यदि आज २७ वर्षीय मनीष लखनऊ में ज़रूरत मंद मरीजों की सेवा न कर रहे होते तो कदाचित अपने जन्म स्थानबलिया जिले में कपड़े धो रहे होते। मनीष का जन्म धोबी जाति में हुआ, जो एक अनुसूचित जाति है। जब मनीष नवीं कक्षा में पढ़ते थे तब उन्हें अपने सहपाठियों के घर से धुलाई के लिए कपड़े लाने एवं धुले हुए कपड़े घरपहुँचाने पड़ते थे। यह कार्य उन्हें तनिक भी रुचिकर नहीं लगता था। स्कूल के अन्दर तो वे अपने मित्रों के समकक्ष थे। परन्तु उन्हीं मित्रों के घर जब वो धुलाई के कपड़े लेने जाते तो बराबरी का दर्जा ख़त्म हो जाता। उनसे एक धोबी की तरह व्यवहार किया जाता। जाँत- पात, धनी- निर्धन, का भेदभाव उन्हें दु:खी कर देता। जब कोईउनके पिता के साथ दुर्व्यवहार करता तो उनका मन क्षोभ से भर जाता। मनीष ने तय किया कि वो अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर कोई और सम्मानीय कार्य करेंगे। चार बार हाईस्कूल में फेल होने के बाद उन्होंने बिजनेस करने की ठानी। वो थोक में बिजली का सामान खरीद कर बेचने लगे। धीरे धीरे बिजली से सम्बंधित मरम्मत का काम भी सीख लिया।
सन् २००० में मनीष लखनऊ आकर एक स्वयं सेवी संस्था के ग्रामीण केन्द्र ‘आशा आश्रम’में कार्य करने लगे। यह केन्द्र लखनऊ से ६० किलोमीटर दूर हरदोई जिले के लालगंज गाँव में स्थित है। अपनी ईमानदारी के कारण मनीष को आश्रम के आय व्यय का हिसाब देखने का काम दिया
तब पहली बार लोगों ने मनीष के अन्दर छिपे हुए इस गुण को पहचाना। अब मनीष आशा परिवार के स्वास्थ्यसेवा स्वयं सेवक बन गए। उन्होंने लखनऊ को अपना कार्यक्षेत्र बनाया, क्योंकि आस पास के ग्रामीण क्षेत्रों के गंभीर रोगी इलाज के लिए लखनऊ ही आते हैं। लखनऊ मेडिकल कालेज को केन्द्र बना कर वो निर्धन रोगियों की सेवा में जुट गए। शहरी अस्पतालों से अनभिज्ञ रोगियों को वे उचित सलाह देते हैं तथा सरकारी अस्पतालों में उन्हें नि:शुल्क अथवा कम दाम में चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने में तत्पर रहते हैं। अपने कार्य करने के दौरान मनीष ने देखा कि सरकारी अस्पताल में चिकित्सा हेतु आए अनेक ग्रामीण रोगी दलालों के चक्कर में पड़ कर, प्राइवेट अस्पतालों में जाकर हजारों रुपये व्यय करने को बाध्य हो जाते हैं। मनीष को दु:ख है कि स्वास्थ्य परिचार को सेवाभाव से नहीं देखा जाता। उनके अनुसार केवल ५% डाक्टर एवं स्वास्थ्य कर्मी ही रोगियों के प्रति संवेदनशील हैं।
मनीष बेघर और लावारिस लोगों की सेवा में भी तत्पर रहते हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति लच्छू की सहायता करके पहले उसका इलाज मेडिकल कालेज के मनोचिकित्सा विभाग में कराया, फिर आशा आश्रम में कई महीनों तक रखा। लच्छू की भाषा किसी को समझ ही नही आती थी, इस कारण उसके घरवालों से संपर्क नहीं हो पा रहा था। बाद में एक पुलिस अफसर की मदद से पता चला कि वो झारखंड प्रदेश के गाँव का निवासी था। उसके घर का पता लगा कर मनीष ने उसे उसके परिवार से मिला दिया। इसी प्रकार एक गरीब रिक्शा चालक के लीवर के आपरेशन के लिए पैसे जुटा कर मनीष ने उसका इलाज कराया। इस प्रकार अनगिनत बेसहारा और गरीब लोगों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा कर रहे हैं मनीष। अब तो मेडिकल कालेज के अनेक डाक्टर एवं छात्र भी मनीष के सेवाकार्य में आर्थिक सहयोग देते हैं। हाल ही में वहाँ ‘जियोर्जियन होप’ नामक संगठन बना है जो अन्य सेवा कार्यों केअलावा, मनीष के सेवा कार्यों में भी योगदान देगा।
मनीष का सपना है कि वो गरीबों के इलाज के लिए एक ऐसा अस्पताल बनाएं जहाँ चिकित्सा सुविधाएं नि:शुल्क अथवा बहुत कम दामों पर उपलब्ध हों। उनकी लगन और मेहनत से यह स्वप्न अवश्य साकार होगा। मनीष का जीवन पूर्ण रूप से निर्बल एवं निर्धन व्यक्तियों की सेवा में ही समर्पित है।
(मौलिक रूप से यह लेख डॉ संदीप पाण्डेय द्वारा अंग्रेज़ी में रचित है जिसको यहाँ पर क्लिक करने से पढ़ा जा सकता है। इसका अनुवाद शोभा शुक्ला जी द्वारा किए गया है जिसके लिए हम सब कृतज्ञ हैं)