मनमोहन सिंह ने रखी नई भारत-पाकिस्तान रिश्तों की नींव
जिस बात की हममें से कई लोगों को आशंका थी वह सच साबित हो रही है। पाकिस्तान के अंदर आम लोगों, राजनीतिज्ञों व मीडिया में यह बात प्रचारित है कि भारतीय खुफिया संस्था रिसर्च एण्ड एनालिसिस विंग या संक्षेप में जो 'RAW' के नाम से जानी जाती है पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करती है। पहले सिंध प्रांत, खासकर करांची में इस हस्तक्षेप के बारे में बात होती थी। अब लोग कहते हैं कि बलूचिस्तान प्रांत में तो भारत की दखलंदाजी जग-जाहिर है और ऐसी भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में तहरीक-ए-तालिबान के नेता बैतुल्लाह मेहसूद को भी भारत का समर्थन मिल रहा हो। अफगानिस्तान में भारत द्वारा सामान्य से कहीं अधिक संख्या में कई शहरों, खासकर पाकिस्तान की सीमा के निकट, उप-दूतावास खोलने पर चिंता व्यक्त की जा रही है। अफ-पाक इलाके में सी.आई.ए. व मोसाद, क्रमश: अमरीकी एवं इजराइली खुफिया संस्थाओं, की दखलंदाजी से भी इंकार नहीं किया जा सकता। लम्बे समय से हो रहे अमरीकी ड्रोन हवाई हमलों के बावजूद बैतुल्लाह मेहसूद का अभी तक बच पाना इस अफवाह को बल देता है कि किसी एक या एक से अधिक देशों की सेना और/अथवा खुफिया संस्था का समर्थन उसे प्राप्त हो।
असिफ अली जरदारी ने अब इस बात को खुल कर स्वीकारा है कि तालिबान को पैदा तो पाकिस्तान ने ही किया था। जिस आतंकवाद का पाकिस्तान पहले निर्यात करता था वही अब उसके लिए अंदरूनी मुसीबत खड़ी कर रहा है। जब तक यह उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत तक सीमित था तब तक तो इसे बड़ी समस्या के रूप में नहीं देखा गया। लेकिन जब जेहादियों ने इस्लामाबाद, रावलपिंडी व लाहौर को निशाना बनाना शुरू किया तो पाकिस्तानी सेना व खुफिया संस्था ने, जो अपने ही द्वारा प्रशिक्षित किए गए जेहादियों से पहले कतई लड़ने को तैयार नहीं थे, कुछ अमरीकी दबाव में तथा ज्यादा अपने लिए खतरा बनने के कारण अब जा कर, उनके खिलाफ कार्यवाही शुरू की है। जब जरदारी इस तरह का स्पष्ट स्वाकारोक्ति वाला बयान देते हैं तो जाहिर है कि सेना व आई. एस. आई. का समर्थन उन्हें प्राप्त है।
पाकिस्तान में जितने आतंकवादी संगठन हैं, चाहे वह अल-कायदा हो या लश्कर-ए-तोएबा या फिर तालिबान, उन्हें अमरीकी एवं पाकितानी सरकारों ने ही खड़ा किया है। उन्हें हथियार, पैसा व प्रशिक्षण बकायदा पेशेवर सरकारी लोगों से प्राप्त हुआ है। सैनिक शासन के दौरान तो पाकिस्तानी सरकार व जेहादियों में रिश्ते इतने प्रगाढ़ थे कि कई सेवा निवृत सैनिक आतंकवादी संगठनों का हिस्सा बन गए व आतंकवादियों ने सरकारी व्यवस्था में घुसपैठ कर ली। यदि पाकिस्तान में पंजाब प्रांत की सरकार या केन्द्रीय सरकार हाफिज सईद के खिलाफ कोई कार्यवाही करने से कतरा रही हैं तो उसकी एक वजह यह भी है कि हाफिज सईद कई ऐसी बातें उजागर कर सकते हैं जो पाकिस्तानी सरकार के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती हैं।
किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि अब जबकि पाकिस्तानी सरकार ने आतंकवादियों से लड़ने का मन बना लिया है तथा अमरीका लगातार पाकिस्तान जैसे स्वायत्त राष्ट्र की सीमा में घुस कर ड्रोन हवाई हमले कर रहा है आतंकवादी अभी तक मोर्चा कैसे जारी रखे हुए हैं? पाकिस्तान व अमरीका ने जिन जेहादियों को रूस के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया होगा वे तो अब नहीं लड़ रहे होंगे। यदि यह भी मान लिया जाए कि सऊदी अरब या अन्यत्र स्रोतों से अथवा नशीली दवाओं के व्यापार का पैसा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो और मध्य एशिया, पाकिस्तान के दक्षिण पंजाब या दुनिया भर से युवा जेहाद में शामिल होने के लिए आ रहे हों तो भी सवाल उठता है कि इनको आधुनिक युद्ध कला-कौशल का प्रशिक्षण कौन दे रहा है? क्या सी. आई. ए. दोहरा खेल खेल रही है? इस इलाके में शान्ति स्थापित हो जाने के बाद यहां अमरीकी सेना की उपस्थिति को जायज ठहराना अमरीका के लिए मुश्किल हो जाएगा। यह बात तो साफ है कि अमरीका अफ-पाक इलाके में ही नहीं बल्कि कश्मीर में भी अपनी दखलंदाजी रखना चाहता है। हम लोग जार्ज बुश के अमरीका की बात नहीं कर रहे। हम लोग बराक ओबामा की बात कर रहे हैं जिसने चुनाव जीतने से पहले ही ऐलान कर दिया था कि वह कश्मीर मामलों के लिए एक सलाहकार नियुक्त करेंगे। आखिर एक नव-निर्वाचित अमरीकी राष्ट्रपति को अपने देष से ज्यादा कष्मीर की चिंता क्यों होती है?
कई मध्यम वर्गीय पढ़े-लिखे आत्म-स्वाभिमानी भारतीयों, जिन्होंने हमेशा भारत को एक शांतिपूर्ण देश एवं पाकिस्तान को ही समस्या की जड़ माना है, के गले के नीचे यह बात नहीं उतरेगी कि भारत भी पाकिस्तान के अंदर अस्थिरता पैदा करने की कोशिश करता रहा है। शर्म-अल-शेख़ से जो संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ है उसमें बलूचिस्तान का जिक्र है। इसे पाकिस्तान में एक कूटनीतिक सफलता माना जा रहा है। भारत में कट्टरपंथी राष्ट्रवादी परेशान हैं। परन्तु प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने यह कहते हुए कि वे पाकिस्तान के साथ किसी भी मुद्दे पर बातचीत के लिए तैयार हैं अति साहस एवं समझदारी का परिचय दिया है। उन्होंने पाकिस्तान को इस बात के लिए भी प्रेरित किया है कि वह 26 नवम्बर, 2008, के मुम्बई हादसे के दोषियों के खिलाफ कार्यवाही करने की बात को समग्र बातचीत दोबारा शुरू करने की प्रक्रिया से अलग करके देखे। इससे पाकिस्तान के ऊपर आंतरिक दबाव हल्का हो जाता है तथा वह ज्यादा ईमानदारी से मुम्बई कांड के दोषियों के खिलाफ कार्यवाही करेगा। लोकतंत्र का ज्यादा अनुभव रखने की दृष्टि से वरिष्ठ एवं ज्यादा बड़े देश होने के कारण यह मनमोहन सिंह से ही अपेक्षा की जा सकती थी कि वे दरियादिली दिखाएं। वे इस अपेक्षा पर खरे उतरे हैं। उन्होंने उस संर्कीण नजरिए से बाहर निकलने की कोशिश की है जिसकी वजह से अधिकारिक स्तर पर भारत-पाकिस्तान रिश्तों में सुधार की प्रक्रिया बाधित होती रही है।
मनमोहन सिंह ने तो सिर्फ उस बात को स्वीकारा है जो पाकिस्तान में आम जानकारी है। किन्तु पाकिस्तान को राॅ के बलूचिस्तान या अन्य स्थानों पर हस्तक्षेप के प्रमाण प्रस्तुत करने पड़ेंगे जिस तरह से भारत ने मुम्बई कांड में किया है। किन्तु यह बहुत बड़ी बात नहीं है। राॅ और आई. एस. आई. एक दसरे के मुल्कों में अस्थिरता पैदा करने में लगी हुई हैं यह अब एक खुला भेद है।
मनमोहन सिंह ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों को पुनर्परिभाषित करने की जमीन तैयार की है। दोनों मुल्कों के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि दोनों देश शायद एक दूसरे का सहयोंग करते हुए काम करें। अमरीका ने भारत से पाकिस्तान की मदद करने का आह्वान करते हुए इस बात के संकेत दिए हैं। और ऐसा हो भी क्यों नहीं सकता? जब भारत पाकिस्तान को लांघ कर अफगानिस्तान की मदद कर सकता है, जिसमें आर्थिक मदद भी शामिल है, तथा पाकिस्तान आधी दुनिया लांघ कर अमरीका से मदद मांगने जाता है तो भारत पाकिस्तान, यदि अपने ऐतिहासिक पूर्वाग्रह छोड़ दें, मिल कर क्यों नहीं काम कर सकते? पाकिस्तान जिसके लिए अमरीका से आर्थिक मदद लेना तो उसकी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा हो गया है, भारत के साथ एक ज्यादा लोकतांत्रिक रिश्ता रख सकता है। क्या हम इसकी कल्पना कर सकते हैं कि राॅ व आई. एस. आई., जिस तरह सी. आई. ए. के साथ काम करती हैं, मिल कर दक्षिण एशिया से आतंकवाद का सफाया करें? पाकिस्तान, चूंकि दोनों में छोटा एवं ज्यादा असुरक्षित मुल्क है भारत के साथ मित्रता के बारे में तभी सोच सकता है जब उसे भारत के साथ सहजता महसूस होगी। दोनों देशों की लम्बी दुश्मनी की वजह से आपसी विश्वास का अभाव है। मनमोहन सिंह ने यूसुफ रजा गिलानी एवं पाकिस्तान को यह एहसास कराया है कि वे भारत पर भरोसा कर सकते हैं।
नोटः लेखक ने यह लेख जुलाई, 2009, में अपनी पाकिस्तान की हफ्ते भर की यात्रा से लौटने के बाद लिखा।
डॉ संदीप पाण्डेय
(लेखक, मग्सय्सय पुरुस्कार प्राप्त वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के राष्ट्रीय संयोजक हैं, लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य हैं, और आशा परिवार का भी नेतृत्व कर रहे हैं। ईमेल: ashaashram@yahoo.com )
सूचना अधिकार अधिनियम को कमजोर करने के विरोध में जनहित याचिका की सुनवाई:कोर्ट ने प्रदेश सरकार को २ हफ्ते में जवाब देने को कहा
सूचना अधिकार अधिनियम को कमजोर करने के विरोध में जनहित याचिका की सुनवाई:
कोर्ट ने प्रदेश सरकार को २ हफ्ते में जवाब देने को कहा
आज कोर्ट में जनहित याचिका की सुनवाई में प्रदेश सरकार को २ हफ्तों में जवाब देने का निर्देश दिया गया कि क्यों पांच विषयों को सूचना अधिकार अधिनियम, २००५, के दायरे से बाहर किया गया है.
यह जनहित याचिका, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय की ओर से मग्सय्सय पुरुस्कार प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय एवं सूचना अधिकार कार्यकर्ता नवीन तिवारी ने दाखिल की थी.
"उत्तर प्रदेश सरकार ने सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे से पाँच विषयों को ७ जून २००९ को बाहर किया था जो इस प्रकार हैं: राज्यपाल की नियुक्ति, उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों की नियुक्ति, मंत्रियों की नियुक्ति, मंत्रियों की आचरण संहिता तथा राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को लिखे पत्र। पिछले वर्ष २५ मार्च २००८ को नागरिक उड्डयन विभाग के दो यूनिटों को भी सूचना के अधिकार अधिनियम, २००५, से प्रदेश सरकार ने बाहर किया था। उ.प्र.सरकार द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम को कमजोर करने का हम विरोध करते हैं, कहना है डॉ संदीप पाण्डेय का जो जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के राष्ट्रीय संयोजक हैं.
सूचना अधिकार कार्यकर्ता नवीन तिवारी ने कहा कि "सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005, की धारा 24 की उप-धारा 4 के तहत राज्य सरकार सिर्फ सुरक्षा एवं अभिसूचना से सम्बन्धित विभागों को ही इस कानून के दायरे बाहर कर सकती है। हमारा मानना है कि उपर्युक्त विषयों में से कोई भी या नागरिक उड्डयन विभाग सुरक्षा एवं अभिसूचना की श्रेणी में नहीं आते"।
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीस, उ.प्र के उपाध्यक्ष एस.आर.दारापुरी ने कहा कि "संविधान के अनुच्छेद 256 के अंतर्गत राज्य सरकार को केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुपालन की व्यवस्था सुनिश्चित करनी है। वह किसी कानून को कमजोर नहीं कर सकती"।
राज्य सरकार का कदम कानून विरोधी तथा संविधान विरोधी भी है। राज्य सरकार से हमारी अपील है कि सूचना के अधिकार अधिनियम में लाए गए परिवर्तनों को वापस ले। हम चाहते हैं कि सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005, अपने मौलिक स्वरूप में बना रहे।
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय
कोर्ट ने प्रदेश सरकार को २ हफ्ते में जवाब देने को कहा
आज कोर्ट में जनहित याचिका की सुनवाई में प्रदेश सरकार को २ हफ्तों में जवाब देने का निर्देश दिया गया कि क्यों पांच विषयों को सूचना अधिकार अधिनियम, २००५, के दायरे से बाहर किया गया है.
यह जनहित याचिका, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय की ओर से मग्सय्सय पुरुस्कार प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय एवं सूचना अधिकार कार्यकर्ता नवीन तिवारी ने दाखिल की थी.
"उत्तर प्रदेश सरकार ने सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे से पाँच विषयों को ७ जून २००९ को बाहर किया था जो इस प्रकार हैं: राज्यपाल की नियुक्ति, उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों की नियुक्ति, मंत्रियों की नियुक्ति, मंत्रियों की आचरण संहिता तथा राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को लिखे पत्र। पिछले वर्ष २५ मार्च २००८ को नागरिक उड्डयन विभाग के दो यूनिटों को भी सूचना के अधिकार अधिनियम, २००५, से प्रदेश सरकार ने बाहर किया था। उ.प्र.सरकार द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम को कमजोर करने का हम विरोध करते हैं, कहना है डॉ संदीप पाण्डेय का जो जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के राष्ट्रीय संयोजक हैं.
सूचना अधिकार कार्यकर्ता नवीन तिवारी ने कहा कि "सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005, की धारा 24 की उप-धारा 4 के तहत राज्य सरकार सिर्फ सुरक्षा एवं अभिसूचना से सम्बन्धित विभागों को ही इस कानून के दायरे बाहर कर सकती है। हमारा मानना है कि उपर्युक्त विषयों में से कोई भी या नागरिक उड्डयन विभाग सुरक्षा एवं अभिसूचना की श्रेणी में नहीं आते"।
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीस, उ.प्र के उपाध्यक्ष एस.आर.दारापुरी ने कहा कि "संविधान के अनुच्छेद 256 के अंतर्गत राज्य सरकार को केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुपालन की व्यवस्था सुनिश्चित करनी है। वह किसी कानून को कमजोर नहीं कर सकती"।
राज्य सरकार का कदम कानून विरोधी तथा संविधान विरोधी भी है। राज्य सरकार से हमारी अपील है कि सूचना के अधिकार अधिनियम में लाए गए परिवर्तनों को वापस ले। हम चाहते हैं कि सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005, अपने मौलिक स्वरूप में बना रहे।
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय
'हेलमेट निर्माताओं को 'मार्लबोरो' लिखने पर मनाही'
'हेलमेट निर्माताओं को 'मार्लबोरो' लिखने पर मनाही'
भारतीय कानून के अनुसार जो ब्रांड विश्व में सर्वप्रसिद्ध हैं, उनके नाम से देश में व्यापार नहीं किया जाना चाहिए, भले ही वोह कंपनी भारत में व्यापार नहीं करती हो। लूथरा एवं लूथरा की वकील गायत्री रॉय ने कहा कि ऐसे मामले में कोर्ट ने विश्व-स्थापित ब्रांड के ही पक्ष में निर्णय दिया है - जैसे कि व्हिर्ल्पूल, डनहिल (सिगरेट) और वोल्वो आदि।
अक्सर ब्रांड की नक़ल नहीं की जाती है पर उस छवि की जो वो दिखाने का प्रयास कर रहा हो। जैसे कि भारत में हेलमेट निर्माताओं ने 'मार्लबोरो' जो विश्व में सबसे बड़ी तम्बाकू कंपनी की सिगरेट है, उसकी नक़ल हेलमेट पर उतरनी शुरू कर दी थी - परन्तु गौर से देखने पर पता चला कि 'मार्लबोरो' नहीं, 'मर्ल्बोर्न' या 'मेलबर्न' आदि लिखा हुआ है जो फार्मूला कार दौड़ या कार रेस के मशहूर 'स्टार' माइकेल शुमेकर के हेलमेट की नक़ल है जिसपर मार्लबोरो लिखा हुआ था - जो तम्बाकू कंपनी द्वारा प्रायोजित था। माइकेल शुमेकर 'फेरारी' कार चलते थे और उनकी यह छवि विश्वभर में लोकप्रिय हुई। न्यू यार्क टाईम्स में प्रकाशित ख़बर के अनुसार, भारत में हेलमेट निर्माताओं को 'मार्लबोरो' आदि लिखने से मना किया गया क्योंकि भारत में तम्बाकू विज्ञापन पर रोक लगी हुई है।
भारतीय कानून के अनुसार जो ब्रांड विश्व में सर्वप्रसिद्ध हैं, उनके नाम से देश में व्यापार नहीं किया जाना चाहिए, भले ही वोह कंपनी भारत में व्यापार नहीं करती हो। लूथरा एवं लूथरा की वकील गायत्री रॉय ने कहा कि ऐसे मामले में कोर्ट ने विश्व-स्थापित ब्रांड के ही पक्ष में निर्णय दिया है - जैसे कि व्हिर्ल्पूल, डनहिल (सिगरेट) और वोल्वो आदि।
अक्सर ब्रांड की नक़ल नहीं की जाती है पर उस छवि की जो वो दिखाने का प्रयास कर रहा हो। जैसे कि भारत में हेलमेट निर्माताओं ने 'मार्लबोरो' जो विश्व में सबसे बड़ी तम्बाकू कंपनी की सिगरेट है, उसकी नक़ल हेलमेट पर उतरनी शुरू कर दी थी - परन्तु गौर से देखने पर पता चला कि 'मार्लबोरो' नहीं, 'मर्ल्बोर्न' या 'मेलबर्न' आदि लिखा हुआ है जो फार्मूला कार दौड़ या कार रेस के मशहूर 'स्टार' माइकेल शुमेकर के हेलमेट की नक़ल है जिसपर मार्लबोरो लिखा हुआ था - जो तम्बाकू कंपनी द्वारा प्रायोजित था। माइकेल शुमेकर 'फेरारी' कार चलते थे और उनकी यह छवि विश्वभर में लोकप्रिय हुई। न्यू यार्क टाईम्स में प्रकाशित ख़बर के अनुसार, भारत में हेलमेट निर्माताओं को 'मार्लबोरो' आदि लिखने से मना किया गया क्योंकि भारत में तम्बाकू विज्ञापन पर रोक लगी हुई है।
चुनाव के दौरान मीडिया के दुरूपयोग पर अध्ययन के निष्कर्ष
चुनाव के दौरान मीडिया के दुरूपयोग पर अध्ययन के निष्कर्ष
१५वीं लोक सभा चुनाव के दौरान लखनऊ के चार अखबारों का अध्ययन करने पर यह ज्ञात हुआ कि कुछ राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों ने व्यवस्थागत ढंग से प्रायोजित खबरें जो प्रत्येक दिन अखबार में एक ही अकार की और एक ही स्थान पर देखने को मिलीं, छपवाई हैं. ऐसा करके अखबारों ने अपने पाठकों के साथ विश्वासघात किया है क्योंकि यह पाठक के उस मूल विश्वास को तोड़ता है जिसके आधार पर निष्पक्ष एवं संतुलित खबर पढ़ने के लिये पाठक अखबार खरीदता है. चुनाव के दौरान कुछ अखबारों में, समाचार, विचार और प्रचार के बीच कोई भेद ही नहीं रह गया था. कुछ अखबारों ने तो छोटे अक्षरों में 'advt' या इस तरह का कोई संकेत छापा जिससे मालूम हो कि प्रकाशित सामग्री प्रायोजित है किन्तु कुछ अखबारों ने यह भी छापने का कष्ट नहीं उठाया. इन ख़बरों को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिये समाचार पत्रों ने अल्प-कालिक एजेंसिया भी बना लीं जो स्पष्ट नहीं है कि समाचार एजेंसियां है या विज्ञापन एजेंसियां?
हमने उम्मीदवारों द्वारा छपवाई गयी प्रायोजित ख़बरों को विज्ञापन मान कर अखबार के विज्ञापन दरों से उनके द्वारा इन ख़बरों को छपवाने में हुए खर्च का आंकलन किया है. इसके अनुसार लखनऊ के एक उम्मीदवार डॉ अखिलेश दास गुप्ता ने सिर्फ एक ही अखबार में २५ लाख रूपये, जो एक उम्मीदवार द्वारा लोक सभा चुनाव में खर्च किये जाने की अधिकतम सीमा है, से ज्यादा खर्च किये हैं. हम उम्मीद करते हैं कि चुनाव आयोग अपनी आचार संहिता के उस उल्लंघन को गंभीरता से लेगा.
यह स्पष्ट है कि राजनितिक दल एवं उम्मीदवार जो अन्यत्र चुनाव आयोग की आचार संहिता का गंभीरता से पालन करते हैं, अपने प्रचार हेतु मीडिया का जम कर दुरूपयोग करते हैं. और अफ़सोस की बात यह है कि मीडिया भी अपना दुरूपयोग होने देती है. दोनों के खिलाफ ही कठोर कारवाई की आवश्यकता है.
हम उम्मीद करते हैं कि प्रेस काउंसिल समाचार पत्रों पर अंकुश लगायेगी तथा उन्हें 'प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया की चुनाव के दौरान पत्रकारिता हेतु मार्ग-निर्देश १९९६' का पालन करने के लिये बाध्य करेगी. कोई भी समाचार पत्र जो इस मार्ग-निर्देश का उल्लंघन करता है उसके खिलाफ कारवाई होनी चाहिए. निबंधक, समाचार पत्र, को ऐसे समाचार पत्रों का पंजीकरण रद्द कर देना चाहिए.
चुनाव आयोग को जिस तरह वह अन्य चुनाव खर्चों पर पैनी नज़र रखता है उसी तरह समाचार पत्रों में छप रहे विज्ञापनों या प्रायोजित समाचारों के खर्चे का हिसाब-किताब भी लेना चाहिए. राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किया गया पैसा भी उम्मीदवारों के खाते में जुड़ना चाहिए. रजनीतिक दलों पर, उम्मीदवारों की तरह, चुनाव प्रचार में खर्च पर या तो सीमा तय होनी चाहिए अन्यथा उनके खर्चे को सभी उम्मीदवारों में बराबर-बराबर बाँट दिया जाना चाहिए.
एस.आर दारापुरी, डॉ संदीप पाण्डेय, इश्वर चन्द्र द्विवेदी, अरुंधती धुरु, नवीन तिवारी, डॉ राहुल पाण्डेय, प्रभा चतुर्वेदी, रमाकांत चतुर्वेदी, विवेक राय, हिमांशु, महेंद्र, अभिषेक, बाबी रमाकांत
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एन.ए.पी.एम्) एवं लोक राजनीति मंच
संपर्क: २३४७३६५ (संदीप), ९८३९० ७३३५५ (बाबी रमाकांत)
१५वीं लोक सभा चुनाव के दौरान लखनऊ के चार अखबारों का अध्ययन करने पर यह ज्ञात हुआ कि कुछ राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों ने व्यवस्थागत ढंग से प्रायोजित खबरें जो प्रत्येक दिन अखबार में एक ही अकार की और एक ही स्थान पर देखने को मिलीं, छपवाई हैं. ऐसा करके अखबारों ने अपने पाठकों के साथ विश्वासघात किया है क्योंकि यह पाठक के उस मूल विश्वास को तोड़ता है जिसके आधार पर निष्पक्ष एवं संतुलित खबर पढ़ने के लिये पाठक अखबार खरीदता है. चुनाव के दौरान कुछ अखबारों में, समाचार, विचार और प्रचार के बीच कोई भेद ही नहीं रह गया था. कुछ अखबारों ने तो छोटे अक्षरों में 'advt' या इस तरह का कोई संकेत छापा जिससे मालूम हो कि प्रकाशित सामग्री प्रायोजित है किन्तु कुछ अखबारों ने यह भी छापने का कष्ट नहीं उठाया. इन ख़बरों को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिये समाचार पत्रों ने अल्प-कालिक एजेंसिया भी बना लीं जो स्पष्ट नहीं है कि समाचार एजेंसियां है या विज्ञापन एजेंसियां?
हमने उम्मीदवारों द्वारा छपवाई गयी प्रायोजित ख़बरों को विज्ञापन मान कर अखबार के विज्ञापन दरों से उनके द्वारा इन ख़बरों को छपवाने में हुए खर्च का आंकलन किया है. इसके अनुसार लखनऊ के एक उम्मीदवार डॉ अखिलेश दास गुप्ता ने सिर्फ एक ही अखबार में २५ लाख रूपये, जो एक उम्मीदवार द्वारा लोक सभा चुनाव में खर्च किये जाने की अधिकतम सीमा है, से ज्यादा खर्च किये हैं. हम उम्मीद करते हैं कि चुनाव आयोग अपनी आचार संहिता के उस उल्लंघन को गंभीरता से लेगा.
यह स्पष्ट है कि राजनितिक दल एवं उम्मीदवार जो अन्यत्र चुनाव आयोग की आचार संहिता का गंभीरता से पालन करते हैं, अपने प्रचार हेतु मीडिया का जम कर दुरूपयोग करते हैं. और अफ़सोस की बात यह है कि मीडिया भी अपना दुरूपयोग होने देती है. दोनों के खिलाफ ही कठोर कारवाई की आवश्यकता है.
हम उम्मीद करते हैं कि प्रेस काउंसिल समाचार पत्रों पर अंकुश लगायेगी तथा उन्हें 'प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया की चुनाव के दौरान पत्रकारिता हेतु मार्ग-निर्देश १९९६' का पालन करने के लिये बाध्य करेगी. कोई भी समाचार पत्र जो इस मार्ग-निर्देश का उल्लंघन करता है उसके खिलाफ कारवाई होनी चाहिए. निबंधक, समाचार पत्र, को ऐसे समाचार पत्रों का पंजीकरण रद्द कर देना चाहिए.
चुनाव आयोग को जिस तरह वह अन्य चुनाव खर्चों पर पैनी नज़र रखता है उसी तरह समाचार पत्रों में छप रहे विज्ञापनों या प्रायोजित समाचारों के खर्चे का हिसाब-किताब भी लेना चाहिए. राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किया गया पैसा भी उम्मीदवारों के खाते में जुड़ना चाहिए. रजनीतिक दलों पर, उम्मीदवारों की तरह, चुनाव प्रचार में खर्च पर या तो सीमा तय होनी चाहिए अन्यथा उनके खर्चे को सभी उम्मीदवारों में बराबर-बराबर बाँट दिया जाना चाहिए.
एस.आर दारापुरी, डॉ संदीप पाण्डेय, इश्वर चन्द्र द्विवेदी, अरुंधती धुरु, नवीन तिवारी, डॉ राहुल पाण्डेय, प्रभा चतुर्वेदी, रमाकांत चतुर्वेदी, विवेक राय, हिमांशु, महेंद्र, अभिषेक, बाबी रमाकांत
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संपर्क: २३४७३६५ (संदीप), ९८३९० ७३३५५ (बाबी रमाकांत)
भूख, बदहाली के बजाए तलवार, त्रिशूल क्यों? मल्लिका साराभाई का आडवाणी को खुला पत्र
भूख, बदहाली के बजाए तलवार, त्रिशूल क्यों? मल्लिका साराभाई का आडवाणी को खुला पत्र
प्रिय श्री आडवाणी,
मुझसे पूछा गया है कि क्या प्रधानमंत्री पद के दावेदार आप जैसे बड़े नेता के विरुद्ध चुनाव लड़ना मेरे लिए एक कठिन अनुभव रहा | इस पर कोई लेख लिखने की बजाए मैंने आपको पत्र लिखना बेहतर समझा | जब आप इस पत्र को पडेंगें तब तक चुनाव नतीजे आ चुके होंगे | आप या तो जीतेंगे या हारेंगे | दोनों ही स्थितियों में मैं जो कहना चाहती हूँ वह प्रासंगिक बना रहेगा |
मैं स्वतंत्रता के बाद पैदा हुई भारतीय हूँ | मुझे भारतीयता के मूल्यों का सम्मान करना और उनकी रक्षा करना सिखाया गया है | मुझे सिखाया गया है कि हमारा संविधान एक ऐसा दस्तावेज है जो सभी भरतीयों को- चाहे वे किसी भी धर्म, संस्कृति या भाषाई समूह के हों- समान अधिकार देता है | मुझे हमारे देश के विविधवर्णी, इन्द्रधनुषी स्वरुप पर गर्व है | हमारा देश सलाद की तरह अलग-अलग संस्कृतियों का मिश्रण है | वह सूप की तरह नहीं है जिसमें सभी सब्जियां अपनी अलग पहचान खोकर एकसार हो जाती हैं |
हमारे देश के लोगों की भूख, प्यास और बदहाली की बजाए आप तलवारों और त्रिशूलों की बातें करते हैं | दलितों को सरेआम मार दिया जाता है, हजारों महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार होता है परन्तु आप के एजेंडें में मस्जिदें ढहाना और मंदिर बनाना ही है | हिन्दू दर्शन के वसुधैव कुटुम्बकम के अनुरूप आचरण करने की बजाए आप हमारे परिवार को अलग-अलग धार्मिक शिविरों में बाँटते हैं और चाहते हैं कि इस परिवार के कुछ सदस्य या तो देश छोड़कर चले जाएं या फिर गुलामों की तरह जिएं |
अपने धर्म और देश पर गर्व करने वाले एक नागरिक की हैसियत से मैं आपके व्यवहार और विचारों से स्तब्ध हूँ | भारतीय के रूप में मेरी पहचान को आप सिर्फ एक कसौटी पर कसते हैं-मैं हिन्दू हूँ या नहीं | आपके गुंडे और भगवा वस्त्रधारी आतंकवादी दस्ते लाठियों और बंदूकों से सारी दुनिया को डराना चाहते हैं और खुद को कानून से परे समझते हैं | सबसे बड़ी बात यह हैं कि आप अपनी रथयात्रा को-जिससे इस देश में आतंकवाद की शुरुआत हुई और लाखों निर्दोषों का खून बहा - अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं |
क्या आप यह आश्वासन दे सकते हैं कि आप जिस आतंकवाद विरोधी कानून की वकालत कर रहे हैं उसका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए नहीं किया जायेगा ?
आपकी पार्टी स्विस बैंकों में जमा काले धन को वापिस लाने की बात कर रही है | मैं आपसे जानना चाहती हूँ कि जिन नोटों के बंडलों को लेते हुए आपकी पार्टी के अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण टेप पर पकड़े गए थे वे नोट क्या स्विस बैंक से आये थे और या फिर आपकी पार्टी की नीतियों के अनुरूप वे स्वदेशी काला धन स्वीकार कर रहे थे |
नहीं आडवाणी जी | मैं आपसे डरती नहीं हूँ | मैं चाहे यह चुनाव हार जाऊँ परंतु मैं निस्सहायों और कमजोरों के लिए काम करती रहूंगी | मैं यह सुनिश्चित करुँगी कि उनकी आवाज कुचली न जाए |
आपकी
मल्लिका
प्रिय श्री आडवाणी,
मुझसे पूछा गया है कि क्या प्रधानमंत्री पद के दावेदार आप जैसे बड़े नेता के विरुद्ध चुनाव लड़ना मेरे लिए एक कठिन अनुभव रहा | इस पर कोई लेख लिखने की बजाए मैंने आपको पत्र लिखना बेहतर समझा | जब आप इस पत्र को पडेंगें तब तक चुनाव नतीजे आ चुके होंगे | आप या तो जीतेंगे या हारेंगे | दोनों ही स्थितियों में मैं जो कहना चाहती हूँ वह प्रासंगिक बना रहेगा |
मैं स्वतंत्रता के बाद पैदा हुई भारतीय हूँ | मुझे भारतीयता के मूल्यों का सम्मान करना और उनकी रक्षा करना सिखाया गया है | मुझे सिखाया गया है कि हमारा संविधान एक ऐसा दस्तावेज है जो सभी भरतीयों को- चाहे वे किसी भी धर्म, संस्कृति या भाषाई समूह के हों- समान अधिकार देता है | मुझे हमारे देश के विविधवर्णी, इन्द्रधनुषी स्वरुप पर गर्व है | हमारा देश सलाद की तरह अलग-अलग संस्कृतियों का मिश्रण है | वह सूप की तरह नहीं है जिसमें सभी सब्जियां अपनी अलग पहचान खोकर एकसार हो जाती हैं |
हमारे देश के लोगों की भूख, प्यास और बदहाली की बजाए आप तलवारों और त्रिशूलों की बातें करते हैं | दलितों को सरेआम मार दिया जाता है, हजारों महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार होता है परन्तु आप के एजेंडें में मस्जिदें ढहाना और मंदिर बनाना ही है | हिन्दू दर्शन के वसुधैव कुटुम्बकम के अनुरूप आचरण करने की बजाए आप हमारे परिवार को अलग-अलग धार्मिक शिविरों में बाँटते हैं और चाहते हैं कि इस परिवार के कुछ सदस्य या तो देश छोड़कर चले जाएं या फिर गुलामों की तरह जिएं |
अपने धर्म और देश पर गर्व करने वाले एक नागरिक की हैसियत से मैं आपके व्यवहार और विचारों से स्तब्ध हूँ | भारतीय के रूप में मेरी पहचान को आप सिर्फ एक कसौटी पर कसते हैं-मैं हिन्दू हूँ या नहीं | आपके गुंडे और भगवा वस्त्रधारी आतंकवादी दस्ते लाठियों और बंदूकों से सारी दुनिया को डराना चाहते हैं और खुद को कानून से परे समझते हैं | सबसे बड़ी बात यह हैं कि आप अपनी रथयात्रा को-जिससे इस देश में आतंकवाद की शुरुआत हुई और लाखों निर्दोषों का खून बहा - अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं |
क्या आप यह आश्वासन दे सकते हैं कि आप जिस आतंकवाद विरोधी कानून की वकालत कर रहे हैं उसका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए नहीं किया जायेगा ?
आपकी पार्टी स्विस बैंकों में जमा काले धन को वापिस लाने की बात कर रही है | मैं आपसे जानना चाहती हूँ कि जिन नोटों के बंडलों को लेते हुए आपकी पार्टी के अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण टेप पर पकड़े गए थे वे नोट क्या स्विस बैंक से आये थे और या फिर आपकी पार्टी की नीतियों के अनुरूप वे स्वदेशी काला धन स्वीकार कर रहे थे |
नहीं आडवाणी जी | मैं आपसे डरती नहीं हूँ | मैं चाहे यह चुनाव हार जाऊँ परंतु मैं निस्सहायों और कमजोरों के लिए काम करती रहूंगी | मैं यह सुनिश्चित करुँगी कि उनकी आवाज कुचली न जाए |
आपकी
मल्लिका
भाजपा की हार में छुपी जीत
भाजपा की हार में छुपी जीत
फादर डोमिनीक इमेन्युल
आम चुनाव के पहले, देश के अलग-अलग भागों में स्थित कई चर्चों ने श्रद्धालुओं का इस सम्बन्ध में पथ- प्रदर्शन किया था कि वे अपने मताधिकार का उपयोग कैसे करें | उनसे कहा गया था कि वे उन उम्मीदवारों को मत दें जो दलितों और गरीबों के लिए काम करें, भ्रष्ट न हों, आपराधिक चरित्र के न हों और जो धर्म के आधार पर लोगों में भेदभाव न करें | यद्यपि चर्च आने वालों से यह नहीं कहा गया था कि वे इस या उस पार्टी को वोट दें परन्तु संदेश स्पष्ट था: उन उम्मीदवारों को मत दो जो ईसाईयों के हितों की रक्षा करें |
चुनाव के नतीजे आते ही ईसाई समुदाय में ख़ुशी की लहर व्याप्त हो गई | ईसाईयों ने चैन की साँस ली कि साम्प्रदायिक ताकतों को दिल्ली में सत्ता हासिल नहीं हो सकी |
मैं भी खुश था | हमारे समुदाय के अन्य साथियों को यह संदेश भेज रहा था कि हमारी प्रार्थनाएं सफल हुई हैं और जिन लोगों ने ईसाईयों पर अत्याचार किये थे, उन्हें ईश्वर ने सबक सिखाया है | परन्तु मेरी ख़ुशी तब काफूर हो गई जब मैंने चुनाव परिणामों का गहरे से विश्लेषण किया |
भाजपा को मिली सीटों की संख्या में कमी आई है | सन् २००४ में उसे १३८ सीटें मिली थीं, इस बार ११६ मिली हैं | चुनाव विश्लेषक कह रहे हैं कि जनता ने साम्प्रदायिक ताकतों को नकारा है | क्या सचमुच ऐसा हुआ है ? मुझे डर है कि यह निष्कर्ष सही नहीं है | जिन-जिन इलाकों में भाजपा ने अल्पसंख्यकों के विरुद्ध विषवमन या हिंसा की थी, वहाँ उसे लाभ हुआ है | कंधमाल हिंसा के मुख्य आरोपियों में से एक मनोज प्रधान विधान सभा चुनाव में विजयी हुए हैं | वे जेल में हैं | यद्यपि अशोक साहू कंधमाल से लोकसभा चुनाव हार गए हैं परंतु उन्हें उन विधानसभा क्षेत्रों में अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा वोट मिले हैं जहाँ उन्होंने ईसाई विरोधी हिंसा भड़काई थी |
कर्नाटक में मंगलौर में, जहाँ बजरंग दल के गुंडों ने ईसाईयों के विरुद्ध बड़े पैमाने पर हिंसा की थी, चर्चों में मूर्तियाँ तोडी थीं और ननों की पिटाई की थी, वहाँ से भाजपा के उम्मीदवार नलिन कुमार कटील जीते हैं | हुबली में पबों पर राम सेने के पहलवानों ने हल्ला बोला और वहाँ बैठी लड़कियों को मार भगाया | हुबली के पास उडुपी जिले के एक बीच पर हिन्दुत्ववादियों ने चार्ली चैपलिन की मूर्ति इसलिए नहीं लगने दी थी क्योंकि चैपलिन ईसाई थे | हुबली से भी भाजपा उम्मीदवार डी.व्ही. सदानंद गौडा जीते हैं |
उत्तरप्रदेश के पीलीभीत के लोगों ने मुसलमानों के खिलाफ़ घोर आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करने वाले वरुण गाँधी को भारी बहुमत से जिताया है | मालेगांव, जहाँ साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित ने एक मस्जिद में कथित रूप से विस्फोट कराया था, कांग्रेस का गढ़ रहा है | परंतु इस बार वहाँ से भाजपा के प्रताप सोनावने जीते हैं | आदिवासियों की घर-वापिसी का आन्दोलन चलाने वाले दिलीप सिंह जूदेव भी लोकसभा में पहुँच गए हैं | नरेन्द्र मोदी के गुजरात में-जहाँ मुसलमानों का दानवीकरण लम्बे समय से जारी है- भाजपा की एक सीट बढ़ गई है |
इन तथ्यों से स्पष्ट है कि जिन भी इलाकों में भाजपा या उसके साथी संगठनों ने अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसक अभियान चलाया, उन सभी इलाकों में उसे विजय मिली है | यह बहुत डरावना तथ्य है | क्या भाजपा अपनी विजय को अधिक व्यापक बनाने के लिए और नए -नए इलाकों में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए प्रेरित नहीं होगी ?
मुझे उम्मीद है कि भाजपा का नेतृत्व ऐसा कुछ नहीं करेगा | हो सकता है कि मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने या ननों को पीटने से वे कुछ सीटें जीत जाएं परंतु इस रास्ते से वे सत्ता में नहीं आ पाएंगे | अगर भाजपा भारत की आत्मा के खिलाफ़ काम करेगी तो उसे कभी सफलता नहीं मिलेगी | भाजपा को समझना चाहिए कि उसका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हिटलर और मुसोलिनी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है न कि भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जो सभी धार्मिक समुदायों के मिल-जुलकर रहने पर आधारित है |
भाजपा को इन चुनावों से सकारात्मक सबक सीखने चाहिए | जिस दिन भाजपा अल्पसंख्यकों का विश्वास जीत लेगी वह भारतीय प्रजातंत्र के लिए एक शुभ दिन होगा |
फादर डोमिनीक इमेन्युल, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सी.एन.एस) वेबसाइट: www.citizen-news.org
फादर डोमिनीक इमेन्युल
आम चुनाव के पहले, देश के अलग-अलग भागों में स्थित कई चर्चों ने श्रद्धालुओं का इस सम्बन्ध में पथ- प्रदर्शन किया था कि वे अपने मताधिकार का उपयोग कैसे करें | उनसे कहा गया था कि वे उन उम्मीदवारों को मत दें जो दलितों और गरीबों के लिए काम करें, भ्रष्ट न हों, आपराधिक चरित्र के न हों और जो धर्म के आधार पर लोगों में भेदभाव न करें | यद्यपि चर्च आने वालों से यह नहीं कहा गया था कि वे इस या उस पार्टी को वोट दें परन्तु संदेश स्पष्ट था: उन उम्मीदवारों को मत दो जो ईसाईयों के हितों की रक्षा करें |
चुनाव के नतीजे आते ही ईसाई समुदाय में ख़ुशी की लहर व्याप्त हो गई | ईसाईयों ने चैन की साँस ली कि साम्प्रदायिक ताकतों को दिल्ली में सत्ता हासिल नहीं हो सकी |
मैं भी खुश था | हमारे समुदाय के अन्य साथियों को यह संदेश भेज रहा था कि हमारी प्रार्थनाएं सफल हुई हैं और जिन लोगों ने ईसाईयों पर अत्याचार किये थे, उन्हें ईश्वर ने सबक सिखाया है | परन्तु मेरी ख़ुशी तब काफूर हो गई जब मैंने चुनाव परिणामों का गहरे से विश्लेषण किया |
भाजपा को मिली सीटों की संख्या में कमी आई है | सन् २००४ में उसे १३८ सीटें मिली थीं, इस बार ११६ मिली हैं | चुनाव विश्लेषक कह रहे हैं कि जनता ने साम्प्रदायिक ताकतों को नकारा है | क्या सचमुच ऐसा हुआ है ? मुझे डर है कि यह निष्कर्ष सही नहीं है | जिन-जिन इलाकों में भाजपा ने अल्पसंख्यकों के विरुद्ध विषवमन या हिंसा की थी, वहाँ उसे लाभ हुआ है | कंधमाल हिंसा के मुख्य आरोपियों में से एक मनोज प्रधान विधान सभा चुनाव में विजयी हुए हैं | वे जेल में हैं | यद्यपि अशोक साहू कंधमाल से लोकसभा चुनाव हार गए हैं परंतु उन्हें उन विधानसभा क्षेत्रों में अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा वोट मिले हैं जहाँ उन्होंने ईसाई विरोधी हिंसा भड़काई थी |
कर्नाटक में मंगलौर में, जहाँ बजरंग दल के गुंडों ने ईसाईयों के विरुद्ध बड़े पैमाने पर हिंसा की थी, चर्चों में मूर्तियाँ तोडी थीं और ननों की पिटाई की थी, वहाँ से भाजपा के उम्मीदवार नलिन कुमार कटील जीते हैं | हुबली में पबों पर राम सेने के पहलवानों ने हल्ला बोला और वहाँ बैठी लड़कियों को मार भगाया | हुबली के पास उडुपी जिले के एक बीच पर हिन्दुत्ववादियों ने चार्ली चैपलिन की मूर्ति इसलिए नहीं लगने दी थी क्योंकि चैपलिन ईसाई थे | हुबली से भी भाजपा उम्मीदवार डी.व्ही. सदानंद गौडा जीते हैं |
उत्तरप्रदेश के पीलीभीत के लोगों ने मुसलमानों के खिलाफ़ घोर आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करने वाले वरुण गाँधी को भारी बहुमत से जिताया है | मालेगांव, जहाँ साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित ने एक मस्जिद में कथित रूप से विस्फोट कराया था, कांग्रेस का गढ़ रहा है | परंतु इस बार वहाँ से भाजपा के प्रताप सोनावने जीते हैं | आदिवासियों की घर-वापिसी का आन्दोलन चलाने वाले दिलीप सिंह जूदेव भी लोकसभा में पहुँच गए हैं | नरेन्द्र मोदी के गुजरात में-जहाँ मुसलमानों का दानवीकरण लम्बे समय से जारी है- भाजपा की एक सीट बढ़ गई है |
इन तथ्यों से स्पष्ट है कि जिन भी इलाकों में भाजपा या उसके साथी संगठनों ने अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसक अभियान चलाया, उन सभी इलाकों में उसे विजय मिली है | यह बहुत डरावना तथ्य है | क्या भाजपा अपनी विजय को अधिक व्यापक बनाने के लिए और नए -नए इलाकों में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए प्रेरित नहीं होगी ?
मुझे उम्मीद है कि भाजपा का नेतृत्व ऐसा कुछ नहीं करेगा | हो सकता है कि मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने या ननों को पीटने से वे कुछ सीटें जीत जाएं परंतु इस रास्ते से वे सत्ता में नहीं आ पाएंगे | अगर भाजपा भारत की आत्मा के खिलाफ़ काम करेगी तो उसे कभी सफलता नहीं मिलेगी | भाजपा को समझना चाहिए कि उसका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हिटलर और मुसोलिनी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है न कि भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जो सभी धार्मिक समुदायों के मिल-जुलकर रहने पर आधारित है |
भाजपा को इन चुनावों से सकारात्मक सबक सीखने चाहिए | जिस दिन भाजपा अल्पसंख्यकों का विश्वास जीत लेगी वह भारतीय प्रजातंत्र के लिए एक शुभ दिन होगा |
फादर डोमिनीक इमेन्युल, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सी.एन.एस) वेबसाइट: www.citizen-news.org
इंडियन जस्टिस पार्टी के उम्मीदवार बहादुर सोनकर की राजनैतिक हत्या
इंडियन जस्टिस पार्टी के उम्मीदवार बहादुर सोनकर की राजनैतिक हत्या
उदित राज
जाति, अपराध, साम्प्रदायिकता एवं कालाधन भारतीय राजनीति को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं | अपराधी काले धन के सहारे चुनाव लड़ रहे हैं और जातीय एवं साम्प्रदायिक भावनाओं को भुनाने में भी पीछे नहीं हैं | बहादुर सोनकर, जो जौनपुर से इंडियन जस्टिस पार्टी के लोक सभा के प्रत्याशी थे, की हत्या कर दी गयी | दुर्भाग्यवश उ.प्र. की सरकार ने इसे आत्महत्या करार दिया |
श्री बहादुर सोनकर की लटकी लाश का छायाचित्र एवं परिस्थितियों का विवरण संलग्न किया जा रहा है | वे ८ अप्रैल,२००९ से अपनी जान की रक्षा के लिए प्रशासन से गुहार लगाते रहे, सुरक्षा नहीं मिली और अंत में १३ अप्रैल,२००९ को मारकर बबूल के पेड़ से लटका दिया गया | इन परिस्थितियों में हमारे सामने विकल्प सीमित थे और जहाँ भी अपराधी लड़ रहे थे, उनके खिलाफ समर्थन दिया और बसपा के अपराधियों को हराने के लिए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का पुरजोर समर्थन | ऐसे में हमने स्वयं का प्रचार करने के बजाय गुंडों को हराना उचित समझा | सबसे ज्यादा दुःख की बात यह है की एडिशनल डीजी सीबीसीआईडी के नेतृत्व में जाँच की गयी और हत्या को आत्महत्या करार दिया गया | जनतंत्र के लिए यह काला धब्बा है | जब से हम लोग सीबीआई से जाँच की मांग कर रहे हैं, लगातार प्रदेश अध्यक्ष, श्री कालीचरण और प्रदेश महासचिव मो. इसरार उल्ला सिद्दीकी सहित मुझे धमकियाँ मिल रही हैं कि जो हस्र श्री बहादुर सोनकर का हुआ, वही हम लोगों का होगा | अब हम लोगों ने तय कर लिया है कि अंजाम जो भी कुछ हो अपराधीकरण के खिलाफ लडाई लड़ना है | यह एक अवसर है, जहाँ से अपराधीकरण के खिलाफ लडाई लड़ी जा सकती है | आपसे आग्रह है कि जिस स्तर पर आप सहयोग दे सकते हैं दें, ताकि सीबीआई से जाँच होने के साथ-साथ हमारी राजनीति अपराधमुक्त हो जाए | पिछली राष्ट्रीय एकता परिषद् की बैठक में हमने जो वक्तव्य दिया था, उसकी भी प्रति संलग्न कर रहा हूँ | हमने सावधान किया था कि राजनीति का जातीयकरण देश की एकता व अखंडता के लिए बहुत खतरनाक है |
जौनपुर लोक सभा क्षेत्र से इंडियन जस्टिस पार्टी के उम्मीदवार बहादुर सोनकर की राजनैतिक हत्या की परिस्थितियों का संक्षिप्त विवरण
१३ अप्रैल को इंडियन जस्टिस पार्टी के जौनपुर लोकसभा के प्रत्याशी श्री बहादुर सोनकर की हत्या कर दी गयी थी | ८ अप्रैल को सीओ , एसओ, एवं चौकी इंचार्ज ने फोन करके दबाव बनाया था कि सोनकर नामांकन वापस ले लें | इस बात की शिकायत सोनकर ने ९ अप्रैल को जिला अधिकारी, पुलिस अधीक्षक एवं चुनाव पर्यवेक्षकों की बैठक में की थी | उसके बाद लगातार १०,११, व १२ अप्रैल को प्रशासन को बताया जाता रहा | मीडिया में भी खबरें छपती रहीं | १३ अप्रैल की सुबह लगभग ३ बजे जब बहादुर सोनकर के घरवालों ने उन्हें सोता हुआ न पाया तो उन्हें खोजने का प्रयास किया और पुलिस को भी खबर दी |
उ.प्र. सरकार ने इस मामले की जाँच एडिशनल डीजी, सीबीसीआईडी, को सौंपी और उन्होंने १९ अप्रैल को अंतरिम रिपोर्ट देते हुए कहा कि यह आत्महत्या का मामला है | निम्न तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आत्म हत्या नहीं, हत्या का मामला है-
1. अगर श्री सोनकर को आत्म हत्या करनी होती तो वे पहले से आत्म रक्षा की गुहार क्यों लगाते ?
2. उनकी चप्पल वहीं पाई गई जहाँ वे सो रहे थे और बिस्तर दूर रास्ते में पाया गया | इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनका गला या तो वहीं घोट दिया गया था या उनका मुंह दबाकर ले जाया गया |
3. उस दिन रात को इनके घर की बिजली काट दी गयी |
4. १२ अप्रैल की रात में ११:२९ बजे मो. संख्या ९६९६२४८५५६ से बहादुर सोनकर के भाई के मो. नंबर. ९३३६५२२००७ पर फोन आया कि ट्रक से सामान उतरवा लो | बहादुर सोनकर सब्जी और फल का काम करते थे और उस दिन ट्रक आने की कोई आशा नहीं थी | इसलिए उनके भाई घर से बाहर नहीं गए, साजिश यह थी कि भाई बाहर चले जाएँ तो उन्हें घर में ही मार दिया जाए |
5. वे घर से लगभग ७०० मीटर दूर स्थित ऐसे बबूल के पेड़ पर लटके पाए गए, जिस पर चढ़ना असंभव है | इससे जाहिर होता है कि उन्हें मारकर सीढ़ी से लटकाया गया था |
6. पोस्टमार्टम में बहादुर सोनकर के सिर पर चोट, गर्दन के पीछे की हड्डी टूटी और पेट में भी चोट पाई गई है | जिससे स्पष्ट है कि उन्हें लटकाने से पहले मारा गया है |
7. यदि बहादुर सोनकर को आत्म हत्या ही करनी होती तो वे घर में कर सकते थे या नदी में कूदकर | उन्हें दूर जाकर बबूल के पेड़ पर करने की क्या जरुरत थी, जिस पर चढ़ना लगभग असंभव था |
8. श्री बहादुर सोनकर के पैरों में मिटटी लगी थी | यदि वे पेड़ पर चढ़कर गए होते तो ऐसा नहीं होता |
9. जिस गमछे से उनको लटकाया गया था, वह उनका नहीं था |
10. हत्या के दिन ही उ.प्र.सरकार के मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा ने कहा कि इसमें सपा की साजिश है | अगर ऐसा है तो सरकार को सीबीआई से जाँच कराने में हिचक क्यों है ?
11. बहादुर सोनकर की हत्या के कारण दलितों विशेषकर खटीकों में आक्रोश है, अगर सरकार के दामन साफ़ हैं तो सीबीआई से जाँच कराकर दाग क्यों नहीं छुडा लेती ?
12. १९ अप्रैल को प्रेस वार्ता में डीजी पुलिस ने कहा कि पुलिस वालों ने चुनाव में बैठक की सूचना के सम्बन्ध में फोन किया था | डीजी शायद यह नहीं जानते कि यह काम पुलिस का नहीं, बल्कि चुनाव करने वाली एजेंसी/ रिटर्निंग ऑफिस का है | उन्होंने कहा कि पुलिस ने ९ अप्रैल को फोन किया था | यह झूठ है, फोन ८ अप्रैल को ही किया गया था |
13. २३ अप्रैल की सुबह ९:११ बजे फिर मो.संख्या ९६९६२४८५५६ से बहादुर सोनकर के भाई के मो. न०. ९३३६५२२००७ पर फोन आया और उस व्यक्ति ने धमकाया | जब प्रदेश महासचिव, मो० इसरार उल्ला सिद्दीकी ने इस नम्बर पर फोन करके जानना चाहा कि किसका नम्बर है तो उन्हें भी धमकी मिली | इसकी सूचना बहादुर सोनकर के घर वालों ने सीबीसीआईडी को जाँच के समय दे दी थी | मैंने २३ अप्रैल को जौनपुर के पुलिस अधीक्षक को फोन करके घटना से अवगत कराया और इसरार उल्ला सिद्दीकी ने हुसैनगंज थाना, लखनऊ, को लिखित रूप से शिकायत दी लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई |
१६ अप्रैल की रात में इंजपा के प्रदेश अध्यक्ष कालीचरन के निवास पर असलहाधारी लोगों ने हमला करने का प्रयास किया | अब अपराधी श्री कालीचरन व मेरी भी हत्या करने की फिराक में हैं | उपयुक्त सुरक्षा यदि नहीं प्रदान होती तो ये लोग हमारी हत्या कर देंगे और उसे भी दुर्घटना या आत्म हत्या का जामा पहना देंगे | उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि उ।प्र.सरकार किसी भी तरह मामले को रफा-दफा करने पर तुली हुई है |
महोदय, इस समय उ.प्र. में इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रमुख नेताओं को प्रताड़ित किया जा रहा है | उ.प्र.में बसपा अपनी हार का कारण हमें भी मानती है | अपराधी तभी पकड़े
जा सकते हैं, जब इस घटना की जाँच न्यायिक या सीबीआई से करायी जाए |
उदित राज
उदित राज
जाति, अपराध, साम्प्रदायिकता एवं कालाधन भारतीय राजनीति को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं | अपराधी काले धन के सहारे चुनाव लड़ रहे हैं और जातीय एवं साम्प्रदायिक भावनाओं को भुनाने में भी पीछे नहीं हैं | बहादुर सोनकर, जो जौनपुर से इंडियन जस्टिस पार्टी के लोक सभा के प्रत्याशी थे, की हत्या कर दी गयी | दुर्भाग्यवश उ.प्र. की सरकार ने इसे आत्महत्या करार दिया |
श्री बहादुर सोनकर की लटकी लाश का छायाचित्र एवं परिस्थितियों का विवरण संलग्न किया जा रहा है | वे ८ अप्रैल,२००९ से अपनी जान की रक्षा के लिए प्रशासन से गुहार लगाते रहे, सुरक्षा नहीं मिली और अंत में १३ अप्रैल,२००९ को मारकर बबूल के पेड़ से लटका दिया गया | इन परिस्थितियों में हमारे सामने विकल्प सीमित थे और जहाँ भी अपराधी लड़ रहे थे, उनके खिलाफ समर्थन दिया और बसपा के अपराधियों को हराने के लिए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का पुरजोर समर्थन | ऐसे में हमने स्वयं का प्रचार करने के बजाय गुंडों को हराना उचित समझा | सबसे ज्यादा दुःख की बात यह है की एडिशनल डीजी सीबीसीआईडी के नेतृत्व में जाँच की गयी और हत्या को आत्महत्या करार दिया गया | जनतंत्र के लिए यह काला धब्बा है | जब से हम लोग सीबीआई से जाँच की मांग कर रहे हैं, लगातार प्रदेश अध्यक्ष, श्री कालीचरण और प्रदेश महासचिव मो. इसरार उल्ला सिद्दीकी सहित मुझे धमकियाँ मिल रही हैं कि जो हस्र श्री बहादुर सोनकर का हुआ, वही हम लोगों का होगा | अब हम लोगों ने तय कर लिया है कि अंजाम जो भी कुछ हो अपराधीकरण के खिलाफ लडाई लड़ना है | यह एक अवसर है, जहाँ से अपराधीकरण के खिलाफ लडाई लड़ी जा सकती है | आपसे आग्रह है कि जिस स्तर पर आप सहयोग दे सकते हैं दें, ताकि सीबीआई से जाँच होने के साथ-साथ हमारी राजनीति अपराधमुक्त हो जाए | पिछली राष्ट्रीय एकता परिषद् की बैठक में हमने जो वक्तव्य दिया था, उसकी भी प्रति संलग्न कर रहा हूँ | हमने सावधान किया था कि राजनीति का जातीयकरण देश की एकता व अखंडता के लिए बहुत खतरनाक है |
जौनपुर लोक सभा क्षेत्र से इंडियन जस्टिस पार्टी के उम्मीदवार बहादुर सोनकर की राजनैतिक हत्या की परिस्थितियों का संक्षिप्त विवरण
१३ अप्रैल को इंडियन जस्टिस पार्टी के जौनपुर लोकसभा के प्रत्याशी श्री बहादुर सोनकर की हत्या कर दी गयी थी | ८ अप्रैल को सीओ , एसओ, एवं चौकी इंचार्ज ने फोन करके दबाव बनाया था कि सोनकर नामांकन वापस ले लें | इस बात की शिकायत सोनकर ने ९ अप्रैल को जिला अधिकारी, पुलिस अधीक्षक एवं चुनाव पर्यवेक्षकों की बैठक में की थी | उसके बाद लगातार १०,११, व १२ अप्रैल को प्रशासन को बताया जाता रहा | मीडिया में भी खबरें छपती रहीं | १३ अप्रैल की सुबह लगभग ३ बजे जब बहादुर सोनकर के घरवालों ने उन्हें सोता हुआ न पाया तो उन्हें खोजने का प्रयास किया और पुलिस को भी खबर दी |
उ.प्र. सरकार ने इस मामले की जाँच एडिशनल डीजी, सीबीसीआईडी, को सौंपी और उन्होंने १९ अप्रैल को अंतरिम रिपोर्ट देते हुए कहा कि यह आत्महत्या का मामला है | निम्न तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आत्म हत्या नहीं, हत्या का मामला है-
1. अगर श्री सोनकर को आत्म हत्या करनी होती तो वे पहले से आत्म रक्षा की गुहार क्यों लगाते ?
2. उनकी चप्पल वहीं पाई गई जहाँ वे सो रहे थे और बिस्तर दूर रास्ते में पाया गया | इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनका गला या तो वहीं घोट दिया गया था या उनका मुंह दबाकर ले जाया गया |
3. उस दिन रात को इनके घर की बिजली काट दी गयी |
4. १२ अप्रैल की रात में ११:२९ बजे मो. संख्या ९६९६२४८५५६ से बहादुर सोनकर के भाई के मो. नंबर. ९३३६५२२००७ पर फोन आया कि ट्रक से सामान उतरवा लो | बहादुर सोनकर सब्जी और फल का काम करते थे और उस दिन ट्रक आने की कोई आशा नहीं थी | इसलिए उनके भाई घर से बाहर नहीं गए, साजिश यह थी कि भाई बाहर चले जाएँ तो उन्हें घर में ही मार दिया जाए |
5. वे घर से लगभग ७०० मीटर दूर स्थित ऐसे बबूल के पेड़ पर लटके पाए गए, जिस पर चढ़ना असंभव है | इससे जाहिर होता है कि उन्हें मारकर सीढ़ी से लटकाया गया था |
6. पोस्टमार्टम में बहादुर सोनकर के सिर पर चोट, गर्दन के पीछे की हड्डी टूटी और पेट में भी चोट पाई गई है | जिससे स्पष्ट है कि उन्हें लटकाने से पहले मारा गया है |
7. यदि बहादुर सोनकर को आत्म हत्या ही करनी होती तो वे घर में कर सकते थे या नदी में कूदकर | उन्हें दूर जाकर बबूल के पेड़ पर करने की क्या जरुरत थी, जिस पर चढ़ना लगभग असंभव था |
8. श्री बहादुर सोनकर के पैरों में मिटटी लगी थी | यदि वे पेड़ पर चढ़कर गए होते तो ऐसा नहीं होता |
9. जिस गमछे से उनको लटकाया गया था, वह उनका नहीं था |
10. हत्या के दिन ही उ.प्र.सरकार के मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा ने कहा कि इसमें सपा की साजिश है | अगर ऐसा है तो सरकार को सीबीआई से जाँच कराने में हिचक क्यों है ?
11. बहादुर सोनकर की हत्या के कारण दलितों विशेषकर खटीकों में आक्रोश है, अगर सरकार के दामन साफ़ हैं तो सीबीआई से जाँच कराकर दाग क्यों नहीं छुडा लेती ?
12. १९ अप्रैल को प्रेस वार्ता में डीजी पुलिस ने कहा कि पुलिस वालों ने चुनाव में बैठक की सूचना के सम्बन्ध में फोन किया था | डीजी शायद यह नहीं जानते कि यह काम पुलिस का नहीं, बल्कि चुनाव करने वाली एजेंसी/ रिटर्निंग ऑफिस का है | उन्होंने कहा कि पुलिस ने ९ अप्रैल को फोन किया था | यह झूठ है, फोन ८ अप्रैल को ही किया गया था |
13. २३ अप्रैल की सुबह ९:११ बजे फिर मो.संख्या ९६९६२४८५५६ से बहादुर सोनकर के भाई के मो. न०. ९३३६५२२००७ पर फोन आया और उस व्यक्ति ने धमकाया | जब प्रदेश महासचिव, मो० इसरार उल्ला सिद्दीकी ने इस नम्बर पर फोन करके जानना चाहा कि किसका नम्बर है तो उन्हें भी धमकी मिली | इसकी सूचना बहादुर सोनकर के घर वालों ने सीबीसीआईडी को जाँच के समय दे दी थी | मैंने २३ अप्रैल को जौनपुर के पुलिस अधीक्षक को फोन करके घटना से अवगत कराया और इसरार उल्ला सिद्दीकी ने हुसैनगंज थाना, लखनऊ, को लिखित रूप से शिकायत दी लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई |
१६ अप्रैल की रात में इंजपा के प्रदेश अध्यक्ष कालीचरन के निवास पर असलहाधारी लोगों ने हमला करने का प्रयास किया | अब अपराधी श्री कालीचरन व मेरी भी हत्या करने की फिराक में हैं | उपयुक्त सुरक्षा यदि नहीं प्रदान होती तो ये लोग हमारी हत्या कर देंगे और उसे भी दुर्घटना या आत्म हत्या का जामा पहना देंगे | उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि उ।प्र.सरकार किसी भी तरह मामले को रफा-दफा करने पर तुली हुई है |
महोदय, इस समय उ.प्र. में इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रमुख नेताओं को प्रताड़ित किया जा रहा है | उ.प्र.में बसपा अपनी हार का कारण हमें भी मानती है | अपराधी तभी पकड़े
जा सकते हैं, जब इस घटना की जाँच न्यायिक या सीबीआई से करायी जाए |
उदित राज
वर मरे चाहे कन्या,पंडित को दान से मतलब
वर मरे चाहे कन्या,पंडित को दान से मतलब
यह कहावत कभी-कभी बुजुर्ग लोग कहा करते थे, लेकिन मेरी समझ में कभी नहीं आई थी जो अब आई है | खैर आ ही गयी यही क्या कम है ?
शायद आप लोगों की भी समझ में आई हो लेकिन कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहें हो, चाहे वो किसी मंत्री, दादा, सरकार, व्यापारी, या किसी डर के मारे या फिर जुल्म सहने की आदत पड़ गयी हो, या फिर एक सुन्दर समाज, परिवार की कल्पना ही मर गयी हो, या फिर सोंचते होंगे कि चलो जो हो रहा है वो होने दो, मेरे से क्या मतलब, यानी कुल मिलाकर हराम की खाने की आदत हो गयी हो | आप सोंच रहे होंगे कि अगर मैं ही यह सब करने लगूंगा तो शायद मेरा धंधा बंद हो जायेगा |
चलों मैं ही बता देता हूँ और सवाल भी उठा रहा हूँ - अरे भाई-बहनों!आप लोग जानते हुए भी इस मुशीबत का सामना नहीं कर रहे हैं जो आज दूसरे पर पड़ी समझ के छोड़ दे रहे हैं, कल यह मुशीबत ऐसी हो जायेगी कि आप इससे बचने की लाख कोशिश करेंगे तो भी नहीं बच पाएंगे यदि आप इस धरती पर रहेंगे तो ? आप लोग सोंच रहे होंगे कि ऐसी कौन सी मुसीबत है, जो आदमी इससे बचना भी चाहेगा तो भी नहीं बच सकता है, तो लो सुनो- कौन सी समस्या है और कौन मरेगा वर, किस पंडित को चाहिए दान |
वह समस्या है- धूम्रपान, वह वर है- जनता, और वह पंडित है- सरकार | आई बात समझ में ! क्यों चौक गए न ? हाँ साथियों मैं सही बता रहा हूँ | कभी मैं भी सोंचता था कि जो लोग बीड़ी, सिगरेट, गुटखा, शराब, स्मैक, चरस, गांजा, तम्बाकू आदि खाते हैं वो सब अमीर और जिनके पास पैसा है | इससे बड़ी शान बढती है | लेकिन अब पता चला कि यह सब क्यों और किसके लिए किया जा रहा है | जनता और डॉक्टर कहते हैं कि इससे समाज को खतरा के साथ-साथ कई बीमारियाँ होती हैं जो जानलेवा हैं , लेकिन सरकार कहती है कि इससे राजस्व को कई गुना लाभ है |
मेरी समझ के परे है कि जनता को बचाना जरुरी है, कि राजस्व को | मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि जिस देश में, दूध, दही, आम का पना, सरबत, सत्तू का सरबत लोगों के लिए फायदे मंद है वो सब चीजें सरकार ने बंद करवा दिया या फिर उनके लिए बाजार ही नहीं रखा कि कहीं उनकी पहुँच जनता तक न हो जाए और उनकी जगह पर शराब, बियर, धूम्रपान कर दिया है | अभी कोई गरीब किसान, मजदूर कहीं ठेले पर लस्सी या दूध की कोई सामान लगा कर बेंचे तो नगर निगम, पुलिस, ठेकेदार उस पर तमाम तरह की बुराइयाँ लाद देंगे जैसे- आप का लाइसेंस नहीं है, लाइसेंस किसी और चीज का है बेंच आप लस्सी रहे हैं | रोड गन्दी करते हो, नाली गंदगी से पाट देते हो | पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है |
पुलिस आयेगी कहेगी- अरे रात में चोरी हुई थी, तू तो यहीं ठेला लगाता है-बता चोरी किसने की ? यदि आप यहाँ ठेला लगाना चाहते हो तो प्रतिदिन तीन गिलास दूध पैक कर दिया करना ! जनता- तीन गिलास क्यों साहब ? पुलिस- जुबान लडाता है- समझता नहीं एक मेरे लिए, एक मेरी बीबी के लिए, और एक मेरे बच्चे के लिए | यह सारी समस्याएं एक आम नागरिक, गरीब जनता रोज झेलती है | क्या किसी की हिम्मत है कि जो काम सरकार कर रही है उसके सामने कोई अपनी जुबान खोले ? वो क्या - वो यह है कि सरकारें जगह-जगह शराब, पान मसाला, गुटखा, भांग की दुकान खुलवा कर अपनी झोली भर रही हैं | क्या सरकार को यह नहीं मालूम है कि शराब से प्रतिदिन पीकर कितने लोग मरते हैं, शराब झगडे की जड़ है, महिला अत्याचार में शराब की सबसे बड़ी भूमिका है |
आज गली-गली में नव जवानों के लिए बियर बार खुल गए हैं आखिर क्यों इससे कोई शरीर बनता है, या यह स्वस्थ्य के लिए लाभदायक है ? गुटखा खाने से क्या फायदा है ? इस फायदों के विषय में डॉक्टर और इस रोग से ग्रसित परिवार ज्यादा बता पाएंगे, जो दिन रात यही सोंच में डूबे रहते हैं कि कब इस रोग से मुक्ति मिलेगी, कैंसर रोग से मुक्ति पाने के लिए क्या-क्या शोध किया करते हैं ? ३१ मई को कानून पारित हो गया था सभी धूम्रपान के पाकेटों पर कैंसर का चित्र बन कर आयेगा , लेकिन कुछ धूम्रपानो पर अब भी यह नहीं छापा गया है जैसे- तम्बाकू ५५५, श्रीराम तम्बाकू, राधा तम्बाकू आदि |
अब इनको न कोई सरकार बंद कर रही है न कोई पुलिस, न ही नगर निगम | जब सरकार को यह भी मालूम है कि यह सब चीजें स्वास्थ्य, समाज, देश, परिवार, राष्ट्र के लिए प्राणघातक हैं तो इनको क्यों नहीं बंद किया जाता है ? क्या इस तरह के धंधे शुरू करवाने से ही सरकार की आमदनी बढती है, क्या इससे कभी समाज का विकाश हो सकता है ? क्या इससे आने वाली पीढी स्वास्थ्य और निरोगी होगी ? गर्भ में पल रहे बच्चे को कैंसर मुक्त समाज मिल पायेगा, जिसके कंधे पर समाज, देश, राष्ट्र का भार होगा | क्या इस शराब, गुटखा, बियर का वास्तविक जीवन में कोई प्रयोग है ? बिलकुल नहीं |
क्या इसके बिना कोई नहीं जी सकता है ? इसके बिना सब जी सकते हैं, केवल सरकार नहीं ! इसलिए कहते हैं कि जनता मरे तो मरे सरकार को इससे क्या मतलब है ? अरे जो सरकार मौत जैसी चीजों को धड़ल्ले से खुलवा रही हो, जिसे खोलने के लिए कोई दौड़ भाग की जरुरत नहीं होती है, सरकारी कर्मचारी से लेकर, मंत्री तक सब के सब इस गलत धंधें को खुलवाने के लिए माफियाओं के पैर पड़ते रहते हैं | क्या ऐसी सरकारों का कोई मतलब है ? भाई मैं तो समझता हूँ- नहीं | जबकि सरकार यह नहीं जानती कि उसका अस्तित्व जनता के ऊपर निर्भर है | धूम्रपान निषेध कानून को लागू करवाने में पता नहीं कितने डॉक्टर,समाजसेवियों, जनता को दिन रात एक करना पड़ा, जिसे बंद करवाने के लिए जनता की कोई जरुरत ही नहीं थी बल्कि सरकार का काम था कि ऐसी चीजों को प्रतिबंधित करे जिससे समाज को नुकसान हो | जगह-जगह शराब की दुकानों को बंद करवाने के लिए महिलाओं,बच्चों तक को बाहर रोड पर निकलना पड़ा | गाली, मार तक खाना पड़ा, ठेकेदारों द्वारा दी गयी धमकी को सहना पड़ा |
एक तरफ जनता शराब, बियर की दुकानों को बंद कराने के लिए चिल्ला रही है और दूसरी ओर सरकार मंत्री, सरकारी कर्मचारी, पुलिस (जनता के रक्षक, जो आज रक्षक के नाम पर अपवाद हैं) ठेकेदार दुकान खुलवाने को लेकर जनता के ऊपर लाठियाँ भांज रहे हैं | इन सब बातों से यही लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब बच्चा इस दुनिया में आने से पहले ही कैंसर का शिकार हो जायेगा | जनता भूंख से मर ही रही है और अब कैंसर से जबरदस्त तरीके से मरेगी | सरकारों को हर हाल में पैसा चाहिए अपने को समृद्ध बनाने के लिए | जनता मरे या रहे | इसलिए कहते हैं कि अब भी वक्त है जहाँ कहीं शराब,गुटखा,बियरबार, की दुकाने खुली हैं उन्हें बंद करवाने और जनता को इनसे होने वाले नुकसान के प्रति जागरूक करें | यह हम सबका कर्तब्य है, अगर हम लोग एक रोग मुक्त समाज देखना चाहते हैं, साथ में खाना चाहते हैं, घृणा की दृष्टि से बचना चाहते हैं | तो आएये हम सब एक हों, नशा विरोधी बने, नशे को त्यागें, और आने वाले दिनों में एक ऐसी सरकार बनायें जो शराब, बियर, भांग,गांजा,गुटखा,और धूम्रपान की समस्त चीजों को बंद करवाए | जनता का बल, सर्वोत्तम बल |
चुन्नीलाल
(लेखक, लखनऊ स्थित आशा परिवार से जुड़े हुए सामाजिक कार्यकरता हैं और सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सी.एन.एस) के समुदाय पत्रकार भी)
यह कहावत कभी-कभी बुजुर्ग लोग कहा करते थे, लेकिन मेरी समझ में कभी नहीं आई थी जो अब आई है | खैर आ ही गयी यही क्या कम है ?
शायद आप लोगों की भी समझ में आई हो लेकिन कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहें हो, चाहे वो किसी मंत्री, दादा, सरकार, व्यापारी, या किसी डर के मारे या फिर जुल्म सहने की आदत पड़ गयी हो, या फिर एक सुन्दर समाज, परिवार की कल्पना ही मर गयी हो, या फिर सोंचते होंगे कि चलो जो हो रहा है वो होने दो, मेरे से क्या मतलब, यानी कुल मिलाकर हराम की खाने की आदत हो गयी हो | आप सोंच रहे होंगे कि अगर मैं ही यह सब करने लगूंगा तो शायद मेरा धंधा बंद हो जायेगा |
चलों मैं ही बता देता हूँ और सवाल भी उठा रहा हूँ - अरे भाई-बहनों!आप लोग जानते हुए भी इस मुशीबत का सामना नहीं कर रहे हैं जो आज दूसरे पर पड़ी समझ के छोड़ दे रहे हैं, कल यह मुशीबत ऐसी हो जायेगी कि आप इससे बचने की लाख कोशिश करेंगे तो भी नहीं बच पाएंगे यदि आप इस धरती पर रहेंगे तो ? आप लोग सोंच रहे होंगे कि ऐसी कौन सी मुसीबत है, जो आदमी इससे बचना भी चाहेगा तो भी नहीं बच सकता है, तो लो सुनो- कौन सी समस्या है और कौन मरेगा वर, किस पंडित को चाहिए दान |
वह समस्या है- धूम्रपान, वह वर है- जनता, और वह पंडित है- सरकार | आई बात समझ में ! क्यों चौक गए न ? हाँ साथियों मैं सही बता रहा हूँ | कभी मैं भी सोंचता था कि जो लोग बीड़ी, सिगरेट, गुटखा, शराब, स्मैक, चरस, गांजा, तम्बाकू आदि खाते हैं वो सब अमीर और जिनके पास पैसा है | इससे बड़ी शान बढती है | लेकिन अब पता चला कि यह सब क्यों और किसके लिए किया जा रहा है | जनता और डॉक्टर कहते हैं कि इससे समाज को खतरा के साथ-साथ कई बीमारियाँ होती हैं जो जानलेवा हैं , लेकिन सरकार कहती है कि इससे राजस्व को कई गुना लाभ है |
मेरी समझ के परे है कि जनता को बचाना जरुरी है, कि राजस्व को | मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि जिस देश में, दूध, दही, आम का पना, सरबत, सत्तू का सरबत लोगों के लिए फायदे मंद है वो सब चीजें सरकार ने बंद करवा दिया या फिर उनके लिए बाजार ही नहीं रखा कि कहीं उनकी पहुँच जनता तक न हो जाए और उनकी जगह पर शराब, बियर, धूम्रपान कर दिया है | अभी कोई गरीब किसान, मजदूर कहीं ठेले पर लस्सी या दूध की कोई सामान लगा कर बेंचे तो नगर निगम, पुलिस, ठेकेदार उस पर तमाम तरह की बुराइयाँ लाद देंगे जैसे- आप का लाइसेंस नहीं है, लाइसेंस किसी और चीज का है बेंच आप लस्सी रहे हैं | रोड गन्दी करते हो, नाली गंदगी से पाट देते हो | पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है |
पुलिस आयेगी कहेगी- अरे रात में चोरी हुई थी, तू तो यहीं ठेला लगाता है-बता चोरी किसने की ? यदि आप यहाँ ठेला लगाना चाहते हो तो प्रतिदिन तीन गिलास दूध पैक कर दिया करना ! जनता- तीन गिलास क्यों साहब ? पुलिस- जुबान लडाता है- समझता नहीं एक मेरे लिए, एक मेरी बीबी के लिए, और एक मेरे बच्चे के लिए | यह सारी समस्याएं एक आम नागरिक, गरीब जनता रोज झेलती है | क्या किसी की हिम्मत है कि जो काम सरकार कर रही है उसके सामने कोई अपनी जुबान खोले ? वो क्या - वो यह है कि सरकारें जगह-जगह शराब, पान मसाला, गुटखा, भांग की दुकान खुलवा कर अपनी झोली भर रही हैं | क्या सरकार को यह नहीं मालूम है कि शराब से प्रतिदिन पीकर कितने लोग मरते हैं, शराब झगडे की जड़ है, महिला अत्याचार में शराब की सबसे बड़ी भूमिका है |
आज गली-गली में नव जवानों के लिए बियर बार खुल गए हैं आखिर क्यों इससे कोई शरीर बनता है, या यह स्वस्थ्य के लिए लाभदायक है ? गुटखा खाने से क्या फायदा है ? इस फायदों के विषय में डॉक्टर और इस रोग से ग्रसित परिवार ज्यादा बता पाएंगे, जो दिन रात यही सोंच में डूबे रहते हैं कि कब इस रोग से मुक्ति मिलेगी, कैंसर रोग से मुक्ति पाने के लिए क्या-क्या शोध किया करते हैं ? ३१ मई को कानून पारित हो गया था सभी धूम्रपान के पाकेटों पर कैंसर का चित्र बन कर आयेगा , लेकिन कुछ धूम्रपानो पर अब भी यह नहीं छापा गया है जैसे- तम्बाकू ५५५, श्रीराम तम्बाकू, राधा तम्बाकू आदि |
अब इनको न कोई सरकार बंद कर रही है न कोई पुलिस, न ही नगर निगम | जब सरकार को यह भी मालूम है कि यह सब चीजें स्वास्थ्य, समाज, देश, परिवार, राष्ट्र के लिए प्राणघातक हैं तो इनको क्यों नहीं बंद किया जाता है ? क्या इस तरह के धंधे शुरू करवाने से ही सरकार की आमदनी बढती है, क्या इससे कभी समाज का विकाश हो सकता है ? क्या इससे आने वाली पीढी स्वास्थ्य और निरोगी होगी ? गर्भ में पल रहे बच्चे को कैंसर मुक्त समाज मिल पायेगा, जिसके कंधे पर समाज, देश, राष्ट्र का भार होगा | क्या इस शराब, गुटखा, बियर का वास्तविक जीवन में कोई प्रयोग है ? बिलकुल नहीं |
क्या इसके बिना कोई नहीं जी सकता है ? इसके बिना सब जी सकते हैं, केवल सरकार नहीं ! इसलिए कहते हैं कि जनता मरे तो मरे सरकार को इससे क्या मतलब है ? अरे जो सरकार मौत जैसी चीजों को धड़ल्ले से खुलवा रही हो, जिसे खोलने के लिए कोई दौड़ भाग की जरुरत नहीं होती है, सरकारी कर्मचारी से लेकर, मंत्री तक सब के सब इस गलत धंधें को खुलवाने के लिए माफियाओं के पैर पड़ते रहते हैं | क्या ऐसी सरकारों का कोई मतलब है ? भाई मैं तो समझता हूँ- नहीं | जबकि सरकार यह नहीं जानती कि उसका अस्तित्व जनता के ऊपर निर्भर है | धूम्रपान निषेध कानून को लागू करवाने में पता नहीं कितने डॉक्टर,समाजसेवियों, जनता को दिन रात एक करना पड़ा, जिसे बंद करवाने के लिए जनता की कोई जरुरत ही नहीं थी बल्कि सरकार का काम था कि ऐसी चीजों को प्रतिबंधित करे जिससे समाज को नुकसान हो | जगह-जगह शराब की दुकानों को बंद करवाने के लिए महिलाओं,बच्चों तक को बाहर रोड पर निकलना पड़ा | गाली, मार तक खाना पड़ा, ठेकेदारों द्वारा दी गयी धमकी को सहना पड़ा |
एक तरफ जनता शराब, बियर की दुकानों को बंद कराने के लिए चिल्ला रही है और दूसरी ओर सरकार मंत्री, सरकारी कर्मचारी, पुलिस (जनता के रक्षक, जो आज रक्षक के नाम पर अपवाद हैं) ठेकेदार दुकान खुलवाने को लेकर जनता के ऊपर लाठियाँ भांज रहे हैं | इन सब बातों से यही लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब बच्चा इस दुनिया में आने से पहले ही कैंसर का शिकार हो जायेगा | जनता भूंख से मर ही रही है और अब कैंसर से जबरदस्त तरीके से मरेगी | सरकारों को हर हाल में पैसा चाहिए अपने को समृद्ध बनाने के लिए | जनता मरे या रहे | इसलिए कहते हैं कि अब भी वक्त है जहाँ कहीं शराब,गुटखा,बियरबार, की दुकाने खुली हैं उन्हें बंद करवाने और जनता को इनसे होने वाले नुकसान के प्रति जागरूक करें | यह हम सबका कर्तब्य है, अगर हम लोग एक रोग मुक्त समाज देखना चाहते हैं, साथ में खाना चाहते हैं, घृणा की दृष्टि से बचना चाहते हैं | तो आएये हम सब एक हों, नशा विरोधी बने, नशे को त्यागें, और आने वाले दिनों में एक ऐसी सरकार बनायें जो शराब, बियर, भांग,गांजा,गुटखा,और धूम्रपान की समस्त चीजों को बंद करवाए | जनता का बल, सर्वोत्तम बल |
चुन्नीलाल
(लेखक, लखनऊ स्थित आशा परिवार से जुड़े हुए सामाजिक कार्यकरता हैं और सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सी.एन.एस) के समुदाय पत्रकार भी)
जन आंदोलन एवं मीडिया – परिचर्चा एवं चुनाव में मीडिया की भूमिका पर एक रपट का विमोचन
जन आंदोलन एवं मीडिया – परिचर्चा
एवं
चुनाव में मीडिया की भूमिका पर एक रपट का विमोचन
आयोजक: 'मूवमेंट ऑफ़ इंडिया' द्वि-मासिक पत्रिका एवं सच्ची मुच्ची (मासिक)
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एवं
चुनाव में मीडिया की भूमिका पर एक रपट का विमोचन
आयोजक: 'मूवमेंट ऑफ़ इंडिया' द्वि-मासिक पत्रिका एवं सच्ची मुच्ची (मासिक)
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निमंत्रण
सोमवार, १३ जुलाई २००९ को हिन्दी मीडिया सेंटर में जन आंदोलन एवं मीडिया के विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की जायेगी। आप सबसे निवेदन है कि कृपया इस परिचर्चा में सक्रिय भाग लें।
स्थान: हिन्दी मीडिया सेंटर
(जयपुरिया कॉलेज के सामने, गोमती नगर, लखनऊ)
तिथि: सोमवार, १३ जुलाई २००९
समय: ४-६ बजे शाम
इस अवसर पर, चुनाव में मीडिया की भूमिका पर एक रपट भी जारी की जायेगी। यह रपट प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया एवं चुनाव आयोग को भी सौंपी जायेगी।
कृपया इस कार्यक्रम में भाग ले के इस आयोजन की सार्थकता बढ़ायें।
डॉ राहुल पाण्डेय एस आर दारापुरी डॉ संदीप पाण्डेय
सदस्य, संपादक मंडल सदस्य, संपादक मंडल सदस्य, सलाहकार मंडल
मूवमेंट ऑफ़ इंडिया मूवमेंट ऑफ़ इंडिया मूवमेंट ऑफ़ इंडिया
संपर्क फ़ोन: २३४७३६५ (संदीप), ९८३९० ७३३५५ (बाबी रमाकांत)
वाह शाद वाह! – लखनऊ के एक बेहतरीन शायर से एक मुलाक़ात
वाह शाद वाह! – लखनऊ के एक बेहतरीन शायर से एक मुलाक़ात
(अंजली सिंह द्बारा लिए गए साक्षात्कार पर आधारित)
लखनऊ का ज़िक्र होते ही, यहाँ के जाने माने शायर खुशबीर सिंह ‘शाद’ का नाम खुद ब खुद जुबां पर आ ही जाता है।
शाद साहब ने हिन्दी ओर उर्दू जुबां में शायरी की ६ किताबें लिखने के अलावा महेश भट्ट द्वारा निर्मित फिल्म 'धोखा' के गाने लिख कर हजारों दिलों में हलचल मचा दी है।
हाल ही में शाद साहब को अमरीका की ‘अंजुमने तरागुई ए उर्दू’ नामक संस्था ने ‘वर्ष २००८ के सर्वशेष्ठ शायर’ के खिताब से नवाज़ा है। इस मुबारक मौके पर शाद साहब ने अपनी छठी किताब ‘जहाँ तक जिंदगी’ का विमोचन भी किया।
उन्होंने अपने सूफियाना कलाम से समारोह में उपस्थित श्रोताओं का मन मोह कर अपने शहर लखनऊ का नाम रौशन किया।
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस की अंजली सिंह को दिए गए एक इन्टरव्यू में उन्होंने बताया कि उनके प्रवासी भारतीय प्रशंसकों को ‘मेरे लफ्जों में शायद उनको वतन की खुशबू आती है’। तभी तो वे उनसे इतनी बेपनाह मुहब्बत करते हैं। हजारों मील दूर रहकर भी वे कला के माध्यम से खुद को अपने देश से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। इसीलिए तो जांत पांत के बंधनों से ऊपर उठ कर, वे मुशायरों में शिरकत करते हुए, शाद साहब के शेरों पर दाद देते हैं।
खुशबीर जी हिन्दी ओर उर्दू, दोनों ही भाषाओं में लिखते हैं। पर उनके हिसाब से ‘उर्दू जान है शायरी की’। इसलिए, जिसे शेरो शायरी से प्यार हैं उसे थोड़ी बहुत उर्दू ज़रूर आनी चाहिए। और फिर उनको पढ़ने वाले, जो पाकिस्तान, अमरीका. यूं.के., नॉर्वे ओर अरब देशों में रहते हैं, वे हिन्दी ओर उर्दू दोनों ही जुबानें जानते हैं।
शाद साहब का यह मानना है कि शायरी को गहराई से समझने के लिए, उर्दू भाषा का ज्ञान होना ज़रूरी है। उन्होंने खुद भी ४० साल की उम्र में उर्दू सीखी। यह सन् १९९२ की बात है, जब उनकी पहली पुस्तक ‘जाने कब ये मौसम बदले’ प्रकाशित हुई । उस वक्त उनके गुरु वली असी साहब ने उनसे एक वायदा लिया कि वो एक साल के अन्दर उर्दू सीखकर अपनी अगली किताब उर्दू भाषा में ही लिखेंगे।
इस वायदे को पूरा करने के लिए शाद साहब ने अवकाश प्राप्त सूचना अधिकारी सुलतान खान साहिब से उर्दू सीखनी शुरू करी। तब उन्हें वली असी साहब की नसीहत का मतलब समझ आया। वाकई , शायरी का सार समझाने के लिए उर्दू जुबां को जानना ज़रूरी है। तभी शेर कहने का सही तरीका भी समझ आता है।
शायरी लिखने का शौक शाद साहब को विरासत में नहीं मिला। उनके परिवार में कोई भी शख्स इसमें दिलचस्पी नहीं रखता था (हालांकि उनके पिताजी का तखल्लुस ‘दिलगीर’ ज़रूर था)। पर खुशबीर जी बचपन से ही बहुत भावुक होने के कारण कविता सुनना पसंद करते थे। अपने ख्यालों की दुनिया में खोये हुए, वो घंटों अपने घर की छत पर चहलकदमी किया करते। फिर जब उन्होंने हिंद पाकेट बुक्स द्बारा प्रकाशित कविता की एक किताब खरीद कर पढ़ी, तब उनका कविता लिखने का शौक भी परवान चढ़ा। वो वली असी साहब के शागिर्द बन गए और फिर उनका कलाम धीरे धीरे आसमान की बुलंदियों को छूने लगा।
इतने लोकप्रिय शायर होने के बावजूद, शाद साहब मुशायरों में शिरकत कम ही करते हैं। उनका कहना है कि आजकल इस प्रकार के समारोहों का स्तर बहुत गिर गया है। जो शेर पढ़े जाते हैं वो दिल से नहीं निकलते, बल्कि श्रोताओं के मनोभावों को खुश करने के लिए होते हैं। शायरी को समकालीन समाज का प्रतिबिम्ब होना चाहिए, न कि भौंडी अशिष्टता का। आज के श्रोता तो ‘शायरी शिष्टाचार’ भी भूल चुके हैं। जब कोई शेर पढ़ा जाता है तो उस पर ताली बजाना तहज़ीब के ख़िलाफ़ है। पर आजकल के शायर भी यही चाहते हैं कि उनके हर शेर की दाद तालियाँ बजा कर ही दी जाए ।
इसीलिए शाद साहब ऐसे समारोहों से दूर ही रहना पसंद करते हैं। जो लोग उनके कलाम से परिचित हैं वो उनकी किताबें पढ़ कर उनके एहसासों को समझते हैं। ओर फिर सिर्फ़ मुशायरे में भाग ले कर ही तो कोई अच्छा शायार नहीं बन जाता। संत कबीर भी तो गज़ब के शेर कहते थे, पर वो कभी किसी मुशायरे में नहीं गए।
यह पूछे जाने पर कि उनका सबसे बड़ा आलोचक कौन है, उन्होंने अपने ही अंदाज़ में फरमाया, ‘मुझसे बढ़कर कौन है दुश्मन मेरा मेरे सिवा, है मुमकिन मेरी ही जात ले डूबे मुझको ’।
वो मानते हैं कि एक शायर को लम्हों में जीना सीख लेना चाहिए। तभी उसकी शायरी परवान चढ़ पायेगी। इसीलिए वो बड़ी ईमानदारी से अपने काम की खुद ही कडी आलोचना करते हैं। उनका कहना है, ‘ क्यूँकी किरदार शेरों में अपना हक माँगते हैं मुझसे’। इसलिए अपने फन के जानिब ईमानदार होना निहायत ज़रूरी है।
दर्द ओर उदासी से भारी हुई उनकी शायरी का अंदाज़े बयाँ कुछ और ही है। उनके ही लफ्जों में, ‘किया जिंदगी ने पहले मुस्तरद्द मुझको, फिर उसके बाद बख्शी मेरे होने की सनत मुझको’.
जिंदगी से उन्होंने जो कुछ भी सीखा है, उसी कशिश को उन्होंने अपनी शायरी में उतारा है।
यह पूछे जाने पर कि उनके परिवार वाले उनकी शायरी के बारे में क्या सोचते हैं, उन्होंने ने कहा कि आज वो बुलंदी के जिस मुकाम पर पहुंचे हैं उसका सारा श्रेय उनकी पत्नी ओर बेटी अस्मित को जाता है। उन दोनों की मदद के बगैर वो कुछ भी नही कर सकते थे। अपने परिवार के लिए उनके मन में जो एहसास हैं उन्हें वो इन दो शेरों में कितनी खूबसूरती से पिरोते हैं --- ‘मेरी खातिर जिसने दुनिया भर की खुशियाँ छोड़ दीं, सोचता हूँ उसको क्या मिला मेरे सिवा; कभी देखी नहीं कोई शिकायत उसकी आंखों में, वो मेरी बेबसी ओर बेकसी शायद समझता था’।
इतनी बढ़िया गुफ्तगू के बाद हम तो यही कह सकते हैं कि ‘ वाह! शाद साहब वाह!'
(अंजली सिंह द्बारा लिए गए साक्षात्कार पर आधारित)
लखनऊ का ज़िक्र होते ही, यहाँ के जाने माने शायर खुशबीर सिंह ‘शाद’ का नाम खुद ब खुद जुबां पर आ ही जाता है।
शाद साहब ने हिन्दी ओर उर्दू जुबां में शायरी की ६ किताबें लिखने के अलावा महेश भट्ट द्वारा निर्मित फिल्म 'धोखा' के गाने लिख कर हजारों दिलों में हलचल मचा दी है।
हाल ही में शाद साहब को अमरीका की ‘अंजुमने तरागुई ए उर्दू’ नामक संस्था ने ‘वर्ष २००८ के सर्वशेष्ठ शायर’ के खिताब से नवाज़ा है। इस मुबारक मौके पर शाद साहब ने अपनी छठी किताब ‘जहाँ तक जिंदगी’ का विमोचन भी किया।
उन्होंने अपने सूफियाना कलाम से समारोह में उपस्थित श्रोताओं का मन मोह कर अपने शहर लखनऊ का नाम रौशन किया।
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस की अंजली सिंह को दिए गए एक इन्टरव्यू में उन्होंने बताया कि उनके प्रवासी भारतीय प्रशंसकों को ‘मेरे लफ्जों में शायद उनको वतन की खुशबू आती है’। तभी तो वे उनसे इतनी बेपनाह मुहब्बत करते हैं। हजारों मील दूर रहकर भी वे कला के माध्यम से खुद को अपने देश से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। इसीलिए तो जांत पांत के बंधनों से ऊपर उठ कर, वे मुशायरों में शिरकत करते हुए, शाद साहब के शेरों पर दाद देते हैं।
खुशबीर जी हिन्दी ओर उर्दू, दोनों ही भाषाओं में लिखते हैं। पर उनके हिसाब से ‘उर्दू जान है शायरी की’। इसलिए, जिसे शेरो शायरी से प्यार हैं उसे थोड़ी बहुत उर्दू ज़रूर आनी चाहिए। और फिर उनको पढ़ने वाले, जो पाकिस्तान, अमरीका. यूं.के., नॉर्वे ओर अरब देशों में रहते हैं, वे हिन्दी ओर उर्दू दोनों ही जुबानें जानते हैं।
शाद साहब का यह मानना है कि शायरी को गहराई से समझने के लिए, उर्दू भाषा का ज्ञान होना ज़रूरी है। उन्होंने खुद भी ४० साल की उम्र में उर्दू सीखी। यह सन् १९९२ की बात है, जब उनकी पहली पुस्तक ‘जाने कब ये मौसम बदले’ प्रकाशित हुई । उस वक्त उनके गुरु वली असी साहब ने उनसे एक वायदा लिया कि वो एक साल के अन्दर उर्दू सीखकर अपनी अगली किताब उर्दू भाषा में ही लिखेंगे।
इस वायदे को पूरा करने के लिए शाद साहब ने अवकाश प्राप्त सूचना अधिकारी सुलतान खान साहिब से उर्दू सीखनी शुरू करी। तब उन्हें वली असी साहब की नसीहत का मतलब समझ आया। वाकई , शायरी का सार समझाने के लिए उर्दू जुबां को जानना ज़रूरी है। तभी शेर कहने का सही तरीका भी समझ आता है।
शायरी लिखने का शौक शाद साहब को विरासत में नहीं मिला। उनके परिवार में कोई भी शख्स इसमें दिलचस्पी नहीं रखता था (हालांकि उनके पिताजी का तखल्लुस ‘दिलगीर’ ज़रूर था)। पर खुशबीर जी बचपन से ही बहुत भावुक होने के कारण कविता सुनना पसंद करते थे। अपने ख्यालों की दुनिया में खोये हुए, वो घंटों अपने घर की छत पर चहलकदमी किया करते। फिर जब उन्होंने हिंद पाकेट बुक्स द्बारा प्रकाशित कविता की एक किताब खरीद कर पढ़ी, तब उनका कविता लिखने का शौक भी परवान चढ़ा। वो वली असी साहब के शागिर्द बन गए और फिर उनका कलाम धीरे धीरे आसमान की बुलंदियों को छूने लगा।
इतने लोकप्रिय शायर होने के बावजूद, शाद साहब मुशायरों में शिरकत कम ही करते हैं। उनका कहना है कि आजकल इस प्रकार के समारोहों का स्तर बहुत गिर गया है। जो शेर पढ़े जाते हैं वो दिल से नहीं निकलते, बल्कि श्रोताओं के मनोभावों को खुश करने के लिए होते हैं। शायरी को समकालीन समाज का प्रतिबिम्ब होना चाहिए, न कि भौंडी अशिष्टता का। आज के श्रोता तो ‘शायरी शिष्टाचार’ भी भूल चुके हैं। जब कोई शेर पढ़ा जाता है तो उस पर ताली बजाना तहज़ीब के ख़िलाफ़ है। पर आजकल के शायर भी यही चाहते हैं कि उनके हर शेर की दाद तालियाँ बजा कर ही दी जाए ।
इसीलिए शाद साहब ऐसे समारोहों से दूर ही रहना पसंद करते हैं। जो लोग उनके कलाम से परिचित हैं वो उनकी किताबें पढ़ कर उनके एहसासों को समझते हैं। ओर फिर सिर्फ़ मुशायरे में भाग ले कर ही तो कोई अच्छा शायार नहीं बन जाता। संत कबीर भी तो गज़ब के शेर कहते थे, पर वो कभी किसी मुशायरे में नहीं गए।
यह पूछे जाने पर कि उनका सबसे बड़ा आलोचक कौन है, उन्होंने अपने ही अंदाज़ में फरमाया, ‘मुझसे बढ़कर कौन है दुश्मन मेरा मेरे सिवा, है मुमकिन मेरी ही जात ले डूबे मुझको ’।
वो मानते हैं कि एक शायर को लम्हों में जीना सीख लेना चाहिए। तभी उसकी शायरी परवान चढ़ पायेगी। इसीलिए वो बड़ी ईमानदारी से अपने काम की खुद ही कडी आलोचना करते हैं। उनका कहना है, ‘ क्यूँकी किरदार शेरों में अपना हक माँगते हैं मुझसे’। इसलिए अपने फन के जानिब ईमानदार होना निहायत ज़रूरी है।
दर्द ओर उदासी से भारी हुई उनकी शायरी का अंदाज़े बयाँ कुछ और ही है। उनके ही लफ्जों में, ‘किया जिंदगी ने पहले मुस्तरद्द मुझको, फिर उसके बाद बख्शी मेरे होने की सनत मुझको’.
जिंदगी से उन्होंने जो कुछ भी सीखा है, उसी कशिश को उन्होंने अपनी शायरी में उतारा है।
यह पूछे जाने पर कि उनके परिवार वाले उनकी शायरी के बारे में क्या सोचते हैं, उन्होंने ने कहा कि आज वो बुलंदी के जिस मुकाम पर पहुंचे हैं उसका सारा श्रेय उनकी पत्नी ओर बेटी अस्मित को जाता है। उन दोनों की मदद के बगैर वो कुछ भी नही कर सकते थे। अपने परिवार के लिए उनके मन में जो एहसास हैं उन्हें वो इन दो शेरों में कितनी खूबसूरती से पिरोते हैं --- ‘मेरी खातिर जिसने दुनिया भर की खुशियाँ छोड़ दीं, सोचता हूँ उसको क्या मिला मेरे सिवा; कभी देखी नहीं कोई शिकायत उसकी आंखों में, वो मेरी बेबसी ओर बेकसी शायद समझता था’।
इतनी बढ़िया गुफ्तगू के बाद हम तो यही कह सकते हैं कि ‘ वाह! शाद साहब वाह!'
एक महीने के बाद भी तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी नहीं
एक महीने के बाद भी तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी नियमानुसार नहीं
३१ मई २००९ से भारत में तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी छापनी कानूनन जरूरी हो गई थीं. एक महीने के बाद भी लखनऊ शहर में तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी, सरकारी निर्देश के अनुसार, या तो नहीं छप रहीं हैं या फिर किसी-न-किसी बिन्दु पर खरी नहीं उतर रही हैं.
लखनऊ के ५० तम्बाकू विक्रय दुकानों में आज नागरिकों ने जनता जांच के तहत यह मुआएना किया कि क्या तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी छप रही हैं, क्या तम्बाकू पैकेट का ४०% सामने के भाग में यह चेतावनी छप रही हैं, क्या चेतावनी उसी भाषा में हैं जिस भाषा में तम्बाकू पैकेट पर अन्य अक्षर छपे हैं, क्या चेतावनी को पढ़ने की दिशा वही है जो छपे हुए ब्रांड की है इत्यादि.
सरकारी निर्देश के अनुसार, तम्बाकू उत्पादनों के पैकेट के सामने के ४०% भाग में चित्रमय चेतावनी छपी होनी चाहिए, जो उसी भाषा में हों जिस भाषा में तम्बाकू पैकेट पर अन्य अक्षर छपे हुए हैं, और उसी दिशा में पढ़ी जा रही हों जिस दिशा में अन्य अक्षर पढ़े जा रहे हैं.
तम्बाकू चित्रमय चेतावनियों पर जागरूकता के लिए एक हिन्दी भाषा में 'फैक्टशीट कार्ड' भी वितरित की गई जो २९ मई २००९ को छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के अध्यक्ष एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन के महा-निदेशक द्वारा २००५ में पुरुस्कृत प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त ने उत्तर प्रदेश प्रेस क्लब में जारी की थी.
इस जनता जांच में जो निष्कर्ष निकल कर आए, वोह यह हैं कि:
- चित्रमय चेतावनी को लागु होने के एक महीने बाद भी कई ऐसे तम्बाकू उत्पादन लखनऊ में बिक रहे हैं जिनपर कोई भी चित्रमय चेतावनी नहीं है – इसमें अनेकों सिगरेट ब्रांड हैं (दोनों – देसी और विदेसी ब्रांड)
- पूरी जनता जांच में सिर्फ़ एक सिगरेट ऐसी निकल कर आई जो भारत सरकार के सभी मानकों को पूरा करते हुए चित्रमय चेतावनी छाप रही थी
- अधिकाँश गुटखा और बीड़ी पैकेट पर चित्रमय चेतावनी छप रही है परन्तु वोह भारत सरकार के मानकों के अनुसार नहीं है – जैसे कि तम्बाकू पैकेट के ४०% सामने के हिस्से में सफ़ेद रंग तो है पर चेतावनी बहुत छोटी छपी है, या फिर वोह उस दिशा में नहीं पढ़ी जाती है जिस दिशा में तम्बाकू ब्रांड पढ़ा जा रहा है, आदि
- जिन तम्बाकू पैकेट पर चित्रमय चेतावनी हैं, वोह पैकेट के सामने सिर्फ़ १०-३० प्रतिशत ही जगह ले रही है
“तम्बाकू से भारत में प्रतिवर्ष ९ लाख से अधिक लोग मृत्यु का शिकार होते हैं, और हर दिन २,५०० लोग मात्र भारत में ही तम्बाकू जनित कारणों से मरते हैं. इसके अनुपात को रोकने के लिए आवश्यक है कि व्यापक तम्बाकू नियंत्रण कार्यक्रमों को प्रभावकारी ढंग से सक्रिय किया जाए. तम्बाकू पैकेट पर चित्रमय चेतावनी छापना, तम्बाकू नियंत्रण का एक प्रभावकारी तरीका है जो कई देशों में जन-स्वास्थ्य हितैषी नतीजे दे रहा है” कहना है प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त का, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक के अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त वरिष्ठ शल्य-चिकित्सक हैं।
इस जनता जांच एवं मूल्यांकन में अनेकों सामाजिक संगठनों के लोग शामिल थे जिनमें इंडियन सोसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग, आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (उत्तर प्रदेश), अभिनाव भारत फाउंडेशन आदि प्रमुख हैं।
प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त (विभागाध्यक्ष, सर्जरी विभाग, छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय), डॉ संदीप पाण्डेय (जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय), राहुल कुमार द्विवेदी (अभिनव भारत फाउंडेशन), रितेश आर्य (इंडियन सोसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग), चुन्नी लाल (आशा परिवार), बाबी रमाकांत (विश्व स्वास्थ्य संगठन पुरुस्कार २००८)
संपर्क फ़ोन ९८३९० ७३३५५
३१ मई २००९ से भारत में तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी छापनी कानूनन जरूरी हो गई थीं. एक महीने के बाद भी लखनऊ शहर में तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी, सरकारी निर्देश के अनुसार, या तो नहीं छप रहीं हैं या फिर किसी-न-किसी बिन्दु पर खरी नहीं उतर रही हैं.
लखनऊ के ५० तम्बाकू विक्रय दुकानों में आज नागरिकों ने जनता जांच के तहत यह मुआएना किया कि क्या तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी छप रही हैं, क्या तम्बाकू पैकेट का ४०% सामने के भाग में यह चेतावनी छप रही हैं, क्या चेतावनी उसी भाषा में हैं जिस भाषा में तम्बाकू पैकेट पर अन्य अक्षर छपे हैं, क्या चेतावनी को पढ़ने की दिशा वही है जो छपे हुए ब्रांड की है इत्यादि.
सरकारी निर्देश के अनुसार, तम्बाकू उत्पादनों के पैकेट के सामने के ४०% भाग में चित्रमय चेतावनी छपी होनी चाहिए, जो उसी भाषा में हों जिस भाषा में तम्बाकू पैकेट पर अन्य अक्षर छपे हुए हैं, और उसी दिशा में पढ़ी जा रही हों जिस दिशा में अन्य अक्षर पढ़े जा रहे हैं.
तम्बाकू चित्रमय चेतावनियों पर जागरूकता के लिए एक हिन्दी भाषा में 'फैक्टशीट कार्ड' भी वितरित की गई जो २९ मई २००९ को छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के अध्यक्ष एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन के महा-निदेशक द्वारा २००५ में पुरुस्कृत प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त ने उत्तर प्रदेश प्रेस क्लब में जारी की थी.
इस जनता जांच में जो निष्कर्ष निकल कर आए, वोह यह हैं कि:
- चित्रमय चेतावनी को लागु होने के एक महीने बाद भी कई ऐसे तम्बाकू उत्पादन लखनऊ में बिक रहे हैं जिनपर कोई भी चित्रमय चेतावनी नहीं है – इसमें अनेकों सिगरेट ब्रांड हैं (दोनों – देसी और विदेसी ब्रांड)
- पूरी जनता जांच में सिर्फ़ एक सिगरेट ऐसी निकल कर आई जो भारत सरकार के सभी मानकों को पूरा करते हुए चित्रमय चेतावनी छाप रही थी
- अधिकाँश गुटखा और बीड़ी पैकेट पर चित्रमय चेतावनी छप रही है परन्तु वोह भारत सरकार के मानकों के अनुसार नहीं है – जैसे कि तम्बाकू पैकेट के ४०% सामने के हिस्से में सफ़ेद रंग तो है पर चेतावनी बहुत छोटी छपी है, या फिर वोह उस दिशा में नहीं पढ़ी जाती है जिस दिशा में तम्बाकू ब्रांड पढ़ा जा रहा है, आदि
- जिन तम्बाकू पैकेट पर चित्रमय चेतावनी हैं, वोह पैकेट के सामने सिर्फ़ १०-३० प्रतिशत ही जगह ले रही है
“तम्बाकू से भारत में प्रतिवर्ष ९ लाख से अधिक लोग मृत्यु का शिकार होते हैं, और हर दिन २,५०० लोग मात्र भारत में ही तम्बाकू जनित कारणों से मरते हैं. इसके अनुपात को रोकने के लिए आवश्यक है कि व्यापक तम्बाकू नियंत्रण कार्यक्रमों को प्रभावकारी ढंग से सक्रिय किया जाए. तम्बाकू पैकेट पर चित्रमय चेतावनी छापना, तम्बाकू नियंत्रण का एक प्रभावकारी तरीका है जो कई देशों में जन-स्वास्थ्य हितैषी नतीजे दे रहा है” कहना है प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त का, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक के अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त वरिष्ठ शल्य-चिकित्सक हैं।
इस जनता जांच एवं मूल्यांकन में अनेकों सामाजिक संगठनों के लोग शामिल थे जिनमें इंडियन सोसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग, आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (उत्तर प्रदेश), अभिनाव भारत फाउंडेशन आदि प्रमुख हैं।
प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त (विभागाध्यक्ष, सर्जरी विभाग, छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय), डॉ संदीप पाण्डेय (जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय), राहुल कुमार द्विवेदी (अभिनव भारत फाउंडेशन), रितेश आर्य (इंडियन सोसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग), चुन्नी लाल (आशा परिवार), बाबी रमाकांत (विश्व स्वास्थ्य संगठन पुरुस्कार २००८)
संपर्क फ़ोन ९८३९० ७३३५५
तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी सरकारी निर्देश के अनुसार नहीं लग रही है
तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी सरकारी निर्देश के अनुसार नहीं लग रही है
मुंबई में अब तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी दिखने लगी है। अब सिगरेट, बीड़ी, गुटखा, आदि के डिब्बों पर या 'सैचेट' पर चित्रमय चेतावनी छपने लगी है।
परन्तु यह चेतावनी उस तरह से नहीं छाप रही है जिस तरह से केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने प्रस्तावित की थी। गुटखा एवं बीड़ी पर तो चित्रमय चेतावनी दिखने लगी है परन्तु सिगरेट - देसी एवं विदेसी दोनों पर - ऐसी चेतावनी नहीं दिख रही है। जो तम्बाकू उत्पादनों के पैकेट चित्रमय चेतावनी छाप रहे हैं, वोह कोई न कोई सरकारी निर्देश को नज़रंदाज़ कर रहे हैं।
उदाहरण के तौर पर, स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार तम्बाकू उत्पादनों के पैकेट के ४० प्रतिशत भाग पर चित्रमय चेतावनी होनी चाहिए थी, यह चेतावनी, पैकेट के सामने वाले भाग में होनी चाहिए, उपरी सतह से समानांतर होनी चाहिए, और उसी दिशा में पढ़ी जानी चाहिए जिस दिशा में पैकेट पर छपे अन्य अक्षर पढ़े जा रहे हैं। सरकारी निर्देश के अनुसार यह चेतावनी उसी भाषा में प्रकाशित होनी चाहिए जिस भाषा में अन्य अक्षर पैकेट पर लिखे गए हैं।
मुंबई में अब तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी दिखने लगी है। अब सिगरेट, बीड़ी, गुटखा, आदि के डिब्बों पर या 'सैचेट' पर चित्रमय चेतावनी छपने लगी है।
परन्तु यह चेतावनी उस तरह से नहीं छाप रही है जिस तरह से केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने प्रस्तावित की थी। गुटखा एवं बीड़ी पर तो चित्रमय चेतावनी दिखने लगी है परन्तु सिगरेट - देसी एवं विदेसी दोनों पर - ऐसी चेतावनी नहीं दिख रही है। जो तम्बाकू उत्पादनों के पैकेट चित्रमय चेतावनी छाप रहे हैं, वोह कोई न कोई सरकारी निर्देश को नज़रंदाज़ कर रहे हैं।
उदाहरण के तौर पर, स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार तम्बाकू उत्पादनों के पैकेट के ४० प्रतिशत भाग पर चित्रमय चेतावनी होनी चाहिए थी, यह चेतावनी, पैकेट के सामने वाले भाग में होनी चाहिए, उपरी सतह से समानांतर होनी चाहिए, और उसी दिशा में पढ़ी जानी चाहिए जिस दिशा में पैकेट पर छपे अन्य अक्षर पढ़े जा रहे हैं। सरकारी निर्देश के अनुसार यह चेतावनी उसी भाषा में प्रकाशित होनी चाहिए जिस भाषा में अन्य अक्षर पैकेट पर लिखे गए हैं।
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