आंदोलन कार्यालय की गैरकानूनी तलाशी के खिलाफ अनिश्चितकालीन अनशन प्रारंभ

आंदोलन कार्यालय की गैरकानूनी तलाशी के खिलाफ अनिश्चितकालीन अनशन प्रारंभ

राज्य मानवाधिकार आयोग ने घटना की रिपोर्ट माँगी


नर्मदा बचाओ आंदोलनकारियों के गैरकानूनी सरकारी दमन के विरोध में देश भर
के संगठनों द्वारा व्यापक स्तर पर प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है। राज्य मानवाधिकार आयोग ने भी जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को नोटिस भेज कर घटना की रिपोर्ट माँगी है। दूसरी और आंदोलन की नेत्री सुश्री मेधा पाटक्र के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमण्डल कलेक्टर से मिला। कलेक्ट्रेट कर्मचारियों ने आंदोलन को ज्ञापन देकर संवाद किया।

आंदोलनकारियों के दमन की व्यापक निंदा
शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों के संवैधानिक और मानवीय अधिकारों के दमन के खिलाफ कई जन संगठनों और वरिष्ठ लोगों ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। जन पहल समूह की ओर से श्री योगेश दीवान, आजम खान, सारिका सिन्हा आदि ने आज राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्या॰ डी॰ एम॰ धर्माधिकारी से मिल कर खण्डवा जिला प्रशासन द्वारा बाँध प्रभावितों के संवैधानिक और मानवाधिकारों के उल्लंघन पर चिंता जाहिर की। आयोग ने इस घटना को गंभीरता से लेते हुए खण्डवा के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को नोटिस जारी कर 3 दिनों में घटना की रिपोर्ट माँगी है।

वरिष्ठ गाँधीवादी विचारक सुश्री राधा भट्ट और उत्तराखण्ड नदी बचाओ अभियान के
बसंत पाण्डे ने मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चैहान को पत्र लिखकर गिरफ्तार आंदोलनकारियों की बिना शर्त रिहाई की माँग की है। आंदोलन के इंदौर समर्थक समूह ने दुर्भावनापूर्वक की गई प्रशासनिक कार्रवाई को न्यायपालिका और लोकतंत्रिक आस्था को ठेस पहुँचाने वाला बताया। पीपल्स यूनियन आॅफ डेमोक्रेटिक राईटस ने विज्ञप्ति जारी कर जिला प्रशासन की दमानात्मक कार्रवाई का कड़ा विरोध करते हुए आंदोलन के प्रति एकजुटता प्रदर्शित की है।

पुलिस दमन जारी: जेल में अनिश्चितकालीन अनशन शुरू
पुलिस द्वारा दमन अभी भी बदस्तूर जारी है। पुलिस द्वारा आंदोलन कार्यालय पर गैरकानूनी रूप से कब्जा किया गया तथा आंदोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री आलोक अग्रवाल को बगैर गिरफ्तारी वारण्ट के गिरफ्तार किया गया तथा रातभर थाने में बंधक रखा गया।

श्री अग्रवाल पर लगाए गए आरोपों के बारे में पुलिस ने गुमराह किया। हमें जानकारी दी
गई कि श्री अग्रवाल को पूछताछ हेतु लाया गया है जबकि हमारे वकील को बताया कि उन्हें पुराने केस में गिरफ्तार किया गया है। आंदोलन कार्यालय पर गैरकानूनी कब्जे के खिलाफ चित्तरूपा पालित और रामकुँवर ने आज जैल में अनिश्चितकालीन अनशन शुरू कर दिया है।

आंदोलन कार्यालय को निशाना बनाया जा रहा है। जिला प्रशासन के इशारे पर
आज विद्युत विभाग द्वारा आंदोलन के कार्यालय की जाँच की गई। इस प्रकार जिला प्रशासन दुर्भावनापूर्वक कार्रवाई कर प्रभावितों को उनके संवैधानिक अधिकारों के प्रति निरूत्साहित कर रहा है।

कार्यक्रम जारी

प्रभवितों का अनिश्चितकालीन धरना और क्रमिक अनशन जारी है। इस कार्यक्रम के समर्थन में आज महेश्वर, अपर वेदा और औंकारेश्वर बाँध प्रभावित बड़ी संख्या में जुटे। मेधा पाटकर ने मोर्चा संभाला आंदोलन के वरिष्ट कार्यकर्ताओं की अनुपस्थिति में आंदोलन की नेत्री सुश्री मेधा पाटकर ने मोर्चा संभाल लिया है। उनके नैतृत्व में आज दिन भर कार्यक्रम जारी रहे।

कलेक्ट्रेट कर्मचारी संगठन ने आज कलेक्ट्रेट में सुश्री पाटकर को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें
कहा गया है कर्मचारियों की बाँध प्रभावितों के साथ पूर्ण सुहानुभूति है। सुश्री पाटकर ने आंदोलन की और से कर्मचारियों की भावना का सम्मान करते हुए कहा कि विस्थापितों की लड़ाई कर्मचारियों से नहीं है।

सुश्री पाटकर के नेतृत्व में आज एक प्रतिनिधि मण्डल ने कलेक्टर श्री सिंह से भी
मुलाकात की। कलेक्टर ने प्रतिनिधिमण्डल को आश्वासन दिया कि वे स्वयं चाहते थे कि एनएचडीसी अधिकारी प्रभावितों से चर्चा करें। प्रतिनिधिमण्डल ने आंदोलनकारियों पर लादे गए झूठे केस वापस लेने की माँग करते हुए चेतावनी दी कि यदि गिरफ्तार आंदोलनकारियों का दमन जारी रहा तो वे भी सभी जेल जाने के लिए तैयार हैं। सुश्री पाटकर ने कलेक्टर
को बताया कि कलेक्टर कार्यालय में तोड़फोड़ की झूठी खबर से प्रशासन की ही छवि खराब हुई है।

दीजिये, पर कृतज्ञता से

दीजिये, पर कृतज्ञता से



खलील जिब्रान ने कहा है, “जो कुछ भी तुम्हारे पास है, उसे एक एक दिन तो देना ही पड़ेगा, तो फिर आज ही दो, ताकि देने का पुण्य, बजाय तुम्हारे उत्तराधिकारी को, तुम्हे ही मिले।

अभी हाल ही में, देश भर मेंदेने का उल्लासनामक सप्ताह मनाया गया। यह वास्तव में एक सुंदर विचार है। इस सप्ताह का मुख्य प्रयोजन था कि आप के पास जो कुछ भी प्रचुरता में है, उसका कुछ अंश किसी ऐसे को दान कीजिए, जिसके पास नहीं है। अभी तक पाश्चात्य देशों की नक़ल करके हम वेलेंटाइन डे, फ्रेंडशिप डे, मदर्स डे, आदि दिवस मनाते आए हैं। इसी श्रृंखला मेंदान का सप्ताहएक विशुद्ध भारतीय परिकल्पना है तथा इस विचार की नवीनता ने अनेकों का ध्यान आकर्षित किया है।

यह सब तो सराहनीय है। परन्तु दान देने की चेष्ठा को सात दिनों की समय रेखा का बंधन क्यों? देने का अनुष्ठान तो जीवन पर्यंत एक पर्व के रूप में मनाया जाना चाहिए।

अधिकांशतः हमारे दैनिक क्रिया कलापों का एक ही ध्येय होता है – ‘अधिक से अधिक संसाधन बटोरना ही सुखकर है अधिक धन, अधिक प्रतिष्ठा, अधिक सफलता, अधिक ऐशो आराम, अधिक भ्रष्टाचार। परन्तु देने का अर्थ है 'अल्पता में ही सुन्दरता है जब हम किसी को (जो हमारे समान समर्थ नहीं है), निश्छल मन से कुछ देते हैं तो एक अवर्णित आनंद की अनुभूति होती है। केवल धन का ही दान मत कीजिए, क्योंकि यह तो दान करने की सबसे सरल क्रिया है। जीवन की साधारण खुशियाँ बाँटिये। अपने परिवार को अपना बहुमूल्य समय दीजिये, जिसका अभाव उन्हें खटक रहा है। अपने शुभचिंतकों को अपना प्रेम ओर सत्कार दीजिये, जो आपके सान्निध्य के लिए आकुल हैं। एक डाक्टर, वकील, शिक्षक, कलाकार के रूप में अपनी सेवाओं का कुछ अंश नि:शुल्क दान कीजिए --- उन लोगों के लिए जिनके पास साधन नहीं हैं। कुछ नहीं तो किसी करुण ह्रदय की पुकार ही सुन लीजिये, या फिर किन्हीं दुखती रगों पर सांत्वना के कोमल शब्दों का लेप ही लगाइए।

और ईश्वर को, कृतज्ञ भाव से, अपना धन्यवाद देना मत भूलिएजिस ईश्वर ने हमें देखने के लिए दृष्टि, सुनने के लिए श्रवण शक्ति , क्रियाशीलता के लिए अवयव, और सोच विचार करने के लिए बुद्धि प्रदान की है। यदि इनमें से एक भी अंग क्षत विक्षित हो जाए तो जीवन दूभर हो उठता है। इसलिए
जो नहीं मिला उसी का क्यों गिला है,
काफी
नहीं है क्या जो अब तक मिला है?'

एक
बार आजमा कर तो देखिये कि जो कुछ भी मिला है उसे मिल बाँट कर खाने से स्वाद दोगुना हो जाएगा।


अन्तिम महादान का महा सुख तो तब प्राप्त होगा जब हम दधीची ऋषि के समान, मृत्योपरांत, अपने शरीर का दान किसी की भलाई के लिए कर दें। फिर चाहे वो नेत्र दान हो, अथवा प्रत्यारोपण के लिए अंग प्रत्यंग दान हो, अथवा चिकित्सा विज्ञान के छात्रों की शिक्षण सामग्री हेतु देह दान। इस प्रकार हम दूसरों के शरीर में प्रत्यारोपित होकर स्वयं को जीवित रह सकेगें।


बौद्ध धर्म में दानशीलता के तीन सोपान बताये गए हैं:---

प्रथम चरण हैदरिद्र दान’--- हमारे पास जो कुछ भी कबाड़ या बचा खुचा सामान है उसे हम दान करते हैं, और वोभी बहुत अनिच्छा के साथ। देते समय भी मन में संशय बना रहता हैदूँ या दूँ? शायद आगे कभी मेरे काम ही आए।
हममें से कइयों के पास पुराने कपडों एवम् अन्य रोज़मर्रा के सामानों का भण्डार होगा, जिनका हमने अनेक वर्षों से तो उपयोग किया होगा ही भविष्य में कभी करेंगे। फिर भी हम यही सोचते रहते हैं, ‘हाय इतनी सुंदर साडी ! किसको दूँ? कोई इसको पहनने लायक ही नहीं।हम अपना कबाड़ तक दान करने के लिए कोई उचित पात्र ही नहीं जुटा पाते। फिर चाहे वो संदूक में रखे रखे बरबाद ही क्यों हो जाय।
ऐसा है हमारा दम्भी अहम्।

द्वितीय चरण हैमैत्रीपूर्ण दान’----हम उस वस्तु का दान करते हैं जो स्वयं हमारे उपभोग के लायक है। और हम उसे बिना किसी दुराग्रह के, खुशी खुशी देते हैं।

तृतीय ओर सर्वोत्तम चरण हैराजसी दान’ ---- हम अपनी सबसे बहुमूल्य ओर प्रिय वस्तु का दान, पूर्ण उदारता एवम् आह्लाद के साथ करते हैं। यही सर्वोत्तम दान है।

ये सब एक दूसरे के अनुरूप है। औदार्य से आनंद उत्पन्न होता है, आनंद हमें शान्ति प्रदान करता है, शांत चित्त से हम चिंतन कर सकते हैं, चिंतन से ज्ञान और विवेक प्राप्त होता है।

कोई भी उदार कर्म, लेने वाले से अधिक, देने वाले के लिए वरदान स्वरुप होता है। थाईलैंड के चियांग माई शहर में, उषाकाल के समय आपको एक विस्मयकारी दृश्य देखने को मिलेगा। हाथों में भिक्षा पात्र लिए, बौद्ध भिक्षु भिक्षा यापन के लिए निकलते हैं। गृहस्वामिनी/गृहस्वामी, अपने द्वार पर आए याचक के चरणों में अपनी भेंट नतमस्तक होकर समर्पित करते हैं, तथा भिक्षु उन्हें प्रेम भाव से आशीर्वाद देते हैं।

यह दृश्य (जिसमें दाता, याचक के चरणों में झुका हुआ होता) देखकर मुझे सदैव एक अलौकिक नम्रता एवम् विनयशीलता की अनुभूति होती थी। थाई बौद्ध धर्म के अनुयायियों का विश्वास है कि दान देकर वे अपने कर्मों को सुधारते हैं। अत: जो याचक उनकी भेंट स्वीकार करता है वह उन पर अनुग्रह करता हैदान देने वाला किसी का उपकार नहीं करता। ये विचार, स्वयं की निजता एवम् अहम् के सम्पूर्ण समर्पण के द्योतक हैं।

क्या हम इतने दरिद्र हैं कि हमारे पास देने के लिए कुछ भी नही है?

दान के पर्व का उत्सव तो पूरे साल मनाना चाहिए। आपकी एक मुस्कान से किसी अजनबी का चेहरा चमक उठेगा।आपकी थोड़ी सी मदद किसी के जीवन में अपार खुशियाँ ला सकती है। दयालुता, प्रशंसा, क्षमा से भरे हुए शब्दों का दान किसी का खोया हुआ विशवास लौटा सकता है।

दिल खोल कर दीजिये और बदले में उससे कई गुना अधिक मिलने का आनंद उठाइये। देने का प्रभाव अप्रत्याशितरूप से आह्लादकारी होता है।
इसलिए दूसरों को शान्ति, प्रेम, उल्लास, धैर्य ओर सांत्वना दीजिये.

बस किसी के लिए कुछ अच्छा कीजिए। नम्रता से दीजिये ताकि उसे मर्यादा से ग्रहण किया जा सके क्योंकि, 'भाग्यशाली हैं वो जो दे कर भूल जाते हैं, और जो लेकर सदैव याद रखते हैं

दीपावली की इस सुमधुर बेला पर दान के प्रकाश से दरिद्रता का अन्धकार दूर कीजिए। महात्मा गांधी का प्रिय भजन तो हम सबको याद होगा ही -- वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे , पर दु:खे उपकार करे, कोई मन अभिमान आने रे।

तो दिल खोल कर और जुबां बंद करके दीजिये

मेरी ओर से आप सबको दीपावली की यही शुभकामना है कि आपका सौभाग्य आपके दान देने के अनुपात में कई गुना अधिक बढे।



शोभा शुक्ला
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस

हक मिलेगा कब

हक मिलेगा कब

मीडिया नेस्ट व यूनीसैफ द्वारा आज दिनांक 09.10.09 को दोपहर में पाक्षिक कार्यक्रम मीडिया फार चिल्ड्रेन के अनगर्त आयोजित कार्यक्रम में ‘‘हक मिलेगा कब’’ का अयोजन किया गया जिसमें मेहमान थी ‘‘भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन’’ ने चर्चा की कि मुस्लिम समाज में खास कर मुसलमान लडकियों को समाज में उनका हक कैसे दिलाया जाये।
कार्यक्रम की शुरूवात मीडिया नेस्ट की सचिव कुलसुम तलहा ने की व साथ ही मंच का संचालन भी किया।
इसके बाद वहॅा उपस्थित वक्तागणों ने अपने अपने विचार व्यक्त किये जिसमें मुख्यता।
सबसे पहले नाईश हसन जो कि भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की फाउन्डर मेम्बर है ने कहा कि भारतीय मुस्लिम महिला सोच कोई छोटी सोच नहीं है यह आंदोलन वह पूरे देश में मुस्लिम समाज व मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा व शक्तिकरण पर लड रही है।
इसके बाद नाजिया बाल कमेटी लखनऊ की बोली कि मुस्लिम महिलाओं में पढाई लिखाई को ज्यादा हक नहीं मिलता है। मुस्लिम समाज में लडकियों को लडकों के मुताबिक कम इर्जा मिला है, लडको को ज्यादा एहमियत मिलती है। लडकियों की उन्नती के आगे मुस्लिम समाज के रूडीवादी विचार धाराएं आ जाती है। अगर देश के मुसलमानों को आगें बढना है तो उन्हे अपने पुराने विचार बदलकर दीन के साथ दुनायाबी तालीम भी हासिल करनी होगी।
इसके बाद हाशमी बानो अध्यक्ष बाल कमेटी लखनऊ बोली इसलाम में बेटियों को भी बहुत बडा दर्जा दिया गया है वह यूनियैफ का धन्यवाद करती है कि उन्होने यह मंच दिया िकवह बात को मीडिया के समाने रखें। उन्होने बताया िकवह बाल कमेटी के माध्यम महिलाओं और बच्चों के लिये हक की लडाई लड रही है। और अपनी बात उ0प्र0 सरकार तक कई बार रख चुकी है। परन्तु अभी तक सरकार का ध्यान इस ओर नही गया।
इसके बाद बाल कमेटी के ही 16 वर्षीय मो0 शमीम ने बाल श्रम पर विरोध करते हुये कहा कि उन्होने ग्रास रूट स्तर पर सर्वेक्षण किया कि मुस्लिम समाज में 100 में से 80 बच्चे आज भी बाल श्रम में है तथा वह उन बच्चो को रात पढाकर अपने स्तर से योगदान दे रहे है। बाल श्रम की जिम्मेदार खुद करकार ही है जिसपर उसका ध्यान नही जाता।
इसके बाद खातून शेख ने जो कि ‘‘भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन’’ को महाराष्ट्र में चला रही है तथा वह मुम्बई से इस कार्यक्रम में भाग लेने आयी है। और वह इस आन्दोलन को पूरे भारतवर्ष में चलायेगी। और जिस तरह से यू.पी.प्रेस कल्ब तथा यू.पी. की मीडिया का सहयोग यूनियैफ के साथ रहता है उसी तरह से वह अब मुम्बई में भी करेगी ताकि उनकी बात सरकार तक पहुॅच सके।
इसके बाद जकिया जी बोली सभी वक्ताओं को सुनने के बाद अब उन्हे ऐसा लगता है कि हम अब उन्नति से दूर नहीं है। उन्होने कहा कि सबसे ज्यादा मुस्लिम समाज में लडकियों को पिछडा पाया गया है। क्यों उनमें जलदी शादी, कम पढाई आदि कई बाते सामने आयी। उन्होने कहा कि इसलाम धर्म अमन, सुख, चैन व शान्ती का पैगाम देने वाला धर्म है, परन्तु फिर भी हमारे साथ भेदभाव की भावना रखी जाती है। आज के समय में वह 15 राज्यों में 30000 से ज्यादा सदस्यों के साथ कार्य कर रही है।
अन्त में कलसुम तलहा ने मीडिया व वहाॅ उपस्थि लोगो का धन्यवाद किया तथा कहा कि हम अपनी बात सही से नहीं रख पाते मीडिया नैस्ट सूनीसैफ इसी के लिये बना है कि जनता की आवाज व उनका दर्द, उनके डेवेलवमैन्ट के मुददे उनके व मीडिया के माध्यम से देश भर में पहुॅचे। हर कौम की उन्नति के पीछे असाक्षरता है और जो भी साक्षर हो गया वह उन्नति की ओर बढ गया।
कार्यक्रम में मुख्यता
जकिया जी, संस्थापक सदस्य ‘‘भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन’’
नाईश हसन, संस्थापक सदस्य ‘‘भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन’’
खातून बेगम, राज्य कनवीनर ‘‘भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन’’ महाराष्ट्र।
नाज़ जी, राज्य कनवीनर ‘‘भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन’’ उ0प्र0।
हााशमी बानो, अध्यक्ष बाल कमेटी लखनऊ।
नाज़िया, बाल कमेटी लखनऊ।
शमीम, बाल कमेटी लखनऊ।
नूर जहाॅ, लखनऊ।
सफिया, लखनऊ।
शारिक परवेज़, पीलीभीत। आदि उपस्थित थे।

श्रीनगर में मानसिक स्वास्थ्य शिविर का उदघाटन

श्रीनगर में मानसिक स्वास्थ्य शिविर का उदघाटन


मानसिक
स्वास्थ्य हमारी सेहत के लिए बहुत ही आवश्यक है। पिछले सप्ताह, जम्मू ओर कश्मीर राज्य के 'स्वास्थ्य एवम् चिकित्सा शिक्षा' मंत्री ने श्रीनगर के जवाहर नगर के म्युनिसिपल पार्क में 'मानसिक स्वास्थ्य शिविर' का उदघाटन किया। इस शिविर का आयोजन एम.एस.एफ. ( जिसे डाक्टर्स विदाउट बोर्डर्स के नाम से भी जाना जाता है) नामक संस्था के तत्वाधान में, जे.& के. सरकार के स्वास्थ्य निदेशालय के सहयोग से किया गया।

विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के उपलक्ष्य में, जम्मू और कश्मीर में ५ से १० अक्टूबर तक मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। इस शिविर के अलावा, जवाहर नगर में, चित्रकला एवम् कविता प्रदर्शिनी, एम.एस.एफ. के बहु चर्चित रेडियो प्रोग्राम ‘अलाव बाया अलाव’ पर आधारित नाटक, तथा एम.एस.एफ. की कश्मीरी ओर अंग्रेजी भाषा की वीडियो फिल्मों को दिखाने का भी आयोजन किया गया है।

कश्मीर यूनिवर्सिटी, तथा कुप वारा और श्रीनगर के स्कूली बच्चों ने एक चित्रकला एवम् काव्य लेखन प्रतियोगिता में भाग लिया था, जिसका विषय था ‘जीवन की चुनौतियों का सामना करना’। सभी प्रतिभागियों की कृतियों का प्रदर्शन इस मानसिक स्वास्थ्य सप्ताह में किया जाएगा तथा १० अक्टूबर को पारितोषिक वितरण समारोह संपन होगा।

एम.एस.एफ. २००२ से कश्मीर के लोगों को जो स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान कर रहा है, मानसिक स्वास्थ्य उसका एक अभिन्न अंग है। स्वास्थ्य सेवाओं में, मानसिक एवम् शारीरिक, दोनों ही प्रकार के स्वास्थ्य पर ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है। मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं के साथ मानसिक स्वास्थ्य सेवा को जोड़ने से ही इसका लाभ उन लोगों तक पहुँच सकता है, जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है। हमारे समाज में, मानसिक स्वास्थ्य के साथ अनेक बहुआयामी भ्रांतियाँ एवम् भेद भाव जुड़े हैं, जिनके चलते यह सेवा ज़रूरतमंदों को नहीं मिल पाती है।

एम.एस.एफ. की प्रोजेक्ट संयोजिका, साशा मैथ्यूस के अनुसार, ‘ पिछले सात सालों से कश्मीर में काम करते हुए हमने यह महसूस किया है कि मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ, आम आदमी को उपलब्ध होनी चाहिए। इसीलिए हमारी संस्था, कुप वारा में इस प्रकार की एकीकृत स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराती है जिनमें मानसिक स्वास्थ्य को उसका एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है।’

साशा का यह भी कहना है कि, ‘ अब लोग यह समझने लगे हैं कि जीवन की कठिन एवम् तनावपूर्ण परिस्थितियों का सामना करने के लिए मानसिक रूप से स्वस्थ होना अति आवश्यक है। इसलिए हम अपने परामर्श सत्रों में लोगों को ऎसी विकट परिस्थितियों से निपटने के तरीके बताते हैं, जैसे अपने परिवार और मित्रों के साथ समय बिताना, आदि। 'मानसिक स्वास्थ्य' शब्द ही हमारे समाज में एक कलंक माना जाता है। इसका अर्थ प्राय: पागलपन ही लिया जाता है। पर धीरे धीरे ,ये दुराग्रह कम हो रहे हैं।
पिछले वर्ष, कश्मीर में जो राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम आरम्भ किया गया है, उसका हमने खुले दिल से स्वागत किया है, क्योंकि यह, प्रचलित भ्रांतियों को तोड़ने की दिशा में, पहला सरकारी कदम है। दुर्भाग्यवश, इस योजना का कोई परामर्श घटक नहीं है, जैसा की हम अपने कार्यक्रमों में करते हैं। परन्तु हम आशा करते हैं कि भविष्य में इस कार्यक्रम के अर्न्तगत लोगों को उचित परामर्श भी दिया जाएगा, ताकि जनता अपने स्वास्थ्य के सर्वांगीण विकास का लाभ उठा सके। मानसिक स्वास्थ्य के बिना हम स्वस्थ नहीं हो सकते.’

सांप्रदायिक सद्भावना के कार्यक्रम पर प्रतिबन्ध: जुगल किशोर शास्त्री को पुलिस स्टेशन में रोक कर रखा गया

सांप्रदायिक सद्भावना के कार्यक्रम पर प्रतिबन्ध: जुगल किशोर शास्त्री को पुलिस स्टेशन में रोक कर रखा गया

अयोध्या की आवाज़ और आशा परिवार के तत्वावधान में गाँधी जयंती के उपलक्ष्य में सर्व धर्मं सद्भाव सम्मलेन होना तय हुआ था. इस बार यह सम्मलेन १ अक्टूबर २००९ को राम जानकी मन्दिर में, जिसके महंत जुगल किशोर शास्त्री हैं, होना तय हुआ था. परन्तु फैजाबाद जिला प्रशासन ने झूठे आरोप लगा कर कि इस कार्यक्रम में गोरखपुर में विवादित सांसद योगी आदित्यनाथ के भाषण की सी.डी दिखाई जायेगी, इस सम्मलेन पर प्रतिबन्ध लगा दिया. जुगल किशोर शास्त्री को अयोध्या से ३० किलोमीटर दूर पुलिस स्टेशन पुरा कलंदर ले जाया गया और वहाँ पर रोक कर रखा गया जिससे कि वोह किसी भी तरह से यह कार्यक्रम आयोजित न कर पायें. आयोजकों का निर्णय यह था कि यदि यह सम्मलेन खुले स्थान पर करने की संस्तुति प्रशासन से नहीं मिलेगी, तो यह कार्यक्रम बंद कमरे में बिना माइक के किया जाएगा, जो पूरी तरह कानून के दायरे में है.

इसाई, बुद्ध, इस्लाम, हिंदू आदि समुदाय के प्रतिनिधि सभी हर साल की तरह शास्त्रीजी के मन्दिर में इस सम्मलेन में भाग लेने के लिए इकठ्ठे हो रहे थे. अयोध्या की आवाज़, आशा परिवार और जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय हर ३० जनवरी, २ अक्टूबर और ६ दिसम्बर को शान्ति एवं सांप्रदायिक सद्भावना पर कार्यक्रम आयोजित करते रहे हैं. हाल ही में २४ सितम्बर २००९ को शास्त्रीजी ने ईद मिलन कार्यक्रम फैजाबाद में आयोजित किया था.

फैजाबाद के भूतपूर्व जिलाधिकारी आमोद कुमार कुछ ऐसे कार्यक्रमों में भाग तक ले चुके हैं. परन्तु इस बार जिला प्रशासन ने अपना साम्रदायिक रंग दिखा दिया और झूठे आरोप लगा कर कार्यक्रम पर प्रतिबन्ध लगा दिया और शास्त्री जी को पूरे दिन पुलिस स्टेशन में नज़रबंद रखा. शास्त्री जी को शाम को ही छोड़ा गया.

हम जिला प्रशासन के इस करतूत की भरसक निंदा करते हैं जो लोकतंत्र में शान्ति की बात रखने वालों की आवाज़ घोटने में लगा हुआ है, और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत कर रहा है.

संदीप पाण्डेय, फैसल खान, फादर आनंद, फादर बाप्टिस्ट, भंते तेजंकर दीप

अयोध्या, १ अक्टूबर, २००९

नोट: जुगल किशोर शरण शाश्त्री से फ़ोन पर बात करने के लिए कृपया कर क इस नम्बर पर फ़ोन करें: ९४५१७३०२६९

एक क्रांतिकारी का शहर - नवांशहर

एक क्रांतिकारी का शहर - नवांशहर
प्रदीप सिंह



देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूलने वाले क्रांतिकारियों के सपने चकनाचूर हो गए। अब उनके जीवन से जुड़े स्थानों को भी उपेक्षा से गुजरना पड़ रहा है। अपने छोटे से जीवन काल में ही मिथक बन चुके भगत सिंह का पैतृक गांव उनके सपनों और विचारों से कोसों दूर हो चुका है।

भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा, चकनंबर 105 (अब पाकिस्तान) में हुआ था। 23 मार्च 1931 को इन्हें लाहौर में फांसी दी गई। यह अजीब संयोग है कि आजादी के बाद उनका जन्म स्थान और शहीद स्थल पाकिस्तान के खाते में चला गया। इनका जन्म वर्तमान पाकिस्ततान के लायलपुर जिले में हुआ लेकिन पजाब के नवांशहर के खटकड़कलां में भगत सिंह का पुष्तैनी गांव है। भगत सिंह का जन्म तो यहां नहीं हुआ था। पर एक पुष्तैनी घर को छोड़कर कुछ भी भगत सिंह से जुड़ी हुई नहीं दिखती है।

कहने को तो यह गांव देश के कई शहरों को भी संपंनता में मात दे सकता है। पर शहीद-ए-आजम की शनदार शहीदी परंपरा और राजनीतिक विरासत को अपनाने वाला गांव में कोई नहीं दिखता है । गांव में सब कुछ है। हरे-भरे खेत, पक्की सड़कें,आलीषान इमारतें जो अप्रवासी ग्रामीणीं के पैसें से बनी है। अगर नहीं है तो उनकी विचारधारा और उसको अपनाने वाले लोग।

गांव के ज्यादातर परिवारों का कोई न कोई सदस्य विदेशो में रहता है। गांव में कच्चे मकान नहीं दिखाई देते। भव्य इमारतों ने बेशक भगत सिंह के घर को ढक लिया है। पर अपने इस महान पूर्वज के याद में ग्रामीणों की तरफ से कुछ भी नहीं बना है। गांव के कुछ पहले ही एक प्रवेश द्वार है जो शहीद-ए-आजम भगत सिंह द्वार कहलाता है। जैसा कि पंजाब के अन्य गांवों में प्रवेश द्धार है। इसको पंजाब सरकार ने बनवाया है। मुख्यद्धार के पास ही पंजाब सरकार ने स्मारक बनवाया है। स्मारक में गांव के सरदार जोहन सिंह ( जो कैलिर्फोनिया में रहते है) द्धारा दिया वाटर फ्रीजर लाल रंगों में उनकी दानषीलता की कहानी कह रहा है। मुख्यद्धार की मुख्य सड़क रेलवे लाइन पार करके भगत सिंह के घर के बगल से निकल जाती है। चार कमरे का यह मकान पीले रंग से पुता है। घर के पास एक पुस्तकालय है यह पिछली सरकार ने चुनाव के समय बनवा दिया था। बाहर पंजाब सरकार के सांस्कृतिक और पुरातत्व विभाग की नोटिस चस्पा है।

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के प्रयास से घर के बाहर हाल ही में एक पार्क बनाया गया है। उसके पहले गांव भर का कचरा और गंदा पानी वहां जमा होता था। वैसे गांव और आस-पास की महिलाएं भगत सिंह की प्रतिमा पर मत्था टेकती है । दीवाली के दिन प्रतिमा पर दीप भी जलाये जाते है। भगत सिंह को याद करने के सवाल पर स्मारक की सुरक्षा व्यवस्था में तैनात रंजीत सिंह कहते है कि ऐसा नहीं है कि हम लोग भगत सिंह को याद नहीं करते है। क्यों याद करते हो पर तपाक से उत्तर दमते है कि आज जब लोग सिर्फ अपने लिए ही सोचते है । हमारे यहां का एक नौजवान ने पूरे देष के बारे में सोचा और फासी पर चढ़ गया।

युवा पीढ़ी दिलों में भगत सिंह शायद आज भी धड़कते है। तभी तो बगल के कस्बे गुनाचैर के सरकारी हाई स्कूल के दसवीं में पढ़ने वाले बीरेंदर सिंह और रोहित कुमार भगत सिंह जैसा बनाना चाहते है। इस उम्र में शायद उन नौजवानों को पता नहीं है कि भगत सिंह बनने पर जिदंगी और मौत का फासला खतम हो जाता है। छात्र बलजीत कुमार,बुद्धदेव और दीपक कहते है कि भगत सिंह ने लाला लाजपत राय के मौत का बदला लिया था। फिलहाल इससे ज्यादा भगतसिंह के बारे में सरकारी गैर सरकारी स्कूलों में कुछ नहीं पढ़ाया जाता है।

भगत सिंह पार्क में माली का काम करने वाले चूर सिंह कहते है कि जलियावाला बाग में हजारो किसानों की हत्या हुई। भगत सेंह ने बदला लिया और फांसी पर चढ़ गए। उसके बाद गांव के ही कुछ लोग भगत सिंह के परिवार के खिलाफ पुलिस को भड़काने लगे। जिससे पूरा परिवार गांव छोड़कर यूपी के सहारनपुर में बस गया। अब भगत सिंह के यादों को छोड़ कर गांव में कुछ नहीं है। चूर सिंह रामदासी सिख है। कहते है कि आज भी जमीन सिर्फ जाटों के पास है।



भगत सिंह का सपना और उस दौर के सवाल आज भी उनके गांव में मौजूद है। कमोवेश यही हाल सारे हिंदुस्तान और पाकिस्तान का है। भगत सिंह के जन्म के 102 वर्ष और भारत की आजादी के 62 साल हो चुके है। इस दौरान पूरे देश में बदलाव की बयार बही। इस गांव में भी बदलाव है। गांव में हर जाति के लोग है। जाट सिख, सवर्ण हिंदू, दलित, खत्री और बनिया। रामदासी सिख आज भी पहले की तरह ही मेहनत मजदूरी कर रहे है। यह बात अलग है कि मजदूरी कुछ बढ़ गयी है। गांव में दो गुरुद्धारे है। एक सिंह सभा का दूसरा रविदास का जिसमें दलित सिख जाते है। वैसे किसी गुरुद्धारे में किसी के जाने की रोक नहीं है। लेकिन तकनीकी रुप में ही सही दलितों को आज भी दूसरा पूजा स्थल बनाना पड़ रहा है। जाट सिख उनके साथ असहज महसूस करते है। भगत सिंह आजीवन जाति पांत,सांप्रदायिकता और छुआ-छूत का विरोध करते रहे । अपने निजी जीवन में वे नास्तिक थे। वे समानता के पक्षधर और पूंजीवाद के धुर विरोधी थे।

पिछले कुछ दिनों से गांव में 28 सितंबर (जन्म दिन) और 23 मार्च (शहादत दिवस) को एक मेला लगता है। शहादत दिवस का मेला सरकारी होता है। और जन्म दिन का गांव वालों के सहयोग से। सरकार के नुमामिंदे और मुख्यमंत्री तक इसमें शरीक होते है। मेंले में हर राजनीतिक दलों के लोग अपना लाव लष्कर के साथ आते है। मंच पर खड़े होकर वे अपने को भगत सिंह के विचारों का असली वारिष बताते है। फिलहाल इसमें शहीदों को श्रंद्धाजलि कम राजनीति ज्यादा होती है। सरपंच गुरमेल सिंह कहते है कि मेले के दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है। मंत्री और अधिकारी आते है। यह मेला बच्चों के लिए सैर सपाटा से ज्यादा कुछ नहीं है।

आजादी के पहले और उसके बाद भगत सिंह और उनकं विचारों को सत्ता प्रतिस्ठानों ने लगातार दबाने और खारिज करने की कोषिश की। भगत सिंह को भुलाने की जितनी साजिषें और सड़यंत्र रचे गए। उसके विपरीत वे आम नौजवानों और मेहनतकशों के दिलों में उससे ज्यादा समाते गए। गांव की गलिओं से लेकर शहरी घरों में अकेले भगत सिंह के जितने चित्र टंगे मिलते है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में इतना सम्मान किसी दूसरे नेता को मयस्सर नहीं है । भाकपा-माले के दिवंगत महासचिव विनोद का यह कथन उनके गांव में जाने पर अप्रासंगिक लगता है। देश की सरकारों और भगवा विग्रेड तक ने भगत सिंह का राजनीतिक इस्तेमाल करने की कोषिश अपना बनाने की साजिश रची। पर कामयाब नहीं हुए।

चुनावों के समय देश की राजनीतिक पार्टियों को शहीदों की जरुरत पड़ती है। इसी के मद्देनजर केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम और पर्यटन मंत्री अंबिका सोनी ने 23 फरवरी(2008) को खटकड़कलां में आकर 16 करोड़ 80 लाख की लागत से भगत सिंह का भव्य स्मारक बनाने की घोसणा की । पंजाब के मुख्यमंत्री ने नवांशहर का नाम शहीद-ए-आजम भगत सिंह नगर करने की घोषणा कर डाली है। अपनी जीवन और शहादत के बाद आम लोगों में भगत सिंह जितने लोकप्रिय रहे,आजादी के पहले और उसके बाद भगत सिंह को बार-बार मारने की कोशिश जारी है।

पाकिस्तान की मसहूर समाजसेविका और शिक्षाविद् सलमा हासमी (उर्दू के मसहूर शायर फैज अहमद फैज की बेटी) ने भगत सिंह की लोकप्रियता को लेकर ही कहा था कि अंग्रेज नहीं चाहते थे कि इतने लोकप्रिय व्यक्ति की शहादत का कोई निशान और उसे लोग यादगार बना सके। आगे वह कहती है कि मेरी समझ में अंग्रेज इस देश को छोड़ कर गए ही नहीं,वो खुद तो गद्दी से हटे पर अपने लोगों को बैठा गए। सियासी तौर तरीके और व्यवस्था का ढांचा वैसे ही है। सरकारी नजर में भगत सिंह जैसे लोगों को वैसे ही देखा जाता है। जैसे तब देखा जाता था।


क्रांतिकारी धारा के इस नायक ने पूंजीवाद बनाम समानता अथवा गांधी बनाम भगत सिंह का जो बहस छेड़ा था । वह आज भी चल रही है। भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता ही आज भी शासक वर्ग के सामने सवाल बनकर खड़ी है। कांग्रेस और अकाली दल चुनाव के ऐन वक्त भले ही उनके विरासत का दावा करे पर वह सिर्फ रस्मी तौर पर ही भगत सिंह को देखती है। भगत सिंह के सपने और राजनीति पर न तो उनके गांव के सामंतो की सहमति है। न देश के सरकार की। भगत सिंह का गांव भी पंजाब और भारत के आम गांवों जैसा ही है। यहां के युवा भी पंजाब और भारत के आम युवाओं जैसे ही है। जिनका सपना पैसा और सुख सुविधा है।

(पिछले दिनों पंजाब के नवांशहर के खटकड़कलां में भगत सिंह का पुश्तैनी गांव का दौरा करके लौटे नई पीढी के साथी प्रदीप सिंह ने हमें यह रिपोर्ट और उनके घर की तस्वीरे भेजी है. प्रदीप ने एक क्रांतिकारी के शहर में कई बदलावों को महसूस किया है. पंजाब जिसकी पहचान पहले एक क्रांतिकारियों की धरती के बतौर थी, अब पलायन के लिए जानी जाती है. अब यहाँ के मेहनतकश किसान भी खेतों में आत्महत्या की फसल उगने पर मजबूर है. बठिडा, मनसा, संगरूर और कई शहरों में उन्हें सामन्तवादी शक्तियों से लड़ना पड़ रहा है. भाकपा-माले के कामरेड बन्त सिंह उसी परंपरा के वाहक हैं. जिन्होंने सामंतो से लड़ते हुए अपने दोनों हाथ गवां दिए. उन जैसों को लड़ते देख एक उम्मीद सी जगती है की पंजाब में भगत सिंह जिदा हैं, उनके विचार जिन्दा हैं.)


प्रस्तुत द्वारा चुन्नीलाल, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस, लखनऊ |