इतिहास गवाह है कि आजादी से पहले भारत पाकिस्तान की सरजमीं एक थी. फिर बंटवारा तो आजादी के बाद हुआ है। बंटवारे के बाद आज लगभग ६३ साल बीत जाने पर भी दोनों देशों की ओर से बंदूकें ताने वीर सिपाही खड़े हैं, जो एक-दूसरे पर वार करने को तत्पर हैं, जबकि आम-जनता ऐसा नहीं चाहती है। आम-जनता को तो केवल शान्ति चाहिए। जिस प्रकार से शान्ति के लिये जर्मनी की जनता बर्लिन दीवार को तोड़कर संगठित हो गयी थी उसी प्रकार से भारत पाकिस्तान की आम जनता को भी चाहिए कि वह संगठित होकर बिना किसी राजनैतिक सहायता के स्वयं पहल करे ।
इसी भारत-पाकिस्तान को एक करने के सपने को अपना उद्देश्य बनाकर मैग्सेसे पुरस्कार विजेता, आशा परिवार के संचालक तथा महान सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. संदीप पाण्डेय के नेतृत्व में 'अमन के बढ़ते कदम' नामक एक सामूहिक पहल कि गई । इस यात्रा का शुभारम्भ भारत में २८ जुलाई को मुंबई के 'मणिभवन' नामक स्थान से हुआ। यह यात्रा दोनों देशों के बीच शान्ति व आपसी-प्रेम को बढाने के लिये थी। इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित चार मुद्दों पर जनता व सरकार का ध्यान केन्द्रित करना था-
१)-भारत- यात्रा के लिए वीसा व पासपोर्ट की आवश्यकता समाप्त हो जाए और जिस प्रकार से भारत के सम्बन्ध नेपाल से हैं उसी प्रकार पाकिस्तान से भी हो जाए।
२)-भारत-पाकिस्तान के किसी भी मसले का हल आपस में बैठकर मैत्रीभाव से निकाला जाए।
३)-कश्मीर के मसले का हल किसी भी देश की सरकार या कोई भी राजनैतिक पहलू को न अपनाकर वहां की जनता पर ही छोड़ दिया जाए ।
4)-भारत-पाकिस्तान की सीमा से परमाणु हथियार तथा बारूदी सुरंगों को नष्ट कर दिया जाय।
अतः समाज हित, व एक नेक उद्देश्य लेकर यात्रा मुंबई से बस द्वारा रवाना हुई और कई शहरों व कई गाँवों से गुजरते हुए भाई-चारे की भावना को बढ़ावे व शान्ति का सन्देश देते हुए १० अगस्त को दिल्ली पहुँची।
जैसी यात्रा इस देश में मुंबई से निकली थी वैसी ही यात्रा पाकिस्तान में कराची से निकली थी। इन दोनों यात्राओं के साथ में एक-एक कलश था जिसमे इस यात्रा में चलने वाले लोगों द्वारा अपने-अपने देशों में विभिन्न राज्यों व गाँवों से गुजरते हुए वहाँ की थोड़ी सी मिट्टी डाल दी जाती। और यह दोनों देशों द्वारा कलश में मिट्टी लाने का उद्देश्य केवल इतना था कि जो भी कलश में इन दोनों देशों द्वारा लायी गयी मिट्टी है उसको मिलाकर सीमा पर एक पीपल का वृक्ष लगाया जाएगा जो 'शान्ति' का प्रतीक है ।
भाई-चारे का ही बड़ा सन्देश यह था कि हमारे समूह में जो भी कार्यकर्त्ता इस कारवां में चल रहे थे वे अलग-अलग प्रान्तों व अलग-अलग धर्मों के होते हुए भी कोई उनमे जाति व धर्म के विषय में कोई मतभेद नही था । यात्रा के दौरान सभी लोग विभिन्न धर्मों के देवस्थानों जैसे मंदिरों, मस्जिदों व गुरुद्वारों में रात्रि विश्राम करते, व वहां का प्रसाद ग्रहण करते हुए यात्रा के सफल होने की मंगल कामना करते हुए आगे बढ़ते। जब सभी का उद्देश्य एक ही है -- 'भारत-पाक की शांति'-- फिर हम जाति-धर्म के नाम पर क्यूँ लड़े ? यदि ऐसे ही लड़ते रहे तो शायद भारत-पाकिस्तान को एक होने में बहुत समय लगेगा। यही विचारधारा थी यात्रा में उपस्थित लोगों की जो 'इंसानियत' को ही सबसे बड़ा धर्म मानते थे ।
इस यात्रा में जो साथी कुछ उम्रदराज थे उनमें जो उत्साह दिखाई पड़ रहा था वह युवा यात्रियों से किसी भी मायने में कम नही आँका जा सकता जिसमे सरदार गुरुदयाल सिंह, शीतल जी व मो. हनीफ गांधी जैसे लोग शामिल थे । सभी लोग एक नए उत्साह, उमंग व जोश के साथ बस में बैठकर व पैदल मार्च करते हुए और नारे लगाते हुए, जन-जन तक अपना सन्देश पहुँचाते हुए आगे बढ़ते ।
जब बस दिल्ली से सोनीपत के लिये रवाना हुई तो रास्ते से गुजरते हुए जिस भी व्यक्ति की नजर इस कारवाँ की बस पर पड़ती वह आश्चर्यचकित व अचंभित होकर तब तक देखता रहता जब तक की बस उसकी नजरों से ओझल नही हो जाती । आश्चर्य क्यूँ न हो, आखिर आश्चर्य जनक बात ही थी ।
आखिर ६३ सालों के गुजर जाने के बाद भी हम एक होते हुए भी एक क्यों नही हो पाए ? कितनी दयनीय स्थिति है यहाँ के जागरूक लोगों की जो अपने देश के लिये थोडा सा समय नही निकाल पा रहे हैं । जो भी लोग जानकार हैं उन्हें लोगों को ऐसी बातें बतानी चाहिए कि आखिर देश का विकास हो तो कैसे हो ? सरकार का लगभग ६०% का खर्चा तो सुरक्षा व्यवस्था पर ही जाता है. यदि भारत-पाकिस्तान के सम्बन्ध आपस में मधुर हो जाएँ तो यही पैसा विकास के कार्यों में लगाकर एक सम्रद्ध राष्ट्र बनाया जा सकता है।
हमारे भारतीय लोग तो पहले से ही रेलगाड़ी के डिब्बे की भांति हैं। उनको इस रेलगाड़ी के इंजन की आवश्यकता पहले भी थी और आज भी है । यदि हम लोग यह सोंचे कि राजनैतिक मसले से कोई हल निकलने वाला है तो यह संभव नही है । हमको इसके लिये स्वयं को तैयार करना होगा। यदि ऐसे खयालात से डॉ संदीप पाण्डेय जी ने पहल की है तो हमें उनका कदम- कदम पर साथ देना चाहिए । धन्य हैं वो लोग जो भारत में निकली इस यात्रा के लिये थोडा सा समय निकाल कर यात्रा में शामिल हुए।
अमृतसर के गाँधी परेड ग्राउंड में जो सेमिनार आयोजित हुआ उसमे पाकिस्तान के भी कुछ साथी सम्मिलित थे। भारत के लोगों ने उनका बड़ी ही प्रसन्नता से स्वागत किया और ऐसा माहौल बन गया कि लगता था जैसे हम सब मिलजुल कर कोई त्यौहार मना रहे हैं। कितना मनोरम दृश्य था ।
वहां पर पाकिस्तान से आये हुए लोगों की बातें व सीमा से सटे हुए राज्यों के लोगों की बातें सुनकर हमें ऐसा लगा कि कितनी गंभीर स्थिति है इन लोगों की। भारत और पाकिस्तान को एक करने के लिये हमें और मजबूती से पहल करनी चाहिए। इसके लिये चाहे सैंकड़ों यात्राएँ क्यूँ न निकालनी पड़ें । इसके और भी विकल्प ढूढें जाय कि जिससे सर्व समाज तक हम अपनी बात पहुंचा सकें। हम सब को मिलकर यही प्रतिज्ञा लेनी है कि भारत और पाकिस्तान के बीच में जो जाति-द्वेष, हिंसा, भेद-भाव, अहं की लकीर खिंची है उसको मिटाना है और इस जहाँ को और भी सुन्दर बनाना है ।
आनंद पाठक