जीवित रहने के लिए सांस लेना अहम है और सांस लेने के लिए स्वस्थ फेफड़े का होना बहुत आवश्यक है। परन्तु विश्व भर में सैकड़ों लाखों लोग प्रतिवर्ष फेफड़े संबंधी रोग जैसे टीबी, अस्थमा, निमोनिया, इन्फ़्लुएन्ज़ा, फेफड़े का कैंसर और फेफड़े सम्बन्धी अन्य दीर्घ प्रतिरोधी विकारों से पीड़ित होते हैं और लगभग 1 करोड़ व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होते हैं। फेफड़ों के रोग हर देश व सामाजिक समूह के लोगों को प्रभावित करते हैं, लेकिन गरीब, बूढ़े, युवा और कमजोर व्यक्ति पर जल्दी असर डालते हैं. फेफड़ों में फैलने वाले इन संक्रमणों के बारे में लोगों के बीच जानकारी का अभाव है। प्रदूषित वातावरण, घर के भीतर का प्रदूषण (जैसे: लकड़ी, कंडे या कोयले को जला कर खाना पकाना), धूम्रपान, तम्बाकू आदि कई कारणों से फेफड़े संबंधी रोगियों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। परन्तु यदि उचित जीवन शैली और धूम्रपान मुक्त वातावरण बनाया जाये तो फेफड़े सम्बन्धी संक्रमणों को कम किया जा सकता है।
वर्ष 2011 में, टीबी (जिसका इलाज सम्भव है) के 88 लाख से अधिक नये मामले सामने आये जिसमें से 14 लाख लोगों की मृत्यु हो गयी। तम्बाकू, फेफड़े सम्बन्धी संक्रमणों का एक प्रमुख कारण है, और प्रतिवर्ष 60 लाख लोग तम्बाकू जनित रोग के कारण मृत्यु का शिकार होते हैं, फिर भी तम्बाकू का उपयोग आज भी कानूनी रूप से मान्य है। दुनिया भर में प्रति दिन 80,000 से 100,000 बच्चे धूम्रपान शुरू करते हैं जिसमे आधे से अधिक बच्चे एशिया में रहते है। भारत में भी प्रति दिन 5500 युवा किसी न किसी रूप में तम्बाकू का सेवन प्रारम्भ कर देते हैं। इन्टर्नैशनल यूनियन अगेन्स्ट ट्युबरक्लोसिस एंड लंग डिज़ीज़ (द यूनियन) के तंबाकू नियंत्रण के निदेशक डॉ. एहसान लतीफ का कहना है कि "तम्बाकू कंपनियाँ इस बात को भली भांति समझती हैं कि जो युवा समाज में अपनी पहचान बनाने में लगे हैं उनको किसी भी चीज की आदत लगवाना आसान है और यदि यह वर्ग तम्बाकू का प्रयोग शुरू कर दे तो आगामी 20 से 30 सालों तक या फिर जब तक वे जीवित हैं तब तक वे तम्बाकू पदार्थों के ग्राहक बने रहेंगे। अतः तम्बाकू कंपनियों की नजर में युवा वर्ग एक बहुत बड़ी मार्केट है।" सरकार को इस दिशा में ठोस कदम उठाते हुए तम्बाकू के प्रयोग पर पूरी तरीके से प्रतिबंध लगाना चाहिए ताकि समाज में फैल रहे फेफड़े सम्बन्धी संक्रमण पर नियंत्रण पाने के साथ-2 युवाओं को भी तम्बाकू कंपनियों के भ्रामक प्रचार जाल से बचाया जा सके।
अध्ययनों से पता चलता है कि घर के भीतर का वायु प्रदूषण भी सम्पूर्ण विश्व में कुल रोग के 2.7% भाग के लिए जिम्मेदार है तथा तीन तरह के फेफड़े संबंधी रोग के खतरों को बढ़ाता है-- (1) बच्चों में फेफड़े संबंधी श्वसन संक्रमण (2) महिलाओं में सी.ओ.पी.डी तथा (3) कोयले के धुएं के संपर्क में आने से महिलाओं में फेफड़ों का कैंसर। लकड़ी/कंडे/कोयला आदि जलाकर खाना पकाने वाले चूल्हे/अँगीठी के धुएँ में कार्बन मोनोऑक्साइड, और अन्य ऐसे हानिकारक तत्व होते हैं जो घर के अंदर की हवा के प्रदूषण स्तर को कई गुना अधिक बढ़ा देते है, जो विशेषकर बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि प्रति वर्ष लगभग 20 लाख लोग खाना पकाने के लिए गलत ईंधन के प्रयोग के कारण उत्पन्न होने वाली बीमारियों से मरते हैं। पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में होने वाली करीब 50% मृत्यु श्वसन संक्रमण से होती है जो कि घरेलू ठोस ईंधन के धुएँ को साँस द्वारा अंदर लेने से उत्पन्न होता है। पाँच साल से कम आयु के लगभग 10 लाख बच्चे घर के अन्दर होने वाले वायु प्रदूषण के कारण निमोनिया से मरते हैं. द यूनियन के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर डोनाल्ड इनारसन का कहना है कि “घर के अंदर वायु प्रदूषण का प्रभाव जैव ईंधन और धूम्रपान से उत्पन्न धुएँ और हवा के आवागमन की प्रकृति पर निर्भर करता है. ईंधन जितना कम रिफाइंड (परिष्कृत) होगा उतना ही अधिक उसका हानिकारक प्रभाव होगा क्योंकि वह कई प्रकार के प्रदूषित कण उत्पन्न करेगा”।
इस सच्चाई के बावजूद कि निमोनिया का इलाज प्रभावी ढंग से और सस्ते में किया जा सकता है फिर भी यह पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में मौत का प्रमुख कारण है और सम्पूर्ण विश्व में हर 20 सेकण्ड में एक बच्चा निमोनिया से मृत होता है। बेहतर स्वास्थ्य देखभाल, उचित पोषण और पर्यावरण में सुधार, ऐसे स्वतंत्र कारक हैं जो निमोनिया तथा फेफड़े के संक्रमण की घटनाओं को कम कर सकते हैं. अतः समाज में लोगों के जीवन स्तर में परिवर्तन लाने के लिए इन कारकों की भूमिका प्रमुख है. सरकार को भी इन कारकों को ध्यान में रख कर ही अपने स्वास्थ्य कार्यक्रमों को क्रियान्वित करना चाहिए. जब लोगों का जीवन स्तर बेहतर होगा तभी निमोनिया तथा अन्य फेफड़े के संक्रमणों से बचाव भी सम्भव हो पायेगा.
राहुल द्विवेदी-सी.एन.एस