पूर्व केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने सुप्रीम कोर्ट निर्णय की समालोचना की

[English] हाल ही में सेवा-निवृत्त हुए केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी लखनऊ में सभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की समालोचना की जिसमें कि सूचना आयुक्त का न्यायिक पृष्ठभूमि से होना अनिवार्य किया गया है और सब सुनवाई 2 सूचना आयुक्त की बेंच द्वारा होना (2 में से 1 सूचना आयुक्त कम-से-कम न्यायिक पृष्ठभूमि का हो) भी अनिवार्य किया गया है। उन्होने वाजिब तर्क दिये कि सूचना आयोग में क्यों न्यायिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति का होना अनिवार्य नहीं होना चाहिए। उनका तर्क था कि सूचना आयोग को सिर्फ यह निर्णय लेना होता है कि सूचना देनी है या नहीं।


कुछ न्यायिक विचार जरूरी होता है जब सूचना ऐसी मांगी जाये जो सूचना अधिकार कानून के दायरे में न आए, परंतु ऐसे मामले बहुत कम होते हैं। शैलेश गांधी ने अपने केन्द्रीय सूचना आयुक्त के कार्यकाल में 20,000 केस निबटाये जिसमें से सिर्फ 2 ऐसे थे जिनमें न्यायिक सलाह की आवश्यकता थी। उन्होने प्रश्न किया कि जब बिना न्यायिक पृष्ठभूमि के आईएएस अधिकारी  अर्ध-न्यायिक भूमिका निभा सकते हैं तो सूचना आयुक्त क्यों नहीं? उन्होने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का यह कहना सही नहीं है कि 75% अधिकारी 75% समय सिर्फ सूचना प्रदान करने में लगा रहे हैं। उनके अंकलन के हिसाब से 4.6% अधिकारी 4.6% से भी कम समय सूचना अधिकार कानून में व्यय करते हैं। उन्होने कहा कि वही सुप्रीम कोर्ट जो सूचना अधिकार कानून बनने के पहले सूचना अधिकार का समर्थन करता था, अब वही उसको कमजोर बनाने पर उतारू है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट भी सूचना अधिकार कानून के दायरे में आता है। उन्होने एक सूचना अधिकार कानून के उपयोग का उदाहरण दिया जिसमें सूचना अधिकार कानून के इस्तेमाल से यह तथ्य सामने आया कि एक सुप्रीम कोर्ट जज ऑस्ट्रेलिया, शिकागो होते हुए गए थे। इसी तरह के सूचना अधिकार कानून के उपयोग कुछ जजों को 'संताप देने वाला' लग रहे हैं और प्रधान मंत्री को ऐसी जानकारी 'निजी' लगती है। उन्होने कहा कि जनता के पैसे का दुरुपयोग और अपने पद का अनुचित लाभ उठाना न्यायपालिका के लिए भी उतना ही गलत है जितना औरों के लिए।

शैलेश गांधी लखनऊ के जय शंकर प्रसाद सभागार में 'सूचना अधिकार अभियान उत्तर प्रदेश' और 'लोक सूचनाधिकार मंच' के तत्वावधान में आयोजित सभा को संबोधित कर रहे थे। हाई कोर्ट के सेवा निवृत्त जज प्रदीप कान्त ने चेत रहने की सलाह दी और कहा कि वे निश्चित रूप से सूचना अधिकार कानून को कमजोर बनाने के पक्ष में नहीं हैं या अनुचित कार्य करने वालों को बचाने के पक्ष में भी नहीं हैं, परंतु उनका मानना है कि सभी निर्णय कानून के दायरे में रह कर ही लिए जाएँ।

राज्यपाल के पूर्व न्यायिक सलाहकार चन्द्र भूषण पांडे ने कहा कि उन्हीं लोगों को सूचना आयुक्त बनाया जाना चाहिए जो सामाजिक बदलाव की सकारात्मक सोच रखता हो। उन्होने कहा कि लोग, अपने काबिलियत की जगह अपने राजनैतिक जान-पहचान की वजह से सूचना आयुक्त बन रहे हैं।

पूर्व राज्य सूचना आयुक्त ज्ञानेन्द्र शर्मा और सामाजिक कार्यकर्ता नवीन तिवारी ने भी सभा को संबोधित किया। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और सेवा निवृत्त पुलिस अधिकारी एसआर दारापुरी ने सभा का समापन किया। मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय भी मुख्य आयोजकों में से एक रहे।

यह सभा, 'सूचना अधिकार अभियान, उत्तर प्रदेश' और 'लोक सूचनाधिकार मंच' के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित की गयी थी।