[English] एड्स सोसाइटी ऑफ़ इंडिया (ए.एस.आई.) का चौथा राष्ट्रीय एड्स अधिवेशन १६-१८ दिसम्बर के दौरान संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान के सभागार में संपन्न होगा. इस अधिवेशन में १५ अंतर्राष्ट्रीय एड्स विशेषज्ञ और ७० भारतीय एड्स विशेषज्ञ एवं चिकित्सक व्याख्यान देंगे. अधिवेशन में भाग लेने के लिये १५० से अधिक ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों के चिकित्सकों को वजीफा प्रदान किया गया है.
विश्व-विख्यात प्रतिष्ठित एड्स विशेषज्ञ जिनमें से कई भारत से हैं, वे इस अधिवेशन में भाग लेंगे और एड्स नियंत्रण से सम्बंधित अनेक बिन्दुओं पर अपने विचार रखेंगे. एच.आई.वी. परीक्षण, एंटीरेट्रोवाइरल थेरपी (ए.आर.टी.), एच.आई.वी. और टुबरकुलोसिस (टी.बी.) का सह-संक्रमण, एच.आई.वी. और हेपटाइटिस-सी सह-संक्रमण, एच.आई.वी. और हेपटाइटिस-बी सह-संक्रमण, ए.आर.टी. दवाओं से प्रतिरोधकता, टी.बी. की रोकथाम के लिये आई.एन.एच. थेरपी, एच.आई.वी. और हर्पीस सह-संक्रमण, समाज में व्याप्त लिंग-से-सम्बंधित असमानताएं, मानसिक समस्याएँ, आदि इस अधिवेशन के प्रमुख विषय रहेंगे. यह संभवत: पहला ऐसा चिकित्सकीय अधिवेशन होगा जिसमें धूम्रपान और शराब दोनों-प्रतिबंधित हैं.
विश्व स्तर पर एड्स को अब ३० साल हो गए हैं. भारत में पहला एड्स परीक्षण 'पोजिटिव' १९८६ में रपट हुआ था और तब से आज तक २६ साल हो गए हैं और एड्स नियंत्रण का संघर्ष अभी जारी है.
विडंबना यह है कि भारत एक ओर तो विश्व-भर में ८० प्रतिशत से अधिक ए.आर.टी. दवाएं प्रदान करता है और दूसरी ओर अपने ही देश में हजारों लोगों की मृत्यु एड्स से हो रही है. राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्थान के आंकड़ों के अनुसार २००९ में जिन ६५,००० एच.आई.वी. से संक्रमित महिलाओं ने बच्चे को जन्म दिया था, उनमें से १८,००० महिलाओं के नवजात शिशु एच.आई.वी. से संक्रमित हो गए. यह अत्यधिक शोचनीय है कि जब ऐसी प्रभावकारी दवाएं उपलब्ध हैं जिनसे नवजात शिशु को एच.आई.वी. संक्रमण से बचाया जा सकता है तब भी १८००० शिशुओं को एच.आई.वी. संक्रमण हो गया.
१९९०-२००० के दौरान जो एड्स एक घातक बीमारी मानी जाती थी आज सिर्फ एक दीर्घकालिक बीमारी हो कर रह गयी है जिसके साथ सामान्य जीवन-यापन संभव है. ए.आर.टी. दवाएं बहुत सस्ती हो गयी हैं. संयुक्त राष्ट्र एवं सहयोगियों के एड्स प्रोग्राम (यू.एन.एड्स) के अनुसार एच.आई.वी. से संक्रमित लोगों की संख्या के आधार पर विश्व में भारत (२३ लाख) का स्थान दक्षिण अफ्रीका (५५ लाख) और नाइजीरिया (२९ लाख) के बाद तीसरे नंबर पर है.
हमारी संस्कृति, मूल्यों, युवाओं और गैर-सरकारी संगठनों की सक्रियता, स्वास्थ्यकर्मियों और दवा-कंपनियों की सहभागिता आदि ने ही भारत की अधिकाँश जनता को एड्स से बचाया है.
भारत में ए.आर.टी. दवाओं को सचेत हो कर और सूझ-बूझ से दिया जाता है बनाम पश्चिम देशों के जहां 'जल्दी और ज्यादा डोज़' ए.आर.टी. दी जाती है, इसीलिए भारत में ए.आर.टी. ले रहे लोगों के जीवन की गुणात्मकता बेहतर है, आर्थिक व्यय कम आता है और दवा-प्रतिरोधकता होने का खतरा भी कम हो जाता है. संयुक्त परिवार, स्थाई विवाह सम्बन्ध, और भारतीय संस्कृति ने भी एड्स से लड़ने में बहुत मदद की है. भारत में प्रथम यौन अनुभव की उम्र भी और देशों के मुकाबले ज्यादा है जो अच्छी बात है.
जब भारत ने 'जेनेरिक' दवा बनानी शुरू की तो पश्चिम राष्ट्रों ने कहा कि भारत नक़ल कर रहा है. सोचने की बात है कि पश्चिम देश जब 'कॉम्बो' दवा बनाते हैं तब उसको नक़ल क्यों नहीं कहते हैं? भारतीय और पश्चिमी दवा कंपनियों के लिये अलग-अलग मापदंड क्यों? भारतीय दवा कंपनियों ने 'जेनेरिक' दवा बना कर बड़ा खतरा उठाया है - कोर्ट मुक़दमे से बचना और 'पेटेंट' होने के बावजूद 'जेनेरिक' दवा बनाने की नीति बूझना और रास्ता निकलना, आदि. पहले पश्चिमी देशों से ए.आर.टी. दवा ११,४५२ अमरीकी डालर की आती थी जो अब मात्र ६९ अमरीकी डालर की रह गयी है. इस प्रकार भारत की दवा कंपनियों द्वारा निर्मित 'जेनेरिक' दवा की कीमत मात्र १ प्रतिशत ही रह गयी है परन्तु दवा की गुणात्मकता १०० प्रतिशत बरक़रार है. भारतीय दवा कंपनियां इसके लिये बधाई की पात्र हैं.
एड्स नियंत्रण कार्यक्रम में काफी कमियां रही हैं, उदाहरण के तौर पर: जितनी एच.आई.वी. पोजिटिव और गर्भवती महिलाओं को 'पी.पी.टी.सी.टी.' की आवश्यकता है उनमें से सिर्फ १० प्रतिशत को यह नसीब हो रही है और वो भी एक-डोज़ 'नेविरापीन' (अब बेहतर उपचार उपलब्ध है और वह मिलना चाहिए), सिर्फ ५६% यौन कर्मियों तक ही एच.आई.वी. कार्यक्रम और सेवाएँ पहुँच रही हैं, सिर्फ ३८% यौन कर्मी एच.आई.वी. से बचाव के बारे में सही जानकारी रखते हैं, राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्थान सिर्फ २०% एच.आई.वी. पोजिटिव लोगों तक पहुँच पा रहा है क्योंकि रपट प्रणाली में ही समस्या है, आधे से अधिक एच.आई.वी. पोजिटिव लोगों को अपने एच.आई.वी. संक्रमण के बारे में जानकारी नहीं है, आदि. जिन लोगों को ए.आर.टी. दवा मिलनी चाहिए उनमें से सिर्फ ३०% को ही मिल पा रही है (२००५ में सिर्फ ६% को मिल पा रही थी), २० प्रतिशत लोग जो निशुल्क ए.आर.टी. दवा ले रहे थे उनकी मृत्यु हो गयी, और १२.५% लोग 'लास्ट-टू-फ़ॉलो-अप' घोषित हैं या उन्होंने २ साल के भीतर ही ए.आर.टी. दवा लेना बंद कर दिया था. दवा-प्रतिरोधक टी.बी. और एच.आई.वी. सह-संक्रमण भी एक भीषण चुनौती दे रहा है, 'आईरिस', एच.आई.वी. के साथ जीवित लोगों को संगठित करना, रोज़गार और इन्श्योरेन्स देना, और एच.आई.वी. से बचाव के नए शोध-रत साधन जैसे कि वैक्सीन और 'माइक्रोबीसाइड' के शोध को आगे बढ़ाना अन्य चुनौतियाँ है.
इस एड्स अधिवेशन में भारतीय परिप्रेक्ष्य में एड्स नियंत्रण से जुड़े ऐसे ही संजीदा मुद्दों पर चिकित्सकीय संवाद और परिचर्चा होगी. इस अधिवेशन के संयुक्त आयोजक हैं : भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद्, भारत सरकार का बायोटेकनालाजी विभाग, संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्थान, और पीपुल्स हेल्थ संस्थान. अमरीका के राष्ट्रीय स्वास्थ्य इंस्टिट्यूट (एन.आई.एच.) ने इस अधिवेशन को आर्थिक रूप से समर्थन दिया है. इस अधिवेशन में फार्मा प्रदर्शनी लगेगी और ५५ पोस्टर भी प्रदर्शित किये जायेंगे.
बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.