३० साल से भारत को एड्स नियंत्रण में सफलताएँ तो मिलीं, पर चुनौतियाँ बरक़रार

हर एचआईवी के साथ जीवित व्यक्ति को मिले दवा
इस साल २०१५ में भारत को एड्स से जूझते हुए ३० साल हो गए. इसी वर्ष, एचआईवी उपचार से सम्बंधित सबसे मजबूत और महत्वपूर्ण शोध के नतीजे सामने आये, और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही में दिशानिर्देश देते हुए वैज्ञानिक सुझाव दिया कि हर एचआईवी के साथ जीवित व्यक्ति को बिना विलम्ब और बिना सीडी४ जांच किये एंटी-रेट्रो-वायरल दवा प्राप्त होनी चाहिए.

एड्स सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय अधिवेशन २०१५ (ऐसिकान-२०१५) जो मुंबई में ३० अक्टूबर से १ नवम्बर २०१५ तक आयोजित होगा, वहां देश भर के एचआईवी विशेषज्ञ भारत सरकार से शोध और विश्व स्वास्थ्य संगठन की दिशानिर्देश को संज्ञान में लेते हुए हर एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति तक दवा पहुंचाने की मांग करेंगे.

एड्स सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ इश्वर गिलाडा ने कहा कि “एड्स नियंत्रण में भारत ने पिछले तीन दशकों से महत्वपूर्ण प्रगति की है पर संगीन चुनौतियाँ बरक़रार हैं. आज भारत सरकार के एड्स कार्यक्रम के तहत ८ लाख से अधिक लोग एंटी-रेट्रो-वायरल (एआरवी) दवाएं प्राप्त कर रहे हैं, परन्तु यह पर्याप्त नहीं है क्योंकि नए शोध और विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देश के अनुसार, हर एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति को बिना विलम्ब और बिना सीडी४ जांच के एआरवी दवा मिलनी चाहिए. यदि हम शोध और वैज्ञानिक प्रमाण को संज्ञान में नहीं लेंगे तो जन स्वास्थ्य की दृष्टि से भारी कीमत देनी पड़ेगी. एचआईवी टेस्ट के बाद एआरवी दवा देना, एचआईवी से बचाव के लिए ‘प्रेप’ (एचआईवी संक्रमण से बचने के लिए एक दवा) का उन समुदाय में उपयोग करना जिनमें एचआईवी का खतरा अत्यधिक है, उपचार-ही-बचाव नीति (यदि एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति एआरवी दवा नियमित ले, तो उससे एचआईवी संक्रमण फैलने का खतरा नगण्य है), आदि कुछ ऐसे वैज्ञानिक रूप से ठोस प्रमाणित नीतियाँ हैं जो भारत में बिना विलम्ब लागू होनी चाहिए.”

डॉ गिलाडा ने बताया कि “भारत सरकार ने एड्स नियंत्रण विभाग को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में समाहित करके बड़ा कदम उठाया है, और अब राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तत्वावधान राष्ट्रीय एड्स कार्यक्रम को प्राथमिकता मिलना संभवत: अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है. यदि भारत संयुक्त राष्ट्र के एड्स कार्यक्रम के ९०-९०-९० के लक्ष्य को पूरा करने के लिए गंभीर है तो फिर हमें एड्स कार्यक्रम को अधिक मजबूत और सक्रीयता से आगे बढ़ाना होगा जिसमें समाज के अनेक वर्ग अपना योगदान दे सकें. सरकार, दवा कम्पनियां, निजी स्वास्थ्य सेवा वर्ग, एचआईवी के साथ जीवित लोगों के समूह, आदि सबका महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है, इसको प्रभावकारी ढंग से समन्वयित करना जरुरी है.”

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् के राष्ट्रीय एड्स अनुसंधान संसथान के कार्यकारी-निदेशक डॉ रमण गंगाखेद्कर जो ऐसिकान-२०१५ के सह-अध्यक्ष भी हैं, ने भी इसी बात पर जोर दिया कि “विश्व स्वास्थ्य संगठन की नयी एचआईवी मार्गनिर्देश वैज्ञानिक अधार पर प्रमुख रूप से दो सलाह दे रहे हैं: एचआईवी के साथ जीवित हर व्यक्ति को एआरवी दवा बिना सीडी४ जांच के मिलनी चाहिए और एचआईवी से बचाव के लिए, जिन समुदाओं को एचआईवी का खतरा अत्यधिक है, उन्हें ‘प्रेप’ दवा भी मिलनी चाहिए.”

ज्ञात हो कि अमरीकी एफडीए ने जुलाई २०१२ में ही ‘प्रेप’ दवा को एचआईवी बचाव के लिए उपयोग करने की संस्तुति दे दी थी, परन्तु भारत समेत अनेक देश अभी तक इस दवा को एचआईवी संक्रमण से बचाव के लिए उपयोग नहीं कर रहे हैं. भारत में चंद प्रारंभिक शोध चल रहे हैं जिनके पूरे होने पर उम्मीद है कि प्रेप दवा को उन समुदायों तक जिनको एचआईवी का खतरा ज्यादा है, उपलब्ध करवाया जायेगा. उसी तरह, वर्त्तमान में भारत में ३६% एचआईवी के साथ जीवित लोग एआरवी दवा ले रहे हैं, पर हमें ६४% अन्य एचआईवी पॉजिटिव लोगों तक दवा पहुंचानी है. ऐसिकान-२०१५ में देश भर से अनेक एचआईवी विशेषज्ञ इन्ही मुद्दों पर विचार-विमर्श करेंगे.

बाबी रमाकांत, सिटीजन न्यूज़ सर्विस (सीएनएस)
२५ अक्टूबर २०१५