एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) के कारण क्या दवाएं बेअसर और रोग लाइलाज हो रहे हैं?

शोभा शुक्ला, सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
[English] हाल ही में टीबी (तपेदिक) पर हुई संयुक्त राष्ट्र संघ की उच्च स्तरीय बैठक में यह सर्व-सम्मति से माना गया कि टीबी (तथा दवा प्रतिरोधक टीबी), जो रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस या एएमआर) का सबसे सामान्य और विकराल उदाहरण है, विश्व की सबसे अधिक जानलेवा संक्रामक बीमारी है.

अनेकों रोग जिनका अब तक इलाज संभव था अब लाइलाज हो रहे हैं  

विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डॉ टेड्रोस का कहना है कि एएमआर के कारण विश्व में जन-स्वास्थ्य की दृष्टि से, एक आपातकाल स्थिति पैदा हो गयी है. इसके चलते अनेकों रोग, जैसे टीबी, जिनका अब तक इलाज संभव था अब लाइलाज हो रहे हैं क्योंकि इन बीमारियों को पैदा करने वाले ऐसे सूक्ष्मजीवी रोगाणु उत्पन्न हो रहे हैं जिन पर कोई दवा असर ही नहीं कर रही है. यह एक भयावह स्थिति है. एंटी-माइक्रोबियल रेसिस्टेंस के कारण 7 लाख लोग प्रति वर्ष मृत्यु को प्राप्त होते हैं और यदि इसको रोकने के कारगर कदम न उठाये गए, तो यह संख्या आने वाले वर्षों में 1 करोड़ तक बढ़ने की संभावना है.

आखिर एंटी-माइक्रोबियल रेसिस्टेंस (एएमआर) क्या है?

ग्लोबल एंटीबायोटिक रिसर्च एंड डेवलपमेंट पार्टनरशिप के डॉ मनिका बाला सेगरम ने बताया कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) तब होता है जब सूक्ष्मजीवी - जैसे जीवाणु, वायरस, फंगस, अन्य पराजीवी - अनुवांशिक परिवर्तनों के कारण उन दवाओं से प्रतिरोधी हो जाते हैं जिनसे वे पहले प्रभावित होते थे. यह एक क्रमिक विकासवादी परिवर्तन है परन्तु यह प्रक्रिया कतिपय कारणों से त्वरित हो जाती है, जैसे मानव, पशु और कृषि क्षेत्र में दवाओं का अतिप्रयोग या दुरुपयोग, तथा संक्रमण नियंत्रण में कमी.

एएमआर को कैसे रोका जा सकता है?

सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) को हाल ही में दिए गए एक साक्षात्कार में विश्व स्वास्थ्य संगठन की उप-महानिदेशक डॉ सौम्या स्वामीनाथन ने बताया कि पशु एवं कृषि में एंटीबायोटिक दवाओं का तर्कहीन उपयोग तत्काल बंद कर देना आवश्यक है. इन दवाओं का प्रयोग फसल अथवा दूध आदि उत्पाद बढ़ाने के लिए बिलकुल नहीं करना चाहिए। इसके अलावा जिन एंटीबायोटिक दवाओं को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आरक्षित श्रेणी में रखा है उनको पशुओं में उपचार के लिए प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा मनुष्यों में भी सावधानी से इस्तेमाल करना चाहिए। इसके अलावा इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि एंटीबायोटिक दवाएं पानी और मिट्टी को प्रदूषित न कर सकें ताकि प्रतिरोधी म्युटेशन वातावरण में स्थित दूसरे जीवाणुओं तक न फैल सकें. साथ ही सभी स्वास्थ्य केंद्रों में संक्रमण नियंत्रण विधियों का समुचित पालन होना भी अति आवश्यक है.

भारत में एएमआर को रोकने के प्रयास

इंडियन कॉउन्सिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ कामिनी वालिया, जो भारत के एंटी-माइक्रोबियल सर्विलांस नेटवर्क (Antimicrobial Surveillance Network) को स्थापित करने की प्रक्रिया की अध्यक्षता कर रही हैं, ने बताया कि आईसीएमआर ने 2012 में रोगाणुरोधी प्रतिरोध पहल आरम्भ की जब इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी आँकड़े उपलब्ध नहीं थे. इस सर्विलांस नेटवर्क ने उन 6 रोगजनक समूहों (pathogenic groups) पर ध्यान केंद्रित किया जो अस्पतालों और समाज में अनेक दवा प्रतिरोधक संक्रमणों की एक बड़ी संख्या का कारण थे.

आईसीएमआर के इस नेटवर्क में 20 अस्पताल शामिल हैं और इनसे संगृहीत डेटा का इस्तेमाल करके आईसीएमआर रोग निवारण हेतु उपचार हस्तक्षेप का मार्गनिर्देशन करता है. इस डेटा के आधार पर आईसीएमआर ने अस्पताल संक्रमण नियंत्रण नीति एवं उपचार सम्बन्धी दिशा निर्देश भी जारी किये हैं. आँकड़ों से यह पता चलता है कि हमारे देश के अस्पतालों में दवा प्रतिरोधकता का एक प्रमुख कारण है एंटीबायोटिक दवाओं का ज़रुरत से ज़्यादा इस्तेमाल। डॉ वालिया का भी यह मानना है कि एंटी-माइक्रोबियल रेसिस्टेंस रोकने के लिए एंटीबायोटिक्स का अनियंत्रित प्रयोग रोकने के साथ साथ अस्पताल जनित संक्रमणों को भी कम करना होगा क्योंकि अस्पताल जनित संक्रमण दवा प्रतिरोधक संक्रमणों का मुख्य कारण हैं.

टीबी उपचार में एएमआर का रोड़ा

विश्व के 193 देशों ने 2030 तक 17 सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने का वादा किया है जिनमें टीबी उन्मूलन भी शामिल है. परन्तु टीबी दर जिस गति से गिर रही है वह पर्याप्त नहीं है और दवा प्रतिरोधक टीबी एक पहाड़नुमा चुनौती बनी हुई है. टीबी में एएमआर को दवा प्रतिरोधक टीबी अधिक कहा जाता है.

टीबी का पक्का इलाज तो है यदि ऐसी दवाओं से इलाज हो जिनसे प्रतिरोधकता नहीं उत्पन्न हुई हो. परन्तु विश्व स्वास्थ्य संगठन की नवीनतम वैश्विक टीबी रिपोर्ट 2018 के अनुसार, टीबी दवा प्रतिरोधकता (ड्रग रेसिस्टेन्स या एएमआर) अत्यंत चिंताजनक रूप से बढ़ोतरी पर है। यदि किसी दवा से रोगी को प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाए तो वह दवा रोगी के उपचार के लिए निष्फल रहेगी। टीबी के इलाज के लिए प्रभावकारी दवाएँ सीमित हैं। यदि सभी टीबी दवाओं से प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाए तो टीबी लाइलाज तक हो सकती है। हर साल टीबी के 6 लाख नए रोगी टीबी की सबसे प्रभावकारी दवा 'रिफ़ेमपिसिन' से प्रतिरोधक हो जाते हैं और इनमें से 4.9 लाख लोगों को एमडीआर-टीबी होती है (एमडीआर-टीबी यानि कि 'रिफ़ेमपिसिन' और 'आइसोनीयजिड' दोनों दवाओं से प्रतिरोधकता)।दुःख की बात तो यह है कि टीबी में दवा प्रतिरोधकता का कारण है एंटी-माइक्रोबियल रेसिस्टेंस या एएमआर। डॉ सौम्या स्वामीनाथन ने बताया कि जब टीबी की दवाएं उचित संयोजन एवं सही मात्रा में पर्याप्त समय तक रोगी को नहीं दी जाती हैं, तो टीबी के जीवाणु में अनुवांशिक परिवर्तन हो जाते हैं और वह उन दवाओं से प्रतिरोधी हो जाता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के ग्लोबल टीबी प्रोग्राम के पूर्व निदेशक डॉ मारिओ रविगलिओन का मानना है दवा प्रतिरोधक टीबी ख़त्म करने के लिए टीबी का इलाज कभी भी एक दवा से नहीं करना चाहिए वरन कम से कम 3-4 ऐसी दवाओं का प्रयोग करना चाहिए जिनसे रोगी को प्रतिरोधकता न हो. इसके लिए रोगी की दवा प्रतिरोधकता जाँच करने के बाद ही उचित उपचार आरम्भ करना चाहिए तथा यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि रोगी इलाज को बीच में ही अधूरा न छोड़ दे. रोगी को सही मात्रा तथा सही समय तक दवा लेने के अलावा पौष्टिक भोजन लेना भी अनिवार्य है. अत: पूरे उपचार के दौरान रोगी का उचित मार्गदर्शन किये जाना आवश्यक है.

बेडाक्वीलिन और डेलामनीड: टीबी की 2 नयी दवाओं का उचित प्रबंधन

चालीस वर्षों के बाद टीबी के इलाज के लिए दो नई दवाएं उपलब्ध हुई हैं, जिनके नाम हैं बेडाक्वीलिन और डेलामनीड और जो विशेषकर दवा प्रतिरोधक टीबी के उपचार में बहुत कारगर साबित हो रही हैं. परन्तु इनका तर्कहीन उपयोग रोकने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विशेष दिशा निर्देश जारी किये हैं. इनके इस्तेमाल में विशेष सावधानी बरतना ज़रूरी है ताकि इन्हें आने वाले लम्बे समय तक प्रतिरोधक होने से बचाया जा सके. इन बातों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार के राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तहत बेडाक्वीलिन दवा के नियमबद्ध प्रयोग को मान्यता दी गयी है. यह जानकारी भारत के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के उप महानिदेशक डॉ केएस सचदेवा, जो देश के पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम (RNTCP) के अध्यक्ष भी हैं, ने सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) को दी.

डॉ सचदेवा ने कहा कि तीन साल पहले एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत इस नवीनतम दवा का इस्तेमाल भारत के राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम के अंतर्गत शुरू किया गया था. इसका दुरुपयोग रोकने के लिए उचित कदम उठाये जा रहे हैं. फिलहाल यह केवल उन टीबी रोगियों को दी जा रही है जिन पर टीबी की पारम्परिक दवाएं असर नहीं कर रही हैं या जिन्हें क्विनोलोन दवा से या इंजेक्शन वाली दवा से प्रतिरोधकता हो चुकी है. अभी तक 1800 रोगी इस दवा से लाभान्वित हो रहे हैं और बड़ी सतर्कता से इसके प्रयोग को बढ़ाया जा रहा है.

संयुक्त राष्ट्र महासभा की 73 वीं बैठक में भाग लेने वाले सभी देश इस बात पर प्रतिबद्ध हैं कि टीबी से पीड़ित 4 करोड़ लोगों को 2022 तक उचित देखभाल उपलब्ध होगी। जहाँ एक ओर टीबी को समाप्त करने के लिए नयी दवाएं, वैक्सीन और सरल उपचार आवश्यक हैं, वहीं यह भी ज़रूरी है कि उपयुक्त सुरक्षा उपायों के द्वारा यह सुनिश्चित किया जाय कि टीबी का जीवाणु इन नयी दवाओं के प्रति प्रतिरोधक न हो जाये, वरना ज़रा दी असावधानी से ही वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जायेगा और एक टीबी-मुक्त समाज का स्वप्न वास्तविकता न बन कर केवल कल्पना मात्र ही रह जायेगा।

शोभा शुक्ला, सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
1 अक्टूबर 2018
(शोभा शुक्ला स्वास्थ्य और महिला अधिकार मुद्दों पर निरंतर लिखती रही हैं और सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) की प्रधान संपादिका हैं. उनको ट्विटर पर पढ़ सकते हैं @shobha1shukla या वेबसाइट पर पढ़ें www.citizen-news.org)

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