मेरे परिवार में कुछ लोग बंटवारे के समय पाकिस्तान के कराची जा बसे। बंटवारे और हिंसक पलायन ने दोनों देशों के लाखों लोगों के दिलो-दिमाग पर गहरा प्रभाव भी डाला। मेरे माता-पिता परिवार वालों से मिलने भी गये। उस समय में छोटा था और तब मुझे पाकिस्तान से बड़ा दुश्मन कोई नहीं मालूम होता था। मैं अपने पिता जी से कहा करता कि मैं कभी भी पाकिस्तान नहीं जाऊँगा, यह भी कोई जगह है ? लेकिन जब मैंने होश संभाला तो मालूम चला कि बंटवारे के जख्म दोनों देशों के अवाम के लिए कितने हरे हैं। धीरे-धीरे जब साहित्य में रूची हुई तो भारत- पाकिस्तान के बंटवारे पर कहानियां और उपन्यास पढ़ने को मिले, उन्हीं में से एक था ’दी ट्रेन टु पाकिस्तान’। यह कौन नहीं जानता कि अगस्त १९४७ के पहले भारत और पाकिस्तान एक देश थे।
अभी हाल ही में मुझे भारत-पाकिस्तान शांति कारवां में शामिल होने का अवसर प्राप्त हुआ। जब इस शांति कारवां के बारे में लोगों को मालूम होता तो वह यही कहते कि यह दोनों देश गु - लकड़ी करते रहेंगे। गेट वे ऑफ इंडिया से शुरू हुआ यह कारवां गुजरात के वलसाड, नवसारी, सुरत, भरूच और नमक सत्याग्रह की सूचक रही दांडी और अन्य राज्यों से होते हुए वागाह बांर्डर तक जायेगा। जगह - जगह हमारे इस कारवां का रंगा-रंग कार्यक्रमों से स्वागत हुआ, उस मंजर को इतने कम शब्दों में बयां कर पाना कठिन है। अधिकतर लोगो ने इस कदम कि सराहना की लेकिन कुछ लोग ऐसे भी टकराए जो अमन के इस कदम में निराशा का भाव देख रहे थे।
गुजरात में मुझसे एक महोदय ने कहा कि इस कारवां की क्या जरूरत है, पाकिस्तान दाऊद को पाले हुए है। मैंने उन्हे समझाया कि देखिए महोदय भारत पाकिस्तान के बीच १९४७, १९६५, १९७१ और कारगिल मिलाकर चार युद्ध हुए हैं, पांचवा युद्ध किसे मंजूर है। अच्छे-बुरे लोग तो हर जगह हैं। वह जनाब स्कूटर स्टार्ट कर चलते बने। इस यात्रा में विभिन्न राज्यों के लोग शामिल हुए, कारवां आगे बढ़ता जा रहा था और हम भारत-पाकिस्तान के संबंधों और उससे जुड़ी समस्याओं के समाधान पर विचार-विमर्श कर रहे थे। जब हमारा पढ़ाव गुजरात के भरूच में हुआ तो मुझे वहां कि जनता से मुकातिब होने का अवसर प्राप्त हुआ। जब सगे संबंधियों के शरीर में रक्त एक है तो सरहदें क्यों, दोनों सरकारों की नीतियों में जनता क्यों पिसे। सीमा के आर-पार लोगों का आवागमन आसान हो जाए, न कोई पासपोर्ट हो और न ही कोई वीजा। कश्मीर के मसले को इससे जोड़ कर नहीं देना चाहिए।
एक दूसरे को नीचा दिखाने की चाहत और बदला लेने की भावना ने दोनों देशों की शांति को भंग कर दिया है। वास्तविकता तो यह है कि भारत और पाकिस्तान एक दूसरे के पड़ोसी हैं, जैसा मैं समझता हुं, पड़ोसी कैसा भी हो उसके साथ रहना एक विश्वता है क्योंकि आप मित्र तो बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं बदला जा सकता। हमारा एक हजार साल से ऊपर का साझा इतिहास, संस्कृति और परंपरा है। हमें सोचना पड़ेगा कि इतना सब कुछ सांझा होने के बावजूद ऐसा क्या है जो हमें बांट रहा है। क्या हम अनंत काल तक एक दुसरे का खून बहाते या फिर चूस्ते रहेंगे। अगर उत्तर है नहीं तो प्रश्न यह उठता है कि फिर क्यों न एक अच्छे पड़ोसी की तरह रहा जाय। क्या यह संभव है। मुझे दोनों तरफ के राजनीतिज्ञों, सेना से कोई उम्मीद नहीं है। इस संबंध में दोनों देशों की सिविल सोसाईटी को पहल करनी होगी।
हाल ही में एस.एम. कृष्ण पाकिस्तान गये थे उन्होंने कहा था कि भारत एक स्थिर और मजबूत पाकिस्तान देखना चाहता है और मुझे विश्वास है कि मेरी यात्रा से सकारात्मक परिणाम निकलेंगे मगर आप सोच रहे होंगे कि रिश्ते तो वहीं हैं ढाक के तीन पात। चरमपंथी गुट हमेशा यही मनसूबे बनाएंगे कि दोनों देशों के हालात कभी बहतर न हों लेकिन लोकतंत्र में तय तो जनता को करना है। मैं इस यात्रा में बापू की सरजमीं दांडी, जहां से नमक सत्याग्रह शुरू हुआ था अपने साथियों के साथ मन में यह विश्वास और भरोसा लेकर आया हुं कि दोनों देशों के रिश्ते मजबूत होंगे। तब न तो कोई आतंक फैलाने वाला होगा और न ही कोई बांटो और राज्य करो नीति के तहत नफरत का बीज बोने वाला।
हमें इतिहास की गठरी जो विरासत में मिली है उसे रददी की टोकरी में फेंकना होगा। एक दुसरे की इज्जत करना सीखना होगा। दोनों तरफ से बगैर किसी रूकावट के आवागमन होना चाहिए। साहित्य शिक्षा, विज्ञान एवं तकनीकी, स्वास्थ्य के क्षेत्र में आदान प्रदान होना चाहिए। कलाकारों, फिल्मों का आदान प्रदान होना चाहिए। दोनों देशों के बीच वाणिज्य का विस्तार होना चाहिए। मैं यह नहीं कहता की इन उपायों से सारी समस्याओं का हल निकल आएगा, लेकिन धीरे-धीरे आपसी समझदारी और सहयोग के लिए वातावरण का निर्माण हो सकता है जैसे युवा फिल्म निर्देशक संजय पुराण सिंह चौहान ने अपनी फिल्म ‘लाहौर‘ में कर दिखाया है। अमन के बढ़ते कदम ऐसे ही बढ़ेंगे, हो सकता है कभी निराशा हाथ लगे जैसे अब तक लगती आई है, कुछ लोग इस लेख को पढ़ने के बाद भी कहेंगे कि यह काम इतना आसान नहीं है, लेकिन मैं तो यही कहुंगा की हमारे पास विकल्प भी क्या है ?
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं
सैय्यद अली अख्तर