भारत में दवा प्रतिरोधक टीबी के बढ़ते हुए प्रकोप को चाहिए अधिक प्रतिक्रिया

“भारत में दवा प्रतिरोधक टीबी के बढ़ते हुए प्रकोप को देखते हुए यह अत्यावश्यक हो गया है कि टीबी उपचार एवं निजी बाज़ार में टीबी दवाओं के नियंत्रण से संबन्धित समस्याओं का तुरंत निराकरण किया जाय”। ऐसा मानना है ‘मेडिसिन्स सांस फ़्रंटियर (एमएसएफ)/सीमा रहित डाक्टर’ नामक अंतर्राष्ट्रीय चिकित्सीय मानवतावादी संस्था का, जिसका अनुमोदन जन स्वास्थ्य अभियान, स्टॉप टीबी पार्टनरशिप, तथा दिल्ली नेटवर्क आफ पोसिटिव पीपुल (डीएनपी+) ने भी किया है।
     
औषधि प्रतिरोधक टीबी के रोगियों की संख्या के अनुसार भारत का विश्व में दूसरा स्थान है, तथा अनुमानत: भारत में प्रत्येक वर्ष औषधि प्रतिरोधक (ड्रग रेजिस्टेंट) टीबी अथवा डीआर टीबी के 99,000 नए रोगी होते हैं। परंतु फिर भी 2010 में इनमें से केवल 2% रोगियों को ही राष्ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत ‘सेकंड लाइन ट्रीटमेंट’ उपलब्ध हो पाया।
     
जन स्वास्थ्य अभियान के डा अमित सेनगुप्ता के अनुसार, “यह बात तो साफ है कि भारत में दवा प्रतिरोधक टीबी का संक्रमण बढ़ रहा है। औषधि प्रतिरोधकता के आविर्भाव की स्थितियाँ निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र तथा सरकारी कार्यक्रमों, दोनों में व्याप्त हैं"।

भारत के संशोधित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीसीपी) के अंतर्गत टीबी रोगियों को प्रतिदिन के स्थान पर एक दिन के अंतराल पर दवा दी जाती है। इससे दवा की खुराक छूट जाने का खतरा बढ़ जाता है जो दवा प्रतिरोधक टीबी कीटाणुओं की उत्पत्ति को बढ़ावा देता है। इसके अलावा यह कार्यक्रम ऐसे उपचार परामर्श पर भी पैसे खर्च नहीं करता जो नियमित दवा लेने में सहायक हो सकता है।
     
डीएनपी+ के हरी शंकर के अनुसार, “आरएनटीसीपी का ‘डाट्स’ माडल अपनी टीबी उपचार पद्धति के द्वारा रोगियों को अपना इलाज पूरा करने की क्षमता और प्रोत्साहन नहीं प्रदान करता है, जिसके चलते इलाज में व्यवधान की संभावना बढ़ जाती है। यह न केवल रोगियों के लिए हानिकारक है, वरन औषधि प्रतिरोधकता का भी विस्तार करती है। उचित परामर्श के चलते ही मेरे जैसे अन्य एड्स रोगी स्वयं ही अपनी एचआईवी दवाओं की बंधी हुई खुराक रोज़ खा लेते हैं - बिना किसी स्वास्थ्यकर्मी के सामने जाये। टीबी कार्यक्रम को भी ऎसी उपचार संहिता  (प्रोटोकॉल) बनानी चाहिए जो सरल हो तथा जिन पर आसानी से अमल किया जा सके। इसमें रोगी को उचित परामर्श देना भी शामिल होना चाहिए, जैसा कि एड्स उपचार के लिए किया गया है।“
     
एमएसएफ के मुंबई स्थित एचआईवी क्लीनिक में एड्स के रोगी अधिकतर काफी खराब हालत में पहुँचते हैं तथा अक्सर उनकी डीआर टीबी का इलाज शुरू होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो जाती है। इनमें से अधिकांश अपना इलाज प्राइवेट सेक्टर में करा चुके होते हैं जहां टीबी की उचित दवा और खुराक न मिलने के कारण उनकी हालत बिगड़ जाती है।
     
एमएसएफ के भारत स्थित कार्यालय के प्रमुख पिएरो गंदीनी का मानना है कि, “प्राइवेट मार्केट में विभिन्न प्रकार की टीबी दवाओं की प्रचुरता तथा बिना डाक्टर के पर्चे के एंटीबायोटिक्स की सरल उपलब्धता (जिनमें से कुछ डीआर टीबी के इलाज में भी प्रयोग की जाती हैं) ही औषधि प्रतिरोधकता की वृद्धि को बढ़ावा देती है। डीआर टीबी के गंभीर स्वरूप के बढ़ते हुए फैलाव को रोकने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि प्राइवेट सेक्टर में टीबी दवाओं की बिक्री और संचालन को नियंत्रित किया जाय। “स्टॉप टीबी पार्टनरशिप की ब्लेसिना कुमार ने कहा, “पूरे विश्व की निगाहें भारत में डीआर टीबी के बढ़ते हुए संकट पर लगी हैं। अब जब हमारे पास ऐसी नई जाँचें उपलब्ध हैं जिनके द्वारा 2 घंटे से भी कम समय में डीआर टीबी की पक्की जांच की जा सकती है, तो अब सही समय है कि सरकार तुरंत ही आवश्यक कदम उठा कर अपने राष्ट्रीय कार्यक्रम में डीआर टीबी के निदान और उपचार की उपलब्धता की समुचित व्यवस्था कराये, ताकि अधिक से अधिक रोगियों को उचित मात्रा में दवा मिल सके और भारत में इस बीमारी का प्रकोप कम हो सके।“
     
ज्ञात रहे कि सदियों पुरानी बीमारी होने के बावजूद, वर्तमान में विश्व स्तर पर मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण टीबी रोग ही है, और टीबी का इलाज करने वाली फ़र्स्ट लाइन ड्रग्स के प्रतिरोधी रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रत्येक वर्ष भारत में टीबी से 20 लाख नए रोगी ग्रसित होते हैं जो विश्व भर में सबसे अधिक है, तथा डीआर टीबी के प्रति वर्ष 99,000 नए रोगी बनने के कारण इस बीमारी में भारत का स्थान विश्व में दूसरे नंबर पर है। डीआर टीबी: यह टीबी का वो प्रकार है जो प्रथम चरण (फ़र्स्ट लाइन) टीबी औषधियों का प्रतिरोधी है। रोगी डीआर टीबी से प्रत्यक्ष रूप से संक्रमित हो सकता है अथवा यह उसमें तब विकसित होती है जब टीबी की प्रथम चरण दवाएं या तो उचित मात्रा में न ली गई हों या उपचार की अवधि पूरी न की गई हो। भारत में डीआर टीबी की समस्या को अधिक गंभीर बनाने में अनियंत्रित निजी स्वास्थ्य सेवा का बहुत बड़ा योगदान है, जहां अविवेकपूर्ण ढंग से और अनुचित मात्रा में दवा निर्धारित किए जाने के कारण दवा प्रतिरोधकता बढ़ती है और साथ साथ डीआर टीबी भी। एक अध्ययन के अनुसार भारत में 4 फ़र्स्ट लाइन टीबी औषधियों के 48 विभिन्न प्रकार के ‘फिक्स्ड डोसेज कांबिनेशन’ एवं 22 विभिन्न ‘सिंगल ड्रग निरूपण’ उपलब्ध हैं।
    
डीआर टीबी का उपचार पुरानी एंटी बायोटिक्स पर निर्भर करता है, जिनके विकट दुष्प्रभाव होते हैं, जैसे जी मिचलाना, बहरापन, मनोविकृति, आदि। रोगी को दो वर्ष तक प्रत्येक दिन 17 गोलियां खानी होती हैं और 6 महीने तक कष्टदायक इंजेक्शन भी लगवाने पड़ते हैं।

एमएसऍफ़ नामक अंतर्राष्ट्रीय चिकित्सीय मानवतावादी संस्था लगभग 70 देशों में अति संवेदनशील जनसमुदायों को उच्च-कोटि की नि:शुल्क चिकित्सीय सहायता उपलब्ध कराती है, तथा 29 देशों में डीआर टीबी के रोगियों का इलाज करती है.   और हर वर्ष 1000 नए रोगी इस इलाज के लिए भर्ती होते हैं। 2006 से यह संस्था मुंबई के खार इलाके में एड्स के इलाज के लिए एक ‘एंटी रेट्रो वाइरल ट्रीटमेंट (आए.आर.टी.) सेंटर चला रही है, जिनमें उन एचआईवी+ रोगियों पर विशेष ध्यान दिया जाता है जो डीआर टीबी से भी संक्रमित हैं। वर्तमान में इस क्लीनिक में 29 डीआर टीबी के रोगियों का इलाज हो रहा है।

डीआर टीबी के उपचार के लिए बनाई गईं अपनी मेडिकल योजनाओं में एमएसएफ ने समुदाय केन्द्रित मॉडल अपनाया है। एमएसएफ के द्वारा उपचार करा रहे  रोगियों को मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक सहायता मिलती है तथा वे अपने समुदाय में रह कर ही अपना उपचार करवाते हैं। उन्हे इस बात का इख्तियार होता है कि वे अपनी दवा और इंजेक्शन अपने घर पर या घर के पास से ले सकते हैं। यह पद्धति सेवाओं को रोगी की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम है। तथा इससे उनकी यह क्षमता भी बढ़ती है कि दवाओं के विकट दुष्प्रभावों के बावजूद वे अपना 2 साल तक चलने वाला इलाज भली भांति पूरा कर सकें।

शोभा शुक्ला - सी.एन.एस.