जापान से सीख

1945 में आघात दुश्मन ने किया था। मानव इतिहास में अभी तक के सबसे अधिक दिल दहलाने वाले हमले में हिरोशिमा व नागासाकी में तीन लाख के ऊपर लोग मारे गये तथा कई लोग विकिरण जन्य बीमारियों का शिकार होकर बाद मे मरे। अभी-अभी जापान में जो दुर्घटना हुई है वह आत्मघाती है। नाभकीय दुर्घटनाओं की दृष्टि से दुनिया के इस सबसे दुर्भाग्यपूर्ण देश की त्रास्दी और भी विडम्बनापूर्ण इसलिए है कि जापान ने यह संकल्प ले रखा था कि वह कभी नाभकीय शस्त्र नही बनाएगा। जापानियों का तर्क था कि वे नही चाहेगें कि दुनिया की कोई और आबादी उस त्रास्दी को झेले जिसका सामना उन्हें हिरोशिमा व नागासाकी में करना पड़ा था। इस नेक संकल्प के बावजूद जापान ने नाभकीय ऊर्जा से बिजली पैदा करने का बड़ा कार्यक्रम बनाया। जापान की 30 प्रतिशत बिजली नाभकीय ऊर्जा से आती है तथा 2017 तक उनकी इसे बढ़ा कर 40 प्रतिशत तक ले जाने की योजना थी। उन्होने कभी सपने में भी नही सोचा होगा कि उनके नाभकीय बिजली संयंत्र कभी उनके लिए हिरोशिमा व नागासाकी की खौफनाक याद दिला देंगे।

फुकुशिमा की त्रास्दी का अन्त दिखाई नही पड़ता। आपातकालीन कर्मी लागातार दुर्घटना से उत्पन्न दैत्य से जूझ रहे हैं लेकिन हरेक दिन नए विकिरण के रिसाव का पता चल रहा है। एक हास्यास्पद घटनाक्रम में टोक्यो इलेक्ट्रिक पॉवर कम्पनी ने पहले घोषणा कर दी कि रिएक्टर संख्या 2 के पास पानी में विकिरण का स्तर सुरक्षित माने जाने वाले स्तर से एक करोड़ गुना अधिक पाया गया। इससे कर्मचारियों में हड़कम्प मच गया। फिर कम्पनी ने एलान किया कि विकिरण को मापने में गलती हुई और असल में विकिरण का स्तर एक लाख गुणा ही अधिक है। क्या इससे किसी को सांत्वना मिल सकती है? सुरक्षित स्तर से एक लाख गुणा अधिक विकिरण स्तर भी तो मनुष्य के लिए घातक ही होगा। अभी तक हुए विकिरण रिसाव से ही आस पास का पानी, मिट्टी, भोजन आदि प्रभावित हो चुके हैं। और यह जगह रहने योग्य नही रह गई है। इस इलाके को लोग छोड़-छोड़ कर जाने लगे हैं।

उन कर्मचारियों की दाद देनी पड़ेगी। जो उस खतरे को जानते हुए भी जिसमें उनकी सरकार उन्हें झोंक रही है। नाभकीय संयंत्र पर काबू पाने के लिए दिन-रात लगे हुए हैं। कम्पनी के प्रमुख मासाताका शिमुजू को अस्पताल में भरती कराना पड़ा। हिरोशिमा और नागासाकी में तो जापानी लोगों के सामने कोई चारा ही नहीं था। फुकुशिमा में भूकम्प व सुनामी तो अप्रत्याशित थे लेकिन वैज्ञानिकों को तो मालूम था ही कि नाभकीय संयंत्र में दुर्घटना कितनी खतरनाक हो सकती है। जापानी सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर नाभकीय ऊर्जा का कार्यक्रम अपनाकर अपनी जनता को खतरे में डाला यह गलती तो उसे स्वीकार करनी चाहिए।

जापान ने वैकल्पिक पुनर्प्राप्य ऊर्जा संसाधनों पर बड़े पैमाने पर शोध शुरू कर दिया था और आने वाले दिनों में वह अपनी ऊर्जा की जरूरत ऐसे संसाधनों से करने वाला है जो सस्ते होंगे, पर्यावरणीय दृष्टि से साफ सुथरे और सुरक्षित होंगे। लेकिन यह भूकम्प-सुनामी कुछ जल्दी आ गए - शायद जापान को और सारी दुनिया को एक चेतावनी देने के लिए। जापान ने निकट भविष्य में कार्बन उत्सर्जन को काफी कम कर देने का संकल्प लिया हुआ है। अब उसे नाभकीय कार्यक्रम से मुक्ति का भी संकल्प लेना होगा।

जापान में हुई दुर्घटना ने दुनिया भर के लोगों का नाभकीय ऊर्जा में विश्वास इस तरह डिगा दिया है जैसा पहले कभी नही हुआ। जो देश नाभकीय ऊर्जा के कार्यक्रम शुरू करने जा रहे थे अथवा उसका विस्तार करने की सोच रहे थे वे अब पुनर्विचार के लिए मजबूर हुए हैं। ये लोगों का संकल्प है कि अमरीका व यूरोप में पिछले 25-30 वर्षों से एक भी नाभकीय संयंत्र नही लगने दिया गया है। नाभकीय संयंत्र बिजली पैदा करने के सबसे खर्चीले व खतरनाक विकल्प साबित हो रहे हैं। ज्यादातर विकसित देश जिनके यहां नाभकीय ऊर्जा कार्यक्रम चल रहे हैं वे धीरे-धीरे अपने नाभकीय संयंत्र बन्द करने वाले हैं।

नाभकीय ऊर्जा कार्यक्रम को त्यागने की एक वजह यह भी है कि इन संयंत्रों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे को सुरक्षित तरीके से दफनाने का कोई तरीका वैज्ञानिक नही खोज पाए हैं। इस्तेमाल के बाद बाहर निकलने वाला ईंधन वहीं ठण्डा किया जाता है। इसकी मात्रा धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। यूरेनियम परमाणु के विघटन में निकलने वाले तमाम रेडियोधर्मी तत्वों के साथ क्या किया जाए यह किसी को नही मालूम। ये लगातार स्थानीय मिट्टी, पानी व वातावरण को जहरीला बनाते जा रहे हैं।

विकिरण से सबसे बड़ा खतरा होता है कैंसर या ल्युकेमिया का और आने वाली पीढ़ी में विकलांग बच्चे पैदा होने का। यदि जापान में दुर्घटना के बाद फुकुशिमा नाभकीय संयंत्र को काबू में लाने के लिए लगे 50 कर्मियों को तुरंत कुछ नही होता है तो ऐसी आशंका है कि कुछ महीनों या सालों बाद वे विकिरण जन्य रोग का शिकार होंगे ही। जो लोग मारे गए उनके मृत शरीर को दफनाने को लेकर भी संकट खड़ा हो गया है क्योंकि उनका शरीर काफी विकिरण ग्रस्त है जो दूसरों के लिए खतरा हो सकता है। ये नागरिक अपनी किसी गलती से नही मारे जाऐंगें बल्कि जापान के नीति निर्माता इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार ठहराए जाने चाहिए। यदि फुकुशिमा में कम्पनी छह में से चार रिएक्टर बंद करती है, जैसे कि उसने घोषणा की है, तो भी इस बात की कोई गारंटी नही है कि विकिरण का खतरा कुछ कम होगा।

किसी भी सरकार को यह अधिकार नही है कि वह अपने नागरिकों की जान खतरे में डाले। बिजली पैदा करने के ऐसे विकल्प ढूंढ़े जाने चाहिए जो हानिकारक नही हैं। बल्कि आम लोगों को ऊर्जा नीति बनाने में शमिल किया जाना चाहिए। कोई भी फैसला पूरी सही जानकारी पर ही आधारित होना चाहिए।

भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बुलंदशहर जिले के नरोरा नाभकीय बिजली संयंत्र का उदाहरण लें। यह गंगा नदी के तट पर बनाया गया है। यहां 1993 में भीषण आग लग चुकी है। यह मात्र सौभाग्य ही कहा जा सकता है कि यह आग नियंत्रण के बाहर नही गई। वरना यदि भोपाल के यूनियन कार्बाइड के संयंत्र में हुई जैसी दुर्घटना यहां हो जाती तो गंगा के तट पर उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल व बंग्लादेश के कुछ हिस्सों में रहने वाले लोग जरूर प्रभावित होते। हवा की दिशा यदि दिल्ली की ओर होती, जो यहां से मात्र 50-60 किलोमीटर दूर स्थित है, तो देश की राजधानी में भी विकिरण पहुंच जाता।

हमें  प्रकृति के साथ खिलवाड़ नही करना चाहिए। यूरेनियम की सबसे सुरक्षित जगह जमीन के नीचे है। इस एकमात्र प्राकृतिक रेडियोधर्मी पदार्थ का खनन नही होना चाहिए। हमारी बिजली और ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के बेहतर विकल्प मौजूद हैं। ध्यान रहे कि सभी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए बिजली जरूरी नही होती। आवश्यकता है जनता के बीच बहस चला कर एक विवेकपूर्ण ऊर्जा नीति बनाई जाए।

संदीप पाण्डेय

तम्बाकू अधिनियमों का खुले आम उड़ाया जा रहा है मजाक

तम्बाकू एक ऐसा मीठा ज़हर है जिसके बारे में यह सिद्ध हो चुका है कि तम्बाकू खाने वाले हर दो व्यक्तियों में से एक की मृत्यु का कारण तम्बाकू ही है | फिर भी लोग इसका प्रयोग करने  से हिचकते नहीं हैं, बल्कि सिगरेट पीने और गुटखा खाने में अपनी शान समझते हैं | आजकल के कुछ युवा तो इसे फैशन  मानते हैं,  उन्हें लगता है कि सिगरेट पीने से वे अधिक स्मार्ट दिखते हैं, लड़कियां उनकी तरफ अधिक आकर्षित होती हैं, लेकिन यह केवल उनकी ग़लतफ़हमी है और कुछ नहीं |

भारत सरकार का तम्बाकू से सम्बंधित एक बहुत ही प्रभावशाली कानून है,  "सिगरेट एंव अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३" , इसके बाद २००८ में धूम्रपान निषेध कानून बना | लेकिन ये सारे नियम कानून तम्बाकू पदार्थ बनाने वाली कंपनियों और तम्बाकू बेचने वाले दुकान दारों के सामने बौने साबित होते हैं | "सिगरेट एंव अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३" के सेक्शन ६(अ) में यह लिखा है कि सिगरेट या तम्बाकू की कोई भी दुकान शैक्षिक संस्थान के १०० गज के दायरे में नहीं होनी चाहिए | लेकिन जब हम इस पर विचार करते हैं, कि क्या यह नियम पूरे देश में प्रभावी है?, तो कदाचित हम सभी के  दिमाग में एक ऐसी दुकान ज़रूर आ जायेगी जो इस नियम का खुला उल्लंघन कर रही होगी | इसी प्रकार १८ वर्ष से कम उम्र के बच्चों का तम्बाकू पदार्थ खरीदना व बेचना दोनों ही गैर कानूनी हैं | पर क्या वास्तव में ऐसा होता है |

तम्बाकू के इसी कानून को ध्यान में रखते हुए लखनऊ के कुछ युवाओं ने लखनऊ शहर  का सर्वे कर उन स्थानों की तस्वीर खींची जहाँ शैक्षिक संस्थानों के  गेट के पास ही तम्बाकू की दूकान मौजूद थी, तथा अनेक स्थानों पर अवयस्क बच्चे बिना किसी रोकटोक के या तो तम्बाकू/सिगरेट बेच रहे थे, या खरीद कर सिगरेट के कश लगा रहे थे | ३१ मई  २०११ को विश्व तम्बाकू दिवस पर हिंदुस्तान टाईम्स द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में इन युवाओं ने अपनी रिपोर्ट प्रशासन के सामने प्रस्तुत की,  तो प्रशासन ने उन्हें बताया कि यदि कोई भी पुलिस कर्मी ड्यूटी के दौरान धूम्रपान करते हुए पाया जाता है तो उसके खिलाफ सख्त कार्यवाही होगी, साथ ही आश्वासन दिलाया कि एक हफ्ते के अन्दर ये सारी अवैध रूप से चल रही दुकानें हटा दी जाएँगी | लेकिन जब २० दिनों  के बाद युवाओं ने फिर से शहर का निरिक्षण किया तो पाया कि एक भी दुकान नहीं हटी है | तो  फिर से युवाओं ने हिंदुस्तान टाईम्स को बताया,  तब  हिंदुस्तान टाईम्स ने १८ जून को फोटो के साथ खबर छापी तो आनन् फानन में प्रशासन के द्वारा एक-दो दुकानें हटाई गई | कानून परिपालन की यह कमी सिर्फ लखनऊ के प्रशासन की नहीं है बल्कि एक दो राज्यों को छोड़कर पूरे देश में यही हाल तम्बाकू के नियमों का है |

लेकिन कुछ राज्यों में जैसे गोवा या फिर जम्मू कश्मीर के कुछ शहरों (बुदगम, श्रीनगर) में इन नियमों का सख्ती से पालन भी हो रहा है और उसका फायदा भी दिखाई दे रहा है | अभी हाल ही में ही (इंडो एशियन न्यूज़ के अनुसार) केरल के मुख्यमंत्री ओमन चंडी ने तम्बाकू के खिलाफ एक  कदम उठाया है |  उन्होंने तम्बाकू के सारे उत्पाद की बिक्री बंद कराने को लेकर प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है | जिसमें उन्होंने न केवल शैक्षिक संस्थानों बल्कि पूरे देश में तम्बाकू की बिक्री और इसके प्रयोग पर पाबन्दी लगाने की अपील की है | साथ ही उन्होंने अपने पत्र में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तम्बाकू के विज्ञापनों पर रोक लगाने का भी जिक्र किया है | लेकिन क्या उन्होंने अपने राज्य में तम्बाकू के नियमों को सुचारू रूप से लागू किया है? जिस प्रकार गोवा सरकार ने अपने यहाँ तम्बाकू को पूर्णरूप से प्रतिबंधित कर रखा है,  अगर उसी प्रकार से सभी राज्य के मुख्यमंत्री केवल अपने राज्य में तम्बाकू का जो कानून बना है, सिर्फ उसे पूर्णरूप से लागू कर दें तो तम्बाकू  उत्पादों की बिक्री बंद कराने की ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी | और  देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इसके लिए पहल करनी चाहिए|

किसी ने सच कहा है कि अगर किसी जाति को बर्बाद करना है तो उसकी युवा पीढ़ी को बर्बाद करो, और तम्बाकू पदार्थ बनाने वाली कम्पनियाँ यही कर रही हैं | हमेशा उनके निशाने पर युवा वर्ग ही रहता है, इसलिए तम्बाकू को रोकने के लिए शैक्षिक संस्थानों में जागरूकता फ़ैलाने से बेहतर विकल्प कोई हो ही नहीं सकता | क्यूंकि जब बच्चा किशोरावस्था में होता है, उस समय उसका आकर्षण प्रत्येक अनजान वस्तु की तरफ होता है, खासकर उन वस्तुओं की तरफ जो नुकसानदायक होती हैं | वो हर उस चीज़ के बारे में जानना चाहता है जिससे वो अनजान है | इसलिए इस समय उसे तम्बाकू जैसे खतरे से अधिक सावधान करने की ज़रुरत होती है | लेकिन जब वह किशोरावस्था से निकल कर एक बालिग अवस्था में आ जाता है, तब तक अगर उसे ये लत लग चुकी है तो इससे पीछा छुड़ाना काफी मुश्किल हो जाता है | इसलिए स्कूल/कालेज में शिक्षकों और घर पर अभिभावकों  को भी चाहिए कि यदि वे धूम्रपान करते है तो इसे छोड़ दें और बच्चों के सामने तो कदापि न करें | क्यूंकि इससे दो खतरें हो सकते हैं एक तो बच्चा गलत आदत पकड़ सकता है, दूसरे वो अपरोक्ष धूम्रपान का भी शिकार हो सकता है, जोकि काफी खतरनाक साबित हो सकता है |

अभी हाल ही में (दैनिक भास्कर के अनुसार) कश्मीर विश्विद्यालय के निरीक्षण के दौरान एक प्रोफ़ेसर को विश्वविद्यालय के भीतर धूम्रपान करते पाया गया, हालाँकि उन्होंने ने इसके एवज में जुर्माना भी भरा लेकिन क्या यह सही है कि जिस गुरु की बात को विद्यार्थी पहली ही बार में सही मान लेता है, वही जब  धूम्रपान जैसी हरकत उनके सामने करेगा तो इसका क्या असर होगा बच्चों पर | इन्ही जैसी आदतों पर रोक लगाने के लिए (यूएनआई के अनुसार) मुंबई नगर निगम (बी एम सी) ने यह नियम लागू किया है कि कोई भी शिक्षक स्कूल या कालेज के अन्दर या बाहर १०० गज के दायरे में तम्बाकू खरीदते या उसका सेवन करते पाया गया,  तो उसे तुरंत निलंबित कर दिया जायेगा |

 इस तरह के नियमों को केवल मुंबई में ही नहीं बल्कि पूरे देश में लागू करना चाहिए,  ताकि युवा पीढ़ी को भटकने से बचाया जा सके और नियमों का पालन न केवल प्रशासन बल्कि हिंदुस्तान के प्रत्येक नागरिक को करना चाहिए,  जब हर नागरिक इन्हें मानने लगेगा तो प्रशासन को कुछ भी याद दिलाने की ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी |

नदीम सलमानी

सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत आवेदन पत्र देने का मेरा पहला अनुभव

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सूचना का अधिकार अधिनियम २००५, भारत सरकार द्वारा बनाया गया एक सशक्त कानून हैं, जहाँ एक ओर यह कानून हर भारतीय नागरिक को, किसी भी सरकारी संस्था से प्रत्यक्ष रूप से सूचना प्राप्त करने का अधिकार देता है वहीँ दूसरी ओर यह कानून सरकारी अधिकारिओं को जवाबदेही के लिए भी मजबूर करता है. यही कारण है कि सूचना का अधिकार कानून का नाम आते ही सरकारी अधिकारियों  के हाथ-पांव फूलने लगते हैं.

"अधिकार और दायित्व" शिविर में  सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ के बारे में जानकारी प्राप्त करने के बाद यह पहला अवसर था, जब मैनें स्वतः स्वास्थ्य विभाग लखनऊ में, सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ के तहत आवेदन पत्र देकर, शहर में तम्बाकू नियंत्रण कानून की स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाही .

किसी भी नियम-कानून से बेख़ौफ़, आर. टी. आई. आवेदन पत्र जमा करने के लिए, मैं स्वास्थ्य विभाग कैसरबाग़ लखनऊ जा पहुंचा. मुझे गेट पर ही रोक लिया गया, क्योंकि मेरे पास गेट पास नहीं था. मैनें बड़े  ही विनम्र भाव से गेट मैन से पूछा कि क्या आप मुझे बता सकते हैं कि गेट पास कैसे बनता है, उसने जवाब दिया कि गेट पास बनवाने के लिए मुझे, जिस डिपार्टमेंट में जाना है वहां से एक पास स्लिप मंगवानी पड़ेगी और उस पास स्लिप को देखकर ही मुझे पास काउंटर से गेट पास दिया जायेगा.

मैनें पास काउंटर पर जाकर पूंछा कि तम्बाकू नियंत्रण के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें किस  डिपार्टमेंट से पास स्लिप मंगवानी पड़ेगी? उसने जवाब देते हुए कहा कि आप हमें डिपार्टमेंट का नाम बता दें तो हम आपको नंबर देंगे जिस पर फोन से बात करके आप पास स्लिप मंगवा सकते है. पर हमने जब उसे बताया कि हमें यह नहीं मालूम कि तम्बाकू नियंत्रण के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें किस डिपार्टमेंट में बात करनी चाहिए तो उसने मुझे एक नंबर ०५२२-२६१३९२३ दिया, जिस पर बात करके पास स्लिप मांगने को कहा.

जब मैने इस नम्बर पर फोन किया तो मुझे बताया गया कि मै जिस विषय में जानकारी चाहता हूँ वह "निदेशक चिकित्सा उपचार" के कार्य क्षेत्र में हैं, उसके लिए मुझे ०५२२-२६२९१०६ पर बात करनी पड़ेगी. अतः मैंने दूसरे नम्बर पर फोन किया और अपने आगमन का कारण बताते हुए पास स्लिप देने का आग्रह किया. जिसपर जवाब मिला कि जन सूचना अधिकारी अभी ऑफिस में नहीं हैं  अतः आप एक घंटे के बाद इसी नंबर पर फोन करके जानकारी प्राप्त कर लीजियेगा.

जब मैंने उनसे दोबारा पास स्लिप के लिए आग्रह किया और  बताया कि मैं  जन सूचना अधिकारी से मिलना  चाहता हूँ और यह जानना चाहता हूँ कि एक आम नागरिक के लिए आर. टी. आई. लगाने का सहज तरीका क्या है? तब उसने मुझे कहा कि आप पास स्लिप के लिए इंतजार करें. और एक घंटे से ज्यादा समय बीत गया और कोई पास स्लिप नहीं आया और जितनी बार मैं फोन करता मेरे कॉल को फैक्स टोन दे दिया जाता. अतः मैंने गेट पास सहायक के पास जाकर बोला कि आप बात करके मुझे बता दें कि हमें गेट पास दिया जायेगा या नहीं? और इस प्रकार उस सहायक ने डिपार्टमेंट में बात किया और कहा कि मैं अभी थोड़ी देर रुकूं.

थोड़ी देर बाद एक सच्चन जिनका नाम श्री जे. एस पाण्डे था बाहर आकर मुझसे मिले और मेरे हाथ में एक बुक लेट दे दी और कहा कि आप को जो जानकारी प्राप्त करनी है वह सभी जानकारी इस बुक लेट में दी गई है, और पास स्लिप देने से इंकार कर दिया यह कहते हुए कि अधिकारी अभी ऑफिस में नहीं है.

जिसपर मैंने कहा कि यदि अधिकारी नहीं हैं तो आप यह आर. टी. आई. स्वीकार कर लें, इस पर वह आवेदन को न स्वीकारने कि बात कहते हुए कहा कि आप सारी जानकारी इस  बुक लेट से प्राप्त कर सकतें है और यदि आप आर. टी. आई आवेदन लगाते हैं तो आप को केवल उन्हीं बातों कि जानकारी दी जाएगी जिसका ज़िक्र आपने आवेदन पत्र में किया है. और  आर. टी. आई. आवेदन जमा करने के लिए आपको कैश काउंटर पर जा कर कैश जमा करना पड़ेगा. इस पर हमने कहा की बिना पास के  हम अन्दर कैश काउंटर तक जायेंगे कैसे और क्या आप यह लिखित दे सकते है कि आप इस आवेदन को ऐसे नहीं स्वीकारेंगे?

हमारे इस सवाल पर श्री जे. एस पाण्डे जी यह कहते हुए वहां से चले गए कि आप आपने काम पर ध्यान नहीं दे रहें है बल्कि सवाल और जवाब में उलझ रहें है और यहाँ पर यही तरीका है, आर. टी. आई. आवेदन जमा करने का. इसके बाद भी मैं पुनः पास काउंटर पर गया  वहां पर बैठे सहायक श्री वी. के. गुप्ता जी से पूंछा कि क्या आप मुझे कैश काउंटर तक जाने का पास दे सकते है?

इस पर उंन्होने कहा कि जबतक अन्दर से पास स्लिप नहीं आता तब तक आप को अन्दर जाने का गेट पास नहीं मिल सकता. अंततः मैं निराश मन से वापस लौट रहा था कि मुझे ०५२२-२६२९१०६ से फ़ोन आया कि आपका पास स्लिप नीचे भेज रहा हूँ यदि आप गए न हो तो. मैनें कहा कि आप पास स्लिप भेजें मैं वापस आ रहा हूँ. और इस प्रकार मुझे पास स्लिप प्राप्त हुआ और मैं निदेशक चिकित्सा और उपचार विभाग में गया जहाँ पर श्री एस. के. गुप्ता जी ने, जो वहां पर बाबू हैं, मेरा आवेदन पत्र स्वीकार किया .

इस पूरे घटनाक्रम से हमें यह अनुभव हो गया कि आर. टी. आई. के निरूपण में सरकारी आला-अफसर हर मुश्किलें पैदा करने कि कोशिश करते हैं  क्योंकि सरकारी तंत्र में यही एक ऐसा शस्त्र है जो जवाबदेही के लिए मजबूर कर सकता है. एक आर. टी. आई. आवेदन जमा कराने के लिए मुझे स्वास्थ्य भवन के तीन चक्कर लगाने पड़े. पहले चक्कर में समय की समस्या थी क्योकि वहां पर लोगों से मिलने का समय सुबह, १० बजे से १२ बजे तक और शाम ४ बजे से ५ बजे तक का ही है. दूसरे चक्कर में छुट्टी थी. तीसरे चक्कर में कुछ घंटो के परिश्रम के बाद मुझे एक आर. टी. आई. आवेदन जमा कराने में सफलता प्राप्त हुई.


राहुल द्विवेदी

लोकतंत्र का सच्चा नायक कौन?

कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा है  कि लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा उन लोगों की तानाशाही से है जो न तो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से चुने गए हैं और न ही चुनाव जीत सकते है. उनके अनुसार ‘अतार्किक आशाएं एवं रवैया’ अब केंद्र सरकार की बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा है. इससे पहले प्रणव मुखर्जी ने कहा था कि लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर करने से और संवैधानिक शक्तियों से अधिक प्राधिकार देने से लोकतंत्र खत्म हो जायेगा.

हालाँकि सरकार, जनता के प्रतिनिधियों के साथ, लोकपाल बिल का मसौदा तैयार कर रही है, पर यह स्पष्ट है कि सरकार इसके प्रति संजीदा नहीं है. कांग्रेस पार्टी, जो सत्ता में है, उसके वरिष्ठ सदस्यों ने लोकपाल बिल मसौदा तैयार करने की समिति में जनता के सदस्यों के प्रति आक्रामक और कठोर रवैया अपनाया हुआ है. सरकार के इस रोष का क्या कारण है?

असल में सभी मुख्यधारा के राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से कमाए हुए धन पर चलते हैं. चुनाव जीतने के लिये जिस प्रकार के भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल होता है, उसके बिना ये राजनीतिक दल कैसे चुनावी राजनीति कर पाएंगे? अपनी पार्टी की भ्रष्ट प्रणाली की सहायता के बगैर मनीष तिवारी खुद ही चुनाव नहीं जीत पाएंगे. आखिर यह तो पता चले कि कांग्रेस पार्टी या किसी भी पार्टी के कितने सदस्यों ने पिछले लोकसभा चुनाव को, खर्च-सीमा रुपया २५ लाख से कम खर्चा करके, जीता है? अपने आशाजनक प्रत्याशियों को चुनाव आयोग की इस खर्च-सीमा से अधिक पैसे देने के लिये कांग्रेस पार्टी जानी जाती है. जब बुनियाद में ही भ्रष्टाचार हो तो यह कैसे हो सकता है कि निर्वाचित सांसद ईमानदारी से कार्य करेंगे?

बढ़ती महंगाई के लिए सरकार ही जिम्मेदार है. योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अनुसार शहर में रु. 20 प्रतिदिन व गांव में रु. 15 प्रतिदिन की प्रति व्यक्ति आय को गरीबी रेखा मान लेना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ कि गाँव में रु. १६ और शहर में रु. २१ प्रतिदिन कमाने वाले लोग गरीब नहीं हैं. क्या मोंटेक सिंह खुद रु. 21 प्रति दिन की आय पर जी कर दिखा सकते हैं? क्या यह सरकार का ‘अतार्किक आशाएं एवं रवैया’ नहीं है?

अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान ने आम लोगों से इसीलिए समर्थन पाया है क्योंकि आम लोग ही इस भ्रष्ट प्रणाली के शिकार हैं. इस समय आम लोग ही अपने चुने-हुए-राजनेताओं के बजाय अन्ना हजारे का समर्थन कर रहे हैं. इस सन्दर्भ में फिलहाल तो अन्ना हजारे ही अधिक सच्चे जन-प्रतिनिधि हुए जब कि वे शायद मनीष तिवारी की तरह चुनाव न जीत सकें.

वह समय अब दूर नहीं है जब हमारे तथा-कथित राजनेताओं की जन-सेवा की पृष्ठभूमि पर सवाल उठेंगे. अन्ना हजारे या मनीष तिवारी -जन-सेवा में किसकी बेहतर  उपलब्धियां हैं? इस दृष्टिकोण से भी मनीष तिवारी के मुकाबले अन्ना हजारे ही अधिक श्रेष्ठ जन-प्रतिनिधि हैं. नौसिखियों को, बिना जन-सेवा के अनुभव के, मात्र अपनी ऊंची पहुँच या पैसे के बल पर, राजनेता बनने देने के चलन को  बंद करना होगा. वर्तमान लोकसभा के आधे सांसद अत्यधिक अमीर हैं, और १६२ सांसदों पर अपराधी होने का आरोप लगा हुआ है, ऐसे में इसको कैसे भारत के नागरिकों का प्रतिनिधि माना जा सकता है, जिनमें से अधिकाँश लोग गरीब हैं और शक्तिशाली लोगों द्वारा किये गए अपराधों का शिकार हैं. एक शक्तिशाली और प्रभावकारी लोकपाल कानून के आ जाने से ऐसे राजनेताओं की कौम के अस्तित्व को ही खतरा है जो अन्ना हजारे के अभियान के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. यही डर उनके आक्रामक रवैये के रूप में व्यक्त हो रहा है. आक्रामकता एक डरपोक और भ्रष्ट व्यक्ति का हथियार है.

सी.एन.एस.

अप्रत्यक्ष विज्ञापनों के जरिये तम्बाकू कम्पनियां बढ़ा ही हैं अपना बाजार

'तम्बाकू एक धीमा जहर है.  चाहे वह जिस रूप में ली जाए उसका  परिणाम घातक ही होता है' यह कहना है छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो0 (डा0) रमाकांत का।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार 2005 द्वारा पुरूस्कृत प्रो0 (डा0) रमाकांत ने कहा कि जो व्यक्ति तम्बाकू का किसी न किसी रूप में सेवन करते हैं, उनमें से ५०% की मृत्यु का कारण तम्बाकू है। तम्बाकू का हानिकारक प्रभाव न सिर्फ उसके उपयोग करने वाले पर पड़ता है, बल्कि उपयोग कर्ता के साथ में रहने वाले व्यक्ति पर भी इसका बुरा असर पड़ता है, यहां तक कि अगर गर्भवती महिला के सामने कोई धूम्रपान कर रहा हो तो उसका असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर भी पड़ता है, और वह मंदबुद्धि, अपंगता, हृदय रोग जैसी बीमारियों का शिकार हो सकता है।

एसोसिएशन ऑफ सर्जन्स ऑफ इण्डिया  2012 के नव निर्वाचित अध्यक्ष प्रो0 (डा0) रमाकांत ने तम्बाकू से जुड़े दुष्प्रभावों के बारे में बताने के साथ ही स्लाइड के माध्यम से तम्बाकू की चपेट में आए मरीजों की फोटो दिखाकर यह बताया कि किस प्रकार तम्बाकू की वजह से उन्हें मुंह का कैंसर, हाथ व पांव में अपंगता, मुंह का न खुलना  आदि जैसी गंभीर बीमारियों से जूझते हुए अपनी जान गँवानी पड़ी।

वर्तमान में सी ब्लॉक इन्दिरा नगर में ‘पाइल्स टू स्माइल’ नामक क्लीनिक के निदेशक प्रो0 (डा0) रमाकांत ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा क़ि यह कोई जरूरी नही है कि जो लोग रोज तम्बाकू का सेवन करें उन्हें ही कोई बीमारी हो, कभी कभी चखने वाले भी इसकी चपेट में आ सकतें हैं।

बॉबी रमाकांत ने बताया कि किस प्रकार तम्बाकू कम्पनियां ‘सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम 2003’ के लागू होने के बाद सीधे प्रचार प्रसार न करके दूसरे उत्पादों की आड़ में अपना प्रचार कर रही हैं. उन्होने एक सिगरेट बनाने वाली कम्पनी गोडफ्रे फिलिप्स का उदाहरण देते हुए बताया कि  उसने भारत के कुछ नागरिकों को उनकी बहादुरी को सम्मानित करते हुए अवार्ड दिया, अर्थात परोक्ष रूप  से ही  सही, वे सिर्फ अपना प्रचार करना चाहती हैं। यदि वास्तव में उनके दिल में उन लोगों के लिये सम्मान है जिन्होनें अपनी बहादुरी से दूसरों की जान बचाई तो वह खुद क्यों ऐसे उत्पाद बनाकर बेच रही है जिनसे प्रतिदिन लाखों लोग मर रहे हैं? इसी प्रकार उन्होंने और भी कई सारी कंपनियों के परोक्ष विज्ञापनों के बारे में बताया।

बॉबी रमाकांत ने तम्बाकू के प्रचार के बारे में बताने के साथ ही  ’दर्पण (2006)’ नामक एक डाक्युमेंटरी फिल्म दिखाई जिसमें उन्होने दिखाया कि किस प्रकार दूसरे उत्पादों का सहारा लेकर यह कम्पनियां तम्बाकू उत्पाद बेच रही हैं।

(प्रस्तुत लेखक सी.एन.एस. द्वारा आयोजित छः दिवशीय  "अधिकार व दायित्व "  शिविर में प्रशिक्षित एक प्रशिक्षार्थी नदीम सलमानी द्वारा  लिखा गया हैं)

धूम्रपान एक अभिशाप

जैसा कि हम सभी जानते हैं  धूम्रपान  स्वास्थ्य  के लिए हानिकारक है. इससे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी होती है और यह चेतावनी सभी तम्बाकू उत्पादों पर अनिवार्य रूप से लिखी होती है, और लगभग सभी को यह पता भी है. परन्तु लोग फिर भी इसका सेवन बड़े ही चाव से करते हैं.
 
ऐसी ही एक कहानी है  विशम्भर नाथ नामक व्यक्ति की. इनके तीन लड़के थे. विशम्भर नाथ बहुत ही परिश्रमी थे और अपने लड़कों के पालन पोषण का पूरा ध्यान रखता थे. परन्तु विशम्भर नाथ की सबसे बड़ी कमी थी उनकी धूम्रपान की आदत. चूँकि विशम्भर नाथ के लड़के पढ़े लिखे थे इसलिए उन्हें पता था कि धूम्रपान, सेहत के लिए ठीक नहीं है लेकिन वे यह सोचकर अपने पिता से कुछ नहीं कहते थे कि कहीं उनके पिता बुरा न मान जाएँ. इसी तरह समय बीतता गया और आखिर एक दिन लड़कों ने हिम्मत करके अपने पिता से कह दिया कि, 'पिता जी आप धूम्रपान न किया करें, यह आपके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है"  विशम्भर नाथ क्रोधित हो गए और क्रोध में कहने लगे कि "मैं अपने सारे सुखों को त्याग कर तुम्हारी खुशियाँ पूरी करता हूँ. बस  मेरा एक छोटा सा शौक है, क्या वह भी अब तुम लोगों से पूछ कर करूँ?"

लड़के घबरा गए और डरते- डरते  बोले कि "तम्बाकू का सेवन करना सही नहीं है". लेकिन विशम्भर नाथ ने  क्रोधित होते हुए कहा, "क्या गलत है और क्या सही, यह सब अब हमें तुमसे सीखना पड़ेगा?".
लड़के वहां से चले गए इसी प्रकार समय बीतता चला गया. कुछ वर्षों के बाद विशम्भर नाथ को कैंसर हो गया जिसके कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. परन्तु उनका कैंसर से बचना संभव नहीं था. अपने अंतिम समय में उन्होंने अपने लड़कों से एक ही बात कही कि "तम्बाकू एक अभिशाप है. कभी भी इसका सेवन न करना".

अपने पिता की मृत्यु देख कर लड़कों ने प्रण किया कि 'हम कभी तम्बाकू का सेवन नहीं करेंगे और हमारी कोशिश रहेगी कि कोई धूम्रपान न करे और न ही इसकी वजह से कोई मरे.'
तो देखा आपने--धूम्रपान आपके लए क्या है ? "सजा या मजा"?

(प्रस्तुत लेखक सी.एन.एस. द्वारा आयोजित छः दिवशीय  "अधिकार व दायित्व "  शिविर में प्रशिक्षित एक प्रशिक्षार्थी दिलीप शर्मा द्वारा  लिखा गया हैं)                      

लड़कियों को भी भुगतने होंगे तम्बाकू के परिणाम

"नागरिकों का स्वस्थ लखनऊ"  के तत्वाधान में सी-2211 इन्दिरा नगर लखनऊ में 6 दिवसीय एक कार्यशाला का आयोजन किया गया। जिसके द्वितीय दिन की परिचर्चा का विषय था "तम्बाकू व उसके दुष्प्रभाव"  इस गोष्ठी के प्रमुख वक्ता वर्ष 2005 में विश्व स्वास्थ्य  संगठन द्वारा पुरूस्कृत प्रो0 (डा0) रमाकांत थे।
   
छत्रपति शाहूजी महाराज  चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के सर्जरी विभाग के सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष प्रो0 (डा0) रमाकांत ने कार्यशाला को सम्बोधित करते हुए कहा कि लगभग 1.1 अरब लोग सम्पूर्ण विश्व में धूम्रपान करते हैं जिसमें से प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख लोग मृत्यु की आगोश में चले जाते हैं। तथा भारतवर्ष में लगभग 10 लाख लोग प्रतिवर्ष मरते हैं तथा 2200 लोग प्रतिदिन तम्बाकू उत्पाद से ही मरते हैं। तम्बाकू से कैंसर होता है तथा तम्बाकू मौत का कारण है।

    कार्यशाला को सम्बोधित करते हुए कहा कि तम्बाकू  बहुत ही घातक है जो रोगों को जन्म देती है इसके दूरगामी परिणाम बहुत ही खतरनाक और जानलेवा होते हैं उन्होने इसको एक प्रस्तुति के माध्यम से तम्बाकू से होने वाले कैंसर रोगियों के चेहरों से रूबरू कराया।

डा0 रमाकांत ने बताया कि व्यक्ति पर तम्बाकू का सबसे पहला असर, यदि वह चबाने वाली तम्बाकू का सेवन करता है तो उसके मुंह की मांस पेशियां सिकुड़ने लगती हैं और धीरे धीरे मुंह खुलना बन्द हो जाता है और वह कैंसर का रूप ले लेता है इसके साथ साथ उन्होने कुछ ऐसे चित्र भी दिखाए जो तम्बाकू के दुष्परिणाम को पूर्णतः स्पष्ट कर रहे थे। तत्पश्चात तम्बाकू में पाए जाने वाला निकोटीन भी हानिकारक होता है जो नसों में पहुंच कर रक्त के साथ मिलकर पूरे शरीर में नसों को प्रभावित करता है।

औरतों के धूम्रपान के मुद्दे पर डा0 रमाकांत ने कहा कि आजकल यह युवाओं का फैशन होता चला जा रहा है, लड़कियों  को लगता है कि हम किसी भी मामले में पुरूषों से पीछे नही हैं इस पर डा0 रमाकांत ने कहा कि यदि वह लड़कों से पीछे नही हैं तो जैसे लड़के दुष्परिणाम झेल रहे है वैसे ही उनको भी झेलना पड़ेगा।

इसके उपरांत विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 2008 में पुरूस्कृत बॉबी रमाकांत ने बताया कि किस प्रकार से इण्डस्ट्री तम्बाकू उत्पाद का प्रचार कर रही हैं कम्पनी वाले कैसे अप्रत्यक्ष रूप से प्रचार करते हैं।

(प्रस्तुत लेखक सी.एन.एस. द्वारा आयोजित छः दिवशीय  "अधिकार व दायित्व "  शिविर में प्रशिक्षित एक प्रशिक्षार्थी आनंद पाठक  द्वारा  लिखा गया हैं)

युवा वर्ग हों सावधान: जिन्दगी चुने तम्बाकू नहीं

तम्बाकू एक धीमा जहर है. यह एक ऐसा पदार्थ है जो समाज को कीड़े की तरह खाए जा रहा है. और लोग लगातार मृत्यु की आगोश में जा रहे है. तम्बाकू का सेवन करने वालो की मृत्युदर प्रतिवर्ष बढती जा रही है. इसका एकमात्र कारण सरकार द्वारा तम्बाकू उत्पादों की रोकथाम न करवा पाना  है.

आखिर सरकार आम आदमी की जिंदगी से क्यों  खिलवाड़ कर रही है. आखिर इतनी कठिन और दर्दनाक स्थिति से तम्बाकू सेवनकर्ता गुज़र रहे है, उसके लिए सरकार ढिलाई क्यों  बरत रही है? तम्बाकू व उससे बने उत्पाद हमारे  जीवन के लिए बहुत घातक है और साथ साथ हमारे पर्यावरण व हमारे साथ रहने वालो  के लिए भी घातक है. इसके संदर्भ में छत्रपति शाहू जी महराज चिकित्सा विश्व विद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष डाक्टर रमाकांत का कहना है "प्रत्यक्ष धूम्रपान की अपेक्षा अप्रत्यक्ष धूम्रपान व्यक्ति के लिए अधिक हानिकारक होता है."

अभी हाल ही में हुए टोबाको अडल्ट सर्वे २०१० में यह साबित हो चुका है कि पहले की अपेक्षा तम्बाकू उत्पादों के सेवन करने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है और सबसे खास बात यह है कि इनमे युवाओं की संख्या का प्रतिशत सबसे अधिक है. यही कारण है कि हम तम्बाकू उत्पादों द्वारा होने वाली मृत्युदर पर नियंत्रण नहीं कर पा रहे हैं.

तम्बाकू द्वारा होने वाले नुकसान - तम्बाकू हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक है. इसके हानिकारक प्रभाव को बताते हुए वर्ष २००५ में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पुरस्कृत डा रमाकांत का कहना है कि "तम्बाकू के सेवन से दूरगामी परिणाम बहुत ही जानलेवा होते है. इसके सेवन से मुह की मांसपेशियाँ सिकुड़ने लगती है, दांत सड़ने लगते हैं और इससे गले, जीभ, मुंह, फेफड़े आदि के कैंसर होने की संभावना ८० फीसदी बढ़ जाती है, यहाँ तक की इसके सेवन से शरीर के किसी अंग पर इसका हानिकारक प्रभाव हो सकता है."

युवा वर्ग का धूम्रपान में संलिप्त होना: हमारे देश का भविष्य और समाज की आन-बान-शान समझे जाने वाले युवा वर्ग धूम्रपान व तम्बाकू सेवन में सबसे आगे हैं जैसा की सर्वे द्वारा स्पष्ट है. युवा जो कि अशिक्षित होने के कारण या फिर फैशन, शौक या अपने आप को आधुनिक  दर्शाने के लिए सिगरेट या तम्बाकू का सेवन आरम्भ कर देते हैं. और यह उम्र १३ से १८ वर्ष के बीच की होती है. क्योंकि ज्यादातर लोग युवावस्था में ही धूम्रपान करना प्रारंभ करते हैं. युवाओं द्वारा खुलेआम सिगरेट के कश सार्वजनिक स्थान पर लगाए जा रहे हैं जिससे वहां उपस्थित सभी लोगो को नुकसान हो रहा है और सरकार मूकदर्शक बनी खड़ी है.

सरकार द्वारा तम्बाकू उत्पाद रोकने के लिए जो नियम बनाए गए हैं वे भी इसको रोकने के लिए कारगर नहीं साबित हो पा रहे हैं. सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३ के सेक्शन ६(अ) के अंतर्गत "कोई भी अवयस्क (१८ से कम उम्र के बालक) को तम्बाकू उत्पाद बेचने व खरीदने पर प्रतिबन्ध है. इसके साथ ही संदेह होने पर कि खरीददार नाबालिग नहीं है दुकानदार ग्राहक से १८ वर्ष की उम्र होने का उपयुक्त साक्ष्य देने का भी अनुरोध कर सकता है."

 परन्तु आजकल धड़ल्ले से खुलेआम बालक को, जो स्कूल में पढने वाले गावों में खेलने वाले आराम से दूकान पर तम्बाकू उत्पाद खरीदते व कश लगाते हुए देखे जा सकता है जिनके हाथ में किताबें और कलम होनी चाहिए वह मौत का सामान लिए बेच रहे हैं, और परिवार के लोग इसे व्यवसाय मानकर बच्चे का तम्बाकू उत्पाद की दूकान पर बैठना एक सराहनीय कदम मानते हैं. यह सरकार द्वारा बनाए गए नियमों का उल्लंघन नहीं है तो क्या है ? क्या इसको रोकने में सरकार अपने आप को असहज महसूस कर रही है?

   अतः यह स्पष्ट है की तम्बाकू का सेवन हमारे व हमारे जीवन के लिए बहुत ही घातक होता है खासकर युवाओं के लिए जो अपने आप को युवावस्था में संभाल नहीं पाते हैं और चोरी छिपे उसका प्रयोग प्रारम्भ कर देते हैं. अतः इसके लिए कुछ  सुझाव  निम्नलिखित  हैं..
१- यदि आप धूम्रपान के आदी हैं तो आप उसको धीरे- धीरे कम करने का प्रयास करें और फिर छोड़ दें.
२- कभी भी बच्चों के सामने धूम्रपान या गुटखा का सेवन न करें क्योंकि आपको देखकर वह भी इस लत के शिकार हो सकते हैं.
३- युवाओं को तम्बाकू उत्पाद से दूर रखें.
४- ग्राहक यदि नाबालिग है तो दूकानदार तम्बाकू व उससे बने उत्पाद कतई न दें.
 ५- समय- समय पर इससे होने वाले दुष्प्रभावों के बारे में युवाओं को बताएं जिससे वह अगर चोरी छिपे सेवन कर रहें हो तो इसके दुष्प्रभावों का चिंतन कर इस लत से दूर हो जाएँ.
६- समय- समय पर आयोजित की जाने वाली तम्बाकू निषेध की गोष्ठियों में अवश्य भाग लें जिससे उन मुद्दों पर आपकी समझ बढ़ेगी व आप भी किसी को अच्छी तरह से इसकी हानियाँ बता पायेंगे.
      
अतः आपसे सादर अनुरोध है की युवाओं को तम्बाकू उत्पादों से दूर रखें क्योंकि हमारे देश का भार इन्ही युवा कन्धों पर है और जिनको कमजोर न बनाकर सशक्त और मजबूत बनाना है तथा विश्व तम्बाकू निषेध दिवस के अवसर पर आप सभी यह संकल्प लें कि न तो तम्बाकू का सेवन करेंगे और जो कर रहे हैं उन्हें इसके दुष्प्रभाव की जानकारी देते हुए छुडवाने का प्रयास करेंगे तथा  छुडवाने में पूरा सहयोग करते हुए इस मुहिम को जारी रखेंगे और सब मिलकर कहेंगे "जिन्दगी चुनो, तम्बाकू नहीं"

(प्रस्तुत लेखक सी.एन.एस. द्वारा आयोजित छः दिवशीय  "अधिकार व दायित्व "  शिविर में प्रशिक्षित एक प्रशिक्षार्थी आनंद पाठक  द्वारा  लिखा गया हैं)

आखिर क्यों नाजुक होती है १८ साल तक की उम्र

उपरोक्त शब्द सुनकर आप काफी हैरान होंगे कि १८ साल तक की उम्र नाजुक क्यों होती है?

तो आइये मैं आपको इस बारे में अवगत कराता हूँ कि आखिर १८ साल तक की उम्र नाजुक क्यों होती है. हालांकि अभी तक मुझको भी इस सन्दर्भ में कुछ भी मालूम नहीं था, लेकिन दिनांक २७/०५/२०११ को सी ब्लाक इंदिरा नगर में चल रहे "अधिकार व उत्तरदायित्व शिविर" में तम्बाकू और उससे होने वाली हानियों पर  माननीय बाबी रमाकांत जी ने  अपने ज्ञान के भण्डार को बड़े ही हर्षोल्लास के साथ हमें भेंट किया जिससे हमें कई बातों की जानकारी मिली.

यह तो सर्व विदित ही है कि १८ साल से कम उम्र के बच्चों की सोचने  की क्षमता कम होती है. वे जिस माहौल में रहते हैं  उसी माहौल के हिसाब से वे पलते बढ़ते हैं. अगर माहौल अच्छा हो और वहां रहने वाले लोग अच्छे हों तो बच्चा  भी अच्छा होगा, और अगर माहौल खराब हो तो बच्चा भी उसी माहौल में पड़कर बिगड़ जाता है. अक्सर बुरी संगत में पड़कर वह धूम्रपान व तम्बाकू का सेवन करने लगता है. यहाँ पर मुझे एक पंक्ति याद आ रही है "संगति से ही गुण होत है संगति से गुण जाय, हिय तराजू तौली के तब मुख बाहर आय". तात्पर्य यह है कि बच्चा जैसी संगति करेगा उसके आधार पर ही उसके अन्दर गुण होंगे. अक्सर यह भी देखा जाता है कि बच्चे भावनाओं में  बहक कर धूम्रपान करने लगते हैं-- जैसे कि चार लड़के एक कालेज में एक साथ पढ़ते थे जिनमे एक नशीले पदार्थ का सेवन करता था, तो बाकी तीनों भी उसके संगति में आकर नशीले पदार्थों का सेवन करने लगे. लेकिन उनको ये नहीं मालूम था कि इससे  नुकसान होगा. धीरे-धीरे वे बीमार होने लगे.  नशीले पदार्थों व तम्बाकू का सेवन करते रहने से उनके अन्दर टी.बी., दमा, कैंसर जैसे घातक रोगों ने जन्म ले लिया. अक्सर युवा वर्ग किसी फिल्म में अपने मनपसंद अभिनेता को धूम्रपान करते देख कर बहक जाते हैं और वे भी धूम्रपान करने लगते हैं, जिसका अंजाम बाद में उन्हें पता चलता है.

कुछ बच्चे सड़कों पर तम्बाकू कि दूकान लगाए रहते हैं जिनकी उम्र १८ साल से कम होती है. कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जो ये समझते हैं कि तम्बाकू खाना शान की बात है, और स्वयं को आधुनिक कहलाने की होड़ में वे भी सिगरेट, तम्बाकू, गुटखा आदि  का सेवन करने लगते हैं. उन्हें यह नहीं पता होता है कि इसका सेवन करने से हमारी मौत भी हो सकती है. इस संदर्भ में मैंने एक पंक्ति बनायी है जिसे मैं प्रस्तुत करना चाहूँगा "नशा नाश की जड़ है भाई, इसका फल अतिशय दुखदाई".

भारत सरकार ने २००३ से एक बहुत ही अच्छा कानून लागू किया है जिसके तहत १८ साल या उससे कम उम्र के बच्चे न तो तम्बाकू खरीद सकते हैं और न ही बेच सकते हैं. इस क़ानून का सख्ती से पालन होना चाहिए, तथा युवा वर्ग में इस बात की जागरूकता होनी चाहिए कि तम्बाकू रहित जीवन ही स्वस्थ जीवन है.
 
(प्रस्तुत लेखक सी.एन.एस. द्वारा आयोजित छः दिवशीय  "अधिकार व दायित्व "  शिविर में प्रशिक्षित एक प्रशिक्षार्थी सर्वेश कुमार शुक्ला  द्वारा  लिखा गया हैं) 

पोपट लाल को मिली भयानक मौत

मौत का नाम सुनते ही ह्रदय में एक अजीब सा कम्पन होता  है, जिससे रोंगटे भी खड़े हो जाते हैं. एक थे पोपटलाल जी जो, धूम्रपान तो छोड़िए, इलायची आदि का भी सेवन नहीं करते थे, उनकी मृत्यु हुई कैंसर की वजह से- कारण  का धुआं ! अब आप सोंच रहे होंगे कि सिगरेट का सेवन तो वह करते नहीं थे फिर सिगरेट का धुआं कहाँ से आया? वो इसलिए कि प्रतिदिन पोपटलाल अपने पड़ोसी नरसिंह जी के घर शतरंज खेलने जाया करते थे, और कम से कम २ घंटे इस खेल का आनन्द उठाया करते थे. इस दो घंटे की अवधि में नरसिंह कम से कम १० सिगरेटों का कश लगाकर बड़े ही सुख का अनुभव करते थे. पर सिगरेट का धुआं पोपटलाल जी के शरीर में भी जाता था. परिणाम यह हुआ कि ३ साल बाद नरसिंह थोड़े अस्वस्थ हुए परन्तु पोपटलाल जी ४ महीने कैंसर को झेलने के बाद अब यमराज के यहाँ शतरंज खेल रहे हैं.

अगर गहनता से आप पोपटलाल जी के बारे में सोचिये तो परिणाम यह निकलकर सामने आएगा कि यदि हम धूम्रपान नहीं भी कर रहें हैं, परन्तु धूम्रपान कर रहे लोगों के संपर्क में है, तो हमें भी अनेको  रोगों का सामना करना पड़ सकता है. क्योंकि सिगरेट के धुएं के सारे विषैले कीटाणु  हमारे शरीर में  बड़ी ही आसानी से प्रवेश कर लेते हैं.

प्रो रमाकांत जी ने बताया कि अकारण मृत्यु का अधिकांश श्रेय कैंसर या धूम्रपान से हो रही अन्य बीमारियों को जाता है. उन्होंने हमें कई कैंसर ग्रस्त  रोगियों के फोटोग्राफ भी दिखाए जिसमे मुख्यतः गले, जीभ, गाल, यहाँ तक हाथों और पैरों का भी कैंसर पाया गया. अंत में उन्होंने बताया कि रोगी को बचाने के लिए अधिकतर कैंसर से ग्रसित अंग को शरीर से अलग करना पड़ता है.

यह कोई लेख नहीं है. बस मैं आपसे यही विनम्रता से निवेदन करता हूँ कि ३१ मई को होने वाले "विश्व तम्बाकू निषेध दिवस" पर यदि हम लोग यह दृढ़ निश्चय कर लें कि कम से कम २ लोगों को तम्बाकू से होने वाले घातक परिणामों के बारे में न सिर्फ बताएँगे बल्कि तम्बाकू सेवन न करने में उनका भरपूर सहयोग करेंगे तो काफी हद तक हम अपने आस पड़ोस के माहौल को स्वच्छ कर सकते हैं.

(प्रस्तुत लेखक सी.एन.एस. द्वारा आयोजित छः दिवशीय  "अधिकार व दायित्व "  शिविर में प्रशिक्षित एक प्रशिक्षार्थी सच्चिदानंद पाण्डेय  द्वारा  लिखा गया हैं)                   

18 वर्ष से कम आयु में तम्बाकू खरीदना या बेचना कानूनन अपराध है

तम्बाकू एक प्रकार का विषैला पदार्थ है तथा इससे कई प्रकार की बीमारियाँ हो जाती हैं. परन्तु भारत वर्ष में कई ऐसे लोग हैं जो इन  बीमारियों का पता होने पर पर भी तम्बाकू का सेवन करते रहते हैं. सरकार  द्वारा "सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३"  बनाया गया जिसके अंतर्गत १८ साल से कम उम्र के बच्चों द्वारा तम्बाकू बेचना और खरीदना दोनों  ही दंडनीय अपराध हैं, परन्तु  कई लोग इस कानून का खुलेआम मजाक उड़ाते हैं, और १८ वर्ष से कम आयु के बच्चे  को तम्बाकू खरीदते और बेचते हुए अक्सर देखा जा सकता है. इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा यह क़ानून भी लागू किया गया है कि खैनी, गुटखा या सिगरेट जैसे तम्बाकू उत्पाद को स्कूल, कालेज या किसी अन्य शिक्षण संस्थान के सामने या उसके सौ गज की दूरी में बेचना भी कानूनन अपराध है. परन्तु लखनऊ जैसे शहर में पाया गया है कि इस क़ानून का खुले आम उल्लंघन किया जा रहा है, तथा स्कूल /कालेज के आस पास  में सिगरेट, गुटखा एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं. जिस प्रकार १८ साल से कम आयु के बच्चों को तम्बाकू उत्पाद बेचना अपराध है, ठीक उसी प्रकार इस उम्र के बच्चों से तम्बाकू बिकवाना भी अपराध है. बच्चों की जगह स्कूल में होना चाहिए, जिसके लिए हमारी सरकार ने सर्वशिक्षा अभियान चलाया है, न कि तम्बाकू सिगरेट की दुकानों में. तो सरकार द्वारा चलाये इस अभियान में सभी नागरिक सहयोग करें और अपने बच्चों को तम्बाकू से दूर रखते हुए उन्हें स्कूल भेजें, ताकि आगे चल कर वे  एक समझदार और ज़िम्मेदार नागरिक बन सकें.                                                                                                
(प्रस्तुत लेखक सी.एन.एस. द्वारा आयोजित छः दिवशीय  "अधिकार व दायित्व "  शिविर में प्रशिक्षित एक प्रशिक्षार्थी जतिन अरोड़ा  द्वारा  लिखा गया हैं)                                    

क्लोज़ अप में ली गयी फोटो होती है प्रभावशाली : बाबी रमाकांत

"फोटो को अधिक अच्छी और प्रभावशाली बनाने के लिए लांग शाट के बजाये क्लोज़ अप में लें और हमेशा लक्ष्य को ध्यान में रखें" यह कहना है प्रख्यात लेखक एवं फोटो पत्रकार बाबी रमाकांत का. सन 1991 से लेखन क्षेत्र से जुड़े नागरिक पत्रकार बाबी रमाकांत फोटो पत्रकारिता की बारीकियों के बारे में बता रहे थे. उन्होंने बताया कि किस प्रकार एक साधारण कैमरे या मोबाइल कैमरे से फोटो ली जाये जोकि अच्छी और उपयोगी हो, फोटो लेने से पहले प्रकाश का विशेष ध्यान रखें क्योंकि प्रकाश की अनुपस्थिति में ली गयी फोटो साफ़ नहीं आती है. 

बाबी रमाकांत ने आगे बताया कि यदि आप फ्लैश  कैमरे का प्रयोग कर रहे हैं तो लांग शाट या किसी प्रकाश वाली वस्तु की फोटो लेते समय फ्लैश बंद कर दें. वरना लांग शाट की फोटो में आगे वाली वस्तु की फोटो तो साफ़ आएगी लेकिन पीछे की साफ़ नहीं आएगी, क्योंकि फ्लैश की लाइट  दूर तक नहीं जा सकती है, और प्रकाश वाली वस्तु, जैसे दिये या फिर रंगीन प्रकाश से सजे घर की फोटो में फ्लैश के कारण प्रकाश के आसपास की चीज़ें तो दिखाई देंगी लेकिन प्रकाश वाली वस्तु नहीं आएगी.

एक अंग्रेजी कहावत  है "One photo is better than 100 words." इसी दिशा में अपनी बात को बढ़ाते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार 2008 द्वारा पुरुस्कृत बाबी रामकान्त ने बताया क़ि जब कोई फोटो लें तो हमेशा ध्यान रखें की आप चिन्हित किस बात को कर रहे हैं, और उसकी एक से अधिक फोटो लें. अलग -अलग कोण से फोटो लेना भी अच्छा रहता है. उन्होंने कैमरे में मौजूद नाईट मोड का प्रयोग करना भी बताया और कहा कि इसके प्रयोग से भी अच्छी फोटो ली जा सकती है. 

बाबी रमाकांत "नागरिकों का स्वस्थ लखनऊ " द्वारा आयोजित एक ग्रीष्म शिविर में "नागरिक पत्रकारिता" विषय पर बोल रहे थे.  

(प्रस्तुत लेखक सी.एन.एस. द्वारा आयोजित छः दिवशीय  "अधिकार व दायित्व "  शिविर में प्रशिक्षित एक प्रशिक्षार्थी नदीम सलमानी  द्वारा  लिखा  गया हैं)

मंहगाई, गरीबी व खाद्य सुरक्षा

[English] [फोटो] अभी यह बात हो ही रही थी कि गरीबी रेखा 28.3 प्रतिशत से बढ़ा कर तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के अनुसार 41.8 पर तय हो जबकि सरकार द्वारा ही नियुक्त सक्सेना समिति ने 49 प्रतिशत की संस्तुति की है और योजना आयोग के अजुन सेनगुप्ता ने 77 प्रतिशत असंगठित मजदूर को 20 रुपए से कम पर गुजारा करने की बात उजागर की, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि शहर में 20 रु. प्रतिदिन व गांव में 15 रु. प्रतिदिन की प्रति व्यक्ति आय को गरीबी रेखा मान लेना चाहिए। क्या मोंटेक सिंह खुद 20 रु. प्रति दिन की आय पर जी कर दिखा सकते हैं?

सरकार द्वारा गरीबी रेखा पर एक सीमा तय कर देने से बहुत से गरीब इस श्रेणी को मिलने वाली सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। गांव-गांव की कहानी है कि पात्र गरीब गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की सूची से बाहर हैं तथा तमाम अपात्र लोग इसमें शामिल हैं। यदि मनरेगा की तरह यह छूट मिले कि कोई भी जरूरतमंद अपना कार्ड बनवा सकता है तभी यह समस्या हल हो पाएगी। इसको दूसरे तरीके से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लोक व्यापीकरण की मांग के रूप में भी उठाया जा रहा है।

अब सरकार ने नया शिगूफा छोड़ा है। वह कह रही है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अनाज के बदले नकद देगी। उ. प्र. में हरदोई व लखीमपुर खीरी को प्रयोग के लिए चुना गया है। हाल ही में हरदोई में कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि गरीब व्यक्ति अनाज ही चाहता है। फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वजह से अनाज की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद से किसान को सम्मानजनक नहीं तो एक न्यूनतम मूल्य तो मिल ही जाता है। कृषि पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया है यह तो स्पष्ट है। 1950 व ‘60 में कृषि विकास दर हुआ करती थी 3.2 प्रतिशत जो अब 1.3 प्रतिशत है। कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा हुआ करता था 60 प्रतिशत जो अब घटकर मात्र 13 प्रतिशत रह गया है।

हाल ही में भू अधिग्रहण के इतने मामले सामने आए हैं जहां किसानों की जमीनें जबरदस्ती निजी व्यवसायिक हितों की पूर्ति के लिए ली जा रही हैं। महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों, जैसे जल, जंगल, जमीन व खनिज, जिस पर गरीब लोगों का जीवन व जीविका निर्भर है के लूट की खुली छूट पैसे वालों को मिली हुई है और हमारे लोकतंत्र में सरकार ताकतवर लोगों के साथ मिल कर गरीब का दमन करती नजर आती है।

सरकार ने जो आर्थिक नीतियां अपनाई हुई हैं उससे गरीब व अमीर का फर्क बढ़ता जा रहा है। नई आर्थिक नीतियों के लागू हाने के बाद से जबकि सेवा क्षेत्र में तनख्वाहें 15 गुना से भी ज्यादा बढ़ गई हैं तो दैनिक मजदूर की मजदूरी दोगुनी ही हुई है। सेवा क्षेत्र, जिसका प्रतिशत कुल आबादी का 3-5 होगा, के लोगों के वेतन बढ़ते ही बाजार में जरूरी उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं और इसकी गाज गिरती है 70-80 प्रतिशत दैनिक मजदूरी करने वाले पर। यही कारण है कि आजादी के समय से प्रति व्यक्ति अनाज व दाल की खपत में भारी गिरावट आई है। यानी हमारी विकास दर भले ही अच्छी दिखाई देती हो किन्तु खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से हमारी अधोगति हुई है।

अरुंधती धुरू, 9415022772, रोमा, जयशंकर पाण्डेय, केशव चंद, नंदलाल, अनिल मिश्र, शंकर सिंह, रामबाबू, राजेश मौर्य, जे.पी. सिंह, एस. आर. दारापुरी, संदीप पाण्डेय

अगर पाकिस्तान के पास परमाणु बम न होता तो क्या होता?

डाक्टर अब्दुल कादिर, जो अपने आपको पाकिस्तान के परमाणु बम का जनक मानते हैं, पिछले कुछ सालों से पाकिस्तानी सेना की निगरानी में अपने इस्लामाबाद स्थित आलीशान मकान में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं. उनका अधिकतर समय अखबारों के लिए साप्ताहिक कॉलम लिखने में व्यतीत होता है. अपने हाल ही के एक लेख में उन्होंने कहा है कि, " यदि हमारे पास १९७१ के पहले आणविक क्षमता होती तो हमें एक शर्मनाक हार का सामना करते हुए अपना आधा देश (वर्त्तमान बांगला देश) खोना नहीं पड़ता."
ऐसा लिखते समय वे शायद यह भूल गए कि ३०,००० आणविक हथियार भी सोवियत यूनियन को पतन, विघटन, और हार से नहीं बचा पाए. तो फिर क्या एक बम पाकिस्तान को १९७१ की हार से बचा पाता? क्या वर्त्तमान में भी बचा पायेगा?
चलिए एक बार फिर से १९७१ की यादें ताज़ा करते हैं. हमारे जैसे लोग जो उस दौर में पले बढ़े, वे सभी यह जानते हैं कि पूर्वी एवम् पश्चिमी पाकिस्तान एक ही देश के हिस्से ज़रूर थे, पर वे कभी भी एक राष्ट्र नहीं बन पाए. आज की युवा पीढी इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकती कि उन दिनों, पश्चिम पाकिस्तान में बंगालियों के प्रति कितना जातीय विरोध व्याप्त था. आज मैं शर्म से सर झुका कर यह बात स्वीकार करता हूँ, कि उस समय मेरे बाल मन में भी पूर्वी पाकिस्तान के छोटे और काले बाशिंदों के प्रति घृणा के ही भाव थे. हम सभी को यह भ्रम था कि कद्दावर, गोरे और बढ़िया उर्दू बोलने वाले ही अच्छे पाकिस्तानी और मुसलमान हो सकते हैं. मेरे कुछ स्कूली दोस्त रेडियो पाकिस्तान से बंगाली   में प्रसारित होने वाले समाचारों की अजीब भाषा का मज़ाक उड़ाते थे. पश्चिम पाकिस्तान के शासन में बंगाली जनता बहुत प्रताड़ित हुई. वह यह मानती थी कि उसकी ऐतिहासिक नियति एक बंगला भाषी राष्ट्र कि नागरिकता हैं, न कि एक उर्दू भाषी पूर्वी पाकिस्तान की-- जैसा कि जिन्ना चाहते थे.
भाषा के अलगाव के अलावा भी परेशानी वाले कई मुद्दे थे. पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में पूरे पाकिस्तान की ५४% आबादी रहती थी, और यही भाग विदेशी पूंजी का सबसे बड़ा अर्जक भी था. परन्तु पश्चिम पाकिस्तान के सेना नायक,अफसर एवम् जुल्फिकार अली भुट्टो जैसे राजनीतिज्ञ इस बात से डरते थे कि प्रजातांत्रिक प्रणाली के रहते सारी राष्ट्रीय सम्पदा, एवम् सत्ता पूर्वी पाकिस्तान के हाथों में चली जाएगी. लोकतंत्र और न्याय से वंचित, पूर्वी पाकिस्तान की असहाय जनता अपने क्षेत्र की पूंजी को पश्चिमी पाकिस्तान के उद्योग, स्कूल, और बाँध बनाने के कार्यों पर खर्च होते हुए बेबसी से देखती रही. १९७० में जब 'भोला साइक्लोन ने ५ लाख लोगों की जान ली, तब भी रावलपिंडी में बैठे हुए राष्ट्रपति याहिया खान एवम् साथी सेनानायकों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. ऐसे माहौल में चुनावी नतीजों ने निर्णायक अवसर प्रदान किया. अवामी लीग को पाकिस्तानी संसद में बहुमत प्राप्त हुआ, परन्तु भुट्टो तथा अन्य सेनानायकों ने जनता के निर्णय को नहीं माना. बंगालियों के सब्र का बाँध टूट गया और वे आज़ादी की जंग में कूद पड़े. पश्चिम पाकिस्तान की सेना ने नरसंहार मचा दिया. राजनैतिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, एवम् विद्यार्थी चुन चुन कर मारे गए. खून कि नदियाँ बहने लगीं और लाखों लोग सरहद पार भाग निकले. जब  भारत ने हस्तक्षेप करके पूर्व को सहयोग प्रदान किया, तब सेना ने हथियार डाल दिये और एक  नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ.
उस समय १९७१ में पाकिस्तान के पास बम न होना एक वरदान से कम नहीं था. पता नहीं डा. खान क्या सोच कर कह रहे हैं कि बम पाकिस्तान को विघटन से बचा सकता था. क्या माननीय डॉक्टर साहब ने ढाका की जनता पर बमबारी करी होती? या फिर कोलकाता और दिल्ली को जला दिया होता, ताकि प्रतिशोध में भारत भी कराची और लाहौर से बदला लेता? या फिर हमने भारत को आणविक हमले की धमकी दे कर उसे युद्ध से बाहर रखने का प्रयत्न किया होता?
बम के बगैर भी हज़ारों की तादाद में निरीह जनता मारी गयी. पाकिस्तान के विघटन को रोकने के लिए और कितने पूर्वी पाकिस्तानियों की कुर्बानी देनी पड़ती ? कुछ लोग यह कह सकते हैं कि विध्वंस के बावजूद भी यदि पाकिस्तान एक राष्ट्र ही बना रहता तो कालांतर में पूर्व पाकिस्तानियों का फायदा ही होता. परन्तु विकास के आंकड़े कुछ और ही कहते हैं. लन्दन स्थित लेगाटुम  इंस्टीट्यूट द्वारा ११० देशों के लिए बनायी गयी २०१० की समृद्धि तालिका  में  बांग्लादेश का स्थान ९६ हैं, जबकि पाकिस्तान १०९ वें स्थान पर है. यह तालिका शासन प्रणाली, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, निजी स्वतंत्रता, एवम् सामाजिक पूंजी के आधार पर बनायी गयी है. इस हिसाब से तो पूर्व की जनता को स्वतंत्रता से लाभ ही हुआ है. यूं.एन.ओ. के १८२ राष्ट्रों के मानवीय विकास सूचकांक में पाकिस्तान का स्थान १४१ है, जो  बांग्लादेश के १४६ से कुछ ही ऊपर है. तात्पर्य यह कि यदि बांग्लादेशी पाकिस्तान में ही रहते तो उनका अधिक फायदा न होता.
इसके अलावा, आंकड़े पूरी कहानी नहीं बताते हैं.  बांग्लादेश गरीब अवश्य है, परन्तु अधिक सुखी एवम् आशावादी है. वहां, पाकिस्तान के मुकाबले कहीं बेहतर तरीके से संस्कृति पनप रही है, शिक्षा में सुधार हो रहा है, तथा जनसँख्या नियंत्रण प्रयत्न कारगर हो रहे हैं. वहां न तो आत्मघाती बमबारी हो रही है है, न ही सरकारी संस्थानों एवम् सेना पर दैनिक  प्रहार.

बम ने पाकिस्तान को क्या फायदा पहुँचाया है? यह कहना बिलकुल गलत होगा कि यदि पाकिस्तान के पास बम न होता तो भारत उसको निगल जाता. भारत तो अपनी ही समस्याओं से जूझ रहा है. आर्थिक रूप से उन्नतिशील होने के बावजूद वह अपनी वर्तमान १.२ बिलियन जनसँख्या (जिसमें से लगभग ५०% बहुत गरीब है) को नियंत्रित करने में प्रयत्नशील है. वह किसी भी हालत में और १८० मिलियन लोगों का भरण पोषण करने में समर्थ नहीं है. और, यदि भूल से वह ऐसा करना भी चाहे तो एक असममित युद्ध के द्वारा जीत असंभव ही है. अमेरिका द्वारा ईराक और अफगानिस्तान में, तथा भारत द्वारा कश्मीर में झेली जा रही मुसीबतें इस बात को साफ़ कर देती हैं.
यह सच है कि १९९८ के बाद तीन बार बम ने  ही भारत को पाकिस्तान पर दंडात्मक हमले करने से रोका. १९९९ में पाकिस्तान की कारगिल घुसपैठ के बाद, उसी साल १३ दिसंबर को भारतीय संसद में हमले के बाद, तथा २००८ में लश्करे तैबा द्वारा मुंबई हमले के बाद, भारतीय जनता द्वारा इस प्रकार की क्रोधित मांगें करी गयीं कि भारत को पाकिस्तान स्थित मिलिटेंट ग्रुप्स के कैम्पों पर आक्रमण करना चाहिए. परन्तु यह समस्या केवल इसलिए है क्योंकि बम का इस्तेमाल इन आक्रमणकारी दलों की रक्षा के लिए किया गया है. अपनी इसी आणविक छतरी के कारण पाकिस्तान उन सभी लोगों के लिए एक चुम्बकीय आकर्षण रखता है जो इस्लाम के नाम पर युद्ध करते हैं. यहाँ तक कि वो ओसामा बिन लादेन का भी अंतिम सुरक्षा स्थल बना. पाकिस्तान भी धीरे धीरे वही कष्टपूर्ण पाठ पढ़ रहा है जो सोवियत यूनियन और साउथ अफ्रीका की गोरी सरकार पहले ही सीख चुकी है-- बम किसी भी देश कि जनता को सुरक्षा नहीं प्रदान कर सकता. बल्कि बम के कारण ही आज पाकिस्तान ऐसी मुसीबतज़दा हालत मैं है.

२८ मई को ही पाकिस्तान ने परमाणु बम का विस्फोट किया था. हमें यह दिन उत्सव के रूप में न मना कर इस मुसीबत को ख़त्म करने का प्रण करना चाहिए. बम बनाने एवम् उसकी यश गाथा गाने से कहीं अच्छा होगा अगर हम एक चिरस्थायी और सक्रीय लोकतंत्र का निर्माण करें, हमारी अर्थ व्यवस्था शान्ति न कि युद्ध को बढ़ावा दे, हमारी प्रादेशिक समस्याओं का निवारण हो, एक ऐसे  सहनशील समाज की स्थापना हो जहाँ विधि शासन का आदर तथा सामंतवादी व्यवस्था का अन्त हो.

डा. परवेज़ हूदभौय
(लेखक नाभिकीय भौतिकी के प्रोफ़ेसर हैं एवम् इस्लामाबाद और लाहौर में पढ़ाते हैं)

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का दबाव खत्म

डॉ. संदीप पाण्डेय
बाबा रामदेव का रामलीला मैदान से जबरन हटाया जाना एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। सभी कह रहे हैं कि गलत हुआ। खासकर जिस तरह पुलिस ने महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बक्शा। किन्तु जो हुआ उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बाबा ने एक राजनीतिक मुद्दा उठाया है। सरकार ने पहले बातचीत से हल ढूढ़ने की कोशिश ही। बातचीत विफल हो गई तो उसने बल का सहारा लिया। यह कोई पहली बार तो हुआ नहीं। मेधा पाटकर को 2006 में जंतर मंतर से इससे भी बुरी तरीके से रात के अंधेरे में ही उठाया गया था। उस समय भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के मंत्री बातचीत के लिए अनशन स्थल तक आए थे। मेधा पाटकर और देश के कई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता ही नहीं आम जन ने भी पुलिस की बर्बरता को कई बार झेला है। आदिवासी इलाकों में तो जनता का इस कदर दमन हुआ है कि आज देश के एक बड़े हिस्से में सरकार के खिलाफ एक हिंसक प्रतिरोध खड़ा हुआ है। लोग जेल जाते हैं, यातनाएं सहते और मानसिक प्रताड़ना झेलते हैं। उस दृष्टि से तो रामदेव को कोई खास नहीं झेलना पड़ा। रामदेव तो पुलिस आते ही मंच से कूद गए। फिर एक लड़की के वस्त्र पहन पुलिस से भाग बचने की कोशिश की। किन्तु पकड़े गए। रामदेव यदि पुलिस का सामना साहस से करते तो उनकी गरिमा कायम रहती।

यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बाबा के साथ 4 व 5 जून रात में जो हुआ वह निश्चित रूप से शर्मनाक था तथा भारतीय लोकतंत्र पर एक काले धब्बे के रूप में ही याद किया जाएगा। उसकी जितनी भर्त्सना की जाए वह कम है। दिग्विजय सिंह ने अनशन शुरू होने से पहले कहा था कि कांग्रेस को बाबा से कोई डर नहीं है इसीलिए बाबा स्वतंत्र हैं वर्ना सलाखों के पीछे होेते। पर जब सरकार बाबा को मनाने में विफल रही तो कांग्रेस को यह समझ में आ गया कि यदि बाबा का अनशन 4-5 दिन चल गया और अन्ना हजारे को जिस किस्म का जनता का समर्थन मिला था वैसा समर्थन मिल गया तो सरकार के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। और सरकार डर गई। किन्तु इस लेख का विषय है हाल में हुए भ्रष्टाचार विरोधी ओदोलनों की समीक्षा।

अप्रैल में अन्ना हजारे का आंदोलन हुआ। अन्ना कहते हैं कि उनके लिए त्याग का मूल्य सबसे महत्वपूर्ण है। यदि अन्ना की कोई एक विशेषता है तो वह है उनकी सादगी। उनका कोई बैंक खाता नहीं है। रालेगण सिद्धी में मंदिर के एक कमरे में रहते हैं जिसमें कोई ताला नहीं लगता। लेकिन उनके आंदोलन का संचालन करने वालों ने 82 लाख रुपए इकट्ठा किए और 32 लाख रुपए खर्च भी कर डाले।

अन्ना हजारे के आंदोलन में लाखों खर्च हुए तो बाबा रामदेव का अनशन शुरू होने से पहले ही करोड़ों खर्च हो चुके थे। बिना उद्योगपतियों या कम्पनियों की मदद के इतना पैसा आ ही नहीं सकता। ऐसे दौर में जहां इंसान के जीवन का हरेक पहलू बाजार की भेंट चढ़ रहा है जन आंदोलनों का भी कारपोरेटीकरण हो गया। इसीलिए अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दोनों के आंदोलनों में सिर्फ मध्यम वर्ग आया। गरीब वर्ग न तो आया न ही उसे जोड़ने की कोशिश की गई। यह वर्ग तो दिन प्रति दिन भ्रष्टाचार से दो चार होता है। उसके पास मोमबत्ती जला कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की फुर्सत ही नहीं है।

अन्ना के आंदोलन से शुरू हुई विकृति को रामदेव ने पराकाष्ठा पर पहुंचाया। योग सीखने आए लोगों को आंदोलन में झोंक दिया। वर्ना पचास हजार की भीड़ के रहते पुलिस की तो बाबा तक पहुंचने की हिम्मत ही नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन न तो बाबा के पास आंदोलन का कोई अनुभव था और न ही उनके समर्थकों के पास। मंच से बाबा ने कसम खिलवाई थी कि बाबा गिरफ्तार होंगे तो शेष लोग अनशन जारी रखेंगे। किन्तु अनशन की बात तो दूर वहां तो पंडाल में कोई ठहर ही नहीं पाया। बाबा तो भाग गए और समर्थकों ने पुलिस का कोई प्रतिरोध ही नहीं किया।

उससे पहले बाबा ने यह अपरिपक्वता दिखाई कि बातचीत में किसी अनुभवी व्यक्ति को नहीं रखा। कम से कम अरविंद केजरीवाल से यह सबक सीख लिया होता। अरविंद ने शांति भूषण, प्रशांत भूषण, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी जैसे लोगों को साथ में रखा जो सरकार के मंत्रियों के साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत तो कर पाए। कपिल सिबल व सुबोध कांत सहाय ने बाबा पर दबाव बनाया के वे उनकी मांगों को आंशिक रूप से माने जाने के बदले लिखित रूप में अपने अनशन को वापस लेने का वचन दें। बाबा के शिष्य बालकृष्ण ने लिखित दे दिया। किन्तु बाहर आकर बाबा अपनी बात से पलट गए। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है।

बाबा ने जो मांगें रखी थीं उसमें में कुछ विसंगतियां थीं। उदाहरण के लिए बाबा चाह रहे थे कि भ्रष्टाचारी को फांसी दी जाए। अब दुनिया भर में जघन्यतम अपराध के लिए फांसी की सजा पर रोक लग रही है। कई देशों में फांसी पर प्रतिबंध लग चुका है। फांसी की सजा की बात करना मध्यकालीन युग में जाने जैसी बात है। काश बाबा ने दो-चार कानूनविदों से सलाह मश्विरा कर लिया होता।

बाबा ने आंदोलन को बहुत हल्के में लिया। अभी लोकपाल विधेयक बना भी नहीं था और उन्होंने बीच में ही अपना आंदोलन छेड़ दिया। क्या जल्दी थी? अब लाकपाल विधेयक निर्माण की प्रक्रिया भी प्रभावित हो गई है क्योंकि अन्ना हजारे समूह ने बाबा के साथ हुए अत्याचार के विरोध में विधेयक पर बातचीत की बैठक का पहले तो बहिष्कार किया और जब सरकार ने कहा कि वह बिना नागरिक समाज की मदद के काम जारी रखेगी तो बहिष्कार का निर्णय वापस लिया गया।

सरकार को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कुचलने का मौका देकर बाबा रामदेव ने आंदोलन को बहुत नुकसान पहुंचाया है। सरकार के ऊपर जो दबाव बना था उसकी हवा फिलहाल तो निकल गई है।

डॉ संदीप पाण्डेय
लेखक मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं. ईमेल: ashaashram@yahoo.com

युवाओं ने किया लखनऊ में तम्बाकू कानून के परिपालन पर रिपोर्ट कार्ड जारी

[हिंदी रपट कार्ड] [English Report Cardयह रपट कार्ड 'अधिकार एवं दायित्व प्रशिक्षण शिविर' के प्रतिभागी युवाओं ने बनाया है: सचिदानंद पाण्डेय, जतिन अरोरा, सर्वेश कुमार शुक्ला, दिलीप शर्मा, नदीम सलमानी, आनंद पाठक, रितेश आर्य और राहुल द्विवेदी. इसके सलाहकार मंडल में थे प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त, डॉ संदीप पाण्डेय, शोभा शुक्ला एवं बाबी रमाकांत.

सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम, २००३, के ५ नियमों के परिपालन को आँका:
१) किसी भी शैक्षिक संस्थान के १०० गज के भीतर तम्बाकू विक्रय पर प्रतिबन्ध
२) सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान प्रतिबंधित
३) १८ साल से कम उम्र के बच्चे एवं युवा न तो तम्बाकू खरीद सकते हैं और न ही बेच
४) तम्बाकू उत्पादनों पर चित्रमय चेतावनी
५) प्लास्टिक के पाउच में गुटखा बेचने पर प्रतिबन्ध

कुछ सुझाव: 
१. चूँकि अधिकाँश तम्बाकू सेवन १८ साल से पहले आरंभ होता है, यह अतिआवश्यक है कि १८ साल से कम उम्र के बच्चे और युवाओं को तम्बाकू न तो बेचनी चाहिए और न ही खरीदनी. दूसरा सवाल यह है कि शिक्षा अधिकार अधिनियम के युग में १८ साल से कम उम्र के बच्चे और युवा क्यों तम्बाकू बेचने पर विवश हैं? वें शिक्षा क्यों नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं? बहुत कम तम्बाकू दुकानों पर यह बोर्ड लगा है कि १८ साल से कम उम्र के बच्चे और युवाओं का तम्बाकू खरीदना प्रतिबंधित है.

२. किसी भी शैक्षिक संस्थान के १०० गज के भीतर तम्बाकू विक्रय प्रतिबंधित है - इसको सख्ती से परिपालित करना चाहिए.

३. जो विदेशी सिगरेट लखनऊ में बिक रही है, जैसे कि गुदंग गरम (इंडोनेसिया), मार्लबोरो (अमरीका) आदि उनपर कोई भी चित्रमय चेतावनी क्यों नहीं है? यदि वो कानूनन रूप से आयात की गयी हैं तो उनको भारतीय कानून का अनुपालन करना चाहिए और यदि वो कानूनन रूप से आयात नहीं की गयी हैं तो न केवल भारत के लोगों के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ रहा है बल्कि भारत के राजस्व का भी नुक्सान हो रहा है. क्या यह तम्बाकू तस्करी है? यदि है तो इसके खिलाफ सख्त कारवाई होनी चाहिए

४. पर्यावरण संगरक्षण के लिये प्लास्टिक पैकट में किसी भी तम्बाकू उत्पाद को बेचने पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए जिनमें बिना तम्बाकू का पान मसाला, स्वीट सुपारी आदि भी शामिल हों

५. सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान सख्ती से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए - और उपयुक्त बोर्ड लगे हों (बहुत कम निजी परिसरों में ऐसे बोर्ड लगे हैं जो कानूनन अनिवार्य है). एक प्रकाशित समाचार के अनुसार, लखनऊ में २०११ में अबतक सिर्फ रुपया ६००० हर्जाना इकठ्ठा हुआ है - यानि कि सिर्फ ३० लोगों को सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करते हुए पकड़ा गया है! इस कानून को सख्ती से लागू किया जाए क्योंकि बिना सक्रियता और प्रभावकारी तरीके से कानून को लागू किये लखनऊ प्रशासन की घोषणा कि इस साल के अंत तक लखनऊ "धूम्रपान रहित" हो जायेगा, खोखला दावा लगता है.

सी.एन.एस.

तम्बाकू नियंत्रण कानून के उल्लंघन के खिलाफ़ युवाओं ने दाखिल किए सूचना अधिकार अधिनियम के तहत आवेदन पत्र

[नौ सूचना अधिकार अधिनियम के तहत दाखिल हुए आवेदन पत्र पढने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये]
प्रोफेसर डॉ0 रमा कान्त के सेन्टर पर हुए ‘अधिकार एवं दायित्व प्रशिक्षण शिविर - 25-31 मई 2011’ के दौरान मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय ने प्रतिभागी युवाओं को सूचना अधिकार अधिनियम, २००५ से जन-हितैषी तम्बाकू नियंत्रण कानून को सख्ती से लागू करने एवं भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को सशक्त करने पर बात की. उन्होंने छात्रों को सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत आवेदन पत्र लिखना सिखाया और उनसे अनुरोध किया कि वें न तो कभी घूस लें, न कभी दें.

डॉ संदीप पाण्डेय ने बताया कि ‘आवेदन पत्र जिस विभाग से आप जानकारी मांग रहे हैं, उसके जन-सूचना अधिकारी को संबोधित किया जाता है. सूचना अधिकार अधिनियम के तहत जानकारी मांगते हुए आवेदन पत्र में यह बात स्पष्ट लिखे कि जानकारी सूचना अधिकार अधिनियम, २००५, के अंतर्गत मांगी जा रही है. १० रूपए का नोट या ‘मनी-आर्डर’ संग्लग्न करें और नोट का नंबर भी आवेदन पत्र में लिख दें. इस आवेदन पत्र को पंजीकृत डाक द्वारा भी भेजा जा सकता है.’

प्रतिभागी युवाओं ने सूचना अधिकार अधिनियम के तहत आवेदन पत्र लिख कर यह पूछा कि सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३ को क्यों लागू नहीं किया गया है? क्यों शैक्षिक संस्थानों के १०० गज के अन्दर तम्बाकू विक्रय दुकानें हैं? क्यों सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान हो रहा है? क्यों फिल्मों में तम्बाकू सेवन को प्रदर्शित किया जा रहा है? प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विज्ञापन हो रहा है? क्यों 18 वर्ष से कम आयु के बच्चे-युवा तम्बाकू खरीद या बेच रहे हैं? आदि

यह अधिकार एवं दायित्व प्रशिक्षण शिविर नागरिकों के स्वस्थ लखनऊ अभियान, इण्डियन सुसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग, आशा परिवार, अभिनव भारत फाउंडेशन एवं सिटिज़न न्यूज़ सर्विस द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित किया गया था।

सी.एन.एस.

युवाओं तम्बाकू सेवन आरम्भ न करें

‘‘अधिकांश तम्बाकू सेवन 18 वर्ष से पहले ही आरम्भ होता है। इसीलिए बच्चों एवं युवाओं को तम्बाकू जनित जानलेवा रोगों एवं व्याधियों के बारे में जानकारी देना अनिवार्य है जिससे कि वें ज़िन्दगी चुनें, तम्बाकू नहीं’’ कहा एसोसिएशन ऑफ सर्जन्स ऑफ इण्डिया के 2012 नव-निर्वाचित राष्ट्रीय अध्यक्ष, प्रोफेसर डॉ0 रमा कान्त ने जो नागरिक अधिकार एवं दायित्व प्रशिक्षण शिविर, 25-31 मई 2011 के प्रतिभागियों को सम्बोधित कर रहे थे।

प्रोफेसर डॉ0 रमा कान्त, विश्व स्वास्थ्य संगठन अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार विजेता हैं एवं छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष एवं भूतपूर्व मुख्य चिकित्सा अधीक्षक हैं।

प्रो0 डॉ0 रमा कान्त जो वर्तमान में ‘पाइल्स टू स्माइल्स’ क्लीनिक के निदेशक हैं, उन्होंने कहा कि ‘‘बच्चों एवं युवाओं में तम्बाकू नियंत्रण करना व्यापक तम्बाकू नियंत्रण योजना का एक अहम भाग है’’।

प्रो0 डॉ0 रमा कान्त ने कहा कि ‘‘भारत में तम्बाकू से हर वर्ष 10 लाख से अधिक लोग मृत्यु को प्राप्त होते हैं। बच्चों और युवाओं को तम्बाकू कम्पनियों के प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष भ्रामक प्रचार से दूर रहना चाहिए और उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए। उनको तम्बाकू सेवन की असली तस्वीर जो जानलेवा बीमारियों से जुड़ी है उससे परिचित होना चाहिए जिससे कि वें ज़िन्दगी चुनें, तम्बाकू नहीं’’।

प्रो0 डॉ0 रमा कान्त जिनको केन्द्रिय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का अनुशंसा पुरूस्कार भी 1997 में मिल चुका है उन्होंने कहा कि ‘‘लगभग आधी तम्बाकू जनित मृत्यु 35-69 वर्ष के दौरान होती है। धूम्रपान से अधिकांश मरने वाले लोगों ने तम्बाकू सेवन युवावस्था में आरम्भ किया था। 30-40 साल के लोग जो तम्बाकू सेवन करते हैं, उनको हृदय रोग होने का पॉंच गुणा अधिक खतरा रहता है। तम्बाकू जनित हृदय रोग एवं कैंसर तम्बाकू व्यसनियों की मौत का सबसे बड़ा कारण है’’।

प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त ने कहा कि ‘तम्बाकू व्यसनियों को नशा मुक्ति के लिये विशेषज्ञों से मदद लेनी चाहिए. शोध के अनुसार अक्सर तम्बाकू सेवन करने वाले लोग तम्बाकू-जनित रोगों, विकृतियों और मृत्यु से अनभिज्ञ होते हैं. जो तम्बाकू व्यसनी इन खतरों को संजीदगी से समझते हैं, उनकी नशा-मुक्त होने की सम्भावना अधिक होती है.’

अधिकार एवं दायित्व प्रशिक्षण शिविर के सत्रों में युवाओं को नागरिक पत्रकारिता (ऑनलाइन एवं प्रकाशन), मौजूदा तम्बाकू नियंत्रण कानून, हिंदी एवं अंग्रेजी में ब्लॉगिंग, मुद्दों पर रपट लिखना, फोटो-पत्रकारिता एवं अपने लेखों एवं तस्वीरों को ऑनलाइन माध्यमों से विस्तृत करना आदि पर प्रशिक्षण मिल रहा है. यह युवा लखनऊ शहर में तम्बाकू नियंत्रण कानून पर रपट कार्ड भी बना रहे हैं जो अधिकारियों को विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर दिया गया।

यह अधिकार एवं दायित्व प्रशिक्षण शिविर नागरिकों के स्वस्थ लखनऊ अभियान, इण्डियन सुसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग, आशा परिवार, अभिनव भारत फाउंडेशन एवं सिटिज़न न्यूज़ सर्विस द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित किया गया था।
सी.एन.एस.

नागरिक पत्रकारिता एवं तम्बाकू नियंत्रण पर युवाओं के लिये शिविर

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार विजेता एवं लखनऊ के वरिष्ठ सर्जन (शल्य-चिकित्सक) प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त ने नागरिक पत्रकारिता एवं तम्बाकू नियंत्रण पर युवाओं के लिये २५-३१ मई २०११ के दौरान शिविर का उद्घाटन किया. 

२५ मई २०११ के सत्र में युवाओं को नागरिक पत्रकारिता (ऑनलाइन एवं प्रकाशन), मौजूदा तम्बाकू नियंत्रण कानून, के बारे में सीखने को मिला. मुद्दों पर रपट लिखना, फोटो-पत्रकारिता एवं अपने लेखों एवं तस्वीरों को ऑनलाइन माध्यमों से विस्तृत करना आदि पर बात हुई. सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३ एवं अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण संधि (फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबाको कण्ट्रोल) पर भी सत्र हुआ. लोरेटो कॉन्वेंट की वरिष्ठ शिक्षक एवं www.citizen-news.org की संपादिका शोभा शुक्ला एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन के २००८ पुरुस्कार प्राप्त बाबी रमाकांत ने सत्र का संचालन किया.

२५-३१ मई २०११ के दौरान युवाओं को सूचना अधिकार अधिनियम २००५ का इस्तेमाल करने का अवसर भी मिला जिसमें  मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय ने सूचना अधिकार अधिनियम का उपयोग करना सिखाया.

इस कार्यशाला के दौरान युवाओं ने लखनऊ शहर में लागू तम्बाकू नियंत्रण कानून पर एक रपट कार्ड प्रस्तुत किया जो सरकारी अधिकारीयों को दिया गया.

इसका आयोजन नागरिकों का स्वस्थ लखनऊ अभियान, इंडियन सोसाइटी अगेंस्ट स्मोकिंग, आशा परिवार, अभिनव भारत फौंडेशन एवं सी.एन.एस.: www.citizen-news.org द्वारा किया गया.
सी.एन.एस.

लखनऊ में जन-स्वास्थ्य की सबसे बड़ी प्राथमिकता है तम्बाकू नियंत्रण

लखनऊ शहर में सबसे अधिक मृत्यु होती हैं ह्रदय रोग एवं कैंसर से जिनका सबसे बड़ा कारण है तम्बाकू सेवन, कहा विश्व स्वास्थ्य संगठन अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार विजेता प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त ने जो लखनऊ कॉलेज ऑफ़ सुर्गेओंस द्वारा आयोजित कार्यक्रम के मुख्य वक्ता थे जो चौक स्थित सिप्स सुपर-स्पेशलिटी अस्पताल में संपन्न हो रहा था. उत्तर प्रदेश सरकार के भूतपूर्व मधनिषेध मंत्री श्री सूर्य प्रताप शाही जी ३१ मई २०११ ने विश्व तम्बाकू निषेध दिवस कार्यक्रम का उद्घाटन किया जिसमें पोस्टर प्रदर्शनी, वृत्त-चित्र, स्लाइड-शो, नाट्य-मंचन, आदि प्रस्तुत होंगे. इस वर्ष विश्व तम्बाकू निषेध दिवस का केंद्रीय विचार है: विश्व तम्बाकू नियंत्रण संधि (फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबाको कण्ट्रोल- ऍफ़.सी.टी.सी).

लखनऊ कॉलेज ऑफ़ सर्जन्स के अध्यक्ष प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त ने कहा कि ऍफ़.सी.टी.सी. को भारत के संसद ने भी पारित किया है और उसके अनुसार तम्बाकू उत्पादनों पर कर एवं कीमत बढ़नी चाहिए जिससे तम्बाकू सेवन कम हो, सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान प्रतिबंधित हो और कानून लागू हो, तम्बाकू उत्पादनों को बनाने में उपयोग हुई सामग्री तम्बाकू पैकट पर प्रकाशित होनी चाहिए, तम्बाकू उत्पाद में कितनी तम्बाकू है, निकोटीन है, टार है, यह नियंत्रित की जानी चाहिए, तम्बाकू उत्पादों के पैकट पर चित्रमय चेतावनी प्रकाशित होनी चाहिए, तम्बाकू नशा मुक्ति सेवाएँ उपलब्ध हों, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष तम्बाकू विज्ञापन पर व्यापक प्रतिबन्ध लगे, तम्बाकू तस्करी बंद हो, तम्बाकू अवयस्क को बेचीं जाए और ही अवयस्क खरीद पाए.

इस कार्यक्रम में छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति प्रोफेसर (डॉ) के.एम.सिंह, सिप्स अस्पताल के प्रबंध निदेशक डॉ राज कुमार मिश्रा, लोरेटो कॉन्वेंट की शिक्षिका शोभा शुक्ला, लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रोफेसर (डॉ) निशी पाण्डेय, मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय, लखनऊ कॉलेज ऑफ़ सर्जन्स के सचिव डॉ विनोद जैनडैबल कॉलेज के प्रधानाचार्य .के. गोयल, लोरेटो कॉन्वेंट से डॉ नीरा शुक्ला, अरविन्द अकादेमी की प्रधानाचार्य डॉ वीणा शर्मा, आदि भी शामिल थे.

युवाओं ने लखनऊ में तम्बाकू कानून के परिपालन पर रिपोर्ट कार्ड जारी किया. यह रपट कार्ड 'अधिकार एवं दायित्व प्रशिक्षण शिविर' के प्रतिभागी युवाओं ने बनाया है: सचिदानंद पाण्डेय, जतिन अरोरा, सर्वेश कुमार शुक्ला, दिलीप शर्मा, नदीम सलमानी, आनंद पाठक, रितेश आर्य और राहुल द्विवेदी.
सी.एन.एस.