आतंकवाद, भ्रष्टाचार का सफाया सिर्फ अहिंसा-सत्य के द्वारा होगा

आज दुनियां हिंसा आतंकवाद की चपेट में आ चुका है। और मनुष्य का अस्तित्व खतरे में है। कई दशक पहले पू0 विनोवा भावे ने कहा था कि अगर हिंसा का रास्ता लोगों ने अपनाया तो सर्वनाश होगा और अगर अहिंसा सत्य का रास्ता अपनाया तो सर्वोदय होगा। अब सवाल उठता हैं कि आखिर हिंसा की यह दुनिया को तबाही में डालने वाली आग पर कैसे काबू किया जायें ?

यह बात सभी समझदार लोग स्वीकार करते है कि हिंसा-आतंकवाद की जड़ें शोषण व अन्यायकारी नीति-रीतियों में छिपी होती है। इसलिये आतंकवाद की पैदा करने वाली-कुरीनियों, भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली नीतियों को मिटानें पर सबसे पहले जोरदार पहल करनी चाहिये। जिसे कारगर बनाने के लिये देश के ऊँचे पदों पर विराजे माननीय लोग ही ज्यादा परिणामकारी भूमिका निभा सकते हैं। इस संदर्भ में लोक नारायण का मार्मिक वक्तव्य ज्यादा ध्यान देने लायक है। उनका साफ कहना था कि हमारे राजनेता व लोक सेवकों (सरकारी कर्मचारियों) को सिर्फ ईमानदार होना ही नहीं चाहिये बल्कि दिखना भी चाहिये। इस पवित्र उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये अहिंसा सत्य की सर्वोदयी-व्यवस्था को सारे समाज की राजनैतिक व प्रशासनिक व्यवस्था में किस तरह व्यवहारिक बनाया जा सकता है ? इसका सुन्दर उपाय गांधीजी के प्रिय साथी प्रकाण्ड विद्वान श्री किशोर भाई मसरूवाला ने बड़ी सुस्पष्टता से निम्न- शब्दों में बतलाया था।

‘‘इज्जत-प्रतिष्ठा कई कारणों से हो सकती है और दी जा सकती है। इसे मान्य करने के लिये दूसरे चाहे जितने तरीके हो सकते हैं। लेकिन, पैसों के इनाम के जरिये वह नहीं दी जानी चाहिये। बुजुर्ग-व्यक्ति को उसकी दराज उम्र के लिये, स्त्री को उसकी निर्दोषता और मधुरता के लिये, ज्ञानी को उसके ज्ञान के लिये, सिपाही को उसकी बहादुरी के के लिये, नेताओं को उसके नेतृत्वता के लिये और उनकी कर्ण शक्ति के लिये, संत को उसके श्रेष्ठ चरित्र के लिये और अधिकारी को व्यवस्था बनाये रखने के लिये अगर इज्जत सम्मान मिले तो उसमें कोई दोष नहीं है। लेकिन इस इज्जत-सम्मान की कदर पैसे देकर नहीं की जानी चाहिये। आप उन्हें इज्जत-सम्मान दीजिये। ऊँजी जगह (आसन) दीजिये। जैसे ठीक लगे उन्हें नमस्कार या प्रणाम कीजिये। फूल-माला और सिर पेंच, सरोपा दीजिये। मगर उसके लिये उन्हें ज्यादा मेहेनताना देने या सोना-चाँदी की कीमती चीजें या दौलत इक्ठ्ठी करने की सुविधा देने की जरूरत नहीं है। अगर, अलग-अलग मेहेनताना देना ही हो। तो सबसे ज्यादा मेहेनताना अनाज की खेती करने वाले या पानी की खेती करनेवाले को (लेखक की दृष्टि से बदबूदार मैला कचरा साफ करने वाले मेहतर को) मिलना चाहिये। राजा (आज के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री) का भी एक दिन का मेहेनताना खेती के मजदूर संघ मंत्री की अपेक्षा कम होना चाहिये। भले ही उसके लिये उसे देश की परिस्थिति के अनुसार पर्याप्त सुविधायें दी जायें।’’

उपरोक्त-विचारों की रोशनी में हमारे देश के शुभ चिन्तकों से गुजारिश है। कि देश की गरीबी व कर्ज तथा भूख से बिलबिलाती जनता के दर्द को समझते हुए तथा निर्दयता पूर्ण-विषमता से क्षुब्ध अपराधों की अंधेरी राह में जा रहे नौजवानों को सद-मार्ग-अच्छे रास्ते पर लाने के लिये सभी माननीय जन-प्रतिनिधि व सरकारी अधिकारी-कर्मचारी गण स्वेच्छा से अपनी-अपनी तनख्खाहें, व पेंशनें, मेहनतें कश किसानों व मेहतरों कें बराबर ही सुनिश्चित कराने हेतु आगे आयें। जैसा कि गांधी जी भी यहीं चाहतें थे। अगर, उपरोक्त महानुभाव खुद ही पहल करके अपनी जरूरत के मुताबिक सम्पत्ति के मालिक के बजाय ट्रस्टी बनकर (क्योंकि धार्मिक सिद्धान्त के अनुसार भी सब सम्पत्ति रघुनाथ की कही गयी है और ऐसा मानने में ही सबकी भलाई हैं।) आम जनता के समतुल्य स्वेच्छा से संयमपूर्वक, नम्रतापूर्वक सादगी से जिन्दगी जीते हुए, फालतू विलासिता वैभव के दिखावा की बरबादी से ईष्र्या-द्वेष पैदा करने वाली सम्पत्ति बचाकर, उस सम्पत्ति को देश की गरीब शोषित जनता भलाई में खर्च करकें सच्ची राष्ट्रभक्ति का परिचय दे सके तो कुंठा निराश व आक्रोश में भटकते आतंकवाद की राह में जा रहें नौजवानों को सुधारने का और खुद को यश कमाने का बड़ा ही अच्छा और कारगर कदम होगा।

पिछले विगत ‘‘स्वतंत्रता-दिवस’’ पर महामहिम राष्ट्र प्रमुख श्रीमती प्रतिभा पाटिल जी द्वारा राष्ट्र के नाम संदेश में ‘‘आतंकवाद को मिटाने के लिये आतंकवाद में हिस्सा लेने वाले नौजवानों के दिलों से नफरत के भाव मिटाने की दिशा में काम करना चाहिये।’’ तथा महामहिम की दल को चीन यात्रा में भारतीय जनता की तरफ से बुद्ध भगवान की मूर्ति को भेंट में देने से उनकी व्यवहारिक सोच में उच्च-मानवतावादी कदम साफ महसूस होता है, और उनका वक्तव्य व कत्र्तव्य यह साबित करता है कि हमारे देश का शीर्ष-नेतृत्व वर्ग ने भी आतंकवादियों को लाइलाज न समझकर गौतम-गांधी की सुदीर्घ व नेक दृष्टि से अच्छे नतीजे हासिल करने की श्रद्धा के जरिये समाधान निकालना नि’िचत समझ लिया है। यह एक बहुत ही शुभ लक्षण है। हमारे धर्म -प्रधान देश की जनता महावीर गौतम व गाँधी के आदर्शों को सम्मान देने वाली होने के नाते भारत के संविधान से मृत्युदण्ड समाप्त करके, भ्रष्टाचार मुक्त, शोषण मुक्त अहिंसक समाज रचना की मजबूती देने वाले नियम कानूनों को कारगर रूप देना चाहिये। इसी आशय का वक्तव्य परम पावन दलाई लामा ने गतवर्ष पुणे में आयोजित सर्वोदय-सम्मेलन के मुख्य अतिथि के रूप में भारत की जनता को सम्बोधित करते हुए कही थी। यहीं वक्त की आवाज है। इससे देश की निराशा-असंतोष में जी रही गरीब जनता को मानवीय मूल्यों की प्राण वायु मिलने लगेगी और अविश्वाश घृणा निराशा से उबर कर शान्ति भाईचारे का मानस तैयार होगा। आशा ही नहीं विश्वाश है कि इस आत्मघाती दौर में गौतम-गाँधी का जीवन दर्शन हमारे अग्रणी कर्णधारों कों प्रेरणा देकर आचरण की दिशा में सार्थक पहल कराएगा।

विनीत-सुरेश भाई सर्वोदीय

सूचना के अधिकार के पांच साल और गैर-सरकारी संगठनों के पारदर्शिता पर एक सवाल

देश के तमाम गैर-सरकारी संगठन आम लोगों के बीच हर तरह के मुद्दों पर काम कर रही हैं और उनके काम-काज का सीधा वास्ता आम जन से है। कुछ संगठन ऐसे भी हैं जो सूचना के अधिकार जैसे कानून पर काम कर रहे हैं। यहां एक अहम सवाल उठता है कि आम लोगों के बीच और आम लोगों के लिए काम करने वाले संगठनों के पारदर्शिता व जवाबदेही तय किया जाना चाहिए। मैंने इस दिशा में एक शुरूआती प्रयास करते हुए दिल्ली व देश के अन्य हिस्सों में सूचना के अधिकार के अधिकार कानून पर काम कर रहे संगठनों से उनके आय-व्यय का ब्यौरा तथा काम-काज से संबंधित जानकारी मांगी ताकि जो सूचना के अधिकार कानून पर काम करने वाले संगठन हैं, उनके काम-काज को समाज के सामने लाया जा सके, जिससे लोगों को बताया जा सके कि हम न सिर्फ पारदर्शिता की वकालत करते हैं, बल्कि अपनी निजी जीवन और काम-काज के मामलों में भी पारदर्शी हैं। सर्वप्रथम सूचना के अधिकार कानून पर काम करने वालों को अवार्ड देने वाली संस्था पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन को सूचना के अधिकार के तहत आवेदन दिया। 30 दिन के तय सीमा के बाद भी जब सूचना प्राप्त नहीं हुई तो प्रथम अपील किया। प्रथम अपील के बाद जो सूचना प्राप्त हुई उसमें पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन ने आधी-अधूरी सूचना देते हुए बताया कि हमारी संस्था सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं आती हैं।

इसके बाद हमने सूचना के अधिकार कानून पर काम कर रहे अन्य संगठनों से उनके आय-व्यय का ब्यौरा तथा काम-काज से संबंधित जानकारी मांगी।

सर्वप्रथम जोश नामक संस्था ने आय-व्यय का ब्यौरा उपलब्ध कराते हुए वर्ष 2008 और वर्ष 2009 का बैलेंस सीट और सूचना के अधिकार कानून के धारा-4 के तहत 17 बिन्दुओं पर सूचना उपलब्ध कराई। उसके बाद नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राईट टू इन्फोर्मेशन ने भी सम्पूर्ण सूचना उपलब्ध कराई।

उसके बाद राजस्थान का मजदूर किसान शक्ति संगठन ने समस्त सूचनाएं उपलब्ध कराते हुए बताया कि हमारी सूचनाएं बिना आवेदन के भी सबके लिए खुली है। दिल्ली की पारदर्शिता ने दस रूपये का पोस्टल ऑर्डर लौटाते हुए बताया कि हम पब्लिक ओथिरिती नहीं हैं। लेकिन हम सूचना के अधिकार पर कार्य कर रहे हैं और पारदर्शिता की वकालत करते हैं। इस प्रकार इन्होंने भी समस्त सूचनाएं उपलब्ध कराई, पर कुछ जानकारी आधी-अधूरी रही। प्रिया नामक संस्था ने बताया कि हम पब्लिक ओथिरिती नहीं है, क्योंकि राज्य केंद्र सरकार से फंड नहीं लेते। इसलिए आपको सूचना देने सक्षम नहीं हैं। आगे उन्होंने अपनी आय-व्यय का ब्यौरा देखने हेतु वार्षिक रिपोर्ट भेजने की बात कही, पर अब तक कोई रिपोर्ट उन्होंने नहीं भेजी है। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राईट्स इनीशिएटिव ने बताया कि हम स्वतंत्र, अलाभकारी गैर सरकारी संगठन हैं। सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत हम पब्लिक ओथिरीटी नहीं हैं। हमारे काम और हमारे पब्लिकेशन में दिलचस्पी दिखाने के लिए शुक्रिया। इसके अलावा इन्होंने सूचना के अधिकार पर अपनी पब्लिकेशन की कई पुस्तकें भी भेजी।

कबीर नामक संस्था ने बताया कि कबीर की पूरी टीम पारदर्शिता में विश्वास रखती है और हमारा ये मानना है कि पारदर्शिता किसी कानून के प्रावधानों से ऊपर है। इस प्रकार उन्होंने अपने लगभग डेढ़ करोड़ रूपये आय का ब्यौरा तो दे दिया, पर खर्च का ब्यौरा उपलब्ध न करा सके। बाकी प्रश्नों का जवाब देना भी इन्होंने मुनासिब नहीं समझा।

सतर्क नागरिक संगठन का कहना है कि सतर्क नागरिक संगठन एक गैर सरकारी संगठन है, जो सूचना के अधिकार की धारा-2 (ज) के तहत ‘लोक प्राधिकारी’ नहीं माना जाएगा, क्योंकि यह संगठन सरकार द्वारा वित्तपोषित नहीं है। लेकिन इसके बावजूद इस संस्था ने समस्त सूचनाएं उपलब्ध कराईं। बस धारा-4 पर सूचना उपलब्ध नहीं करा सके। इस पर इनका कहना है कि हम पर धारा-4 लागू नहीं होता।

आवेदन देने के लगभग 60 दिनों के बाद सबसे आखिर में परिवर्तन ने अपनी सूचना उपलब्ध कराई। इनका कहना था कि सूचना का अधिकार हम पर लागू नहीं होता। परिवर्तन एक जन आन्दोलन है जो कि एक रजिस्टर्ड एन.जी.ओ. भी नहीं है। परिवर्तन को कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलता है। इसके बाद आधी-अधूरी सूचना उपलब्ध कराकर अपनी पारदर्शिता दिखा दी।

इस प्रकार जहां कुछ संगठनों ने आधी-अधूरी जानकारी दी है, वहीं कुछ संगठनों ने सूचना देने से एकदम से इंकार कर दिया है और कुछ ने अपनी पूरी पारदर्शिता भी दिखाई है। आज सूचना के अधिकार कानून को नाफिज हुए पांच साल मुकम्मल हो चुके हैं। इस अवसर पर भारत सरकार से अनुरोध है कि कृपा करके इन गैर-सरकारी संगठनों को भी सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाया जाए और सूचना का अधिकार पर कार्य करने वाले गैर-सरकारी संगठनों से भी अनुरोध है कि वो स्वयं को सूचना के अधिकार के दायरे माने ताकि सूचना का अधिकार कानून और व्यापक व प्रभावशाली बन सके।

अफरोज आलम ‘साहिल’

फैसला न्याय व संविधान की भावना के अनुरूप नहीं

अयोध्या मामले पर फैसला आ चुका है। चारो तरफ सराहना हो रही है कि बहुत अच्छा फैसला है। किसी को निराश नहीं किया। सबसे बड़ी बात कि जो शांति व्यवस्था भंग होने का खतरा था व शासन-प्रशासन की किसी भी स्थिति से निपटने की पूरी तैयारी थी, वैसी कोई अप्रिय घटना नहीं घटी। शांति व्यवस्था बनी रही। लोगों ने बड़ी संजीदगी से फैसले को सुना और मामले की नजाकत को समझते हुए जिम्मेदारी का परिचय दिया।

सभी मान रहे हैं कि फैसला आस्था के आधार पर हुआ है। न्यायाधीशों की यह मंशा थी कि विवाद का हल निकल आए। यह फैसला सभी पक्षकारों को समाधान हेतु प्रेरित करने की दृष्टि से तो बहुत अच्छा है। किंतु यदि संविधान की भावना या कानून की दृष्टि से देखेंगे तो इस फैसले में दोष हैं। इस फैसले का एक खतरनाक पहलू यह भी है कि भविष्य में इस किस्म के नए विवाद खड़े होने की सम्भावना पैदा हो गई है।

भारत के संविधान में भारत को स्पष्ट रूप से एक धर्मनिर्पेक्ष देश के रूप में परिभाषित किया गया है। हम किसी एक धर्म को मानने वालों की भावनाओं को किसी अन्य धर्म को मानने वालों की तुलना में अधिक महत्व नहीं दे सकते। किंतु अयोध्या विवाद फैसले में ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दुओं की आस्था, कि भगवान राम ठीक बाबरी मस्जिद की बीच वाली गुम्बद के नीचे पैदा हुए थे, को ही फैसले का आधार बना लिया गया है। कानून की दृष्टि से तथ्य हमेशा महत्वपूर्ण होता है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में खड़ी बाबरी मस्जिद जिसको 6 दिसम्बर, 1992, को सबने ढहते देखा व जिसमें 1949 तक नमाज अदा की जाती रही हो को हिन्दुओं की आस्था के मुकाबले कम महत्व दिया गया है।

एक तरफ प्रत्यक्ष बाबरी मस्जिद थी तो दूसरी तरफ आस्था के अलावा न्यायालय के आदेश पर 2003 में विवादित स्थल पर करवाई गई खुदाई में निकले एक मंदिर के कुछ अवशेष। वैसे पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिर्पोट में मंदिर के अवशेषों के अलावा भी खुदाई में पाई गई तमाम चीजों का जिक्र है। किंतु निष्कर्ष में मस्जिद निर्माण के पहले इस स्थल पर एक मंदिर होने की बात कही गई है जो पूर्वाग्रह से ग्रसित लगती है। वैसे यदि मान भी लिया जाए कि बाबरी मस्जिद बनाए जाने के पहले उस स्थल पर एक मंदिर था, फिर भी ठीक यही जगह राम जन्म भूमि ही है इस बात का क्या प्रमाण हो सकता है ? न्यायालय ने भी इस बात को आस्था के आधार पर ही माना है। किन्तु सवाल यह है कि क्या किसी न्यायालय का फैसला आस्था के आधार पर हो सकता है ?

अपने देश में यह व्यवस्था है कि आजादी के दिन जो धार्मिक स्थल जैसा था उसे वैसा ही स्वीकार किया जाए। लेकिन अयोध्या विवाद के फैसले में करीब 500 वर्षों से भी पहले बने एक मंदिर, जिसके सबूत अस्पष्ट ही हैं, को हाल तक अस्तित्व में रही मस्जिद की तुलना में ज्यादा तरजीह दी गई है।

एक न्यायाधीश महोदय ने तो अपने फैसले में यहां तक कह दिया है कि अब विवादित भूमि पर राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। ज्ञात हो कि मूल विवाद स्वामित्व का है। न्यायालय को २२/23 दिसम्बर, 1949 की रात जो राम लला की मूर्तियां राम चबूतरे से मस्जिद के अंदर रखी गईं उस पर भी निर्णय सुनाना था। विवादित स्थल पर राम मंदिर बने या न बने इस पर न्यायालय को कोई निर्णय ही नहीं करना था। वैसे भी राम मंदिर बनाने की बात तो अस्सी के दशक में पहली बार की गई थी। यह कितनी मजेदार बात है कि जिन बिन्दुओं पर न्यायालय से निर्णय की अपेक्षा थी उन पर कोई निर्णय न देकर वह अपने कार्यक्षेत्र ये बाहर जा कर कुछ निर्णय सुना रही है।

विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाने की बात कर न्यायाधीश महोदय ने 6 दिसम्बर, 1992, को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की कार्यवाही, जिस पर अभी एक आपराधिक मुकदमा चल रहा है, को एकाएक जायज ठहरा दिया है। क्योंकि यदि न्यायालय यह मानती है कि हिन्दुओं की आस्था के अनुसार विवादित स्थल ही राम जन्म भूमि है तथा एक न्यायाधीश को यह लगता है कि वहां राम मंदिर भी बनना चाहिए तो यह राम मंदिर वहां से बाबरी मस्जिद को बिना हटाए तो बन नहीं सकता। यह रोचक होता यदि बाबरी मस्जिद अभी भी खड़ी होती तो न्यायाधीश महोदय क्या फैसला देते ?

इस फैसले से भविष्य में नए विवाद खड़े हो सकते हैं। आस्था के आधार पर कोई गैर-कानूनी कार्यवाही कर किसी जगह पर दावा कर सकता है। ऐसी कार्यवाही सामूहिक हो और विशेषकर बहुसंख्यक समाज का समर्थन उसे हासिल हो तो न्यायालय के लिए उचित निर्णय लेना मुश्किल हो जाएगा। फिर अयोध्या फैसला तो एक नजीर बन जाएगा।

इस विवाद ने देश की राजनीति को बहुत पीछे ढकेल दिया है। मंहगाई, खाद्य निगम के गोदामों में सड़ता अनाज, कृषि मंत्री का यह कहना कि भले ही यह अनाज सड़ जाए किंतु गरीबों को नहीं दिया जा सकता, पहले आई.पी.एल. घोटाला व फिर राष्ट्रमण्डल खेलों में भी शर्मनाक घोटाला, जम्मू-कश्मीर में लोगों का असंतोष और भारत सरकार की स्थिति से निपटने में नाकामी, कारपोरेटीकरण के दौर में जगह-जगह छिड़े लोगों के अपनी जमीनों को बचाने के संघर्ष, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीशों का भ्रष्टाचार - ऐसे सारे मुद्दें जिनसे इस देश की जनता का सरोकार है दब गए और जन मानस में अयोध्या फैसले कर भय व्याप्त रहा। यह तथ्य कि फैसला आने से ही शांति भंग की आशंका थी साबित करता है कि इस मुद्दें में हिंसा के बीज छुपे हैं। पहले ही देश इस मुद्दें की वजह से हुई हिंसा से काफी खामियाजा भुगत चुका है।

असल में बाबरी मस्जिद के बीच वाले गुंबद के ठीक नीचे राम जन्म भूमि बताना ही झगड़ा खड़ा करने वाली बात है। यदि आम हिन्दू जिसकी आस्था के नाम पर फैसला हुआ है से पूछा जाए तो शायद वह यह कहे कि उसका कोई ऐसा दुराग्रह नहीं है और न ही वह कोई झगड़ा चाहेगा। यदि हिन्दुत्ववादी संगठन राम मंदिर बनाने को इतना ही इच्छुक हैं तो वे इस मंदिर को अयोध्या स्थित विश्व हिन्दू परिषद के स्वामित्व वाली कारसेवकपुरम की भूमि पर क्यों नहीं बना लेते ? क्या भगवान राम को इस बात का मलाल रहेगा कि उनका भव्य मंदिर ठीक जन्म भूमि वाले स्थान पर नहीं बना ? या इसे हिन्दुओं की आस्था, जो फिलहाल हिन्दुत्ववादी संगठनों ने अपहृत कर ली है, में कोई कमी माना जाएगा ? मुख्य सवाल यह है कि धर्म के नाम पर राजनीति को भारत के आधुनिक लोकतंत्र में कितनी जगह दी जाएगी ? यह बात हम कब कहेंगे कि धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं होना चाहिए।

अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला संविधान के धर्मनिर्पेक्षता के मूल्य और कानून व न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। इससे भारत के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है।

संदीप पाण्डेय

बढ़ते दामों की चुनौती, भुखमरी और हमारे समाज का भविष्य

खाद्य पदाथों के दाम आसमान छू रहे हैं, और अर्थ शास्त्रियों व आंकड़ाविदों को अर्थ व्यवस्था पर मुद्रास्फिती के प्रभाव की चिन्ता है। 10-20 प्रतिशत तक की खाद्य दामों में बढ़ौतरी हफ्ते दर हफ्ते चली आ रही है और विशेषज्ञों का अन्दाजा है कि यह सिलसिला साल के अन्त तक ही थमेगा, वह भी अगर इस वर्ष मानसून मेहरबान रही तो पिछले वर्ष देश में व्यापक स्तर पर सूखे की स्थिति रही है और वह फिलहाल जारी हैं। दामों के मद्देनजर केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने गरीबी रेखा के नीचे आने वाले परिवारों (बी.पी.एल.) के लिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत प्रतिमाह 10 किग्रा अनाज की बढ़ौतरी मंजूर की है। परन्तु आने वाले महीनों में भूख व भूखमरी, कुपोषण व बढ़ती शिशु मृत्युदर का मण्डराता साया सामाजिक चिन्तन में कहीं नजर नहीं आ रहा। या यू कहें कि वह चर्चा का विषय नहीं बना है, शायद इसलिये कि हम 8-9 प्रतिशत वृद्धि दर के साकार होते सपने को धुंधला होता नहीं देखना चाहते।

नैशनल न्यूट्रीशन माँनिटरिंग ब्यूरों के अनेक सर्वेक्षण व अन्य सर्वे सभी दिखाते हैं कि देश में 50-60 प्रतिशत 0-5 वर्ष के बच्चे मध्यम और गम्भीर स्तर के कुपोषण से ग्रसित है । 30-40 प्रतिशत व्यस्कों में भी यह कभी पाई जाती है यानि इन परिवारों में मूल खाने की कमी हैं। ऐसी परिस्थिति में जब जमीन में पानी के भण्डार और घरों में खाद्यान्न के भण्डार विलीन हों रहे है, और बाजार में दाम अधिकांश की जेब के बाहर होते जा रहे हैं, तब यह बताने के लिये किसी भविष्यवाणी की आवश्यकता नहीं कि गरीबी रेखा के नीचे की 30-40 प्रतिशत आबादी व उसके बस ऊपर झूलती अन्य 30-40 प्रतिशत आबादी और भुखमरी बढ़ेगी ही। देश के कई इलाकों से, अखबारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के माध्यम से, भूख से मौतों की इक्का-दुक्का रिपोर्ट आने लगीं हैं। छत्तीसगढ़ के दो-तिहाई जिलों में पिछले दो साल में बच्चों में कुपोषण बढ़ने के आँकड़े सरकारी स्त्रोत से मिलते हैं। अन्य स्थानों से भी स्वास्थ्य कर्मियों को बढ़ते कुपोषण के लक्षण मिलने लगे हैं। यह केवल संकेत भर है कि स्थिति किस ओर बढ़ सकती है। अगर जल्द ही अनेक ठोस व कारगर कदम नहीं उठाये गए तो अनुमान लगाया जा सकता है कि इस साल नवम्बर के बाद से भुखमरी बेतहाशा बढ़ेगी। ऐसे भी कई इलाके/जिले हैं जहाँ स्थिति में सुधार होता दिख रहा है, बच्चों में कुपोषण की दर घटी है। परन्तु गैरबराबरी की खाई भी बढ़ी है और हर इलाके में कुछ तबके व अनेक इलाकों में व्यापक तौर पर, घरों में खाने की मात्रा व गुणवत्ता में गिरावटा आई है। शहरी गरीब को विकास के फायदे भी मिले हैं परन्तु दाम की मार भी उनको ज्यादा परेशान कर सकती है। अच्छा हो अगर भूख और भुखमरी की परिस्थिति उतनी व्यापक व गंभीर न हो जितनी उसकी सम्भावना है। परन्तु अभी से इस समस्या की रोकथाम की कोशिश होनी आवश्यक है, और साथ ही गंभीरतम परिस्थिति का सामना करने की तैयारी भी।

यह स्पष्ट है कि दीर्घकालिक हल आर्थिक नीतियों की पुनरर्चना व ग्रामीण विकास और रोजगार को बढ़ावा जैसी प्रक्रिया बिना नहीं निकल सकते। समग्रता से खाद्यान सुरक्षा, छोटे किसान, भूमिहीन मजदूर व कारीगरों के रोजगार, स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल खेती, और दामों पर नियन्त्रण की नीतियों को अपनानी होंगी। परन्तु इस सब के लिये बहुसंख्य जनता इन्तजार करती रही तो तात्कालिक संकट से कैसे जूझेगी ?

सम्भव तात्कालिक कारगर उपाय

1. सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा महीने का बी.पी.एल. परिवारों को 35 किलो. बेचने का प्रावधान था जिसको हाल में 45 किलो. किया गया। परन्तु यह अभी भी अपर्याप्त है और आवश्यकता है कि 100 किलो. अनाज दिया जाए ताकि 5 व्यक्तियों के परिवार को बाजार से खरीदना न पड़े। गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों के अलावा अन्य के लिये भी यह प्रावधान खोल दिया जाय। राजस्थान सरकार के एक सर्वेक्षण ने दिखाया था कि कुपोषण ग्रसित बच्चों में एक तिहाई ही बी.पी.एल. थे और दो तिहाई तो गरीबी रेखा के ऊपर वाले थे। (ए.पी.एल.) हालांकि बी.पी.एल. में 80 प्रतिशत कुपोषित थे और ए.पी.एल. में लगभग 20 प्रतिशत ही।

२. जिला का प्रशासन भुखमरी से हुई मौत के प्रमाणित होने पर मृतक के परिवार को मुआवजा, खाद्यान अथवा रोजगार देता है। हालांकि प्रमाण इकट्ठे करना जो प्रशासन को मान्य हो, यह अक्सर विवादित रहता है।

3. सूखा ग्रस्त जिलों को चिन्हित कर प्रशासन उनमें रिलीफ का काम चालू करता है। परन्तु यह खाद्यानों के दाम बढ़ने पर लागू नहीं होता, जब तक भुखमरी से मौत का प्रमाण न मिलें।

4. आमतौर पर भी पर्याप्त खानों के दाम 30-40 प्रतिशत आबादी की क्रय शक्ति के बाहर रहते हैं। ऐसे में करोड़ों भारतीय भूखे ही सो जाते है, बहुसंख्य बचपन से ही छोटे कद के व दुर्बल रह जाते है। ऐसे दुर्बल बच्चे व बुजुर्ग बढ़ती खाद्यान की कमी के सबसे पहले शिकार बनते हैं। इस समस्या के हल के लिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा खाद्यान्न का प्रावधान है, और बच्चों व गर्भवती माँओं के लिये आँगनवाड़ी पर पोषण की व्यवस्था है।
स्पष्ट है कि यह उपाय कितने अपर्याप्त साबित हो साबित हो रहे हैं।

ऐसी परिस्थिति मेंकोई भूखा सोएअभियान की सम्भावना

- नागरिक प्रशासन को 9 प्रतिशत की आर्थिक बढ़ोतरी के फल को बांटना पड़ेगा, कम से कम हर परिवार को न्यूनतम भोजन मौहयया कराने के लिये।

- कुपोषण और भुखमरी बढ़ाने के संकेत शुरू में ही पहचानने की व्यवस्था बनानी होगी, ताकि कारगर कदम उठाकर भूख की व्यापकता कम की जा सके।

- चिन्हित इलाकों, समुदायों व परिवारों के लिये, परिस्थिति अनुरूप, कम दरों पर खाद्यान्न, रिलीफ के लिये मजदूरी के काम और समुदायिक रसोई जैसी व्यवस्थाऐं करी जाये।

- स्वास्थ्य विभाग एवं आंगनवाड़ी (आई.सी.डी.एस.) के कार्यकर्ता लगभग हर गाँव व कस्बे में तैनात हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के तहत हर 1000 या उससे भी कम की आबादी पर एक ‘आशा’ है-आठवीं पास गाँव की बहू जिसकों ट्रेनिंग देकर स्वास्थ्य के मुद्दों पर जागरूकता बढ़ानें एवं प्राथमिक उपचार देने के लिये तैयार किया गया है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता व आशा को मिलकर माह में एक दिन ग्रामीण स्वास्थ्य पोषण दिवस मनाना होता है। वहीं बच्चों का वजन मापा जाता है। ए.एन.एम. (डेढ़ साल की ट्रेनिंग पाई नर्स) गर्भवती महिलाओं की जाँच और माँओं व बच्चों का टीकाकरण भी करती है। खेद की बात है कि पोषण पर ध्यान घटता जा रहा है। बच्चों के वजन द्वारा कुपोषण मापने पर कारगर कदम उठाना तो दूर, कुपोषण दर्ज करने पर ही पाबन्दी हैं। अब स्वास्थ्य मंत्रालय व महिला व बाल विकास डिपार्टमेंट के अफसर और नीतिनिर्थाक भी इससे चिन्तित है, और कुछ कारगर उपाय खोज रहे हैं। पोषण व स्वास्थ्य के काम में तालमेंल बढ़ाना इसका एक तरीका है।

- इस संयुक्त काम को इस साल अगर मुहिम के तौर पर उठाया जाए तो प्रशासन, स्वास्थ्य सेवा व आई.सी.डी.एस. तीनों को कुपोषण की समस्या पर फिर ध्यान केन्द्रित करना होगा। सरकार व राजनैतिक पार्टियां लोगों की एक प्रमुख समस्या पर कुछ ठोस काम करती नजर आएंगी।

- बच्चों के वजन पर महीनेवार सख्त निगरानी रखने से पता लगाया जा सकता है कि किस इलाके या आबादी में 20 प्रतिशत से अधिक बच्चों का वजन घटा है। इसकों समुदाय में बिगड़ती खाद्य परिस्थिति और सम्भावित भुखमरी का द्योतक माना जा सकता है। ऐसी स्थिति की रिपोर्ट तुरन्त पंचायत व जिला कलेक्टर को दी जाए, और वह उपरोक्त कदम लेने के लिये तैयार रहें, तो भुखमरी के कारण मौतों की रोकथाम हो सकती है।

-जहाँ अब तक आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को ज्यादा कुपोषण रिपोर्ट न करने की मौखिक हिदायत दी जाती है, जरूरी है कि अब कुपोषित बच्चे चिन्हित करने पर उन्हें (व आशा को) इनाम दिया जाए।

- ग्राम स्वास्थ्य एवं स्वच्छता समिति व पंचायत मिलकर इसका ध्यान रखे कि क्या गाँव के परिवारों में खाने का अभाव है, और यदि हाँ तो कौन भूख का शिकार हैं। इसका वह प्रशासन से उपाय मांगें। इससे आगे, वह सरकार द्वारा दिया सालाना रू. 10,०००/- व अन्य चन्दा इकट्ठा करके ‘कोई भूखा न सोए’ अभियान चला सकते हैं।

- स्वयंसेवी व विभिन्न आंदोलन समूह भी इस काम में जुड़े। सरकारी कार्यक्रमों में उन्हें जोड़ा जाए ताकि ग्राम स्वास्थ्य एवं स्वच्छा समिति कारगर बनें, आशा व आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के काम में मजबूती लाएं। परन्तु सरकारी कार्यक्रम हो या न हो, स्वयंसेवी आन्दोलन समूह अगर अपने-अपने क्षेत्र में अपने ही कार्यकर्ताओं के माध्यम से यह कार्य शुरू कर दें और गाँव व मौहल्ले के स्तर पर ‘कोई भूखा न सोए’ अभियान चालू कर दें तो उसका कुछ तो असर होगा।

- मन्दिर-मस्जिद-गुरूद्वारे, व्यापारी मण्डल और कॉर्पोरेट सोशल रिस्पोंन्सिबिलिटि निभाने वाले समूह सभी इस बुनियादी अभाव को दूर कर देश को इस कलंक से मुक्ति दिलाने के लिये एक लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकते हैं।

इसके लिये राजनैतिक संकल्प की आवश्यकता है और ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों की जो समाज की त्रासदी और लोगों की पीड़ा के कारगर निदान के लिये कदम लेने को तत्पर हो। अगर हम अभी बड़े पैमाने पर ऐसे कदम नही उठाएंगे तो देश ‘मिलेनियम डिवेल्पमेन्ट गोल्ज’ व राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लक्ष्यों की चुनौती से और दूर चला जाएगा।

आज हमारा देश और समाज जिस चौराहे पर खड़ा है, हमारे भविष्य की शक्ल ऐसी चुनौतियों से ही निर्णायक रूप लेगी। हम सब एक जुट होकर कैसे इस चुनौती का सामना करते है, उससे तय होगा कि हमारा समाज एक जिंदा, मजबूत, संवेदनशील और मानव अधिकारों को मानवीयता और जरूरतमंद की सेवा से जोड़ने वाले समाज के रूप में उभरेगा, या अपने सदस्यों को भूख से तड़पने को छोड़ बेमुरव्वत, गैरजिम्मेवार, बंटा हुआ व संवेदनशून्य समाज बनेगा।

डॉ. रितु प्रिया

अयोध्या और पाकिस्तान

-हामिद मीर, इस्लामाबाद से

बाबरी मस्जिद विवाद के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले पर किसी पाकिस्तानी मुसलमान के लिये निष्पक्ष टिप्पणी करना बेहद मुश्किल है। पाकिस्तान के अधिकांश मुसलमान मानते हैं कि यहकानूनीनहींराजनीतिकफैसला है। फैसला आने के तुरंत बाद मैंने अपने टीवी शोकैपिटल टॉकके फेस बुक पर आम पाकिस्तानी लोगों की राय जानने की कोशिश की।

बहुत से पाकिस्तानी इस फैसले से खुश नहीं थे लेकिन मैं एक टिप्पणी को लेकर चकित था, जिसमें कहा गया था किइलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय मुसलमानों को बचा लिया।कुछ पाकिस्तानियों ने मुझे लिखा कियह उचित फैसला है।इनअल्पसंख्यकलेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणियों ने मुझे एक भारतीय समाचार माध्यम के लिये लिखने को प्रेरित किया।

पाकिस्तान का राष्ट्रीय झंड़ा
सबसे पहले तो मैं अपने भारतीय पाठकों को साफ करना चाहूंगा कि पाकिस्तानी मीडिया ने कभी भी इस फैसले को लेकर हिंदूओं के खिलाफ नफरत फैलाने की कोई कोशिश नहीं की। पाकिस्तान के सबसे बड़े निजी टेलीविजन चैनल जिओ टीवी पर इसका कवरेज बेहद संतुलित था। जिओ टीवी ने मुस्लिम जज जस्टिस एसयू खान के फैसले को प्रमुखता दी, जो हिंदू और मुस्लिम दोनों कौमों को अयोध्या की जमीन बराबरी से देने पर सहमत थे।

पाकिस्तानी मुसलमानों में अधिकांश सुन्नी बरेलवी विचारधारा के लोग हैं। सुन्नी बरेलवी मुसलमानों में सर्वाधिक सम्मानित विद्वान मुफ्ती मुन्नीबुर रहमान 30 सितंबर की रात 9 बजे के जीओ टीवी के न्यूज बुलेटिन में उपस्थित थे। उन्होंने फैसले पर अपनी राय देते हुये कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला राजनीतिक है लेकिन उन्होंने भारतीय मुसलमानों से अपील की किउन्हें अपनी भावनाओं पर काबू रखना चाहिये और इस्लाम के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा से उन्हें दूर रहना चाहिए।

मैं 1992 में बाबरी मस्जिद के गिराये जाने के बाद पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों पर किये गये हमले को याद करता हूं। पाकिस्तान में चरमपंथी संगठनों ने उस त्रासदी का खूब फायदा उठाया। असल में चरमपंथी इस विवाद के सर्वाधिक लाभ उठाने वालों में थे, जो यह साबित करने की कोशिश में थे कि भारत के सभी हिंदू भारत के सभी मुसलमानों के दुश्मन हैं, जो सच नहीं था। 2001 तक बाबरी मस्जिद विवाद बहुत से लेखकों और पत्रकारों के लेखन का विषय था।

/११ की घटना ने पूरी दुनिया को बदल दिया और पाकिस्तानी चरमपंथी गुटों की निगाहें भारत से मुड़कर अमरीका की ओर तन गईं। २००७ में पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामाबाद के लाल मस्जिद पर किये गये हमले के बाद तो बाबरी मस्जिद विवाद का महत्व और भी कम हो गया। अधिकांश पाकिस्तानी मुसलमानों की सही या गलत राय थी कि अपदस्थ किये गये पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश के पक्ष में वकीलों के आंदोलन से ध्यान हटाने के लिये यह परवेज मुशर्रफ द्वारा खुद ही रचा गया ड्रामा था। मुझे याद है कि 2007 में बहुत से मुस्लिम विद्वानों ने यह कहा था कि हम उन अतिवादी हिंदुओं की भत्र्सना करते हैं, जिन्होंने बाबरी मस्जिद पर हमला किया लेकिन अब पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामाबाद में एक मस्जिद पर हमला किया गया है, तब हम क्या कहें ?

लाल मस्जिद ऑपरेशन ने पाकिस्तान में ज्यादा अतिवादिता फैलाई और वह एक नये दौर की शुरुवात थी। चरमपंथियों ने सुरक्षाबलों पर आत्मघाती हमले शुरु कर दिया और कुछ समय बाद तो वे उन सभी मस्जिदों पर भी हमला बोलने लगे, जहां सुरक्षा बल के अधिकारी नमाज पढ़ते थे। मैं यह स्वीकार करता हूं कि भारत में गैर मुसलमानों द्वारा जितने मस्जिद तोड़े गये होंगे, पाकिस्तान में उससे कहीं अधिक मस्जिदें तथाकथित मुसलमानों द्वारा तोड़ी गयी।

मेरी राय में किसी भी पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ या मजहबी गुट को बाबरी मस्जिद विवाद का फायदा उठाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। इस विवाद को भारत के मुसलमानों को और हिंदुओं पर छोड़ देना चाहिये, जो अपने कानूनी प्रक्रिया से इसे सुलझायेंगे। सुन्नी वक्फ बोर्ड फैसले से खुश नहीं है लेकिन आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में सुलह की उम्मीद देख रहा है। एक पाकिस्तानी के तौर पर हम क्या कर सकते हैं ?

मैं सोचता हूं कि बतौर पाकिस्तानी हमें अपने मुल्क के अल्पसंख्यकों को और अधिक कानूनी, राजनीतिक और नैतिक संरक्षण दें। सत्ता और विपक्ष में शामिल अपने कई मित्रों को मैंने पहले भी सुझाव दिया है कि हम पाकिस्तानी हिंदुओं, सिक्खों और इसाईयों के हितों का और ख्याल रखें। वो जितने मंदिर या चर्च बनाना चाहें, हम इसकी अनुमति उन्हें दें। हमें पाकिस्तान के ऐसे भू-माफियाओं को हतोत्साहित करने की जरुरत है, जो सिंध और मध्य पंजाब के हिंदू मंदिरों और गिरजाघरों पर कब्जे की कोशिश करते रहते हैं। जब हम पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों को अधिक से अधिक संरक्षण देंगे तो भारतीय भी ऐसा ही करेंगे और वे अपने मुल्क के अल्पसंख्यकों की ज्यादा हिफाजत करेंगे.

पाकिस्तानियों को अपने मस्जिदों की हिफाजत करनी चाहिये। आज की तारीख में हमारे मस्जिद हिंदु अतिवादियों के नहीं, मुस्लिम अतिवादियों के निशाने पर हैं। अतिवाद एक सोच का तरीका है-- इनका कोई मजहब नहीं होता। लेकिन कभी ये इस्लाम के नाम पर, कभी हिंदु धर्म के नाम पर तो कभी इजराइयल के नाम पर हमारे सामने आते हैं। हमें इन सबकी भत्र्सना करनी चाहिए.

ग्राम स्वराज पर यकीन रखने वाले प्रत्याशियों का चुनावी घोषणा पत्र

अभी कुछ महीनों पहले, हरियाणा के बेवल गांव से एक ३४ वर्षीय स्वामी संजय ब्रह्मचारी प्रधानी का चुनाव जीते। सच्चाई के रास्ते पर चलने वाले इस स्वामी ने चुनावी प्रचार के दौरान जनता से वादा किया था, ''अगर मैं जीता तो सभी निर्णय खुले में सारे गाँव की जनता के साथ ग्राम सभा में लिया करूंगा।'' जीतने के बाद उन्होंने ऐलान किया कि पिछले प्रधान से चार्ज वह सारे गाँव के सामने खुले में लेंगे। उनके इस ऐलान ने सारे प्रशासन के होश उड़ा दिए हैं। अगर स्वामी जी खुले में चार्ज लेंगे तो पुरानी सारी चोरियों का भंडाफोड़ हो जाएगा। एक दिन जब कुछ अधिकारी चार्ज देने आये तो गाँव के लोग सारे बही खाते लेकर बैठ गये। कुछ घंटों में ही ढेरों गडबडिया सामने आ गई।

- अगर मैं जीता तो मैं भी शपथ लेता हूँ कि हरियाणा के स्वामी जी महाराज की तरह मैं भी सभी निर्णय जनता के सामने, जनता के साथ मिलकर, सारे गाँव की खुली बैठक में ही लिया करूंगा। मैं वचन देता हूँ कि अपने से कोई निर्णय नहीं लूंगा।
- सबसे पहले मैं हरियाणा के स्वामी जी महाराज की तरह पुराने प्रधान से चार्ज सारे गाँव के सामने लूंगा।
- कानूनन साल में चार बार गाँव की खुली बैठक होनी चाहिए । मैं कम से कम हर महीने में एक बार जरुर गाँव की खुली बैठक बुलाऊंगा । जरूरत पड़ने पर महीने में अधिक बैठक भी बुलाऊंगा।
- पंचायत के सारे रिकार्ड और कागजात जनता के लिये हमेशा खुले रहेंगें। कभी भी किसी भी दिन जनता का कोई भी व्यक्ति पंचायत के सारे रिकार्ड देखकर उनकी प्रतियाँ ले सकता है। आपको सूचना के अधिकार के तहत आवेदन करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। ये आपके रिकार्ड हैं। मेरा इन पर कोई अधिकार नहीं है । जनता मालिक है। मालिक कभी भी आकर अपने रिकार्ड देख सकता है।
- गाँव में वही काम और वही कार्यक्रम चलाए जायेंगे जो जनता मालिक खुली बैठकों में तय करेगी । ये जनता की देख-रेख और संचालन में चलाए जायेंगें।
- सभी सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों की सूची केवल और केवल खुली बैठकों में ही बनेगी।
-यदि कोई सरकारी अधिकारी गाँव के संबंध में पैसा या कार्य मंजूर करने के लिए रिश्वत मांगेगा, तो मैं यह बात सारे गाँव की खुली बैठक बुलाकर सबके सामने रख दूंगा। गाँव वालों से चंदा इकट्ठा करके रिश्वत के पैसों का जिला क्लैक्टर के नाम डिमांड डाट बनवा कर उन्हें भिजवाया जाएगा और उनसे निवेदन किया जाएगा कि वे अपने उस अधिकारी कों रिश्वत के पैसे भिजवा दें और हमारा काम करवा दें। यह बात सभी स्थानीय अखबारों में छपवा दी जाएगी । मुझे उम्मीद है कि इसके बाद किसी की गाँव वालों से रिश्वत मांगने की हिम्मत नहीं होगी

देश
की पार्टियों ने देश को जाती और मजहब के नाम पर बाँट कर रोटियाँ सेकी। हमें गाँव को इकट्ठा करना होगा। अब हमारे गाँव को गाँव की ग्राम सभा चलाएगी। इस सभा में सभी जाति और धर्म के लोग बैठेंगे। औरत और मर्द बैठेंगे। जवान और बूढ़े बैठेंगे । १८ वर्ष की आयु से बड़ा हर व्यक्ति वहाँ बैठेगा ? ऐसा नहीं कि गाँव सभा में विवाद नहीं होंगे। बिल्कुल होंगे। हम लड़ेंगे, झगड़ेंगे पर अंत में निर्णय भी होंगे। हमारे गाँव कों हम चलायेंगे। बाहर के अफसरों और नेताओं का हमारे गाँव में हस्तक्षेप बिल्कुल बंद हो। देश, प्रांत, जिला और गाँव की राजनीति दूषित हो चुकी है। इसे तुरन्त नहीं सुधारा गया तो न गाँव बचेगा न देश। राजनैतिक शुद्धिकरण की दिशा में मैं आपका सहयोग चाहता हूँ।

सरपंच के ब्यौरे से लेकर प्रधानमन्त्री की कार्यवाई तक का खुलासा

मुझे याद है जब मैं पहली बार १९९९ में अपनी ग्राम पंचायत मल्हनी देवरिया के विकास सम्बन्धी खर्चों की जानकारी प्राप्त करने के लिए तत्कालीन मुख्य विकास अधिकारी श्री मुकेश मेंश्राम जी को आवेदन किया था, तब के .प्र. में सूचना के अधिकार का कानून नहीं था लेकिन पंचायतराज कानून के तहत हमने जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया था लेकिन मुझे बार-बार चक्कर लगाने के बाद भी जानकारियाँ नहीं उपलब्ध कराई गई, पर संघर्ष जारी रहा, यह जान कर काफी ख़ुशी हुई कि देश में जगह जगह इस तरह के संघर्ष चल रहे हैं जिसमें तमाम जाने - माने नागरिक अपनी भूमिका में लगे रहे हैं। समय बीतता गया संघर्ष अपनी मजबूती की तरफ बढ़ता रहा, जनता ने अपने हक को जानने के लिए नये - नये तरीके ईजाद कर एक जन अभियान का शक्ल देने लगी, इस पूरे जन अभियान को राष्ट्रीय स्तर पर संगठित करने में श्रीमती अरुणाराय उनके साथी मजदूर किसान शक्ति संगठन के वैनर तले राजस्थान से शुरू कर पूरे देश में फैलाते रहे, राष्ट्रिय स्तर पर एक मंच एन. सी.आर.आर.आई. भी कार्य करने लगा, २००२ के बाद यह जन अभियान जैसे दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल .प्र. डॉ. संदीप पाण्डेय महाराष्ट में श्री अन्ना हजारे जी एवं तमाम अन्य व्यक्ति, संगठन इस जन अभियान को जनता के साथ मिलकर बढाने लगे, जगह - जगह सूचना पाने के लिए लड़ाईयां तेज होने लगी तथा लोग कहाँ क्या हो रहा है जानने के लिए संघर्ष करने लगे।

संघर्ष का ही परिणाम रहा कि २००५ में उपरोक्त अधिनियम को इस देश की संसद ने जन दबाव में जनता के लिए जनता के सामने कानून के रूप में रखा एवं उसकों कानूनी शक्ल दिया। यह वो समय था जब पहली बार लगा कि देश में आजादी का भी एक मतलब होता है वही दूसरी तरफ वषों से जनता का खून चूस रहे था शहीदों को अप्रत्यक्ष गाली देने वाले नौकरशाह इससे बचने के लिये नये - नये तरीके ढूढने लगे, जनता - नौकरशाह के इस खेल की कुछ वानगी पर आईए गौर करते हैं - पहला ग्राम औराखोर वि० ख० - फालिका नगर जिला कुशीनगर निवासी कन्हैया पाण्डेय ने अपने गाँव के विकास कार्यों की जानकारी के लिए अधिनियम के तहत आवेदन किया।

सूचना नहीं मिली तो विकास खंड मुख्यालय पर ग्रामीण धरने पर बैठ गये पाँच दिन के धरने के बाद पूरा समूह जिलाधिकारी कार्यालय पर आकर धरना शुरू किया, आश्वासन मिलने के बाद धरना तो ख़त्म हो गया लेकिन सारी जानकारियाँ उपलब्ध नहीं कराई गयी तथा प्रधान और उसके गुंडों के द्वारा उनको बेरहमी से मारा पिटा गया फर्जी मुकदमों में फंसाकर उनको जेल में डाल दिया गया, ऐसे बुजर्गो तक पर मुकदमा डाला गया जो ७० वर्षो के ऊपर में थे, सब जमानत पर छुट कर बाहर है।

और आज भी उसी दिल्लगी से संघर्ष के तूफानों में लगे है। दूसरी तरफ नजर दौड़ाते है तो मिलता है कि देश में तमाम कार्यकर्ताओं की ह्त्या तक करा दी गयी है। जो आवेदन लगातें हैं या सूचनायें निकालकर पर्दाफाश करते है पर एक बात स्पष्ट है कि एक आम आदमी आज डी.एम. से उसके सभी सरकारी कार्यों का हिसाब मांगता है, प्रधानमन्त्री कार्यालय, राष्ट्रपति कार्यालय के संवाद तक भी प्रतियाँ निकाली जा रही है तथा आज पूरा देश इन सब चीजों कों देखता परखता है आजादी के एक लम्बे अंतराल के बाद मिला यह अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार हैं।

हजारों लोगों के रुके हुए पासपोर्ट बने, हजारों के राशन कार्ड बने, पेंशन मिली, बहुत सारी चीजें खुली जिसका कि हम सपना देखते थे, अभी सबसे बड़ी जरूरत है जन भागीदारी कों बढ़ाना ज्यादा से ज्यादा आवेदन लगाना, जब तक आम जनता आगे नही आएगी तब तक इस अधिनियम का सपना साकार नही हो सकता है आज एक द्वन्द सा बना हुआ है जनता एवं अफसर शाही में और इसमें नेताओं की तीसरी भूमिका भी बड़ी ही संदेहास्पद है इस द्वन्द कों जनता ही तोड़ेगी, जब यह टुटेगा वह दिन गाँधी के सपनों का दिन होगा आइये हम सब मिलकर इस दिशा में जनसहभागिता कों मजबूत करने का प्रयास करें जिससे कि इस लोकतंत्र में आम आदमी की भूमिका सुनिश्चित हो सकें

-केशव चन्द वैरागी

राज्य सरकार के सिविल पेंशनर अपना हक जानें सूचना का अधिकार कानून का करिश्मा

दिनांक ०१.०१.१० के पूर्व वेतनमानों से सेवानिवृत्त सिविल पेंशनरों / पारिवारिक पेंशन का अभिनवीकरण संबंधित कोषागारों द्वारा सुनिश्चित किया जाएगा। श्री पी लाल अनुसचिव एवं जनसूचना अधिकारी .प्र. शासन वित्त सामान्य अनुभाग- संख्या सा-- १६४० /दस- २०१०-८६ सूचना /२०१० दिनांक- १४/०९/२०१० द्वारा कोषागार देवरिया के पेंशनर का व्यास मुनि मिश्र का संशोधित यह सूचना उपलब्ध कराई गई है शासन का कार्यालय ज्ञाप संख्या सा- -१३५८ -दस - २०१० दिनांक -१९.०७.१० द्वारा प्रतिस्थापित व्यवस्था के आधार प्र दिनांक -०१/०१/२००६ के पूर्व सेवा निवृत राज्य सरकार के सिविल पेंशनरों / पारिवारिक पेंशनरों के २१ वेतनमानों के पेंशन / पारिवारिक पेंशन का अभिनवीकरण दिनांक - ०१-०१-०६ से किया जाएगा।

यह ज्ञातव्य है कि इसके पूर्व इसी जनसूचना अधिकारी श्री पी लाल द्वारा उत्तर प्रदेश शासन वित सामान्य अनुभाग -३ के संख्या सा-९९ सूचना-/ दस -२०१० -८६
सूचना / २०१० दिनांक ०९-०८-१० द्वारा श्री मिश्र को सूचना उपलब्ध कराई गई थी उसमें उल्लेखित है कि वांछित सूचना, सूचना के अधिकार अधिनियम २००५ की धारा-२ च के परिभाषा से आच्छादित नहीं है के विरुद्ध है । श्री मिश्र ने लोक प्राधिकारियों के बाध्यकारी कर्त्तव्यों / दायित्तवों की की धारा -३,४,६ व ७ में निहित प्राविधानों का सही अनुपालन न किये जाने के कारण आवेदक को सूचना के अधिकार से वंचित रखने वाली सूचना पुष्ट करते हुए अपनी आपत्ति दिनांक २४-०८-१० प्रस्तुत किया था साथ ही साथ धारा - धारा परिभाषाएं को उद्धत कर उससे आच्छादित सिद्ध किया था।

यह उल्लेखनीय है कि का व्यास मुनि मिश्र ने सूचना उपलब्ध कराने के आवेदन पत्र दिनांक २७-०१-१० द्वारा राज्य सरकार के सिविल पेशनरों के पेंशन / पारिवारिक पेंशन के अभिनवीकरण हेतु अनुमन्य एवं उसके सुचारू रूप से क्रियान्वयन और आवश्यक स्पष्टीकरण के संबंध में जारी शासन देशों के विषय वस्तु का उल्लेख करते हुए कोषागार देवरिया से ४ बिन्दुओं पर संदर्भ के सर्वथा अपेक्षित सूचना की जो मांग की थी उसके स्थान पर वरिष्ठ कोषाधिकारी देवरिया के पत्रांक १६०९ दिनांक ११-०२-१० द्वारा अपना प्रतिवाद उपलब्ध कराया गया। इस प्रतिवाद के बिंदु -४ में यह उल्लेख किया गया है कि क्रम सं० ४ में अंकित पेंशन निर्धारण का विवरण शासना देश दिनांक ०७-०१-०९ के पैरा -२ के अनुसार त्रुटिपूर्ण है कि छाया प्रति संलग्न करते हुए का मिश्र ने त्रुटि- सुधार हेतु वित सामान्य अनुभाग -३ उत्तर प्रदेश शासन को संदर्मिकर दिया था।

का० व्यासमुनि मिश्र एन.ए.पी.एम. द्वारा सूचना जानने का हक के प्रचार-प्रसार चलाये जाने वाले जागरूकता अभियान से जुड़े हैं।

-केशव चन्द्र बैरागी

आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं की शहादत को श्रद्धांजलि

देश भर में लगातार हो रही आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं की ह्त्या उत्पीड़न के मामलों में खासी वृद्धि हुई है। एक तरफ जहाँ सरकार सूचना अधिकार अधिनियम कों फैलाने और विभागों में पारदर्शिता लाने की नसीहत दे रही है। वही दूसरी ओर आम जनता को किसी भी मामलें में सूचना देकर उसका उत्पीड़न किया जा रहा है। बीते कुछ महीनों में आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं की ताबड़तोड़ हुई हत्यों से देश भर के सामाजिक संगठनों में रोष व्याप्त है। गौरतलब है की अहमदाबाद के आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं ने गिरी के जंगलो में हो रही अवैध कटान के खिलाफ आर.टी.आई. का इस्तेमाल कर एक जन आन्दोलन खड़ा किया। जो कटान माफियाओं को नागवार गुजरा ओर २० जुलाई २०१० को इस आर.टी.आई. कार्यकर्ता अमित जाठवा की अहमदाबाद हाई कोर्ट के सामने गोली मारकर ह्त्या कर दी गई। वहीं मराठवाड़ा में काम कर रहें आर.टी.आई. कार्यकर्ता रामदास पाटिल जो वहन पर अवैध बालू खनन ओर सार्वजनिक राशन वितरण प्रणाली में हो रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आर.टी.आई. का इस्तेमाल कर एक जन संघर्ष चला रहे थे, उनकी भी हाल ही में २७ अगस्त २०१० को मुम्बई में ह्त्या कर दी गई। दिन पर दिन सूचना मांगने पर मिलती मौत साथ ही उत्पीड़न के खिलाफ दिन पर दिन सूचना मांगने पर मिलती मौत साथ ही उत्पीड़न के खिलाफ और RTI कार्यकर्ताओं की शहादत कों याद करते हुए आज सितम्बर २०१० कों शाम बजे गाँधी प्रतिमा फूलबाग में श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

आज की शहादत श्रद्धांजलि सभा की शुरुआत मिनट का मौन रखकर शुरू की गयी। इसके बाद अपना घर के बच्चों ने गायेगा गायेगा ज़माना गायेगा गीत गाकर गोष्ठी की शुरुआत की गोष्ठी के दौरान सरकार और जन प्रतिनिधियों से ये अपील की गई कि हत्यारोपियों को कठोर से कठोर सजा दिया जाय और देश हित में जान गंवाने वाले इन शहीद आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं के परिवार को उचित मुआवजा दिया जाय। साथ ही ये भी मांग की गई कि आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं की ह्त्या और उत्पीडन रोकने के लिए सरकार कोई गंभीर कदम उठाये जिससे सूचना अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल आम आदमी बेखौफ होकर कर सके। सभा में कुलदीप सक्सेना ने कहा कि आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं की ह्त्या सिर्फ व्यक्ति की ह्त्या नही बल्कि ये लोकतंत्र की ह्त्या है और हम सभी इसका पुरजोर विरोध करते है। दीपक मालवीय जी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं की शहादत की सच्ची श्रद्धांजलि सही अर्थों में तभी होगी जब इस दश का हर व्यक्ति आर.टी.आई. का इस्तेमाल करेगा। विजय चावला जी ने कहा कि ये लोकतंत्र पर बड़ा हमला है। हमें इन साजिशों के अन्य तथ्यों को भी समझना पड़ेगा तभी हम इन ताकतों के खिलाफ सही तरीके से लड़ सकेंगे। आर.टी.आई. कार्यकर्ता नरेश ने कहा कि अमिज जाठवा और रामदास पाटिल की शहादत को हम बेकार नही जाने देंगे। इनकी खून की एक एक बूंद भ्रष्टाचार की ताबूत में अंतिम कील साबित होगी।

गिरिराज किशोर जी द्वारा मोमबत्ती जलाकर शहीद हुए आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं कों सच्चें अर्थों में श्रद्धांजलि अर्पित की गई। मोमबत्ती जलाने के कार्यक्रम के दौरान जगदम्बा भाई ने गाँधी जी का प्रिय भजन रघुपति राघव राजाराम गाया। महामहिम राष्ट्रपति के नाम एक ज्ञापन भी स्थानीय प्रशासन के माध्यम से भेजा गया।

आज के इस श्रद्धांजलि सभा में मुख्य रूप से गिरिराज किशोर, कुलदीप सक्सेना, विजय चावला, विष्णु शुक्ला, दीपक मालवीय, आर.के. तिवारी शंकर सिंह, नीरजा, डॉ. ए. सिद्दकी, इस्लाम आजाद, विष्णु अग्रवाल, नरेश, दीनदयाल, महेश पाण्डे आदि ने शिरकत की। आज के श्रद्धांजलि कार्यक्रम में सूचना का अधिकार अभियान उत्तर प्रदेश जन चेतना कला मंच, लोक सेवक मडंल, जन सूचना जागृति मिशन, सूचना जनहिताय जागरूकता केंद्र, सोवियर, एन.ए .पी.एम, आशा, श्रामिक भारती, चित्रगुप्त सभा और अन्य मजदुर संगठन तथा जन सगंठनों ने प्रमुख रूप से भागीदारी की।
महेश

भारत-पाक शान्ति कारवाँ-२०१० (अमन के बढ़ते कदम )

इतिहास गवाह है कि आजादी से पहले भारत पाकिस्तान की सरजमीं एक थी. फिर बंटवारा तो आजादी के बाद हुआ है। बंटवारे के बाद आज लगभग ६३ साल बीत जाने पर भी दोनों देशों की ओर से बंदूकें ताने वीर सिपाही खड़े हैं, जो एक-दूसरे पर वार करने को तत्पर हैं, जबकि आम-जनता ऐसा नहीं चाहती है आम-जनता को तो केवल शान्ति चाहिए जिस प्रकार से शान्ति के लिये जर्मनी की जनता बर्लिन दीवार को तोड़कर संगठित हो गयी थी उसी प्रकार से भारत पाकिस्तान की आम जनता को भी चाहिए कि वह संगठित होकर बिना किसी राजनैतिक सहायता के स्वयं पहल करे

इसी भारत-पाकिस्तान को एक करने के सपने को अपना उद्देश्य बनाकर मैग्सेसे पुरस्कार विजेता, आशा परिवार के संचालक तथा महान सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. संदीप पाण्डेय के नेतृत्व में 'अमन के बढ़ते कदम' नामक एक सामूहिक पहल कि गई इस यात्रा का शुभारम्भ भारत में २८ जुलाई को मुंबई के 'मणिभवन' नामक स्थान से हुआ। यह यात्रा दोनों देशों के बीच शान्ति आपसी-प्रेम को बढाने के लिये थी इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित चार मुद्दों पर जनता व सरकार का ध्यान केन्द्रित करना था-
)-भारत- यात्रा के लिए वीसा पासपोर्ट की आवश्यकता समाप्त हो जाए और जिस प्रकार से भारत के सम्बन्ध नेपाल से हैं उसी प्रकार पाकिस्तान से भी हो जाए
)-भारत-पाकिस्तान के किसी भी मसले का हल आपस में बैठकर मैत्रीभाव से निकाला जाए
)-कश्मीर के मसले का हल किसी भी देश की सरकार या कोई भी राजनैतिक पहलू को अपनाकर वहां की जनता पर ही छोड़ दिया जाए
4)-भारत-पाकिस्तान की सीमा से परमाणु हथियार तथा बारूदी सुरंगों को नष्ट कर दिया जाय

अतः समाज हित, एक ने उद्देश्य लेकर यात्रा मुंबई से बस द्वारा वाना हुई और कई शहरों कई गाँवों से गुजरते हुए भाई-चारे की भावना को बढ़ावे शान्ति का सन्देश देते हुए १० अगस्त को दिल्ली पहुँची

जैसी यात्रा इस देश में मुंबई से निकली थी वैसी ही यात्रा पाकिस्तान में कराची से निकली थीइन दोनों यात्राओं के साथ में एक-एक कलश था जिसमे इस यात्रा में चलने वाले लोगों द्वारा अपने-अपने देशों में विभिन्न राज्यों गाँवों से गुजरते हुए वहाँ की थोड़ी सी मिट्टी डाल दी जातीऔर यह दोनों देशों द्वारा कलश में मिट्टी लाने का उद्देश्य केवल इतना था कि जो भी कलश में इन दोनों देशों द्वारा लायी गयी मिट्टी है उसको मिलाकर सीमा पर एक पीपल का वृक्ष लगाया जाएगा जो 'शान्ति' का प्रतीक है

भाई-चारे का ही बड़ा सन्देश यह था कि हमारे समूह में जो भी कार्यकर्त्ता इस कारवां में चल रहे थे वे अलग-अलग प्रान्तों अलग-अलग धर्मों के होते हुए भी कोई उनमे जाति धर्म के विषय में कोई मतभेद नही था यात्रा के दौरान सभी लोग विभिन्न धर्मों के देवस्थानों जैसे मंदिरों, मस्जिदों गुरुद्वारों में रात्रि विश्राम करते, वहां का प्रसाद ग्रहण करते हुए यात्रा के सफल होने की मंगल कामना करते हुए आगे बढ़ते जब सभी का उद्देश्य एक ही है -- 'भारत-पाक की शांति'-- फिर हम जाति-धर्म के नाम पर क्यूँ लड़े ? यदि ऐसे ही लड़ते रहे तो शायद भारत-पाकिस्तान को एक होने में बहुत समय लगेगा यही विचारधारा थी यात्रा में उपस्थित लोगों की जो 'इंसानियत' को ही सबसे बड़ा धर्म मानते थे

इस यात्रा में जो साथी कुछ उम्रदराज थे उनमें जो उत्साह दिखाई पड़ रहा था वह युवा यात्रियों से किसी भी मायने में कम नही आँका जा सकता जिसमे सरदार गुरुदयाल सिंह, शीतल जी मो. हनीफ गांधी जैसे लोग शामिल थे सभी लोग एक नए उत्साह, उमंग जोश के साथ बस में बैठकर पैदल मार्च करते हुए और नारे लगाते हुए, जन-जन तक अपना सन्देश पहुँचाते हुए आगे बढ़ते

जब बस दिल्ली से सोनीपत के लिये रवाना हुई तो रास्ते से गुजरते हुए जिस भी व्यक्ति की नजर इस कारवाँ की बस पर पड़ती वह आश्चर्यचकित अचंभित होकर तब तक देखता रहता जब तक की बस उसकी नजरों से ओझल नही हो जाती आश्चर्य क्यूँ हो, आखिर आश्चर्य जनक बात ही थी

आखिर ६३ सालों के गुजर जाने के बाद भी हम एक होते हुए भी एक क्यों नही हो पाए ? कितनी दयनीय स्थिति है यहाँ के जागरूक लोगों की जो अपने देश के लिये थोडा सा समय नही निकाल पा रहे हैंजो भी लोग जानकार हैं उन्हें लोगों को ऐसी बातें बतानी चाहिए कि आखिर देश का विकास हो तो कैसे हो ? सरकार का लगभग ६०% का खर्चा तो सुरक्षा व्यवस्था पर ही जाता है. यदि भारत-पाकिस्तान के सम्बन्ध आपस में मधुर हो जाएँ तो यही पैसा विकास के कार्यों में लगाकर एक सम्रद्ध राष्ट्र बनाया जा सकता है

हमारे भारतीय लोग तो पहले से ही रेलगाड़ी के डिब्बे की भांति हैं। उनको इस रेलगाड़ी के इंजन की आवश्यकता पहले भी थी और आज भी हैयदि हम लोग यह सोंचे कि राजनैतिक मसले से कोई हल निकलने वाला है तो यह संभव नही हैहमको इसके लिये स्वयं को तैयार करना होगा। यदि ऐसे खयालात से डॉ संदीप पाण्डेय जी ने पहल की है तो हमें उनका कदम- कदम पर साथ देना चाहिएधन्य हैं वो लोग जो भारत में निकली इस यात्रा के लिये थोडा सा समय निकाल कर यात्रा में शामिल हुए

अमृतसर के गाँधी परेड ग्राउंड में जो सेमिनार आयोजित हुआ उसमे पाकिस्तान के भी कुछ साथी सम्मिलित थे। भारत के लोगों ने उनका बड़ी ही प्रसन्नता से स्वागत किया और ऐसा माहौल बन गया कि लगता था जैसे हम सब मिलजुल कर कोई त्यौहार मना रहे हैं। कितना मनोरम दृश्य था

वहां पर पाकिस्तान से आये हुए लोगों की बातें सीमा से सटे हुए राज्यों के लोगों की बातें सुनकर हमें ऐसा लगा कि कितनी गंभीर स्थिति है इन लोगों कीभारत और पाकिस्तान को एक करने के लिये हमें और मजबूती से पहल करनी चाहिएइसके लिये चाहे सैंकड़ों यात्राएँ क्यूँ निकालनी पड़ेंइसके और भी विकल्प ढूढें जाय कि जिससे सर्व समाज तक हम अपनी बात पहुंचा सकेंहम सब को मिलकर यही प्रतिज्ञा लेनी है कि भारत और पाकिस्तान के बीच में जो जाति-द्वेष, हिंसा, भेद-भाव, अहं की लकीर खिंची है उसको मिटाना है और इस जहाँ को और भी सुन्दर बनाना है

आनंद
पाठक

नहीं लौटेंगे गाँधी, हमें ही कुछ करना होगा

इक्कीसवीं सदी में जिस प्रकार की हिंसा का हमारी दुनिया को सामना करना पड़ रहा है वह एक बिलकुल अलग प्रकार की हिंसा हैं /११ के बाद से दुनिया इसे "आतंकी हिंसा " कहने लगी है वैसे, हिंसा तो हिंसा है चाहे हम उस पर कोई भी लेबल चस्पा कर दें

उन्नींसवीं सदी में युद्ध तब होते थे जब अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए कोई देश, किसी दूसरे देश पर हमला करता था कभी-कभी दो देश आपस में किसी और कारण से उन्हे लड़ थे। आतंकी हिंसा दो दृष्टियों से युद्ध की हिंसा से अलग हैं पहली यह कि आंतकी हमलों का किसी देश के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करने जैसा औपचारिक स्वरुप नहीं होता और दूसरी यह कि आतंकी हिंसा अक्सर प्रतिक्रिया स्वरुप होती है आतंकी हिंसा की तुलना गुरिल्ला युद्ध से भी नहीं की जा सकती

हाल में, नक्सलियों या माओवादियों जो भी नाम हम उन्हें देने चाहें की हिंसा ने पूरे देश कों झकझोर कर रख दिया है इसी तरह, जिस क्रूरता से पाकिस्तान में जिहादी, निर्दोषों का खून बहा रहे हैं, वह भी बहुत दु:खद है शुक्रवार २८ मई को लाहौर की अहमदी मस्जिदों में हुए हमले जिनमें सत्तर से अधिक नमाजी मारे गए-ने पूरी मानवता को कलंकित किया है

भारत ने पिछली सदी में अहिंसा के अनन्य पुजारी महात्मा गाँधी को जन्म दिया , जिन्होंने अहिंसक तरीकों से देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाई आतंकवादियों की बेजा हिंसा के चलते, कई लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं की हमारे युग में गाँधी जी के अहिंसा के सिद्धांत की तनिक भी प्रासंगिकता बची है ? क्या महात्मा गाँधी अप्रासंगिक हो गए हैं ? क्या गाँधी जयंती और शहीद दिवस पर उन्हें औपचारिक श्रद्धांजली देना ही गाँधी जी से हमारा एक मात्र रिश्ता रह गया है ?

गांधीवादी विचारकों की यह जिम्मेदारी है की वे इन प्रश्नों के उत्तर दें और इन शंकाओ का समाधान करें जो लोग स्वयं को गांधीवादी कहते हैं, क्या वे भी गाँधी जी और उनके चिंतन को गम्भीरता से लेते हैं ? या फिर गाँधीवाद एक तरह का धर्म बन चुका है जिसके अपने कर्मकांड हैं, आश्रम है और संग्रहालय हैं आखिर गाँधीवादी कहाँ हैं ? वे क्या कर रहे हैं ? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गाँधी जी की अहिंसा केवल दर्शन नहीं थी उनके लिए अहिंसा एक पवित्र धर्म था जिसकी रक्षा के लिए वे अपनी जान तक देने के लिए तैयार रहते थे वे हिंसा के विरुद्ध सडकों, चौराहों और दूर-दराज के गाँवों में संघर्ष करते थे

सन १९८० के दशक में मैं गुजरात गया था उस दौर में वहाँ जातिगत साम्प्रदायिक हिंसा को बोलबाला था मुझे गाँधी के प्रदेश में और अहमदाबाद तक में जहाँ साबरमती आश्रम है एक भी सा गांधीवादी नहीं मिला जो फिरका परस्तों के सामने हिम्मत से खड़ा हो सके या कम से कम साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ आमरण अनशन कर सके आमरण अनशन एक ऐसा प्रभावी तरीका था जिसका गाँधी जी ने साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने के लिए कई बार इस्तेमाल किया कटु सत्य तो यह है कि सन २००२ में साबरमती आश्रम के कर्ताधर्ताओ ने मेधा पाटकर और अन्य शान्ति कार्यकर्ताओं को आश्रम में शान्ति सभा तक आयोजित नहीं करने दी थी उन्हें डर था कि राज्य सरकार उन्हें मिलने वाला अनुदान बंद कर देइसे गांधीवादी किस काम के जिन्हें गाँधी के सिद्धांतों से ज्यादा प्यारा सरकारी अनुदान है ?

आईये
, सबसे पहले हम गांधीजी के अहिंसा के सिंद्धांत के मुख्य तत्वों कों समझेंगाँधी जी सत्यग्रह और अहिंसा अटूट आस्था रखते थेवे सत्य और अहिंसा दोनों के पुजारी थे सत्य और अहिंसा कों एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकतासत्य के बिना अहिंसा बेमानी है और अहिंसा-विहीन सत्य, अर्थहीन है

सत्य और अहिंसा अविभाज्य इसलिए हैं क्योंकि सत्य ही अहिंसक हो सकता है और अहिंसा केवल सीटी पर आधारित हो सकती हैसत्य कभी जोर-जबरदस्ती से लादा नहीं जा सकतासत्य एक आंतरिक भावना हैं और किसी भी प्रकार की जोर जबरदस्ती सत्य को प्रदूषित कर देगीदूसरी और हिंसा, जोर जबरदस्ती का चरम स्वरुप हैहिंसा के जरिए लोगों को वह मानने पर मजबूर किया जाता है जो वे नहीं मानना चाहतेहिंसा के कारण लोगों को वह स्वीकार करना पड़ता है जो उन्हें अस्वीकार्य हैअत: सत्य और अहिंसा परस्पर विरोधी हैं

अहिंसा प्रत्येक व्यक्ति को अंत:करण की आजादी की पूर्ण गारंटी देती हैहर व्यक्ति अपनी आस्था विश्वास के अनुरूप कार्य और व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र रहता हैस्वहित के लिए किया जाने वाला कार्य, सत्य को प्रदूषित करता है और इससे प्रेरित व्यक्ति नकली व्यवहार करता है जो अंतत: हिंसा का कारण बन सकता है । इस तरह अहिंसक व्यवहार के मुख्यत: तीन लक्षण हैं-
१. वह सच्ची आस्था व विश्वास पर आधारित होना चाहिए ।
२.वह सत्याचरण पर आधारित होना चाहिए और
३. वो अंत: करण की आवाज पर आधारित होना चाहिए ।
ऐसा व्यवहार, जिसमें इनमें से एक भी लक्षण कम है, का अंतिम नतीजा हिंसा भी हो सकती है।

डॉ
. असगर अली