“हमारे परिप्रेक्ष्य में विश्व टीबी रिपोर्ट 2012 के क्या मायने हैं?” नामक रिपोर्ट हिन्दी एवं अँग्रेजी भाषाओं में प्रख्यात सर्जन एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त द्वारा विमोचित हुई। यह रिपोर्ट, “सीएनएस दृष्टिकोण” शृंखला के अंतर्गत जारी की गयी है जो स्वास्थ्य से जुड़े सामयिक प्रकाशनों का हमारे परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण प्रस्तुत करती है। इस रिपोर्ट में, विश्व टीबी रिपोर्ट 2012 को पढ़ कर भारत के पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम, पूर्व वर्षों में जारी हुई टीबी रिपोर्टों और स्टॉप-टीबी ग्लोबल प्लान 2011-2015 के परिप्रेक्ष्य में सीएनएस द्वारा विश्लेषण किया गया है। इसको सीएनएस संपादिका शोभा शुक्ला ने बंगलुरु की भारती घनश्याम, बाबी रमाकांत, राहुल द्विवेदी और रितेश आर्या के साथ लिखा है और स्वास्थ्य को वोट अभियान, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सीएनएस), जर्नलिस्ट्स अगेन्स्ट टीबी, हेल्थ राइटर्स, आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, और ग्लोबल स्टॉप-टीबी ई-फोरम ने संयुक्त रूप से प्रकाशित किया है।
टीबी कार्यक्रम अपने 2015 के लक्ष्य की ओर अग्रसर2011 में विश्व में अनुमानित 87 लाख टीबी के नए रोगी थे जिनमें से केवल 58 लाख को उपचार मिल सका। यह कुल अनुमानित टीबी रोगियों का 66 प्रतिशत है। यानि कि 2011 में 34 प्रतिशत या 30 लाख ऐसे टीबी रोगी थे जिन्हें या तो कोई उपचार मिला ही नहीं या उचित उपचार सेवा नहीं प्राप्त हुई। दुःख की बात है कि यह संख्या पिछले 3 सालों से एकसमान रही है।
2011 में, भारत में टीबी के 22 लाख रोगी थे हालांकि यह पिछले साल के मुक़ाबले 1 लाख कम थी। फिर भी भारत विश्व का सबसे अधिक टीबी भार वहन करता है (26 प्रतिशत) और दूसरे नंबर पर चीन है।
पहली बार, इस रिपोर्ट में, बाल-टीबी पर आंकड़ें प्रस्तुत किए गए हैं जिनके अनुसार 2011 में 5 लाख बच्चे टीबी से ग्रसित थे तथा 64,000 की मृत्यु हो गयी।
1990 से अब तक टीबी की मृत्यु दर में 41% की कमी आई है और ऐसा प्रतीत होता है कि स्टॉप-टीबी ग्लोबल प्लान (2011-2015) के लक्ष्य के अनुसार 2015 तक टीबी मृत्यु दर 50 प्रतिशत कम हो सकेगी। 1995 और 2011 के बीच में 5.1 करोड़ टीबी रोगियों को सफलतापूर्वक उचित टीबी उपचार मिल सका जिसके कारण 2 करोड़ जीवन बचाए जा सके।
दवा प्रतिरोधक टीबी (एमडीआर-टीबी)पर ये आशावादी आंकड़ें दवा प्रतिरोधक टीबी (एमडीआर-टीबी) पर नहीं लागू होते हैं जिसका प्रकोप निरंतर बना हुआ है। विश्व स्तर पर 2015 तक सभी एमडीआर-टीबी के रोगियों को उचित जांच और उपचार प्रदान करने का तथा कम-से-कम 75% ‘उपचार सफलता दर’ प्राप्त करने का लक्ष्य है। परंतु वर्तमान में 107 में से केवल 30 देशों में ही उपचार सफलता दर 75 प्रतिशत या उससे अधिक है, और 77 देशों में यह दर बहुत ही कम है। यह भी नहीं पता है कि 27 अधिक एमडीआर-टीबी (दवा प्रतिरोधक टीबी) वाले चिह्नित देशों में उपचार सफलता दर क्या है?
विश्व स्तर पर 2011 में 440,000 अनुमानित एमडीआर-टीबी (दवा प्रतिरोधक टीबी) रोगियों में से केवल 60,000 (14 प्रतिशत) रोगियों को चिह्नित किया गया है।
भारत में 4% से भी कम एमडीआर-टीबी रोगियों को उपचार प्राप्त हो रहा है। 96% एमडीआर-टीबी रोगियों को बिना-जांच- बिना उपचार छोडना जन स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय दोनों की ही अवमानना है।
स्टॉप-टीबी ग्लोबल प्लान के अनुसार सभी 27 अधिक एमडीआर-टीबी वाले देशों में उनके उपचार संबंधी ऑनलाइन आंकड़ों का संकलन 2015 तक बन जाना चाहिए। 20 देशों ने ऐसा कर भी लिया है परंतु भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे अधिक एमडीआर-टीबी भार वहन करता है, वहाँ पर अभी तक यह एमडीआर-टीबी संबंधी आंकड़ें ऑनलाइन नहीं हैं।
भारत में दवा-प्रतिरोधक टीबी की जांच करने के लिए केवल 37 ऐसी प्रयोगशालाएँ हैं जिन्हें डीएसटी लैब कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक 5 करोड़ जन संख्या के लिए केवल 1 डीएसटी लैब है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि प्रत्येक 50 लाख लोगों के लिए एक डीएसटी लैब होनी चाहिए।
भारत सरकार के पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम की योजना आयोग को दी गयी 2011 रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति वर्ष 99,000 एमडीआर-टीबी या दवा प्रतिरोधक टीबी के नए रोगी अनुमानित हैं, परंतु 2007 में शुरू की गईं ‘डाट्स-प्लस’ सेवाओं के अंतर्गत अभी तक केवल 19,178 टीबी रोगियों की एमडीआर-टीबी के लिए जांच की गयी जिनमें से 5365 को एमडीआर-टीबी थी और इनमें से मात्र 3610 को उपचार शुरू किया गया। विश्व टीबी रिपोर्ट 2012 के अनुसार, 2011 में भारत में 4237 लोगों में एमडीआर-टीबी पायी गयी जिनमें से केवल 3384 का उपचार शुरू किया गया। प्रश्न यह है कि जब प्रतिवर्ष 99,000 एमडीआर-टीबी रोगी अनुमानित हैं तो केवल 3-4% को ही इलाज क्यों उपलब्ध हो पा रहा है? इसका सीधा तात्पर्य यह है कि प्रतिवर्ष लगभग 97,000 लोग एमडीआर-टीबी के उपचार से वंचित है। यह भारत और विश्व टीबी नियंत्रण के लिए एक शर्मनाक स्थिति है।
2012 में, भारत में टीबी सीरोलाजिक टेस्ट पर लगा प्रतिबंधभारत सरकार ने 7 जून 2012 के बाद से टीबी सीरोलोजिकल टेस्ट के इस्तेमाल, बिक्री, आयात, या निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया है क्योंकि यह टेस्ट अत्यधिक महंगा होने के साथ-साथ टीबी परीक्षण के लिए उपयुक्त भी नहीं है। भारत के पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम ने कभी भी इन टीबी सीरोलोजिकल टेस्ट को समर्थन नहीं दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी जुलाई 2011 को इन टीबी सीरोलोजिकल टेस्ट के उपयोग के विरोध में भूमिका ली। लखनऊ और बैंग्लोर में सीएनएस लेखकों की रिपोर्ट के अनुसार अनेक निजी ‘पैथोलाजी’ केंद्र यह टेस्ट अभी भी कर रहे हैं और अन्य शहरों में भी शायद यही हाल हो। यह अत्यंत आवश्यक है कि इस कानून को सरकार सख्ती से लागू करे जिससे कि टीबी नियंत्रण कार्यक्रम अधिक सफल हो सके, टीबी दवाओं के प्रति दवा-प्रतिरोधकता कम हो सके, बिना मतलब लोग टीबी दवा न लें और टीबी रोगियों का पैसा व्यर्थ न जाये।
एक्सडीआर-टीबी (अति-दवा प्रतिरोधक टीबी)एक्सडीआर-टीबी (अति-दवा प्रतिरोधक टीबी): विश्व टीबी रिपोर्ट 2012 के अनुसार, भारत समेत 84 देशों में अब तक ‘एक्सडीआर-टीबी’ के रोगी पाये गए हैं। अनुमानत: 9% एमडीआर-टीबी (दवा प्रतिरोधक टीबी) के मरीजों को एक्सडीआर-टीबी (अति-दवा प्रतिरोधक टीबी) है।
टीबी-एचआईवी सह-संक्रमणटीबी-एचआईवी सह-संक्रमण: 2011 में अनुमानित 87 लाख टीबी रोगियों में से 11 लाख एचआईवी से सह-संक्रमित थे। इनमें से केवल 48% को ही ऐंटीरेट्रोवाइरल दवाएं नसीब हो पायीं जबकि डबल्यूएचओ का मानना है कि सभी (100%) टीबी-एचआईवी सह-संक्रमित रोगियों को बिना विलंब ऐंटीरेट्रोवाइरल दवाएं मिलनी चाहियेँ, जो उनके सीडी-4 काउंट पर निर्भर न हो।
विश्व के पाँच सबसे अधिक टीबी-एचआईवी सह-संक्रमण से जूझ रहे देशों में से भारत भी एक देश है। 2011 में भारत में 6.89 लाख लोग टीबी-एचआईवी से सह-संक्रमित थे। भारत में अनुमानित टीबी रोगियों (22 लाख) में से सिर्फ 45% का ही एचआईवी परीक्षण हुआ जिनमें से 45,000 टीबी रोगी (6.5%) एचआईवी से ग्रसित पाये गए। इन 45,000 टीबी-एचआईवी सह-संक्रमित रोगियों में से केवल 59% को ऐंटीरेट्रोवाइरल उपचार (एआरटी) शुरू किया जा सका।
टीबी की नयी दवाएंटीबी की नयी दवाएं: इस समय 11 नयी दवाएं तथा 12 नयी ‘वैक्सीन’ (टीबी प्रतिरोधक टीका) शोध प्रक्रिया के विभिन्न चरणों में हैं।
टीबी कार्यक्रम का वित्त पोषणटीबी कार्यक्रम का वित्त पोषण: वर्तमान में 2013-2015 के लिए अंतर्राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण के लिए अमरीकी डालर 8 अरब की जरूरत है जिसमें से अमरीकी डालर 5 अरब हैं, और अमरीकी डालर 3 अरब की कमी है। 2010 में टीबी की नयी जाँचें, दवाएं और वैक्सीन आदि के शोध के लिए अमरीकी डालर 2 अरब की जरूरत थी जिसमें से अमरीकी डालर 60 करोड़ तो उपलब्ध हो पाये परंतु अमरीकी डालर 1.4 अरब की कमी रही।
2011 में भारत में टीबी नियंत्रण का कुल बजट अमरीकी डालर 13.9 करोड़ था जो पूर्णत: उपलब्ध रहा, कमी नहीं रही और इस अमरीकी डालर 13.9 करोड़ में से 44% भारत सरकार और देसी दाता संस्थाओं से प्राप्त हुआ और 49% “ग्लोबल फ़ंड टू फाइट एड्स, टीबी एंड मलेरिया” द्वारा उपलब्ध कराया गया।
शोभा शुक्ला, बाबी रमाकांत - सीएनएस
टीबी कार्यक्रम अपने 2015 के लक्ष्य की ओर अग्रसर2011 में विश्व में अनुमानित 87 लाख टीबी के नए रोगी थे जिनमें से केवल 58 लाख को उपचार मिल सका। यह कुल अनुमानित टीबी रोगियों का 66 प्रतिशत है। यानि कि 2011 में 34 प्रतिशत या 30 लाख ऐसे टीबी रोगी थे जिन्हें या तो कोई उपचार मिला ही नहीं या उचित उपचार सेवा नहीं प्राप्त हुई। दुःख की बात है कि यह संख्या पिछले 3 सालों से एकसमान रही है।
2011 में, भारत में टीबी के 22 लाख रोगी थे हालांकि यह पिछले साल के मुक़ाबले 1 लाख कम थी। फिर भी भारत विश्व का सबसे अधिक टीबी भार वहन करता है (26 प्रतिशत) और दूसरे नंबर पर चीन है।
पहली बार, इस रिपोर्ट में, बाल-टीबी पर आंकड़ें प्रस्तुत किए गए हैं जिनके अनुसार 2011 में 5 लाख बच्चे टीबी से ग्रसित थे तथा 64,000 की मृत्यु हो गयी।
1990 से अब तक टीबी की मृत्यु दर में 41% की कमी आई है और ऐसा प्रतीत होता है कि स्टॉप-टीबी ग्लोबल प्लान (2011-2015) के लक्ष्य के अनुसार 2015 तक टीबी मृत्यु दर 50 प्रतिशत कम हो सकेगी। 1995 और 2011 के बीच में 5.1 करोड़ टीबी रोगियों को सफलतापूर्वक उचित टीबी उपचार मिल सका जिसके कारण 2 करोड़ जीवन बचाए जा सके।
दवा प्रतिरोधक टीबी (एमडीआर-टीबी)पर ये आशावादी आंकड़ें दवा प्रतिरोधक टीबी (एमडीआर-टीबी) पर नहीं लागू होते हैं जिसका प्रकोप निरंतर बना हुआ है। विश्व स्तर पर 2015 तक सभी एमडीआर-टीबी के रोगियों को उचित जांच और उपचार प्रदान करने का तथा कम-से-कम 75% ‘उपचार सफलता दर’ प्राप्त करने का लक्ष्य है। परंतु वर्तमान में 107 में से केवल 30 देशों में ही उपचार सफलता दर 75 प्रतिशत या उससे अधिक है, और 77 देशों में यह दर बहुत ही कम है। यह भी नहीं पता है कि 27 अधिक एमडीआर-टीबी (दवा प्रतिरोधक टीबी) वाले चिह्नित देशों में उपचार सफलता दर क्या है?
विश्व स्तर पर 2011 में 440,000 अनुमानित एमडीआर-टीबी (दवा प्रतिरोधक टीबी) रोगियों में से केवल 60,000 (14 प्रतिशत) रोगियों को चिह्नित किया गया है।
भारत में 4% से भी कम एमडीआर-टीबी रोगियों को उपचार प्राप्त हो रहा है। 96% एमडीआर-टीबी रोगियों को बिना-जांच- बिना उपचार छोडना जन स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय दोनों की ही अवमानना है।
स्टॉप-टीबी ग्लोबल प्लान के अनुसार सभी 27 अधिक एमडीआर-टीबी वाले देशों में उनके उपचार संबंधी ऑनलाइन आंकड़ों का संकलन 2015 तक बन जाना चाहिए। 20 देशों ने ऐसा कर भी लिया है परंतु भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे अधिक एमडीआर-टीबी भार वहन करता है, वहाँ पर अभी तक यह एमडीआर-टीबी संबंधी आंकड़ें ऑनलाइन नहीं हैं।
भारत में दवा-प्रतिरोधक टीबी की जांच करने के लिए केवल 37 ऐसी प्रयोगशालाएँ हैं जिन्हें डीएसटी लैब कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक 5 करोड़ जन संख्या के लिए केवल 1 डीएसटी लैब है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि प्रत्येक 50 लाख लोगों के लिए एक डीएसटी लैब होनी चाहिए।
भारत सरकार के पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम की योजना आयोग को दी गयी 2011 रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति वर्ष 99,000 एमडीआर-टीबी या दवा प्रतिरोधक टीबी के नए रोगी अनुमानित हैं, परंतु 2007 में शुरू की गईं ‘डाट्स-प्लस’ सेवाओं के अंतर्गत अभी तक केवल 19,178 टीबी रोगियों की एमडीआर-टीबी के लिए जांच की गयी जिनमें से 5365 को एमडीआर-टीबी थी और इनमें से मात्र 3610 को उपचार शुरू किया गया। विश्व टीबी रिपोर्ट 2012 के अनुसार, 2011 में भारत में 4237 लोगों में एमडीआर-टीबी पायी गयी जिनमें से केवल 3384 का उपचार शुरू किया गया। प्रश्न यह है कि जब प्रतिवर्ष 99,000 एमडीआर-टीबी रोगी अनुमानित हैं तो केवल 3-4% को ही इलाज क्यों उपलब्ध हो पा रहा है? इसका सीधा तात्पर्य यह है कि प्रतिवर्ष लगभग 97,000 लोग एमडीआर-टीबी के उपचार से वंचित है। यह भारत और विश्व टीबी नियंत्रण के लिए एक शर्मनाक स्थिति है।
2012 में, भारत में टीबी सीरोलाजिक टेस्ट पर लगा प्रतिबंधभारत सरकार ने 7 जून 2012 के बाद से टीबी सीरोलोजिकल टेस्ट के इस्तेमाल, बिक्री, आयात, या निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया है क्योंकि यह टेस्ट अत्यधिक महंगा होने के साथ-साथ टीबी परीक्षण के लिए उपयुक्त भी नहीं है। भारत के पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम ने कभी भी इन टीबी सीरोलोजिकल टेस्ट को समर्थन नहीं दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी जुलाई 2011 को इन टीबी सीरोलोजिकल टेस्ट के उपयोग के विरोध में भूमिका ली। लखनऊ और बैंग्लोर में सीएनएस लेखकों की रिपोर्ट के अनुसार अनेक निजी ‘पैथोलाजी’ केंद्र यह टेस्ट अभी भी कर रहे हैं और अन्य शहरों में भी शायद यही हाल हो। यह अत्यंत आवश्यक है कि इस कानून को सरकार सख्ती से लागू करे जिससे कि टीबी नियंत्रण कार्यक्रम अधिक सफल हो सके, टीबी दवाओं के प्रति दवा-प्रतिरोधकता कम हो सके, बिना मतलब लोग टीबी दवा न लें और टीबी रोगियों का पैसा व्यर्थ न जाये।
एक्सडीआर-टीबी (अति-दवा प्रतिरोधक टीबी)एक्सडीआर-टीबी (अति-दवा प्रतिरोधक टीबी): विश्व टीबी रिपोर्ट 2012 के अनुसार, भारत समेत 84 देशों में अब तक ‘एक्सडीआर-टीबी’ के रोगी पाये गए हैं। अनुमानत: 9% एमडीआर-टीबी (दवा प्रतिरोधक टीबी) के मरीजों को एक्सडीआर-टीबी (अति-दवा प्रतिरोधक टीबी) है।
टीबी-एचआईवी सह-संक्रमणटीबी-एचआईवी सह-संक्रमण: 2011 में अनुमानित 87 लाख टीबी रोगियों में से 11 लाख एचआईवी से सह-संक्रमित थे। इनमें से केवल 48% को ही ऐंटीरेट्रोवाइरल दवाएं नसीब हो पायीं जबकि डबल्यूएचओ का मानना है कि सभी (100%) टीबी-एचआईवी सह-संक्रमित रोगियों को बिना विलंब ऐंटीरेट्रोवाइरल दवाएं मिलनी चाहियेँ, जो उनके सीडी-4 काउंट पर निर्भर न हो।
विश्व के पाँच सबसे अधिक टीबी-एचआईवी सह-संक्रमण से जूझ रहे देशों में से भारत भी एक देश है। 2011 में भारत में 6.89 लाख लोग टीबी-एचआईवी से सह-संक्रमित थे। भारत में अनुमानित टीबी रोगियों (22 लाख) में से सिर्फ 45% का ही एचआईवी परीक्षण हुआ जिनमें से 45,000 टीबी रोगी (6.5%) एचआईवी से ग्रसित पाये गए। इन 45,000 टीबी-एचआईवी सह-संक्रमित रोगियों में से केवल 59% को ऐंटीरेट्रोवाइरल उपचार (एआरटी) शुरू किया जा सका।
टीबी की नयी दवाएंटीबी की नयी दवाएं: इस समय 11 नयी दवाएं तथा 12 नयी ‘वैक्सीन’ (टीबी प्रतिरोधक टीका) शोध प्रक्रिया के विभिन्न चरणों में हैं।
टीबी कार्यक्रम का वित्त पोषणटीबी कार्यक्रम का वित्त पोषण: वर्तमान में 2013-2015 के लिए अंतर्राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण के लिए अमरीकी डालर 8 अरब की जरूरत है जिसमें से अमरीकी डालर 5 अरब हैं, और अमरीकी डालर 3 अरब की कमी है। 2010 में टीबी की नयी जाँचें, दवाएं और वैक्सीन आदि के शोध के लिए अमरीकी डालर 2 अरब की जरूरत थी जिसमें से अमरीकी डालर 60 करोड़ तो उपलब्ध हो पाये परंतु अमरीकी डालर 1.4 अरब की कमी रही।
2011 में भारत में टीबी नियंत्रण का कुल बजट अमरीकी डालर 13.9 करोड़ था जो पूर्णत: उपलब्ध रहा, कमी नहीं रही और इस अमरीकी डालर 13.9 करोड़ में से 44% भारत सरकार और देसी दाता संस्थाओं से प्राप्त हुआ और 49% “ग्लोबल फ़ंड टू फाइट एड्स, टीबी एंड मलेरिया” द्वारा उपलब्ध कराया गया।
शोभा शुक्ला, बाबी रमाकांत - सीएनएस