प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की मुख्य बात कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन वाली सरकार की चुनाव पूर्व घोषणा है गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों को रू. ३ प्रति किलो की दर पर २५ किलो अनाज। इस बात पर गरीब जश्न मनाए अथवा अपना सिर पीटे यह समझ में नहीं आता। इसमें पहली दिक्कत तो यह है कि गांव-गांव की यह कहानी है कि गलत लोगों के पास बी. पी. एल. कार्ड है तथा पात्र लोग छुट गए हैं। गरीबी रेखा के नीचे की सूची दुरुस्त करना बड़ा दुरूह कार्य है। पिछली बार जब उ. प्र. में मायावती सरकार ने अपनी बी. पी. एल. सूची सही करनी चाही तो जिन गलत लोगों ने न सिर्फ बी. पी. एल. सूचियों में घुसपैठ की हैं बहुजन समाज पार्टी में भी सेंध लगा ली है ने ऐसा हल्ला मचाया कि सरकार को अपना सर्वेक्षण रोकना पड़ा। दूसरी दिक्कत यह है कि गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या के केंद्र सरकार ही तय कर देती है जिसके आधार पर गांव स्तर पर भी एक निश्चित संख्या में ही बी. पी. एल. बनाये जाते हैं ।
अत: राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम की तरह जिसमें किसी भी जरूरतमंद परिवार को अपना जॉब कार्ड बनवाने की छूट है किसी भी ऐसे परिवार को जो यह समझता है कि वह गरीब है को बी. पी. एल. कार्ड मिलना चाहिए व उस कार्ड पर कम दर का अनाज, चीनी, दाल आदि मिलना चाहिए। इसमें दुरूपयोग की सम्भावनाएं मौजूद है। यदि यह माना जाए कि गरीब का वास्तविक प्रतिशत 20 के करीब है तो दुरूपयोग अधिकतम २० प्रतिशत लोग ही करेंगे। इतना दुरूपयोग तो अभी हो ही रहा है जिसको रोकने में सरकार अक्षम है और न ही इसे रोकने हेतु उसकी कोई इच्छा शक्ति दिखाई पड़ती है। गरीब यदि बी. पी. एल. हेतु अपने खुद चिन्हित करता है तो कम से कम कोई पात्र परिवार छूटेगा नहीं।
जब तक पहले से मौजूद किसी व्यक्ति का नाम गरीबी रेखा से नीचे वाली सूची से निकलता नहीं तब तक किसी नए व्यक्ति का नाम उसमें जोड़ा नहीं जा सकता। हाल ही में योजना आयोग ने देश मे तेंदुलकर समिति की सिफारिश पर गरीबी रेखा के नीचे 37.2 प्रतिशत लोगों को माना है। एन.सी. सक्सेना समिति ने 49 प्रतिशत लोगों को गरीबी रेखा के नीचे माना है। अर्जुन सेनगुप्ता समिति के अनुसार देश के 77 प्रतिशत असंगठित मजदूर प्रति दिन २० रूपये से कम खर्च करता है। गरीबों की वास्तविक संख्या तो काफी अधिक है। हम गरीबी का कोई भी मानदण्ड तय करें कुछ गरीब तो चयनित होने से रह ही जाएंगे।
अत: राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम की तरह जिसमें किसी भी जरूरतमंद परिवार को अपना जॉब कार्ड बनवाने की छूट है किसी भी ऐसे परिवार को जो यह समझता है कि वह गरीब है को बी. पी. एल. कार्ड मिलना चाहिए व उस कार्ड पर कम दर का अनाज, चीनी, दाल आदि मिलना चाहिए। इसमें दुरूपयोग की सम्भावनाएं मौजूद है। यदि यह माना जाए कि गरीब का वास्तविक प्रतिशत 80 के करीब है तो दुरूपयोग अधिकतम २० प्रतिशत लोग ही करेंगे। इतना दुरूपयोग तो अभी हो ही रहा है जिसको रोकने में सरकार अक्षम है और न ही इसे रोकने हेतु उसकी कोई इच्छा शक्ति दिखाई पड़ती है। गरीब यदि बी. पी. एल. हेतु अपने को खुद चिन्हित करता हैं तो कम से कम कोई पात्र परिवार छूटेगा नहीं।
तीसरी दिक्कत यह है कि राशन ठीक से मिलता ही नहीं । फरवरी २००६ में हरदोई जिले की संडीला तहसील पर कई ग्रामीण अपने बी.पी.एल. के खाली राशन कार्ड लेकर धरने पर बैठे थे इस मांग के साथ कि उन्हें पिछले पञ्च वर्षों का राशन दिया जाये । सूचना के अधिकार जैसे औजार का इस्तेमाल कर लोगों ने राशन व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया । अब जाकर कुछ राशन मिलने लगा है लेकिन पूरी माप व सही दर पर अभी भी नहीं।
रोजी - रोटी अधिकार अभियान की यह मांग है कि बजाये प्रति परिवार ३५ या २५ किलो अनाज के प्रति व्यक्ति १४ किलो अनाज, १.५ किलो दाल व ८०० ग्राम खाने का तेल आवंटित होना चाहिए। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि बच्चों को बड़ों की संख्या में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि खाने की दृष्टि से वे बड़ों के बराबर ही खाते हैं।
गैर-चावल व गैर-गेहूं सेवन वाले इलाकों से मांग हैं कि स्थानीय स्तर पर पैदा किये जाने वाले अन्य अनाजों जैसे ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का, कोदो , कुटकी , सामा, आदि, को भी सावर्जनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था में शामिल किया जाये। बल्कि यदि सावर्जनिक वितरण प्रणाली में खरीद व वितरण की व्यवस्था विकेन्द्रित हो जाय तो यातायात व भडारण का खर्च कम होगा। सरकार चाहे तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली का इस्तेमाल कृषि क्षेत्र को पुनजीर्वित करने के लिए भी कर सकती हैं जो, सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद कि नई आर्थिक नीति के दौर में लोग कृषि छोड़ उद्योग या सेवा क्षेत्र में जाय, अभी भी अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा क्षेत्र हैं।
सरकार को ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए कि सारा कृषि उत्पाद सम्मानजनक न्यूतम समर्थन मूल्य पर खरीद लिया जाए तथा मजदूर, चाहे वह अपने खेत पर हो अथवा किसी अन्य के का पूरा भुगतान राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत किया जाए। ऐसा करने से न सिर्फ कृषि पर छाया संकट कुछ हद तक दूर होगा बल्कि बेरोजगारी की स्थिति पर भी फर्क पड़ेगा । किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए कृषि सम्बन्धित सारे ऋण ब्याज रहित होने चाहिए । मजदूर के लिए यह सहूलियत हो जाएगी कि जो उसे अभी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत अपने १०० दिनों का काम नहीं मिल पा रहा, वह अपनी क़ानूनी गारंटी हासिल कर पाएगा ।
सरकार की यह मंशा कि राशन की जगह नकद दे दिया जाए गलत हैं । नकद घर तक पहुंचेगा तथा भोजन के लिए ही खर्च होगा इसकी सम्भावना कम ही हैं। महिलाएं व बच्चें इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे । रोजी - रोटी अधिकार अभियान का एक अत्यंत रचनात्मक सुझाव यह है कि राशन कार्ड महिलाओं के नाम पर बनाए जाएँ। राशन से ज्यादा भ्रष्टाचार नकद योजना में होगा। यह तो देखा ही जा रहा हैं कि पके - पकाए भोजन में अनाज देने की योजना से कम भ्रष्टाचार है। अंत में यह सुझाव है कि सभी धार्मिक स्थलों पर गुरुद्वारों जैसी लंगर की व्यवस्था हो जिसमें बिना जाति या धर्म के भेदभाव के कोई भी जाकर भोजन प्राप्त कर सके। मंदिरों व मस्जिदों के बाहर भीख मांगने वाले लोगों को अंदर बैठा कर सम्मानजनक ढंग से भोजन करने की व्यवस्था होनी चाहिए। यह स्थिति दान देने वाले तथा भोजन पाने वाले दोनों के लिए ही उचित होगी। इस तरह के सामुदायिक भोजन कार्यक्रम की गुणवत्ता किसी भी सरकारी भोजन के कार्यक्रम से बेहतर होगी तथा उसमें भ्रष्टाचार की भी संभावना कम होगी।
- संदीप