जाति प्रमाण-पत्र : दलित यथास्थितिवाद

जाति प्रमाण-पत्र, आरक्षण और जातिवाद एक दूसरे से संबद्ध सच्चाई है। दलित जाति के चिन्तन का अन्तविरोध भी है। सच है, दलित जाति प्रथा को खत्म करना चाहता है। संघर्ष कर रहा है। डॉ. आम्बेडकर से पहले और उनके बाद भी लोग जाति की उत्पत्ति, संरचना और उसके विकास पर सोचते, लिखते और आन्दोलित होते रहे हैं। डॉ. आम्बेडकर ने १९१६ में ‘जाति प्रथा: उत्पत्ति, संरचना और विकास’ पर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया। दलित जातियां इस शोध पत्र का अध्ययन लगातार कर रही है। १९३६ में आम्बेडकर ने ‘जाति प्रथा उन्मूलन’ लिखकर दलित जातियों को वैचारिक परिपक्वता प्रदान की। दलित जातियां जाति प्रथा उन्मूलन को पढ़कर आज भी तर्क प्रस्तुत करती है तथा जाति प्रथा उन्मूलन के लिये आन्दोलनरत रहती है। दलितों ने राजनैतिक समानता का अधिकार प्राप्त कर लिया है। राज सत्ता तक पहुँच कर राजनैतिक शोक्तियों शक्तिओं के “द्वारा वह जाति प्रथा की नींव कमजोर करना चाहता है एवं अपने समाज को बुद्धजीवी, शिक्षित तथा सुविधा सम्पन्न वर्ग बनाना चाहता हैं।

डॉ. आम्बेडकर ‘कम्युनल एवार्ड’ प्राप्त करना चाहते थे, जिससे दलित स्वयं अपना नेता विधान सभा और संसद में भेज सके। गांधी जी ने आमरण अनसन करके डॉ. आम्बेडकर को कम्युनल एवार्ड प्राप्त नहीं होने दिया। कम्युनल एवार्ड के बदले डॉ. आम्बेडकर को ‘आरक्षण नीति’ को स्वीकार करना पड़ा। आरक्षण ऐसी सुविधा का नाम है जिसने दलितों में एक स्वार्थी, अवसरवादी और कायर वर्ग को जन्म दिया। यह सही है कि आरक्षण ने दलितों को राजनीति और नौकरियों में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान किया। धीरे-धीरे यही आरक्षण दलित वर्ग के ‘नव-सुविधा सम्पन्न’ लोगों का हथियार बन गया, आदत में सुमार हो गया। बिना संघर्ष के सुविधा प्राप्त करना चरित्र हो गया है। दलितों का यह नव सम्पन्न वर्ग प्रचार करता है कि बिना आरक्षण के दलित पुन: दासत्व की पुरानी स्थिति में पहुंच सकता है। बिना आरक्षण के दलितों का उत्थान व कल्याण सम्भव नहीं है। यदि संविधान संशोधन द्वारा आरक्षण को सवर्ण जातियां खत्म कर ले जाती है तो मनुस्मृति दलितों पर पुन: लागू हो जायेगी। दलितों को नौकरी नहीं मिलेगी। दलित शिक्षा नहीं पायेगा। दलित तमाम राजनैतिक अधिकारों से वंचित हो जायेगा। अर्थात पुन: सम्पत्ति और शिक्षा से वंचित कर दिया जायेगा। दलितों का यह नव सम्पन्न अवसरवादी, स्वार्थी और कायर वर्ग एक ऐसी विचार प्रक्रिया का निर्माण करता हैं जिसके इसके इर्द-गिर्द के दलित एवं अलग धारा का निर्माण कर सकने वाला ‘दलित स्वार्थी वर्ग की विचारधारा’ के साथ गुमराह होकर उसी को सत्य मानता हुआ आरक्षण नीति से चिपका रहे। अलग कोई विचारधारा और आन्दोलन न विकसित कर सकें।

यदि दलितो का एक अलग वर्ग यह सोचने लग जाएं कि उसे आरक्षण नहीं चाहिये, तो उसको सामान्य वर्गों के साथ और मध्य प्रतियोगिता करनी पड़ेगी। चूंकि दलितों को शिक्षा प्राप्त करने में व्यवधान होता है। यह व्यवधान आर्थिक कमजोरी के कारण उत्पन्न होता है। आज भी दलितों की जिदंगी सुदृढ़ नहीं है। दूसरी तरफ सवर्ण जातियों के अमीर लोग है जो शिक्षा को खरीद सकते है, सम्पन्न होने के कारण सुचारू पढ़ लिख सकते है प्रतियोगिता लायक बनने में उन्हें आसानी होती है। हालांकि यह सभी सवर्णों के ऊपर लागू नहीं होता है क्योंकि सवर्णों में भी अधिकांश लोग (आर्थिक रूप से) गरीब ही है।

परिस्थितियां सच है, परन्तु किसी भी लड़ाई के लिये आरक्षण क्या, जीवन भी उत्सर्ग करना पड़ सकता है। हम, यदि इतने स्वार्थी बने रहेंगे, तो जाति प्रथा उन्मूलन के लिये स्वयं तथा परिजनों को अनिवार्यतय: बलिदान मार्ग के लिये कैसे प्रेरित करेंगे। अब दलित जातियों के इतने शिक्षित व सम्पन्न लोग हो चुके है कि जाति प्रथा उन्मूलन ही नहीं, शिक्षा, रोजगार एवं राजनीति के लिये एक बेहतर अगुवाई कर सकते है। दलित जातियों के विकास के लिये संवैधानिक प्रक्रिया के अनुपालन में सरकार और राजसत्ता को बाध्य कर सकते है। हाँ, संघर्ष की अनिवार्यता स्वीकार करनी पड़ेगी। संघर्ष को सतत प्रक्रिया में लाना होगा। पूरी ईमानदारी से ‘वैचारिक एकरूपता’ एवं ‘जनवादी केन्द्रीयता विकसित करते हुए मोनोलिथिक प्रणाली की तरह कार्य करना होगा। बिना नैतिक मूल्यों के अनुपालन के दलित अपनी लड़ाई जीत नहीं सकता हैं।

बहुत समय से यह विमर्श का विषय रहा है कि आरक्षण एक वैशाखी हैं वैशाखी को फेंके बिना सीधा नहीं हुआ जा सकता है। दुखद यह है कि दलितो का स्वार्थी, अवसरवादी और डरपोक वर्ग यह तर्क प्रस्तुत करने लगता है कि ऐसी विचारधारा दलितों के साथ पीठ में छूरा भोकने जैसा है। यह कम्युनिष्ट विचार धारा है। इसे ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोग दलितों के मध्य उछालते रहते है। वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बचाते हुए सवर्णों को राजनीति व रोजगार में बने रहने के पक्ष में चालबाजी करते है। किन्तु आज दलितों के गरीब पक्ष को यह समझने कि जरूरत है कि नव-सम्पन्न दलित वर्ग ऐसी विचारधारा के पक्ष में दलील देकर, न तो वह जाति प्रथा खत्म करना चाहता है, और न हीं दलितों के गरीब पक्ष को सुख-सुविधाएं दिलाना एवं शोंषण से मुक्त कराना ही चाहता है। यह आज दलितों के मध्य विमर्श का विषय होना चाहिए।

सच तो यह है कि दलितो के 24 करोड़ लोगों को न तो रोटी उपलब्ध है, और न ही शिक्षा। खेत-खिलायानों में काम करते हुए या तो वे खेत मजदूर हैं अथवा छोटे किसान। अधिकतर दलित आज भी भूमि हीन है। आज भी इन्हें सवर्णों के खेतों में बंधुवा मजदूर की तरह कार्य करना पड़ता है। दलितों की स्थिति गांव में बदतर है। वे अपनी जाति से अधिक गरीबी और भुखमरी से त्रस्त है। उनके पास उत्पादन के साधन नहीं है। न खेत है न खलियान, न बीज है न खाद, न शिक्षा है न नौकरी। रोज कुंआ खोदो-पानी पियों, जैसी परिस्थिति में दलित जातियां जीवित हैं। कहने को, दलित आज गांव में स्वत्रंत हैं तुलनात्मक आर्थिक स्थिति भी ठीक है। जातीय अस्मिता के मामले में बौद्ध धर्म और बसपा ने दलित जातियों के संस्कार, आत्मसम्मान और चिन्तन की दिशा बदल दी है। ये जातियां हित-अहित सोचने लगी है। संस्कार के नाम पर ब्राह्मणवादी संस्कारों के स्थानापन्न रूप में बौद्ध संस्कृति स्वीकार कर लिया है। ब्राह्मणों के स्थान पर दलित बुद्धिजीवी अथवा भिक्षु कर्मकाण्डों को सम्पन्न करवाता है। दलित ब्राह्मणों इस नियन्त्रण से दूर होकर खुश है। संस्कार और विचार के नाम पर दलित राम, कृष्ण, दुर्गा और भूतों, प्रेतों से मुक्त हुआ है। तीज त्यौहारों का रूपान्तरण हुआ है। आज राजनैतिक रूप से दलित जातियों का ध्रुवीकरण हुआ है। अन्ध भक्तों की तरह दलित बसपा व सुश्री मायावती को ही वोट देता है। सुश्री मायावती दलित जातियों की इसी जागरूकता की वजह से मुख्यमंत्री बनी एवं प्रधानमंत्री बनने की जुगत में हैं। अनेक धर्म परिवर्तन चक्रो, परिवर्तन स्थलों, आम्बेडकर ग्रामों, आम्बेडकर सड़कों आम्बेडकर पार्को, काशी राम परियोजनाओं के उपरान्त भी दलित जातियों की गरीबी उन्मूलन की कोई ठोस परियोजना व आन्दोलन का विकास सम्भव नहीं हो सका है। बस, केवल एक 'प्रश्नोत्तर’ कि दिल्ली की कुर्सी प्राप्त होने पर ही दलितो उत्थान हो सकता है। जाति प्रथा उन्मूलन तो दलित नेताओं के एजन्डे में अब रहा ही नहीं है। बहुजन से सर्वजन का सफर स्वार्थपरता का सफर है। यह राजनैतिक रणकौशल है। यह एक राजनैतिक गठबन्धन की राजनीतिक हैं।

यह दलित गरीब है तो उसका कारण है कि उसके पास उत्पादन के साधन नहीं हैं। दलितो की सरकार न तो उन्हें खेत दे रही है, और न संसाधन दे रहीं हे तो तमाम ये झूठी परियोजनाएं, जिससे दलित सिर्फ मुगालते में रहे, भ्रम में जिये। इन परिस्थितियों के लिये सिर्फ दलित राजनीति और दलित राजनैतिक दल ही जिम्मेदार नहीं है। दलितों को सिखाने वाले बहुत सारे दलित अधिकारी, दलित प्रबन्धन, दलित बुद्धिजीवी और दलित आन्दोलनकारी भी है, जो उनके हितों के लिये कोई भी ठोस कदम नहीं उठाते, और न ही सही आन्दोलन विकसित होने देते है। और तो और, ये दलित नेतृत्वकर्ता दलितो में क्रांति की चिन्गारी नहीं भरते तथा सही क्रांतिकारी लाइन पैदा होने से रोकते है। ऐसा इसलिये, क्योंकि सच्ची क्रांतिकारी लाइन सुश्री मायावती व बसपा का विकल्प तैयार करने की क्षमता रखती है तथा इन धोखेबाज, अवसरवाद, यथास्थितिवादी, स्वार्थी दलित नेतत्व व बुद्धिजीवियों को भी धूल चटा सकती है। सच्ची क्रांतिकारी लाइन के विकसित होने से दलित अपने दोस्त और दुश्मन को पहचान सकेगी। दलित जनता यह जान लेगी कि आरक्षण की पूरी सुविधायें नव-संभ्रान्त दलितों को ही मिलती है। इस अनुपातिक श्रेणी के लाभ से कुछ थोड़े से संभ्रान्त दलित ही पैदा होते है, जो खूबसूरती से अपने अवसर को बनाये रखने के लिये अपनी जातियों के गरीबों में भ्रम की स्थिति पैदा करते हुए उन्हीं के मध्य अपनी विचारधारा के अनुसार उन्हीं को गुमराह करने में लगे रहते है, जिससे गरीब वर्ग इनसे इतर कहीं जा न पाये। अब ऐसी परिस्थिति पैदा हो चुकी है और दलित वर्ग इतना तैयार हो चुका है कि वह अपना नेतृत्व पैदा कर सकता है तथा जाति प्रथा के साथ-साथ शोंषण मूलक व्यवस्था को भी उखाड़ फेक सकता है।

आरक्षण से ही जुड़ा एक दूसरा सवाल भी है, और बहुत महत्वपूर्ण भी है, वह है-जाति प्रमाण-पत्र। जाति प्रथा एवं जातिवादी व्यवस्था के पोषक ब्राह्मणवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकने का दम भरने वाली दलित जनता खुद जाति प्रमाण-पत्र बनवा कर अपने दलित होने का प्रमाण देती है। कोई चमार, कोई पासी, कोई कोरी, कोई धोबी। यह प्रमाण-पत्र ही आरक्षण के मुख्य आधार हैं। बहुत खुशी -खुशी बड़े शौक से दलित अपने बेटे-बेटियों का जाति प्रमाण-पत्र बनवाता है। घर के अन्दर इनके बच्चे जाति प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने का विरोध करते हैं। बच्चे स्कूल कॉलेजों में जाति नहीं बताना चाहते है। उन्हें जाति बताना बुरा लगता है। वे एस सी\एस टी तथा उपजाति लिखने या बताने के पक्ष में बिल्कुल नहीं होते है। एक तरह से, वे जाति प्रथा का विरोध कर रहे होते हैं। उम्मीद है कि यदि उन्हें बचपन से ही जातिप्रथा के विरोध में संघर्ष करने के तैयारी के लिये तैयार किया जाये, तो वे निश्चित रूप से अपने युवावस्था तक आते-आते जाति प्रथा उन्मूलन के लिये विगुल फूंक देगें। किन्तु हम जबरदस्ती जाति प्रमाण-पत्र बनवाने के लिये उनसे कहते है कि इससे तुमको नौकरियों में छूट मिलेगी। जो पीढ़ी सही सीख देने से जाति प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ सकती है, हम उसी के हाथ में आरक्षण की बैशाखी पकड़ा देते हैं। कुसंस्कृति का शिकार बना देते है। हीनता बोध से भर देते हैं। वह नौकरी और आरक्षण के मोह में संघर्ष की संस्कृति को त्याग देता है, अवसरवादी हो जाता है, लक्ष्य के प्रति सचेत नहीं रहता है, लापरवाही की लचर संस्कृति उसका पीछा करने लगती हैं। क्या दलित क्रांतिकारी, दलित चिन्तन, दलित बुद्धिजीवी, दलित संगठन व दलित आन्दोलनकारी अथवा दलित राजनीति के नेता यह बता सकने में समर्थ होंगे कि जब हम ब्राह्मणवाद का विरोध करते है, सोपानक्रम जाति व्यवस्था के खिलाफ है, ऊँच-नीच मिटाना चाहते हैं, गैर बराबरी की व्यवस्था खत्म करके डा.आम्बेडकर द्वारा उल्लिखित समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व की ‘एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धान्त’ को लागू करना चाहते हैं तो खुद जाति प्रमाण-पत्र क्यों बनवाते है ? हम जाति प्रमाण-पत्र बनवाकर खुद को शुद्र, चमार, धोबी, पासी, कोरी, खटिक, धानुक, भंगी क्यों साबित करते है ? क्या यह विचित्र नहीं है कि हम खुद अपने का चमार-धोबी होने का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करें और सवर्ण जातियों से यह उम्मीद करे कि वे उन्हें धोबी, पासी, चमार और भंगी न कहे तथा स्वयं को भी ब्राह्मण -ठाकुर मानना या कहना छोड़ दें ? यदि सवर्ण जातियां ऐसा नहीं करती है तो दलित जातियों का आरोप रहता है कि ये परम्परावादी होते है, ये ब्राह्मणवाद छोड नहीं सकते है। यह है ‘दलितों का विचित्रवाद’। जिनको अपनी जाति से हीनता का बोध होता है, जाति की वजह से नीच समझे जाते है, उनसे छुआछूट किया जाता है, चमार व भंगी शब्द गाली सा प्रयोग किया जाता है, इन शब्दों को बहुत ही गलत अर्थों में प्रयोग किया जाता हैं। ऐसी घृणित स्थिति के उपरान्त भी ‘दलित यथास्थितवादी अवस्थिति’ से दूर नहीं हो पाता हैं। किसी जड़ता से दूर होना और दूर होने की सोचना एक दूसरे से संबन्धित तो है परन्तु क्रिया की स्थिति में एक दूसरे के विपरीत भी है। दलित आज अपने मूल चिन्तन के विरूद्ध क्रियाशील है। जहाँ उसे अपनी जाति छोड़ देनी चाहिए, वहीं वह अपनी जाति का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत कर दलित बना हुआ हैं।

यदि दलित बुद्धिजीवी इस सवाल को तत्काल हल नहीं करता है तो जाति प्रथा उन्मूलन के लिये न तो दलित जनता तैयार हो पायेगी और न ही जाति प्रथा उन्मूलन हो पायेगा। डॉ। आम्बेडकर यदि कम्युनल एवार्ड के स्थान पर आरक्षण लेकर अपना जंग हार गये थे, तो उस हारे जंग को दलित कब तक ढोता रहेगा। आरक्षण व जाति प्रमाण-पत्र दलित के जाति प्रथा उन्मूलन की लड़ाई में बाधक है। दलितों को आरक्षण पर आश्रित रहना और जाति प्रमाण-पत्र को पीठ व मस्तक पर चिपकाये घूमना बन्द कर देना चाहिए ।

मानता हूँ यह प्रश्न कठिन है। आरक्षण छोड़ देने पर आप विकल्पहीन महसूस करते हैं। ऐसा लगता है जैसे न आप घर के रहे न घाट के तो क्या, जाति पहचान-पत्र लिये हमें घूमते रहना चाहिए ? तो क्या, इस पर विमर्श नहीं हो सकता है ? क्या विमर्श विकल्प का आधार नहीं है ? मुख्य क्या है-जाति प्रथा उन्मूलन अथवा जाति प्रमाण-पत्र के आधार पर आरक्षण ?

ब्राह्मणवादी व्यवस्था में बने रहकर आरक्षण से काम चल रहा , तो जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की क्या जरूरत ? यदि स्वाभिमान चाहिए, पूंजीवादी शोषण से मुक्ति चाहिए तो जाति प्रथा से लड़ने की जागरूरकता दलितों में पैदा करना पड़ेगा। मुझे लगता है, यदि नव-सम्पन्न दलित व अवसरवादी नेतृत्व दलितों को गुमराह न करें, तो दलित शीघ्र अति शीघ्र वह जागरूकता हासिल कर लेगा, जिससे वह अपनी लड़ाई इन ब्राह्मणवादी शक्तिओं से जीत सकता हैं ।

आर. डी. आनंद