धर्म और आस्था से धो डालिए एड्स के कलंक को

                                              
अपने ३० वर्ष के कार्यकाल में एड्स नामक घातक बीमारी ने अब तक ३ करोड़ व्यक्तियों को मौत की नींद सुला दिया  है तथा अन्य ३ करोड़ को अपने कीटाणु से संक्रमित कर दिया है. इस बीमारी से जूझने का नया संकल्प है--शून्य नए संक्रमण, शून्य एड्स संबधित मृत्यु, एवं शून्य भेदभाव और कलंक. पहले दो लक्ष्यों को पाने के लिए तीसरे संकल्प को पूरा करना आवश्यक है. ये सभी बातें हाल ही में कोरिया में संपन्न हुए एड्स सम्बन्धी विश्व सम्मलेन में खुल कर सामने आयीं.

एड्स से पीड़ित लोगों को अपनी समस्याओं से जूझने के लिए प्रेम और आस्था की ज़रुरत है न कि हिंसा और घृणा की. उपचार के साथ साथ उन्हें प्रेम और सहानुभूति का मलहम भी चाहिए. उचित जानकारी के अभाव में जन साधारण में एड्स कि बीमारी को लेकर अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैली हैं, जिनके कारण प्रायः एड्स के रोगियों को  उत्पीड़न एवं घृणा का पात्र बनते हुए समाज से निष्कासित जीवन जीना पड़ता है. दैनिक जीवन में उन्हें हर कदम पर भेदभाव झेलने पड़ते हैं, जो उनकी बीमारी से भी अधिक घातक सिद्ध हो सकते हैं. सामाजिक उत्पीड़न के कारण अक्सर वे सामायिक एवं उचित उपचार से भी वंचित रह कर एक गुमनामी भरा जीवन व्यतीत करने को विवश हो जाते हैं.

ऐसे में धर्म गुरु एवं धार्मिक प्रवचनकर्ता अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं. धर्म पर आधारित समर्थन और सहायता इस रोग से मुख्य रूप से प्रभावित जन समुदाय (जैसे एड्स के रोगी, समलैंगिक, हिजड़े, इंजेक्शन के द्वारा नशीले द्रव्य लेने वाले, वेश्या वृत्ति करने वाले, महिलाएं एवं बच्चे) को समाज से बहिष्कृत जीवन जीने से बचा सकता है. प्रायः देखा गया है कि धर्म गुरुओं में लिंग और लैंगिकता को लेकर तरह तरह की भ्रांतियां फैली हैं. और धर्म के ज़रिये ये हमारी संस्कृति में भी प्रवेश कर चुकी हैं, क्योंकि संस्कृति अधिकतर उसी विचारधारा का अनुमोदन करती है जिसे धर्म का समर्थन प्राप्त हो. धर्म और लैंगिकता के बीच चल रहे संघर्ष का कुप्रभाव एड्स/एच.आई.वी. से प्रभावित समुदायों, विशेषकर समलैंगिक और हिजड़ों, को ही झेलना पड़ता है. धार्मिक विवादों में उलझ कर समाज भी अन्य लैंगिक रुझानों को स्वीकार नहीं करता. मुस्लिम विद्वान हिजड़ों के प्रति तो कुछ संवेदनशील हैं, पर समलैंगिकता को मान्यता नहीं देते. अन्य धर्मों में भी लैंगिकता को लेकर काफी संकीर्णता है. यहाँ तक कि एड्स से पीड़ित कुछ धर्म प्रचारक इस संकीर्ण मानसिकता के चलते अपना उपचार कराने से डरते हुए एक खौफनाक मौत की ओर बढ़ रहे हैं, जबकि वास्तव में इस रोग का पूर्ण उपचार संभव है.

इस सबके बावजूद असमान लैंगिक रुझान वाले व्यक्तियों के जीवन में धर्म का महत्तव कम नहीं होता. वे भी उतनी ही पूजा अर्चना करते हैं जितना कोई अन्य. अतः यह आवश्यक है कि धार्मिक ग्रंथों की उन वैकल्पिक व्याख्याओं को समझा जाय जो लिंग भेद के प्रति सजग और संवेदनशील हैं. सभी चुनौतियों का सामना करते हुए हमें एड्स रूपी दानव को ख़त्म करना ही होगा, और इस महान कार्य के लिए धर्म गुरुओं का समर्थन और प्रोत्साहन अपेक्षित है. धर्म गुरु अपने मंदिरों, गुरुद्वारों, मस्जिदों, और चर्चों में प्रवचनों के माध्यम से भय के स्थान पर आशा का संचार कर सकते हैं. वे आम जनता को बता सकते हैं कि एड्स के वाइरस का इलाज पूर्ण रूप से संभव है, कि एड्स के रोगियों का निरादर न करके उन्हें सम्मान और प्रेम की दृष्टि से देखना चाहिए, कि हम सबको नैतिक संकीर्णता के स्थान पर मानवीय स्वीकृति  का परिचय देना चाहिए. धर्म गुरुओं को यह याद रखने की ज़रुरत है कि सभी मनुष्य ईश्वर के प्रतिरूप हैं. अतः, लैंगिकता के आधार पर उनका बहिष्कार करना सर्वथा अनुचित है. एक प्रेम भरा सहारा दवा से बढ़कर कारगर होता है.

थाईलैंड के बौद्ध भिक्षु इस दिशा में सराहनीय कार्य करके अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं. इस देश कि ९५% जनता बौद्ध धर्म का पालन करती है. वहां के ३०,००० से भी अधिक बौद्ध मंदिर केवल आराधना स्थल न होकर सामुदायिक कार्यकलापों का मिलन स्थल भी हैं. बौद्ध भिक्षु थाई सामाजिक और आर्थिक विकास का अभिन्न अंग हैं, और ग्रामीण विकास, पर्यावरण संरंक्षण तथा एच.आई.वी./एड्स के क्षेत्र में धनात्मक कार्य कर रहे हैं. उन्होंने मंदिरों के अन्दर ही एड्स सम्बंधित उपचार सेवाएँ उपलब्ध कराई हैं, और वे सतत इस रोग से जुड़ी हुई विभिन्न भ्रांतियां दूर करके उसकी रोकथाम/प्रबंधन के बारे में जागरूकता फैला कर एड्स के रोगियों समाज से बहिष्कृत होने से बचा रहे हैं.

हम सभी को यह समझना होगा कि एड्स केवल स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या नहीं हैं, वरन एक धार्मिक समस्या भी है. उन्हें कलंकित जीवन जीने को मजबूर करने के बजाय उचित परामर्श और चिकत्सीय सुविधा उपलब्ध कराने में परिवार एवम् समाज का योगदान आवश्यक है. जब संत साधु धार्मिक प्रवचन देते हैं तो जन मानस उनका पालन करता है. अतः धर्म के रखवालों का यह कर्तव्य बनता है कि वे अपनी कूप मंडूकता से बाहर निकल कर समझदारी, उदारता का परिचय देते हुए एक सम्मिलित समाज की रचना में अपना योगदान दें, जहाँ ईश्वर की सभी संतानों को सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत करने का अवसर प्राप्त हो. 

शोभा शुक्ला
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस 









दमा नियंत्रण संभव है, पर अधिकांश लोगों की पहुँच के बाहर

[English] संयुक्त राष्ट्र की गैर-संक्रामक रोगों पर अंतर्राष्ट्रीय उच्च-स्तरीय संगोष्ठी से यह साफ़ ज़ाहिर है कि विश्व के तमाम देश गैर संक्रामक रोगों से होने वाली २/३ मृत्यु के प्रति चिंतित हैं और गैर-संक्रामक रोगों के नियंत्रण के लिए ठोस कदम उठाने को हैं. दमा या अस्थमा भी इनमें शामिल है. विश्व में २३५ मिलियन लोगों को दमा है. ग्लोबल अस्थमा रिपोर्ट २०११ से यह स्पष्ट है कि दमा नियंत्रण संभव है पर इसके रोकधाम और नियंत्रण के लिए उपचार विधियाँ अधिकाँश दमा-ग्रस्त लोगों की पहुँच के बाहर हैं.

बच्चों में दमा का अनुपात नि:संदेह चिंताजनक है. बच्चों में होने वाली दीर्घकालिक बीमारियों में दमा का अनुपात सबसे अधिक है. इंटरनैशनल यूनियन अगेंस्ट टुबेरकुलोसिस एंड लंग डिसीज़ (द यूनियन) के निदेशक डॉ नील्स बिल्लो का कहना है कि "जब दमा नियंत्रण के लिए उपचार और विधियाँ उपलब्ध हैं तो जरूरतमंद लोगों तक पहुँचने में विलम्ब क्यों हो रही है? यदि दमा का सही विधिवत उपचार न हो या दमा उपचार लोगों की पहुँच के बाहर हो, तो आम लोग कार्यस्थल या विद्यालय आदि नहीं पहुँच पाते हैं, अपने परिवार, समुदाय और समाज के विकास के लिए अपना सहयोग नहीं दे पाते हैं और अक्सर उनको आकस्मक चिकित्सकीय सहायता की जरुरत पड़ती है जो कहीं अधिक महंगी पड़ती है. हर जरूरतमंद दमा ग्रस्त व्यक्ति तक दमा की सेवाएँ पहुंचनी चाहिए."

विश्व में २३५ मिलियन लोगों को दमा है. इन लोगों को जब दमा का दौरा पड़ता है तो सामान्य सांस लेने के लिए अत्यंत संघर्ष करना पड़ता है जिसकी वजह से उनके जीवन की गुणात्मकता कम हो जाती है, विकृत हो जाती है और मृत्यु तक हो सकती है. यदपि दमा उपचार उपलब्ध है परन्तु अधिकाँश लोगों के पहुँच के बाहर है.

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

कार्पोरेट समाजवाद का 2जी महोत्सव

केन्द्रीय बजट औसतन 240 करोड़ रूपये प्रतिदिन के हिसाब से कार्पोरेट आयकर को माफ कर देता है। यह उस राशि के बराबर है जो प्रतिदिन भारत से गैर कानूनी ढंग से विदेशी बैंकों में चली जाती है।

2005-06 से 6 सालों के दौरान भारत सरकार ने सभी बजटों में मिलाकर कार्पोरेट आयकर में 3,74,937 करोड़ रूपये माफ कर दिए जो कि 2जी घोटाले के दोगुने से भी अधिक है। जो आंकड़ा उपलब्ध है उसके अनुसार यह राशि साल-दर-साल बढ़ रही है। 2005-06 में 34,618 करोड़ रूपये का कार्पोरेट आयकर का घाटा दिखाया गया। मौजूदा बजट में यह 88,263 करोड़ रूपये है, जो कि 155 प्रतिशत की वृद्धि है। इस तरह देश  को औसतन 240 करोड़ रूपये प्रतिदिन के हिसाब से कार्पोरेट आयकर का घाटा सहना पड़ता है। अजीब बात है, गैर कानूनी रूप से विदेशी बैंकों में जा रहे काले धन का भी यही रोजाना औसत है, वाशिंगटन आधारित थिंक टैंक, ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रीटी की रिपोर्ट के अनुसार।

यह 88,263 करोड़ रूपया सिर्फ कार्पोरेट आयकर घाटे का विवरण है, जनता के व्यापक हिस्से के लिए ऊँची छूट सीमा की वजह से होने वाली आयकर राजस्व माफी इस आंकड़े में शामिल नहीं है, न ही वरिष्ठ नागरिकों (पिछले बजटों में) या महिलाओं को मिलने वाली छूट में वृद्धि। यह सिर्फ कार्पोरेट संसार के बड़े खिलाड़ियों के आयकर की बात है।

प्रणव मुखर्जी ने अपने मौजूदा बजट में जहाँ कार्पोरेट घरानों को इतनी विशाल धनराशि की छूट दी, वहीं कृषि क्षेत्र में हजारों करोड़ की कटौती की। जैसा कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज के. आर. राजकुमार ने रेखांकित किया है कि इस क्षेत्र में राजस्व खर्च के मद में ‘‘5,568 करोड़ रूपये की निरपेक्ष गिरावट है। कृषि क्षेत्र में सबसे बड़ी गिरावट फसल संसाधनों के प्रबंधन के क्षेत्र में है, 4,477 करोड़ रूपये निरपेक्ष कटौती के साथ।’’ यह इस क्षेत्र में अन्य चीजों के अलावा विस्तार सेवाओं के मौत का सूचक है। दरअसल, ‘‘आर्थिक सेवाओं में, सर्वाधिक कटौती कृषि तथा संबद्ध सेवाओं में हुई है’’। कार्पोरेट घरानों की भारी छूट के कारण होने वाले राजस्व नुकसान को कपिल सिब्बल भी काल्पनिक कहकर उसका बचाव नहीं कर सकते है, क्योंकि हर बजट में ये गणनाएँ साफ तौर पर एक सेक्शन की तालिका में मौजूद रहती है, जिसे ‘राजस्व माफी पर वक्तव्य’ कहा जाता है। यदि हम इसमें कार्पोरेट कर्जमाफी, सीमा शुल्क एवं उत्पाद शुल्क में राजस्व माफी-जोकि भारी पैमाने पर कार्पोरेट संसार तथा समाज के खुशहाल हिस्सों को फायदा पहुँचा रही है, को जोड़ दे तो यह रकम चौकाने वाली है। उदाहरण के लिए कौन सी प्रमुख वस्तुएँ है जिन पर सीमा शुल्क के रूप में राजस्व माफी की गयी है ? हीरा और सोना। जहिर है ये आम आदमी या औरत की वस्तुएँ नहीं है। मौजूदा बजट के अन्दर सीमा शुल्क की राजस्व माफी का सबसे बड़ा अंश यही है, 48,798 करोड़ रूपये। यह हर साल सार्वभौमिक पी.डी.एस. व्यवस्था चलने पर होने वाले अनुमानित खर्च के आधे से भी अधिक है। पिछले तीन सालों में सोना, हीरा और ज्वैलरी में कुल 95,765 करोड़ रूपये का सीमा शुल्क माफ किया गया है।

यह भारत है, यहाँ निजी मुनाफे के लिए सार्वजनिक धन की हर लूट गरीबों के नाम पर होती है। आप पहले से ही इसके लिए तर्क सुन सकते सोना और हीरे की खातिर यह जबरदस्त छूट वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में गरीब कामगारों के रोजगार को बचाने के लिए है। क्या खूब ! लेकिन इसने सूरत या और भी कहीं शायद ही एक भी नौकरी बचाई हो। तमाम उड़िया मजदूर उद्योग बंद हो जाने से बेरोजगार होकर सूरत से गंजाम अपने घरों को लौट गए। कई अन्य मजदूरों ने हताश में अपनी जान दे दी। दरअसल उद्योग के लिए यह सरकारी कृपा 2008 के संकट के पहले से ही है। महाराष्ट्र के उद्योगों ने केंद्र के कार्पोरेट समाजवाद का भरपूर लाभ उठाया। फिर भी 2008 से पहले के तीन वर्षों में राज्य में औसतन योजना 1,800 मजदूरों ने अपना रोजगार खोया।

बजट पर लौटे यहाँ ‘‘मशीनरी’’ की एक अलग श्रेणी भी है, इसमें भी सीमा शुल्क में भारी छूट है। इसमें शामिल हैं करोड़ों रूपये के आधुनिक चिकित्सकीय उपकरण जो बड़े कार्पोरेट अस्पतालों द्वारा आयातित हुए, जिन पर करीब-करीब कोई भी कर नहीं लगाया गया। यह दावा कि वे 30 प्रतिशत नि:शुल्क बिस्तर गरीबों को देंगे-जो कि कभी नही होता है- अरबों रू0 वाले इस उद्योग द्वारा इन ‘फायदों’ (दूसरे अन्य फायदों के साथ) को हासिल करने का बहाना भर है। मौजूदा बजट में सीमा शुल्क के रूप में कुल राजस्व माफी 1,74,418 करोड़ रू0 हैं। (इसमें निर्यात क्रेडिट संबंधी रकम शामिल नहीं है)

वास्तव में उत्पाद शुल्क के बारे में हमेशा ही यह दावा किया जाता है कि उत्पाद शुल्क की राजस्व माफी कीमतों में कमी के रूप में ग्राहकों को फायदा पहुँचाती है। इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि सचमुच ऐसा है। न तो बजट में न ही कहीं और (इसी तरह के तर्क आज कल तमिलनाडु के कुछ गाँवों में सुनाई देते है, कि 2जी घोटाले में कोई लूट नहीं हुई, यह तो वह धन है जो जनता को सस्ती कालों के रूप में मिल रहा है) जो साफ तौर पर दिख रहा है वह यह है कि उत्पाद शुल्क पर माफी सीधे तौर पर उद्योग और व्यापार को फायदा पहुँचाती है। इसके परोक्ष रूप से उपभोक्ताओं को लाभ पहुँचाने की बात स्पष्टत: अटकलबाजी है, न कि कोई प्रमाणिक बात।

इस बजट में उत्पाद शुल्क के तौर पर कुल राजस्व हानि है 1,98,291 करोड़ रूपये, जो 2जी घोटाले के अधिकतम अनुमान से अधिक है। (पिछले वर्ष 1,69,121 करोड़ रूपये)

यह भी मजेदार है कि इन तीनों राजस्व माफियों से वही वर्ग तमाम तरीकों से फायदा उठाते है। लेकिन आयकर, सीमा एवं उत्पाद शुल्क के रूप में कुल कितनी राजस्व हानि हुई। हमारे पास 2005-06 से 6 साल के बजट  आंकड़े  है, तब यह 2,29,108 करोड़ रूपये थी। मौजूदा बजट में यह 4,60,972 करोड़ रूपये है, यानि दो गुना से भी अधिक। 2005-06 के बाद सारी रकम जोड़ी जाए तो यह कुल 21,25,023 करोड़ रूपये है। यह 2जी नुकसान से सिर्फ 12 गुना नहीं है, यह 21 लाख करोड़ रूपये के बराबर या उससे अधिक की रकम है और ग्लोबल फाइनेशियल इंटीग्रिटी की रिपोर्ट के अनुसार 1948 के बाद से अब तक इतनी ही रकम इस देश से गैर कानूनी तरीके से बाहर ले जायी गयी और विदेशी बैंकों में जमा की गयी। यह लूट 2005-06 से 6 साल में घटित हुई है। मौजूदा बजट आंकड़े में इन तीनों मदों में कुल वृद्धि 2005-06 की तुलना में 101 प्रतिशत है। गैर कानूनी धन आव्रजन के विपरीत इस लूट को कानूनी जामा दिया गया है। उन आव्रजनों के उलट यह कोई निजी अपराध का मामला नहीं है। यह सरकार की नीति का मामला है। यह केंद्रीय बजट का अंग है। यह संसाधनों और संपदा का दौलत मंदों और कार्पोरेट संसार के लिए सबसे बड़ा धन हस्तांतरण है, जिसकी तरफ मीडिया कभी भी रूख नहीं करती है। अजीब बात है कि बजट खुद इस बात की तस्दीक करता है कि यह बेहत प्रतिगामी प्रवृत्ति है। पिछले साल के बजट में नोट है : ‘‘राजस्व माफी की रकम साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। कुल कर संग्रह के प्रतिशत के लिहाज से कार्पोरेट आयकर में राजस्व माफी काफी अधिक है और वित्तीय वर्ष 2008-09 में कार्पोरेट आयकर माफी में बढ़ोत्तरी का ट्रेंड हैं। 2009-10 में सीमा एवं उत्पाद शुल्क में कटौती के कारण अप्रत्यक्ष कर में माफी में उल्लेखनीय वृद्धि का ट्रेंड है। इस प्रवृत्ति को उलटने के लिए कर आधार को व्यापक बनाने की जरूरत है।’’

एक साल पीछे चलें। 2009-10 का बजट इसी बात को करीब-करीब इन्हीं शब्दों में कहता है। केवल अंतिम लाइन ही भिन्न है ‘‘इसलिए उच्चकर संग्रह बनाए रखने के लिए इस प्रवृत्ति को उलटने की जरूरत है।’’ मौजूदा बजट में यह पैराग्राफ गायब है।

इस सरकार के पास सार्वभौमिक पी.डी.एस. चलाने या उसे व्यापक बनाने के लिए धन नहीं है।  यह दुनिया की सबसे भूखी आबादी को मिलने वाली बहुत ही कम खाद्य सब्सिडी में भी कटौती करती है, वह भी उस समय जब जबरदस्त महंगाई और भारी खाद्य संकट है, एक ऐसे समय में जब कि इसका खुद का आर्थिक सर्वे बताता है कि 2005-06 के 5 साल की अवधि के दौरान रोजाना प्रति व्यक्ति औसत खाद्यान्न उपलब्धता आधी सदी पूर्व 1955-59 के 5 साल के औसत से भी कम है।

-पी. साईनाथ