राजनीतिक दलों को अनुशासित करने की कोशिशें

इधर तीन ऐसे फैसले आ गए हैं जिन्होंने राजनीतिक दलों की स्वच्छंद कार्यशैली पर कुछ अंकुश लगाने की मंशा व्यक्त की है। इससे तेज बहस छिड़ गई है और राजनीतिक दल किसी भी किस्म के अनुशासन में बंधने को तैयार नहीं दिखते। किन्तु जनता की सोच अलग है।

सबसे पहले केन्द्रीय सूचना आयोग ने 2 जून के एक फैसले में राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त छह दलों - कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, रा.कां.पा. व बसपा - को सूचना के अधिकार के दायरे में लाते हुए उन्हें अपना आय-व्यय सार्वजनिक करने को कहा तथा छह हफ्तों में अपना-अपना जन सूचना अधिकारी नियुक्त करने को कहा जिनके पास लोग सूचना मांगने का आवेदन भेज सकें। आयोग का तर्क यह था कि चुंकि इन दलों को केन्द्रीय सरकार द्वारा काफी सहायता मिली है अतः इन पर सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा 2 (एच) लागू होती है। इसके अलावा उसका कहना था कि चूंकि सत्ता में रहने पर ये दल तमाम राज्य के अंगों को नियंत्रित करते हैं जिन पर सूचना का अधिकार अधिनियम लागू है अतः इन्हें खुद को भी इस कानून के दायरे में रखना चाहिए।

किंतु राजनीतिक दलों ने लगभग एक स्वर में इस फैसले का विरोध किया है। सिर्फ एक दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपना हिसाब-किताब सार्वजनिक करने को तैयार हुआ। भाकपा को पिछले पांच सालों में रु. 3,13,62,341 चंदे में मिले हैं, जिसमें सिर्फ बीस हजार रुपए से अधिक दान को ही शामिल किया गया है। भाकपा के अलावा पांच दलों में से किसी ने भी अपना हिसाब-किताब नहीं दिया और न ही किसी ने दी गई अवधि में जन सूचना अधिकारी नियुक्त किया। ज्ञात हो कि भाकपा ने भी, जिसने हिसाब तो दे दिया इस फैसला का विरोध ही किया है।

आखिर क्या वजह है कि हमारे राजनीतिक दल अपने आय के स्रोत या पैसा कैसे खर्च किया ये जानकारी जनता से छुपाना चाहते हैं। यह एक खुला सच है कि बड़े दलों के उम्मीदवार जहां चुनाव आयोग द्वारा चुनाव में खर्च की सीमा तय की गई है लाखों में तो खर्च करते हैं करोडों में। चुनाव आयोग की सीमा से ऊपर के पैसा कहां से आया और कहां गया इसका कोई हिसाब कागज पर नहीं होता। यह काला धन है। विदेशों में जमा काला धन तो एक बार भ्रष्टाचार होने के बाद वहां निष्क्रिय है किंतु हमारी अर्थव्यवस्था में सक्रिय काले धन की भूमिका ज्यादा खतरनाक है क्योंकि यह वह काला धन है जो हमारी संसद और विधान सभाओं में तमाम अवांछनीय लोगों को पहुंचा रहा है। हलांकि यह पैसा चूंकि कागज पर नहीं दिखाया जाता तो सूचना मांगने पर भी हमें इसकी जानकारी नहीं मिलेगी। लेकिन सूचना मिलने पर यह अंदाजा लगेगा कि कौन पार्टी कितना भ्रष्टाचार का पैसा या काला धन चुनाव में लगा रही है। जब हमारे सामने साफ-सुथरे राजनीतिक विकल्प मौजूद होंगे तो एक दिन जनता इन भ्रष्ट दलों को दरकिनार करेगी।

दूसरा फैसला सर्वोच्च न्यायालय का है जिसमें किसी व्यक्ति को निचली अदालत से भी सजा हो जाने पर उसे चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जाएगा। यह फैसला स्वागतयोग्य है क्योंकि तमाम अपराधी ऊपरी न्यायालय में अपील लम्बित होने की लम्बी अवधि में भी सांसद और विधान सभा सदस्य बने रहते हैं। चूंकि ये पद अति महत्वपूर्ण हैं इसलिए जेल में रहकर इनके साथ न्याय नहीं हो सकता।

किंतु पुलिस हिरासत में होने पर भी चुनाव लड़ने से वंचित रखने का फैसला ठीक नहीं प्रतीत होता। हमारी पुलिस की कार्यशैली ऐसी है कि तमाम निर्दोष लोग जेल पहुंच जाते हैं। अतः न्यायालय का फैसला आने तक आरोपी का चुनाव में मतदान करने व उम्मीदवार बनने का अधिकार सुरक्षित रहना चाहिए।

उ.प्र. उच्च न्यायालय का यह फैसला कि राजनीतिक दल जाति आधारित सभाएं आयोजित नहीं कर सकते,  है तो अच्छा फैसला लेकिन इस तरह का फैसला साम्प्रदायिक राजनीति पर भी लागू होना चाहिए। यदि कोई जाति के आधार पर मत नहीं मांग सकता तो कोई धर्म के नाम पर कैसे मांग सकता है?

गिरीश कुमार पाण्डेय 
राज्य अध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी इण्डिया