सामाजिक संगठनों ने डुम्का पुलिस द्वारा डॉ संदीप पाण्डेय को रोके का खंडन किया
झारखण्ड के काठीकुंड में पुलिस फायरिंग का देश भर में खंडन हो रहा है, और अनेकों सामाजिक संगठन अब सड़क पर उतर आए हैं और न्याय के लिए संघर्षरत हैं।
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के राष्ट्रीय समन्वयक और मग्सय्सय पुरुस्कार प्राप्त वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय अंगाची गाँव जा रहे थे जब डुम्का पुलिस ने उनको शनिवार, २७ दिसम्बर २००८ को रोक लिया था।
कुछ गाँव के लोग अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। २७ दिसम्बर २००८ को एक दल ने इन गाँव का दौरा किया। इस दल में तिलका मांझी विश्वविद्यालय के गांधियन फिलोसोफी के स्नाताक्कोत्तर विभाग के लोग, शामिल थे जिन्होंने लुकिरम टुडू, जो कि काठीकुंड पुलिस फायरिंग में मृत्यु को प्राप्त हुआ था, उसके परिवार से भेंट की।
इस दल ने अन्य गाँव का भी दौरा किया जिनमें अंगाची, पोखरिया, सरैपनी और अमर्पनी शामिल हैं।
इम्फाल मणिपुर में सुप्रसिद्ध मानवाधिकार सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय अनिश्चितकालीन उपवास पर
जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के राष्ट्रीय समन्वयक डॉ संदीप पाण्डेय ने इरोम शर्मीला कुनबा लूप जो पिछले ८ सालों से अनशन पर है, उसके समर्थन में और राज्य सरकार की संवेदनहीनता के विरोध में चल रहे उपवास में भाग लिया।
युंग होरिजोन मणिपुर, लैरिक्येंग्बम लिकी नुपी समाज कोहुखत लूप और ह्यूमन देवेलोप्मेंट संसथान, लैरिक्येंग्बम आदि ने यह धरना आयोजित किया था।
डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि मणिपुर के लोगों के लिए आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट (AFSPA) एक दुर्भाग्यपूर्ण एक्ट रहा है और राज्य नेताओं की चुप्पी नि:संदेह शर्मनाक है। पिछले ८ सालों से अधिक समय से इरोम शर्मीला उपवास पर हैं और राज्य नेताओं ने अभी तक कोई ठोस कदम नही उठाया है।
राज्य सरकार को इस एक्ट को ख़तम करने के लिए एक तारिख तय कर देनी चाहिए, यदि वोह तुंरत इस एक्ट को नही ख़तम करना चाहते हैं, कहना है डॉ संदीप पाण्डेय का।
जलवायु- परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव
जलवायु- परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव
पिछले एक दशक में उत्तर प्रदेश ने विभिन्न प्रकार के जलवायु परिवर्तन देखे हैं। जब पूर्वी उत्तर प्रदेश भयंकर बाढ़ की चपेट में था ठीक उसी समय बुंदेलखंड सूखे की मार झेल रहा था। इस जलवायु परिवर्तन के द्वारा न केवल भारी संख्या में लोग मौत का शिकार हो रहे हैं बल्कि इससे उनकी आजीविका पर भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। पूर्वी- उत्तर प्रदेश में जहाँ धान की सारी फसल बरबाद हो गयी वहीं बुंदेलखंड में स्थानीय फसलों पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है।
कई सारे शोधों और वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तर-प्रदेश गंभीर जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, जिसका काफी बुरा असर वहाँ के निवासियों पर पड़ सकता है। वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश की ६२.१२ प्रतिशत जनसँख्या कृषि कार्य से सम्बंधित गतिविधियों में संलिप्त है। उत्तर प्रदेश देश का तीसरा सबसे बड़ा अनाज उत्पादक प्रदेश है। तथा प्रत्येक वर्ष देश के पूरे उत्पादन में करीब २१ प्रतिशत योगदान देता है। उत्तर प्रदेश की जनसँख्या को जितने अनाज की आवश्यकता प्रत्येक वर्ष होती है उससे कहीं ज्यादा अनाज उत्पादन यह प्रदेश हर साल करता है, किंतु मौसम में परिवर्तन की वजह से पिछले कई वर्षों में अनाज उत्पादन में भी परिवर्तन दृष्टिगत हुआ है।
तापमान में सामान्य वृद्धि की वजह से गेंहूँ की फसल का उत्पादन कम हो सकता है। जबकि धान कम तापमान में भी आसानी से उत्पन्न हो सकता है। यद्यपि सरकार तथा विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा वातावरण में हो रहे इस परिवर्तन को रोकने हेतु प्रयास किए गए हें, किंतु ये प्रयास किसानों को तुंरत राहत प्रदान करने वाले ज्यादा रहे हैं , न कि एक स्थाई लाभ देने वाले । इस सम्बन्ध में गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप के अध्यक्ष प्रोफेसर डाक्टर शीराज वजीह का कहना है, ' वातावरण में हो रहे इस परिवर्तन की प्रतिकूलता को रोकने हेतु सरकार के साथ-साथ जन- समुदायों को भी स्वदेशी तकनीकी ज्ञान के माध्यम से वैज्ञानिक विधियों को अपनाना चाहिए ।'
ये स्वदेशी ज्ञान स्थानीय स्तर पर आसानी से उपलब्ध रहते हैं तथा इन्हें अपनाने में ज्यादा आर्थिक सहायता की भी जरूरत नहीं पड़ती। गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप द्वारा प्रकाशित एक शोध के मुताबिक उत्तर प्रदेश में करीब ९० प्रतिशत किसान लघु-और सीमान्त दर्जे के हैं जिनकी आजीविका का साधन केवल कृषि है। इन छोटे जोत के कृषकों द्वारा ही प्रदेश को कृषि में महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त है। यदि ये लघु-और सीमान्त कृषक, वातावरण में हो रहे परिवर्तन का इसी प्रकार शिकार होते रहे तो इससे प्रदेश की आजीविका के लिये एक बड़ी विपत्ति खड़ी हो सकती है।
वातावरण में हो रहे इन परिवर्तनों के अनेक कारण हें । हम निजी स्वार्थों के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। नए आर्थिक ज़ोन के नाम पर कृषि योग्य भूमी का औद्योगीकरण किया जा रहा है। सरकार के नीतिगत फैसले कंपनियों के हित में ज्यादा होते हैं। इन सब बातों पर यदि हम गंभीरता पूर्वक नहीं सोचेंगे तो खाद्यान उत्पादन की समस्या गरीबों को और भी गरीबी की तरफ़ धकेलेगी। किसान आत्महत्याओं का दौर और भी बढेगा।
अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं।
चूनामपेट के गाँव में डाक्टर आपके द्वार पर
हमारे देश में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में क्या वास्तव में डाक्टर स्वयं ही बीमार के घर पहुँच सकता है? एकबारगी इस बात पर विश्वास ही नहीं होता। परन्तु मद्रास डायबिटीज़ रिसर्च फाउंडेशन ( एम.डी.आर.ऍफ़.) और वर्ल्ड डायबिटीज़ फाउंडेशन (डब्लू.डी.एफ़ ) के संयुक्त तत्वाधान में चेन्नई से लगभग १५० किलोमीटर दूर चूनामपेट ग्रामीण क्षेत्र में मधुमेह की रोकथाम के लिए चलाये जा रहे कार्यक्रम ने इस असंभव को सम्भव कर दिखाया है।
मधुमेह का प्रकोप, केवल शहरों में ही नहीं वरन ग्रामीण क्षेत्रों में भी तेज़ी से बढ़ रहा है। मधुमेह के साथ जीवित लगभग २ करोड़ जनता ग्रामीण क्षेत्रों में ही निवास करती है।
मधुमेह विशेषज्ञ ,डाक्टर विश्वनाथन मोहन के अनुसार, 'केरल के गाँवों में तो मधुमेह का प्रकोप शहरी इलाकों से अधिक है। इसके दो प्रमुख कारण हो सकते हैं---खान पान में चावल का अधिक उपयोग एवं आर्थिक स्थिति में सुधार होने के कारण शारीरिक श्रम में कमी। अनुवांशिक कारणों से भी भारतीय मूल के निवासियों में मधुमेह की संभावना अधिक होती है।’
परन्तु मधुमेह की रोकथाम के सारे प्रयास शहरों तक ही सीमित हैं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए ही उपर्युक्त परियोजना का प्रारंभ मार्च २००६ में डेनमार्क स्थित वर्ल्ड डायबिटीज़ फाउंडेशन की सहायता से किया गया। इस कार्यक्रम का प्रस्तावित कार्यकाल ४ वर्ष है तथा यह डाक्टर रविकुमार एवं उनके सहयोगियों के कुशल निर्देशन में चूनामपेट एवं उसके आसपास के गाँवों में चलाया जा रहा है।
डाक्टर मोहन, ( जो इस परियोजना के प्रमुख संचालकों में से एक हैं), का कहना है कि इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य है कि 'मधुमेह सम्बंधित स्वास्थ्य परिचार एवं उपचार' सभी ग्राम वासियों के लिए उपलब्ध हो, सुगम हो, आर्थिक रूप से प्राप्य हो और मान्य हो। इस कार्यक्रम के द्वारा प्राथमिक, द्वितीय एवं उच्च स्तर पर मधुमेह की रोकथाम के अथक प्रयास किए जा रहे हैं।
इस परियोजना का मुख्य आकर्षण है एक टेली मेडीसिन वान , जो सभी आधुनिक संयंत्रों से प्रयुक्त है तथा एक चलते फिरते आधुनिक अस्पताल के समान कार्य करती है। इसकी सहायता से डेढ़ वर्ष के कम समय में ही ४२गाँवों के २३४४९ ( २० वर्ष से अधिक आयु वाले) व्यक्तियों की मधुमेह एवं उससे सम्बंधित जटिलताओं की जांच की जा चुकी है ( विशेषकर आँख और पाँव संबंधी परेशानियां)। जिन व्यक्तिओं में मधुमेह के चलते अपनी दृष्टि खो देनेका खतरा होता है, उनकी चिकित्सा नि:शुल्क की जाती है। परन्तु दवाएं मुफ्त नहीं दी जातीं। हाँ सभी जांचें एवं विशेष उपचार नि:शुल्क हैं।
इस अनूठे प्रयोग के द्वारा शहर के वरिष्ठ चिकित्सा विशेषज्ञों का पूरा लाभ ग्रामीण जनता को घर बैठे ही सुगमता से प्राप्त हो रहा है। इस सम्मिलित प्रयत्न के द्वारा चिकित्सक न केवल आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को ग्रामवासियों तक पहुँचा रहे हैं वरन उपचार के उपरांत भी उनसे लगातार संपर्क भी बनाए रखते हैं।
यह परियोजना अनेक व्यक्तियों एवं संस्थानों की सहायता के फलस्वरूप ही सफल हो पायी है, तथा 'सार्वजनिक-निजी क्षेत्र सहयोग’ का जीता जागता उदाहरण है। श्री रामकृष्ण ने अपनी भू संपत्ति इस परियोजना के लिए दान में दी; नेशनल एग्रो फाउंडेशन ने अपना सहयोग प्रदान किया; भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान ने टेली मेडीसिन वान् के लिए उपग्रह संचार प्रदान किया; तथा डाक्टर रविकुमार एवं उनके सहयोगी अभूतपूर्व लगन से चिकित्सा संबधी कार्यों की बागडोर संभाले हुए हैं।
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मधुमेह संबंधी आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को गाँवों के घर घर तक ले जाने के अलावा, इस परियोजना के अंतर्गत, अनेक उचित आहार एवं स्वस्थ जीवन शैली सम्बंधित जागरूकता शिविरों का भी आयोजन किया जाता है। ऐसे ही एक शिविर में भाग लेने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ, जहाँ सुपाच्य एवं स्वास्थ्य प्रद व्यंजन बनाने सिखाये जा रहे थे। पास के ही स्थान में कठपुतली के खेल द्वारा मधुमेह परिचार एवं उपचार के बारे में भी समझाया जा रहा था।
इन सभी प्रयासों के फलस्वरूप ग्रामीण स्वास्थ्य में सुधार तो हुआ ही है, इसके अलावा वहाँ की जनता में एक नई जागरूकता का भी आभिर्भाव हुआ है। विशेषकर महिलाओं एवं युवाओं ने एक जन आन्दोलन की शुरुआत की है जिसके अंतर्गत उचित खान पान और शारीरिक श्रम के द्बारा एक स्वस्थ जीवन जीने का संदेश घर घर में पहुँच रहाहै।
देश के अन्य प्रदेशों में भी ऐसे प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
शोभा शुक्ला
संपादिका,सिटिज़न न्यूज़ सर्विस
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मधुमेह से ग्रसित लोगों में तपेदिक की संभावना अधिक है
वैश्विक स्तर पर मधुमेह तथा तपेदिक से ग्रसित लोगों की संख्या में दिन प्रतिदिन बढ़ोतरी हो रही है। विश्व मधुमेह संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरे विश्व में वर्ष २००७ में करीब २४६,000,000 लोग मधुमेह की बीमारी से ग्रसित थे, वहीँ ६० लाख नए मरीजों की पहचान की गयी, तथा ३५ लाख लोगों की मौत मधुमेह की बीमारी से हो गयी। वर्ष २००७ में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से ‘ तपेदिक नियंत्रण अभियान’ के तहत कराये गए सर्वेक्षण के मुताबिक पूरे विश्व में करीब १ करोड़ ४४ लाख लोग तपेदिक या टी. बी. की बीमारी से ग्रसित थे तथा करीब ९२ लाख नए टी.बी. के मरीजों की पहचान की गई। वहीं १७ लाख लोगों की मौत टी.बी. की बीमारी से हो गई।
उपरोक्त आंकडों से यह पता चलता है कि यदि मधुमेह और तपेदिक की बीमारी पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो विश्व की स्वास्थ्य व्यवस्था के सामने नई चुनौती खड़ी हो सकती है। यह स्वरुप विकासशील देशों के लिए और भी भयंकर हो सकता है। एक शोध के अनुसार, पूरे विश्व में तपेदिक से ग्रसित कुल मरीजों में से करीब ९५ प्रतिशत लोग विकासशील देशों में रहते है। किंतु कई सारी रिपोर्टों से यह बात पता चलती है कि आगे -आने वाले दिनों में मधुमेह के साथ जीवित सबसे ज्यादा लोग विकाससील देशों में होंगे।
तपेदिक की बीमारी पर बने अंतर्राष्ट्रीय संगठन (जो फ्रांस की राजधानी पेरिस में स्थित है) के वरिष्ठ सलाहकार अन्थोनी हैरिस के मुताबिक 'ऐसे लोग जो मधुमेह की बीमारी से ग्रसित हैं यदी उनको तपेदिक की बीमारी हो जाती है तो उनमें तपेदिक के उपचार की औषधियों का असर काफी कम हो जाता है। इसके साथ ही साथ वे मरीज जिन्हें टाईप -२ मधुमेह और तपेदिक दोनों हैं , उनमें औषधि प्रतिरोधक बीमारी होने की संभावनाएं कहीं ज्यादा बढ़ जाती हैं, क्योंकि टाईप -२ मधुमेह से रक्त में शर्करा की मात्र बढ़ जाती है तथा उससे रोग-प्रतिरोधक शक्ति कम हो जाती है। यद्यपि पूरे विश्व के मुकाबले भारत के पास सबसे मजबूत तपेदिक रोग नियंत्रण कार्यक्रम है, किंतु यह प्रभावी रूप से काम नहीं कर रहा है। यदि सार्वजनिक तथा निजी संस्थान दोनों मिलकर काम करें तो इन बीमारियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। '
गरीबी, अपर्याप्त साफ़-सफाई, धूम्रपान का सेवन, उचित पोषण का अभाव, इत्यादि की वजह से भारत में तपेदिक और मधुमेह के रोगियों की संख्या दिन- प्रतिदिन बढ़ रही है। तपेदिक की बीमारी, टाईप -१ मधुमेह के साथ जी रहे लोगों में भी हो सकती है। अक्सर लोग यह समझते हैं कि मधुमेह सिर्फ़ अमीरों की बीमारी है, किंतु यह अमीरों और गरीबों दोनों में ही तेजी से फ़ैल रही है। कई सारे शोधों से यह पता चलता है कि मधुमेह की बीमारी अब ग्रामीण इलाकों में भी अपने पैर फैला रही है।
अन्थोनी हैरिस का आगे कहना है कि भारत को तपेदिक के मरीजों से निपटनें के लियी तपेदिक रोग नियंत्रण कार्यक्रम को तीन स्तरों पर मजबूत बनाना होगा--- (१ ) प्राथमिक अवस्था में ही तपेदिक के मरीजों की पहचान की जाए। ( २)- मरीजों का पंजीकरण करा कर उनको नियमित दवाएं उपलब्ध कराई जायें। (३)- बलगम के द्वारा उनकी जाँच की जाए।
तपेदिक संक्रमणों द्वारा फैलने वाली बीमारी है जबकि मधुमेह बिना संक्रमण द्वारा फैलने वाली बीमारी है। भारत जैसे देशों में दोनों प्रकार की बीमारियों के फैलने का ख़तरा है। सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य के गोल ६ के ८ उद्देश्यों में इस बात का ज़िक्र किया गया है कि वर्ष २०१५ तक विश्व में संक्रमित बीमारियों, जैसे तपेदिक इत्यादी, के प्रकोप को कम करने का प्रयास किया जायेगा। यदि हम वास्तव में इन देशों में तपेदिक के प्रकोप को कम करना चाहतें हैं तो इसके लिए हमें व्यापक प्रबंध करनें होंगे।
अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं