टीबी रोग का निदान मुमकिन है, लेकिन बच्चों में समय रहते इसकी पहचान समाज में आज भी एक गंभीर समस्या के रूप में विद्यमान है जिसका अंदाजा इसी से होता है कि 14 वर्षीय एक टीबी रोगी बच्चे के अभिभावकों के अनुसार “बच्चे को एक साल पहले से खांसी आ रही थी, और गैर सरकारी चिकित्सक का इलाज चल रहा था। पाँच महीने पहले सरकारी अस्पताल में दिखाया और एक्स रे कराया, बलगम जांच कराई गई तब पता चला कि टीबी है और वहीं इलाज शुरू किया गया”
पिछले वर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा प्रकाशित “ग्लोबल टीबी कंट्रोल रिपोर्ट 2011” के अनुसार इस साल 90 लाख टीबी रोगी मे से 10% से 15% टीबी रोगी 14 वर्ष व उससे कम वर्ष के बच्चे हैं जिनको इलाज की ज़रूरत होगी। यह आंकड़ा दिन प्रति दिन बढ़ता रहेगा यदि हम बच्चो में टीबी संक्रमण को रोकने में विफल रहे। चूंकि बच्चो में टीबी संक्रमण का एक प्रमुख कारण बड़ों की टीबी है, अतः बच्चों में टीबी संक्रमण को रोकने के लिए परिवार के सदस्यों व अभिभावकों की टीबी के बारे में साक्षरता बहुत ज़रूरी है। 6 वर्षीय एक टीबी रोगी की माता का कहना कि “बच्चे के पिता जी को भी टीबी हो चुकी थी जिसका इलाज डाट्स केन्द्र पर 6 महीने तक चला था, लेकिन डाट्स केन्द्र पर परिवार के अन्य सदस्यों का टीबी परीक्षण कराने सम्बन्धी कोई भी जानकारी नहीं दी गई और हम लोगों को टीबी के बारे में कुछ भी नहीं मालूम”।
स्पष्ट है कि जन साधारण में अभी भी टीबी के साक्षरता की कमी है, तथा सरकार को लोगों में टीबी की साक्षरता को बढ़ाने हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रमों में सुधार लाने की आवश्यकता है, साथ ही बच्चों को टीबी रोग के संक्रमण से बचाने के लिए नई रोकथाम विधि जैसे इसोनाइज्ड प्रिवेन्टिव थेरिपी (आई॰पी॰टी) को अपनाना चाहिए।
इन्टर्नैशनल यूनियन अगेन्स्ट ट्युबरक्लोसिस एंड लंग डिज़ीज़ (द यूनियन) के अनुसार वयस्क टीबी रोगी के परिवार और उनके संपर्क में रह रहे सभी 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों का परीक्षण करना चाहिए। यदि बच्चे स्वस्थ हैं, तो उन्हें इसोनाइज्ड प्रिवेन्टिव थेरिपी देनी चाहिए ताकि उन्हें सक्रिय टीबी न हो सके। यदि बच्चे स्वस्थ नहीं हैं, तो उनका चिकित्सीय परीक्षण कराने के बाद टीबी उपचार करना चाहिए।
राम मनोहर लोहिया सरकारी अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ अभिषेक वर्मा का कहना है कि “प्रायः बच्चों में प्राइमरी टीबी होती है तो उसमें लक्षण बहुत कम मिलते हैं। यदि बच्चा कमजोर हो, भूख न लगती हो, वजन न बढ़ रहा हो, एकान्त बैठा रहता हो व अन्य बच्चों के साथ खेलता-घूमता न हो तो ऐसे बच्चों की जाँच करनी चाहिए क्योंकि इन बच्चों में प्राइमरी टीबी की सम्भावना अधिक रहती है। जाँच में अगर फेफड़े में हाइलर शैडो दिखती है तो कई डॉक्टर उसे प्राइमरी टीबी मान लेते हैं, लेकिन ऐसा करना गलत है, 99% मामलों में हाइलर शैडो टीबी से भिन्न प्रकट होते हैं और अगर हाइलर लिम्फ़नोड बड़े हों तो भी ज़रूरी नहीं है कि बच्चे में टीबी हो। जब तक बच्चे में कमजोरी, पैरालाइटिस, और वजन न बढ़ने के लक्षण न हो तब तक प्राइमरी काम्पलेक्स में टीबी की दवा नही देनी चाहिये।
यूनियन के ट्रीट टीबी इनिशिएटिव में कार्यरत बाल टीबी विशेषज्ञा डॉ डेटजेन का कहना है कि “टीबी रोगी के परिवार के सभी सदस्यों का परीक्षण और निवारक चिकित्सा बच्चों में टीबी के रोग को रोकने के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपाय है। टीबी मरीजों के निकट संपर्क में आने वाले बच्चों में संक्रमित होने का और टीबी रोग विकसित होने का सबसे ज्यादा खतरा होता है। उचित चिकित्सा के अभाव में अक्सर गंभीर टीबी रोग विकसित हो जाता है। ऐसे बच्चों को खोज न पाना और उपचार न कर पाना अवसर खोने जैसा है। वयस्कों में समय रहते टीबी रोग की पहचान करना और संक्रमण को रोकना, बच्चों में टीबी रोकथाम के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है”.
अतः बच्चों को टीबी रोग से बचाने हेतु भारत सरकार को अपने राष्ट्रीय कार्यक्रमों में सुधार लाने और लोगों को जागरूक करने के साथ-साथ बी.सी.जी टीके के अतिरिक्त अन्य आधुनिक निवारक चिकित्सा प्रणाली, जैसे इसोनाइज्ड प्रिवेन्टिव थेरिपी को भी अपनाना होगा। तभी हम पूर्ण रूप से बच्चों में टीबी के संक्रमण को रोक पाने में सफल होंगे।
राहुल द्विवेदी
(लेखक ऑनलाइन पोर्टल www.citizen-news.org के लिए लिखता है )
राहुल द्विवेदी
(लेखक ऑनलाइन पोर्टल www.citizen-news.org के लिए लिखता है )