अन्य पाटियों जैसी बनती जा रही आप

(दैनिक जागरण में 16 मार्च 2014 को सर्वप्रथम प्रकाशित)
भारतीय जनता पार्टी शुरु में दावा करती थी कि वह अलग किस्म की पार्टी है। मुख्य रुप से उसका दावा था कि उसके अंदर भ्रष्ट लोग नहीं हैं और वह अपराधियों को सदस्य नहीं बनाती। किंतु धीरे-धीरे उसने यह दावा करना बंद कर दिया और उसकी राजनीति भी भ्रष्टाचार और अपराधीकरण का शिकार हो गई। अब आम आदमी पार्टी आई है जो एक अलग किस्म का दल होने का दावा कर रही है। अभी उसको अस्तित्व में आए डेढ़ साल भी नहीं हुए और जिन चीजें को चुनौती देने के लिए यह पार्टी बनाई गई थी वह उसी राह पर चल पड़ी है।


धीरे-धीरे आम आदमी पार्टी बाकी पार्टियों जैसी ही बनती जा रही है। कार्यकर्ताओं में काफी असंतोष दिखाई पड़ने लगा है। काफी लोगों को लग रहा है कि उनके साथ धोखा हुआ। इधर पार्टी में कई लोगों को बाहर से लिया गया और उन्हें उम्मीदवार भी बना दिया गया। इसमें कई बुद्धिजीवी, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम किए लोग शामिल हैं। आप पार्टी में या अण्णा आंदोलन में शुरु से जुड़े हुए लोगों को लग रहा है कि बाहर से बाद में आए लोगों को उनसे ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। किंतु कुमार विश्वास व शाजिया इल्मी जैसे लोगों को सोचना चाहिए कि भले ही वे पार्टी में पहले से हों, हलांकि पार्टी को अस्तित्व में आए बहुत दिन हुए नहीं हैं, मेधा पाटकर, राजमाहन गांधी, आशीष खेतान जैसे लोगों का अनुभव उनसे बहुत ज्यादा है। इसलिए स्वाभाविक है कि अनुभवी लोगों को महत्व दिया जाएगा।

       जमीनी कार्यकर्ता इस बात से आहत हैं कि उम्मीदवार स्थानीय होने चाहिए थे न कि बाहर से थोपे गए। वे सवाल खड़ा कर रहे हैं कि यदि बाहर का ही उम्मीदवार लाना था तो साक्षात्कार, आदि, का दिखावा क्यों किया गया? स्वराज्य के दर्शन के अनुसार तो उम्मीदवार स्थानीय लोगों को ही तय करने चाहिए थे लेकिन निर्णय तो सारे दिल्ली में ही बैठ कर लिए गए। सबसे आपत्तिजनक बात आप कार्यकर्ताओं को यह लग रही है कि पार्टी ने नियम तोड़ कर उन लोगों को उम्मीदवार घोषित किया गया है जिन्होंने न तो फार्म भरा और न ही जिनका साक्षात्कार हुआ।

       यह भी कहा जा रहा है कि साक्षात्कार के बहाने पार्टी को प्रत्येक साक्षात्कार देने वाले की ओर से पांच-पांच सौ लोगों का विवरण मिल गया जिन तक पार्टी की पहुंच हो गई। आप ने चूंकि एस.एम.एस. भेज कर अपने समर्थकों को कई अवसरों पर गोलबंद किया है, अतः चुनाव के समय भी ये लोगों की जानकारी काफी उपयोगी सिद्ध होगी। बिना मेहनत के पार्टी के पास एक आधार तैयार हो गया।

उम्मीदवार चयन में यह नहीं देखा जा रहा है कि कौन कितना ईमानदार है बल्कि जो ज्यादा पैसा खर्च का सकता है और जो भीड़ इकट्ठी कर सकता है उन्हें ही वरीयता दी जा रही है। पार्टी चाहती है कि उम्मीदवार इस लायक हो जो अपने चुनाव पर खुद पैसा खर्च कर सके। वैसे यह अण्णा आंदोलन के समय से ही शुरु हो गया था। इण्डिया अगेन्स्ट करप्शन में भी स्थानीय स्तर पर पैसे वालों और भीड़ इकट्ठा कर सकने वालों को महत्व दिया गया था।

       अरविंद चाहे लोकतंत्र की जितनी दुहाई दें किंतु उनकी पार्टी में भी अंदरुनी लोकतंत्र नदारद है। बल्कि कौन कब निर्णय की प्रक्रिया में शामिल कर लिया जाता है और कौन बाहर कर दिया जाता है ये निर्णय कौन ले रहा है यह बाकी लोगों के लिए रहस्य ही है। यानी जो समितियां बनी हैं वे भी नाम मात्र की हैं। बाकी पार्टियों की तरह निर्णय पहले ले लिए जाते हैं और फिर समितियों से उन्हें पारित करवाया जाता है। पार्टी के संविधान में संशोधन कर कह दिया गया है कि पार्टी की केन्द्रीय राजनीतिक मामलों की समिति जिला या राज्य स्तरीय पदाधिकारियों या समितियों को बदलने का अधिकार रखती है। यानी पार्टी स्वाराज्य के सिद्धांत के विपरीत जा रही है।

       जो सबसे गम्भीर बात सामने आई है वह यह कि कुछ लोग जो जिम्मेदार पदों पर बैठ गए हैं उन्होंने मनमानी शुरु कर दी है। उम्मीदवारों के चयन में पैसे लिए जाने के आरोप हैं। जो जिम्मेदार पदों पर बैठें हैं पार्टी बनने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति में खासा सुधार दिखाई पड़ रहा है। वही जो बाकी पार्टियों में होता है। लखनऊ में पार्टी के एक जिम्मेदार कार्यकर्ता के पास पार्टी से जुड़ने के बाद एक गाड़ी आ गई और उसने एक महंगा फ्लैट लिया है। यदि आप के शीर्ष नेतृत्व ने भी अन्य पार्टियों की तरह इस तरह की चीजों से मुंह मोड़े रखने का फैसला लिया तो भ्रष्टाचार का घुन देर नहीं लगेगी और पार्टी को खोखला बना देगा।

       अरविंद केजरीवाल का ताजा आरोप मीडिया पर है। उनका कहना है कि मीडिया पैसे लेकर नरेन्द्र मोदी को ज्यादा दिखा रही है। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि उनका आंदोलन भी मीडिया की ही देन है। देश भर में कितने मुद्दों पर कितने आंदोलन होते हैं। इम्फाल में इरोम शर्मीला को अनशन पर बैठे 13 वर्ष से ऊपर हो गए किंतु देश के लोग ठीक से न तो इरोम शर्मीला को जानते हैं और न ही उसके मुद्दे को समझते हैं। अप्रैल 2011 में अण्णा हजारे जब अनशन पर बैठे तो टी.वी. चैनलों ने 24 घंटों का प्रसारण क्यों शुरु कर दिया यह अभी भी कई लोगों के लिए रहस्य है। संघर्षों में जुझारुपन और विचारधारा की दृष्टि से मेधा पाटकर का दर्जा देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं में सबसे ऊंचा है। किंतु उनके किसी अनशन को इस तरह मीडिया ने जगह नहीं दी जैसी कि अण्णा हजारे के आंदोलन या अरविंद की पार्टी को। अरविंद को शिकायत करने का तो कोई अधिकार ही नहीं।

डॉ संदीप पाण्डेय, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सीएनएस)
मार्च 2014