हैं।

जबकि ऐसा लग रहा था कि भारत को एक अच्छा पर्यावरण एवं वन मंत्री मिल गया है जो नियम-कानून का ठीक से पालन करेगा तभी जयराम रमेश ने अपने ही लिये निर्णयों को वापस लेना भी शुरू कर दिया। उन्होने पॉस्को स्टील कारखाने, जैतापुर के नाभकीय बिजली संयत्र, इन्दिरा सागर व ओंकारेश्वर बांधों की नहरों, जिंदल के स्टील कारखाने और अब महेश्वर बांध पर लगाई रोक हटा ली है। ऐसा लग रहा है कि इन परियोजनाओं से जिनका हित सधना है वे ताकतें जयराम रमेश पर भारी पड़ रही हैं यह भारत की राजनीतिक हकीकत भी बयान करती है। जयराम रमेश खुद कहते हैं कि अवैध काम को मंजूरी देना भारतीयों का लक्षण हो गया है।

मजेदार बात यह है कि जयराम रमेश कहते हैं कि उन्हें अवैध काम को वैधता प्रदान करना पसंद नही है किन्तु कबूल करते हैं कि उन्हें कई बार मजबूरी में गलत निर्णय लेने पड़ते हैं किस किस्म के दबाव में निर्णय लेने पड़ते हैं यह भी जयराम रमेश ने महेश्वर बांध के उदाहरण से साफ कर दिया है।

पिछले वर्ष अप्रैल में पर्यावरण मंत्रालय ने बांध के काम पर रोक लगा दी थी क्योंकि 2001 में दी गई पर्यावरणीय स्वीकृति की शर्तों का बांध निर्माता श्री महेश्वर हाईडल पावर कार्पोरेशन लिमिटेड, जो एस. कुमार्स की एक कम्पनी है, पालन नही कर रहा था। पूरी न होने वाली शर्तों में एक पुनर्वास से सम्बन्धित थी। जो गांव बांध की वजह से डूबने वाले थे उनका पुनर्वास बांध निर्माण के साथ-साथ होना था। किन्तु जब बांध 80 प्रतिशत बन चुका था तो पुनर्वास पर काम कात्र 5 प्रतिशत हुआ था। अभी भी पूरे डूबने वाले नौ गांवों  में से सिर्फ एक का ही पुनर्वास हुआ है जबकि मध्य प्रदेश सरकार का दावा है कि पुनर्वास 70 प्रतिशत हो चुका है।

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान व भूतपूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर बांध निर्माण पर लगी रोक को हटाने की मांग की है। शिवराज सिंह चौहान ने तो अनशन भी किया। काश शिवराज सिंह चौहान और दिग्वजय सिंह को इतनी ही चिन्ता विस्थापितों की होती तो शायद अब तक पुनर्वास का काम पूरा हो गया होता। लेकिन इस उदाहरण से साफ है कि सत्ता में बैठे लोग पूंजीपतियों के हितों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं और इस स्तर पर राजनीतिक दलों के बीच का फर्क भी खत्म हो जाता है।

जयराम रमेश ने बांध के बाकी बचे पांच गेटों के निर्माण पर लगी रोक हटाते हुए कहा कि ये गेट तभी बंद किये जा सकेगें या 154 मीटर की ऊंचाई तक बांध का जलाशय तभी भरा जा सकेगा जब पुनर्वास का काम पूरा हो जाएगा। किन्तु जयराम रमेश की लाचारी इस बात से झलकती है जब वे कहते हैं कि उनके पास कोई चारा नही बचा था सिवाय इसके कि वे बांध के काम पर लगी रोक हटा लें।

जयराम रमेश की मजबूरी में एक बार फिर पूंजीपति वर्ग ने आम जनता की कीमत पर अपनी बात इस देश के शासक वर्ग से मनवा ली है। और शासक वर्ग का दलाल चरित्र फिर सामने आया है।

संदीप पाण्डे

कहीं देश आर्थिक गुलामी की तरफ तो नही?

किसी भी देश को अपनी व्यवस्था संचालित करने के लिए वार्षिक बजट बनाना पड़ता है, प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी हमारे देश में 28 फरवरी 2011 को लोकसभा में वर्ष 2011-12 के लिए 12,57,729 करोड़ की भारी भरकम राशि का आम बजट पेश हुआ जो पिछले वर्ष 2010-11 की तुलना में 13.04 प्रतिशत अधिक था। दुनिया भर में भारत के अलावा 12 देश ही 10 लाख करोड़ से ऊपर का बजट बनाते हैं। बजट के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जी0डी0पी0) की विकास दर का आंकलन किया जाता है। जो वर्ष 2010-11 के लिए हमारी विकास दर 8.6 प्रतिशत मानी गई, वहीं 2011-12 में 9 प्रतिशत से ऊपर रखने का लक्ष्य रखा गया यदि हम दुनिया के कुछ बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों की सकल घरेलू उत्पाद (जी0डी0पी0) की विकास दर पर नजर डालें तो चीन की 2011 के लिए विकास दर 8.7 प्रतिशत जो 2012 में घटकर 8.4 प्रतिशत रहने का अनुमान है वहीं अमेरिका की 2011 के लिए विकास दर 2.8 प्रतिशत है जो 2012 में 2.9 प्रतिशत हो सकती है और जापान की 2011 में 1.8 प्रतिशत है जो बढ़कर 2.9 प्रतिशत रहने का अनुमान है। जब विश्व के परिवेश में हम अपनी अर्थव्यवस्था और विकास दर पर गौर करते हैं तो उसके महत्व का पता चलता है।

इसी बजट से विभिन्न मंत्रालयों को विकास के लिये धनराशि आवंटित की जाती है जिसका दुरूपयोग होना भारत में आम बात है पूरा खर्च न कर पाना नौकरशाही की आकर्मणता का प्रमाण है। जिससे सरकार के पास वित्तीय वर्ष के अन्त में धनराशि का बड़ा हिस्सा वापस आ जाता है। शर्मनाक यह है कि भारत में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक एवं एशियाई विकास बैंक जैसी संस्थानों से उधार लिया गया धन भी पूरा खर्च नही कर पाते हैं, जिसके कारण हमारी सरकार को दायित्व शुल्क और वचनबद्धता शुल्क के रूप मे जुर्माना भरना पड़ता है जिसका भुगतान सरकारी खजाने से किया जाता है। वर्ष 2008 में विदेशी सहायता के रूप में हमें 78,000 करोड़ रूपए मिले थे  जिसे पूरा खर्च न कर पाने के कारण दायित्व शुल्क व वचनबद्धता शुल्क के रूप में 124.54 करोड़ और 2009-10 में 86.11 करोड़ जुर्माना देना पड़ा है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सी0ए0जी0) को पता लगा है कि इस वर्ष एक लाख करोड़ की विदेशी मदद का इस्तेमाल नही किया जा सका है। अगर इस पैसे का इस्तेमाल किया गया होता तो समाज के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के जीवन स्तर में जरूर सुधार हो सकता था। अफसोस की बात है कि इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर कोई कार्यवाही नही की जाती है।

हम विदेशी सहायता के कुछ आंकड़ों पर गौर करें तो पहली योजना में विदेशी सहायता 5.8 प्रतिशत दूसरी योजना में 21 प्रतिशत और तीसरी में 25 प्रतिशत लगभग रही थी। जब विदेशी सहायता बढ़ रही है तब राष्ट्रीय आमदनी का क्या हाल हो रहा है? पहली योजना में हमारी राष्ट्रीय आमदनी 18 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ी दूसरी में 4 प्रतिशत और तीसरी में लक्ष्य 5 प्रतिशत रखा गया था लेकिन वृद्धि 2.5 प्रतिशत ही हो सकी। अर्थात विदेशी सहायता बढ़ती गई और राष्ट्रीय आमदनी घटती गई जिससे भुगतान का संतुलन इतना बिगड़ गया कि पहली योजना में जहां केवल 3 अरब रूपए की कमी रही वहीं वर्ष 2010-11 में 4,08,408 करोड़ रूपए की कमी होने का अनुमान है।

आज हमारा देश विश्व व्यापार में शामिल है जिसके कारण हमें वर्ष 2010-11 में व्यापार घाटा 4 लाख करोड़ हो रहा है। विदेश व्यापार के मोर्चे पर कहा जा रहा है कि निर्यात 200 अरब डालर का लक्ष्य पार करके 220 अरब डालर तक पहुंच जायेगा। लेकिन केवल निर्यात बढ़ने से घाटा कम नही हो सकता जब तक आयात न घटे। जब आयात 350 अरब डॉलर से ऊपर होने का अनुमान है तब घाटा कैसे कम हो सकता है? व्यापार सचिव राहुल खुल्लर ने 1 फरवरी, 2011 को कहा कि व्यापार घाटा 135 अरब डालर तक पहुंच सकता है यह राशि भारतीय मुद्रा में 6,07,500 करोड़ हो जाती है। जिसकी भरपाई कैसे होगी? विचार करने की जरूरत है। हमारी इन्ही नीतियों के चलते वर्ष 2010-11 के अन्त तक सरकार पर आन्तरिक व विदेशी कर्ज सहित कुल देनदारी 39,30,408 करोड़ से अधिक हो जाएगी।

आज हमारी अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र का योगदान 55.3 प्रतिशत उद्योगों का 28.6 प्रतिशत कृषि का 16.1 प्रतिशत है। कृषि का योगदान जहां निम्नतम वहीं इस पर निर्भर लोगों की संख्या सार्वाधिक है कृषि से 60 प्रतिशत रोजगार मिल रहा है और 85 प्रतिशत आबादी कृषि पर ही निर्भर है जो हमारी व्यवस्था मे बड़ी असमानता दर्शाती है। सेवा क्षेत्र कभी स्थाई विकास का आधार नही हो सकता है। इन असमानताओं के रहते हुए हमारे अर्थशास्त्री प्रति व्यक्ति औसत आय की गणना करते हैं जिसके आधार पर वर्ष 2010-11 में प्रति व्यक्ति औसत आय 54,527 रूपए होने का अनुमान है। इस औसत आय में वह व्यक्ति नजर नही आता जिसकी आमदनी एक भी पैसा नही है या कुछ रूपए हैं। देश की 75 प्रतिशत जनता के साथ इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है?

हमारी नजर में अब तो यही आता है कि सरकारें विदेशी सहायता लेना बन्द कर, देश के सभी लोगों को बजट में हिस्सेदारी देकर नौकरशाही का दायरा सीमित करके लोकतांत्रिक व्यवस्था को संचालित करने के लिए प्रतिबद्ध हों। जिससे देश में शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में चल रही दोहरी नीतियां बंद होंगी। अमीरी गरीबी का अन्तर जो दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है जिससे समाज में असंतोष पनप रहा है उस पर लगाम लगेगी। हाशिये पर खड़े आम आदमी को विकास की धारा में जुड़ने का अवसर प्राप्त हो सकेगा।

देवेश पटेल

विश्व हिंदू परिषद ने सीआईए से ठेका लिया था?


भगवान राम की जन्मभूमि पर विशाल मन्दिर के निर्माण के लिए मध्य प्रदेश के जबलपुर में एक सेवानिवृत्त आई.पी.एस. अधिकारी द्वारा ऐन रामनवमी के दिन सनसनीखेज ‘आत्मबलिदान’ के बीच आयोध्या इन दिनो एक रहस्योद्घाटन से दो चार हो रही है। वह यह कि विश्व हिंदू परिषद ने 6 दिसम्बर, 1992 को हुए विवादित ढांचे के ध्वंस के लिए अमरीकी खुफिया एजेंसी (सी.आई.ए.) और एक भारतीय आयुर्वेदिक दवा निर्माता कम्पनी से ठेका लिया था और इसकी एवज में करोड़ों रूपए वसूले थे।

यह रहस्योद्घाटन लखनऊ में ध्वंस के मामले की सुनवाई कर रही विशेष अदालत के सामने सीबीआई के गवाह महन्त युगलकिशोर शरण शास्त्री ने प्रतिष्ठित जैनमुनि आचार्य सुशील के हवाले से पिछले दिनों किया और अब इसकी कड़ियां अमरीकावासी यहूदी बुद्धिजीवी जोनाथन माइकल अजाजिया के ब्लॉग से जोड़ी जा रही हैं जिसमें उन्होंने लिखा था कि ढांचे का ध्वंस अमरीकी व इजराइली खुफिया एजेंसियों (सीआईए व मोशाद) का सोचा समझा आपरेशन था और इस आपरेशन में उनका दिमाग व धन दोनो लगे थे। कई लोग इस रहस्योद्घाटन को विकीलीक्स के उस खुलासे तक भी ले जा रहे हैं जिसमें भाजपा नेता अरूण जेटली को अमरीकी राजदूत से यह कहते हुए बताया गया था कि हिन्दुत्व तो उनकी पार्टी के लिए अवसरवादी मुद्दा है। तो क्या वह इसलिए अवसर था कि उसका उपयोग करके सीआईए वगैरह से धन की आमद होती थी?

फिलहाल विश्व हिन्दू परिषद इस सारे प्रकरण पर प्रतिक्रिया से बच रही है लेकिन महन्त युगलकिशोर शरण शास्त्री इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत में कहते हैं कि 23 फरवरी, 1994 को मन्दिर-मस्जिद मसले के समाधान के प्रयासों के क्रम में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के बुलावे पर अयोध्या के सनातन मन्दिर के महन्त रामकृपाल दास के साथ वे नई दिल्ली गए तो वहां जैन श्वेताम्बर आचार्य सुशील मुनि से भी उनकी भेंट हुई थी। इस भेंट में मुनि ने चिन्तित होते हुए बताया था कि विहिप ने ध्वंस के लिए सीआईए से तो धन लिया ही, एक भारतीय आयुर्वेदिक दवा निर्माता कंपनी से भी इसका सौदा किया। यह वही कम्पनी थी जिसका तेल लगाने और बाबर का नाम मिटाने की बात विश्व हिंदू परिषद अपने एक बहुप्रचारित नारे में जोर शोर से करती थी।

शास्त्री बताते हैं कि मुनि की बातें उन्होने नई दिल्ली से लौटने के बाद अपने साप्ताहिक ‘श्रीरामजन्मभूमि’ में छापी भी थी। सीबीआई की विशेष अदालत से गवाही का सम्मन आया तो गत 23 फरवरी को लखनऊ में विशेष न्यायाधीश वीरेन्द्र कुमार के सामने भी उन्होने यही बात कही। ज्ञातव्य है कि सुशील मुनि अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन जब तक रहे, अहिंसक वातावरण और संवैधानिक प्रावधानों की सीमा में मन्दिर-मस्जिद मसले के समाधान के प्रयत्नों से जुड़े रहे। मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व में 30 अक्टूबर व 2 नवम्बर, 1990 के पुलिस गोलीकांडों में कारसेवकों की मौतों के बाद वे राजकीय अतिथि के रूप में  आयोध्या आये तो सार्वजनिक तौर पर कहा था कि वे इस नगरी को किसी एक धर्म के अतिवादी केन्द्र के रूप में नही, सर्वधर्म समभाव के केन्द्र के रूप में देखने के अभिलाषी हैं। उनका कहना था कि जो भी सच्चा सन्त होगा, वह किसी भी धर्म का हो, द्वेष की बात नही कर सकता।

जहां तक महन्त युगलकिशोर शरण शास्त्री की बात है, वे पुराने राष्ट्रीय स्वंयसेवक  संघ परिवारी हैं और वैचारिक कारणों से उससे अलग होने से पहले आयोध्या में विहिप की आक्रामक कार्रवाइयों में बढ़ चढ़कर भाग लेते रहे हैं। इन कार्रवाइयों में 1985 में एक अल्पसंख्यक का घर जला देना भी शामिल है जिसके लिए शास्त्री अब यह कह कर पीड़ित से क्षमायाचना कर चुके है कि तब उनसे यह कुकृत्य संघ की दूषित विचारधारा ने करा लिया था जिससे अब वे मुक्त हो चुके हैं। फिलहाल शास्त्री ‘आयोध्या की आवाज’ नाम के एक संगठन के संयोजक है। जो साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम करता है। इस संगठन से मैग्सेसे पुरस्कार विजेता समाजसेवी संदीप पांडेय और सद्भाव के पैरोकारी के लिए देशभर में जाने-जाने वाले चिन्तक राम पुनियानी भी जुड़े हुए हैं। अपने दुराही कुआं मुहल्ले में स्थित सरयूकुन्ज मन्दिर को शास्त्री सर्वधर्म सद्भाव केन्द्र के निर्माण के लिए दे चुके हैं। चूंकि वे विहिप और संघ परिवार के दूसरे संगठनों की रगरग से वाकिफ हैं और उनकी हर कार्रवाई के प्रतिरोध में लग जाते हैं, इसलिए उनका विश्व हिन्दू परिषद समेत सारे संघ परिवारी संगठनों से छत्तीस का आंकड़ा रहता है। अभी हाल ही में उन्होने  अयोध्या से सेवाग्राम तक सद्भावना यात्रा भी निकाली थी। ध्वंस के मामले में वे सीबीआई के सोलहवें गवाह थे।

इस बीच अमरीकी यहूदी बुद्धिजीवी जोनाथन माइकल अजाजिया का एक ब्लॉग अचानक चर्चा में आ गया है। कहते हैं कि इस ब्लॉग पर उन्होंने युगलकिशोर शरण की गवाही से पहले ही लिख दिया था कि ध्वंस की साजिश के पीछे सीआईए के अतरिक्त इजराइली खुफिया एजेंसी मोशाद और कई दूसरी यहूदी ताकतों का भी हाथ था। अमरीका समेत ये सारी ताकतें दुनियाभर में मुस्लिम दुश्मनी के लिए जानी जाती हैं। जोनाथान के अनुसार दुनिया ने भले ही विहिप, भाजपा या बजरंगदल के कार्यकर्ताओं को ही विवाद्ति ढांचे का ध्वंस करते देखा, लेकिन वास्तव में इसकी योजना दस महीने पहले ही सीआईए व मोशाद ने विश्व हिन्दू परिषद के साथ मिलकर बना ली थी। यह एक सुविचारित ख़ुफ़िया आपरेशन था जिसमें मोशाद के एजेंटों ने विश्व हिन्दू परिषद के कारसेवकों को इस बात का प्रशिक्षण दिया था कि कैसे ध्वंस के काम को कम से कम समय में अनजाम दिया जाए। इन्ही एजेंटो ने 1992 के केरल दंगो में विश्व हिन्दू परिषद और दूसरे हिन्दूवादी संगठनों को सिखाया था कि कैसे मुसलमानों को प्रताड़ित किया जाए, उनमें उत्तेजना फैलाई जाए और फिर स्थिति को अपने अनुकूल बना लिया जाए।

ध्वंस के अठ्ठारह वर्षों बाद हुए इस रहस्योद्घाटन के पीछे सच्चाई हो या सनसनी, लेकिन यह उर्दू मीडिया के एक बड़े हिस्से के साथ अयोध्या-फैजाबाद के कई हल्कों में भी चर्चा का विषय बना हुआ है। फैजाबाद के उर्दू के वयोवृद्ध कथाकार डॉ. गुलाम मोहम्मद का दावा है कि 6 दिसम्बर, 1992 के थोड़ा ही पहले अमरीका के नई दिल्ली स्थित दूतावास के एक अधिकारी ने अपनी अयोध्या यात्रा के दौरान उन्हें बताया था कि बाबरी मस्जिद की रक्षा किसी भी हाल में सम्भव नही हो पाएगी। तब वे नहीं समझ पाए थे कि उसके कहने का आशय क्या है और सहमति जताने पर अधिकारियों ने बड़े दया भाव से यह कहा था कि आप दिमाग से नही दिल से सोच रहे हैं। गुलाम मोहम्मद का कहना है कि अब नये रहस्योद्घाटन के बाद उनके लिए उस अधिकारी की बात समझना ज्यादा आसान हो गया है।
       
कृष्ण प्रताप सिंह