भ्रष्ट एवं अपराधी उम्मीदवारों को अस्वीकार करें

[English] भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में एक सवाल खड़ा हुआ है। चुनावों में चुनाव आयोग द्वारा तय खर्च सीमा से बहुत ज्यादा पैसा खर्च किया जाएगा। वर्तमान में हो रहे विधान सभा चुनावों में सभी बड़े राजनीतिक दलों के प्रत्याशी औसतन एक करोड़ से अधिक खर्च करेंगे। हाल ही में एक टी.वी. चैनल द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन में तो कुछ उम्मीदवारों ने बताया कि वे इससे कई गुणा अधिक खर्च करेंगे। जबकि खर्च सीमा है सोलह लाख रुपए। जाहिर है कि सोलह लाख के ऊपर जो भी खर्च होगा वह भ्रष्टाचार का पैसा है, वह काला धन है। यानी हमारी राजनीतिक व्यवस्था की नींव में ही भ्रष्टाचार है। अब हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसे जन प्रतिनिधि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई सख्त कानून बनाएंगे?

मगसेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पांडे जो लोक राजनीति मंच और सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े हैं, उन्होने बताया कि: वर्तमान संसद में तीन सौ के ऊपर सांसद करोड़पति हैं और डेढ़ सौ के ऊपर के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। क्या वाकई में जनता चाहती है कि ऐसे ही लोग उसके प्रतिनिधि बनें? साफ है कि चुनाव में पैसा व बाहुबल हावी है।

डॉ संदीप पांडे ने कहा कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में यह सवाल खड़ा हुआ है कि हम भ्रष्ट एवं आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों पर अंकुश कैसे लगाएं। इसका एक तरीका तो फिलहाल जनता के पास है। यदि जनता को कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है अथवा ऐसा प्रतीत होता है कि कोई भी उसका मत पाने का हकदार नहीं है तो वह धारा 49 (ओ) के तहत फार्म 17 ए मांग कर उस पर अपना मत किसी को न देने की मंशा दर्ज करा सकती है। इस तरह जनता को अवांछनीय प्रत्याशियों को खारिज करने का अधिकार तो है लेकिन बहुत सारे लोगों को इसके बारे में जानकारी ही नहीं है। जिनको जानकारी है उन्हें इसका इस्तेमाल करने में दिक्कत आती है क्योंकि फार्म 17 ए आसानी से मतदान केन्द्र पर उपलब्ध नहीं कराया जाता। अधिकारी नहीं चाहते हैं कि जनता इस अधिकार का इस्तेमाल करे। यदि जनता ने बड़े पैमाने पर प्रमुख राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को खारिज करना शुरू कर दिया तो लोकतंत्र या जिसको वे लोकतंत्र मानते हैं खतरे में पड़ जाएगा।

डॉ संदीप पांडे ने कहा कि कायदे से तो जैसे चुनाव आयोग या निर्वाचन अधिकारी विज्ञापन निकाल कर या अन्य जागरूकता हेतु अभियान चला कर जनता को प्रेरित कर रहे हैं कि वह अपने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल करे उसी तरह उन्हें जनता को इस बात के लिए भी जागरूक करना चाहिए कि वह भ्रष्ट एवं आपराधिक प्रत्याशियों को धारा 49 (ओ) के तहत दिए गए अधिकार का इस्तेमाल कर खारिज करे। क्यों नहीं अभी तक जनता को यह विकल्प मतपत्र या इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर दिया गया है? यदि इ. वी. एम. पर यह विकल्प जनता को एक बटन के रूप में दिया गया होता तो इस विकल्प का इस्तेमाल करना कितना आसान होता। निश्चित रूप से यदि सभी उम्मीदवारों को खारिज करने के अधिकार को सहज रूप से इस्तेमाल करने का विकल्प जनता को दिया जाए तो मतदान प्रतिशत में और बढ़ोतरी हागी। जिस तरह किसी को मत देना हमारा अधिकार उसी तरह सभी को खारिज करना भी हमारा उतना ही अधिकार है। इस मामले में चुनाव आयोग की भूमिका बहुत स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ रही।

सी.एन.एस.

नशा और महिला असमानता मुद्दों पर आधारित हैं लखनऊ युवा मनस्वी भवतोष की फिल्में

[English] लखनऊ के युवा लघु-फिल्म-निर्माता मनस्वी भवतोष ने सी.एन.एस. मासिक फिल्म प्रदर्शन में सामाजिक मुद्दों पर लघु-फिल्मों का प्रदर्शन किया और दर्शकों से संवाद में भाग लिया। यह सी.एन.एस. मासिक फिल्म प्रदर्शन इन्दिरा नगर सी-ब्लॉक चौराहे स्थित प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त केंद्र पर आयोजित हुआ था।

मनस्वी भवतोष ने अबतक पाँच लघु फिल्में निर्देशित की हैं जो इस प्रकार हैं: ‘द फेस’, एहसास, ‘आई एम सेवेंटीन आई वाज सेवेंटीन’, कशमकश और फिल्म ‘व्हाई मी’ में वें सहायक निर्देशक रहे हैं. उनहोने नौ फिल्मों और नाटकों में सम्पादन का कार्य किया है और सात फिल्मों/ नाटकों में चल-चित्रकार का कार्य भी किया है।

मनस्वी भवतोष ने मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी भाग लिया है और ‘कन्या भ्रूण हत्या’ की मुद्दे पर ‘आजतक’ टी.वी. द्वारा आयोजित फिल्म प्रतियोगिता में  भी भाग लिया है।

मनस्वी भवतोष ने अपनी शिक्षा गोमती नगर लखनऊ स्थित भारतीय विद्या भवन से ग्रहण की और भोपाल की एम.सी.आर.पी. विश्वविद्यालय से ‘इलेक्ट्रोनिक मीडिया’ में स्नातक की डिग्री हासिल की।  मनस्वी ने माया अकादेमी ऑफ एडवानस्ड सिनेमैटिक से सम्पादन में विशेषता हासिल की।

‘आई एम सेवेंटीन आई वाज सेवेंटीन’ (50 मिनट) – इस फिल्म का निर्देशन, चल-चित्रण, सम्पादन मनस्वी भवतोष ने किया है और यह फिल्म एक युवा की कहानी पर आधारित है जो सत्रहवें साल में कैसे संगत की कारण नशा करने लगता है।

‘व्हाई मी’ (1:50 मिनट) फिल्म का चल-चित्रण और सम्पादन मनस्वी भवतोष ने किया है और फिल्म कन्या-भ्रूण हत्या की विरोध में संदेश देती है

‘सिसकियाँ’ (3:56 मिनट) फिल्म का चल-चित्रण और सम्पादन मनस्वी भवतोष ने किया है और यह देह-व्यापार की विरोध में संदेश देती है

‘एहसास’ (4:11 मिनट) फिल्म का चल-चित्रण और सम्पादन मनस्वी भवतोष ने किया है और नशे की विरोध में संदेश देती है

कार्यक्रम में वरिष्ठ सामाजिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील नागरिक श्री नवीन तिवारी, भारतीय विद्या भवन की वरिष्ठ शिक्षिका श्रीमती भवतोष, उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट की वकील मनु श्रेस्ठ मिश्रा, सामाजिक कार्यकर्ता श्री चुन्नीलाल, सी.एन.एस. ने नदीम सलमानी, रितेश आर्य और बाबी रमाकांत भी शामिल थे।

सी.एन.एस.

दलित मुद्दों को उठाता हैः 'जय भीम कॉमरेड' वृत्तचित्र

जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र फिल्म (200 मिनट) अनेक पुरूस्कारों से अलंकृत सुप्रसिद्ध फिल्म-निर्देशक आनंद पटवर्धन द्वारा बनायी गयी है। इस फिल्म की चलचित्रकार या ‘सिनेमॉटोग्राफ़र’ सिमंतनी धुरू हैं। इनको 1996 की सर्वोत्तम वृत्तचित्र फिल्म के लिए फिल्मफेअर पुरूस्कार भी प्राप्त हुया था।

जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र फिल्म दलित मुद्दों और समाज में व्याप्त जाति के आधार पर हो रहे शोषण पर केन्द्रित है और बड़ी मानवीय संवेदना के साथ इस मुद्दे के विभिन्न पहलुओं को उठाती है।

इस ‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र को ‘फिल्म साउथ एशिया’ काठमांडू 2011 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरूस्कार से नवाजा गया।

जनवरी-फरवरी 2012 में, ‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र को कर्नाटका एवं तामिल नाडू के अनेक शहरों में प्रदशित किया गया। चिन्नई में इस फिल्म को ‘जरमन हॉल’ एवं कलाक्षेत्र के प्रांगण में 20-21 जनवरी को प्रदर्शित किया गया जिसमें दक्षिण भारत के सैकड़ों लागों के साथ लखनऊ से कुछ साथियों ने भी भाग लिया।

2000 सालों से अधिक समय से दलित समुदाय ने समाज में व्याप्त जाति के आधार पर शोषण झेला है। ‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र जुलाई 1997 में मुम्बई के रमाबाई कालोनी की झोपड़-झुग्गियों में हुयी दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर आधारित है जब 11 जुलाई 1997 की सुबह बस्ती के लोगों ने देखा कि बाबा भीम राव अम्बेडकर की पुरानी मुर्ति का अपवित्रीकरण हो गया है। पुलिस ने स्थानीय लोगों को बेरहमी से मारा पीटा और उनपर गोलियॉं चलायीं। इस गोलीबारी में 10 निहत्थे दलित लोग पुलिस के हाथों मारे गये।

विलास घोघरे, जो इस ‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र फिल्म के संगीतकार भी हैं, और वामपंथी विचारधारा से जुड़े कवि और गायक रहे हैं, उन्होंने पुलिस द्वारा दलितों को बेरहमी से मारे जाने के विरोध में 15 जुलाई 1997 को आत्महत्या कर ली।

इस ‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र फिल्म को 1997-2010 के दौरान बनाया गया है जो विलास घोघरे के सार-गर्भित संगीत के साथ-साथ समाज में गहरी व्याप्त असामनताओं से जुड़े अनेक संगीन मुद्दे उठाता है। इस फिल्म में एक साक्षात्कार के दौरान कहा गया है कि दलितों के घरघर में संगीत बसता है। अफ्रीका या अमरीका में भी मानवाधिकार से जुड़े जन-आंदोलनों में संगीत और कविताओं का बड़ा महत्व रहा है। सम्भवतः काव्य और गायन के जरिए शोषित वर्गों को संगठित हो कर अपना दुःख-दर्द बॉंटने का अवसर और संघर्ष के लिए अधिक शक्ति और मनोबल मिलता होगा।

आनंद पटवर्धन की फ़िल्म ‘जय भीम कॉमरेड’ लोकतंत्र का असली चेहरा इमानदारी से सामने लाती है जहॉं हकीकत में हर नागरिक बराबर नहीं है और एक बड़ा वर्ग आज भी शोषण और असमानता से जूझ रहा है। क्या लोकतंत्र में यह सम्भव है कि राजनीतिज्ञ किसी समुदाय को समाप्त करने की बात करें? यदि सही मायने में लोकतंत्र कायम होता तो ऐसी साम्प्रदायिक बात करने वाले लोगों पर कानूनन अंकुश लगता। मुम्बई जैसे बड़े महानगर के कुछ संभ्रांत लोगों के कथन जो इस फिल्म में हैं उससे साफ़ जाहिर है कि अभी भी हमारे देश में दलित वर्ग कितना शोषण और असमानता झेल रहा है।

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

वित्त मंत्री को सामाजिक क्षेत्र के प्रतिनिधियों ने दिए बजट पूर्व सुझाव

[English] भारत के वित्त मंत्री प्रणब मुख़र्जी ने सामाजिक क्षेत्र के प्रतिनिधियों के साथ १७ जनवरी २०१२ को दिल्ली में बजट पूर्व संवाद आयोजित किया. इस समिति में डॉ0 संदीप पाण्डेय ने भी भाग लिया. डॉ संदीप पाण्डेय, मैगसेसे पुरूस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लोक राजनीति मंच, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय और आशा परिवार से जुड़े हैं।

डॉ संदीप पाण्डेय ने वित्त मंत्री को बजट पूर्व यह सुझाव दिए:

कृषि क्षेत्र को सबसे अहम प्राथमिकता दी जानी चाहिए, सम्भव हो तो कृषि का अलग बजट ही होना चाहिए। फसली व गैर-फसली ऋण का अंतर समाप्त किया जाना चाहिए। ऋण ब्याज रहित होना चाहिए। ब्याज किसी भी परिस्थिति में 4 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए और यह साधारण ब्याज होना चाहिए। किसानों के ऊपर चक्रविधि ब्याज नहीं लगना चाहिए। यदि पुरुष ऋण हेतु आवेदन कर रहा है तो पत्नी की सहमति आवश्यक होनी चाहिए। बल्कि सरकार की सभी कल्याणकारी योजनाओं हेतु जिसमें कोई परिवार लाभार्थी है महिला को परिवार का प्रमुख माना जाना चाहिए जैसा कि खाद्य सुरक्षा कानून में प्रस्तावित है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की जगह लाभकारी मूल्य लागू होना चाहिए जो किसान की लागत से अधिक होना चाहिए। खाद, बीज व डीजल के मूल्यों पर नियंत्रण होना चाहिए या सरकार की तरफ से छूट मिलनी चाहिए। किसानों को सजीव खेती की दिशा में प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि उनकी बाजार पर निर्भरता कम हो सके। सम्भव हो तो ग्राम सभा स्तर पर गोदामों के निर्माण से भण्डारण क्षमता बढ़ाई जानी चाहिए ताकि अनाज को बरबाद होने से बचाया जा सके और किसान अपनी मर्जी से उसे बेच पाए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने हेतु कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में मजदूरी 250 रु. प्रति दिन होनी चाहिए जो हरेक मूल्य वृद्धि और सरकारी कर्मचारियों के वेतन वृद्धि के साथ संशोधित होनी चाहिए। सारी कृषि मजदूरी ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना से दी जानी चाहिए। मजदूरी की गारण्टी प्रत्येक व्यक्ति न कि परिवार को होनी चाहिए तथा यह पूरे साल के लिए होनी चाहिए।

शहर और गांवों में क्रमशः 32 व 26 रुपए प्रति दिन के खर्च के गरीबी रेखा के मानक को वापस लिया जाना चाहिए। गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की सूचियां या तो ग्राम सभाओं में बननी चाहिए अथवा गरीब को सरकारी विकास एवं कल्याणकारी योजनाओं से लाभ प्राप्त करने हेतु स्वयं को सूची में शामिल कराने की छूट होनी चाहिए।

सरकारी खाद्य सुरक्षा व्यवस्था के साथ-साथ गुरुद्वारों में लंगर की व्यवस्था की तर्ज पर प्रत्येक धार्मिक व सार्वजनिक स्थल पर लंगर की व्यवस्था को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि कुपोषण की समस्या से निजात पाया जा सके।

शादी, सामाजिक, राजनीतिक आयोजनों के अवसर पर धन के भौंडे प्रदर्शन पर उसी तरह रोक लगनी चाहिए जिस तरह चुनाव खर्च पर लगी है।

80 प्रतिशत बिजली व अन्य संसाधन गांवों में जाने चाहिए।

शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगना चाहिए।

विद्यालयों व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर पर्याप्त संख्या व विविधता में क्रमशः शिक्षक व चिकित्सक नियुक्त होने चाहिए। यह बड़ी विचित्र बात है कि एक ओर हमारे सामने बेरोजगारी की भीषण समस्या है तो दूसरी तरफ शिक्षकों, चिकित्सकों, ग्राम पंयायत विकास अधिकारियों या खण्ड विकास अधिकारियों, जिनकी विकास में अहम भूमिका है, जैसे कर्मचारियों की भारी कमी है।

समाज में विभिन्न वर्गों की आय में दस गुणा से ज्यादा का फर्क नहीं होना चाहिए। खर्च पर सीमा तय होनी चाहिए। गरीबी रेखा के बजाए अमीरी रेखा तय होनी चाहिए और सिर्फ अमीरों पर कर लगना चाहिए।

भ्रष्टाचार रोकने के लिए आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक सम्पत्ति के मामले में नियमित जांच एवं दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए। शहरी हदबंदी कानून दोबारा बनना चाहिए तथा ऐसी सारी सम्पत्तियां जिनका आंकलन सही कीमत से काफी कम किया गया है सरकार द्वारा अधिग्रहित कर ली जानी चाहिए ताकि काले धन का सम्पत्ति व भूमि में निवेश न हो सके। आवास हेतु प्रस्तावित सीमा है प्रति परिवार एक 300-500 वर्ग मीटर का प्लॉट या एक 3500-4000 वर्ग फीट का फ्लैट। काले धन पर अंकुश लगाने हेतु 500 व 1000 रु. के बड़े नोट अर्थव्यवस्था से वापस लिए जाने चाहिए।

भ्रष्टाचार सिर्फ पैसों का अवैध लेन-देन नहीं होता। निर्णय की प्रक्रिया में कोई अनियमितता भी भ्रष्टाचार की परिभाषा में आनी चाहिए। उदाहरण के लिए पुलिस ने किसी निर्दोष व्यक्ति के खिलाफ झूठा मुकदमा लिखा। वह व्यक्ति गिरफ्तार हो गया। पुलिस ने फर्जी सबूत जुटाए व चार्जशीट दाखिल कर दी। न्यायालय में लम्बी सुनवाई के बाद आरोपी बरी हो जाता है। किन्तु तब तक उसके जीवन की एक अवधि वह कारागार में बिता चुका होता है। झूठे मामले में फंसाने के लिए दोषी व्यक्तियों को भी सजा होनी चाहिए। इसी तरह गलत आख्या देना, निर्णय में देरी करना, या जानकारी छुपाना जिससे समय रहते कार्यवाही न हो सके, आदि, भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में आने चाहिए।

विशिष्ट व्यक्ति या अति विशिष्ट व्यक्ति जैसी श्रेणी खत्म कर देनी चाहिए। यह अवधारणा लोकतंत्र के खिलाफ है। यदि संविधान में बराबरी का अधिकार दिया गया है तो कुछ लोग महत्वपूर्ण कैसे हो सकते हैं? नेताओं और नौकरशाहों को आम इंसानों की तरह रहना सीखना होगा। यह आपत्तिजनक बात है कि इन जन प्रतिनिधियों व जन सेवकों से यदि सचिवालय, विधान सभा या संसद में मिलना हो तो जब तक ये दरबान को सूचित नहीं कर देंगे तब तक इन परिसरों में प्रवेश हेतु ‘पास‘ भी नहीं मिल सकता। यानी कि यदि किसी आम इंसान की शासक वर्ग में कोई जान-पहचान नहीं हो तो उसका इनसे मिल पाना भी मुश्किल है। किसी नौकरशाह से उसके घर पर मिलना को कल्पना से बाहर की चीज है। हमारे जन प्रतिनिधियों व जन सेवकों ने अपने आप को जनता की पहुंच से बाहर रखने का पुख्ता इंतजाम किया हुआ है। क्या लोकतंत्र में इसकी इजाजत मिलनी चाहिए? वे जिस जनता के संसाधनों का उपभोग करते हैं उसी से मिलने से बचना चाहते हैं। उनकी ज्यादातर सुविधाएं वापस ले ली जानी चाहिए। या तो उन्हें बड़ी तनख्वाह मिले और वे अपनी सुविधाओं जैसे घर, वाहन, आदि, की व्यवस्था खुद करें, अथवा यदि वे सुविधाओं का उपभोग करना चाहते हैं तो उन्हें कम तनख्वाह स्वीकार करनी चाहिए। वे चाहते हैं कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में काम करने वाला परिवार रु. 33 प्रति दिन (सौ दिन की मजदूरी का साल भर का औसत) तथा पेंशन पाने वाला परिवार रु. 400 प्रति माह में अपना गुजारा करे लेकिन वे अपनी तनख्वाह या सुविधाओं पर कोई सीमा नहीं तय करना चाहते। एम्बुलेंस को छोड़ किसी भी गाड़ी पर लाल-नीली बत्ती नहीं होनी चाहिए। सुरक्षा कर्मी या निजी सेवा के लिए रखे गए कर्मियों को हटा लिया जाना चाहिए। सरकारी खर्च पर कोई व्यक्ति किसी दूसरे बालिग व्यक्ति की सुरक्षा या सेवा करे यह सामंती व गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्था है।

विधायक एवं सांसद निधि खत्म होनी चाहिए।

रेल व हवाई जहाज में विभिन्न श्रेणियां समाप्त होनी चाहिए। रेल में साधारण श्रेणी जिसमें अक्सर इंसान जानवर की भांति सफर करते हैं समाप्त होनी चाहिए। जो पहले आरक्षण करा ले उसे सीट मिलनी चाहिए। सिर्फ चिकित्सा हेतु या परीक्षा देने जा रहे व्यक्तियों के लिए कुछ सीटें सुरक्षित रखनी चाहिएं। इसी तरह विद्यालयों व चिकित्सालयों का फर्क भी समाप्त किया जाना चाहिए। शिक्षा का अधिकार अधिनियम तो लागू है किन्तु समान शिक्षा प्रणाली व पड़ोस के विद्याालय की अवधारणा को भारत का शासक वर्ग मानने को तैयार नहीं है। चिकित्सकों को कम्पनियों के दिए गए नाम से दवा लिखने के बजाए दवा की किस्म लिखनी चाहिए और दवाओं की दुकानें भी राशन की दुकानों की तरह लोगों की पहुंच, दोनों दूरी तथा मूल्य की दृष्टि से, में होनी चाहिएं। एक ही गुणवत्ता वाली सेवा सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध होनी चाहिए। ज्यादा मूल्य चुका कर बेहतर सेवाएं हासिल करने की बात गैर-लोकतांत्रिक है। यह भ्रष्टाचार को कानूनी जामा पहनाना है। आखिर पैसा देकर अपने लिए सुविधा हासिल करने को ही भ्रष्टाचार कहते हैं।

किसी दस्तावेज की प्रति को अधिकृत अधिकारी द्वारा प्रमाणित कराने की अब जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। इससे काफी समय व उर्जा की बचत होगी। पहले जब फोटोकॉपी की सुविधा उपलब्ध नहीं थी तो प्रमाणित किए जाने की जरूरत थी क्योंकि हस्तलिखित दस्तावेज को जांचने की जरूरत होती थी। किन्तु फोटोकॉपी की सुविधा आ जाने से अब प्रार्थी द्वारा स्वतः प्रमाणित प्रतिलिपि उसी तरह स्वीकार की जानी चाहिए जैसे प्राथमिक विद्यालय में दाखिले के समय माता-पिता द्वारा प्रमाणित जन्म प्रमाण पत्र स्वीकार किया जाता है।

निर्माण मजदूर एक जगह काम पूरा होने पर दूसरी जगह काम तलाशते हैं। यदि किसी निर्माण मजदूर ने किसी भवन को बनाया है तो उसके योगदान के सम्मान में उसी परिसर में उसे स्थाई आवास का विकल्प दिया जाना चाहिए। इसी तरह अन्य कारीगरों एवं मजदूरों को भी सम्मान मिलना चाहिए। घरेलू काम करने वालों को भी जिन घरों में वे काम करती हैं वहीं आवास का विकल्प होना चाहिए। इसी तरह कृषि मजदूर जिस खेत में काम करती हैं उसमें उनकी एक स्थाई हिस्सेदारी होनी चाहिए। सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं सिर्फ सरकारी कर्मचारियों या सेवा क्षेत्र के लोगों के लिए न होकर सभी के लिए होनी चाहिए। हरेक नागरिक को पेंशन की गारण्टी होनी चाहिए ताकि वह बुढ़ापा सम्मानजनक तरीके से बिता सके।

खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश नहीं होना चाहिए।

कोई भी सरकारी सम्मेलन या बैठकें होटलों में नहीं होनी चाहिएं जबकि सरकार के पास पर्याप्त सुविधा है। जनता के धन के दुरुपयोग को हर हाल में रोका जाना चाहिए। गणतंत्र दिवस के अवसर पर हथियारांे के प्रदर्शन तथा रोजाना शाम वाघा सीमा पर आक्रामक तेवर वाले आयोंजन की पराम्परा समाप्त की जानी चाहिए। इनकी जगह दोस्ती व शांति को बढ़ाने वाले कार्यक्रम होने चाहिए।

विशाल खुली जगह वालें भवनों, जैसे आधुनिक हवाई अड्डों, में रात को बेघर लोगों को शरण दी जानी चाहिए।

सरकारी कार्यालयों में कई स्तरीय व्यवस्था, जैसे कनिष्ठ लिपिक, वरिष्ठ लिपिक, अधीक्षक, आदि, समाप्त की जानी चाहिए क्योंकि निर्णय की प्रक्रिया में काफी समय लगता है और किसी की जवाबदेही भी सुनिश्चित नहीं होती। इसलिए क्षमता देखते हुए कोई काम किसी अधिकारी/कर्मचारी को दिया जाना चाहिए और समयबद्ध तरीके से पूरा करने की जवाबदेही होनी चाहिए। इसी तरह गरीबी निवारण की सिर्फ योजनाएं नहीं चलानी चाहिए बल्कि उनके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी लिए अधिकारियों की तनख्वाह काम संतोषजनक तरीके से होन पर ही मिलनी चाहिए। यदि सरकारी अधिकारी निजी क्षेत्र के समतुल्य तनख्वाहें चाहते हैं तो उन्हें काम के प्रति अपनी जवाबदेही भी सुनिश्चित करनी पड़ेगी। गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, किसानों की आत्महत्या, बाल एवं मातृत्व मृत्यु दर, स्वास्थ्य सेवाओं की खस्ता हालत, शिक्षा का निम्न दर, इन सब के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? 

(ये सुझाव 17 जनवरी, 2012, को वित्त मंत्री द्वारा सामाजिक क्षेत्र के साथ बजट पूर्व चर्चा हेतु डॉ0 संदीप पाण्डेय द्वारा तैयार किए गए। डॉ0 संदीप पाण्डेय, मैगसेसे पुरूस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लोक राजनीति मंच, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय और आशा परिवार से जुड़े हैं।)

सी.एन.एस.

अधिक लोकतान्त्रिक और इमानदारी से चुनाव कराने के लिये सुझाव

[English] सोशलिस्ट पार्टी और लोक राजनीति मंच के डॉ संदीप पाण्डेय ने उत्तर प्रदेश के मुख्य चुनाव आयुक्त श्री उमेश सिन्हा को १२ जनवरी २०१२ को पांच स्पष्ट सुझाव दिए जिससे कि आगामी फरवरी २०१२ में विधान सभा चुनाव अधिक लोकतान्त्रिक और इमानदारी से कराये जा सकें.

मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय द्वारा लिखे गए पत्र का हिंदी अनुवाद नीचे दिया जा रहा है (अंग्रेजी का मौलिक पत्र पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये):

सेवा में
श्री उमेश सिन्हा
मुख्य चुनाव आयुक्त
उत्तर प्रदेश
तिथि: १२ जनवरी २०१२

विषय: अधिक लोकतान्त्रिक और इमानदारी से चुनाव कराने के लिये सुझाव

प्रिय उमेश जी,

आज आप के कार्यालय में हुई बात को आगे बढ़ाते हुए मैं कुछ सुझाव देना चाहूँगा:

१) कृपया 'शैडो रजिस्टर' (या परछाई रजिस्टर) को नियमित रूप से सार्वजनिक करें जिससे कि मतदाता और जनता यह निगरानी रख सकें कि ७५० 'माइक्रो-ऑब्जर्वर' और अन्य अधिकारी चुनाव सम्बंधित खर्चे को सहे से रपट कर रहे हैं और यदि कोई खर्चा छूट गया हो तो उसको रपट कर सकें जो आप पुष्टिकरण के बाद जोड़ सकते हैं. इससे चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ेगी और चुनाव उम्मीदवारों की जवाबदेही भी बढ़ेगी और जनता यह देख सकेगी कि उम्मीदवार कितनी इमानदारी से अपने चुनाव खर्चे को रपट कर रहे हैं.

२) राजनीतिक पार्टी द्वारा किये गए खर्चे, जैसे कि चुनाव प्रचार में इस्तेमाल होने वाले हवाईजहाज और 'हेलीकोप्टर' के खर्चे, को, उस पार्टी के सभी उम्मीदवारों के खर्चे में भाग कर के जोड़ देना चाहिए वर्ना छोटी पार्टियों के और निर्दलीय उम्मीदवारों के प्रति यह जायज नहीं होगा.

३) मायावती जी और हाथियों की मूर्तियों को ढकने के खर्चे को बहुजन समाज पार्टी को वहन करना चाहिए. हालाँकि यह मूर्तियाँ सरकारी खर्चे पर लगायी गयी थीं, पर क्योंकि इनको एक राजनीतिक दल से जोड़ा जाता है इसलिए इनको ढकने का खर्चा भी उसी पार्टी को उठाना चाहिए. यह इसलिए भी जरुरी है क्योंकि यह मूर्तियाँ पिछली सरकार के कार्यकाल में ही लगायी गयीं थीं. जनता पर दोहरा दबाव आ रहा है, पहले तो मूर्तियाँ जनता के पैसे से लगायी गयी और उनको ढकने का खर्च भी जनता के पैसे से हो यह वाजिब नहीं है.

४) निर्दलीय उम्मीदवारों को जबतक चुनाव चिन्ह: न मिल जाए, तब तक स्थापित राजनीतिक दलों द्वरा चुनाव चिन्ह: के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए. मूल बात यह है कि सभी उम्मीदवारों को चुनाव चिन्ह: प्रयोग कर के प्रचार करने की एक समान्य अवधी ही मिलनी चाहिए.

५) चुनाव आयोग का एक अधिकारी सचिवालय भवन से बाहर बैठे - क्योंकि सचिवालय भवन में दाखिल होने के लिये 'पास' की जरुरत होती है जो आसानी से नहीं मिल पता है और चुनाव आयोग के अधिकारियों को 'पास' जरी करने के लिये राज़ी करने में छोटी पार्टियों के प्रतिनिधियों या निर्दलीय उम्मीदवारों को अक्सर असफलता होती है.

सधन्यवाद

डॉ संदीप पाण्डेय
लोक राजनीति मंच और सोशलिस्ट पार्टी
ए-८९३, इंदिरा नगर, लखनऊ - २२६०१६. फ़ोन: ०५२२-२३४७३६५, ९४१५०२२७७२ (अरुंधती धुरु)

सी.एन.एस.

लोक राजनीति मंच ने जारी की चुनाव हेतु आचार संहिता

[English] १. उम्मीदवार की सामाजिक कामों की पृष्ठभूमि होना अनिवार्य होनी चाहिए. चुनाव जीतने या हारने के बाद भी उसे पहले की तरह आम जनता के मुद्दों पर काम करते रहना चाहिए. यानि चुनाव अपने काम के आधार पर ही लड़ा जायेगा.

२. उम्मीदवार कम-से-कम पैसे में चुनाव लड़ेगा, वह कोई दिखावा नहीं करेगा और अपनी क्षमता से ज्यादा खर्च नहीं करेगा. खर्च जनता से चंदा ले कर पूरा किया जायेगा. हिसाब-किताब में पूरी पारदर्शिता बरती जाएगी.

३. यदि उम्मीदवार जीत जाता है तो उसकी जीवनशैली में पहले की अपेक्षा कोई खास परिवर्तन नहीं आना चाहिए. पहले की ही तरह वह जनता के लिये सुलभ उपलब्ध होना चाहिए.

४. प्रचार ज्यादा-से-ज्यादा जन-संपर्क द्वारा किया जायेगा न कि और खर्चीले तरीके अपना कर.

५. संगठन के कार्यकर्ताओं के पास जो वाहन हैं उन्हीं का इस्तेमाल प्रचार में किया जायेगा.

६. कोई प्रलोभन दे कर किसी का मत नहीं प्राप्त किया जायेगा न ही किसी को किसी किस्म की धमकी दी जाएगी.

७. उम्मेदवार अपनी सुरक्षा के लिये कोई हथियार नहीं रखेगा और न ही जीतने के बाद हथियारों से सुरक्षा की व्यवस्था करेगा.

८. वह अपने प्रचार के लिये कोई पेशेवर लोगों या तरीकों का इस्तेमाल नहीं करेगा. उदहारण के लिये पैसा दे कर अखबारों में खबर छपवाना.

९. चुनाव में जो लोग उसका प्रचार करेंगे उन्हें सहयोग की भावना से ऐसा करना चाहिए न कि पैसा ले कर.

१०. चुनाव जनता के मुद्दों पर लड़ा जायेगा न कि जाति, धर्म, या अन्य इस किस्म के किसी आधार पर.

सी.एन.एस.

सरकारी कर्मचारी को जब पूरा वेतन समय से मिलता है तो क्यों घूस मॉंगते हैं? सुषमा, सफीपुर (सुरक्षित), उन्नाव से प्रत्याशी

सुषमा, जो आशा परिवार के साथ जन मुद्दों पर कार्यरत हैं, वो इस २०१२ विधान सभा चुनाव में लोक राजनीति मंच की ओर से सफीपुर (सुरक्षित), उन्नाव से प्रत्याशी हैं. 

सुषमा ने महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, आंगनवाड़ी की कार्यकुशलता, स्कूल में ‘मिड-डे मील’ या अपराह्न भोजन की गुणात्मकता आदि से जुड़े मुद्दों पर गत वर्षों में कार्य किया है. 

कई लोग बिना काम किये मजदूरी ले लेते हैं, या फिर सरकारी कर्मचारी जो काम करने के लिये उनको वेतन मिलता है, उसके लिये घूस मांगते हैं, ऐसे मुद्दों पर सुषमा सक्रियता से अपने क्षेत्र में कार्यरत हैं. सुषमा कहती हैं कि उनको यह समझ नहीं आता कि सरकारी कर्मचारी जैसे कि बी.डी.ओ., स्वास्थ्यकर्मी, पुलिस आदि क्यों पैसा मांगते हैं जब उनको पूरा वेतन समय से मिलता है. सुषमा का कहना है कि सरकारी कर्मचारी ‘जनता का गुलाम हैं’ और उनको सेवा भाव और इमानदारी से काम करना चाहिए.

सुषमा का कहना है कि यदि वो जीत गयीं तो निर्णय खुली बैठक में लेंगी जिससे जनता की सहभागिता बढ़ सके. यदि वो जीत गयीं तो सुषमा कहती हैं कि जिन मुद्दों पर वो कार्य करेंगी वो भी उन्हें जनता ही बताएगी.    

- सी.एन.एस.

महिला असमानता और भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए प्रतिबद्धः अनीता श्रीवास्तव, वराणसी उत्तरी से प्रत्याशी

अनीता श्रीवास्तव, लोक राजनीति मंच की ओर से आगामी विधान सभा चुनाव में वाराणसी (उत्तरी) क्षेत्र से प्रत्याशी हैं।

१९९८ में जब सर्व शिक्षा अभियान आया था तब अनीता सबसे कम आयु की व्यक्ति थीं जो ‘मास्टर ट्रेनर’ के रूप में प्रशिक्षण प्रदान कर रही थीं. जब अनीता हाई-स्कूल में थीं तब से ही उन्होंने अपने आस-पास की लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया और फिर औपचारिक स्कूल में भर्ती होने के लिये प्रेरित किया. काशी विद्यापीठ में आने पर अनीता राजनीतिक शास्त्र की भी विद्यार्थी रहीं और वो अखिल भारतीय छात्र संगठन (‘आइसा’) से जुड़ी रहीं. अनीता की रुचि खेल में विशेष रही और वो राष्ट्रीय स्तर की ‘जुडो’ की चौम्पियन रही हैं. काशी विद्यापीठ में उन्होंने देखा कि लड़कियां अक्सर शिक्षकों तक से झिझकती थीं. हालॅंाकि उनके साथ तो पारिवारिक और सामाजिक दोनों का समर्थन रहा परन्तु अनेक लड़कियों को जिन्हें पारिवारिक या सामाजिक सहयोग नहीं मिलता, उनके अन्दर जो प्रतिभाएं हैं वो दबी रह जाती हैं. अनीता को भी जब कोरिया देश में अपनी खेल प्रतिभा दिखने का अवसर मिला तब उनके संयुक्त परिवार ने जाने नहीं दिया. अनीता ने तब जुझारू विद्यार्थी संगठन बनाया. 

अनीता ने शिक्षा के बाद ग्रामीण क्षेत्र में महिला मुद्दों पर काम करते वक्त जुझारू महिला संगठन बनाया और २००६ में, सब को मिला कर ‘प्रगतिशील जन संगठन’ की नींव पड़ी. हाल ही में अनीता ने युवा केंद्र के राष्ट्रीय सेवा कार्यक्रम में ३ साल तक भाग लिया और २०१० में उन्हें आयुक्त द्वारा ‘सर्वश्रेष्ठ युवा कार्यकर्ता’ पुरुस्कार, प्रशस्ति पत्र और रुपया १०,००० का इनाम मिला.

अनीता का कहना है कि २०१० में हम सभी को लग रहा था कि चुनाव में अच्छे लोगों को भी आगे आना चाहिए. इसीलिए सबकी सर्वसम्मिति से २०१० में हमने पंचायत चुनाव में ४ महिला और १ पुरुष प्रत्याशी खड़े किये, जिनमें से जिला बी.डी.सी., जिला पंचायत और प्रधानी के चुनाव शामिल थे. इनमें से हमारे संगठन से एक महिला और एक पुरुष प्रधान बने, और जिला बी.डी.सी. चुनाव में हमारी प्रत्याशी ४५ वोट से दूसरे नंबर पर रही और जिला पंचायत चुनाव में हमारी प्रत्याशी ५५ वोट से दूसरे नंबर पर रही. जब विधान सभा चुनाव आया तो हमने अपने साथियों के साथ कई दौर बैठकें कीं और निर्णय लिया कि हमें अपने विचारों के साथ समझौता नहीं करना चाहिए और सभी प्रगतिशील जनवादी संगठनों को एकजुट करके एक साझा प्रयास और साझी सोच के साथ हम सब को विधान सभा चुनाव में आना चाहिए.

अनीता का कहना है कि वर्तमान में व्याप्त भ्रष्टाचार का विरोध करने का आगामी चुनाव एक सशक्त तरीका है और हमसब को लगा कि इसी तरह से हम राजनीति में भी हस्तक्षेप करें और अपने विचारों और सिद्धान्तों को जनता के बीच में ले जाएँ.

अनीता के अनुसार उनकी महिला मुद्दों के प्रति विशेष प्रतिबद्धता है. अनीता का कहना है कि हमसब ने देखा कि कैसे महिला आरक्षण के मुद्दे पर राजनीतिक दल कतरा रहे हैं. हमारा सवाल है कि ४ मुख्यधारा की पार्टियों को, कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, और समाजवादी पार्टी, को पार्टी के भीतर ५० प्रतिशत महिला आरक्षण देने से कौन रोक रहा है? न सही ५० प्रतिशत पर महिला प्रतिभागिता बढ़ाने के लिए कुछ तो नीति तय करें. यदि दलित पार्टी है तो दलित महिलाओं को ही आरक्षण दें, अल्प-संख्यक पार्टी है तो अल्प-संख्यक महिलाओं को आरक्षण दे, पिछड़े लोगों की पार्टी है तो पिछड़ी महिलाओं को आरक्षण दे, अगर सवर्ण पार्टी है तो सवर्ण महिलाओं को आरक्षण दे, पर यह कहीं भी देखने को नहीं मिल रहा है. 

महिलाओं की भागीदारी को आखिर कैसे बढ़ाया जाए यह संगीन सवाल है. अनीता का कहना है कि उनकायह भी मानना है कि पंचायत में भी महिला और पुरुष दोनों की भागीदारी होनी चाहिए. उनका यह भी मानना है कि हर शैक्षिक संस्थान में यौन उत्पीड़न समिति होनी चाहिए जिसका प्रभावकारी क्रियान्वन भी हो. महिला हिंसा कानून को महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय से बाहर निकाल कर कानून मंत्रालय में लाना चाहिए और महिलाओं की भागीदारी से ही इस कानून को सशक्त रूप से लागू करना चाहिए.

- सी.एन.एस.

किसान खत्म नहीं हो रहा, खत्म किया जा रहा हैः ब्रह्म देव शर्मा

ब्रह्म देव शर्मा, पूर्व कलेक्टर, बस्तर, और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, अनुसूचित जनजाति एवं अनुसूचित जाति आयोग, ने 7 जनवरी को लखनऊ में हुयी लोक राजनीति मंच की बैठक में सक्रिय भाग लिया।

ब्रह्म देव जी ने कहा कि ‘जोते बोये काटे धान, खेत का मालिक वही किसान’ जैसी बात अब खत्म हो गयी है. सन २००० की कृषि नीति में यह लिखा हुआ है कि जमीन खाद आदि के लिये पैसा चाहिए, पैसा किसान के पास है नहीं, पैसा सरकार के पास है नहीं, इसीलिए जब पैसे वाला खेती करेगा तो किसान खेत पर काम करेगा. 

ब्रह्म देव जी ने कहा कि हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि किसी से हाथ मिलाओ और यदि हाथ सख्त है तो किसान का है, परन्तु अब यह हालत है कि पुलपुले हाथ वाले किसानी जमीन खरीद रहे हैं, जमीने दे रहे हैं, और जितना जमीन का मूल्य नहीं हैं उतनी कीमत दे कर कृषि भूमि खरीदी जा रही हैं. अभी आंध्र प्रदेश में कुछ ऐसे ही किसानों का कहना है कि खेती में लागत अधिक है और आमदनी कम. ऐसा पहली बार हो रहा है कि खेती नहीं करो तो फायदा है. ब्रह्म देव जी जब वहां गये तो उन्होंने देखा कि वहाँ पर बड़े जमीनदारों का वर्चस्व है. इन जमीनदारों ने यह भी कहा कि महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के कारण हमें मजदूर नहीं मिल रहा है और इसीलिए हमें कृषि में मशीनों का इस्तेमाल करना चाहिए. इन मशीनों पर ९० प्रतिशत तक की छूट (‘सब्सिडी’ या अनुदान) मिल रही है. कुल मिला कर प्रश्न यह है कि किसान खत्म हो रहा है या खत्म किया जा रहा है?

ब्रह्म देव जी ने यह सवाल सभी राजनीतिक दलों को लिखे पर किसी ने भी इस पर कोई करवाई नहीं की. यह तो कोई कही नहीं रहा है कि किसान खत्म किया जा रहा है, हर ओर सिर्फ यही सुनने में आता है कि किसान खत्म हो रहा है.

क्या खेती अकुशल काम है?
ब्रह्म देव जी ने पूछा कि अब आप ही यह बताइए कि कृषि कुशल काम है कि अकुशल? जब कृषि कुशल काम है और बुनियादी जरूरतें पूरी करता है, तब यह सरकार द्वारा अकुशल क्यों माना जाता है? खेती-किसानी को सरकार ने अकुशल काम का दर्जा दिया. महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना में यह साफ कहा गया है कि खेती अकुशल काम है.

ब्रह्म देव जी ने कहा कि किसानी को अकुशल काम का दर्जा दे कर किसानी के मूल्य को आधा कर दिया गया क्योंकि सरकारी दरों के अनुसार कुशल और अकुशल काम में आधे का अंतर है. 

आजादी के बाद जब न्यूनतम मजदूरी अधिनियम बना तो उसमे यह स्पष्ट कहा गया है कि किसान को उतनी मजदूरी मिलनी चाहिए जिसमें उसका और उसके परिवार का भरण-पोषण हो सके. अब परिवार की परिभाषा क्या है? परिवार में, छठें वेतन आयोग के अनुसार औसतन पांच लोग हैंः महिला, पुरुष, २ बच्चे और एक बुजुर्ग. बच्चों को दैनिक जरूरतों के मापदंड से आधा सदस्य माना गया है जबकि व्यवहारिकता यह है कि बच्चों पर निवेश संभवतः अधिकतम होता हो. कुल मिला कर सरकार ने (और लोगों ने भी) यह मान लिया कि परिवार में ३ सदस्यों के बराबर भरणपोषण की आवश्यकता होती है और इतनी मजदूरी किसान को मिलनी चाहिए. असलियत भले ही यह हो कि परिवार में ५ लोग हों. सीधा तात्पर्य है कि ५ लोगों के परिवार को ३ लोगों के भरणपोषण का इंतजाम होगा तो प्रश्न उठेगा कि किसान खत्म हो रहा है या कि खत्म किया जा रहा है?

ब्रह्म देव जी ने कहा कि हम सब को यह सोचना चाहिए कि किसान को कहाँ से घाटा हो रहा है. जो किसान की कड़ी मेहनत का न्यूनतम वाजिब मूल्य है उसका आधा ही तो हम उसको दे रहे हैं. फिर हम कहते हैं कि किसान खत्म हो रहे हैं, जब कि असलियत यह है कि किसान खत्म किये जा रहे हैं.

दस्तावेज कहते हैं कि परिवार में दो लोग कमा रहे हैं. इसका मतलब क्या है? पुरुष के अलावा या तो महिला को मजबूरन काम करना पड़ रहा है, या फिर बच्चे को शिक्षा छोड़ काम करना पड़ रहा है, या फिर परिवार में बुजुर्ग को भी मजबूरीवश काम करना पड़ रहा है.

सरकार के छठें वेतन आयोग के अनुसार परिवार को पांच लोगों की यूनिट माना जाता है. परन्तु किसान या असंगठित मजदूर वर्ग, जो भारत की जनता का ९० प्रतिशत भाग है, उसके परिवार में सिर्फ २ लोगों को रोजगार देने की बात होती है.

स्वभाविक है कि यदि किसान को इतनी मजदूरी मिल जाए जो उसके पूरे परिवार के लिये सही मायने में पर्याप्त है, तो फिर महिला क्यों मजदूरी करेगी, बच्चे शिक्षा त्याग कर क्यों मजदूरी करने पर विवश होंगे? शहरों में तो कुछ लोगों को एक-एक लाख रुपया वेतन मिल रहा है परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों का वैद्यानिक तरीके से शोषण हो रहा है! अनुमान लगाया गया है कि एक करोड़ रुपया प्रतिवर्ष प्रति-गाँव शोषण हो रहा है.

किसान और बैंक का कर्जा/ ब्याज
ब्रह्म देव जी ने कहा कि हमारे कानून में शुरू से ही यह साफ लिखा हुआ है कि खेती-किसानी में बैंक से कर्जा लेने पर ४ प्रतिशत से ज्यादा सामान्य ब्याज नहीं होगा. लेकिन जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और सरकार ने हाथ खींच लिये तो स्थिति बदल गयी. यह हाल जब बैंकों का है तो साहूकार की मनमानी का तो कहना ही नहीं है! 
आज हालत यह है कि कृषि-सम्बंधित कर्जे पर काफी अधिक चक्रवर्ती ब्याज धड़ल्ले से लग रहा है जो कि कानूनन माना है. जिन शर्तों पर ब्याज दिया जा रहा है उन शर्तों पर हस्ताक्षर करते वक्त अगर आप पढ़ें तो पायेंगे कि उनमें साफ लिखा हुआ है कि आप अदालत नहीं जा सकते. ब्रह्म देव जी ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया तक में इस बात की रपट की परन्तु कोई करवाई नहीं हुई.

शुरुआत में जब बैंक सम्बंधित कानून बना तो उसमें यह साफ कहा गया था कि अदाएगी ३५ साल से अधिक में नहीं होनी चाहिए. आज हालत यह है कि अदाएगी १-५ साल में ही सीमित हो गयी है जिसके कारण मासिक किश्त काफी अधिक हो गयी है. पहले जब अदाएगी ३५ साल में होती थी तब रुपया १ लाख के कर्ज में मात्र रुपया ५ हजार वार्षिक किश्त बनती - परन्तु आज कल जब अदाएगी १-५ साल में होनी है तो निःसंदेह किश्त कई गुणा अधिक है.

ब्रह्म देव जी ने कहा कि यदि अदाएगी नहीं हो पाती है तो यह केस कोर्ट में जाएगा और ‘सिविल’ जेल तक हो सकती है. ‘सिविल’ जेल का मतलब यह है कि जेल में रहने का खर्चा आदि सब देना पड़ता है. 

ब्रह्म देव जी ने कहा कि साफ जाहिर है कि किसान खत्म नहीं हो रहा है बल्कि खत्म किया जा रहा है और इस पर अंकुश लगाने की और मानवीय व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता है.

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

‘कारपोरेट’ या उद्योग की राजनीति के खिलाफ जन-पक्षधर राजनीति जरूरी

जन संघर्ष मोचा के लाल बहादुर सिंह जी, जो 7 जनवरी को लखनऊ में हुयी लोक राजनीति मंच की बैठक में भाग ले रहे थे, ने कहा कि हर तरह के अपराध, भ्रष्टाचार और अपराध को इस मजबूरी के नाम पर उचित समझाया गया है कि जनता बहुमत नहीं बना रही है और इसीलिए तमाम तरह के समझौते करे जा रहे हैं. 

लाल बहादुर जी ने कहा कि २००७ में उत्तर प्रदेश की जनता ने गुंडा-राज से त्रस्त हो कर किसी जनवादी विकल्प के अभाव में मायावती जी के नेत्रित्व में बहुजन समाज पार्टी को स्पष्ट बहुमत दी थी. परन्तु उत्तर प्रदेश की हालत पहले से भी खराब हो गयी और भ्रष्टाचार के नए-नए कीर्तिमान गत-वर्षों में स्थापित हुए. आज भी उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में दलित महिलाएं मिल जाएँगी जो अपने सर पर मैला ढोने को मजबूर हैं, यह भी इस प्रदेश की सच्चाई है जहां एक दलित महिला मुख्य मंत्री है. 

लाल बहादुर जी ने कहा कि मायावती जी ने कार्यभार सँभालते ही उत्तर प्रदेश में नयी कृषि नीति लागू की थी परन्तु इसका घोर विरोध हुआ. यह कृषि नीति मूलतः हमारे प्रदेश के गरीब किसानों की जमीनों को उद्योग-वर्ग को देने की बात रखती थी. नयी कृषि नीति की घोषणा होते ही मुकेश अम्बानी के ‘रिलाइंस फ्रेश’ नामक स्टोर जगह-जगह खुलने शुरू हुए ही थे कि व्यापार मंडल ने पुरजोर विरोध करना आरंभ किया. जब बनारस और अन्य जगह पटरी दुकानदारों और व्यापार मंडलों ने पत्थर चलाना और आग लगाना शुरू किया तब संभवतः मायावती जी को लगा कि यह नयी कृषि नीति भारी पड़ेगी और अगले ही दिन उस नयी कृषि नीति को वापस लेने का निर्णय घोषित किया.

लाल बहादुर जी ने कहा कि पिछले दिनों में हमने दिल्ली संसद में देखा कि जब-जब अल्प-संख्यक कांग्रेस सरकार पर खतरा आया तो मायावती और मुलायम दोनों ने ही कांग्रेस को बचाया. चाहे वो भारत-अमरीका परमाणु समझौता रहा हो या महंगाई। अभी हाल ही में सरकारी लोकपल विधेयक पर हुई बहस में मायवती और मुलायम दोनों के दलों ने ‘वाक-आउट’ कर के कांग्रेस सरकार को हरी झंडी दी - यदि वो बहस करते और लोकतान्त्रिक संसदीय प्रक्रिया आगे बढ़ाते तो कांग्रेस सरकार मनमानी नहीं कर सकती थी और या तो वो मजबूत लोकपाल लाने के लिये मजबूर होती या फिर उसको वापस लेना पड़ता. मगर मायावती और मुलायम दोनों के ही दलों ने इसको बचाया. परन्तु उत्तर प्रदेश की जनता के सामने ऐसा प्रतीत कराया जाता है कि दोनों दलों के बीच कोई बड़ा युद्ध चल रहा हो!

लाल बहादुर जी ने कहा कि आंकड़ें बताते हैं कि आजादी के समय उत्तर प्रदेश इतना पिछड़ा हुआ और ‘बीमारू’ राज्य नहीं था. उत्तर प्रदेश तो उस समय के तरक्की-शुदा राज्यों की कतार में था. वहाँ से गिरते-गिरते ४० साल के कांग्रेस-सरकार के राज्य काल में उत्तर प्रदेश ‘बीमारू’ राज्य की श्रेणी में पहुँच गया.

यह ‘कारपोरेट’ या उद्योग की राजनीति जो आजकल व्याप्त है, वो न केवल जन विरोधी है बल्कि लोकतंत्र विरोधी भी है. लाल बहादुर जी ने कहा कि ‘कारपोरेट’ या उद्योग की राजनीति की जरूरत है लोकतंत्र का खात्मा या लोकतंत्र की हत्या. इसलिए जन-विरोधी और लोकतंत्र विरोधी ‘कारपोरेट’ या उद्योग की राजनीति के खिलाफ जन-राजनीति या जन-पक्षधर राजनीति की जरूरत है.

लाल बहादुर जी ने कहा कि जो जन-पक्षधर पार्टियाँ हैं, उनको एक साथ आ कर के सामाजिक बदलाव, जो हम सभी का दूरगामी लक्ष्य है, के लिए इक्ठ्ठे प्रयासरत रहना चाहिए। उन सब के लिये चुनाव भी एक हथियार है, जितना भी हम को वोट मिलेगा, जितने भी हमारे साथी आगे बढ़ेंगे, उतनी ही जनता की ताकत आगे बढ़ेगी समाज में. इस तरह का एक प्रयोग पहले भी हुआ है जिसमें जन संघर्ष मोर्चा, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल, सोशलिस्ट पार्टी, आदि शामिल रहे हैं। लाल बहादुर जी ने कहा कि संदीप पाण्डे जी का जनवादी आन्दोलन के लिये हमेशा से समर्थन रहा है।

आगामी फरवरी 2012 विधान सभा चुनाव में लोक राजनीति मंच 6 उम्मीदवारों को समर्थन दे रहा है जिनका विवरण पृष्ठ संख्या 2 पर दिया गया है। 

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

लोकतंत्र का मतलब होता है लोगों का राजनीति पर नियंत्रणः अजीत झा

डॉ. अजीत झा, प्रोफेसर, इतिहास, दिल्ली विश्वविद्यालय एवं सदस्य, लोक राजनीति मंच अध्यक्षीय मंडल, लखनऊ में 7 जनवरी को हुयी लोक राजनीति मंच की बैठक में भाग ले रहे थे।

अजीत जी ने कहा कि राजनीति में लोक का महत्व हमेशा से नहीं रहा है। राजनीति हथियार से रही है, जो हथियार पर कब्जा कर सकते थे, वो राजनीति पर कब्जा करते रहे। राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई और देश में लोकतंत्र स्थापित करने की लड़ाई दोनों भारत में आजादी से पूर्व एक साथ हुईं। डॉ झा ने कहा कि सारे दुनिया में ये नहीं हुआ, भारत में जनता की आजादी और लोकतंत्र दोनों साथ आये हैं।

अजीत जी ने कहा कि आजादी के पश्चात् कांग्रेस का सत्ता का पक्ष हावी होने लगा और जन आन्दोलन का पक्ष कमजोर होता चला गया। सन १९८० के बाद यदि देखा जाए, तो सभी मुख्य धरा की राजनीति पार्टियाँ या तो प्रदेश में या फिर राष्ट्रीय-स्तर पर सत्ता में रही हैं। इसका अनुभव अच्छा नहीं रहा है, और वो जमात जिनके बल पर वो सत्ता में आई थीं, उनके लिये भी निराशाजनक ही रहा है।

अजीत जी ने कहा कि जो आज राजनीति कर रहे हैं, वो सिर्फ सत्ता पर काबिज हो कर अपने फायदे के लिये जो कर सकते हैं, वो कर रहे हैं। आजादी से पहले महात्मा गाँधी एवं डॉ० बी०आर० आंबेडकर के नेतृत्व में जन-आन्दोलन एवं राजनीति एक हो गयी थी। आजादी के पश्चात् राजनीति की असफलता की वजह से ही जन-आन्दोलन बढ़ने लगे हैं। राजनीति और जन-आन्दोलन का भेद अच्छा नहीं है। जन-आन्दोलन की राजनीति करने के बिना ये अपेक्षित बदलाव संभव नहीं है।

अक्सर लोग प्रश्न करते हैं कि हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है कि हम राजनीतिक मैदान में कूदे। अजीत जी का कहना है कि यह प्रश्न नकली है। संघर्ष बनाम राजनीति का मसला नहीं है हमारे सामने, कहना है डॉ झा का। आजादी के पहले भी जब महात्मा गाँधी एवं डॉ० बी०आर० आंबेडकर का नेतृत्व आया था तब सामाजिक कार्य एवं राजनीतिक कार्य में फर्क नहीं रहा था, और लोगों को एहसास हो गया था कि ऐसा सवाल कि ‘राजनीति बनाम संघर्ष’ नकली हैं।

अजीत जी का कहना है कि जनता खुद को संगठित कर रही है, जनता की ही राजनीति है, और जनता ही संघर्षरत है। लोकतंत्र का मतलब होता है लोगों का राजनीति पर नियंत्रण।

संसद और विधान सभाएं जो हैं वो लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी तो गयी हैं पर जनता की भावनाओं और जरूरतों का, प्रतिबिम्ब नहीं करती. तो कई बार बहुत बड़ी ताकतों को भी हताशा होती है. अजीत जी ने कहा कि दूसरी तरफ, समाज में और राजनीति में, संसद और विधान सभाओं के बाहर, कभी भी ऐसी हताशा की स्थिति नहीं रही है, हमेशा लगातार संघर्ष और आन्दोलन चलते रहते हैं. एक और पहलु है कि संघर्ष और आन्दोलन का एक बहुत बड़ा हिस्सा चुनाव से दूर भागता रहा है. चुनाव में भागीदारी नहीं करना चाहता रहा है, और वो इसको प्रभावहीन समझता रहा है. 

अजीत जी ने कहा कि अब यह बदलाव आया है कि संघर्षों और आंदोलनों का एक बहुत हिस्सा यह मानने लगा है कि चुनावी हस्तक्षेप भी जरूरी है चाहे इसमें जितना भी समय लगे और इसमें हमारी हिस्सेदारी जरूर होनी चाहिए. 

हमें अनेक मोर्चा, दल, मंच अदि देखने को मिलते हैं जो वैकल्पिक राजनीति की बात रखते हैं. जन-पक्षीय राजनीतिक समूहों में तालमेल और एकता ज्यादा हो और चुनाव में हस्तक्षेप तालमेल के साथ ज्यादा से ज्यादा हो, ऐसा अजीत जी का मानना है. 

लखनऊ की ७ जनवरी बैठक का यह मकसद नहीं था कि उत्तर प्रदेश में जो भी जन-पक्षीय राजनीति करे वो लोक राजनीति मंच का हिस्सा हो, बल्कि यह अधिक जरूरी है कि अधिक से अधिक लोग राजनीति जन-पक्ष में करें. उसका आधार क्या होगा, न्यूनतम शर्ते क्या होंगी, और किन लोगों के साथ लोक राजनीति मंच का तालमेल हो सकता है इस बात पर भी चर्चा हुयी।

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

निर्णय खुली बैठक में लूँगी: रमदई, सण्डीला, हरदोई से प्रत्याशी

रमदई, एक दलित महिला हैं जो लोक राजनीति मंच की ओर से संडीला, हरदोई से 2012 विधान सभा प्रत्याशी हैं।

रमदई ने बताया कि सरकार के खाद्यन्न कार्यक्रमों - सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मध्यांह भोजन व आंगनवाड़ी - को देखें तो काफी कोशिशों के बावजूद इनकी गुणवत्ता एक हद से ज्यादा सुधार पाना मुश्किल होता है। ये सरकार के अन्य कार्यक्रमों की तरह बुरी तरह भ्रष्टाचार का शिकार हो गए हैं और इनके लिए कोई गुणवत्ता की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। ये मान लिया गया है कि सरकार का पैसा है तो दुरुपयोग तो होना ही है।

उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के अतरौली-भरावन क्षेत्र के लालपुर गांव में स्थित आशा आश्रम पर इसीलिए एक लंगर आरंभ हुआ जिसका समन्वयन रमदई करती हैं। प्रतिदिन लगभग ८०-८५ लोग इस लंगर में भोजन करते हैं।

रमदई के तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं, पति वर्षों पहले जीवित नहीं रहे, और कोई आर्थिक जमा-पूँजी भी नहीं है. तब से रमदई मजदूरी आदि कर के किसी तरह से जीवन-यापन कर रही हैं और आशा आश्रम से भी जुड़ी रही हैं. 

रमदई बताती हैं कि गावं के लोग कहते हैं कि रमदई के पास न तो घर है न संपत्ति, तब वो कैसे चुनाव लड़ने जा रही हैं?

रमदई ने जीवन में कई परेशानियाँ झेली. प्रक्रिया-तहत निवेदन किये रमदई को २ साल से अधिक अवधि हो गयी है पर उनको अबतक विधवा पेंशन नहीं मिली है. गावं में 

कम-से-कम १५ ऐसे मामले हैं जहां लोगों को पेंशन नहीं मिल रही है. उसी तरह, इंदिरा आवास, नाले, खडंजे, आदि जैसे गावं के विकास से जुड़े मुद्दों पर भी रमदई कारवाई चाहती हैं. रमदई कहती हैं कि वो अगर जीत गयीं तो सब निर्णय वो खुली बैठक में ही लेंगी जिसमें गावं और क्षेत्र के सभी लोग भाग ले सकें. वें कहती हैं कि सब लोग जब समर्थन देंगे तब ही वो कार्य कर पाएंगी.

- सी.एन.एस. 

लोक राजनीति मंच वैकल्पिक राजनीति खड़ी करने हेतु प्रतिबद्ध

लोक राजनीति मंच की कोशिश है कि आने वाले विधान सभा चुनाव में कुछ ऐसे उम्मीवार हों जो विकल्प प्रस्तुत कर सकें। लोक राजनीति मंच छह ऐसे उम्मीदवारों का समर्थन कर रहा हैं।

ये उम्मीदवार हैं: पिपराइच, गोरखपुर से सत्येन्द्र यादव, बेल्थरा रोड, बलिया से जितेन्द्र त्यागी, वाराणसी कैण्ट से अफलातून देसाई, वाराणसी उत्तरी से अनीता श्रीवास्तव, सफीपुर (सुरक्षित), उन्नाव से सुषमा, सण्डीला, हरदोई से रमदई व मुहोली,सीतापुर से देवेश पटेल।

लोक राजनीति मंच एक वैकल्पिक राजनीति को खड़ा करने हेतु प्रतिबद्ध है, जिसका इस देश में संविधान में पूरा भरोसा हो तथा जो भ्रष्ट-आपराधिक गठजोड़ का मुकाबला भी करने को तैयार हो। निम्न मुद्दों पर हमारी भूमिका हमारी सोच को रेखांकित करती हैः

* राजनीतिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण ताकि विकास नियोजन संबंधी निर्णय ग्राम सभा या स्थानीय निकाय के स्तर पर लिए जा सकें।
* निजीकरण, उदारीकरण व वैश्वीकरण वाली आर्थिक नीतियों के वर्तमान स्वरूप का विरोध तथा प्राकृतिक संसाधनों पर कम्पनियों के कब्जे का विरोध
* हरेक धर्म के लिए सद्भाव व साम्प्रदायिक सद्भाव को मजबूत करना
* खाद्य सुरक्षा हेतु सभी धार्मिक स्थलों पर गुरूद्वारों के समान लंगर की व्यवस्था
* मानव निर्मित विभाजन की श्रेणियों के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेद करने का विरोध
* वैश्विक व क्षेत्रीय निशस्त्रीकरण खासकर व्यापक जनसंहार की क्षमता वाले हथियारों की, रक्षा बजट में कटौती, शांति व मैत्री को बढ़वा, सीमा पार लोगों को आने-जाने की छूट
* जाति प्रथा का उन्मूलन किन्तु जातियों में बराबरी स्थापित होने तक आरक्षण की नीति का समर्थन
* हरेक जन प्रतिनिधि या महत्वपूर्ण निर्णय लेने वाले पदों पर एक महिला व एक पुरूष की व्यवस्था, किन्नरों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व
* सैन्य बल विशेषाधिकार अधिनियम, गैर कानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम, छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम, जैसे काले कानूनों की समाप्ति
* आतंकवाद व नक्सलवाद के नाम पर निर्दोष लोगों का उत्पीड़न बंद
* उद्योग व सेवा क्षेत्र की तुलना में कृषि को महत्व दिया जाना, किसानों-मजदूरों को सम्मानजनक आय
* वर्ग विषमता को राजनीतिक निर्णय से खत्म करना
* सिर्फ अमीरों पर कर, इसके लिए एक अमीरी रेखा तय करना
* सार्वजनिक जीवन व प्रशासन के काम में पारदर्शिता व जवाबदेही
* शिक्षा के अधिकार में समान शिक्षा प्रणाली व पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को शामिल किया जाना
* सभी को मुफ्त चिकित्सा की व्यवस्था
* खाद्यान्न, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य व शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण पर रोक
* नाभिकीय उर्जा कार्यक्रम पर रोक, पर्यावरणीय दृष्टि से साफ-सुथरे अक्षय उर्जा स्रोतों को बढ़ावा
* स्वतंत्र फिलीस्तीन राज्य के मुद्दे का समर्थन

- अजीत झा, जे.पी. सिंह, एस.आर. दारापुरी, संदीप पाण्डेय, देवेश पटेल

भ्रष्टाचार के निराकरण के लिए राजनीतिक बदलाव जरूरी

अण्णा हजारे के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन से लोगों की उम्मीदें बहुत बढ़ गईं हैं। इस आंदोलन को व्यापक जन समर्थन मिलने के पीछे एक बड़ा कारण रहा लोगों का भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश। सामान्य लोग भ्रष्टाचार से इतने पीड़ित हैं कि जैसे ही उन्हें अण्णा के आंदोलन में इसका समाधान दिखाई पड़ा उन्होंने इस आंदोलन को हाथों हाथ ले लिया।

किन्तु क्या वाकई एक लोकपाल कानून बन जाने भर से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? इस देश में किस कानून का कड़ाई से पालन हो पाता है? क्या कानून से बचने का कोई न कोई रास्ता निहित स्वार्थ वाले खोज नहीं लेते? क्या इसकी सम्भावना नहीं है कि न्यायपालिका की तरह लोकपाल भी भ्रष्ट हो जाए?

फिलहाल तो एक मजबूत लोकपाल कानून बन जाएगा इसकी सम्भावना भी नहीं दिखाई पड़ती क्योंकि वामपंथी दलों को छोड़ शायद कोई दल यह नहीं चाहता कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कड़ा कानून बने। उनके संसद में लोकपाल विधेयक पर रुख से यह बात साफ है। आखिर जो लोग भ्रष्टाचार के पैसे से चुनाव जीत कर आए हैं वे कैसे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेंगे? वर्तमान राजनीतिक तंत्र का वित्तीय पोषण भ्रष्टाचार के पैसे से होता है यह अब कोई छिपी बात नहीं है। यदि भ्रष्टाचार समाप्त हो गया तो आज की तारीख में जो सांसद चुने गए हैं उनके अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा। उनमें से ज्यादातर लोग चुनाव नहीं जीत पाएंगे। आखिर तीन सौ से ऊपर करोड़पति और डेढ़ सौ से ऊपर आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद इस देश के सामान्य लोगों का प्रतिनिधित्व तो करते नहीं? ये सामान्य तरीके से या सहज रूप से चुनाव जीत कर आए हुए लोग नहीं हैं। इन्होंने पैसे के बल पर या कोई न कोई गैर कानूनी तरीकों का इस्तेमाल कर अपने मत प्राप्त किए हैं। यही राजनीतिक भ्रष्टाचार का मूल कारण है।

इस भ्रष्ट राजनीति जिसपर अब आपराधिक किस्म के लोगों का कब्जा है के विकल्प को खड़ा किए बगैर भ्रस्टाचार खत्म कर पाना असम्भव है। वैकल्पिक राजनीति का स्वरूप क्या होगा?

सबसे पहले तो राजनीति में ऐसे लोगों को आना होगा जिनकी जीवन शैली दिखावे से दूर हो। जो कम पैसे में चुनाव लड़ सकें। चुनाव आयोग द्वारा तय की गई खर्च की सीमा भी काफी अधिक है। उदाहरण के लिए विधान सभा चुनाव में खर्च की सीमा रु. 16 लाख है। कौन सामान्य व्यक्ति इतना पैसा खर्च कर सकता है? चुनाव जीतने के बाद उम्मीदवार की जीवन शैली में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आना चाहिए। यदि उसका जीवन खर्चीला हो जाता है तो यह तय है कि वह जन प्रतिनिधि भ्रष्टाचार से ही अपनी जरूरत पूरी करेगा। सुरक्षा के लिए उसे हथियार रखने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। असली जन प्रतिनिधि तो वह है जिसे उस जनता के बीच जाकर तो और सुरक्षित महसूस करना चाहिए जिसने उसे चुना है। वैसे भी कई बड़े राजनेताओं की हत्या ने यह दिखा दिया है कि हथियारों से मनुष्य की सुरक्षा नहीं होती।

राजनीति करने वाला व्यक्ति जमीनी कार्यकर्ता भी होना चाहिए, तभी वह जनता का दुख-दर्द भली भांति समझ पाएगा। जनता की उस तक सीधी पहुंच होनी चाहिए। जनता को ऐसा लगना चाहिए कि उसका जन प्रतिनिधि उसी के बीच का व्यक्ति है। कोई भी निर्णय लेने से पहले, खासकर देश के लिए नीतियां बनाने वक्त उसे जनता से सलाह मशविरा करना चाहिए। अपने दल या दल के नेता की बात मानने की मजबूरी नहीं होनी चाहिए। यह लोकतांत्रिक भावना के अनुरूप नहीं है। उसके जीवन में पूर्ण पारदर्शिता होनी चाहिए।

अण्णा हजारे का आंदोलन यह तो कह रहा है कि कांग्रेस को मत न दो किन्तु यह नहीं बता रहा कि किसे मत दो। फिर कांग्रेस के विकल्प में जो जीत कर आएगा, वह तो अन्य किसी मुख्य धारा के दल का ही सदस्य होगा। जब सारे दल भ्रष्टाचार के पैसों पर राजनीति करते हैं तो कोई और भ्रष्ट कांग्रेस से बेेहतर कैसे हो सकता है? असल में हमें कांग्रेस का विकल्प नहीं बल्कि भ्रष्टाचार का विकल्प चाहिए।

यहीं अण्णा हजारे का आंदोलन गल्ती कर रहा है। जब आप भ्रष्टाचार का विकल्प खड़ा करने की कोशिश करेंगे तो किरण बेदी उसका हिस्सा नहीं हो सकतीं। किरण बेदी के जो कारनामे सामने आए हैं उन्हें कैसे जायज ठहराया जा सकता है? करना कुछ अलग और कागज पर कुछ और दिखना, इसे ही तो भ्रष्टाचार कहते हैं। यदि स्वामी अग्निवेश की एक गल्ती पर उन्हें आंदोलन से अलग किया जा सकता था तो किरण बेदी को क्यों नहीं किया गया? क्या यह माना जाए कि अण्णा हजारे का आंदोलन भी कुछ हद तक भ्रष्टाचार बरदास्त कर सकता है? क्योंकि लोग कहते हैं कि अब यह हमारे खून में बस गया है। यानी आप कुछ भी कर लें यह खत्म नहीं हो सकता।

लेकिन फिर सवाल यह उठता है कि यह आंदोलन ही क्यों चलाया जा रहा है? यदि भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो फिर उसमें कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी जा सकती। भ्रष्टाचार छोटा हो या बड़ा उसे किसी भी तरीके से जायज नहीं ठहराया जा सकता है। यह कहना कि किरण बेदी ने प्राप्त अतिरिक्त धन सामाजिक कामों में लगाया भी कोई मजबूत दलील नहीं है। हरेक भ्रष्टाचार करने वाला व्यक्ति कुछ कम कुछ ज्यादा हद तक उसे जायज ठहराने वाला तर्क ढूंढ ही लेगा।

पूरी संस्कृति ही बदलनी पड़ेगी। यदि खून में भ्रष्टाचार समा गया है तो उसे कैंसर मान कर पूरा खून ही बदलना पड़ेगा। यह परिवर्तन राजनीतिक ही होना पड़ेगा क्योंकि वहीं इसकी जड़ है। यदि राजनेता चाह लेंगे तो नौकरशाही का भ्रष्टाचार भी रोका जा सकता है हलांकि कुछ लोगों का मानना है कि नौकरशाही ज्यादा भ्रष्ट है क्योंही उसे ही भ्रष्टाचार के तरीके मालूम है। खैर माहौल बदलेगा तो लोग भी बदलेंगे ऐसी हम उम्मीद कर सकते हैं।

- डॉ. संदीप पाण्डेय