२०१० : फेफड़े का वर्ष

२०१० : फेफड़े का वर्ष


फोरम फॉर इंटरनेशनल रेस्पिरेटारी सोसाईटी (ऍफ़.आई.आर.एस.) ने, हाल ही में, कैनकन ,मेक्सिको में संपन्न हुए ४० वें यूनियन वर्ल्ड कॉन्फरेंस ऑन लंग हेल्थमें वर्ष २०१० कोईयर ऑफ लंगघोषित किया हैविश्व भर के लाखों लोग अनेक प्रकार के श्वास संबंधी जटिल रोगों से ग्रस्त हैं, जिनका उपचार संभव है तथा जिनकी रोकथाम करी जा सकती है


यूनियन
की यह पहल इस बात का द्योतक है कि, मानव शरीर का एक अत्यावश्यक अंग होने के बावजूद, फेफड़े के स्वास्थ्य को गंभीरता से नहीं लिया जाता हैअत: ऍफ़.आई.आर,एस. के अध्यक्ष, डा. नील्स बिल्लो का कहना है कि फेफड़े के स्वास्थ्य से जुड़े हुए विभिन्न समर्थक एवम् भागीदारों का एकजुट होना आवश्यक हैइस क्षेत्र में, ऍफ़.आई.आर.एस. की कुछ प्रमुख सहयोगी संस्थाएं हैं: इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट टुबर्कुलोसिस ( यूनियन); अमेरिकन थोरैकिक सोसायटी (.टी.एस.); एशियन पेसिफिक सोसायटी ऑफ रेस्पिरोलोजी (.पी.एस.आर.); योरोपियन रेस्पिरेटरी सोसायटी (.आर.एस.); पैन अफ्रीकन थोरैकिक सोसायटी; एवम् अमेरिकन कॉलेज ऑफ चेस्ट फिजिशियंस (ए.सी.सी.पी.)।

हाल ही में, 'न्यूयार्क टाइम्स' समाचार पत्र में मनुष्य शरीर के विभिन्न अंगों के बारे में एक लेख-माला छपी थी, पर उसमें फेफड़ों का कोई ज़िक्र थाशायद हम यह भूल जाते हैं कि इस अंग के बगैर हम एक क्षण के लिए भी जीवित नहीं रह सकते हैं

ऍफ़.आई.आर.एस. के सहयोगी भागीदारों द्वारा निम्न लिखित घोषणा पत्र हस्ताकक्षारित किया गया है:

हम सभी के लिए,यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि विश्व भर में करोड़ों व्यक्ति टी.बी., अस्थमा, निमोनिया, लंग कैंसर, एच.1.एन.1, एवम् श्वास संबंधी अन्य जटिल बीमारियों से पीड़ित हैं, जबकि इन सभी रोगों का उपचार एवम् रोकथाम संभव है हम यह मानते हैं कि फेफड़े के रोग के कारण, बड़े पैमाने पर हो रही मौतों के बावजूद, जन स्वास्थ्य संबंधी निर्णय लेते समय, फेफड़े के स्वास्थ्य की उपेक्षा ही की जाती रही है हम अपने सहयोगियों से अपील करते हैं कि वे धूम्रपान उन्मूलन क़ानून लागू करके, तम्बाकू जनित फेफड़े के रोगों की रोकथाम करने में, हमारी सहायता करें


स्वास्थ्य एवम् पर्यावरण संबंधी अनेक कारक हमारे फेफड़ों को प्रभावित करते हैं, जैसे टी.बी., तम्बाकू का धुँआ, जैव ईंधन का धुँआ, दमा, निमोनिया, श्वास संबंधी जटिल रोग, इत्यादिजन मानस के स्वास्थ्य पर इन सभी का बहुत बुरा असर पड़ता हैये सभी रोग, प्राय: गरीब देशों में ही होते हैं, तथा धन ओर संसाधनों के अभाव में ये तेज़ी से पनपते हैंअत: इनकी रोकथाम के लिए , स्वास्थ्य कार्यक्रमों के प्रत्येक स्तर पर एक समायोजित प्रयास की आवश्यकता है


आंकड़ों
के अनुसार, प्रत्येक १८ सेकण्ड में एक तपेदिक संबधी मृत्यु होती है; हर १६ सेकण्ड में एक एच.आई.वी. मौत होती है; प्रत्येक १५ सेकण्ड में एक बच्चा निमोनिया का शिकार होता है; तथा हर १३ सेकण्ड में एक व्यक्ति धूम्रपान जनित व्याधियों के कारण मृत्यु को प्राप्त होता हैतम्बाकू जनित रोग, एच.आई.वी.,तपेदिक और क्रोनिक ओब्स्त्रक्टिव पल्मनरी डिसीज़ की मिली जुली महामारी, हम सभी के लिए वास्तव में एक जबरदस्त चुनौती है

विश्व की एक तिहाई जनता, यानी खरब व्यक्ति, माइको बैक्टीरियम तपेदिक से पीड़ित हैएड्स और मलेरिया के समान, तपेदिक का गरीबी से नजदीकी रिश्ता हैपिछले वर्ष, इस रोग के कारण विश्व भर में १८ लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ाफेफड़े के जटिल रोगों का सबसे प्रमुख कारण है तम्बाकू सेवन ओर धूम्रपान, जिनके कारण प्रति वर्ष, विश्व में ५० लाख मौतें होती हैंसिगरेट पीने से, टी.बी. का खतरा दोगुना हो जाता हैतम्बाकू पीने वालों में तपेदिक से मरने की आशंका दोगुनी हो जाती हैतपेदिक के ३०% पुरुष रोगी तम्बाकू पीने के कारण ही मरते हैंतम्बाकू का धुँआ, निमोनिया, मेनिन्जाईटिस और जुकाम-बुखार का खतरा भी बाधक होता हैऔर यदि तम्बाकू प्रेमी शराब भी पीने लगे तो टी.बी. का जोखिम और भी बढ़ जाता है

डाक्टर डोनाल्ड इनार्सन का मानना है कि तम्बाकू नियंत्रण उपायों द्वारा ही जन स्वास्थ्य में सुधार लाया जा सकता हैउनका इशारा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी की गयी एमपावर रिपोर्ट की तरफ था, जिसमें तम्बाकू नियंत्रण के प्रमुख उपायों पर प्रकाश डाला गया हैकिसी भी जन स्वास्थ्य कार्यक्रम की सफलता के लिए तम्बाकू उन्मूलन अत्यंत आवश्यक है


दमे
का रोग भी फेफड़ों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैइस रोग में वायु/श्वास नाली में सूजन जाती है, जिसके कारण वो संकुचित हो जाती हैं, तथा फेफड़ों को कम हवा मिल पाती हैअत: रोगी को खांसी, छाती में तनाव, तथा सांस लेने में कठिनाई होने लगती हैजब दमे का प्रकोप बढ़ जाता है, तो फेफड़ों को समुचित ऑक्सीजन नहीं मिल पाने के कारण, रोगी की मृत्यु भी हो सकती है


विश्व भर में लगभग ३० करोड़ व्यक्ति दमे के रोग से पीड़ित हैं, जिसका भार उनको, उनके परिवार को तथा समाज को उठाना पड़ता है। ‘ ग्लोबल बर्डन ऑफ अस्थमा रिपोर्टके अनुसार, इस रोग के नियंत्रण हेतु उचित कदम नहीं उठाये जा रहे हैं, तथा इसकी रोकथाम में अनेक बाधाएं हैंइस रोग का दीर्घ कालिक प्रबंधन करके, रोगी इस पर उचित नियंत्रण रख कर एक सामान्य जीवन व्यतीत कर सकते हैंपरन्तु, अधिकांशत: ऐसा हो पाने के कारण रोगियों की सामान्य दिनचर्या भी अव्यवस्थित हो रही हैकुछ क्षेत्रों में, अस्थमा से पीड़ित बच्चों में से बच्चा, इस रोग के कारण, स्कूल जाने में असमर्थ हैअनियंत्रित अस्थमा का दु:खद अंत मृत्यु ही है


'ग्लोबल बर्डन ऑफ अस्थमा रिपोर्ट; के अनुसार, इस रोग के कारण होने वाली अधिकाँश मौतों को रोका जा सकताहैआवश्यकता है तो केवल उचित निदान एवम् उपचार कीइस रोग के बारे में समुचित जानकारी प्राप्त करके, रोगी इस व्याधि पर नियंत्रण रखते हुए एक सामान्य जीवन व्यतीत कर सकते हैं

निमोनिया से ग्रसित, वर्ष से कम आयु के, २० लाख बच्चे, प्रति वर्ष असमय ही मृत्यु का शिकार होते हैं, जबकि इस रोग का सस्ता और कारगर इलाज आसानी से उपलब्ध हैआवश्यकता है, उस इलाज को समय रहते उपलब्ध कराने की

इन सबके अलावा, ऐसे अनेकों कारण हैं जो फेफड़ों को क्षतिग्रस्त करते हैं और जिनकी रोकथाम एवम् इलाज संभव है

आशा है कि २०१० कोफेफड़े का वर्षघोषित करने से, मानव शरीर के इस अत्यावश्यक, परन्तु उपेक्षित, अंग की उचित देखभाल पर हम सभी का ध्यान केन्द्रित होगा, ताकि इससे सम्बंधित रोगों का उचित नियंत्रण एवम् निराकरण करके अनेक व्यक्तियों को असामयिक मृत्यु से बचाया जा सके



बॉबी रमाकांत



स्कूली बच्चे बन रहें हैै मानसिक रोगी

स्कूली बच्चे बन रहें हैै मानसिक रोगी

मानसिक रोगी बच्चों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है फिर भी अस्पतालों, प्राथमिक स्वास्थ्य कन्द्रों और क्लीनिकों में उनके देखरेख की समुचित व्यवस्था नहीं है। एक तरफ डाक्टरों की कमी है तो दूसरी तरफ अभिभावक व अध्यापकों का बच्चों पर तरह-तरह का दबाव बढ़ता जा रहा है।


यूनीसेफ और मीडिया नेस्ट के संयुक्त तत्वावधान में प्रेस क्लब में आज ‘‘चिल्ड्रिन आवर’’ के एक कार्यक्रम में मानसिक स्वास्थ्य पर बोलते हुए डाक्टर मंजू अग्रवाल ने कहा कि आज तीस प्रतिशत स्कूली बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के केयर की जरुरत है लेकिन बड़े दुख की बात है कि इसके लिए कोई कौंसिलिंग सेन्टर तक नहीं है जिसके कारण इस रोग के मरीजों की संख्या बढ़ रही है। आज अभिभावकों व अध्यापकों के दबाव, पढ़ाई का बोझ, अधिक से अधिक अंक लाने की होड और आलोचना के कारण बीस प्रतिशत स्कूली बच्चों के मन में एक हफ्ते में दो बार आत्महत्या करने का ख्याल आता है। उन्होंने कहा कि अभिभावकों व अध्यापकों का बच्चों पर दबाव लगातार बढ़ रहा है जिसका प्रभाव उनके मस्तिष्क पर पड़ता है और वे डिप्रेशन, आत्महत्या, मानसिक असंतुलन और पागलपन जैसे रोगों के शिकार हो जाते है।


इस अवसर पर डाक्टर आलोक बाजपेई ने कहा कि बच्चों की सफलता का अस्सी प्रतिशत उनके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है और केवल बीस प्रतिशत अभिभावक और अध्यापकगण अपना योगदान देकर उनको आगे बढ़ते है। मानसिक स्वास्थ्य आज एक गम्भीर समस्या बन गयी है। यह एक व्याहारिक समस्या भी है। हम सब अभिभावकों व अध्यापकों को मिलकर इससे निपटना है। इससे निपटने का एक ही रास्ता है कि वर्तमान जनरेशन को सुधारा जाएं। हर अभिभावक अपने बच्चें को और हर अध्यापक अपने छात्रों को जाने पहचाने और उनको समझें। बच्चों को 6-7 साल की उम्र से ही फैसले लेने दीजिए और उनको आत्म निर्भर होने दीजिए लेकिन उनके कार्यो पर पैनी निगाह अवश्य रखिए ताकि वे कोई गलत निर्णय न ले सके। अभिभावक व अध्यापक बच्चों में एैसी सोच, भावना और काबलियत पैदा करे कि वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करे अपने व्यक्तित्व को शीर्ष पर पहुंचा सकें। और साथ ही साथ दूसरे के बारे में भी सोचें और उनकी भी सहायता करें।


‘‘उत्तर प्रदेश को स्वस्थ्य और खुशाल बनाना है’’ यह विचार है बच्चों के लिए समर्पित यूनिसेफ के बाल विशेषज्ञ अगस्टीन वेलियथ के। आज ‘‘यूनिसेफ डे’’ के अवसर पर उन्होंने कहा कि माता-पिता अपने बच्चों को पैसा, शिक्षा, अनुशासन और अच्छे से अच्छे भोजन की व्यवस्था कर देते है लेकिन उनको प्यार, लगाव और अपनापन नहीं देते है जिससे वे मानसिक अस्वस्थ हो जाते है। आज जरुरत है मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोंगो को जागरुक करने की। मीडिया नेस्ट की महामंत्री कुलसुम तल्हा ने कार्यक्रम का संचालन किया।

भारत सरकार एवं गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा प्रतिपादित तपेदिक निधिकरण प्रस्ताव को ग्लोबल फंड की स्वीकृति

भारत सरकार एवं गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा प्रतिपादित तपेदिक निधिकरण प्रस्ताव को ग्लोबल फंड की स्वीकृति


भारतीय तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम के इतिहास में एक निर्धारक निर्णय



'बोर्ड ऑफ ग्लोबल फंड फॉर एड्स, टुबर्कुलोसिस एंड मलेरिया' (जी.ऍफ़.ई.टी.एम.) ने भारत में तपेदिक नियंत्रण हेतु प्रस्तावित कार्यक्रम के लिए पूंजी अनुदान स्वीकृत कर दिया है, जो अब तक दिये गए अनुदानों से अधिक है। तपेदिक नियंत्रण की दिशा में यह एक अभूतपूर्व निर्णय है, विशेष कर भारत के सम्बन्ध में, जहाँ विश्व के सबसे अधिक तपेदिक पीड़ित व्यक्ति रहते हैं, तथा ‘बहु औषधि प्रतिरोधी’ (मल्टी ड्रग रेसिस्टेंट अर्थात ‘एम.डी.आर. टी. बी. ) के रोगी भी सबसे अधिक हैं।


भारत सरकार एवं गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा निवेदित प्रस्ताव के तीन मुख्य प्राप्त कर्ता हैं : केन्द्र सरकार का तपेदिक प्रभाग, इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट टुबर्कुलोसिस & लंग डिसीस (यूनियन) एवं वर्ल्ड विज़न इंडिया। ये तीनों ही इस पञ्च वर्षीय योजना के कार्यान्वयन के लिए उत्तरदायी होंगें।


यूनियन के एक्सेक्युटिव डायरेक्टर डा.नील्स .ई. बिलो ने कहा, “हम इस प्रस्ताव की सफलता पर बहुत प्रसन्न हैं। विशेषकर गैर सरकारी संगठनों की बढ़ती हुयी सहभागिता, इस नयी अभिज्ञता की परिचायक है कि टी.बी. जैसी बीमारियों की रोकथाम के लिए, केवल सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था काफी नहीं है। इसके लिए एक अधिक व्यापक सामाजिक प्रतिबद्धता आवश्यक है।”


इस योजना का प्रथम घटक इस बात पर केंद्रित होगा कि एम.डी.आर टी.बी. का निदान एवं उपचार सभी के लिए उपलब्ध हो। सन २०१५ तक, देश भर में ४३ निर्दिष्ट प्रयोग शालाओं में, एम.डी.आर- टी.बी. के त्वरित निदान के लिए उच्च कोटि की सुविधाएं प्राप्य होंगी। इसके अलावा, देश भर के प्रान्तों में इस रोग के प्रबंधन और देखभाल को उत्तमतर बनाने के भी प्रयास किए जायेंगें, ताकि २०१५ तक ५५,३५० अतिरिक्त रोगियों का उपचार सम्भव हो सके।


योजना का दूसरा घटक, तपेदिक की रोकथाम/देखभाल कार्यक्रमों में गैर सरकारी संस्थाओं की भागीदारी को मज़बूत करेगा। तभी भारत के ‘पुनरीक्षित राष्ट्रीय तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम’ (आर.एन.सी.टी.पी.) के विस्तार,प्रत्यक्षता एवं प्रभाविता को बेहतर बना कर, देश के २३ राज्यों के ३७४ जिलों में रहने वाले ७४.४० करोड़ लोगों तक पहुंचाया जा सकेगा।


भारत ने टी.बी. के ‘डॉट्स ’ (वैश्विक मान्यता प्राप्त टी.बी. नियंत्रण रणनीति) कार्यक्रम को सर्व सुलभ बनाने की दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया है। परन्तु इस योजना के द्वारा, तपेदिक नियंत्रण सुविधाओं को और अधिक सुलभ बनाया जा सकेगा, विशेषकर दुर्गम क्षेत्रों में, तथा अति संवेदनशील सम्प्रदायों / जनजातियों के बीच।


इसके अतिरिक्त, आर.एन.सी.टी.पी. को जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तरों पर समर्थन देकर सुदृड़ किया जाएगा। एक साथ, समाज के इतने सारे बहु पणधारियों (निजी चिकित्सकों और गैर सरकारी संस्थाओं से लेकर तकनीकी अधिकरण और सम्प्रदाय वर्गों तक) के सहयोग से निश्चय ही अच्छे परिणाम निकलेंगें। क्रियात्मक और दीर्घकालिक नेटवर्क के माध्यम से सूचना का आदान – प्रदान सम्भव हो सकेगा, कार्यकर्ताओं का

उत्तरदायित्व बढ़ेगा, तथा तपेदिक नियंत्रण एवं देखभाल के कार्यक्रमों में जनता की भागीदारी बढ़ेगी।


ग्लोबल फंड बोर्ड ने फिलहाल इस पाँच वर्षीय योजना के प्रथम दो वर्षों के निधिकरण को स्वीकृति दी है। पूरी योजना के लिए १९.९५४ करोड़ डॉलर के अनुदान की मांग करी गयी है। अगले कुछ महीनों में, अनुदान की वास्तविक राशि निश्चित कर ली जायेगी।



बॉबी रमाकांत