[English] तपेदिक या टीबी को एक सूचनीय रोग घोषित करके जहां एक ओर भारत सरकार का पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीसीपी) सराहना का पात्र है, वहीं दूसरी ओर उसे उन अनेक सावधानियों का पालन करना भी अनिवार्य होगा जिनके बगैर सभी टीबी रोगियों को उपचार सेवाएँ उपलब्ध कराना संभव नहीं होगा। सरकार के लिए कदाचित खतरे की घंटी तब बजी जब मुंबई में अत्यधिक औषधि प्रतिरोधक टीबी ( टोटली ड्रग रेसिस्टेंट टीबी) के मामले सामने आए, जिसके फलस्वरूप भारत सरकार ने टीबी को सूचनीय रोगों में शामिल करने का निर्णय लिया।
इसके कुछ सकारात्मक परिणाम अवश्य निकलेंगे—जैसे कि सभी निजी डाक्टरों, स्वास्थ्य प्रबन्धकों, प्रयोगशालाओं एवं अन्य देखभाल करने वालों को प्रत्येक टीबी केस की सूचना सरकार को देनी होगी, जिससे देश में टीबी रोग की स्थिति का वास्तविक विश्लेषण हो सकेगा कि देश में टीबी रोगियों की संख्या कितनी है, उनमें से कितने सरकारी उपचार सेवाओं का लाभ उठा रहे हैं, और कितने निजी क्षेत्र के डाक्टरों से उपचार ले रहे हैं। इस प्रकार की अन्य जानकारी प्राप्त होने से जन स्वास्थ्य संबंधी सकारात्मक नतीजे निकाल सकते हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के टीबी डिवीज़न के महानिदेशक डा अशोक कुमार ने आईबीएन लाइव टीवी न्यूज़ में कहा कि, “टीबी केसों की सम्पूर्ण जानकारी होना बहुत आवश्यक है।अत: सभी स्वास्थ्यकर्मी अपने क्षेत्र के प्रत्येक टीबी रोगी की जानकारी प्रत्येक माह एक निर्धारित प्रपत्र पर स्थानीय अधिकारियों, जैसे जिला स्वास्थ्य अधिकारी,मुख्य चिकित्सा अधिकारी, नगरपालिका के स्वास्थ्य अधिकारी को अनिवार्यत: प्रदान करेंगे”।
परंतु इस नियम के दु:खद परिणाम भी हो सकते हैं, विशेषकर उन लोगों के लिए जिन्हें टीबी उपचार सेवाएँ अभी उपलब्ध ही नहीं हैं और जिनकी इस नयी व्यवस्था के चलते अनेक कारणों से भूमिगत होने की संभावना बढ़ने से वे निजी अथवा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने में बाधित हो सकते हैं। इस सबके टीबी नियंत्रण और स्वास्थ्य व्यवस्था पर व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं।
आरएनटीसीपी के अनुसार 2010 में केवल 73% नए टीबी रोगियों की पहचान की जा सकी। इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि हमारी सरकारी आरएनटीसीपी व्यवस्था अनुमानित 27% टीबी रोगियों तक नहीं पहुँच पा रही है। क्या टीबी को एक सूचनीय रोग घोषित कर देने से इन रोगियों तक पहुँचने में मदद मिल सकेगी? यह एक गंभीर और विचारणीय प्रश्न है जिसका कोई सीधा उत्तर नज़र नहीं आता है।
इसके अलावा रोगी की निजी गोपनीयता को लेकर भी कई समस्याएँ उठ सकती हैं जैसे इलाज में चूकने वाले रोगियों को ज़बरदस्ती आइसोलेशन वार्ड में अलग रख कर इलाज करना आदि।
इसके अलावा एक और मानव अधिकार संबंधी मुद्दा है। आरएनटीसीपी के आकड़ों के हिसाब से भारत में प्रत्येक वर्ष 100,000 व्यक्ति अति प्रतिरोधक टीबी अथवा मल्टी ड्रग रेसीसीटेंट टीबी (एमडीआर)टीबी के शिकार होते हैं, जिनमें से दिसंबर 2011 तक केवल 3610 रोगियों को आरएनटीसीपी के तहत इलाज उपलब्ध कराया जा सका था। आरएनटीसीपी के अनुसार वह 2013 तक इस संख्या को बढ़ा कर 30,000 एमडीआर टीबी रोगियों का इलाज कर पाने में सक्षम होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक वर्ष 70,000 ऐसे रोगी फिर भी उचित उपचार से वंचित रहेंगे। यह कैसा सामाजिक न्याय है? जब सरकार सभी टीबी रोगियों को इलाज उपलब्ध कराने में असमर्थ है तो केवल टीबी को सूचनीय बनाने से समस्या का हल निकलने के बजाय वह और गंभीर रूप धारण कर सकती है। क्या हमने कभी यह सोचा है इस नियम का उन रोगियों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा जिन्हें अपनी गोपनीयता को ताक पर रख कर अपने एमडीआर टीबी से ग्रसित होने की सूचना तो सरकार को देनी है, पर उसको इलाज नहीं मिल सकता? वर्तमान में केवल 3% से कम एमडीआर रोगियों को सरकारी इलाज की सुविधा मिल पा रही है, और बाकी 97% को किसी भी प्रकार उपचार, देखभाल और सहायता नहीं मिल पा रही है जिसकी उन्हें नितांत आवश्यकता है। इसके अलावा उन समुदायों (जैसे एड्स के साथ जीवित व्यक्ति, इंजेक्टिंग ड्रग यूजर्स, अवैध प्रवासी आदि) जिनमें टीबी होने का खतरा अधिक है, पर भी इस नियम के विपरीत प्रभाव ही पड़ने की संभावना है।
एक विशेषज्ञ के अनुसार “आरएनटीसीपी को नागरिक समाज के साथ मिल कर इस विषय पर एक खुले मंच पर परिचर्चा और बहस करने के बाद ही यह तय करना चाहिए कि टीबी को एक अनिवार्य सूचनीय रोग घोषित करने की नीति के टीबी रोगियों पर क्या परिणाम हो सकते हैं। यदि इस नीति का सही तरह से परिपालन नहीं किया गया तो रोगियों को सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ सकता है जिसके चलते उनके भूमिगत होने अथवा देर से उपचार की मांग करने की संभावना बढ़ सकती है। कम से कम सरकार को इस विषय पर एक वार्तालाप तो करना चाहिए कि इस नीति का किस प्रकार प्रतिपालन किया जाय जिससे रोगी को चिकत्सीय गोपनीयता, मानसिक अवलंबन, और उचित इलाज मिल सके जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निदेशों में इंगित है”।
केवल टीबी को सूचनीय रोग घोषित करने से ही समस्या का हल नहीं निकलेगा। एक सार्थक टीबी नियंत्रण कार्यक्रम में टीबी से प्रभावित समुदायों को टीबी कार्यक्रमों का एक अहम हिस्सा मान कर उनकी बराबर की मर्यादित साझेदारी होना; उन्हे उच्च कोटी का परामर्श मिलना; बेहतर उपचार एवं स्वास्थ्य साक्षरता होना, समाज में व्याप्त टीबी संबन्धित भेदभाव दूर करना; उपचार पद्यति में डाट्स प्रोग्राम से कुछ अलग हट कर सोचना; टीबी कार्यक्रमों का अन्य विकास कार्यक्रमों (जैसे पोषण, स्वच्छता, दवाओं का दुरुपयोग, एड्स, डायबिटीज़ आदि) से एकीकरण करना; और स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृद करना नितांत आवश्यक है। तभी हम समाज से टीबी का प्रकोप दूर करने में सक्षम हो सकेंगे।
शोभा शुक्ला एवं बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.
(लेखक ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. के संपादक हैं। ईमेल: stoptb@citizen-news.org)