[फोटो] [English] 2 अक्टूबर को अहिंसा के पुजारी पूज्य महात्मा गांधी जी के जन्मदिवस के अवसर पर अनेक धर्मनिरपेक्ष दलों, बुद्धिजीवियों और आम जनता ने सांप्रदायिक ताकतों को उखाड़ फेकने के लिए, विधान सभा के सामने आयोजित आम सभा में भाग लिया। "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सनमति दे भगवान" पंक्तियों से सभा का आरंभ हुआ।
इस आम सभा को सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया), राष्ट्रीय विकलांग पार्टी, रिहाई मंच, वोटर्स पार्टी इण्टरनेशनल, वेल्फेयर पार्टी ऑफ इण्डिया, भारतीय कृषक दल, इण्डियन नेशनल लीग, भारतीय एकता पार्टी (एम), खुदाई खिदमतगार, लोक राजनीति मंच, स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गनाइज़ेशन (एसआईओ), जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) आदि का समर्थन प्राप्त था।
मगसेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय जो लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मण्डल के सदस्य हैं, ने कहा कि "मुजफ्फरनगर में साम्प्रदायिक राजनीति का नंगा खेल हुआ है। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी तो दूसरी तरफ शासन करने वाली समाजवादी पार्टी ने फायदा उठाने की कोशिश की है। एक समय ऐसा लगने लगा था कि दंगे कराकर मतों के धु्रवीकरण की राजनीति के दिन लद गए। किंतु मुजफ्फरनगर की हाल की साम्प्रदायिक हिंसा 2002 में हुई गुजरात की हिंसा, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद हिंसा व विभाजन की याद ताजा कर गए। इन्हें दंगा कहना उनके एक तरफा स्वरूप को छुपाने का काम करता है।"
डॉ संदीप पाण्डेय जो सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) और जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से भी सम्बद्ध हैं, ने कहा कि "चाहे कवाल में शहनवाज ने लड़की छेड़ी, जैसा जाटों का आरोप है, या वह मोटरसाइकिल और साइकिल की टक्कर का मामला था, जैसा शहनवाज के वालिद दावा करते हैं, शहनवाज, सचिन व गौरव की हत्यायें यदि इतनी बड़ी हिंसा का रूप ले लीं तो इसमें प्रशासनिक असफलता और राजनीतिक दखलंदाजी मुख्य कारण रहा। 27 अगस्त, 2013, की उपर्युक्त मामूली अपराध की घटनाओं पर उचित कार्यवाही क्यों न हुई? जिलाधिकारी ने 30 व 31 अगस्त को धारा 144 लगे होने के बावजूद क्रमशः पहले मुसलमानों की फिर जाटों की बड़ी सभाएं क्यों होने दीं? मुसलमानों की सभा में तो वे ज्ञापन लेने भी पहुंच गए। फिर नंगला मंदोड़ में 7 सितम्बर का महापंचायत क्यों होने दी गई और उसमें भाजपा नेताओं को क्यों जाने दिया गया? 7 सितम्बर व 8 सितम्बर को जब हिंसा हो रही थी तो पुलिस ने प्रभावी हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? यदि हम चाहते हैं कि मुजफ्फरनगर की पुनरावृत्ति न हो तो दोषी अधिकारियों व नेताओं पर गाज गिरनी ही चाहिए। किंतु यह देखते हुए कि सपा सरकार ने अपने इसी शासनकाल में पहले हुए दंगों जैसे फैजाबाद, प्रतापगढ़, बरेली, मथुरा, आदि, में अभी तक कोई कार्यवाही नहीं की है इस बात की उम्मीद कम ही दिखाई पड़ती है।"
डॉ संदीप पाण्डेय ने बताया कि "हमारी मांगे हैं कि जिन अधिकारियों और नेताओं की लापरवाही की वजह से स्थिति बिगड़ी और इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हुई उनकी जवाबदेही तय की जाये। प्रदेश सरकार राहत शिविरों में शरण पाये विस्थापित लोगों को यह ठोस विश्वास दिलाये कि वें अपने गाँव वापस जाएँ और यदि वे वापस नहीं जाना चाहते तो उनके पुनर्वास की ज़िम्मेदारी ले।"
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस - सीएनएस
अक्टूबर 2013
इस आम सभा को सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया), राष्ट्रीय विकलांग पार्टी, रिहाई मंच, वोटर्स पार्टी इण्टरनेशनल, वेल्फेयर पार्टी ऑफ इण्डिया, भारतीय कृषक दल, इण्डियन नेशनल लीग, भारतीय एकता पार्टी (एम), खुदाई खिदमतगार, लोक राजनीति मंच, स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गनाइज़ेशन (एसआईओ), जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) आदि का समर्थन प्राप्त था।
मगसेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय जो लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मण्डल के सदस्य हैं, ने कहा कि "मुजफ्फरनगर में साम्प्रदायिक राजनीति का नंगा खेल हुआ है। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी तो दूसरी तरफ शासन करने वाली समाजवादी पार्टी ने फायदा उठाने की कोशिश की है। एक समय ऐसा लगने लगा था कि दंगे कराकर मतों के धु्रवीकरण की राजनीति के दिन लद गए। किंतु मुजफ्फरनगर की हाल की साम्प्रदायिक हिंसा 2002 में हुई गुजरात की हिंसा, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद हिंसा व विभाजन की याद ताजा कर गए। इन्हें दंगा कहना उनके एक तरफा स्वरूप को छुपाने का काम करता है।"
डॉ संदीप पाण्डेय जो सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) और जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से भी सम्बद्ध हैं, ने कहा कि "चाहे कवाल में शहनवाज ने लड़की छेड़ी, जैसा जाटों का आरोप है, या वह मोटरसाइकिल और साइकिल की टक्कर का मामला था, जैसा शहनवाज के वालिद दावा करते हैं, शहनवाज, सचिन व गौरव की हत्यायें यदि इतनी बड़ी हिंसा का रूप ले लीं तो इसमें प्रशासनिक असफलता और राजनीतिक दखलंदाजी मुख्य कारण रहा। 27 अगस्त, 2013, की उपर्युक्त मामूली अपराध की घटनाओं पर उचित कार्यवाही क्यों न हुई? जिलाधिकारी ने 30 व 31 अगस्त को धारा 144 लगे होने के बावजूद क्रमशः पहले मुसलमानों की फिर जाटों की बड़ी सभाएं क्यों होने दीं? मुसलमानों की सभा में तो वे ज्ञापन लेने भी पहुंच गए। फिर नंगला मंदोड़ में 7 सितम्बर का महापंचायत क्यों होने दी गई और उसमें भाजपा नेताओं को क्यों जाने दिया गया? 7 सितम्बर व 8 सितम्बर को जब हिंसा हो रही थी तो पुलिस ने प्रभावी हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? यदि हम चाहते हैं कि मुजफ्फरनगर की पुनरावृत्ति न हो तो दोषी अधिकारियों व नेताओं पर गाज गिरनी ही चाहिए। किंतु यह देखते हुए कि सपा सरकार ने अपने इसी शासनकाल में पहले हुए दंगों जैसे फैजाबाद, प्रतापगढ़, बरेली, मथुरा, आदि, में अभी तक कोई कार्यवाही नहीं की है इस बात की उम्मीद कम ही दिखाई पड़ती है।"
जिस तरफ से जाटों ने मुसलमानों का विश्वास तोड़ा है अब मुसलमान अपने गांव वापस जाने को तैयार नहीं। सबसे बड़ा सवाल यह पैदा हो गया है कि इस इलाके के जाटों और मुसलमानों में जो अविश्वास पैदा हुआ है उसे कैसे दूर किया जाये? इसी तरह जो मुसलमान गांव छोड़कर बाहर भागे हैं, उनके वापस घर लौटाने का माहौल कैसे बनाया जाये।
डॉ संदीप पाण्डेय ने बताया कि "हमारी मांगे हैं कि जिन अधिकारियों और नेताओं की लापरवाही की वजह से स्थिति बिगड़ी और इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हुई उनकी जवाबदेही तय की जाये। प्रदेश सरकार राहत शिविरों में शरण पाये विस्थापित लोगों को यह ठोस विश्वास दिलाये कि वें अपने गाँव वापस जाएँ और यदि वे वापस नहीं जाना चाहते तो उनके पुनर्वास की ज़िम्मेदारी ले।"
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस - सीएनएस
अक्टूबर 2013