विश्व स्वास्थ्य दिवस

                                                               विश्व स्वास्थ्य दिवस

विश्व स्वास्थ्य दिवस सात अप्रैल को मनाया जाता है.  इसी दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) की स्थापना हुई थी.    वर्ष २०१० का यह दिवस शहरीकरण एवं स्वास्थ्य को समर्पित है. इस वर्ष का अभियान '१००० शहर, १००० जीवन', मानव स्वास्थ्य पर शहरीकरण के प्रभावों को विशिष्ट रूप से दर्शाते हुए शहरों को एक बेहतर रहने लायक जगह बनाने पर जोर देता है.

आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आसपास के वातावरण को साफ़ सुथरा रखते हुए स्वयं को स्वस्थ रखें. स्वस्थ शरीर, स्वस्थ विचार एवं स्वस्थ बुद्धि का मूर्त रूप ही आरोग्य है. आरोग्य वह अवस्था है जिसमें हम प्रकृति एवं वातावरण से सामंजस्य स्थापित करते हुए जीवन का आनंद लेते हैं. हम वास्तविक रूप से तभी स्वस्थ होते हैं जब हम स्वयं को मानसिक, भौतिक, भावात्मक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्तर पर स्वस्थ अनुभव करते हैं.

अपनी वर्त्तमान जीवन शैली में उचित बदलाव लाकर हम अपनी दवाइयों का खर्चा कम कर सकते हैं. केवल उचित खान पान ही नहीं, वरन उचित विचार एवं उचित आचरण द्वारा ही हम  निरोग हो सकते हैं. माता पिता और अभिभावकों को बच्चों को सही आहार और साफ़ सफाई से रहने के साथ साथ एक अच्छा इंसान बनने की भी शिक्षा देनी चाहिए.

डायबिटीज़,उच्च रक्त चाप, एवं ह्रदय रोग जैसी बीमारियों के प्रमुख कारण हैं वसा युक्त एवं रेशा हीन आहार तथा शारीरिक श्रम का अभाव. पढ़े लिखे माता पिता भी अपने नन्हे मुन्नों को पिज्जा और बर्गर खिलाने तथा कोका कोला से कुल्ला कराने में अपनी शान समझते हैं. इस प्रकार उनका स्वाद फास्ट फ़ूड के लिए विकसित होकर, घर के पौष्टिक खाने को नकारने लगता है. अब तो गावों में भी कोकाकोला, चिप्स और डबलरोटी का खूब प्रचलन हो गया है. आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम जान बूझ   कर रोगों के जाल में फंसते चले जा रहे हैं.

'न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन' में छपे एक नवीन अध्ययन के अनुसार चीन में, नागरिकों में बढ़ती हुई सम्पन्नता के चलते, डायबिटीज़ एक महामारी के रूप में फैल रही है. भारत तथा अन्य एशियाई देशों में भी स्थिति खराब है. भारत में स्थूल बच्चों के साथ साथ कुपोषण के शिकार बच्चों की भी बहुतायत है. मोटापा हमें शारीरिक रूप से ही क्षतिग्रस्त नहीं करता, वरन मानसिक रूप से भी अस्वस्थ बनाता है.
रही सही कसर कम्प्यूटर और मोबाइल फोन ने पूरी कर दी है. बच्चे अपने खाली समय में इन्ही उपकरणों से चिपके रहते हैं. दौड़ने, खेलने कूदने जैसे बाह्य क्रिया कलापों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं हैं. इंटरनेट और वीडियो गेम की लत, एक गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है, जिसका सीधा असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. ज़िम्मेदार नागरिकों की हैसियत से हमें अपने रहने के स्थानों में  'उपवन संस्कृति' को फिर से वापस लाना होगा, ताकि खुली हवा में साँस लेते हुए, हम शारीरिक व्यायाम के लाभ उठा सकें. स्कूल कॉलेजों में खेलकूद और योगाभ्यास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. मोटर बाइक और कार के स्थान पर युवक युवतियों में सायकिल चलाना एक आधुनिक फैशन के रूप में विकसित करना होगा.

जहाँ एक ओर हम फास्ट फ़ूड के मामले में पश्चिमी देशों की नक़ल करते हैं, वहीं साफ़ सफाई के मामले में अपनी आँखें मूँद लेते हैं. अपने घर का कूड़ा पड़ोसी के घर के आगे अथवा सड़क पर फ़ेंक कर हम अपनी स्वच्छता का परिचय देने में गर्व का अनुभव करते हैं. यदि इस दिशा में हम सभी थोड़ी सी भी सावधानी बरत लें तो अनेक संक्रामक रोगों  को नियंत्रित किया जा सकेगा. प्राय: उच्च वर्ग के बालक बालिकाएं भी सड़क पर चॉकलेट /आइसक्रीम के रैपर तथा संतरे/केले के छिलके फेंकते हुए देखे जा सकते हैं. झुग्गी झोपड़ी में रहने वालों की बात तो जाने ही दीजिये.
सडकों पर, या कहीं पर भी, थूकना तो भारतीय पुरुषों का जन्म सिद्ध अधिकार है. भवनों के गलियारों और दीवारों को पान की पीक से लाल करने में हमें तनिक भी शर्म महसूस नहीं होती. सुप्रीम कोर्ट ने बारहवीं कक्षा तक पर्यावरण शिक्षा विषय तो अनिवार्य बना दिया है , परन्तु हमारी कूड़े के  ढ़ेर लगाने की आदत पर अंकुश लगाना भी अनिवार्य है.

अनुचित लाड़ प्यार के चलते, कई माता पिता अपने कम उम्र के बच्चों का ड्राइविंग लाइसेंस बनवा देते हैं, और कई बार अपनी गन/रिवॉल्वर उनकी पहुँच के अन्दर रखते हैं. इस असावधानी के कारण आये दिन अनेक दुर्घटनाएं घटती हैं और हादसे के शिकार व्यक्तियों का स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाता है.

जब हम स्वयं के साथ शान्ति अनुभव नहीं करते तो हम मानसिक एवम् भावात्मक व्याधियों से ग्रस्त हो जाते हैं. आक्रामक एवम् हिंसात्मक विचार हमारी सोच को नकारात्मक बना देते हैं, तथा हमारा ह्रदय क्रोध, द्वेष और ईर्ष्या से भर उठता है. टेलिविज़न तथा अन्य संस्थाओं द्वारा बच्चों /वयस्कों के लिए आयोजित  रियालिटी शोज़ एवम् अनेक प्रकार कि प्रतिस्पर्धाएं अधिकाँश प्रतियोगियों की मानसिकता को गलत तरीके से प्रभावित करती हैं. रुपयों की इस अंधी दौड़ में भाग कर हम अपने मानसिक एवम् शारीरिक स्वास्थ्य का सत्यानाश कर रहे हैं. अपनी प्रतिभा का विकास करना अच्छी बात है. परन्तु केवल पैसे कमाने के उद्देश्य से नहीं. हम केवल निर्मल आनंद के लिए अपनी नृत्य,गायन, खेलकूद की रुचियों को विकसित  क्यों नहीं करते? आधुनिक युग की 'चूहा दौड़' हमें एक स्वस्थ इंसान से एक बीमार जानवर बना रही है.

हाल ही में सिंगापुर में हुए एक स्वास्थ्य सेवा सम्मलेन में विशेषज्ञों ने माना कि एशिया की स्वास्थ्य सेवाएँ आधुनिक जीवन शैली की व्याधियों के बोझ तले दबी जा रही हैं. स्वाइन/बर्ड फ़्लू और तपेदिक जैसे संक्रामक रोगों के साथ साथ आर्थिक सम्पन्नता से जुड़ी हुई असंक्रामक बीमारियों का भार दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है. तम्बाकू एवम् धूम्रपान का व्यसन भी भारत समेत अन्य देशों में लाखों लोगों की सेहत पर सवालिया निशान लगा रहा है. सिगरेट एवम् गुटखा निर्माताओं की आक्रामक विज्ञापन तकनीक के आगे, सारे तम्बाकू विरोधी अभियान असफल सिद्ध होते प्रतीत हो रहे हैं. ये कम्पनियां मर्दानगी, आधुनिकता और तनाव-मुक्ति के नाम पर जनता को विष बेच रही हैं, और इनके विरुद्ध कोई भी कार्यवाही नहीं की जा रही है. तम्बाकू सेवन का सीधा सम्बन्ध श्वास एवम् फेफड़े की बीमारियों से है, जैसे कि अस्थमा, तपेदिक आदि. क्या ही अच्छा होता यदि हम तम्बाकू युक्त पान मसाला चबाने के स्थान पर लौंग, इलाइची या सौंफ जैसी गुणकारी वस्तुओं का सेवन करने की बुद्धि रखते.

किसी भी देश का स्वास्थ्य उसके बच्चों के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है. और केवल स्वस्थ माँ ही एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है. परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है कि अधिकाँश भारतीय परिवारों में महिलाओं के स्वास्थ्य को वरीयता नहीं दी जाती. पत्नी एवम् माता की परम्परागत भूमिका में, स्त्री का कर्त्तव्य परिवार के अन्य सदस्यों की देखभाल करना है, न कि स्वयं अपनी. भारतीय समाज आज के युग में भी लिंग के आधार पर भूमिकाएं निर्धारित करने में विश्वास रखता है. लड़कों को अविचारी और उग्रवादी बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, तथा लड़कियों को शरमीला और सहनशील. आगे चल कर यह असामनता ढीठ/आडम्बरी पति तथा विचारों और मानसिक/शारीरिक रूप से कुपोषित पत्नी के रूप में प्रतिबिंबित होती है. महिलाओं को जीवन पर्यंत भिन्न प्रकार के तिरस्कारों का सामना करना पड़ता है, फिर चाहे वो लिंग आधारित भ्रूड हत्या हो,
दहेज़ न लाने के नाम पर जलाया जाना हो, अथवा बलात्कार का शिकार होना हो. जो देश महिलाओं का सम्मान करना नहीं जानता, वह वास्तव में एक रोगी देश है.

समाज में ऐसे सुधार लाने की आवश्यकता है जिनके द्वारा स्वास्थ्य सेवाएं न केवल टीकाकरण और स्वच्छता को बढ़ावा दें, वरन जन मानस को संतुलित आहार, स्वस्थ  जीवन शैली और नैतिक मूल्यों की भी शिक्षा भी प्रदान करें. यदि हमारे मन में शान्ति, प्रेम, अहिंसा के भाव होंगे, तथा हम अमीरी के भड़कीले दिखावे से दूर रहेंगे,तो वास्तव में हमारा जीवन रोगमुक्त हो सकेगा. स्वस्थ रहने के लिए प्रसन्न रहना आवश्यक है. और प्रसन्नता तभी मिलेगी जब हम द्वेष के स्थान पर आनंद बाँटे. तभी गाँव गाँव और शहर शहर में एक स्वस्थ और खुशहाल वातावरण बन पायेगा.

शोभा शुक्ला,
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस


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