समाजवाद के अप्रतिम योद्धा : शहीद चंद्रशेखर आजाद

जुलाई महीने की २३ तारीख भारतीय समाजवादी आंदोलन और स्वतंत्रता संघर्ष के दृष्टिकोण से स्वर्णाक्षरों में रेखांकित करने योग्य है, इसी दिन 1906 में चन्द्रशेखर आजाद का जन्म हुआ था। शहीद शिरोमणि चंद्रशेखर आजाद की शहादत और वीरता से जुड़े बहुआयामी पहलुओं से पूरी दुनिया अवगत है, इस पक्ष पर कई विद्वानों एवं इतिहासकारों ने काफी कुछ लिखा और विरोध किया है किन्तु समाजवादी आंदोलन एवं विचारधारा के सन्दर्भ में उनकी भूमिका और योगदान पर व्यापक चर्चा अभी भी वांछनीय है। उनके जीवन-चरित व सैद्धान्तिक आग्रहों की सूक्ष्म विवेचना का निष्कर्ष उन्हें एक प्रतिबद्ध समाजवादी सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं ।

भारत का सुख व स्वर्णिम इतिहास साक्षी है कि प्रथम अखिल भारतीय समाजवादी संगठन की स्थापना ८ सितम्बर 1928 को नई दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला के पुराने किले के परिसर में हुई थी जिसके अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद थे। इसका नाम हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन था, कहीं-कहीं एसोसिएशन की जगह आर्मी ब्द का भी उल्लेख मिलता है। चंद्रशेखर आजाद इसके मुखिया जीवन-पर्यन्त 27 फरवरी 1931 तक बने रहे। भगत सिंह, सुखदेव, शिवराम हरि राजगुरू, भगवती चरण वोहरा सरीखे क्रांतिकारियों वाले इस संगठन को ‘समाजवाद’ को नवीन आयाम देने और भारतीय राजनीति का सबसे आकर्षक शब्द बनाने का श्रेय जाता हैं ।

आजाद के नेतृत्व और भगत सिंह का प्रस्ताव पर ही रिपब्लिकन एसोसिएशन को हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन के रूप में पुर्नगठित किया गया। पहली बार दृढ़तापूर्वक किसी संगठन ने समाजवाद को अपना अंतिम लक्ष्य घोषित किया। इसके घोषणा पत्र में स्पष्ट शब्दों में लिखा हैं। .... ‘‘ भारतीय पूंजीपति भारतीय लोगों को धोखा देकर विदेशी पूंजीपति से विश्वास घात कीमत के रूप् मे सरकार में कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहता है। इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएं अब सिर्फ समाजवाद पर टिकी हैं और यही पूर्ण स्वराज्य और सब भेदभाव खत्म करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इस घोषणापत्र को 1929 में ब्रिटानिया हुकूमत ने जब्त किया था। आमतौर पर किसी भी संगठन का घोषणापत्र उसके मुखिया की सोच को ही प्रतिबिम्बित करता है। इससे पता चलता है कि आजाद और उनके साथियों की समाजवाद में गहरी निष्ठा थी। वे स्वयं को समाजवादी कहना और कहलाना पसन्द करते थे, यद्यपि उनके लिये समाजवाद एक रूमानी व भाव-प्रवण अवधारणा हैं ।

1955 में समाजवादी युवक सभा (समाजवादी युवाजन सभा) के सम्मेलन में बुद्धिदोष्-चरित्र दोष के अंतर को स्पष्ट करते हुये उन्होंने अपने उदबोधन में कहा कि समानता, अहिंसा, विकेंद्रीकरण लोकतंत्र और समाजवाद ये पाँचो आज भारत की समग्र राजनीति के अन्तिम लक्ष्य दिखाई पड़ते हैं। यदि बिना लाग-लपेट के कहा जाय क़ि चंद्रशेखर आजाद के समाजवाद की निर्गुण धारणा को डा. राममनोहर लोहिया ने सगुण व्याख्या करते हुए सैद्धान्तिक और बौद्धिक आधार दिया तो गलत न होगा।

आजाद व लोहिया में कई समानताएं दृष्टिगत हैं। एक ही कालखंड समान पृष्ठभूमि व समन्वय होने के कारण समान भावभूमि का होना स्वाभाविक हैं। लोहिया, चन्द्रशेखर आजाद से मात्र तीन साल व चार महीने छोटे थे। मणिकांचन संयोग है कि दोनों की जन्मतिथि एक ही है।
दोनों आयुपर्यन्त अपरिग्रही, अनिकेतन व फक्कड़ बने रहे। दोनों ने देश और समाज के लिये विवाह नहीं किया।आजाद मध्यप्रदेश के भवरा में पैदा हुए और इलाहबाद के एक पार्क में २७ फरवरी १९३१ को शहीदत का वरण किया। झाँसी, कानपुर, बंबई, वाराणसी समेत पूरे हिन्दुस्तान में वे भ्रमण कर क्रांति की अलख जगाते रहे ।

उनकी तरह डॉ. लोहिया को क्षेत्र विशेष की परिधि में कैद नहीं किया जा सकता । लोहिया ने भी शोषण व विभेद के खिलाफ उल्लेखनीय लड़ाईयाँ न केवल भारत अपितु नेपाल और अमरीका में भी लड़कर ' वसुधैव कुटुम्बकम ' की कल्पना को चरितार्थ किया । क्रांतिधर्मी और परिवर्तनकामी सोच कल्पना को चरितार्थ किया । क्रांतिधर्मी सोच होने के साथ - साथ दोनों अनावश्यक हिंसा के प्रबल विरोधी थे ।
चन्द्रशेखर आजाद का अपने साथियों को स्पष्ट निर्देश था कि किसी निर्दोष का बेमतलब खून न बहाया जाय । जहाँ तक सम्भव हो बम और तमंचे के अतिरंजित प्रयोग से बचा जाय । आजाद के लिये हिंसा अंतिम लक्ष्य न होकर एक नेक परिणाम तक पहुंचने का निमित्त मात्र थी

भूमिगत
आन्दोलन में भी लोहिया ने हिंसा का सहारा नहीं लिया । गुप्त रेडियो और अन्य विधाओं से क्रांति तथा आजादी की लड़ाई को प्रखर बनाते रहे । सभी जानते हैं कि आजाद की
भांति लोहिया ने भी अंग्रेजों भारत छोड़ों 'आन्दोलन के दौरान ०९ अगस्त १९४२ से लेकर १९४४ तक पूरे २१ महीने तक भूमिगत रहते हुए 'आजाद दस्ता ' का सञ्चालन किया । इस दौरान लोहिया की तीन पुस्तकें 'क्रांति की तैयारी' और 'आजाद राज कैसे बने ' प्रकाशित हुई । इन्हें पढ़कर प्रतीत होता हैं कि लोहिया के विचार कई बिन्दुओं पर आजाद व भगत सिंह के करीब थे । संगठन चलाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती थी । दोनों व्यकित्यों अथवा सेठ साहूकारों को लूटने के पक्षधर नहीं थे । अपितु सरकारी खजाने को लूटकर आम जनता की मदद करने और उस पैसे से क्रांति की व्यवस्था करने को सही मानते थे।

आजाद जहाँ काकोरी ट्रेन कांड से जुड़े थे वहीं माणिक तल्ला डाक खाने की लूट के प्रेरणा स्रोत डॉ. लोहिया को माना जाता हैं । दोनों की स्पष्ट मान्यता थी कि जनता के पैसे का उपयोग केवल जनहित से जुड़े कार्यों में होना चाहिए। १९२८ से १९३१ तक ब्रिटानिया हुकूमत और पुलिस के लिए आजाद और उसके साथी सबसे बड़ें सरदर्द थे । उसी तरह १९४२ से ४४ तक लोहिया और आजाद दस्ता के सिपाही अंग्रेजी पुलिस के निशाने पर । दोनों ने सामुदायिक प्रतिकार को नया आयाम दिया । मैक्स हरकोर्ट की शोधों एवं तत्कालीन वाइसराय के प्रतिवेदनों से पता चलता हैं कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी की स्मृतियों को ताजा कर दिया। 'भारत छोड़ों ' आन्दोलन की सफलता डों. लोहिया, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी व आजाद दस्ते को दिया जाना उचित ही होगा।

आजाद की तरह लोहिया ने सार्वजनिक धन का उपयोग कभी भी स्वयं पर और अपने परिवार पर नहीं किया। भगत सिंह ने एक बार चंद्रशेखर आजाद से उनकी माता का पता पूछा ताकि उन्हें कुछ पैसे देकर उनकी सेवा सुश्रुवा का प्रबंध किया जा सकेआजाद भगत सिंह पर भड़क उठे और यह कहते हुए चर्चा का रुख बदल दिया कि जब देश आजाद होगा तो भारत माता की तरह भी माँ की सेवा हो जाएगीअभी हमें सिर्फ भारत माँ और उन माताओं के विषय में सोचना हैं जिनका कोई नहींऐसे ही विचारों के पोषक लोहिया भी थे। उन्होंने कभी भी अपनी सुख - सुविधा पर ध्यान नहीं दिया । वे राजनीति में संत बने रहे । जब बीमार हुए तो मधु लिमये ने उन्हें विदेशी डॉक्टरों से इलाज करने की सलाह दी। डॉ. लोहिया ने साफ मना कर दिया और कहा कि उनकी चिकित्सा के लिये अनावश्यक धन व्यय करने की आवश्यकता नहीं । डॉ. लोहिया की मृत्यु अंत में चिकित्सा के अत्याधुनिक साधनों के अभाव में हुई । लोहिया को आजाद की भांति मृत्यु की गोद में सोना कबूल था लेकिन सिद्धान्तों से विचलित होना नही

भगत सिंह के प्रति आजाद और लोहिया के मन में अगाध स्नेह और श्रद्धा थी । आजाद छापामार कर भगत सिंह को कारागार से छुड़ाना चाहते थे । जेल तोड़ने की कार्य योजना बन चुकी थी इसके पहले वे भगत को जेल से छुड़ाते स्वयं ही शहीद हो गये । जब भगत सिंह को फाँसी दी गई डॉ. लोहिया जर्मनी में उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उन्होंने लीग ऑफ नेशंस की बैठक में अनिर्वचनीय जोखिम उठाकर भी भगत सिंह की फांसी का विरोध किया। उन्हें अध्यक्ष रूमानिया के टितेलेस्क्यू द्वारा दर्शक दीर्घा से बाहर निकाल दिया गया तो दूसरे दिन लू - तरावै- छ्यूमेनाईट नामक प्रतिष्ठित अखबार में अनावृत्त पत्र प्रकाशित कर वितरित किया। यूरोप में ब्रिटेन के खिलाफ भगत सिंह के लिये किया गया व्यापक विरोध प्रर्दशन लोहिया के मन में उनके प्रति सम्मान का परिचायक है। आजाद की तरह डॉ . राम मनोहर लोहिया भी नौकरशाही से चिढ़त थे। साण्डर्स को सजा देने के बाद नौकरशाही को आगाह करने के लिये 18 दिसम्बर 1928 को लाहौर में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोश लिस्ट आर्मी के कमाण्डर के हस्ताक्षर से पर्चा वितरित किया गया। इस पर्चा को आजाद के निर्देश पर छपवाकर बाँटा गया। लोहिया का बस चलता तो ‘कलक्टर’ संस्था ही समाप्त होती।

दीपक मिश्र