फैसला न्याय व संविधान की भावना के अनुरूप नहीं

अयोध्या मामले पर फैसला आ चुका है। चारो तरफ सराहना हो रही है कि बहुत अच्छा फैसला है। किसी को निराश नहीं किया। सबसे बड़ी बात कि जो शांति व्यवस्था भंग होने का खतरा था व शासन-प्रशासन की किसी भी स्थिति से निपटने की पूरी तैयारी थी, वैसी कोई अप्रिय घटना नहीं घटी। शांति व्यवस्था बनी रही। लोगों ने बड़ी संजीदगी से फैसले को सुना और मामले की नजाकत को समझते हुए जिम्मेदारी का परिचय दिया।

सभी मान रहे हैं कि फैसला आस्था के आधार पर हुआ है। न्यायाधीशों की यह मंशा थी कि विवाद का हल निकल आए। यह फैसला सभी पक्षकारों को समाधान हेतु प्रेरित करने की दृष्टि से तो बहुत अच्छा है। किंतु यदि संविधान की भावना या कानून की दृष्टि से देखेंगे तो इस फैसले में दोष हैं। इस फैसले का एक खतरनाक पहलू यह भी है कि भविष्य में इस किस्म के नए विवाद खड़े होने की सम्भावना पैदा हो गई है।

भारत के संविधान में भारत को स्पष्ट रूप से एक धर्मनिर्पेक्ष देश के रूप में परिभाषित किया गया है। हम किसी एक धर्म को मानने वालों की भावनाओं को किसी अन्य धर्म को मानने वालों की तुलना में अधिक महत्व नहीं दे सकते। किंतु अयोध्या विवाद फैसले में ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दुओं की आस्था, कि भगवान राम ठीक बाबरी मस्जिद की बीच वाली गुम्बद के नीचे पैदा हुए थे, को ही फैसले का आधार बना लिया गया है। कानून की दृष्टि से तथ्य हमेशा महत्वपूर्ण होता है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में खड़ी बाबरी मस्जिद जिसको 6 दिसम्बर, 1992, को सबने ढहते देखा व जिसमें 1949 तक नमाज अदा की जाती रही हो को हिन्दुओं की आस्था के मुकाबले कम महत्व दिया गया है।

एक तरफ प्रत्यक्ष बाबरी मस्जिद थी तो दूसरी तरफ आस्था के अलावा न्यायालय के आदेश पर 2003 में विवादित स्थल पर करवाई गई खुदाई में निकले एक मंदिर के कुछ अवशेष। वैसे पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिर्पोट में मंदिर के अवशेषों के अलावा भी खुदाई में पाई गई तमाम चीजों का जिक्र है। किंतु निष्कर्ष में मस्जिद निर्माण के पहले इस स्थल पर एक मंदिर होने की बात कही गई है जो पूर्वाग्रह से ग्रसित लगती है। वैसे यदि मान भी लिया जाए कि बाबरी मस्जिद बनाए जाने के पहले उस स्थल पर एक मंदिर था, फिर भी ठीक यही जगह राम जन्म भूमि ही है इस बात का क्या प्रमाण हो सकता है ? न्यायालय ने भी इस बात को आस्था के आधार पर ही माना है। किन्तु सवाल यह है कि क्या किसी न्यायालय का फैसला आस्था के आधार पर हो सकता है ?

अपने देश में यह व्यवस्था है कि आजादी के दिन जो धार्मिक स्थल जैसा था उसे वैसा ही स्वीकार किया जाए। लेकिन अयोध्या विवाद के फैसले में करीब 500 वर्षों से भी पहले बने एक मंदिर, जिसके सबूत अस्पष्ट ही हैं, को हाल तक अस्तित्व में रही मस्जिद की तुलना में ज्यादा तरजीह दी गई है।

एक न्यायाधीश महोदय ने तो अपने फैसले में यहां तक कह दिया है कि अब विवादित भूमि पर राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। ज्ञात हो कि मूल विवाद स्वामित्व का है। न्यायालय को २२/23 दिसम्बर, 1949 की रात जो राम लला की मूर्तियां राम चबूतरे से मस्जिद के अंदर रखी गईं उस पर भी निर्णय सुनाना था। विवादित स्थल पर राम मंदिर बने या न बने इस पर न्यायालय को कोई निर्णय ही नहीं करना था। वैसे भी राम मंदिर बनाने की बात तो अस्सी के दशक में पहली बार की गई थी। यह कितनी मजेदार बात है कि जिन बिन्दुओं पर न्यायालय से निर्णय की अपेक्षा थी उन पर कोई निर्णय न देकर वह अपने कार्यक्षेत्र ये बाहर जा कर कुछ निर्णय सुना रही है।

विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाने की बात कर न्यायाधीश महोदय ने 6 दिसम्बर, 1992, को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की कार्यवाही, जिस पर अभी एक आपराधिक मुकदमा चल रहा है, को एकाएक जायज ठहरा दिया है। क्योंकि यदि न्यायालय यह मानती है कि हिन्दुओं की आस्था के अनुसार विवादित स्थल ही राम जन्म भूमि है तथा एक न्यायाधीश को यह लगता है कि वहां राम मंदिर भी बनना चाहिए तो यह राम मंदिर वहां से बाबरी मस्जिद को बिना हटाए तो बन नहीं सकता। यह रोचक होता यदि बाबरी मस्जिद अभी भी खड़ी होती तो न्यायाधीश महोदय क्या फैसला देते ?

इस फैसले से भविष्य में नए विवाद खड़े हो सकते हैं। आस्था के आधार पर कोई गैर-कानूनी कार्यवाही कर किसी जगह पर दावा कर सकता है। ऐसी कार्यवाही सामूहिक हो और विशेषकर बहुसंख्यक समाज का समर्थन उसे हासिल हो तो न्यायालय के लिए उचित निर्णय लेना मुश्किल हो जाएगा। फिर अयोध्या फैसला तो एक नजीर बन जाएगा।

इस विवाद ने देश की राजनीति को बहुत पीछे ढकेल दिया है। मंहगाई, खाद्य निगम के गोदामों में सड़ता अनाज, कृषि मंत्री का यह कहना कि भले ही यह अनाज सड़ जाए किंतु गरीबों को नहीं दिया जा सकता, पहले आई.पी.एल. घोटाला व फिर राष्ट्रमण्डल खेलों में भी शर्मनाक घोटाला, जम्मू-कश्मीर में लोगों का असंतोष और भारत सरकार की स्थिति से निपटने में नाकामी, कारपोरेटीकरण के दौर में जगह-जगह छिड़े लोगों के अपनी जमीनों को बचाने के संघर्ष, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीशों का भ्रष्टाचार - ऐसे सारे मुद्दें जिनसे इस देश की जनता का सरोकार है दब गए और जन मानस में अयोध्या फैसले कर भय व्याप्त रहा। यह तथ्य कि फैसला आने से ही शांति भंग की आशंका थी साबित करता है कि इस मुद्दें में हिंसा के बीज छुपे हैं। पहले ही देश इस मुद्दें की वजह से हुई हिंसा से काफी खामियाजा भुगत चुका है।

असल में बाबरी मस्जिद के बीच वाले गुंबद के ठीक नीचे राम जन्म भूमि बताना ही झगड़ा खड़ा करने वाली बात है। यदि आम हिन्दू जिसकी आस्था के नाम पर फैसला हुआ है से पूछा जाए तो शायद वह यह कहे कि उसका कोई ऐसा दुराग्रह नहीं है और न ही वह कोई झगड़ा चाहेगा। यदि हिन्दुत्ववादी संगठन राम मंदिर बनाने को इतना ही इच्छुक हैं तो वे इस मंदिर को अयोध्या स्थित विश्व हिन्दू परिषद के स्वामित्व वाली कारसेवकपुरम की भूमि पर क्यों नहीं बना लेते ? क्या भगवान राम को इस बात का मलाल रहेगा कि उनका भव्य मंदिर ठीक जन्म भूमि वाले स्थान पर नहीं बना ? या इसे हिन्दुओं की आस्था, जो फिलहाल हिन्दुत्ववादी संगठनों ने अपहृत कर ली है, में कोई कमी माना जाएगा ? मुख्य सवाल यह है कि धर्म के नाम पर राजनीति को भारत के आधुनिक लोकतंत्र में कितनी जगह दी जाएगी ? यह बात हम कब कहेंगे कि धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं होना चाहिए।

अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला संविधान के धर्मनिर्पेक्षता के मूल्य और कानून व न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। इससे भारत के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है।

संदीप पाण्डेय