जो भूखों मरते हैं, वो नाचते कैसे हैं ?

      आजादी के तिरसठ साल बाद भी देश के आदिवासी और अति दलित जातियां मुख्य धारा से बाहर हैं उनके विकास के लिए बनी योजनाओं ने उन्हें दिया तो बहुत कम उलटे उनके पारम्परिक संसाधन भी उनसे छीनते चले गये सत्ता के सारे पायदानों ने उन्हें छला आज भी प्रदेश  के सोनभद्र,चंदौली, गोरखपुर, बलिया, बांदा, लखीमपुर, वाराणसी, चित्रकूट और इलाहाबाद में बसी ये जातियां एक तरह से आदिम अवस्था में हैं लोकतांत्रिक एजेंसियाँ व संस्थाएँ उनके लिए बेमानी ही हैं अगर विकास की किरण पहुँची भी हैं तो भी पारम्परिक समाज की उनसे दूरी बनी हुयी हैं क्या आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के सन्दर्भ में ये अहम नहीं कि अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस (7 अगस्त) पर उनकी जीवन स्थितियों को जानने के बहाने कुछ सवाल उठता।
   
   उनकी खबरें यदा-कदा तभी आती हैं, जब वे भूख से मरते हैं, जब उनके टोले फूंक दिये जाते हैं, जब अपराधी बताकर पुलिस मुठभेड़ में मार डालती है, या फिर जब वे उन्मत्त होकर नाचते हैं। बाकी दिनों वे किस हाल में जीते हैं तथाकथित भ्रद समाज के लोग नहीं जानना चाहते। जो भूखमरी का शिकार है, वह उन्मत्त हो नाच कैसे सकता है ? टेलीविजन के जरिये समाज को समझने वाले पूछते हैं। उन्हें नहीं पता कि जिजीविषा नाम की कोई चिड़िया हुआ करती है।

   दरअसल ये आजादी के बाद लोकतंत्र के और सैकड़ों साल पहले से वर्णाश्रमी समाज के हाशिए पर फेंक दिए गए लोग हैं। वे प्रकृति, नियति और अपने पूर्वजों की स्मृति के भरोसे जीते हैं उन्होंने हमारे समाज और आती-जाती सरकारों से कभी कुछ नहीं चाहा, उल्टे उनके कल्याण का स्वांग भरते हुए जो सरकारी एजेंसियाँ और अफसर गए, उन्होंने उनके पारम्परिक जीवन के सिलसिले के तोड़ दिया। फिर उनके संसाधनों को षड्यंत्रों अत्याचारों और छल-कपट से "बेचारा" बना दिए गए लोग हैं। हो सकता है कि वे चालाकों-दबंगों से हार कर एक दिन पूरी तरह मिट जाएँ।
   
   सोनभद्र जिले में करीब दस लाख आदिवासी हैं। रिहंद बांध के बनने से उनके विस्थापन का सिलसिला जो शुरू हुआ, आज भी जारी है। हजारों बूढ़े ऐसे हैं जो अपने जीवनकाल में छह-छह बार उजाड़े गए। पुनर्वास के अफसर और दलाल मालामाल हो गए और वे आज भी कोई ठौर तलाश रहे हैं। रिहंद और अनपरा की बिजली सारे देश को मिलती है और वे कुप्पी की रोशनी में रातें काटते हैं। दूसरी आफत जंगलात महकमा है और धारा-20 दुनिया का सबसे काला कानून है, आरक्षित वन क्षेत्र के नाम पर सैकड़ों लोग हर साल बेघर और बेजमीन होते हैं, उन्हें जंगल में घुसने से रोक दिया जाता है। काशी वन्य जीव प्रभाग के अफसर कहते हैं कि नौगढ़ क्षेत्र में उनकी 1014-75 हेक्टेयर जमीन पर अवैध कब्जे हैं और अतिक्रमण के 748 मुकदमे चल रहे हैं, अवैध कब्जों का यह सरकारी दावा अर्द्धसत्य है। पूरा सच यह है कि जमींदारी उन्मूलन के बाद जो सर्वे हुआ उसमें जमकर धांधली हुई लेखपाल कानूनगों को घूस देने की जिनकी औकात थी, उन्हें सर्वे में आबाद दिखाया गया। आदिवासियों और दलितों के गाँवों को आरक्षित वन क्षेत्र दर्ज कर दिया गया। कई पुस्त से बसे इन लोगों को अतिक्रमणकारी बताकर वन विभाग बेदखल कर रहा है, दूसरी तरफ सन 75 के बाद बाहर से आकर हजारों एकड़ जंगल कब्जाने वाले नये जमींदारों को कोई पूछता तक नहीं। चंदौली के नौगढ़ ब्लाक में शायद ही कोई ऐसा गाँव मिले जहाँ जंगल काट कर बनाई आदिवासियों का जमीन दबंगों ने न कब्जा की हो। भटदुआ, परसियां और परसहवां की छ: सौ एकड़ जमीन पर मोहन सिंह के आदमियों का कब्जा है। शमशेरपुर के डेढ़ किलोमीटर के दायरे में गोविन्द सिंह के लोग खेती करते हैं। जयमोहनी में दलितों को पट्टे में मिली सौ एकड़ जमीन पर दबंग यादवों का कब्जा है। मिर्जापुर में सिरसी बाँध बना तो बंभनी-थपनवा समेत सोलह गाँवों को डूब क्षेत्र घोषित कर दिया गया। इन गाँवों के दलित आदिवासियों को पाँच साल के पट्टें दिए गए, जिसका लगान चालीस रूपये एकड़ की दर से वे भरते हैं। ज्यादातर पट्टे सवर्ण और दबंग पिछड़ी जातियों को मिले, बलिया और लखनऊ तक के लोग यहाँ खेतिहर हो गए। राजस्व निरीक्षण ने 239 लोगों की सूची में जिले के बाहर के लोगों को भी शामिल कर लिया। मिसाल के तौर पर यहाँ के सुदामा, बुधनी और श्याम सुन्दर को पाँच एकड़ जमीन का मालिक बताया गया है जबकि उनके पास एक धूर भी जमीन नहीं है। अकेले चुनार तहसील में भूमि विवाद के ७,000 मुकदमें लम्बित हैं। शक्तेशगढ़ परगना के बझवां गाँव में ऐसे लोगों को मिले हैं जो तलाशे नहीं मिलते, बहुजर में ऐसे तथाकथित आदिवासियों को पट्टे मिले हैं इन्कमटैक्स का रिटर्न भरते हैं।
     
      वन विभाग की धारा-20 के खेल के कारण सोनभद्र जिले के पाँच पुराने गाँवों का अस्तित्व मिटने वाला है। सन 1997 में फारेस्ट रेंजर ने अचानक ऐलान किया कि ये गाँव अभयारण्य पर कब्जा कर बसे हैं, दो साल तक यह प्रचार चलाने के बाद जुलाई 1999 में वन विभाग के अफसरों ने पुलिस साथ लेकर बसौली की 825 बीघे जमीन, बुंधवारी की तीस, बहुआर की 1369, तितौली की 100 और अमौली की 225 से आदिवासियों को बेदखल कर दिया।
   
  अनिल यादव