42 वर्षीय राशिद अली, एक मध्यमवर्गीय परिवार से हैं और लखनऊ में जरदोज़ी के काम का बिजनेस करते हैं। 1990 में उन्हें टीबी हो गई थी जिसका 18 महीने तक इलाज चला था। पिछले 8 सालों से दमा (अस्थमा) से ग्रस्त होने के बावजूद वे एक सामान्य जीवन बिता रहे हैं। उन्होने बताया कि, ‘मैं अब बिलकुल ठीक हूँ, और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में मुझे कोई परेशानी नहीं है। इसके लिए मैं अपने डाक्टर का शुक्रगुजार हूँ, जिनके सही इलाज और उम्दा देखरेख की वजह से ही मैं अपने दमे पर काबू पा सका हूँ। उन्होने मुझे एक इन्हेलर दिया है जिसका अब मुझे कभी कभार ही इस्तेमाल करना पड़ता है। शुरू शुरू में ज़्यादा इस्तेमाल करना पड़ता था। उन्होने मुझे कभी खाने की गोली नहीं दी। इन्हेलर के जरिये ही दवा मेरी साँस की नली में जाती है। इसमें तकरीबन हर महीने 150 रुपये का खर्च आता है। मैं और मेरे घरवाले खुदा के शुक्रगुजार हैं कि मुझे एक उम्दा डाक्टर से सही इलाज मिल सका”।
राशिद भाई दुनिया भर में अस्थमा (दमा) से जूझ रहे 23.5 करोड़ लोगों में से एक हैं। वैश्विक स्तर पर प्रत्येक 250 मौतों में एक का कारण अस्थमा ही है। भारत में दमा के लगभग 240 लाख रोगी हैं, जो विश्व भर के दमा रोगियों का 10% है। भारतीय बच्चों में 2% से लेकर 12% बच्चे इस श्वास रोग से प्रभावित हैं। अस्थमा एक यूनानी शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘साँस का फूलना’। दमा रोग के मुख्य लक्षण हैं खाँसी और साँस का फूलना जो ऐलर्जी पैदा करने वाले तत्वों के कारण भीषण रूप धारण कर लेते हैं। अनुवांशिक कारणों के अलावा अनेक ऐसे बाहरी तत्व हैं, जो फेफड़े के अंदर एलर्जी पैदा करके अस्थमा के लक्षणों को तीव्र कर देते हैं, जैसे फूल के पराग कण, धूल, सिगरेट का धुआँ, ट्रैफिक का धुआँ, आदि। इसके साथ ही मानसिक तनाव, कुछ खाड़ी पदार्थ, मोटापा, मौसम में बदलाव भी अस्थमा के कारण हो सकते हैं।
चूँकि अस्थमा के लक्षण अन्य श्वास रोगों, जैसे टीबी, से मिलते जुलते हैं, इसलिए इस रोग की सही पहचान करने में अक्सर बाधा आती है, (विशेषकर बच्चों में), जिसके कारण इस रोग का उपचार या तो हो ही नहीं पाता या विलंब से होता है। लखनऊ के वरिष्ठ चेस्ट रोग विशेषज्ञ डा बी बी सिंह जी के अनुसार, “यदि बच्चे को निरंतर खांसी और श्वासनली के ऊपरी भाग का संक्रमण हो तो अक्सर चिकित्सक उसे गलती से प्राइमरी कांप्लेक्स समझ कर टीबी का इलाज शुरू कर देते हैं। यह बेहद चिंता का विषय है, क्योंकि इस प्रकार न केवल रोग की गलत पहचान होती है, वरन दवा का दुरुपयोग भी होता है”।
अस्थमा का इलाज तो मुमकिन नहीं है, परंतु इसका नियंत्रण सहजता से संभव है। अत: अस्थमा के बारे में लोगों को उचित जानकारी दे कर जागरूक करने की आवश्यकता है, ताकि वे एक स्वस्थ और सामान्य जीवन जी सकें। डा सिंह का कहना है कि, “समस्या यह है कि जन साधारण में अस्थमा संबधित पर्याप्त जागरूकता का अभाव है और अधिकांश अस्थमा रोगियों को उच्च कोटी की उचित चिकित्सीय सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। मुंबई में हुए एक शोध के अनुसार अनेक चिकित्सकों में भी अस्थमा संबंधी इलाज एवं नियंत्रण के बारे में पर्याप्त ज्ञान नहीं था। अस्थमा का सही नियंत्रण इन्हेलर के द्वारा ही संभव है। इन्हेलर प्रणाली द्वारा कोर्टिकोस्टीरोयड दवा को श्वास में अंदर लेने से दमा पूर्ण रूप से नियंत्रित रहता है और इन्हेलर के दीर्घकालीन सेवन से भी न तो कोई विपरीत लक्षण (साइड इफेक्ट) होते हैं न ही इसका नशा होता है। द यूनियन के फेफड़े विभाग के निदेशक डा चियांग सेन युआन के अनुसार, “इन्हेलर के जरिये कोर्टिकोस्टीरोयड को श्वास में अंदर लेने से अधिकांश रोगी अस्थमा को नियंत्रित कर एक सामान्य जीवन व्यतीत कर सकते हैं। परंतु दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांश अस्थमा रोगियों को इन्हेलर कोर्टिकोस्टीरोयड उपलब्ध नहीं है। एक शोध के अनुसार विश्व भर के 20% से भी कम अस्थमा के रोगी इस सर्वोत्तम अस्थमा नियंत्रक प्रणाली का लाभ उठा पाते हैं। अनेक विकासशील देशों में या तो ये इन्हेलर बहुत महँगे हैं या फिर जनसाधारण एवं चिकित्सकों को इनके बारे में उचित जानकारी नहीं है”।
भारत में भी 70% से अधिक रोगी खाने वाली गोली के रूप में अस्थमा की दवा का प्रयोग करते हैं, जो इन्हेलर के समान असरदार नहीं होती है और जिसके खतरनाक साइड इफेक्ट होते हैं। डा सिंह के अनुसार इसका मुख्य कारण है रोगियों और चिकित्सकों में समुचित जानकारी का अभाव, तथा जन साधारण में अस्थमा को लेकर प्रचलित भ्रांतियाँ जैसे इन्हेलर की लत पड़ जाती है, इसके विपरीत प्रभाव होते हैं, इसका नियमित इस्तेमाल मुश्किल है, आदि। वास्तविकता तो यह है कि इन्हेलेशन थेरेपी में दवा की मात्रा बहुत कम (माइक्रो ग्राम) होती है तथा इन्हेलर के द्वारा यह सारी की सारी औषधि सीधे फेफड़ों में पहुँचती है जहाँ उसकी आवश्यकता होती है। शरीर के बाकी अंग उसके प्रभाव से अछूते रहते हैं। फिर साइड इफेक्ट का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसके विपरीत गोली के रूप में मुँह से दवा खाने पर, उसमें औषधि की मात्रा तो 10 गुना अधिक (मिलीग्राम में) होती है, परंतु केवल 1% दवा ही फेफड़ों में पहुँच पाती है और बाकी रक्त में मिल कर शरीर के अन्य हिस्सों में पहुँच कर उन्हें नुकसान पहुंचाती है। इससे खाने वाली दवा का असर भी कम होता है और साइड इफेक्ट भी कहीं ज़्यादा होते हैं। यह बात दमा के रोगियों को समझना बहुत ज़रूरी है।
छत्रपती शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पलमोनरी मेडिसिन विभाग के प्रमुख प्रोफेसर (डा) सूर्यकांत के अनुसार, “इन्हेलर द्वारा की जाने वाली चिकित्सा प्रणाली पर प्रति दिन मात्र 4-5 रुपये का खर्च आता है, इसलिए अस्थमा का इन्हेलर द्वारा उपचार बहुत ही सस्ता है। इन्हेलर हमारे चश्मे की तरह हैं। जिस प्रकार आँखें कमजोर हो जाने पर हम बेझिझक चश्मा पहनते हैं, उसी प्रकार श्वासनली कमजोर हो जाने पर हमें इन्हेलर का नियमित इस्तेमाल करने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। जैसे हम रोज़ अपने दाँतों को टूथपेस्ट से साफ करते हैं, उसी प्रकार अस्थमा के रोगी को सुबह शाम इन्हेलर का प्रयोग करके एक सामान्य जीवन जीना चाहिए। इसके साथ साथ जल नेति (पानी से नाक के अंदर की सफाई) करने से अस्थमा को बढ़ावा देने वाले एलर्जी तत्व साफ हो जाते हैं।”
उचित उपचार करने के साथ साथ अस्थमा के रोगी को ऐसे कारणों से बचना चाहिए जिनसे अस्थमा तीव्र हो सकता है, जैसे तंबाकू/सिगरेट का धुआँ, धूल, पराग कण, मानसिक तनाव, अधिक परिश्रम, आदि। यदि अस्थमा नियंत्रण प्रभावकारी और व्यवस्थित ढंग से अविलम्ब नहीं किया गया तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। न केवल अस्थमा रोगी को एक स्वस्थ और सामनी जीवन-यापन करने का अधिकार है, वरन अस्थमा नियंत्रण सरल भी है, यदि इसे सुचारु रूप से लागू किया जाय। यूनियन की सलाहकार प्रोफेसर नादिया के शब्दों में, “समय रहते अस्थमा का निदान तथा दीर्घ कालिक प्रबंधन करके हम न केवल अस्थमा रोगियों को एक आम और स्वस्थ सामाजिक एवं व्यावसायिक जीवन प्रदान कर सकते हैं, वरन अस्पताल और दवा पर हो रहे उनके निजी और सरकारी अनावश्यक आर्थिक खर्चों को भी कम कर सकते हैं”।
शोभा शुक्ला -सी.एन.एस