[English] ८ जनवरी २०१४ को उत्तर प्रदेश राजधानी लखनऊ में गांधी प्रतिमा हज़रतगंज पर सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) द्वारा आयोजित धरने को जब प्रशासन ने अनुमति नहीं दी, तो ज्ञापन देने के बाद यह धरना एक जुलूस के रूप में लक्ष्मण मेला ग्राउंड तक गया और धरना संध्या तक जारी रखा। इस समस्त आयोजन की एक मांग स्पष्ट थी: जो लोग मुज़फ्फरनगर सांप्रदायिक दंगों में विस्थापित पुनर्वास की पूरी जिम्मेदारी सरकार की है।
सोशलिस्ट पार्टी ( इंडिया) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और मैग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजित कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय ने बताया कि "आजादी के बाद की सबसे दर्दनाक साम्प्रदाकि हिंसा मुजफ्फरनगर में देखने को मिली। दंगा कैसे शुरू हुआ इस बात को लेकर विवाद है। यदि हम इस बात को छोड़ भी दे ंतो इसमें कोई दो राय नहीं कि ज्यादा नुकसान तो अल्पसंख्यक मुसलमानों का ही हुआ। जाट इस इलाके का सम्पन्न वर्ग है और मुसलमान मजदूर वर्ग।"
डॉ संदीप पाण्डेय ने सीएनएस को बताया कि "मुसलमानों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है, उनके ही लोगों की ज्यादा संख्या में हत्याएं और महिलाओं के साथ बलात्कार हुए हैं। कई मामलों में मुकदमे अभी तक लिखे नहीं गए और जहां लिखे गए वहां कोई कार्यवाही नहीं हुई। पुलिस की हिम्मत नहीं कि वह ताकतवर जाट समुदाय के खिलाफ कोई कार्यवाही करे। शासन प्रशासन मुसलमानों की मदद करने जाता है तो सरकार पर आरोप लगता है कि वह मुस्लिम पक्षधर है। इसलिए सरकार ने भी खुलकर मुसलमानों की मदद नहीं की। ज्यादातर राहत शिविर मुसलमनों के थे जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि नुससान भी ज्यादा उन्हीं का हुआ। दंगा के नाम पर लगभग एक पक्षीय कार्यवाही हुई। जब राहत शिविरों में पीड़ित ज्यादा दिनों तक रहे और सरकार की बदनामी होने लगी तो प्रशासन ने उन्हें शिविरों से खदेड़ना शुरू कर दिया। ज्ञात हो कि शिविर तो अधिकतर सरकार चला भी नहीं रही थी। शिविरों का संचालन जमायत-उलेमा-हिन्द जैसे संगठनों ने किया। सरकार ने उसमें कुछ राहत सामग्री ही पहुंचाई।"
गिरीश कुमार पाण्डेय, सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के उत्तर प्रदेश के राज्य अध्यक्ष, ने कहा कि "ज्यादातर मुस्लिम परिवार जो अपमान झेलकर अपना गांव छोड़कर आए हैं वे गांव वापस नहीं जा सकते। अब सवाल है कि वे जाएं तो कहां जाएं? यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह उन्हें बसाए। जमायत-उलेमा-हिन्द एक जगह कुछ घरों का निर्माण करा रही है। यह काम सरकार का है और उसे करना चाहिए। वह अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती। अगर सरकार मुसलमानों को न्याय नहीं दे सकती तो कम से कम उनकी भौतिक जरूरतों को तो पूरा करे। यह बड़े शर्म की बात है कि एक तरफ मुजफ्फरनगर और शामली के राहत शिविरों में बच्चे ठण्ड से मर रहे थे तो दूसरी तरफ प्रदेश के आका सैफई में महोत्सव मनाने में मशगूल थे। सोशलिस्ट पार्टी इसकी भर्त्सना करती है। एक मजबूत लोकतंत्र की कसौटी यह है कि उसके अल्पसंख्यक के अधिकार कितने सुरक्षित हैं।"
बाबी रमाकांत, सिटीजन न्यूज़ सर्विस (सीएनएस)
जनवरी २०१४
सोशलिस्ट पार्टी ( इंडिया) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और मैग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजित कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय ने बताया कि "आजादी के बाद की सबसे दर्दनाक साम्प्रदाकि हिंसा मुजफ्फरनगर में देखने को मिली। दंगा कैसे शुरू हुआ इस बात को लेकर विवाद है। यदि हम इस बात को छोड़ भी दे ंतो इसमें कोई दो राय नहीं कि ज्यादा नुकसान तो अल्पसंख्यक मुसलमानों का ही हुआ। जाट इस इलाके का सम्पन्न वर्ग है और मुसलमान मजदूर वर्ग।"
डॉ संदीप पाण्डेय ने सीएनएस को बताया कि "मुसलमानों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है, उनके ही लोगों की ज्यादा संख्या में हत्याएं और महिलाओं के साथ बलात्कार हुए हैं। कई मामलों में मुकदमे अभी तक लिखे नहीं गए और जहां लिखे गए वहां कोई कार्यवाही नहीं हुई। पुलिस की हिम्मत नहीं कि वह ताकतवर जाट समुदाय के खिलाफ कोई कार्यवाही करे। शासन प्रशासन मुसलमानों की मदद करने जाता है तो सरकार पर आरोप लगता है कि वह मुस्लिम पक्षधर है। इसलिए सरकार ने भी खुलकर मुसलमानों की मदद नहीं की। ज्यादातर राहत शिविर मुसलमनों के थे जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि नुससान भी ज्यादा उन्हीं का हुआ। दंगा के नाम पर लगभग एक पक्षीय कार्यवाही हुई। जब राहत शिविरों में पीड़ित ज्यादा दिनों तक रहे और सरकार की बदनामी होने लगी तो प्रशासन ने उन्हें शिविरों से खदेड़ना शुरू कर दिया। ज्ञात हो कि शिविर तो अधिकतर सरकार चला भी नहीं रही थी। शिविरों का संचालन जमायत-उलेमा-हिन्द जैसे संगठनों ने किया। सरकार ने उसमें कुछ राहत सामग्री ही पहुंचाई।"
गिरीश कुमार पाण्डेय, सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के उत्तर प्रदेश के राज्य अध्यक्ष, ने कहा कि "ज्यादातर मुस्लिम परिवार जो अपमान झेलकर अपना गांव छोड़कर आए हैं वे गांव वापस नहीं जा सकते। अब सवाल है कि वे जाएं तो कहां जाएं? यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह उन्हें बसाए। जमायत-उलेमा-हिन्द एक जगह कुछ घरों का निर्माण करा रही है। यह काम सरकार का है और उसे करना चाहिए। वह अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती। अगर सरकार मुसलमानों को न्याय नहीं दे सकती तो कम से कम उनकी भौतिक जरूरतों को तो पूरा करे। यह बड़े शर्म की बात है कि एक तरफ मुजफ्फरनगर और शामली के राहत शिविरों में बच्चे ठण्ड से मर रहे थे तो दूसरी तरफ प्रदेश के आका सैफई में महोत्सव मनाने में मशगूल थे। सोशलिस्ट पार्टी इसकी भर्त्सना करती है। एक मजबूत लोकतंत्र की कसौटी यह है कि उसके अल्पसंख्यक के अधिकार कितने सुरक्षित हैं।"
बाबी रमाकांत, सिटीजन न्यूज़ सर्विस (सीएनएस)
जनवरी २०१४