यदि सरकारें विकास को पूर्ण कार्यसाधकता के साथ न करें तो अक्सर परिणाम अपेक्षा से विपरीत रहते हैं। “कार्यसाधकता एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि पूर्व में विकास कार्य पूरी ईमानदारी और निष्ठा से नहीं हुए हैं” कहना है जस्टिन किलकुल्लेन का जो सीपीडीई (सीएसओ पार्टनरशिप फ़ॉर डिवेलप्मेंट इफ़ेक्टिवनेस) के सह-अध्यक्ष हैं।
जस्टिन कहते हैं कि 1960-1990 के दौरान जो अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान के ज़रिए विकास काम हुआ वह काफ़ी बेअसर रहा। कार्यसाधकता की कमी के कारण ही 'मिलेनीयम डिवेलप्मेंट गोल (एम.डी.जी.)' के लक्ष्य सरकारों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में पारित किए जिससे कि 2015 तक विकास कार्य निश्चित दिशा में प्रभावकारी रहे, एवं मूल्याँकन का ढाँचा भी उपयोग में रहे। परंतु 2005 तक अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान के प्राप्तकर्ता देश यह समस्या साझा कर रहे थे कि विभिन्न विकास संस्थाओं के इतने अधिक दौरे हो रहे थे कि असल कार्य बाधित हो रहा था। उदाहरण के तौर पर तानज़ानिया देश में विभिन्न विकास संस्थाओं के एक साल में 3000 से अधिक दौरे हुए।
इसके कारण अनुदान प्राप्तकर्ता देश इन दौरों और दाता की औपचारिकताओं पर अधिक समय लगा रहे थे, एवं असल ज़मीनी विकास कार्य जिससे कि विकास कार्यसाधकता से उनकी जनता लाभान्वित हो, दरकिनार हो रहा था। इसीलिए अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान से जो काम हो रहा था उसकी कार्यसाधकता और ज़मीनी प्रभाव, महत्व के विषय बनते गए।
संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक मुद्दों के विभाग के अध्यक्ष नाविद हनीफ़ ने सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) से कहा कि, न सिर्फ, अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान का प्रभावकारी ढंग से इस्तेमाल नहीं हो रहा था बल्कि, सतत विकास के किए ज़रूरी आर्थिक निवेश की तुलना में अनुदान काफ़ी कम था। हाल ही में जारी रिपोर्ट के अनुसार सतत विकास लक्ष्य पर पिछले 4 सालों में काम निराशाजनक रहा है। न सिर्फ़ विभिन्न 17 सतत विकास लक्ष्य पर काम अधकचरा एवं असंतोषजनक रहा है बल्कि जो सतत विकास के लिए ज़रूरी आर्थिक निवेश है, उसकी तुलना में अत्यंत कम धनराशि अभी तक इन कार्यों में व्यय हुई है।
महात्मा गांधी ने तिलिस्म मंत्र दिया था कि जब कभी यह संशय हो कि निर्णय जन-हितैषी और सही है कि नहीं, तो सबसे ग़रीब एवं वंचित व्यक्ति को केंद्र में रख कर ईमानदारी से विवेचना करें कि क्या आपका निर्णय उस व्यक्ति के लिए लाभकारी रहेगा?
नाविद हनीफ़ ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह सबसे कम विकसित देश के लिए हितकारी हो। हक़ीक़त इसके विपरीत है क्योंकि सबसे कम विकसित देशों की चुनौतियाँ विकराल रूप से बढ़ती जा रही हैं एवं जो साधन-संसाधन उनकी मदद के लिए उपलब्ध हो रहे हैं, वह घट रहे हैं।
नाविद हनीफ़ ने कहा कि सबसे कम विकसित देशों के लिए अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान का बड़ा महत्व है परंतु यह सहयोग सिकुड़ता जा रहा है। नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान में गिरावट उस समय आ रही है जब आर्थिक अस्थिरता और राजनीतिक तनाव गहरा रहे हैं. इस परिप्रेक्ष्य में अंतरराष्ट्रीय समुदाय अपने वादे से मुकर नहीं सकता है। यदि बहुपक्षीय, सामूहिक दायित्व, आपसी साझेदारी और सहयोग, और सतत विकास ‘जिसमें कोई भी न छूट जाए’ में हम विश्वास रखते हैं तो यह ज़रूरी है कि अपने वादे-दायित्व को सम्मान दें।
सतत विकास के लिए आवश्यक है कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकारों को जनता जवाबदेह ठहराए कि हर सतत विकास लक्ष्य के अनुरूप प्रगति है कि नहीं, विशेषकर कि, यह सुनिश्चित करे कि कोई समुदाय विशेष इस प्रगति मॉडल में छूट न रहा हो। जवाबदेही सिर्फ़ सरकारों की नहीं परंतु सतत विकास के सपने को पूरा करने में ज़रूरी हर वर्ग की होनी चाहिये, इसमें निजी वर्ग और जन संगठन भी शामिल हैं. हालाँकि, लोकतान्त्रिक ढाँचे में, जनता के वोट से चुनी हुई सरकारों का दायित्व सर्वोपरि है.
सीपीडीई ने मई 2018 से जून 2019 के दरमियान एक शोध किया, जिसमें जिन 17 देशों ने स्वेच्छा से सतत विकास की मूल्यांकन रिपोर्ट दर्ज की है (वोलुन्ट्री नेशनल रिपोर्ट), वहीँ के 22 जन संगठन शामिल थे. इस शोध से यह तो स्पष्ट है कि हाल में जन संगठनों ने, अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान में कार्यसाधकता तो बढ़ाई है, परन्तु इसका कितना असर राष्ट्रीय नीतियों पर पड़ा यह अस्पष्ट है.
इस शोध में, 73% प्रतिभागियों ने कहा कि उनकी सरकारों ने सतत विकास लक्ष्य को मद्देनज़र रखते हुए, नीतियाँ तो बनायीं हैं परन्तु देश में एक-एजेंसी विशेष को सतत विकास लक्ष्य लागू करने का दायित्व दे दिया गया है. इस शोध में यह भी उजागार हुआ कि राष्ट्रीय प्रक्रिया में जन संगठन से सलाह-मशवरा तो हुआ परन्तु वह अपर्याप्त रहा, यदि यह देखें कि जनता के सरकारी नीतियों में कितने सुझाव शामिल किये गए. सिर्फ 23% प्रतिभागियों ने कहा कि जन संगठन के सुझाव शामिल हुए. 64% शोध-प्रतिभागियों ने कहा कि सतत विकास लक्ष्य के लिए वर्त्तमान में रिपोर्टिंग प्रक्रिया तो है परन्तु कुछ ने कहा कि यह हाल ही में शुरू हुई है.
सीपीडीई के सह-अध्यक्ष जस्टिन किलकुल्लेन ने कहा कि उनका संगठन, सतत विकास लक्ष्य को पूरा करने के लिए पूर्ण रूप से समर्पित है. इस शोध के जरिये वह यह दर्शा रहे हैं कि कैसे सतत विकास की ओर, कैसे, हर वर्ग अपनी सहभागिता समर्पित कर सकता है, जिससे कि, सभी की (विशेषकर कि सरकार की) भूमिका और योगदान में सुधार हो.
बॉबी रमाकांत - सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
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जस्टिन कहते हैं कि 1960-1990 के दौरान जो अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान के ज़रिए विकास काम हुआ वह काफ़ी बेअसर रहा। कार्यसाधकता की कमी के कारण ही 'मिलेनीयम डिवेलप्मेंट गोल (एम.डी.जी.)' के लक्ष्य सरकारों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में पारित किए जिससे कि 2015 तक विकास कार्य निश्चित दिशा में प्रभावकारी रहे, एवं मूल्याँकन का ढाँचा भी उपयोग में रहे। परंतु 2005 तक अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान के प्राप्तकर्ता देश यह समस्या साझा कर रहे थे कि विभिन्न विकास संस्थाओं के इतने अधिक दौरे हो रहे थे कि असल कार्य बाधित हो रहा था। उदाहरण के तौर पर तानज़ानिया देश में विभिन्न विकास संस्थाओं के एक साल में 3000 से अधिक दौरे हुए।
इसके कारण अनुदान प्राप्तकर्ता देश इन दौरों और दाता की औपचारिकताओं पर अधिक समय लगा रहे थे, एवं असल ज़मीनी विकास कार्य जिससे कि विकास कार्यसाधकता से उनकी जनता लाभान्वित हो, दरकिनार हो रहा था। इसीलिए अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान से जो काम हो रहा था उसकी कार्यसाधकता और ज़मीनी प्रभाव, महत्व के विषय बनते गए।
संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक मुद्दों के विभाग के अध्यक्ष नाविद हनीफ़ ने सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) से कहा कि, न सिर्फ, अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान का प्रभावकारी ढंग से इस्तेमाल नहीं हो रहा था बल्कि, सतत विकास के किए ज़रूरी आर्थिक निवेश की तुलना में अनुदान काफ़ी कम था। हाल ही में जारी रिपोर्ट के अनुसार सतत विकास लक्ष्य पर पिछले 4 सालों में काम निराशाजनक रहा है। न सिर्फ़ विभिन्न 17 सतत विकास लक्ष्य पर काम अधकचरा एवं असंतोषजनक रहा है बल्कि जो सतत विकास के लिए ज़रूरी आर्थिक निवेश है, उसकी तुलना में अत्यंत कम धनराशि अभी तक इन कार्यों में व्यय हुई है।
महात्मा गांधी ने तिलिस्म मंत्र दिया था कि जब कभी यह संशय हो कि निर्णय जन-हितैषी और सही है कि नहीं, तो सबसे ग़रीब एवं वंचित व्यक्ति को केंद्र में रख कर ईमानदारी से विवेचना करें कि क्या आपका निर्णय उस व्यक्ति के लिए लाभकारी रहेगा?
नाविद हनीफ़ ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह सबसे कम विकसित देश के लिए हितकारी हो। हक़ीक़त इसके विपरीत है क्योंकि सबसे कम विकसित देशों की चुनौतियाँ विकराल रूप से बढ़ती जा रही हैं एवं जो साधन-संसाधन उनकी मदद के लिए उपलब्ध हो रहे हैं, वह घट रहे हैं।
नाविद हनीफ़ ने कहा कि सबसे कम विकसित देशों के लिए अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान का बड़ा महत्व है परंतु यह सहयोग सिकुड़ता जा रहा है। नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान में गिरावट उस समय आ रही है जब आर्थिक अस्थिरता और राजनीतिक तनाव गहरा रहे हैं. इस परिप्रेक्ष्य में अंतरराष्ट्रीय समुदाय अपने वादे से मुकर नहीं सकता है। यदि बहुपक्षीय, सामूहिक दायित्व, आपसी साझेदारी और सहयोग, और सतत विकास ‘जिसमें कोई भी न छूट जाए’ में हम विश्वास रखते हैं तो यह ज़रूरी है कि अपने वादे-दायित्व को सम्मान दें।
सतत विकास के लिए आवश्यक है कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकारों को जनता जवाबदेह ठहराए कि हर सतत विकास लक्ष्य के अनुरूप प्रगति है कि नहीं, विशेषकर कि, यह सुनिश्चित करे कि कोई समुदाय विशेष इस प्रगति मॉडल में छूट न रहा हो। जवाबदेही सिर्फ़ सरकारों की नहीं परंतु सतत विकास के सपने को पूरा करने में ज़रूरी हर वर्ग की होनी चाहिये, इसमें निजी वर्ग और जन संगठन भी शामिल हैं. हालाँकि, लोकतान्त्रिक ढाँचे में, जनता के वोट से चुनी हुई सरकारों का दायित्व सर्वोपरि है.
सीपीडीई ने मई 2018 से जून 2019 के दरमियान एक शोध किया, जिसमें जिन 17 देशों ने स्वेच्छा से सतत विकास की मूल्यांकन रिपोर्ट दर्ज की है (वोलुन्ट्री नेशनल रिपोर्ट), वहीँ के 22 जन संगठन शामिल थे. इस शोध से यह तो स्पष्ट है कि हाल में जन संगठनों ने, अंतरराष्ट्रीय विकास अनुदान में कार्यसाधकता तो बढ़ाई है, परन्तु इसका कितना असर राष्ट्रीय नीतियों पर पड़ा यह अस्पष्ट है.
इस शोध में, 73% प्रतिभागियों ने कहा कि उनकी सरकारों ने सतत विकास लक्ष्य को मद्देनज़र रखते हुए, नीतियाँ तो बनायीं हैं परन्तु देश में एक-एजेंसी विशेष को सतत विकास लक्ष्य लागू करने का दायित्व दे दिया गया है. इस शोध में यह भी उजागार हुआ कि राष्ट्रीय प्रक्रिया में जन संगठन से सलाह-मशवरा तो हुआ परन्तु वह अपर्याप्त रहा, यदि यह देखें कि जनता के सरकारी नीतियों में कितने सुझाव शामिल किये गए. सिर्फ 23% प्रतिभागियों ने कहा कि जन संगठन के सुझाव शामिल हुए. 64% शोध-प्रतिभागियों ने कहा कि सतत विकास लक्ष्य के लिए वर्त्तमान में रिपोर्टिंग प्रक्रिया तो है परन्तु कुछ ने कहा कि यह हाल ही में शुरू हुई है.
सीपीडीई के सह-अध्यक्ष जस्टिन किलकुल्लेन ने कहा कि उनका संगठन, सतत विकास लक्ष्य को पूरा करने के लिए पूर्ण रूप से समर्पित है. इस शोध के जरिये वह यह दर्शा रहे हैं कि कैसे सतत विकास की ओर, कैसे, हर वर्ग अपनी सहभागिता समर्पित कर सकता है, जिससे कि, सभी की (विशेषकर कि सरकार की) भूमिका और योगदान में सुधार हो.
बॉबी रमाकांत - सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
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