कार्पोरेट समाजवाद का 2जी महोत्सव

केन्द्रीय बजट औसतन 240 करोड़ रूपये प्रतिदिन के हिसाब से कार्पोरेट आयकर को माफ कर देता है। यह उस राशि के बराबर है जो प्रतिदिन भारत से गैर कानूनी ढंग से विदेशी बैंकों में चली जाती है।

2005-06 से 6 सालों के दौरान भारत सरकार ने सभी बजटों में मिलाकर कार्पोरेट आयकर में 3,74,937 करोड़ रूपये माफ कर दिए जो कि 2जी घोटाले के दोगुने से भी अधिक है। जो आंकड़ा उपलब्ध है उसके अनुसार यह राशि साल-दर-साल बढ़ रही है। 2005-06 में 34,618 करोड़ रूपये का कार्पोरेट आयकर का घाटा दिखाया गया। मौजूदा बजट में यह 88,263 करोड़ रूपये है, जो कि 155 प्रतिशत की वृद्धि है। इस तरह देश  को औसतन 240 करोड़ रूपये प्रतिदिन के हिसाब से कार्पोरेट आयकर का घाटा सहना पड़ता है। अजीब बात है, गैर कानूनी रूप से विदेशी बैंकों में जा रहे काले धन का भी यही रोजाना औसत है, वाशिंगटन आधारित थिंक टैंक, ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रीटी की रिपोर्ट के अनुसार।

यह 88,263 करोड़ रूपया सिर्फ कार्पोरेट आयकर घाटे का विवरण है, जनता के व्यापक हिस्से के लिए ऊँची छूट सीमा की वजह से होने वाली आयकर राजस्व माफी इस आंकड़े में शामिल नहीं है, न ही वरिष्ठ नागरिकों (पिछले बजटों में) या महिलाओं को मिलने वाली छूट में वृद्धि। यह सिर्फ कार्पोरेट संसार के बड़े खिलाड़ियों के आयकर की बात है।

प्रणव मुखर्जी ने अपने मौजूदा बजट में जहाँ कार्पोरेट घरानों को इतनी विशाल धनराशि की छूट दी, वहीं कृषि क्षेत्र में हजारों करोड़ की कटौती की। जैसा कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज के. आर. राजकुमार ने रेखांकित किया है कि इस क्षेत्र में राजस्व खर्च के मद में ‘‘5,568 करोड़ रूपये की निरपेक्ष गिरावट है। कृषि क्षेत्र में सबसे बड़ी गिरावट फसल संसाधनों के प्रबंधन के क्षेत्र में है, 4,477 करोड़ रूपये निरपेक्ष कटौती के साथ।’’ यह इस क्षेत्र में अन्य चीजों के अलावा विस्तार सेवाओं के मौत का सूचक है। दरअसल, ‘‘आर्थिक सेवाओं में, सर्वाधिक कटौती कृषि तथा संबद्ध सेवाओं में हुई है’’। कार्पोरेट घरानों की भारी छूट के कारण होने वाले राजस्व नुकसान को कपिल सिब्बल भी काल्पनिक कहकर उसका बचाव नहीं कर सकते है, क्योंकि हर बजट में ये गणनाएँ साफ तौर पर एक सेक्शन की तालिका में मौजूद रहती है, जिसे ‘राजस्व माफी पर वक्तव्य’ कहा जाता है। यदि हम इसमें कार्पोरेट कर्जमाफी, सीमा शुल्क एवं उत्पाद शुल्क में राजस्व माफी-जोकि भारी पैमाने पर कार्पोरेट संसार तथा समाज के खुशहाल हिस्सों को फायदा पहुँचा रही है, को जोड़ दे तो यह रकम चौकाने वाली है। उदाहरण के लिए कौन सी प्रमुख वस्तुएँ है जिन पर सीमा शुल्क के रूप में राजस्व माफी की गयी है ? हीरा और सोना। जहिर है ये आम आदमी या औरत की वस्तुएँ नहीं है। मौजूदा बजट के अन्दर सीमा शुल्क की राजस्व माफी का सबसे बड़ा अंश यही है, 48,798 करोड़ रूपये। यह हर साल सार्वभौमिक पी.डी.एस. व्यवस्था चलने पर होने वाले अनुमानित खर्च के आधे से भी अधिक है। पिछले तीन सालों में सोना, हीरा और ज्वैलरी में कुल 95,765 करोड़ रूपये का सीमा शुल्क माफ किया गया है।

यह भारत है, यहाँ निजी मुनाफे के लिए सार्वजनिक धन की हर लूट गरीबों के नाम पर होती है। आप पहले से ही इसके लिए तर्क सुन सकते सोना और हीरे की खातिर यह जबरदस्त छूट वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में गरीब कामगारों के रोजगार को बचाने के लिए है। क्या खूब ! लेकिन इसने सूरत या और भी कहीं शायद ही एक भी नौकरी बचाई हो। तमाम उड़िया मजदूर उद्योग बंद हो जाने से बेरोजगार होकर सूरत से गंजाम अपने घरों को लौट गए। कई अन्य मजदूरों ने हताश में अपनी जान दे दी। दरअसल उद्योग के लिए यह सरकारी कृपा 2008 के संकट के पहले से ही है। महाराष्ट्र के उद्योगों ने केंद्र के कार्पोरेट समाजवाद का भरपूर लाभ उठाया। फिर भी 2008 से पहले के तीन वर्षों में राज्य में औसतन योजना 1,800 मजदूरों ने अपना रोजगार खोया।

बजट पर लौटे यहाँ ‘‘मशीनरी’’ की एक अलग श्रेणी भी है, इसमें भी सीमा शुल्क में भारी छूट है। इसमें शामिल हैं करोड़ों रूपये के आधुनिक चिकित्सकीय उपकरण जो बड़े कार्पोरेट अस्पतालों द्वारा आयातित हुए, जिन पर करीब-करीब कोई भी कर नहीं लगाया गया। यह दावा कि वे 30 प्रतिशत नि:शुल्क बिस्तर गरीबों को देंगे-जो कि कभी नही होता है- अरबों रू0 वाले इस उद्योग द्वारा इन ‘फायदों’ (दूसरे अन्य फायदों के साथ) को हासिल करने का बहाना भर है। मौजूदा बजट में सीमा शुल्क के रूप में कुल राजस्व माफी 1,74,418 करोड़ रू0 हैं। (इसमें निर्यात क्रेडिट संबंधी रकम शामिल नहीं है)

वास्तव में उत्पाद शुल्क के बारे में हमेशा ही यह दावा किया जाता है कि उत्पाद शुल्क की राजस्व माफी कीमतों में कमी के रूप में ग्राहकों को फायदा पहुँचाती है। इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि सचमुच ऐसा है। न तो बजट में न ही कहीं और (इसी तरह के तर्क आज कल तमिलनाडु के कुछ गाँवों में सुनाई देते है, कि 2जी घोटाले में कोई लूट नहीं हुई, यह तो वह धन है जो जनता को सस्ती कालों के रूप में मिल रहा है) जो साफ तौर पर दिख रहा है वह यह है कि उत्पाद शुल्क पर माफी सीधे तौर पर उद्योग और व्यापार को फायदा पहुँचाती है। इसके परोक्ष रूप से उपभोक्ताओं को लाभ पहुँचाने की बात स्पष्टत: अटकलबाजी है, न कि कोई प्रमाणिक बात।

इस बजट में उत्पाद शुल्क के तौर पर कुल राजस्व हानि है 1,98,291 करोड़ रूपये, जो 2जी घोटाले के अधिकतम अनुमान से अधिक है। (पिछले वर्ष 1,69,121 करोड़ रूपये)

यह भी मजेदार है कि इन तीनों राजस्व माफियों से वही वर्ग तमाम तरीकों से फायदा उठाते है। लेकिन आयकर, सीमा एवं उत्पाद शुल्क के रूप में कुल कितनी राजस्व हानि हुई। हमारे पास 2005-06 से 6 साल के बजट  आंकड़े  है, तब यह 2,29,108 करोड़ रूपये थी। मौजूदा बजट में यह 4,60,972 करोड़ रूपये है, यानि दो गुना से भी अधिक। 2005-06 के बाद सारी रकम जोड़ी जाए तो यह कुल 21,25,023 करोड़ रूपये है। यह 2जी नुकसान से सिर्फ 12 गुना नहीं है, यह 21 लाख करोड़ रूपये के बराबर या उससे अधिक की रकम है और ग्लोबल फाइनेशियल इंटीग्रिटी की रिपोर्ट के अनुसार 1948 के बाद से अब तक इतनी ही रकम इस देश से गैर कानूनी तरीके से बाहर ले जायी गयी और विदेशी बैंकों में जमा की गयी। यह लूट 2005-06 से 6 साल में घटित हुई है। मौजूदा बजट आंकड़े में इन तीनों मदों में कुल वृद्धि 2005-06 की तुलना में 101 प्रतिशत है। गैर कानूनी धन आव्रजन के विपरीत इस लूट को कानूनी जामा दिया गया है। उन आव्रजनों के उलट यह कोई निजी अपराध का मामला नहीं है। यह सरकार की नीति का मामला है। यह केंद्रीय बजट का अंग है। यह संसाधनों और संपदा का दौलत मंदों और कार्पोरेट संसार के लिए सबसे बड़ा धन हस्तांतरण है, जिसकी तरफ मीडिया कभी भी रूख नहीं करती है। अजीब बात है कि बजट खुद इस बात की तस्दीक करता है कि यह बेहत प्रतिगामी प्रवृत्ति है। पिछले साल के बजट में नोट है : ‘‘राजस्व माफी की रकम साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। कुल कर संग्रह के प्रतिशत के लिहाज से कार्पोरेट आयकर में राजस्व माफी काफी अधिक है और वित्तीय वर्ष 2008-09 में कार्पोरेट आयकर माफी में बढ़ोत्तरी का ट्रेंड हैं। 2009-10 में सीमा एवं उत्पाद शुल्क में कटौती के कारण अप्रत्यक्ष कर में माफी में उल्लेखनीय वृद्धि का ट्रेंड है। इस प्रवृत्ति को उलटने के लिए कर आधार को व्यापक बनाने की जरूरत है।’’

एक साल पीछे चलें। 2009-10 का बजट इसी बात को करीब-करीब इन्हीं शब्दों में कहता है। केवल अंतिम लाइन ही भिन्न है ‘‘इसलिए उच्चकर संग्रह बनाए रखने के लिए इस प्रवृत्ति को उलटने की जरूरत है।’’ मौजूदा बजट में यह पैराग्राफ गायब है।

इस सरकार के पास सार्वभौमिक पी.डी.एस. चलाने या उसे व्यापक बनाने के लिए धन नहीं है।  यह दुनिया की सबसे भूखी आबादी को मिलने वाली बहुत ही कम खाद्य सब्सिडी में भी कटौती करती है, वह भी उस समय जब जबरदस्त महंगाई और भारी खाद्य संकट है, एक ऐसे समय में जब कि इसका खुद का आर्थिक सर्वे बताता है कि 2005-06 के 5 साल की अवधि के दौरान रोजाना प्रति व्यक्ति औसत खाद्यान्न उपलब्धता आधी सदी पूर्व 1955-59 के 5 साल के औसत से भी कम है।

-पी. साईनाथ